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कहानी

तेज़ाब

राजीव कुमार


स्कूल में जब प्रार्थना चल रही थी उस वक्त जो शोर दूर से आ रहा था, प्रार्थना के खत्म होते-होते स्कूल के मैदान में पहुँच गया। जुलूस में सरयू बाबू सबसे आगे थे। वे हाँक लगाते, "राजा नहीं रार है..." भीड़ चिल्लाती, "छिपा हुआ सियार है।" 'सरस्वती माता की जय...' करके हम लोग क्लास में जाते, जहाँ न हाँक होता, न धूप होती। किताब-कॉपी, कलम होती और सलोनी होती। पहली ही घंटी हिसाब की होती। नगीना बाबू सबको पाठ खोलकर समस्या हल करने को कहते। क्लास समस्या में सच्ची-झूठी व्यस्त हो जाती। मैं कॉपी पर पेन पटकते हुए असंख्य बिंदु बनाता और सलोनी को निहारता। बीच में कुसुम के कोंचने पर वह पलटकर पीछे देखती, कभी तो मुस्करा देती, कभी 'हूँह' कहते हुए होंठ और गाल को और बाएँ भींचती। मतलब। 'घेंगे से'। लड़कियाँ यह सब देखकर क्या सोचती थीं यह बहुत बाद में सलोनी बताने वाली थी। लेकिन लड़के? वे मेरे सामने तो वाह-वाह करते और भाभी का, बकौल उनके जो सलोनी को कभी बनना था, का हाल पूछते, पर पीछे वह कहते, 'मरेगा'। किशोर, पिंटू एवं प्रवीण को यह विश्वास विशेष रूप से था। उन दिनों विदुर और बद्री भी प्रार्थना करते कि मुझे सद्बुद्धि आ जाए। रामनगर विधानसभा की पूरी डोरी में सलोनी के चाचा सुमेर नेता जी को हर कोई जानता है। भले ही जमानत जब्त हारे, लेकिन विधायक लड़े थे। ईंट का भट्ठा उनका है, बाजार उनकी जमीन पर लगता है, दो ट्रक उनका चलता है, खुद का अरजा सैंकड़ों बीघा खेत हैं। कोई हँसी-मजाक है। रामनगर-धामपुर है कि बंबई है। फिल्म का कायदा चलाएगा। बाप मुखिया लड़ता है तो लैला-मजनूँ बनेगा। हिस्ट्री में ऐसा हुआ है कि कोई बनिया-बकाल सिंह की बेटी से 'तोता-मैना' करे। बात इस ठिकाने तक आगे जाकर पहुँचनी-न-पहुँचनी थी। इधर तो बीच में ही लफड़ा फँस गया था। स्कूल के मैदान में सरयू बाबू बिना किसी आयोजन, बिना किसी आमंत्रण के आ डटे थे और बिना ध्वनि विस्तारक यंत्र के ही, गले के जोर पर छात्रों को संबोधित करने लगे थे, "मित्रों, धोखा हुआ है। वी.पी. भ्रष्टाचार के नाम पर राजीव को बेदखल किए थे। लोगों को बरगलाकर हाथ के बदले चक्कर पर मुहर लगवा लिए। कहाँ है तोप? पैंतरा बदल रहे हैं। नौकरी नहीं देने का इंतजाम हो रहा है। आप लोग पढ़कर कहाँ जाइएगा।"

नारा गूँजा, 'राजा नहीं रार है। छिपा हुआ सियार है।'

"दिल्ली... दुनिया में सब जगह छात्र विरोध कर रहे हैं। गोस्वामी नाम के काबिल लड़के ने अपने को फूँक लिया। सपूत है। आज गोस्वामी ने किया है, कल आपको करना होगा। कौनो उपाय नहीं बचा है।"

सरयू बाबू फिर हेड मास्टर साहब की ओर मुड़ गए।

"पुस्तकालय की मीटिंग में आप ही न सभापति बनाए थे। आप बोले थे कि आदमी ईमानदार है। किसी के हक में सेंध मारना ईमानदारी है? आप भी चलिए, बीडीओ के कार्यालय पर धरना है। स्कूल बंद करवाइए।"

"आप लोग धरना कीजिए। शाम में चंदू हलुआई के होटल में मिलते हैं।" सरयू बाबू के प्रस्ताव पर मास्टर साहब सकपका गए थे।

"नहीं, हम लोग राजनीति करते हैं। विद्या-बुद्धि का काम आपका है। हम सब हैं, पर आपके रहने से वजन बढ़ेगा। हम लोग बीपीया को जानते थे क्या? आप पर भरोसा किए थे न। चलिए, नहीं तो... रामदीन... लाइए हो गैलन।"

पीछे से मिट्टी तेल के गैलन के साथ रामदीन आश्चर्य की तरह प्रकट हो गया। यह देखकर कि सरयू अगिया-बेताल हैं। यहीं पर नहीं नाटक मच जाए, वे बोले, "चलिए।" सरयू बाबू छात्रों को भी हाँकने लगे। यह देखकर कि हेडमास्टर साहब भी हैं हम लोग भी अपनी साइकिल के साथ जुलूस में शामिल हो गए। हालाँकि मेरी इच्छा नहीं थी, सलोनी स्कूल में थी, पर प्रवीण, पिंटू, किशोर, विदुर, बद्री के आगे मेरी एक न चली। आगे-आगे जुलूस -

"इंकबाल जिंदाबाद।"

"राजा नहीं रार है। छिपा हुआ सियार है।"

पीछे हम लोग -

"बात क्या है, यह तो पता चले।" प्रवीण से नहीं रहा गया।

"अब नौकरी नहीं लगेगी किसी की।" पिंटू बोला।

"नहीं, यह बात नहीं है, सरकारी में छोटका जात जाएगा।" किशोर का कहना था।

"नहीं, मिलेगा सबको। पहले जो जात नौकरी में कम था, उस सबको ज्यादा मिलेगा।" विदुर ने संशोधन किया।

हम लोग ऐसे ही अंदाज लगाते, साइकिल का अगला पहिया टकराते हुए ब्लॉक ऑफिस पहुँच गए थे। वहाँ सरयू बाबू, 'छिपा हुआ सियार है' कहने में सारा जोर लगा दी थे। वे ब्लॉक ऑफिस में झंडा फहराने के लिए बनाए गए चबूतरे पर चढ़ गए थे और 'सरकार मुर्दाबाद, 'प्रशासन मुर्दाबाद' का नारा लगाने लगे थे। हम लोग कभी साथ दे देते, कभी चुप लगा देते। ब्लॉग में काम-काज के लिए आए लोग उजबक के माफिक यह सब देख रहे थे। तमाम तरह के मुर्दाबाद का ऐलान करने के बाद वे भौचक्क लोगों को संबोधित करने लगे - "नया सरकार नौकरी देने में बड़ा खेल कर दिया है... नौकरी नहीं देंगे तो काहे पढ़ा रहे हैं... जयप्रकाश बाबू वाला आंदोलन फिर से होगा। ब्लॉक फूँक देंगे, थाना फूँक देंगे, प्रशासन को मिट्टी में मिला देंगे।"

रामदीन जो मिट्टी तेल से भरा गैलन लिए पीछे खड़ा था, आगे मुस्तैद हो गया। अब तक ब्लॉक से लगे थाना से कुछ पुलिस आ गए थे, उनमें से एक ने रामदीन के हाथ से मिट्टी का तेल का गैलन छीन लिया और थाना पर भेजवा दिया।

इधर सरयू बाबू जारी थे "...तो आइए। आप लोग भी इस मामले में अपनी बात कहिए। आइए, दरोगा जी, बीडीओ साहेब आइए... आप लोग देश-दुनिया के जानकार हैं।"

युवा बीडीओ ने तो दूर से ही हाथ जोड़ दिया, लेकिन दरोगा साहेब जो सरयू बाबू की जाति के थे, सरयू बाबू के कर्नाटक में घूस के बल पर इंजीनियरिंग पढ़ रहे लड़के और उनके सैंकड़ों बीघे जमीन के आधे हिस्से पर अपनी बेटी के लिए नजर रखे हुए थे, पूरा एरिया उनसे डरता कम और उनका आव-भगत ज्यादा करता था, जो अभी से ही समधी जी तथा जिनकी लड़की दुल्हन कहलाने लगी थी, पूरा एरिया जिनकी लड़की का काल्पनिक देवर अथवा ससुर बना हुआ था, ऐसे दरोगा जी कुछ बोलने के लिए ताव खा गए और झंडा वाले चबूतरा पर चढ़ गए। चबूतरे पर उनके चढ़ते ही किसी ने जयकारा लगा दिया, 'समधी जी', भीड़ ने हर्षध्वनि की 'जिंदाबाद'। इधर दारोगाजी गरजे, "भाइयों, हँसी मजाक तो होगा ही, और आप लोगों के आशीर्वाद से दरी-जाजिम पर शमिया में बैठकर होगा, पर इस समय समस्या गंभीर है... हम प्रशासन के आदमी हैं, पर जनता भी तो है, आप लोग देख ही रहे हैं वोट कैसे हुआ, और अब कौन खेला हो रहा है... रेडियो पर सुने ही होंगे कि लड़का सब जान दे रहा है... सरयू बाबू का जान आपके हाथ में है। आइए मास्टर साहिब...।"

इधर मास्टर साहेब मंच पर चढ़े, उधर सरयू बाबू को दारोगाजी एकांत में ले जाकर संवाद करने लगे, "आप तो एकाएके बुला लिए। जानते हैं कि बीडीओ का जात थोड़ा उधर के समर्थन वाला है। खैर, बुला ही लिए तो हम भी सब बात कह दिए।"

दारोगाजी और सरयू बाबू एकांत हुए थे तो हम लोगों का कान उधर लग गया पर असली ध्यान मास्टर साहब पर था।

"भाइयों... बच्चों... आप सभी जानते हैं कि वीपी जी ने कहा था कि भ्रष्टाचार खत्म होगा... अब नौकरी खत्म कर रहे हैं... हम तो गुरु हैं। हमारे यहाँ कोई भेदभाव नहीं है... पढ़ाई में... वजीफा भी देते हैं... पर सरकार नौकरी में भेद की योजना बना रही है, ठीक नहीं है यह।" मास्टर साहब अपनी बात समाप्त किए तो हम लोगों ने मन-बेमन से उनका भी जिंदाबाद किया। दरअसल किशोर एकाएक चिल्ला पड़ा था, "मास्टर साहब", फिर जिंदाबाद कहने के सिवा क्या बचता था।

अब तक बहुत सारे लोग खिसक लिए थे। खुले मैदान में तेज धूप थी, पर चूँकि मामला ताजा एवं सनसनाता हुआ था, हम लोग उसकी परवाह न कर डटे हुए थे। तभी सरयू बाबू हम लोगों को ललकार दिए थे, "यह आंदोलन आप लोगों के बल पर चलेगा। आप लोगों के लिए ही यह सब है। जयप्रकाशजी के दौरान छात्र-आंदोलन हुआ था। लालू यादव, रामविलास पासवान उसी से नेता बने। एकाएकी आप लोग भी आइए। कुछ कहिए। दिल्ली तक बात पहुँचाना है। रामनागरे दिल्ली को डुलाएगा।"

सरयू बाबू ने ज्यों ही मौका उछाला, सबसे पहले उनके लड़के किशोर ने ही उसे लपक लिया। वह तड़ाक से चबूतरा चढ़ गया।

"हाँ, हम लोग स्कूल बंद करेंगे। नौकरी नहीं देगा तो काहे पढ़ेंगे? जय हिंद।"

किशोर के बोलने के बाद न जाने कैसे बजना तो ताली था, पर सबने हें-हें कर दिया।

सरयू बाबू ने फिर औरों को बुलाया, लेकिन विदुर भाव खा गया। वह नीचे ही मुझे बोला, "मुझे क्या मतलब है! यही सब हमको कर्पूरी ठाकुर कहता है। मेरा नाम नहीं क्या?" विदुर नाई जाति का था। क्लास में फर्स्ट डिविजन का अंक एवं थर्ड रैंक लाता था। हिसाब के मास्टर नगीना बाबू बात-बात में उसका अंक काट लेते थे, नहीं तो सेकेंड रैंक पाता। पूरी समस्या हल करने के बाद अगर जरा-सी चूक हुई, अगर उसने '360 रु. उत्तर' की बजाए '360 उत्तर' लिख दिया कि अंक शून्य। भाषा के मास्टर अखौरी जी वर्ग में आते ही कहते, "ठाकुर जी चौक-डस्टर एवं छड़ी ले आइए।"

यह बेमतलब की दौड़ ठहरती। एक तो हाजरी बही में विदुर का नाम विदुर कुमार था, उसमें ठाकुर नहीं लगा था, दूसरा अखौरी जी ने चौक-डस्टर-छड़ी का कभी इस्तेमाल किया हो, स्कूल के इतिहास में इसकी एक भी मिसाल न थी।

विदुर के 'न' के बाद हेडमास्टर साहब ने मुझे बुलाया, "मेरे स्कूल का फर्स्ट लड़का आशुतोष आ रहा है।" मैं भी 'न' में ही शामिल था। हेडमास्टर से मेरी भी खुन्नस थी। स्कूल में उनके ट्यूशन चलाने के बावजूद मैं ट्यूशन के लिए बहार जाता था, जहाँ बाद में सलोनी भी आने लगी थी, इस कारण वे मुझे नजर में चढ़ाए रहते। दूसरे वे मुझे, विदुर एवं बद्री को हमारे पिता के नाम से बुलाते - फलाने का बेटा, जबकि किशोर, पिंटू वगैरह के साथ ऐसा नहीं करते। कभी-कभी वे मुझे बुलाकर अकारण ही उन महान दास्तानों को सुनाते जिसमें उन्होंने कैसे-कैसे बदमाशों को पीटा, सीधा किया और स्कूल से निकाल दिया था। किशोर को पछाड़कर मैं फर्स्ट कर गया तो मुझे बुलाकर बहुत सारे प्रश्न मौखिक पूछे। मुझे उन्हें (दरअसल उसे) देखते ही मारने की प्रचंड इच्छा होने लगती।

चबूतरा पर चढ़ते ही मुझे यह सब याद आने लगा। मैंने बैतलवा डाल पकड़ लिया, "स्कूल में हड़ताल होगा तो ठीक है... जो मास्टर साहब कहेंगे... नौकरी तो ठीक, लेकिन स्कूल में बराबरी नहीं है। जात-पात चलता है। किशोर को कोई उसके जाति के नाम से नहीं बुलाता, लेकिन विदुर को कर्पूरी ठाकुर कहता है। हम फर्स्ट किए तो भी मॉनिटर नहीं बनाया। स्कॉलरशिप ठीक से तय नहीं होता। मेरे पिताजी की दुकान से पाँच हजार आमदनी दिखाकर लिस्ट से नाम काट दिया, लेकिन सौ बीघा जमीन वाले को मिला है, कि बाढ़ से फसल बर्बाद हो जाता है, लेकिन पिछले साल कौन-सी बाढ़ आई थी।"

मेरे बोलने के बाद सन्नाटा छा गया। ब्लॉक ऑफिस के पोर्टिको में खड़े बीडीओ साहब मुस्करा रहे थे, जबकि दारोगा मेरे पिताजी का नाम पता कर रहे थे।

अगले दिन स्कूल में मुझे जरा धुकधुकी-सी लगी थी, लेकिन सब ठीक से गुजर गया। सिर्फ अखौरी जी जब पाठ सुनाने आए तो मेरी बारी आने पर वे बोले थे, "हाँ हीरो, सुनाइए।"

उस शाम कुसुम तुनकती हुई मेरे घर आई थी और जाते वक्त मेरी एक किताब जो उसके पास थी, दे गई थी। रात ज्यादा हो जाने के कारण माँ बोली, "इसे उसके घर तक छोड़ आओ।" कल की घटना के बाद मैं सलोनी के बारे में सोच-सोचकर परेशान था। मैं भाषण तो झाड़ आया था, पर दर रहा था कि कहीं सलोनी का रास्ता समानांतर न हो जाए। कुसुम को पहुँचाते वक्त मेरी इच्छा हो रही थी कि सलोनी की राय उससे पूछूँ। सलोनी का मन उससे जानूँ, लेकिन डर गया कि कहीं काट न खाए।

कुसुम मेरे गाँव में अपनी दीदी के यहाँ रहती थी और मेरे मजाक के रिश्ते में होती थी। वह प्रताप भैया की साली थी, लेकिन इतने छुटपन से यहाँ थी कि उसके साथ रिश्ते में संबंध की नजाकत की जगह गहरे अपनापन का उजड्डपन था। वह स्कूल में मेरी ही कक्षा में थी और सलोनी की सखी थी। सलोनी की बात करने के लिए मैं उसकी खिदमत में रहता। उसके पास सिर्फ बिहार टेक्स्टबुक की किताबें थीं, मैं उसे भारती-भवन एवं स्टूडेंट्स फ्रेंड्स प्रकाशन की अपनी किताबें देता जिस पर वह फूल से लेकर फतिंगा तक रच देती। यहाँ तक कि कभी नाराज हो जाती तो सीधे मेरी माँ के पास आती और शिकायत करती, "आशुतोष क्लास में नेताजी की भतीजी की तरफ देखते रहते हैं।" मैं माँ से डाँट खाता और उसे माफ कर देता, क्योंकि सलोनी की बात उसी से करता। एक बार बहुत मनुहार करने पर बोली, "उसका हीरो बनना आसान नहीं है। तेजाब है। कभी सुने नहीं हैं।" यही कटखनी होली के दिन प्रताप भैया के छोटे भाई गौरी का हाथ तब काट खाई थी जब होली के दिन उन्होंने उसका हाथ पकड़कर जोर से दबा दिया। सो उसे पहुँचाते वक्त उसका हाथ पकड़कर सलोनी के बारे में पूछने की आवारा इच्छा को मैंने फौरन खारिज कर दिया। जब प्रताप भैया के दरवाजे पर पहुँचा तो वह मरती से आवाज में बोली, "जब सब सो जाएँ तो जिल्द खोलकर देखिएगा।" मैंने पूछा "क्या है?" वह बोली, "तेज़ाब, अब आप मरें।"

किताब के जिल्द के अंदर मारने-जलाने वाली नहीं, जिंदगी देने वाली तेज़ाब थी।

वह कागज का एक टुकड़ा था, जिस पर लिखा था "क्या हीरो? हीरो बन गए! हीरोइन कौन? सब तुम्हारे पीछे लगे हैं, सँभल के रहना। सलोनी।" मैंने प्रतिज्ञा की कि सँभल के क्या, बहुत सँभल के रहूँगा। कागज पर लिखे इस हीरो के सामने ब्लॉक के चबूतरे पर बने हीरो की कोई बिसात न थी मेरे लिए। उस समय मैंने सोचा यह बात किसी को नहीं बताऊँगा। लेकिन कुसुम। वह कहीं माँ को न बता दे। मैंने बड़ी सावधानी से कागज के उस टुकड़े को एक पैकेट में रखकर कुसुम के इधर निकल पड़ा। मैं सलोनी के बारे में बहुत कुछ पूछना चाहता था कुसुम से। खटके का एक बहुत छोटा टुकड़ा मेरे मन में समाया। कहीं सलोनी बना तो नहीं रही। कोई ताना तो नहीं है। लेकिन कुसुम जिस कदर गंभीर थी मैंने सलोनी के प्रति उठी दुष्ट आशंका की गुंजाइश को स्वीकार नहीं किया। मैंने सोचा सलोनी अच्छी है। कुसुम भी अच्छी है। रविवार को दूरदर्शन पर देखे किसी फिल्म में इसी तरह के एहसान के बदले नायक द्वारा सहयोगी को गले लगाने की तर्ज पर कुसुम को गले लगा लेने की भोली इच्छा मेरे अंदर जन्मी। लेकिन मैंने गौरी को याद किया और इस इच्छा को तत्काल दबा दिया। दरअसल इस तरह की इच्छा को मैंने किसी और के लिए सहेजकर रखा था। मैं फिर कुसुम के यहाँ पहुँच गया। मैंने अपनी एक किताब माँगी तो वह भाभी से भिजवा दी, खुद नहीं आई। उस किताब में उसने एक-एक फूल से लेकर अंतिम फतिंगे तक पर स्याही पोत दी थी। खैर, उस रोज से मैं देर रात तक ढिबरी जलाए रखने का सिलसिला चला दिया था। उन दिनों माँ बहुत खुश दिखती, "आशुतोष जरूर कुछ बनेगा। नेता वाला खानदानी बीमारी का लक्षण इसमें नहीं है। ईश्वर की कृपा है।" मेरे दादाजी मुखिया का चुनाव अपनी पूरी जिंदगी लड़ते और हारते रहे थे। पिछले चुनाव में पिताजी ने लड़ने और हारने की विरासत अपनाई थी। लेकिन इस विरासत के 'हार' वाले पक्ष से संतुष्ट नहीं थे। वे हसनैन साहब एवं अधोरी महतो पर डोरे डालने लगे थे। लगातार हारने के कारण हमारा परिवार रामनगर पंचायत में स्थायी विपक्ष था और मेरे दुकान पर असंतुष्ट रणनीतिकारों एवं लड़कों की जमघट लगी रहती थी। माँ दिन भर चाय के ऑर्डर का तामील कर हलकान रहती। परिवार का व्यवसाय तेज दौड़ रहा था, पर पिताजी राजनीति में दौड़ना चाहते थे। पिताजी को भाषण वाली बात पता चली तो वे खिल गए। उन्होंने उत्साह से माँ को बताया, पर माँ माथा पीट ली, "मेरा तो करम जला हुआ है।" मैंने उन्हें आश्वस्त करना चाहा, पर वे राजी नहीं हुई, "जो इस उम्र में ब्लॉक में जाकर यह सब कर आया है उसका क्या भरोसा है।"

सलोनी वाला हीरो बनने के बाद मेरी उससे मिलने की चाहत उभर-उभर जाती, पर जब भी उसके घर की ओर जाता उधर उसके दादा, चचा एवं किशोर को देखकर मेरा मन किटकिटा जाता।

सलोनी से मेरा संग तब हुआ था जब मैं रामनगर प्राइमरी में पढ़ने गया था। स्कूल में मास्टर साहब ने मुझे सलोनी के साथ बैठा दिया था। दो चोटी बाँधे, जिसके सिरे पर रिबन का फुँदना था, सलोनी नाक सुड़क रही थी। उस गदबदी को देखकर मैं थोड़ा हिचका, लेकिन रास्ते में ही दादाजी ने ताकीद कर दी थी कि गुरूजी जैसा कहें, मत टालना। मैं नाकसुड़की के बगल में बैठ गया। हिसाब के बाद मास्टर साहब ने चित्र बनाने को कहा, "एक जानवर-गाय, एक चिड़िया-कौआ और एक फूल-गुलाब बनाओ।" मास्टर साहब फरमान पूरा करते, सलोनी बनाकर तैयार। फिर तो उसने चींटी से लेकर पहाड़ तक न जाने क्या-क्या बनाए। उसके चित्र इतने नफीस थे कि मैं उसी में खो गया। टिफिन में क्लास के सभी लड़के अपनी-अपनी कॉपी पर उससे क्या-क्या बनवाते रहते थे। मेरी बैठक उसके साथ होती। मेरी चाँदी होती। सभी चित्र-इच्छुकों की कॉपी मैं जमा करता, एक-एक कर सलोनी को देता, सलोनी चित्र बनती, मैं उसे देखता रहता। वह फिर बनाती मैं फिर देखता। वह वर्ष बहुत अच्छा निकला था। मैंने टिफिन, चित्र और सलोनी में वर्ष गुजार दिया था। लेकिन चौथे क्लास में लँगड़ू मास्टर का तरीका बहुत सख्त था। उन्हें छड़ी से विशेष प्रेम था। और उनकी छड़ी को लड़कों के पीठ से। प्रेम-प्रदर्शन की बारंबारता बहुत घनी होती थी। उनके क्लास का वर्ष छात्रों पर बड़ा भारी गुजरता। तीसरे में सब साथ-साथ बैठते क्या लड़का, क्या लड़की। लँगड़ू मास्टर ने कायदा बदल दिया। वह छात्रों को आगे-पीछे पंक्ति बनाकर पहली बार भेद पैदा कर दिया। वह लड़के, लड़कियों को आपस में बात करने पर छड़ीवाला प्रेम प्रदर्शित करने पर उतारू हो जाता। मेरे लिए क्या, सबके लिए सबके लिए पंक्ति वाला भार बड़ा भारी था। हिसाब छोड़कर पढ़ाई के अन्य विभाग में मैं बेकार था और खेल-कूद में फिसड्डी। उद्दंड भी नहीं था। इस कारण किशोर एवं विदुर की तरह लँगड़ू मास्टर की नजर एवं छात्रों के भय से ओझल था। ले-देकर एक सर्दी-खाँसी की बीमारी थी जिसने मेरी लाज रख ली। सलोनी हिसाब में कोरी थी। मैं जल्दी से सवाल हल कर लेता और उसे निहारता रहता। वह सवाल से जूझती, पसीने-पसीने, बार-बार गर्दन हिलाती तो बहुत अच्छी लगती। पर उसे मेरी ओर देखने के लिए इतमीनान नहीं मिलता। वह तब ही देखती, जब मुझे खाँसी उखाड़ती। मैं खाँसते-खाँसते बेदम हो जाता, क्लास में सब हँसने लगते पर सलोनी बड़ी शिद्दत से देखती। कई बार मैं इतना बेजार हो जाता कि वह लड़कों की चार पंक्ति पार कर अपनी पानी की बोतल देती। मैं पानी कभी नहीं ले जाता। उन दिनों मैंने इसकी बड़ी हिफाजत की थी। माँ गर्म पानी से गरारा करा-करा एवं तमाम तरह के नुस्खों से इसे कम कराती, मैं स्कूल में जाकर बर्फ खा लेता। बर्फ खाते देख एक दिन सलोनी पूछी, "बर्फ खाते हो?" उसकी बात में चिंता थी। मैं खुश हो गया। मैंने कहा, "फेंक दूँ।" वह बोली, "हाँ"। मैंने उसे फेंक दिया। वह खुश हो गई। वे दिन कैसे थे, मैं क्या हो रहा था, क्या कर रहा था, मैं नहीं जानता था। एक दिन सलोनी आई तो मुझे एक छोटा-सा डब्बा दी, इसमें शहद डूबे आँवले थे। वह बोली इसे खाकर मेरे दादाजी की तबीयत सँभल जाती है। मैंने खुश होकर डब्बा ले लिया। लेकिन मैं नहीं चाहता था कि तबीयत सँभले। सलोनी किसी से खेल के बारे में, किसी से टेलीविजन के बारे में, किसी से गाने के बारे में बात करती। मेरे पास बस यही नेमत थी। इसे कैसे गँवा देता। मैंने गाँव की पुलिया पर आकर डब्बे का ढक्कन खोकर उसे पलट दिया और डब्बा ले घर आ गया। आगे कभी माँ आचार या चटनी के लिए आँवला मँगाती तो मैं बहुत बेचैन हो जाता।

उस वर्ष मैंने सलोनी से नजदीकी वाया खाँसी निभा ली थी। इस सब पर अगले वर्ष तब पानी फिर गया जब पिताजी ने पकड़ के बोर्डिंग में भेज दिया था। फिर बीच के कई वर्ष पीटी, प्रेयर, स्कूल, डिस्पेंसरी में ही बीता। पिछले वर्ष जब भैया ने जिद कर फौज की राह पकड़ ली तो मेरी किस्मत खुल गई। पिताजी ने मुझे घर बुला लिया था कि यहाँ के राज-पाट का उसूल धीरे-धीरे सीखेगा। इसे अपने लाइन पर रखूँगा। उस रोज माँ पिताजी से बहुत झगड़ी थी। यह लफंगागीरी नहीं करेगा। कोई तो घर में रहेगा। माँ पिताजी के दिन-रात बाहर रहने एवं भाई के फौज में चले जाने के बाद अकेली पड़ गई थी।

बोर्डिंग से वापस आने के बाद मैं अपने दोस्तों के यहाँ गया था। मैं सलोनी के पास जाना चाहता था, पर हमारे अपनत्व की चमक पर कई वर्षों के दूरी की गर्द जम चुकी थी। इस्लू आँख, रिबन, चोटी, सुड़कने वाली नाक एवं पानी की बोतल ही मेरी स्मृति में रह गई थी। वापसी पर जब मैं अघोरी महतो को नहीं पहचान पाया तो जो झेंप हुई वह अघोरी काका के लिए कम सलोनी के लिए ज्यादा थी। न जाने निकलता तो हर लड़की को गौर से देखता, खास कर उसके रिबन-चोटी एवं नाक को। अबकी मैं अनंत समय के लिए आया था, जिसमें ढेर पहचान बनने-मिटने थे, लेकिन मेरा दर गहरा होता जा रहा था, "सलोनी को पहचान नहीं पाऊँगा।"

उस रोज जब मैं सलोनी के घर के सामने से गुजर रहा था तो सलोनी के दादा ने बुलाया था, श्यामजी के बेटे! इधर आइए।" तभी एक लड़की बाहर आई थी, न रिबन-ना चोटी। मैं अंदाज गाँठ ही रहा था कि बोली, "आशुतोष! तुम तो बड़े हो गए।" जैसे खुद वह उतनी ही छोटी हो जितना कि बोर्डिंग जाते वक्त उसे मैं छोड़ गया था। वह बोली, "आओ।" वह अपने कमरे में ले गई। उसके कमरे में वह तस्वीर थी जिसे सरस्वती पूजा में पूरे क्लास ने साथ उतरवाया था। मैं उसे देखकर मुस्कराने लगा।

"तुम कैसे थे। देखो तो, दुबला-सा... खों-खों, खों-खों।" वह मुझे खाँसी याद दिलाते हुए छेड़ रही थी। पर मुझे अच्छा लग रहा था।

"और तुम। नाक सुड़कते हुए...।" मैं नाक सुड़कने की एक्टिंग करने लगा। तब वह दुहरी होकर हँसने लगी। वह हँसते-हँसते मेरे ऊपर गिर गई थी। मेरी पूरी देह में तब जाने कैसा लगा था। मैंने सर्दी का बहाना करके कई दिनों तक स्नान नहीं किया था। उस रोज वह बहुत कुछ पूछी थी। स्कूल के बारे में, खाने के बारे में, फ्रेंड्स के बारे में, गर्ल-फ्रेंड्स होने-न-होने के बारे में। वह बीच-बीच में 'खो-खो' करके हँस देती। फिर वह बताने लगी। अपने बारे में, पिता के देहांत एवं माँ की नौकरी के बारे में, चाचा द्वारा जमीन हड़पने के बारे में। वह इन वर्षों में बहुत बड़ी, बहुत हिम्मत, बहुत समझदार, बहुत जिद्दी हो गई थी। इस बीच आंटी हम लोगों को भूजा दे गई थीं।

"खाओ।" सलोनी बोली।

"तुम भी।"

"तुम गेस्ट हो न। तुमको खिला देंगे फिर।"

"गेस्ट क्यों?"

"वैकेसन में आते थे तब कभी नहीं आए।"

"मैं आता था। तुमको कैसे मालूम ?"

"कुसुम बताती थी न!"

"कुसुम को जानती हो?"

"तुम्हारे गाँव की है न! मेरे साथ पढ़ती है। उसे तुम मैप दिए थे। उसने बताया था कि आशुतोष नाम है उसका। मुटकी। तुम जब आते थे तो वह चहकने लगती थी, आशुतोष आया है। मुटकी।"

कभी मैंने कुसुम को फाइबर से बना एक भारत का मैप दिया था। लेकिन उसके चहकने का अंदाजा मुझे नहीं था। सलोनी का उसे मुटकी कहकर कुढ़ना था कि मुझे जान बख्श देना था, नहीं तो लौटने के बाद मैं सलोनी के बारे में गाँव अजीब लगने लगा था। उस रोज गौतम चाचा एवं माधव भैया सब क्या-क्या बके जा रहे थे। उस समय सत्यानारायण गुजरे तो माधव भैया ने ताना कसा "क्या माट्साहेब तेज़ाब खदबदा रहा है कि शांत है।" फिर वे क्या-क्या बकने लगे। ये सब बातें सलोनी के बारे में की जा रही हैं का पता तब चला जब वे सलोनी के पिता का जिक्र करते हुए बोले, "सोमेश्वर बाबू चले गए, पर उम्दा चीज देकर गए।" उस समय मुझे माधव किसी वहशी गैंडा की तरह लगे थे।

सत्यनारायण जी सलोनी के घर जाकर पढ़ाते थे और बाहर मिथ्या प्रेम-प्रदर्शन करते न अघाते थे, "सोमेश्वर बाबू की बेटी... उसका तो मन है कि अभी भाग चलें, लेकिन मैंने कहा है कि अभी रुको।" ऐसा बकते हुए एक रूमाल निकालकर मुँह पोंछते जिस पर देमसुत से दिल की कढ़ाई की गई होती। वे इसे सलोनी द्वारा दिया गया बताते। धीरे-धीरे उनकी हरकत ऊटपटाँग होने लगी थी। वे अब पढ़ाने से ज्यादा हाथ अथवा बाल पकड़ने के फिराक में रहते तथा फिल्मी दुनिया जैसी पत्रिका या लैला-मजनूँ, हीर-राँझा की सचित्र दास्ताँ लेकर सलोनी के पास आते। घर में एक रोज आंटी नहीं थीं तब सत्यनारायण जी ने टेबुल के नीचे सलोनी के पैर पर पैर रख दिया था। भड़ककर सलोनी ने सत्यनारायण के सर पर सैंडल दे मारा था। सैंडल के जख्म पर सत्यनारायण ने जाने कौन से नुस्खे लगाए कि उनके ललाट पर जले का निशान बन गया। लोगों के पूछने पर बताते कि बैटरी में तेज़ाब डाल रहे थे। तो माथा तक छलक गया। असली बात उन्होंने कुछ खास मित्रों को बताई। अब सारा रामनगर-धामपुर जानता है और सलोनी को तेज़ाब कहता है। "हें-हें-हें-हें।' "साले...!"

तेज़ाब मेरे दिल में भी खदबदाने लगा था। उस रोज जब मुटकी कहकर सलोनी ने कुसुम से अपनी जलन दिखाई तो मेरे दिल की तेजाबी खदबदाहट कुछ शांत पड़ी।

मैंने जब अपना सारा भूजा खा लिया तो सलोनी अपने हिस्से से फिर डाल दी।

मैंने कहा, "तुम खाओ।"

वह बोली, "तुम खाओ।"

वह जब और रख रही थी तो मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। हाथ पकड़ते ही वह 'फ्रीज' हो गई, हालाँकि मैंने तुरंत हाथ छोड़ दिया था, पर वह निश्चेष्ट ही रही, सिर्फ उसकी आँखें बरास्ता मेरी आँखें कहीं मेरे अंदर... मेरे दिल तक... उतर रही थीं।

"आंटी आ रही हैं।" मैंने धीमी आवाज में कहा था।

वह चुप थी। चुप ही रही। आंटी आईं तब भी चुप थी। अप्रत्याशित देख आंटी बोली, "फिर झगड़ लिए न।"

स्कूल के दिनों में साथ लौटते हुए हम लड़ पड़ते थे। आंटी का वहाँ पहुँचकर कारण तलाशना हमें राह दे गया था। आज के सुलगन की तपिश को बचपन के पानी ने ओझल कर दिया था। फिलहाल।

"नहीं।" मैंने कहा।

आंटी के जाने के बाद भी वह चुप थी। मैं दम हारता जा रहा था।

"लोग तेज़ाब कहते हैं।"

"कौन ?"

"सब।"

"तुम सुनते हो।"

"मैं तो कल-परसों ही आया हूँ।"

"मैं बोली थी कि इतने दिन बाद आओ।"

"ठीक है। मैं पूछूँगा।"

"नहीं मारना।"

अब तक मेरी साँसें सम पर आ गई थीं। मैंने सलोनी को बताया कि कैसे और क्यों मैंने आँवले के मुरब्बे को पुलिया में फेंक दिया था और जब कभी घर में आँवला आता था तो मैं कैसे दहशत में आ जाता।

"तुम शुरू से पागल हो।" यह इंस्टैंट जानकारी थी। इसका मुझे अब तक कोई पता नहीं था।

"अब कहाँ पढ़ोगे ?"

"रामनगर में और कहाँ।"

सलोनी खिल गई थी। उस शाम वह रजनीगंधा-सी हो गई थी, जिसकी सुवास मैं देर तक महसूस करता रहा।

शाम को देर हो गई थी। सलोनी दरवाजे तक छोड़ने आई। अँधेरे गलियार में उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। घर लौटना अच्छा नहीं लग रहा था। जाते वक्त बोली।

"कुसुम से मैप ले लेना।"

"अभी तक है।"

"है। ले लेना। मुझे चाहिए।"

"मेरे पास और है।"

"वही चाहिए।"

"... ..."

"ले लेना। मुटकी।"

लौटते वक्त रास्ते में गौतम के चाचा मिल गए थे। उन्होंने साइकिल के कैरियर पर मुझे बिठा लिया।

"इधर?" उन्होंने पूछा।

"सलोनी के घर गया था।"

"तेज़ाब में आप भी डुबकी लगाइएगा।"

मैं साइकिल पर से कूद गया।

"क्या हुआ?"

"मैं पैदल जाऊँगा।"

"इतनी आग अभी से। चलिए।"

"मुझे नहीं जाना।" मैं उनकी साइकिल पर एक लात मारकर एक लात मारकर आगे बढ़ गया। अगले रोज से धामपुर में मैं 'तेज़ाब का चस्का लगा गया है' के आक्षेप से मशहूर था।

रामनगर हाई स्कूल में जो कायदा सबसे पहले अखरा वह था लड़कियों का अलग एक झुंड, कोने में। पहाड़ के बोर्डिंग में ऐसा न था। बीच में मैं लंगड़ू मास्टर को भूल गया था, लेकिन इस समय उस पर तेज घनत्व का गुस्सा आया। हाई स्कूल में लड़कों का पूरे मैदान पर कब्जा था। वे जहाँ चाह रहे थे वहाँ थे। गर्ल्स कॉमन रूम को छोड़कर। तभी मुझे सलोनी आती दिखी। मैं अपने दाखिले की खबर उसे देने गया, पर वह हाथ फैला दी।

"मैप।"

"छोड़ो न उसे।"

"मैप।"

फिर तो उसने ऐसा ढब अपना लिया कि कोई जालिम भी वैसा क्या करेगी। वह किसी तरीके से, किसी तरीके की कोई बात करने को राजी न हुई। बाद में रामनगर हाईस्कूल के और कायदों का पता चला। मसलन किसी लड़की लड़का का आपस में बात कर लेना भयंकर हौसले की बात होती। ऐसा हो जाने पर वे रामनगर धामपुर की मुख्य सुर्खियों में मौजूद रहते।

इधर कुसुम भी हठ कर देती। वह सलोनी के बारे में कुछ बात करने के लिए तैयार नहीं होती। बहुत मनुहार करने के बाद कुछ ऐसी सूचना देती मैं सर पीट लेता, "सलोनी की भौतिकी की किताब की कवर उखड़ गई है।" कुसुम को मेरे दिल में कुसुम को मेरे दिल में सलोनी की आग सुलगने का अंदाजा हो गया था। वह कटखनी हो गई थी। "तंग कीजिएगा तो माँ को कह दूँगी।" जबकि स्कूल में सलोनी से लगातार गैप लड़ाती रहती। मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ की वह झूठ का बवंडर उड़ाती रही होगी सलोनी पीछे मुड़ती और मुँह बिचका देती। कौशिक मास्टर साहब स्कूल के बाद ताना कसते, "क्लास में डिस्टर्ब करते हैं आप।" ऐसे ही बेचैन दिनों में किताब के जिल्द के अंदर वाला चित आया था।

रामनगर हाईस्कूल में जो सबसे खराब बात हुई, होती रही, वह था - किशोर। किशोर और सलोनी की गाँव एवं जाती समान थी। नौवें में किशोर अव्वल भी था। हर पैमाने से उसे इतमीनान था कि सलोनी को सपने में लाने का अख्तियार सिर्फ उसका है। उसके घर उसका भाई बनाकर जाता (बकौल सलोनी) और स्कूल में सबको उसके साथ अपने कैसे-कैसे संबंध के किस्से गढ़कर पेश करता। मैं जब सलोनी के यहाँ गया था तो बीच में वह भी आया था। मुझसे मिला भी, पर सलोनी ने उससे कोई बात नहीं की थी। वह गुनगुनाता और उसी लय में गर्दन हिलाता लौट गया था। सलोनी मुझसे बोली थी, "यह स्कूल में भी होगा।"

"तो।"

"देखोगे।"

किशोर अगले रोज स्कूल में बहुत चंचल था। वह अपने संघातियों के साथ मुझसे कुछ दूरी पर स्थापित हो गया था और सलोनी से अपने बड़े निजी किस्म के संबंध के किस्से बघारने लगा था। मेरा हाथ ऐंठने लगा था, तभी प्रार्थना की घंटी बज गई थी। आगे जब सलोनी ने मुँह बिचकाना शुरू किया तो उसकी प्रेम इबारतों का मुलम्मा खुद ही उतर गया। जब विदुर वगैरह भाभी वाला मजाक मुझसे करते तो वह चकराने लगता। वह रामनगर-धामपुर में हमारी जाति का विशेष उल्लेख कर हमारे अपनापे की खबर फैलाने लगा था।

पहला आघात सलोनी के दादा ने किया था। मैं उधर से गुजरता तो कभी अपने पास बुला लेते और गाँव के इतिहास से लेकर वर्तमान तक के एक-एक शोहदे तक के किस्से सुना देते। सलोनी बाहर निकलकर आ जाती, पर न तो वह कुछ बोलती, न अंदर बुलाती। उसके दादा अपने प्रताड़ना-प्रोग्राम के अंत में जोड़ देते, "तुम लोग कितने अच्छे हो, भाई-बहन की तरह।" सलोनी मुँह ऐंठते हुए अंदर चली जाती। उन दिनों जब रामनगर के मठ पर मेला लगा था तो वह अपनी सखियों के साथ मीना बाजार में टकरा गई। मैंने उससे कुछ कहना चाहा, पर वह हाथ पसार दी।

"मैप।"

मैं बिफर गया। मेरे चिल्लाने पर वह सखियों से हटाकर मेरे साथ आ गई।

"नाटक करना है तो स्टॉल ले लो।"

"... ..."

"क्या बात है ?"

"दादाजी इस तरह क्यों करते हैं।"

"तो तुम उनको बोलो।"

"पर ऐसा करते क्यों हैं। उचक्कों के किस्से सुनाते हैं।"

"किशोर बैठा रहता है उनके पास।"

"किशोर स्कूल में क्या-क्या बकता रहा है। मालूम है।"

"तुम्हारे बारे में कुसुम, मीरा, बसंती या कोई ऐसे बकती न तो मुँह नोच लेती मैं।"

"कुसुम से तो गलबँहियाँ किए रहती हो।"

"तुम्हारे कारण।"

"मैं भी तुम्हारे कारण।"

ये दिन बहुत हड़बड़ी के थे। तेजी से बीत रहे थे। और कुछ बड़े निशान छोड़ रहे थे। देश की सबसे ऊँची गद्दी के लिए चुनाव हुए और सरकार बदल गई। इन दिनों मैं उबल रहा था। स्कूल की परिक्षा हुई और रजिस्टर बदल गया। हम नौ से दस जमात में आ गए। नए रजिस्टर में किशोर नीचे आया और मैं ऊपर। किशोर प्रचुरता से बक रहा था। सलोनी मैप की जिद्द ठाने बैठी थी। कुछ पूछते ही कुसुम माँ के पास पहुँच जाती, "ये नेताजी की भतीजी को देखते रहते हैं।" इन्हीं सबके बीच सरयू बाबू स्कूल में घुसे थे और हमें ब्लॉक में ले गए थे।

ब्लॉक कार्यालय की घटना के बाद जब मुझे सब पहचान गए थे, किशोर, पिंटू और प्रवीन मुझ पर भन्नाए रहते जो मुझे बाद में पता चला, उन्होंने सलोनी को कहा, "तुमको न तो अपनी जाति की इज्जत का ख्याल है, न अपने गाँव की।" बदले में सलोनी ने उन्हें अपना काम देखने को कहा था। लेकिन किशोर गैंग ने सबका काम देखने की जिम्मेदारी ले रखी थी।

मेरे भाषण की बात नमक-मिर्च, हल्दी में डूबकर तीखी और रंगीन होकर पिताजी के पास पहुँची तो वे फूले न समाए। उन्होंने यह सब जाकर माँ को सुनाया तो वह सुबक पड़ी। पिताजी 'औरत जात' कहकर चले आए।

भाषणवाले दिन के बाद स्कूल में ऊपर से नीचे तक दल बन गया। मेरी किशोर से अदावत अब तक सलोनी तक ही थी, लेकिन इसका प्रसार खेल से लेकर ट्यूशन तक हो गया। मैं सलोनी वाले खत के खुमार में था, लेकिन स्कूल में उलट-पुलट चल रहा था। स्कूल में शुल्क लिए जाने एवं पुस्तकालय नहीं होने के कारण लड़के हेडमास्टर के पास गए थे, तब राउत जी ने लड़कों का समर्थन किया था। उस रोज हेडमास्टर फनफना कर रह गए थे, कुछ दिन बाद उन्होंने राउत जी से विज्ञान प्रैक्टिकल की घंटी छीनकर गाना एवं चित्रकला की घंटी तथा पुस्तकालय का प्रभार दे दिया था। गानों की घंटी में पिंटू एवं प्रवीन - 'लौंडा बदनाम होगा...', 'एक आँख मारूँ तो...' जैसा गाना गा-गाकर उनकी तौहीनी करते।

ब्लॉक की घटना के बाद राउत जी ने मोर्चा सँभाल लिया था। उन्होंने मुझे समझाया, "अब बेहतर चांस बनेगा मन लगाकर पढ़ो।" दूसरी ओर उन्होंने विदुर और बद्री को भी 'कुछ' समझाया था। ये दोनों प्रायः मेरा साथ नहीं छोड़ते। विदुर जो सीट के लिए हाय-तौबा नहीं मचाता था, दूसरी-तीसरी पंक्ति में कहीं बैठ जाता था, उस दिन वह आगे की कतार में लड़की की ओर से बैठ गया और माँ कसम देकर मुझे भी बैठा लिया। बाद में बद्री भी वहीं जम गया। किशोर, प्रवीन सीधे हेडमास्टर के पास चले गए। हेडमास्टर के आने पर विदुर बोला, "रोल नं. के हिसाब से सीट बाँट दीजिए।" ऐसा होने पर मेरे और विदुर के बीच किशोर बैठता। वह पिछली सीट पर बैठ गया और बोला, "देख लेंगे।"

विदुर इन दिनों राउत जी से मिलता रहता। बद्री जिसका भाई भट्ठा पर मुंशी था, किशोर के कंपटीशन में अपने भाई की मोटर साइकिल से आने लगा था। किशोर जब अपनी मोटर साइकिल के तेल की टंकी पर 'श्री राम जय राम जय जय राम' का स्टीकर लगाकर आया तो बद्री अगले दिन वी.पी. सिंह एवं देवी लाल की तस्वीर चिपका कर आया। हेडमास्टर साहब बोले, "राउत जी राजनीति करा रहे हैं।"

सब कुछ अजीब-सा घाट रहा था। भयंकर टकराहट की स्थिति थी। स्कूल से निकल कर किशोर, प्रवीन, पिंटू मौका पाते तो सड़क पर समानांतर फैल जाते और हमें अपने से आगे सरकने नहीं देते। कभी हमें मौका मिलता तो हम - विदुर, बद्री और मैं इन्हें पीछे ठेले रहते। मेरे साथ दिक्कत यह थी की मैं कहीं भी निकलता तो विदुर और बद्री साथ हो लेते। वे पिताजी की गोष्ठी में भी बैठने लगे थे। स्कूल में जहाँ हम होते उससे कुछ दूरी पर किशोर गैंग जैम जाता और वे लगातार सलोनी की बात करते कि किस पूजा में वे हाथ-में-हाथ डालकर चले थे। किस तरह सलोनी लिपस्टिक के निशान वाली खत उसके पास भेजती थी। पिंटू जो ज्यादा उद्दंड था, कहता, "किसी को सेकेंड हैंड माल ही मिलेगा।" मेरे हाथ में जोर की ऐंठन होने लगती। बद्री का कहना था, "तुम कहो तो भइया के भट्ठा पर से चार-पाँच को लाकर इनकी मरम्मत करा दें।" जबकि विदुर का कहना था, 'अपने हाथ से इलाज करना जरूरी है।' मैं पीटने-पिटाने से पहले एक बार सलोनी से फाइनल करना चाह रहा था। मैं सलोनी के घर का कई चक्कर लगा आया था, पर दरवाजे पर उसके चाचा या किशोर होते और मुझे घूरते रहते। उनका घूरना एवं मेरा चक्कर बढ़ गया था। यह सब सलोनी अपने छत से देखती रहती। स्कूल के तनाव में बातचीत संभव न थी। आजकल सलोनी छत पर इतना ज्यादा होती की कुछ शोहदे कहने लगे थे कि कबूतरी छत पर फुदक रही है।

कई रोज के बाद सलोनी मेरे पास आई और बोली, "अगर तुमको हिम्मत नहीं है तो मुझे है।" वह एक किताब दी और चली गई। उस रोज मैं टिफिन में ही घर आ गया था, बद्री की मोटर-साइकिल से। विदुर भी मेरे पीछे बैठ गया था। इनके जाने के बाद मैंने किताब की जिल्द हटाई थी, "मैं डार्लिंग-फार्लिंग नहीं कहने वाली हूँ समझे, और सुन लो मैं तुम्हारी याद में बेचैन भी नहीं हूँ। सुनो, कुसुम किताब देने के लिए तैयार नहीं हुई। मैप उसी के पास है न। कुसुमिया कहती है कि तुम्हारी माँ जान गई है की किताब में क्या था? (झूठ) सुनो, उस रोज किशोर बोला, "अपनी जाति का लाज नहीं है। बर्दाश्त नहीं होता है तो मुझसे कहो।" मैं भी बोल दी, "काहे बर्दाश्त करें। जिसको कहना था कह दिए हैं। जिससे शादी होगी मैं तो उसी की जाति की हो जाऊँगी।" सुनो बुद्धू, मैं तुम्हारे लिए मंडप नहीं सजा रही हूँ, पर मैंने ऐसा कह दिया। किशोर ने चाचा को बता दिया। चाचा माँ पर रौब जमाने आया था। माँ बोली, "ठीक है, भाग जाएगी, रंडी हो जाएगी तो सब जायदाद बिना दवा लाए ही तुम्हारा हो जाएगा।" चाचा से मत डरना। वह कुछ नहीं कर पाएगा। पापा को मार दिया। पापा से जमीन सब अपने नाम करा लिया और ठीक से इलाज भी नहीं करवाया। कल कह रहा था, "अब यह स्कूल नहीं जाएगी।" माँ बोल दी, "जाएगी।" वह तुम्हारे यहाँ जाएगा, वहीं पिटवा देना। अंगरक्षक के साथ चक्कर मत लगाओ। मुझे धूप लग गई है। मैं अब छत पर नहीं घूमने वाली।"

मैं पत्र पढ़ ही रहा था की सलोनी के चाचा का हरकारा पिताजी के पास आया था कि शाम को सुमेर बाबू आएँगे। पिताजी ने पूछा, "इस कृपा का कारण?" वह बोला, "वे कह रहे थे की आप लोग राजनीति नहीं करते, इज्जत से खलते हैं। फिर वह अपनी ओर से तैश खा गया, "वी.पी. मन बढ़ा दिया है। धामपुर ससुरारी गाँव हैं। जो सब दिन से होता चला आया है वह बदल दीजिएगा। खून की होली हो जाएगी।" इतना सुनते ही दरवाजे पर बैठे कई लोग उसे ठोंकने को बेचैन हो गए।

दरअसल मेरे गाँव के गरीब रामनगर के जमींदारों के असामी थे। धन-बल के जोर पर कुछ जमींदार असामियों के घरों में घुसे रहते। उनके गाँव का नाम रामनगर था तो सभी अपने को राम समझते और मेरे गाँव को जनकपुर धाम (सीता का गाँव) कहते, फिर यह धाम और फिर धामपुर कहलाने लगा। इसका असली नाम न जाने कहाँ खो गया। क्या दुर्योग था की रामनगर धामपुर में प्रेम समीकरण बना तो लड़की धामपुर की ही रही। मैं परंपरा उलट रहा था। इससे रामनगर में भारी हलचल थी। रामनगर और धामपुर अगल-बगल के गाँव हैं। रामनगर में थाना, ब्लॉग, बैंक, हाईस्कूल सब हैं। दोनों गाँव मिलकर एक पंचायत बनाते हैं।

तो जब सुमेर नेताजी का हरकारा पिताजी को संदेश देने आया था, उस वक्त अघोरी महतो, जिसे मार-काट करने वाली पार्टी का सदस्य माना जाता था, हरकारे से बोले, "आप ही लोग न कहते थे कि मेरा घोड़ा खुला हुआ है, अपनी घोड़ी सँभालिए। अब इधर से घोड़ा खुला है आप अपना देख लीजिए।" पिताजी के टोकने पर बोले, "ये लोग कहते हैं तो हम भी एक बात कहे हैं नहीं तो नेता की भतीजी मेरी बेटी जैसी है।" इस पर हरकारा फिर तैश में आ गया, "यह सब बीपीया बोलबा रहा है। हमारी बेटी महतो की बेटी बनेगी। बागमती को खून से रँग देंगे।" पिताजी ने कहा, "ठीक है जाइए। गाँव में आए हुए हैं नहीं तो पता चल जाता। नेताजी से कहिएगा वोट की गिनती में मिलेंगे।"

उस दोपहर कुसुम भी लीला करने लगी। माँ को आकर बोल दी, "नेताजी की भतीजी से चिट्ठी-पत्री करते हैं। स्कूल में सब के सामने लेन-देन करने लगे हैं। उस समय पिताजी मुझसे पूछने आ रहे थे कि क्या मामला है। कुसुम की बातों को सुनकर मजाक करने लगे - 'अरे इन्हें यह सब करने देंगे। हम आपको बहू बनाएँगे।' माँ बिगड़ गई, "इस दरवाजे पर ढोल नहीं बजेगा।" उस समय मेरी इच्छा हो रही थी कि कुसुम को चोटी पकड़कर बाहर कर दूँ और उसी के रिबन से उसका गला घोंट दूँ। शाम को पिताजी बोले, "डरो मत, कुछ नहीं कर पाएगा। एक हरवाह नहीं मिलेगा। खुद खेत रोपेंगे। गाँव भर में सबका मन तुम पर खुश है।" यह सब सुन रही माँ बोली - 'कैसे बाप हैं, बेटे को छिनरपन सिखा रहे हैं।"

नेताजी के हरकारा के जाने के बाद धामपुर में अचानक बहुत सारे मेरे शुभचिंतक उभर आए थे। कैलास चाचा जिनकी एक बहन ने रामनगर के अजय प्रताप के साथ भागकर प्रेम विवाह कर लिया था और वो मुझे इफरात से हौसले की आपूर्ति कर रहे थे। कभी मैं इन लोगों के गिरफ्त में आ जाता तो बेचैन हो जाता, पर वे लोग थे कि मुझे सेवा देने को तत्पर थे और अवसर के बारे में पूछते रहते थे। पिताजी की शाम की बैठक में मजमा लगा रहता। पिताजी इन दिनों फूले रहते थे।

आंटी ने तेजाबी मास्टर सत्यनारायण को हटा दिया था। सलोनी अब हसनैन साहब के यहाँ पढ़ने लगी थी। उन दिनों कुछ झोलाधारी 'जयश्रीराम' वाला स्टीकर बाँट रहे थे तथा गाँव में श्री राम लिखे ईंट की पूजा हो रही थी। उस वर्ष बहुत सारे लड़कों ने हसनैन साहब की ट्यूशन छोड़ दी थी। हरकारा के जाने के बाद दादाजी ने मुझे गहरे मुस्लिम इलाके में भेजने पर शंका जताई तो पिताजी बोले, "आप अपने समय में न तो हसनैन साहब को साथ किए न ही अघोरी महतो को... मुझे इस बार हारना नहीं हराना है।" फिर जब दादाजी ने हरकारा के आने और मेरे गलत रास्ते पर जाने की बात की तो पिताजी बोले, "यह सब बाद में समझा देंगे। अभी माहौल बन रहा है। आशुतोष के कारण सब उत्साह में हैं।"

पिताजी की बातचीत से 'डरो मत' का मतलब समझ में आ गया था। मैं उलझता जा रहा था।

सलोनी के हसनैन साहब के यहाँ पहुँचने के बाद मैंने और कुछ भी देखने, समझने, सुनने से इनकार कर दिया। हसनैन साहब के यहाँ ट्यूशन, ट्यूशन नहीं लगता, मुझे लगता वहाँ नूर की बारिश हो रही है। उन दिनों सुबह अच्छा लगता और रात भी। स्कूल के कारण दिन ही तल्ख लगता। सुबह ट्यूशन जाना होता। रातें कितनी सौगात लेकर आतीं। मैं देर तक पढ़ता रहता। कभी किताब, कभी सलोनी के दिए पत्र। कालिख लगे लालटेन की नमालूम-सी रोशनी में दुनिया कितनी रौशन लगती। मैं जिल्द के अंदर से छुपे खजाने को निकालता और महसूस करता कि सलोनी भी ऐसा ही कर रही होगी। फिर अगले दिन के लिए मैं कुछ लिखता, कहीं सलोनी भी लिख रही होती। सलोनी तो एक चींटी मर जाने की बात भी लिख डालती। मैं बेवकूफ... एक रोज जब मैंने कुसुम को पापा द्वारा बहू कहे जाने वाले वाक्य को लिख दिया तो उसने सिलसिला ही रोक दिया। फिर यह विश्वास दिलाने पर की कुसुम सचमुच 'मुटकी' है, वह ठीक कहती है, वह मान गई थी। उसने अगले दिन लिखा, "माँ को कोई और देखने वाला होता तो मैं कल आत्महत्या कर लेती।"

किताब लेने-देने का सिलसिला तेज होता जा रहा था। हम एक बार ट्यूशन में और फिर स्कूल में किताबों की अदला-बदली करते। यह सिलसिला जितना तेज होता जा रहा था, दुश्मनों के षड्यंत्र, शुभचिंतकों की चिंता और उचक्कों के ताने उतने ही बढ़ते जा रहे थे। एक शाम रामनगर जा रहा था तो माधव भैया बोले, "शिकारी चला, अब कबूतरी घोंसले से निकली होगी।" मैंने उसकी और घूरकर देखा तो बोले, "हम लोग का भी हक बनता है। सब भोग अकेले लगाइएगा।" मैंने साइकिल उन पर चढ़ा दी। उस शाम पापा बहुत डाँटे थे, "इसको समझदार मानते थे, यह तो गाँव का वोट भी बिगाड़ देगा। जाओ माफी माँग लो।" मैं कहाँ जाने वाला था।

ऐसे ही दिन बीत रहे थे। अब हम स्कूल फतह कर कॉलेज आ गए थे। और वहाँ का सारा ड्रामा लेकर आए थे। कॉलेज में बंधन थोड़ा ढीला था, पर लोग वहाँ भी तंग थे। जब मैं सलोनी से बात कर रहा होता तो हवा में टिप्पणी तैरने लगती, "तेज़ाब घोला जा रहा है।"

विधानसभा का चुनाव आ गया था। पापा को संभावित पार्टी से टिकट मिल गया था। सुमेर नेताजी ऐतिहासिक पार्टी से थे। पापा मुझे साथ चलने को कहते तो मैं टाल देता, लेकिन बद्री और विदुर पिताजी के साथ खाक छान रहे थे। किशोर गैंग सुमेर नेताजी के साथ था। सरयू सिंह तो खैर थे ही।

चुनाव ने हमें बहुत समय दिया। तब हमारी अपनी पूरी दुनिया थी। कॉलेज से मैं सलोनी के साथ लौटता। वह भविष्य की योजना बनाती। मैं कहता, "अभी से!" वह कहती, "तुम्हें हर चीज में देर करने की आदत है।" उन दिनों रामनगर में मैथ पर मेला लगा हुआ था। मैं वहाँ पहुँच जाता। सलोनी अपनी खास सखियों के साथ पहुँचती। मेले में आकर हम साथ हो जाते। सलोनी ने मुझे एक रिंग पर 'एस' खुदवाकर दी। मैं कुछ देना चाहता तो वह कहती, "मैप! चाहे जो हो जाय।" उस रोज हम आकाश झूला पर झोले थे। झूला ऊपर चढ़ता जाता सलोनी मेरे पास से और पास होती जाती। राउंड खत्म होने पर मैंने उसे डाँटा, "डर लगता है तो क्यों चढ़ी, मर जाती।" वह बोली, "और मरेंगे।" मैंने कहा, "उतरो।" वह बोली, "मरेंगे।" उस शाम हम अंतिम राउंड तक मरते रहे थे। सलोनी अपनी सखियों को भूल गई थी। मैं किशोर गैंग को भूल गया था। हम पर खुमार छाता जा रहा था। मुझे दुनिया नजर नहीं आ रही थी। सलोनी को दुनिया नजर नहीं आ रही थी। मुझे सिर्फ सलोनी दिखाई दे रही थी, मैं सिर्फ सलोनी को दिखाई दे रहा था। कहीं कोई ना था। मैं था, सलोनी थी। सलोनी थी, मैं था। कल फिर मरेंगे कहलवाकर ही सलोनी झूले से नीचे आई थी। बाद में सलोनी की सखियों ने बताया, "सत्यनारायण मास्टर देख रहा था। पूछ रहा था सलोनी है! उसके साथ और कौन है?" सलोनी 'मरने' के खुमार में सराबोर थी, बोली, "तेज़ाब।"

अगली शाम जब मैं वहाँ पहुँचा तो किशोर गैंग पहले से मौजूद था। प्रवीन मुझे सुनाकर बोला, "कबूतर अकेले फुदक रहा है, कबूतरी कहाँ हैं।" इन दिनों विदुर और बद्री नहीं होते थे। कुछ-न-कुछ होने की स्पष्ट संभावना थी। मेरे लिए जरूरी था सलोनी की हिफाजत। सलोनी को यहाँ आने से रोकना था। मैं वापस लौटने लगा। किशोर आगे आ गया, "कबूतरी में तेज़ाब है जल जाएगा।" वह बोला, "उसको तो हम...।" वह अश्लील इशारे करने लगा। मेरा दिमाग फिर गया। मणि उससे गुँथ गया था। प्रवीण एवं पिंटू मेरे ऊपर लात चला रहे थे, लेकिन मैं किशोर को नीचे दबोचे हुए था। मैंने अपनी एक हथेली उसके मुँह पर और एक नाक पर लगा दी थी। मैं उसे मार देना चाह रहा था। किशोर बेहताशा पैर पटकने लगा था। अघोरी महतो ने मुझे खींचा था। इससे पहले सत्यनारायण मास्टर नगाड़ा बजा रहे थे, "आप लोग साइड हो जाइए। इनको आपस में फरियाने दीजिए।"

अघोरी काका ने सत्यनारायण को एक थप्पड़ मारा था और मुझे कहा, "चलिए। वोट के टाइम में अकेले निकलते हैं? छउड़ी के चक्कर में दुनिया से जाइएगा।" मुझे अच्छा नहीं लगा, फिर भी मैं चल पड़ने को था तभी मेरे सर पर फट्ट से लगा था। खून से रंग गया था मैं। किशोर ईंट चलाकर भागा था। ठीक उसी वक्त कमर्शियल हिंदी फिल्मों की तरह परिदृश्य पर सलोनी की एंट्री हुई थी। वह वहीं चिल्लाने लगी। लेकिन अघोरी काका ने कहा, "पहले हॉस्पिटल ले चलो।" सलोनी रिक्शे पर मेरे साथ बैठी थी और मेरे माथे पर हाथ रखे हुई थी। पूरे रामनगर ने इसे देखा था और कुछ नहीं कर पाया था। किशोर-विशोर तो भाग गया था। वह मुझे बहुत लिजलिजा-सा लगा था। रिक्शे पर मैं बैठा था, सलोनी बैठी थी। अघोरी काका पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। हॉस्पिटल में मलहम-पट्टी होते-न-होते पापा पहुँच गए थे। उस रोज सारा धामपुर रामनगर के हॉस्पिटल में था। वहाँ खबर पहुँची थी कि श्याम जी का बेटा मारा गया। हमेशा लुंगी-बनियान में रहने वाला दरोगा जी, जिन्हें अपनी बेटी की शादी सरयू बाबू के बड़े बेटे से करनी थी, वर्दी चढ़ाकर हॉस्पिटल आ गए थे। वह पिताजी से पूछने लगे, "क्या हुआ।" पिताजी बोले, "चलिए थाना पर बात करते हैं।"

थाने में दारोगा का कहना था, "बच्चों का झगड़ा है। आपस में निबटा लीजिए। सरयू बाबू को भी बुलवाते हैं। उनका बेटा यहाँ माफी माँगेगा।" इस पर पिताजी बोले, "इलेक्शन के बाद फेंका जाइएगा।" पीछे पूरा धामपुर भनभनाने लगा था।

दारोगा बोला, "ठीक है। जैसा कहिएगा हम तो यहाँ कर देंगे। उस बच्चे को पकड़कर बंद कर देंगे। लेकिन कोर्ट में उस लड़की का नाम उछलेगा, ठीक होगा।"

मैंने पिताजी से कहा, "छोड़िए।" उन्होंने मुझे डाँट दिया। लेकिन भैया जो उन दिनों छुट्टी लेकर आए थे। पिताजी को राजी कर लिए। पिताजी यह कहते हुए उठे, "इलेक्शन के बाद देखते हैं।"

घर पहुँचने पर माँ बोली, "इस उम्र में इतना नाम करना जरूरी है।" उनके साथ कुसुम बैठी थी। वह माँ के साथ आँसू बहा रही थी। माधव भैया उस रोज भी नहीं चुके, "तेज़ाब का चंदन लगा लिए। इलेक्शन बीत जाने दीजिए। फिर सब व्यवस्था होगा।"

चुनाव-प्रचार चरम पर था। पिताजी ने भइया की ड्यूटी मुझे पर लगा दी थी, "यह बौरहवा है। धामपुर से बाहर नहीं जाए।" भइया मेरी हर बात से राजी थे। वे कुछ भी करने को भी तैयार थे, पर चुनाव के बाद। पिताजी ने मेरी पिटाई को अच्छा भुनाया। वे हर भाषण में कहते कि मेरे बेटे को सुमेर नेता के गुंडों ने पीटा।

इलेक्शन के दिन भइया गाँव के बूथ पर चले गए थे। मैं चुपचाप सलोनी के यहाँ निकल गया। सलोनी बीमार थी। मेरे पहुँचते ही वह बोली, "मरेंगे।" हम तुरंत 'मर' गए थे।

वह बोली, "क्या होगा ?"

मैंने कहा, "मैंने भइया से बात की है। मैं सब कर लूँगा।"

वह बोली, "तुम क्या कर लोगे ? एक मैप तो दिए नहीं... मुटकी...।"

वह गमगीन हो गई थी, "सब प्लान बना रहे थे कि इलेक्शन के बाद...।"

"क्या !"

"छोड़ो कुछ नहीं होगा।"

फिर वह क्या-क्या बात करने लगी थी। मैं सुन रहा था और मोमबत्ती के लौ के आस-पास उँगली घुमा रहा था।

"पकेगा।" सलोनी बोली।

"नहीं पकेगा।"

"ठीक है, नहीं पकेगा, हाथ हटाओ।"

"नहीं अच्छा लगता है।"

"तो ठीक है।"

वह लौ के बीच अपनी उँगली घुसा दी। उसका नख जल गया। अबकी मैं फ्रीज हो गया था। उँगली जल रही थी पर वह उसे हटा नहीं रही थी। उसका चेहरा रक्त-सा हो गया था। मेरे अंगों की हरकत चुक गई थी। जब उसके नख से लौ उठने लगी तो मेरी आवाज फूटी, "हटाओ।" मैंने आंटी को वैसा बता दिया जैसा हुआ था। आंटी उसे एक थप्पड़ लगाकर बोली, "भगवान एक बेटी दिए, वह भी पागल। क्या होगा इसका।" वे कुछ देर बाद बोलीं, "इसके मामा दिल्ली में हैं। इम्तहान के बाद वहाँ भेज दूँगी।"

यह अच्छा था। माँ की तरह भइया भी राजनीति से चिढ़ते थे। उन्होंने मुझसे पूछा था, "राजनीति करोगे। पिताजी कह रहे थे की आशुतोष का इंटरेस्ट है।' मैंने कहा, "नहीं।" उन्होंने कहा, "इंटरमीडिएट करके दिल्ली निकल जाओ। पिताजी राजी नहीं हुए तो मैं हूँ।"

पिताजी के चुनाव जीतने के बाद भइया लौट चुके थे। सलोनी के इधर मेरे आने-जाने में कोई बाधा न थी, पर वह बहुत ज्यादा उद्विग्न रहती। रामनगर में कोई मुझसे कुछ नहीं कहता। प्रचलित मुहावरे में तूफान से पहले की शांति थी।

इधर पिताजी ने एक शाम मुझे समझाया - "अब बंद कीजिए यह सब। आप विधायक के बेटे हैं। लौंडे-लपारेगिरी छोड़िए। कल को हमें लोकसभा लड़ना है। हो सकता है आपको नीचे लड़ना पड़े। शोहदे बनाकर कहाँ पहुँचिएगा।"

मैंने कहा, "उस शाम तो आप कह रहे थे कि डरो मत। अब मुझे यहाँ नहीं रहना है। मैं दिल्ली पढ़ने जाऊँगा।"

वे गुस्से में आ गए, "पीढ़ियों के संघर्ष के बाद यह सब मिला है। किसके लिए कर रहा हूँ यह सब। और निर्णय लेने की उम्र आपकी अभी नहीं है।"

इंटर की परिक्षा के बाद सलोनी एवं आंटी दिल्ली जा रहे थे। मैंने भइया से बात की तो वे बोले, "व्यवस्था कर रहा हूँ।" उस रोज मैं, विदुर और बद्री उन्हें शहर तक छोड़ने जा रहे थे। जहाँ से उनकी ट्रेन थी। सलोनी के साथ मैं बद्री के मोटर साइकिल पर था। विदुर के साथ आंटी थीं। वह हाथी पुलिया था जहाँ हमारी मोटर साइकिल सुमेर नेता के जीप से टकराई थी।

मुझे जब होश आया तो सामने माँ थी। वह जोर-जोर से रोने लगी। नर्स उन्हें बाहर ले गई। पूरा धामपुर उस आई.सी.यू. में घुस आया था। घंटों मुझे समझ नहीं आया कि यह सब क्या हो रहा है। शाम को कुसुम आई थी, वह बोली, "हफ्ते बाद आपको होश आया है, माँ उस रोज से नहीं हिली यहाँ से।" मैंने पूछा, "सलोनी?" वह उठाकर चली गई। एक्सीडेंट में न सलोनी बची, न बद्री। कुसुम ने बताया कि आंटी दिल्ली जा चुकी हैं। नेताजी जेल में हैं। उनके घर को भट्ठे के मजदूरों ने फूँक दिया।

बाद में अघोरी काका ने बताया कि उन लोगों का इरादा चुनाव से पहले ही तुम्हें खत्म कर देने का था। उन्होंने अपनी हार के लिए तुम दोनों को भी जिम्मेदार माना। उनको सलोनी बिटिया के दिल्ली जाने की बात पता चली तो वे आपे में नहीं रह गए थे। बोले थे कि राजधानी में रास होगा, बहुत फिल्में हो गईं। वे हाथी पुलिया पर जीप स्टार्ट कर खड़े थे। बद्री के मोटर साइकिल से सीधी टक्कर कराई थी उन्होंने।

आंटी अब सिर्फ मुकदमे की तारीख पर आती हैं।

दिल्ली जाने पर मैं आंटी के पास गया तो भावुक हो गईं थीं। उन्होंने मुझे गले लगा लिया, "अब तुम्हीं हो।" उन्होंने सलोनी की किताबें, पर्स, गुलदस्ता, चित्रकारी की फाइल मुझे दे दी। टेबुल पर सलोनी की तस्वीरें थीं। बड़ी-बड़ी आँखों से घूर रही थी, 'मैप।'


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हिंदी समय में राजीव कुमार की रचनाएँ