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कहानी

मृत्यु उत्सव

राजीव कुमार


अपने असबाब के साथ कुनबा आगे बढ़ रहा था, जिसमें अपने शिथिल कदमों से जयकिशोर चाचा भी शामिल थे। अपनी मंथर गति से काका खुद को पीछे छोड़ने का असफल-सफल प्रयास कर रहे थे। घर की चौखट से सब साथ चले थे, लेकिन घर से बस वाले मोड़ के बीच की चार फर्लांग की दूरी संबंधों के हर फासले को दर्शा रही थी। काका को आज जयकिशोर चाचा को छोड़ना था या खुद पीछे छूट जाना था।

भूगोल के उस टुकड़े में सभ्यता अभी मार्फत शोभा डे, एकता कपूर तक नहीं पहुँची थी (है)। दोपहर निबटाने के लिए 'क' ट्रेडमार्क का सास-बहू का लाक-डाक झगड़ा बुद्धू बक्से में नहीं आया था। ऐसे झगड़े माँची की जिंदगी में चक्कर लगा रहे थे। जब दोपहर होती और खेत-पथार से थककर लौटे पुरुष नींद की गिरफ्त में चले जाते, तब टोले भर की औरतें पीपल के पेड़ के तले इकट्ठा होतीं। दोपहर परनिंदा की सबसे बड़ी संसद थी, जिसका विधेयक ऊब भरा वक्त होता था, जिसे निबटाने की दैनिक मजबूरी थी। मानपुर वाली दादी निंदा-संसद में अकेली प्रतिपक्ष होतीं जब वे काका के बारे में कहतीं, "बुढ़वा चांइ है।" निंदा-संसद में समवेत असहमति छा जाती।

काका! अगर कभी किसी कारण से - जिसके बारे में आज की तिथि में किसी को कुछ पता नहीं - माँची का कोई इतिहास लिखा जाएगा, शासक एवं विश्लेषक नक्शे पर नामालूम बिंदु को रक्त, सफेद, या स्याह रंग से उकेरने को विवश हो जाएँगे, तब काका को जरूर याद किया जाएगा - ऐसा चुम्मन बाबा का फौजी एवं रामआधार सिंह का राजनीतिक विश्वास है।

इधर लोकतंत्र चाहे जितना ज्यादा लोकतंत्र बन गया हो, पिछले पाँच चुनावों से इस गाँव के बूथ पर वोट तभी श्रीगणेश को पहुँचा है जब काका ने दातून-पानी करने के बाद पहला वोट डाला। पार्टी चाहे लाल हो, तिरंगा हो, हरा हो अथवा भगवा, काका ने ट्रेडिशन चला दिया है - जो एडवांस में पैसा देगा पूरा गाँव उसी को वोट देगा। जो इधर-उधर के लिए तड़फड़ाते हैं उन्हें काका का टका-सा जवाब होता है- 'आप ही ज्यादा लाइए फिर अपनी ओर ले जाइए सब वोट।' और सबका कहना यही कि 'उचित बात है।' काका को कुछ नहीं चाहिए। विचार कर लीजिए रोड पर माटी गिरवाइए या पुस्तकालय में छड़की दिलवा दीजिए। जन्म से शुरू करके श्राद्ध तक, बीच में पढ़ाई-लिखाई, विवाह-शादी, मामला-मुकदमा, खेत-खलिहान, पर्व-त्योहार, पंचायत-फैसला - सब कुछ काका के इकबाल से ही सधता है। मानेचौक वाली दादी कहती हैं, 'सब गड़बड़ वही करवाता है, इसलिए सबका काट भी जानता है।' लेकिन गाँव में सबका मानना है कि काका को क्या कमी है। हैरी अमेरिका से जो भेजता है, उसके एक (डॉलर) का पचास (रुपया) बनता है। स्वयं मानेचौक वाली दादी कितनी ही गाली क्यों न दे लें, काम के लिए काका से ही निर्देश लेती हैं। हाँ, उनकी शैली हवाला वाली है। वे काका की राज्य का लाभ सीधे न लेकर मार्फत लेती हैं। राम सिरीठ चचा बिचौलिया बनाते हैं। गाँव में 'मसल' चलता है, "कहत कबीर सुनो भाई संतों, काका के बिना केकरो न बनतो।"

अरे, सुभई महाराज वाले मुकदमे को तीन पुश्त में कौन नहीं जानता है। गाँव भर ही नहीं, चौहद्दी भर का हिसाब है। अँग्रेज बहादुर चले गए, कांग्रेस का राज कई बार उलटा-पलटा, लेकिन एरिया में सुभई महाराज का रुतबा आज भी फर्स्ट क्लास है। कहिए तो माथा पर एक बित्ता जोत की जमीन नहीं है, पर आज भी दो सौ बीघा जमीन का भोग कौन करता है। जमीन जिनके नाम से है वे उनके नौकर-चाकर हैं। दामाद क्षेत्र का एमएलए है। जब पटना में अधिवेशन ठनता है तो साढ़े सात के प्रादेशिक समाचार में रामआधार सिंह का नाम जरूर आता है। पटना से लौटने वाले लोग बताते हैं कि मुख्यमंत्री भी रामआधार नेता को बुलाकर प्राइवेट में बात करता है। उसी सुभई महाराज से ठन गया माँची का। काका भी एक जिद्दी हैं। एक ओर सुभई महाराज का नाम, धन और एक ओर एक कनेक्शन, दूसरी ओर काका का हौसला, "भला पोखरी कैसे दे दें। स्टेट गवर्मेंट का कब्जा नहीं हो पाया तो सुभई महाराज क्या चीज हैं। 'सेवित राज जानकी रहेगा।"

पोखरी मूँछ नहीं रखने वाले काका के लिए मूँछ का सवाल बन गया। गाँव के दिल्लगीबाज अनजान लोगों को उकसाकर काका से पूछते हैं कि उनके पास मोंछ नहीं है। जवाब फौजी-रौबदार मूँछ वाले गाँव भर में काका की उम्र के सिंगल आदमी चुम्मन बाबा देते हैं - 'रीट गोरका की संगति में 'बलगोबिना' बन गया।' काका! 'बलगोबिना'! कहने कि हिम्मत सिर्फ चुम्मन बाबा को है। गाँव में बात-बात में लजा जाने वाले, दाढ़ी-मूँछ नहीं रखने वाले 'उस टाइप' के लोगों को बलगोबिना कहा जाता है। खैर रीट साहब वाला पेंच यह है कि रीट, अंग्रेज बहादुर स्वराज से पहले दस मील चौहद्दी का हाकिम था तथा बेलसंड में उसका ठिकाना, उसके ठिकाने वाला चौक आज कोठी कहलाता है, न जाने काका से कैसे उसका हेम-खेम हो गया। इस घटना को मिसाल बनाकर मानपुर वाली दादी कहती हैं - 'बुढ़वा जादू-टोना जानता है, नहीं तो हाकिम-हुक्काम को अपनी उँगली पर नचाना दाल-भात का कौर है क्या?' खैर, रीट साहब जंग के चहरे पर फॉरेस्ट देखना नहीं माँगते थे। इसी सब घाल-मेल में काका की दाढ़ी-मूँछ गायब हो गई, नहीं तो दालान में लगे फोटो में क्या लहक-लहक चेहरा है। चुम्मन बाबा के फौजी चहरे के मुकाबले में तनिक भी उन्नीस नहीं है। हमारी पीढ़ी के लोग जिन्होंने काका की जवानी नहीं देखी है, दालान वाला फोटो देखकर रोमांचित हो जाते हैं।

चुम्मन बाबा को साइड कर दिया जाए तो काका सबके काका हैं - अपने भाई के भी, पोता के भी, दामाद के भी, नौकर के भी। एक वही हैं जो सबके लिए बराबर हैं। घर-बाहर, दोस्त-दुश्मन, हाकीम-हरवाह। तो पोखरी के मुकदमे के कारण पूरा टेंशन था। काका की मूँछ का सवाल था। मीन-मेख निकालने वालों का कहना यह है कि पोखरी बचा लें तब 'हरदी-चूना' मानेंगे। हो गया फैसला। गाँव भर जमा हुआ मठ के चबूतरे पर। काका का फरमान - इस बार सब कुछ 'फूल-अच्छत' होगा। बरह्म स्थान का खीर-भोजन, महारानी स्थान का नवाह, होली का हुड़दंग - दासों उँगली जोड़कर और तुलसी चढ़ाकर देओता-पिटर से माफी माँग लिया जाएगा और रोकड़ा इसी महाल में जाएगा। गाँव की इज्जत का सवाल है। पंद्रह कोस जमीन छोड़कर कोई आएगा और पोखरी को ले जाएगा, हँसी-ठठा है क्या? पूरा गाँव एक मत। काका जो विचार कर दिए सो फाइनल। और तो और वकील साहब भी सेट। उनकी कंजूसई को कौन नहीं जानता। अपना चचेरा भाई मरा था, लेकिन उनके खटाल का दूध समितिवालों से बिका था। कारण? दो पैसा लिहाज करना पड़ता। पूरा गाँव सनक गया था। बाइकाट। सारा अरेंजमेंट काका ने किया। क्या माँची? अथरी, रुन्नी, सैदपुर, बेलसंड, परसौनी से लेकर सीतामढ़ी तक हर गाँव फिक्स हो गया। बौराए हुए वकील अपने दरवाजे से टुकुर-टुकुर ताकते रह गए। लाख कोट-कचहरी, मंत्री-संत्री जोतते हैं चौहद्दी में क्या इज्जत रही। काका का जै-जैकार। वकील का गाँव में किचाइन होने लगा। गाँव पर रोब ठँसने के लिए जज, कलक्टर, मंत्री, ठेकेदार को बुलाते रहते हैं, लेकिन कभी किसी का भला भी किया है ? कहा कि एकाध को 'जगह' दिलवा देते सो नहीं। अरे रामखेत वाले सुंदर बाबू जब आई.जी. थे। जब उन्होंने पत्नी की टोकी-टोकी के बावजूद गाँव को सिपाही से भर दिया। सिपाहिया गाँव कहलाता है। रामखेत गाँव में आ जाएँ सुंदर बाबू तो उनके कुत्ते के लिए दूध का टेंशन भी हेडमास्टर साहब को हो जाता है। हेडमास्टर साहब के बड़के लड़के को वही लगवाए थे। कोई एक केस है! तब न सैंकड़ों बीघा जमीन में से सीलिंग में एक धूर भी नहीं गया। कागज पर नाम बँट गया, जमीन चकाचक। लेकिन कानूनबाज होकर भी वकील क्या बच पाए!

मठ पर मीटिंग में जब वकील साहब बिना बुलाए गए तो उनके उपहास में हे, हे अ अ इहो, इहो अ अ होने लगा। हर कोई अचंभित, हर कोई पिनका हुआ। लेकिन काका ने सब कंट्रोल कर लिया। काका का फरमान, "चुप रहिए सब, कोई कुछ नहीं बोलेगा। अच्छा-बुरा, अपने भाई हैं।" मुन्ना डॉक्टर उर्फ मुन्ना झोला को काबिल बनाने की आदत है। उसने काका को टोका, "काका आप भी... ?" मुन्ना झोला इतना ही बोल पाए थे कि सारा गुस्सा उस पर ट्रांसफर हो गया - "रे मुनमा, तू काका से ज्यादा समझदार है!" मुन्ना, बी.एससी. जुलॉजी आनर्स, बेरोजगार, गाँव में चुतपुतिया डॉक्टरी करता है। मिलता क्या है बदले में, दो चार रुपया और गाली। उसके कंधे पर एक झोला हमेशा रहता है। इस कारण लोग उसे मुन्ना झोला कहते हैं। डॉक्टर की जगह झोला कहलाए जाने के कारण बहुत सॉरी फील करता है। उसका मानना है कि गाँव में हुनर की कद्र नहीं है। सीतामढ़ी में डॉ. डे बुलाते हैं, जब चला जाएगा तब सबको बुलाएगा।

किसी को एक बार में विश्वास ही नहीं हुआ कि 'पोखरी महल में वकील ने बीस सैंकड़ा रुपया चंदा दिया है। सब काका का इकबाल। 'गैप' को बाद में चुम्मन बाबा ने पब्लिक में सर्कुलेट किया। बकौल चुम्मन बाबा, वकील को रामआधार नेता के विरुद्ध टिकट का चांस है। लेकिन इससे बड़ा 'गैप' यह है कि इस सेटिंग में काका का भी हाथ है। गैप? गाँव का अपना डिक्शनरी है। माँची से रहस्य के लिए 'गैप' चलता है।

वकील साहब और काका माँची से लेकर पटना को एक कर दिए। एक ओर वकील का अनुभव और काका का इकबाल और दूसरी ओर सुभई महाराज के दामाद रामआधार नेता का रुतबा। लेकिन रिजल्ट क्या हुआ ? वही जो चौरासी के इलेक्शन में कहवैत चला था, "कितना भी कर लो बाप रे बाप, फिर भी जीतेगा हाथ छाप।"

डुमरा कोर्ट में वकील साहब जब अपनी गोटी लाल करने में सक्सेसफुल हो गए तो वकील साहब की सो भद्द पिटी थी। एक और 'गैप' तब खुला था। पोखरी वाला मामला वकील साहब की ऐतिहासिक चूक का परिणाम था। कभी सुभई महाराज वकील साहब से टकराए थे, तब वकील साहब ने ही सुभई महाराज को याद दिलाया था कि माँची के मंदिर के बगल में सुभई महाराज का जिरात था, जिस पर सुपर सीनियर सुभई महाराज ने पोखरी खुदवाया और व्यवस्था बना दिया था कि राम-जानकी के उस मंदिर के सेवक को पोखरी से लाभ प्राप्त होगा। इसी कारण पोखरी सेवैत राम-जानकी है। अब पुजारी क्या मछली खाएगा। तो पोखरी-लाभ गाँव को और गाँव से सीधा-सब्जी मठ को। अब इतने वर्षों बाद जब सरकारी लाट वाला कागज लोगों को दिखा-दिखाकर सुभई महाराज के चमचों-बेलचों ने गाँव की पोखरी पर महाराज सुभई का अधिकार जतलाया तो गाँव में हाहाकार मचा गया। इधर वकील घबराए कि टिकट का चांस है, कहीं हवा न बिगड़ जाए।

तो डुमरा कोर्ट में सुभई को डिग्री मिलने के बाद और नया 'गैप' खुलने के बाद वकील की लानत-मलामत हुई ही काका भी हत्थे चढ़ गए। मानपुर वाली दादी ने पूरा मोर्चा खोल दिया, "बुड्ढा गाँव पर गिद्ध बनके बैठा है।" लेकिन औरों ने अभी उम्मीद नहीं खोई थी, "काका कोई रास्ता निकालेंगे।" वही हुआ। डुमरा कोर्ट का फैसला 'दूध-भात' साबित हुआ, अंतिम फैसला तो पटना के इजलास में हुआ। कहते हैं कि वकील ने जो जिरह किया कि गाँव से तमाशा देखने गए एकाध लोगों ने गाँव लौटकर कहा - "वकीलबा भी कोई चीज है।" उन्हीं तमाशाबाजों ने यह न्यूज भी फैलाया कि काका के तर्क एवं गवाही से जज सिटपिटा गया। अंत में उसने काका से ही पूछा कि कहिए फैसला में क्या लिख दें। इसके बाद तो गाँव में निर्विरोध मान लिया गया कि काका में सत्य का अंश है, वह बरह्म है।

पटना की जीत के बाद तो पूरा गाँव मारे खुशी के अगिया-बैताल बन गया था। लौटने पर काका का जो स्वागत हुआ कि रामआधार नेता का एम.एल.ए. बनाने पर भी क्या हुआ होगा। काका का सर गर्व से उन्नत था, छाती एक बित्ता चौड़ी हो गई।

जब कभी किसी कारण से - जिसके बारे में आज के दिनांक में किसी को कुछ मालूम नहीं है - माँची का कोई इतिहास लिखा जाएगा तब एसी अनेक दिग्विजयी चर्चाओं में काका बार-बार आएँगे। लेकिन शायद ही वह चर्चा आएगी जब काका और जयकिशोर चाचा के बीच रस्ते के चार फर्लांग की दूरी उम्र भर लंबी दूरी बन आ गई थी। तब काका का सर पहला पहली बार झुका था। जीवन में पहली बार। न जाने उनके मन में कौन भाव उठ रहे थे, जो हिम्मत से अपने बेटे अभय किशोर की मौत को झेल गए थे, आज वे टूट रहे थे।

किसी गाँव के किसी भोज में एक बिल्ली बार-बार इधर-उधर कर रही थी, लोगों ने उसे पकड़कर बाँध दिया। वह बिल्ली मर गई थी। माँची में काका के दादा खून की उल्टी से मरे थे। किसी गाँव के अगले भोज में बिल्ली वाला वाकया फिर से हुआ। काका के पिताजी फिर खून की उल्टी के बाद ही मरे थे। फिर 'किसी गाँव में यह परंपरा बन गई कि भोज में बिल्ली को पकड़कर बाँधा जाता और वह मर जाए तो बेहतर।' काका के परिवार में यह मान लिया गया था कि जिसे खून की उलटी हो चुकी है, दुनिया में उसकी भूमिका भी अदा हो चुकी है।

काका को खून की उल्टी हुई है। उनके दरवाजे पर पूरे गाँव का मजमा लगा हुआ है। पता चला कि मानेचौक वाली दादी अपनी चौखट पर माथे पर हाथ रखकर बैठी हुई हैं। आने-जाने वालों से 'बढ़वा' का कुशल पूछ रही हैं। चुम्मन बाबा बहुत दुखी हैं। वे कराह उठाते हैं, "अब गाँव का इकबाल चला जाएगा। ये लौंडे-छौंडे गाँव की नाक क्या बचाएँगे, कटवा जरूर देंगे। टेका (ओझा-भगता का लीला चलता है) पर जाकर लड़की का दुपट्टा उड़ाएँगे और पिटाएँगे।"

अश्विन नवरात्र की अष्टमी को रामआधार के टेका पर बड़ा भारी जलसा होता है। पिछले जलसे में चौहद्दी में मशहूर विसंभर कंपनी का नाच आया था। खुद विसंभर औरत का पार्ट सॉलिड खेलता है, एकदम से जमा देता है। इसे देखने के लिए गाँव-गाँव से भीड़ उमड़ी थी। लड़कियाँ भी आई थीं। अपने गाँव के टेका पर आई लडकियों को देखकर गाँव के उचक्के बौरा गए। मोहन चश्मा (हमेशा काला चश्मा पहने रहने के कारण वह इस विरुद से प्रसिद्ध है) ने किसी लड़की का दुपट्टा उड़ा लिया। ज्यों ही काँव-काँव मची कि लड़की का चाचा, जो स्वघोषित नेता था, कुर्ता-पायजामा एवं छींटदार गमछा में वहीं मौजूद था। वह तुरंत तमंचा, थ्रीनट एवं सिक्सर की बात करने लगा। एकदम से तक-धिना-धिन मच गया। वहाँ काका फौरन पहुँचे और चाचा-नेता को 'गुप्ति' (एकांत) में ले जाकर समझाया कि आपकी लड़की है न, फसाद होने पर किसकी बेइज्जती होगी? बात सँभल गई, नहीं तो दो-चार लाश गिरनी ही थी।

हाँ कुछ और हो न हो, दो-चार लाश गिराने की बात फौरन चल पड़ता है। अरे नेता सिक्सर वाला था, तो इधर भी कोई कम 'सामान' है? गाँव में 'व्यवस्था-बात' तो रखना ही पड़ता है। गाँव के डिक्शनरी में असलाह के लिए 'समान' एवं 'व्यवस्था-बात' शब्द तय है। माँची को नजर न लगे, 'व्यवस्था-बात' एवं 'समान' सिर्फ बातचीत एवं चर्चा में ही चलता है, बाकी निबटारा तो बोली-बात-मध्यस्थता से ही हो जाता है।

कराह उठे 'सरपंच रमेश चाचा, "अब पोखरी पर सरकार का कब्जा हो जाएगा। जिस पोखारीवाले मुकदमे के कारण 'गहगड्ड' (हो-हंगामा) मचा और अगर माँची का कभी कोई इतिहास लिखा जाएगा तो उस घटना के एवज में कई सफे रंग जाएँगे। न जाने क्यों प्रशासन उसे 'सेवैत राम जानकी' से बिहार सरकार कराने पर तुली हुई है। कहना सरपंच रमेश चाचा का ही - इस पोखरी के कारण ही यह गाँव जिलाजीत है। वकील तो चुनाव निकालने के बाद कभी आया नहीं; हरुआ, रामआधार नेता प्रशासन को उकसाता रहता है।"

काका ही हैं जिनके कारण माँची की होली एरिया में फेमस है। काका ने परंपरा गढ़ दी है। उधर सावंत जला इधर पोखरी में महाजाल गिरा। सुबह से ही काका के दालान पर मछली, पुआ और भाँग तैयार मिलेगा। जो चाहे आए। जो चाहे रंग खेले। जो चाहे रस चढ़ाए। गाँव के लोग हों या राही-बटोही, कोई भेदभाव नहीं। 'आ-हा-हा! जो जिए सो खेले फाग।'

उस वर्ष के सीतामढ़ी वाले दंगा के बाद जरा भेद-भाव बढ़ गया है, अब कोई मुसलमानों पर रंग नहीं डालता। पहले तो 'हलाल' और 'झटका' का कोई झगड़ा नहीं था। होली पर सुलेमान ही बकरा मारता था। बशीर दर्जी अब भी गाँव के कुछ लोगों को ईद की सेवईं दे जाता है, भले ही लोग उसे मारे अविश्वास और नफरत के कुत्ते को खिला दें।

यह सब फूट-फाट नया है, नहीं तो पहले, आह पड़ोसी गाँव के मुसलमान भाई, माँची के हिंदू और कोठी बाजार पर टेंट लगाए करोरबा, होली के दिन तो सत्यनारायण की पूजा के तिल-जौ-अक्षत हो जाते। वह डफ और वह झाल - 'भअअर फाअअगुन बुढ़वाअअ देओअअर लागेअअ' की तान चुम्मन बाबा फौजी उत्साह के साथ छेड़ते तो काका 'लअअइड़कअअअ होगोअअपाअअल कूदअअ पड़े जमुनाअअ में।' पूरा गाँव उत्साह बढ़ाता - 'वाह-वाह-वाह-वाह; हो हो।' कहना चुम्मन बाबा का कि सब जंग तक ही है। काका को नाम से सिर्फ चुम्मन बाबा ही बुलाते हैं। गाँव के लोगों का कहना है कि इसमें भी 'गैप' है। चाचा पीढ़ी के लोग इसे समझते हैं। पर आगे की पीढ़ी के लोगों को समझा नहीं पाते।

समय-समय पर माँची की फिजा में कुछ शब्द तैरने लगते हैं तथा माँची की निजी डिक्शनरी में शब्दों की श्रीवृद्धि करते हैं। लोग-बाग उसे लेकर विभोर रहते हैं। न उसकी पैदाइश का पता चलता है न उसके प्रसार की गति का। कुछ शब्द तो आश्चर्यजनक रूप से व्यंग्यार्थ है। एकांत के लिए 'गुप्ति' चलता है तो 'गैप' का व्यंग्यार्थ रहस्य है, 'मोहन आपसे' का अर्थ चूतिया, हरामी, जो लगा लीजिए, चिअरभउका का क्या अर्थ है किसी को नहीं मालूम, 'पहिले' का अर्थ यौन-संसर्ग है खासकर 'गे' टाइप का; यह शब्द कुछ ऐसे चलता है। 'पहिले से आराम है।' यह सब हरि अनंत हरि कथा अनंता है। जब कभी किसी कारण से माँची का इतिहास लिखा जाएगा तो शायद ही इन इबारतों में से कोई उसमें स्थान पाएगी। परंतु आज यह नहीं है तो माँची नहीं है, यह है तो माँची है। सपाट इतिहास में इनके मर्म का निवेश कैसा होगा। कौन यहाँ चलने वाले कार्य-व्यापार को सुलझाएगा। वह जीवन, वह उल्लास। गाँव में जहाँ दस लोग इकट्ठा हुए नहीं कि कोई किसी का बाल खींच लेगा और शोर का एक झोंका गुजर जाएगा - 'एक रिल कर गेल।' अगर वो ज्यादा परेशानी शो करता है तो बगल से गुजरते हुए राम सिरीठ चाचा मोटर साइकिल के शॉक-आब्सर्बर की तरह कंधा उचकाते हुए कहेंगे - 'क्या भाई 'पाहिले' तो वे अपने दरवाजे से 'बगैरत-बगैरत' कहकर मामले की समाप्ति की घोषणा करेंगे। अब 'बगरैत-बगरैत' कहकर मामले की समाप्ति की घोषणा करेंगे। अब 'बगरैत-बगरैत' का अर्थ करते रहिए।

अपने पूर्वजों से सुनी बातों को चाचा की पीढ़ी के लोग सुनाते हैं। काका एवं चुम्मन बाबा दोनों का जन्म बड़का भूकंप वाले साल में हुआ था। होली के आस-पास काका का एवं छठ के आसपास चुम्मन बाबा का। इस लिहाज से काका ही बड़े हुए। लेकिन माँची में हिसाब के नियम को कौन भैलू देता है। माँची में तो 'गैप' पर 'गैप' है। बुजुर्गों में पहली गिनती और ऊँचा ओहदा चुम्मन बाबा का है। और तो और, काका भी उन्हें बाज दफे दंडवत कर लेते हैं। और चुम्मन बाबा मोटी-सी टाँक देते हैं। मुँह पर तो नहीं पर पीठ-पीछ लोग उन्हें 'सामा-चकेबा' तो कोई 'तोता-मैना' भी कहता है। इधर वकील साहब का लौंडा (पूरे गाँव में किसी बच्चे को फलाने का बच्चा, बेटा या बेटी कहा जाता है, पर वकील साहब के बेटे को सब वकील का लौंडा ही कहते हैं।) सिद्धांत ने इन दोनों को 'इलेक्ट्रॉन की निर्जन जोड़ी' कहना शुरू किया, पर गाँव में एक वही गुनी समांग थोड़े ही हैं। बेलसंड हाईस्कूल के स्कूलिया लड़कों ने किताब में चिह्न लगा लिया कि 'इलेक्ट्रॉन की वह जोड़ी जो हमेशा साथ रहती है पर किसी प्रतिक्रया में भाग नहीं लेती...।' भला काका और चुम्मन बाबा गाँव का ऐसा कौन-सा काम है जिसमें भाग नहीं लेते। यह नाम रिजेक्ट।

काका के दरवाजे पर लोगों का आना-जाना लगातार बना हुआ है जैसे कोई कॉर्निवाल चल रहा हो। लेकिन इस कॉर्निवाल में केवल आवागमन है, उत्साह नहीं है। गाँव भर के बच्चे काका के दालान पर मँडरा रहे हैं, कोई चबूतरे पर लेटा हुआ है तो कोई जयनंदन की नजर से बचाकर आम के पेड़ पर एक ढेला चलाकर मंजर गिरा देता है। आम के पेड़ पर ढेले की झड़झड़ाहट सुनते ही बारह साल का जयनंदन उसके फेंकने वाले के सात पुश्तों में बिना किसी एक पर रहम किए हुए हर किसी को पुरातात्विक गाली से नवाजने लगता है। लोग उसे समझाते हैं तो वह बिफर पड़ता है, "मेरा आदमी भी मर रहा है और मेरी ही चीज का नुकसान भी कर रहे हैं, "मेरा आदमी भी मर रहा है और मेरी ही चीज का नुकसान भी कर रहे हैं सब।" वह सबको हड़काता है, 'सिनेमा चल रहा है क्या?' बच्चे एक-दो कदम इधर-उधर करते हैं, फिर वही गोलबंद हो जाते हैं।

युवाओं में काका के पैर दबाने की एक ही होड़ लगी हुई है, मानो इसी से काका के इकबाल का कुछ-कुछ अंश हर किसी में चला जाएगा। चुम्मन बाबा नौजवानों के चाल-चलन से चिंताग्रस्त रहते हैं, बार-बार अपना फौजी गुस्सा दर्शाते रहते हैं, पर इधर उस साइड से कुछ नरमाए हैं। उन्हें कोई और उपमा नहीं सूझती तो कहते हैं - जब रावण मर रहा था तब लक्ष्मण उसका पैर दबाने गया था, राम सिरीठ चाचा बात को लपक लेते हैं और प्रश्न टाँक देते हैं, "काका रावण हैं?" चुम्मन बाबा झेंप जाते हैं। इस गमगीन माहौल में भी शोर का एक झोंका सबको घड़ी भर के लिए तरंगित कर जाता है। - 'एक रिल कर गेल।'

रे, कौन नहीं आया काका को देखने। चौहद्दी की दो पीढ़ियों के गुरु बेलसंड हाईस्कूल के हेड मास्टर साहेब जो आज के डेट में पढ़ रहे छात्रों को प्रायः उसके पिता के और कभी-कभी उसके दादा के नाम से ही बुलाते हैं, वे सोहन कुमार (वल्द सीताराम मिश्र) को सीताराम ही कहते हैं। दमामी मठ के महंत आए और बेलसंड से मौलवी साहब। सुभई महाराज अपने भूतपूर्व एम.एल.ए. दामाद रामआधार नेता के साथ आए। चुनाव कोई कुंभ का मेला है कि बारह वर्ष बाद आएगा। पाँच साल बीतते-न-बीतते हाजिर। अब तो लोकतंत्र फास्ट हुआ है। कौन जाने साल-डेढ़ साल में ही आ जाए। काका की शरण में आया है तो कुछ वोट तो पा लेगा। वकील तो जीत के नशे में ऐंठा हुआ है, लेकिन उसकी पत्नी राधापुर वाली क्षमा-प्रार्थना कर गई हैं। बस नहीं आए तो एक दीवार पार रहने वाला अपना भाई। शोभित मिश्र। कारण? कारण कुछ नहीं। चुम्मन बाबा कहते हैं, "बुरबक नंबर दस।" आगे गिरजा भाई जोड़ देते हैं, "रहे औरत के बस।" डाह, और क्या?

जा चुके लोगों की कही गई कथा अभी बाकी है। काका बेटा की तरह पाले-पोसे हुए हैं शोभित बाबा को। अरे, शोभित बाबा जयकिशोर चाचा (काका का बड़ा लड़का) से दस साल बड़े होंगे, और क्या? लेकिन शोभित बाबा की पत्नी - मानेचौक वाली दादी-गाँव भर कहता है, "एक नंबर की नट्टीन है।" स्नेह के कारण सगे भाई से शादी कराए। चुम्मन बाबा कहते हैं, "डाह का क्या करिएगा।" दाह का भी कोई प्वाइंट है। धन-संपत्ति का कोई क्लियर झगड़ा भी नहीं। बात सिर्फ इतनी सी - 'हर जगह बुढ़वा की ही पूछ क्यों है?' चुम्मन बाबा कहते हैं, 'तू जल-जल के मरेगी।' लेकिन काका को विश्वास है - 'वन के गीदड़ जईहन किधर।' आएँगे ही।

एक हृदयविदारक चीख सघनता से बसे इस गाँव की हर दीवार को भेदते हुए हर कान तक पहुँच गई। उन्नीस सौ उनचालीस नंबर बस जब गाँव के मोड़ पर रुकी तो जो महिला बस से उतारी वह दहाड़ा मार-पछाड़ खाकर गिर पड़ी। यह राधा बुआ थी। काका की एक मात्र बेटी। नैहर नहीं आने का महोबा हठ था उनका जो आज पंद्रह वर्ष बाद टूटा है। शिवनगर वाली दादी यानी राधा बुआ की माँ मर गईं, लेकिन यह बेटी नहीं न आई। रे, छोटका भाई से किस बात का वैर।

विवाह पंचमी के दिन मठ के ठाकुर को पूरे गाँव से भेंट कराया जाता है। बैलगाड़ी पर ठाकुर के आसन को लगाया जाता है, तथा उस बैलगाड़ी को पूरे गाँव में घुमाया जाता है। उस विवाह पंचमी का वह काला दिन। ठीक काका के दलान के आगे से जब ठाकुर की बैलगाड़ी गुजर रही थी, बेलसंड वाले एलआईसी के एजेंट रामसेवक साह की मोटर साइकिल की आवाज से बैल भड़क गया। रामकिशोर चाचा (काका का दूसरा लड़का) गाड़ीवान के ठीक पीछे बैठकर घड़ी-घंटा बजा रहे थे। गाड़ी से गिर गए, लकड़ी का चक्का पैर पर से गुजर गया, पैर भुजरी-भुजरी उड़ गया। दस महीना बिछावन पर पड़े रहे, लेकिन हाय रे पत्थर दिल, संवाद मिलाने पर भी राधा बुआ नहीं आई। कारण? अपना स्वार्थ? स्वार्थ क्या?

पंचायत का मुखिया चिरंजीव शर्मा, हर किसी का कहना है कि सही आदमी है। कोई मारण-हरण हो जाए उसकी गाछी से लकड़ी और कफन के लिए उसके खाते पर भंडारी के सुखी साह की दुकान से मारकिन फ्री। सतासी की बाढ़, ऊँची सड़क पर भी मनुष्य भर पानी चढ़ गया था, चील गाड़ी (हेलीकॉप्टर) से खाना का पैकेट सरकार ने बाद में गिराया, चिरंजीव मुखिया पहले मुस्तैद हो गया। पूरी पंचायत को जितना मन हो रोटी-सब्जी फोकट में। दो पुश्त से मुखिया है पर अपने लिए क्या बनाया है। दरवाजे पर उतना बड़ा जामुन का पेड़ था, न जाने कहाँ से मिस्त्री लाकर दो दिन में नाव टाइट करवा दिया। यह अलग बात है कि वह पानी उतारा नहीं गया, उसकी जरूरत नहीं पड़ी, फिर भी बिध के लिए नाव को पानी में उतार दिया गया। आज भी वह नाव पुस्तकालय में उल्टी पड़ी हुई है और उसका लोहा-लक्कड़ लोगों के शनिग्रह को शांत करने के काम आ रहा है।

चिरंजीव मुखिया का दस बीघा जिरात महाकौल में था। आजादी के बाद जब एक तय सीमा से अधिक जमीन रखने पर सरकारी पाबंदी लगी थी, तब चिरंजीव मुखिया के बाबूजी को काका ही एकमात्र विश्वास के आदमी सूझे। खतियान में सकलदेव शर्मा की जगह जंग मिश्र बैठ गए, जमीन अपनी जगह है। वर्षों बाद जब राधा बुआ के ससुर रेलवे के पार्सल विभाग से अरजे हुए धन के साथ नौकरी से रिटायर हुए तो उनकी नजर में चिरंजीव मुखिया की जमीन पर धँस गई - समधी हमारे नाम से जमीन कर दें और जो पैसा कहेंगे, शर्मा को दे दिया जाएगा। पर काका का कहना कि चिरंजीव कोई निरवंश है। क्या बचा है उसके पास। उसका बाल-बच्चा क्या खाएगा। सब तो सकलदेव बाबू बर्बाद कर दिए। चुम्मन बाबा का कहना ससुरा को विनोबा ने संका दिया। सब बर्बाद कर लिया। राधा बुआ छटपटाकर चली गईं पर काका ने साफ कर दिया कि यह अनीति हमसे न होगी। राधा बुआ कसम खाकर निकलीं तो पंद्रह वर्ष तक नैहर का पानी भी पीने नहीं आईं।

राधा बुआ की दहाड़ सुनकर पूरा गाँव जुट गया। मानेचौक वाली दादी यह कहती सुनी गईं कि बाप की बीमारी सुनकर रह नहीं पाई। गाँव के भावुक लोगों का कहना है - 'चाकू से कहीं पानी कटता है।' लोगों का मानना है कि खून का रिश्ता और काका का इकबाल ढहने वाली चीज नहीं है। परंतु राधा बुआ के मामले में चुम्मन बाबा काका के इकबाल से सहमत नहीं हैं - 'सब लोभ-लाभ का खेल है।' वे बमकते हैं - 'बेटी को जायदाद देकर जंग नया फैशन चला रहा है।' काका की हर संपत्ति में उत्तराधिकारी वाले कॉलम में उनकी सभी संतानों का नाम है। अभय किशोर ईश्वर को प्यारा हो गया तो उसका हिस्सा ईश्वर को ही जाएगा। सवैत राम-जानकी कर दिया जाएगा। चुम्मन बाबा कहते हैं - 'जंग सनक गया है।' राधा बुआ के आने के बाद से वे तैश में हैं - 'जयकिशोर को तो बैंक का पैसा है, हैरीयवा अमरीका ठेकाए हुए है। रामकिशोर को क्या है? वह लोथ-लांगड़ है, उसका कैसे निभेगा। रधिया का विवाह कोनो फ्री में हुआ था। पार्सल बाबू पाँच बीघा रजिस्ट्री करा लिए थे तब लड़का उठाने दिए। विदाई में मूस के अंतड़ी जैसी धोती दी थी उन्होंने।' उहोने अपने भतीजे राजधर चाचा को, जो जयकिशोर चाचा के दोस्त हैं, समझा दिया है कि किचाइन नहीं होना चाहिए। एक तो रामकिशोर को ईश्वर ने विपत्ति दे दिया है और तब भाई-बहन को दाह नहीं आया तो 'जो रास्ता पूत का, वही रास्ता मूत का; हुआ सपूत तो पूत, नहीं तो मूत।' और चुम्मन बाबा ने गाँव भर को सेट कर लिया है कि घरारी पर मूत नहीं महकना चाहिए। उसका बँटवारा और बिक्री नहीं, जिसको चाहिए वो और जमीन है उस पर अटारी बनाए।

घरारी तो नं है दस धूर जमीन को छेके हुए एक कमरे का दालान एवं सामने चबूतरा है, बाकी पर रामकिशोर चाचा सब्जी उगाते हैं, इससे उनको दो पैसा नकदी प्राप्त होता है। अवसर-अवसर पर होली का धमाल यहीं मचता है। वाह-वाह-वाह, हो-हो। चुम्मन बाबा बार-बार तनते हैं - 'इस पर कोई आँख गड़ाएगा तो गोली चलेगी।' राजधर चाचा उन्हें फौजी गुस्से में आते देख हँस पड़ते हैं - 'हे चुपिए। कुछ नहीं होगा। जय किशोर अताई नहीं हैं। मेम मुंबई छोड़ माँची में बसेगी?'

जाने कितने वर्ष हुए जब विदेशी बैंक में नियुक्त होकर जयकिशोर चाचा मुंबई चले गए थे। वहीं उन्होंने अपनी एक मराठी सहकर्मी से शादी कर ली, जयकिशोर चाचा के लंगोटिया दोस्त राजधर चाचा उनकी पत्नी को मेम कहते हैं।

राधा बुआ के मन की बात किसी को नहीं मालूम। अब कौन जाने! जो बेटी मरी माँ को 'कौर' देने नहीं आई, दस महीने तक बिस्तर पर हगते-मूतते भाई को देखने नहीं आई, उसके मन की कौन जाने। चुम्मन बाबा जुलूम की धमकी देते हैं, पर राजधर चाचा को विश्वास है कि जब राजकिशोर मान जाएगा तो राधा दिदिया भी मान जाएगी। हाँ, हैरी को कॉल कर सब क्लियर पूछना होगा। दिदिया शब्द सुनते ही चुम्मन बाबा के देह में आग लग जाती है।

काका ने ठोस अन्न त्याग दिया है। सूखते पेड़ की पत्तियों की तरह उनका चेहरा हो गया है। देह गल जाने से लंबा शरीर कठपुतली-सा लगता है। किसी को भी उजबक-से निहारते हैं। हाँ, चेतना एवं याददाश्त दुरुस्त है, लेकिन दिल चटख रहा है।

"शोभित नहीं आया हो।" काका कराहते हैं।

राजधर चाचा झूठ बोलकर सांत्वना देते हैं, "शिवहर मेला गए हैं, बैल बेचने।" लेकिन काका को कोई ठग सकता है भला। वह रोग-शय्या पर लेते-लेते अपने पास आने के लिए छटपटाते भाई की बेबसी देख रहे हैं। छोटे बेटे को याद करते हैं, "वह यहीं नौकरी कर लेता, उसका...।" बीच में ही रामकिशोर चाचा बमक जाते हैं, "एअरकंडिशन छोड़कर आएगा तार का पँख झलने... बीमार हुए हैं तब से साफे भसिया गए हैं।"

शोभित बाबा एवं मानेचौक वाली दादी में जबरदस्त झंझट हुआ है। लेकिन इकलौते बेटे के नाम पर दी गई शपथ का क्या करें। बेटा भी ऐसा जो न जाने कहाँ है। है भी या नहीं। चौरासी छह नब्बे दस सौ और आठ-चौबीस वर्ष गुजर गया तब से बेटा लापता है। कहीं चौरासी के दंगे में...। आगे कुछ बोलने की हिम्मत किसी की नहीं होती। शोभित बाबा भूले नहीं हैं कि काका ने क्या-क्या नहीं करवाया था शंभू चाचा का पता लगाने के लिए। अखबार में फोटो तक छपवाया था। काका कराहते हैं, "अब हम कितने दिन हैं, चला-चलंती के समय किस बात का बैर!"

टोले भर में सार्वजनिक उदासी है। गाँव ऐसे मुरझाया है मानो पकी फसल पर बारिश हो गई हो। लेकिन मानपुर वाली दादी गाँव भर में अपना ही जाप किए जा रही हैं, "बुढ़वा किस मुँह से बोला कि हमारा सर्वनाश हो गया।" पुरानी बात है। एक रोज रामसिरीठ चचा काका से चर्चा कर रहे थे कि मानेचौक वाली दादी उनकी पत्नी के पास बैठकर काका को गाली दे रही थी। काका ने कह दिया कि जैसा करेगी वैसा पाएगी। गाली वाली बात जिस रास्ते काका तक पहुँची थी, 'जैसा करेगी वैसा पाएगी' वाली बात मानेचौक वाली दादी तक पहुँच गई। शंभू चाचा की गुमशुदगी के बाद काका की इसी बात को लेकर उन पर घाट करने लगी। जबकि राम सिरीठ चाचा का कहना है कि एक दिन जब मानेचौक वाली दादी और शंभू चाचा की पत्नी बेला वाली चाची के बीच झगड़ा हो रहा था, तब शंभू चाचा ने दोनों को डाँटा, इस पर मानपुर वाली दादी ने उन्हें 'मउगा' कह दिया। तंग आकर वे निकल चले थे।

काका अब दिमाग से भी लड़खड़ाने लगे हैं। किसी की आहट सुनकर किसी और को पुकारने लगते हैं। राम सिरीठ चाचा की आहट पाकर कहते हैं, "कौन? शोभित?" इस पर रामकिशोर चाचा तिलमिला जाते हैं, "इस दशा में तो ठीक से आराम कीजिए। माँची में कोई शोभित मिश्र नहीं है।" इन दिनों काका हृदय की जिन वेदनाओं से गुजरे उसे, अगर माँची का कभी कोई इतिहास लिखा जाएगा, दर्ज नहीं कर पाएगा। जब काका हैरी को याद करते हैं तब भी रामकिशोर चाचा का गुस्सा देखने लायक होता है, "डौलर आता हो तो भी क्या, उसको चाटिएगा। एक लोटा पानी भी कभी दिया? आए भी क्यों? मुन्ना झोला का हाल देखते हैं।"

जयकिशोर चाचा को आए हुए दो दिन बीत गए हैं। मराठी चाची के नाक-भौं सिकोड़ने के बावजूद उन्होंने कोई कसार नहीं छोड़ी है। मुजफ्फरपुर तक से डॉक्टर बुलवाया गया। बेलसंड सरकारी अस्पताल का कंपाउंडर दस रुपया खेप पर सुबह-शाम चक्कर लगा जाता है।

मुन्ना झोला स्थायी सेवा में है ही। वैद्य जी भी जब-तब आकर चबूतरा पर बैठ जाते हैं और किसिम-किसिम का जड़ पत्ता घोटने लगते हैं। हकीम साहब ने भी दुआ वाली ताबीज भेजी है। रामआधार भगत ने कहा है कि सब ठीक हो जाएगा।

हैरी को तार गया था। उधर से उसका जवाबी तार आया है कि कंपनी में उसकी तरक्की होने वाली है। इस वक्त वह नहीं आ पाएगा। उसने कुछ डॉलर भेजा है और लिखा है कि जरूरत होने पर और भेज देगा। रामकिशोर चाचा बिफरते हैं कि 'हमारा वश चलता तो जमीन बेचकर इलाज कराते। डालर पर मूतते भी नहीं।'

चबूतरा पर बच्चों का मेला लगा हुआ है। आठ वर्षीया गीते मिश्र (जय किशोर चाचा का लड़का) बहुत उत्साह में है। उसने श्राद्ध के भोज के बारे में अपने डैड से सुन रखा है। वहाँ पार्टियों में बूफे... यहाँ पाँच सौ-हजार लोग एक साथ बैठकर खाते हैं, कितने लोग भाग-भागकर परोसते हैं।

"मैं सब्जी परोसूँगा।" बाल सम्मलेन में गीते ने घोषणा की।

यह तो ठीक है कि वह जयनंदन का भाई है। मुंबई से आया है और वहाँ से 'स्टोरी' लाया है और पजल गेम भी। इस कारण से गाँव के सभी बाल-बुतरू उसके साथ लगे रहते हैं, पर गाँव में बच्चों का मुख्तार तो खुद जयनंदन है। वह गीते की घोषणा को सीधे कैसे स्वीकार कर ले। वह संशोधन करता है -

"तुमसे नहीं होगा। तुम चटनी बाँटना।"

"नहीं मैं सब्जी...।" गीते ने मनुहार किया।

"नहीं गिरा डोज। चापाकल तो चला नहीं पाते हो।" जयनंदन अड़ गया।

"तब मैं पापड़ बाटूँगा।"

"ठीक है। सबको एक-एक देना।"

सुकांत और छाया (राधा बुआ की संतति) की चिंता दूसरी है। वे जानते हैं कि श्राद्ध में जो सामग्री दान होगी, उसे वे ले सकते हैं। हालाँकि पुरोहित राम आसरे चाचा का परिवार है। "मैं गाय लेकर भाग जाऊँगा। बूढ़ा क्या करेगा? जयंनंदन तू मेरा हेल्प करना।" सुकांत बोला।

"नहीं हम दान की चीज नहीं छुएँगे।" जयनंदन बोला।

"मैं छाता लूँगा।" गीते मचला।

"तू चुप्प। पुरोहित लेता है कि पोता। बकलेल कहीं का।" जयनंदन भड़क गया।

जयकिशोर चाचा अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। चुम्मन बाबा कहते हैं, "देह से दौड़-भाग कर रहा है। रोकड़ा तो हैरीयबा का है।" डॉक्टर, वैद्य, हकीम-सबको काका की देखभाल में झोंक दिया गया है। पर गाँव में हँसी-मजाक के बावजूद असली चलती मुन्ना झोला के हाथ में है। इंजेक्शन लगाना और गाँव भर की रिपोर्ट शाम को काका को देना उसी के जिम्मे हैं। मुन्ना झोला आकर पुकार लगाता है।

"काका।"

"कौन? शोभित?"

रामकिशोर चाचा ऐंठकर कुछ बोलने को उद्धत होते हैं, पर चुम्मन बाबा उन्हें चुप रहने का कहकर खुद रुक नहीं पाते और अनुपस्थित शोभित बाबा के लिए चुभता सा व्यंग्य बान छोड़ते हैं, "माँ करे धीया-धीया, धीया करें पिया-पिया।"

उम्मीद थी कि यह सब बाद में होगा, उस घटना के बाद जिसकी तिथि का जिक्र शायद तब भी होगा जब कभी माँची का इतिहास लिखा जाएगा। लेकिन उसके घटने में देर हो रही थी। सब्र का बाँध मिट्टी का था। मिट्टी बालुई थी। निहित उद्देश्य का कटाव तेज था। लिहाज का बाँध टूट गया। लिजलिजी इच्छा तेजी से बहने लगी।

आँगन में बिना प्रयास के ही कुटुंब-पंचायत लग गई है।

"राजधर की राय है कि घरारी की पूरी जमीन रामकिशोर को मिलनी चाहिए? मुझे तो कोई आपत्ति नहीं है। तुम?" जय किशोर चाचा थे।

"पहले हैरी से बात कर लीजिए।" राधा बुआ बोलीं।

"नहीं अब वह नहीं लौटेगा। कल सीतामढ़ी गए थे तो फोन किया था, वह बोला उसे कुछ नहीं चाहिए, वहाँ से लिखित भेज देगा।" जयकिशोर चाचा ने सूचना दी।

"हम आप लोगों से बाहर थोड़े ही हैं।" राधा बुआ को हवा की प्रतिकूलता का आभास था।

"घर वाली जमीन को छोड़कर गाछी और खेत तो हम बेच लेंगे। वैशाली (उनकी बेटी) का 'निफ्ट' में सेलेक्शन हो गया है। उसका फी हमें जुटाना है। खोली का लोन है। अगर रामकिशोर चाहे तो उसे ही...।" जयकिशोर चाचा अपनी योजना सामने लाए।

"मैं कहाँ से लूँगा। औरत का गहना भी पैर में झोंका गया। भले ही हैरीया चला गया, पर पैसा भेजता है तो...।" रामकिशोर चाचा कहीं दूर से बोल रहे थे।

"जमीन और गाछी आप लोग ले लीजिए और मुझे डाकघर वाला पैसा दे दीजिए। आपके बहनोई तो दिल्ली में रहते हैं। यहाँ जमीन कौन देखेगा, कौन बोएगा।" राधा बुआ बोलीं।

"नहीं; आप लोगों को जो करना है, आपस में कीजिए, हमें सबमें अपना हिस्सा चाहिए। इतना हिसाब-किताब कौन करेगा। मेरे पति कौन दिल्ली-मुंबई से कमाकर लाने वाले हैं। हमें भी तो चंद्रकला (बेटी) है।" यह सीता चाची थीं, रामकिशोर चाचा की पत्नी।

सुबह काका को एक बार फिर से खून की उल्टी हुई है। अब मामला कन्फर्म है। माया चाची (राजकिशोर चाचा की पत्नी) एवं राधा बुआ की बेचैनी बढ़ गई है। उनकी आपसी संधि में प्रस्ताव पास हुआ है, "बँटवारा काका की जिंदगी में ही हो जाना चाहिए, बाद में चुम्मन चाचा बारह बात निकालेंगे।"

मुंबई से वैशाली का फोन आया है।

"डैड तुम मुंबई कब आ रहे हो। आई फील वेरी अलोन हिअर। आई डिड नॉट कम टुडे।"

"बेटा, यू कैन अंडरस्टैंड हेयर्स प्रोब्लम्स।"

"ओके, बट व्हेन विल ही एक्सपायर? यू नो, यू कांट अंडरस्टैंड माई प्राब्लम्स। मेरे फी का क्या होगा... काका का डेथ कब होगा? कम सून न! आप कामत अंकल से लोन की बात कर लो न।"

'काका का डेथ कब होगा' वैशाली से बातचीत की यह टुकड़ा जयकिशोर चाचा को बेचैन किए हुए है। उन्हें अपना बचपन याद आने लगता है, "दादी की मृत्यु हुई थी तब क्या था, उनका श्राद्ध भी कर्ज लेकर हुआ था। काका ने कितने मुकदमों का गवाह बनाकर सकलदेव शर्मा का मैनेजर बनाकर... चुम्मन चाचा उन दिनों अपने सेना की नौकरी के कारण बाहर थे, उनकी जमीन एवं परिवार की देखभाल कर घर को सँभाला। तब था क्या? मांड-भात तो छह छह दिन बाद मिलता था। माई के हिस्से में सिर्फ मांड आता था। पहिला क्लास में जब बेलसंड स्कूल में एडमिशन हुआ तब मैं रोने लगा था, इतनी दूर नहीं जाऊँगा, तब दो वर्षों तक - लगातार दो वर्षों तक - जाड़ा गरमी बरसात - बिला नागा काका कंधा पर बैठाकर स्कूल छोड़ने आते थे। बरसात में ऊपर छाता लिए मैं नीचे भीगते काका। एक वर्ष बाद राधारमण चुम्मन चाचा का लड़का भी स्कूल जाने लगा था। एक वर्ष तक काका की गर्दन के आगे दो पैर लटकते थे, फिर दोनों कंधों पर एक-एक जोड़ी पैर लटकने लगा। स्कूल से हम लोग खेलते-कूदते लौट आते। काका न जाने उन दिनों कहाँ-कहाँ का चक्कर लगाते रहते थे। आज कचहरी में यह हुआ, आज वह। खुद का कोई मुकदमा न होने पर भी केवल मुकदमों की ही खबर। माँ खीजती कि झूठ-सच बोलकर अपना परलोक बिगाड़ते हैं। पर जब इहलोक फँसा है, तब कहाँ तक कोई परलोक की चिंता करेगा। कचहरी आते-जाते ही रीट साहब की संगत बनी, फिर जब सुधरा।

अवसाद इतना गहरा हो गया कि जय किशोर चाचा फूट-फूटकर रोने लगे। दौड़कर आए चुम्मन बाबा, दौड़े राजधर चाचा, राधा रमण चाचा, रामसिरीठ चाचा, बदहवास भागा आ रहा था मुन्ना झोला और अद्भुत था शोभित बाबा का आना। रोने की आवाज, दौड़ते-भागते लोग, एकबारगी पूरा गाँव सहम गया - काका उठ गए दुनिया से। माया चाची और राधा बुआ जो उस समय चुम्मन बाबा के आँगन में थी, वहीं रोने लगीं। बाद में चुम्मन बाबा सब कुछ सही पाकर माया चाची एवं राधा बुआ पर मुस्करा पड़े थे।

आँसू की अविरल धारा बह रही थी काका की आँखों से। शोभित बाबा कभी बेटा कहकर जयकिशोर चाचा का आँसू पोंछते और कभी भइया कहकर काका का।

बिना आँसू के रोते हुए मानेचौक वाली दादी भी आईं कि 'झगड़ा तो भाई-भाई का होता है। मेरा क्या झगड़ा है।'

सुबह माया चाची एवं जयकिशोर चाचा में बक-झक हो गया है।

"क्या कहा वैशाली ने? सब बुड्ढे की डेथ का वेट ही कर रहे हैं। अठारह दिन बीता, आप बोला था कि पंद्रह दिन लगेगा... इडियट ने फोन कर दिया... मरता है... किधर मरता है...।" माया चाची गुस्सा में थी।

"तमीज से बात करो। बुड्ढा मत बोलो। तुम्हारा बाप आता है तो घर को सर पर उठा लेती हो... पापा को गुरुकृपा रेस्टोरेंट का बटाटा बड़ा ला दो... मेरा बाप मर रहा है तो...।" जयकिशोर चाचा भी ताव खा गए।

"मेरे को कंटाल नहीं माँगता। तुम्हारा फादर है, अपना जॉब को लात मारो... मैंने पंद्रह दिन का एप्लीकेशन दिया था... दो-चार दिन कामत देख लेगा... मेरे को अब जाना है।"

"मरते हुए बाप को छोड़कर चला जाऊँ। बंद करो बकवास तुम और तुम्हारा कामत...।"

"तुम कामत से जेलस क्यों हो।"

"मुझे बहस...। बकवास...। तुमको जाना है... पूरा-पूरा बोल भी नहीं पा रहे थे जयकिशोर चाचा।

"बकवास? इसलिए न इधर के लोगों को सब भइया बोलता है।"

अंदर-अंदर सुलग उठे जयकिशोर चाचा। अनर्थ कर डालने की इच्छा होने लगी, पर गम खा गए कि सब बोलेगा जयकिशोर समझदार होकर भी...।

मानेचौक वाली दादी कहती है - "बुड्ढा नहीं मरेगा। ब्रह्मपिशाच है। नहीं मरेगा, देख लेना।"

"पर अपने खानदान में खून की उल्टी के बाद कोई नहीं बचा है।" राधा बुआ बोलीं।

"यह नैन मरेगा, देखना।" माया चाची बोलीं।

"काका नहीं मरेंगे तो भोज कैसे होगा।" अब तक चुपचाप सब कुछ सुन रहा गीते उदासी के साथ बोला।

उस त्रिगुट ने जो बात खीझ में विचारी थी वही हो गई। चमत्कार हो गया। जुलुम हो गया। काका की स्थिति सुधरने लगी।

ठठा-ठिठोली फिर शुरू। चुल्हाई भैई कहते हैं, "यह तो भाई वियोग था... हिस्ट्री में राम-भरत वाला मामला साइड कर दीजिए तो सिंगल मामला ऐसा नहीं मिलेगा... हे हेअअ।" राम सिरीठ चाचा ताली देते हैं,। फैक्ट बात... हे हे... एक रिल कर गेल।"

शाम में मुन्ना झोला आया तो यह बोलते हुए कि साइड हो जाइए सीधे काका के रूम में घुस गया। नब्ज देखी, माथा देखा, पलक उठाकर देखा और बोला, "रिटेन ले लीजिए... अब दो दिन में खेत न तामने लगे तो पेशाब से मूँछ मुड़ा लेंगे... आज दोपहर में सो गया था तो देखा कि... सपना में देखा कि... काका होली गा रहे हैं... मेरा दोपहर का सपना कभी फेल नहीं हुआ है।"

गाँव के लोगों का कहना है कि मुन्ना झोला में बरक्कत है। मीट-मछली नहीं खाता। पूजा करता है। मंत्र पढ़कर अच्छत से भी बहुतों को ठीक कर देता है। इंद्रजाल सिद्ध किए हुए है। थोड़ा उस साइड से गड़बड़ है। कोई लड़का इससे दोस्ती नहीं करता। माँ-बाप नहीं हैं। पटीदार शादी का चांस बनने नहीं देता। झोला पर कौन लड़की देगा। ये नहीं कि शहर निकल जाय। जब तक पढ़ाई करता था रामकिशोर चाचा से गाढ़ी दोस्ती थी। डॉक्टरी शुरू हुई तब भी ठीक-ठाक चल रहा था। जबसे अपनी डॉक्टरी में मुन्ना डॉक्टर ने दोपहर का सपना, अच्छत, भभूत, इंद्रजाल को मिक्स किया है, रामकिशोर चचा भड़के रहते हैं, "शहर निकल जाएगा, सो नहीं। यहाँ क्या उखाड़ रहा है?"

काका पर मुन्ना झोला दोपहर का सपना अप्लाई किया तो रामकिशोर चाचा भड़क गए, "चुप्प। भभूत-अच्छत निकाले, तो टाँग चीरकर सुखा देंगे। रे मुन्ना, तू कबी रात में भी सपना देखता है... रात को सोया करो।"

गीते उदास है। उन लोगों के लौटने का कार्यक्रम बन गया है, पर गीते का मन यहाँ लग गया है। उसके डैड ने फिर छुट्टी में आने का प्रॉमिस किया है। तब वह ग्रैंडपा से बहुत कुछ पूछेगा। तब ग्रैंडपा ब्रॉन्ज क्वाइन भी देंगे। रिट साहब ने लंदन से जो लेटर काका को भेजा था उस पर ओल्ड स्टांप होगा, "दैट्स क्लासिक।" वह भी उसे चाहिए। जयनंदन ने उसे कहा है, "जाते वक्त तुम्हें तीन-चार तम्मा (ताँबा का पैसा) देंगे।" गीते उसे अभी ही लेने के लिए मचल रहा है। पर जयनंदन उसे कहता है, "कोई ठग लेगा।" उसकी एक शर्त भी है - पहले वो कॉमिक्स और पजल गेम दे दे। "हम पहले क्यों दें? गाँव के हैं तो कोई बुरबक हैं?"

यह मुरली का घर है। मुरली चुम्मन बाबा का पोता एवं राधारमण चाचा का बेटा है। राधारमण चाचा आसाम में पुजारी हैं पर बकौल गाँव के लोग, "पुजारी नाम का है। असल में वहाँ कोई दूसरा काम करता है।" दूसरा काम क्या है, किसी को मालूम नहीं, पर लोग तर्क देते हैं, उसकी फाइव स्टार शान देखिये... पुजारी का तो पेट चल जाय वही बहुत है।

कल राधा रमण चाचा पहुँचे हैं। उन्हें मुरली का जनेऊ करना है। काका अभी बिस्तर पर हैं तो सब के मन में धुकधुकी है। पर सुबह काका ने ओके कर दिया है।

दो बैठकें लगी हुई हैं। जनाना महाल अंदर आँगन में है। और मर्द लोग बाहर दरवाजे पर। आँगन में माया चाची, राधा बुआ, मानेचौक वाली दादी का त्रिगुट बैठा है, सीता चाची विशेष आमंत्रित हैं। अंदर की बातें दरवाजे तक रिसकर आ रही हैं।

"वहाँ तो खूब काम-धंधा मिलता होगा?" मानेचौक वाली दादी माया चाची से पूछती हैं।

"हाँ मिल जाता है।" माया चाची बोलीं।

"हमारे शंभू के बेटा विकास को ले जाओ न।"

"वह तो अभी बहुत छोटा है।"

"किसी सेठ के यहाँ रखवा देना। कुछ पैसा भेज देगा तो यहाँ...।"

"अच्छा कामत को बोलेंगे।"

"बुढ़वा ने हमको वाजिब हक नहीं दिया। अच्छा खेत खुद चुन लिया। अच्छा तुम लोग भी अपने ही हो। लेकिन तुम लोगों को कौन यहाँ रहना है।" मानपुर वाली दादी बोलीं।

त्रिगुट की बैठक में बातचीत का यह टुकड़ा जो मानेचौक वाली दादी के श्रीमुख से निकला था, उस त्रासदी को चरम की ओर ले जाने वाला था जो बात काका के दिल में थी और जिसका जिक्र माँची के इतिहास में कभी नहीं होगा। फिर यह त्रासदी एक पैटर्न बन गया। जैसे जयकिशोर चाचा को वापस मुंबई लौटना था, वैसे ही राधारमण चाचा को आसाम। कहीं राधा बुआ की भूमिका में चुल्हाई भाई आ गए थे, तो कहीं गिरजा भैया खुद माया चाची जैसी भूमिका में थे। हरकिशोर जैसे हैरी बना और जिसे कभी लौटना नहीं था, इसी तरह एक दिन वकील का सिद्धांत सैंडी बनाकर नहीं लौटा। माँची में रह गया जयनंदन। जयनंदन 'चश्मा', 'झोला' या क्या बनेगा पता नहीं। मुन्ना झोला तो अधपगला हो गया है। माँची की निजी डिक्शनरी को दीमक चाट रहा है। पुस्तकालय उदास हो गया है। चौपाल उजड़ा हुआ है। डाकिया का आना कम हो गया है। बचे-खुचे लोग-बाग कभी इकट्टा होते हैं तो कहते हैं... जब काका का कोई नहीं हुआ तो...।

मानपुर वाली दादी की बात सुनकर काका के चहरे पर वीरानी छा गई। चुम्मन बाबा बुदबुदाने लगे। आँगन की वार्ता जारी थी।

"आपका ब्रदर बोला कि मेरे इधर खून की उल्टी के बाद कोई नहीं बचता।" माया चाची थीं।

"हाँ मेरे बाबा की मृत्यु ऐसे ही हुई थी। मेरा भाई अभयकिशोर भी...।" राधा बुआ रुआँसी हो गईं।

"जाने दीजिए काका के मरने की बात। सीता को बुरा लगेगा।" माया चाची ने कटाक्ष किया।

"हाँ... नहीं...। मेरे पति तो और भी...। बँटवारा हो जाता तो कुछ बेचकर बैंक में रख देते। कुछ सूद बनाता। बेटी की शादी के वक्त एकाएक कहाँ से आएगा। हम तो आपके भाई से भी पूछ लिए थे।"

"हम लोगों का बार-बार आना... ए.सी. में एक आदमी का फेयर ही दो हजार है... मेरी तो कंपनी की ड्यूटी है। इस बार फिर भी कामत ने देख लिया है पर...।"

बाहर रामसिरीठ चाचा राजकिशोर चाचा से पूछते हैं, "भइया कामत कौन है?" राधा रमण चाचा आँख तरेरते हैं।

"मुझे भी बड़ी लड़की नीलम की शादी करनी है। लड़का दिल्ली में वकील है।" राधा बुआ बोलीं।

"मेरे को चैन हो गया था कि वैशाली की फी की व्यवस्था... ऊपर से आने-जाने का खर्च।"

"पता नहीं उनको और क्या देखना बाकी रह गया है।" महाकुल वाले फूफा बोले, जो कल ही आए हैं, राधा बुआ को ले जाने तथा दामाद होने के नाते अंदर बैठे हैं।

काका का चेहरा स्याह हो गया।

जयकिशोर चाचा जा रहे हैं। जयकिशोर चाचा मोड़ पर पहुँच गए हैं। माया चाची मोड़ पर पहुँच गई हैं। गीते जयनंदन के हाथ में हाथ डाले मोड़ पर पहुँच गया है। इन्हें छोड़ने आए स्त्री-पुरुष भी मोड़ पर पहुँच गए हैं। आखिर काका भी उम्र भर की दूरी पार कर मोड़ पर पहुँच ही गए।

माया चाची एवं गीते स्त्री झुंड के पास हैं। उन्नीस सौ उनचालीस बस के आगमन का हॉर्न सुनाई देता है। पुरुषों के झुंड से छिटककर जयकिशोर चाचा काका के पास आ जाते हैं। काका कहते हैं, "अगर दुलहिन की इच्छा है तो अपना हिस्सा निबटा लीजिए। हाँ अभय किशोर का सेवित राज-जानकी ही होगा, हैरी नहीं लेगा तो उसका भी।" बस पास आ जाती है। जयकिशोर चाचा जो कुछ बोले उसे बस का हॉर्न लील गया। वे काका का चरण छूने के लिए झुके तो कुछ बूँदें उनकी आँखों से काका के पाँव पर टपक पड़ी। काका ने उन्हें गले लगा लिया, "अरे नहीं।" बस पास आ गई। जयकिशोर चाचा का कुनबा उस पर चढ़ गया। पीछे काका रह गए थे और उनके मुँह पर बस का धुँआ। छोड़ने को आए और लोग वहाँ थे, पर वे न थे।


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हिंदी समय में राजीव कुमार की रचनाएँ