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रचनावली

अज्ञेय रचनावली
खंड : 1
संपूर्ण कविताएँ - 1

अज्ञेय

संपादन - कृष्णदत्त पालीवाल

अनुक्रम

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अज्ञेय रचनावली
  खंड : 1
    अज्ञेय की संपूर्ण कविताएँ - 1

 

संपादक मंडल
(स्व.) डॉ. कन्हैयालाल नन्द
प्रो. रमेशचन्द्र शाह
                प्रो. नन्दकिशोर आचार्य

 

 

अनुक्रम

प्राक्कथन

निवेदन

पुरोवाक्

भूमिका : अज्ञेय

कविताएँ

एक : चिन्ता (विश्वप्रिया और एकायन)

दो : कविताएँ (1929-45)

तीन : कविताएँ (1946-1957)

परिशिष्ट

1. 'अज्ञेय' : प्रकाशित काव्य-ग्रन्थ

2. शीर्षकों की सूची

3. चिन्ता : प्रथम पंक्तियों की अनुक्रमणिका

4. शेष (दो-तीन की) कविताओं की प्रथम पंक्तियों की अनुक्रमणिका

 

प्राक्कथन

 

आधुनिक हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में सच्चिदानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' का सृजन और चिन्तन अपनी अद्वितीय विचार दीप्ति के कारण अप्रतिम महत्त्व रखता है। हिन्दी साहित्य में आधुनिक बौद्धिक संवेदना का सूत्रपात करनेवाले रचनाकारों में अज्ञेय का नाम शीर्ष पर है। वे ऐसे अनन्य रचनाकार हैं जो कविता के अलावा उपन्यास, कहानी, यात्रा-वृत्त, डायरी, संस्मरण, निबन्ध, अनुवाद, सम्पादन-संयोजन में ठहराव को तोडक़र नयी राहों के अन्वेषी रहे हैं। अपने समय में शायद ही किसी रचनाकार ने साहित्य और कलाओं तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में इतने प्रयोग किए हों जितने अज्ञेय ने। वे मानते रहे : 'प्रयोग' का कोई 'वाद' नहीं है तथापि वे प्रयोगवाद के पुरोधा रहे। हिन्दी-साहित्य का पूरा छायावादोत्तर दौर उनकी प्रयोग-धर्मी अवधारणाओं से बहुत दूर तक पे्ररित प्रभावित हुआ है।

'तारसप्तक' की भूमिका हिन्दी-साहित्य में नवीन अवधारणाओं का घोषणा-पत्र कही जा सकती है जिसने परम्परा, आधुनिकता, प्रयोग-प्रगति, काव्य-सत्य, कवि का सामाजिक दायित्व, काव्य-शिल्प, काव्य-भाषा, छन्द आदि की तमाम बहसों को पहली बार उठाकर साहित्यालोचन को मौलिक स्वरूप दिया। पहले 'प्रतीक' फिर 'नया प्रतीक' तथा 'वाक्' का सम्पादन करते हुए उन्होंने अनेक नयी प्रतिभाओं को आगे आने का अवसर दिया। अपने परवर्ती अनेक रचनाकारों पर उनका अमिट प्रभाव देखा जा सकता है। अज्ञेय के साहित्य-चिन्तन की सार्थकता इस विचार में है कि वह समकालीन चिन्ताओं, प्रश्नाकुलताओं और चुनौतियों को ही नहीं, नयी सर्जनात्मक सम्भावनाओं की ओर हमें उन्मुख करता है। भारत और पश्चिम के साहित्य-चिन्तन की परम्पराओं पर गहन चिन्तन करने वाले अज्ञेय में एक उजली आधुनिक भारतीयता का निवास है-एक ऐसी भारतीयता जो मानव को स्वाधीन-चिन्तन और मानव-मुक्ति का सन्देश देती है।

- कर्ण सिंह

अध्यक्ष, वत्सल निधि

निवेदन

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय के समग्र साहित्य को एकसूत्र में अनुस्यूत करके हिन्दी के पाठक-समाज को अर्पित करते हुए अत्यधिक हर्ष का अनुभव हो रहा है। अज्ञेय ने नये सृजन और चिन्तन कर्म को आधुनिक हिन्दी-साहित्य में पुन:सम्भव बनाया। वे साहित्य की सभी विधाओं में लगभग साठ वर्षों तक साहित्य-साधना में निरन्तर समर्पित रहे। (वह हिन्दी-भाषियों के साथ अहिन्दी भाषियों के सर्वाधिक प्रिय रचनाकार हैं।) आज का प्रबुद्ध पाठक उनके सृजन-चिन्तन के प्रति एक विशेष प्रकार के गहरे लगाव का अनुभव करता रहा है। 'अज्ञेय रचनावली' की प्रकाशन-योजना पाठक के उसी गहरे लगाव को पूरा करने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयत्न है। अज्ञेय की साहित्य-यात्रा निरन्तर उत्कर्ष की ओर जानेवाली गरिमामय यात्रा का इतिहास सामने लाती है। सच बात तो यह है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद के भारतीय साहित्य को वे दूर तक पे्ररित-प्रभावित करते रहे हैं। वह विद्रोही स्वभाव के रचनाकार हैं और भाषा, साहित्य, संस्कृति के सम्बन्ध में पारम्परिक अवधारणाओं का मूर्तिभंजन उनकी रचना-प्रकृति का अंग है। बहुधा उनका सृजन और चिन्तन रचना-कर्म के श्रेष्ठïतम शिखरों का स्पर्श करता है। उनका प्रदेय अनेक अर्थों में एक क्रान्तिकारी देशभक्त, अलीकी चिन्तक, प्रयोग और प्रगति के प्रति आस्थावान, नयी राहों के अन्वेषी होने के कारण विशिष्ट और बहुवचनात्मक है। उनके सृजन और चिन्तन में 'उड़ चल हारिल' के अपराजेय संकल्प के साथ अपने को 'आहुति बनाकर' देखने और रचने का साहस है। वह मानवीय व्यक्तित्व की स्वाधीनता के लिए, स्वाधीन चिन्तन के लिए जीन-भर संघर्ष करते रहे। ऐसे संघर्षशील रचनाकार सच्चे अर्थों में समाज, संस्कृति के निर्माता होते हैं। अज्ञेय के स्वाधीनता-पे्रम को एक ऐसा गौरव-बोध अनुप्राणित किये था-जो दृष्टि को व्यापक और उदार बनाता था, जिसके लिए स्वाधीनता केवल राजनीतिक सीमा में बँधी नहीं थी बल्कि जिसके सांस्कृतिक आयाम इतने व्यापक थे कि उसमें इतिहास और कला, पत्रकारिता और सम्पादन, दर्शन और साहित्य सब समा जाते थे। न उनका व्यक्तित्व खंडित था-न चिन्तन। वे भारत के स्वाधीनता-कामी समाज की मानो सजीव स्मृति थे। प्राचीन परिभाषा में सच्चे ज्ञानवान व्यक्ति को 'बहुपठित' नहीं, 'बहुश्रुत' ही कहते थे। 'बहुश्रुत' कैसा हो सकता है इसके अज्ञेय जी अद्ïभुत उदाहरण थे।

अज्ञेय उन इने-गिने भारतीय रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने बीसवीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्परा, भारतीय आधुनिकता के साथ साहित्य-कला-संस्कृति, भाषा की बुनियादी समस्याओं, चिन्ताओं, प्रश्नाकुलताओं से प्रबुद्ध पाठकों का साक्षात्कार कराया है। व्यक्तित्व की खोज, अस्मिता की तलाश, प्रयोग-प्रगति, परम्परा-आधुनिकता, बौद्धिकता, आत्म-सजगता, कवि-कर्म में जटिल संवेदना की चुनौती, रागात्मक सम्बन्धों में बदलाव की चेतना, रूढि़ और मौलिकता, आधुनिक संवेदन और सम्पे्रषण की समस्या, रचनाकार का दायित्व, नयी राहों की खोज, पश्चिम से खुला संवाद, औपनिवेशिक आधुनिकता के स्थान पर देशी आधुनिकता का आग्रह, नवीन कथ्य और भाषा-शिल्प की गहन चेतना, संस्कृति और सर्जनात्मकता आदि तमाम सरोकारों को अज्ञेय किसी न किसी स्तर पर रचना-कर्म के केन्द्र में लाते रहे हैं। उन्होंने नयी रचना-स्थिति की चुनौतियों पर अनेक कोणों से विचार किया है।

आधुनिक हिन्दी साहित्य के उत्तर-छायावाद या छायावादोत्तर काल में शायद ही कोई रचनाकार अज्ञेय जैसा 'विद्रोही स्वभाव' लेकर सामने आया है। भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन में भागीदारी करने के कारण वे जेल गये, यातनाएँ झेलीं। लेकिन स्वाधीनता, निर्भयता का दामन कभी नहीं छोड़ा। अपनी संस्कृति, परम्परा की ओर मुडऩे की अपनी जड़ों की तलाश की ललक रहने का परिणाम यह हुआ कि समय-समाज-इतिहास द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों के बीच 'नयी राहों का अन्वेषण' अस्वीकार के साहस से सम्भव बना सके। भारतीय आधुनिकता, बौद्धिकता के नवअंकुरण-'राही नहीं, नई राहों के अन्वेषण' की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति हमें अज्ञेय और उनकी समवर्ती पीढ़ी के सृजन-चिन्तन में होती दिखाई देती है-इस पीढ़ी के रचना-कर्म में पाठक को वह पहचान स्पष्ट उभरती दिखाई देती हैं जिसे अज्ञेय जी ने 'नयी रचना-स्थिति के तर्क का पूरी तरह स्वीकार' कहा है। उन्होंने अपने सृजन-चिन्तन में इस परिस्थिति की सजग पड़ताल करने में पहल की और साहित्य की नयी चिन्ताओं, समस्याओं, चुनौतियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया। 'सप्तकों' की भूमिकाओं में नवीन साहित्य-प्रवृत्तियों की पैरवी करते हुए उन्होंने नवीन सैद्धान्तिक स्थापनाएँ कीं और हिन्दी में नवीन समीक्षा-शास्त्र की नींव डाली है। इन सैद्धान्तिक स्थापनाओं का नवीन साहित्यालोचन पर गहरा असर है। कवि-कर्म की प्रमुख समस्या 'साधारणीकरण और सम्पे्रषण' को मानने के बाद 'दूसरा सप्तक' के सम्पादकीय में उन्होंने साफतौर पर कहा-''लेकिन जैसे-जैसे बाह्यï वास्तकिता बदलती है वैसे-वैसे हमारे उससे रागात्मक सम्बन्ध जोडऩे की प्रणालियाँ भी बदलती हैं-और अगर नहीं बदलतीं तो उस बाह्यï वास्तविकता से हमारा सम्बन्ध टूट जाता है। कहना होगा कि जो आलोचक इस परिवर्तन को नहीं समझ पा रहे हैं, वे उस वास्तविकता से टूट गये हैं जो आज की वास्तविकता है। उससे रागात्मक सम्बन्ध जोडऩे में असमर्थ वे उसे केवल बाह्यï वास्तविकता मानते हैं, जबकि हम उससे वैसा सम्बन्ध स्थापित करके उसे आन्तरिक सत्य बना देते हैं।'' दरअसल, परम्परागत मूल्यों को तोडऩे-छोडऩे के साथ उन्होंने 'स्वाधीनता', 'व्यक्ति-स्वातन्त्र्य' जैसे नये मूल्यों को स्थापित करने वाली 'दृष्टि' को विकसित किया है। अज्ञेय द्वारा सम्पादित चारों सप्तकों की भूमिकाओं ने हिन्दी चिन्तन के रूढि़वाद, रीतिवाद, छायावादी भावुक संस्कारों पर आघात करते हुए नये बौद्धिक विवेक, वयस्क चिन्तन का प्रवर्तन किया है। अज्ञेय आधुनिक संवेदना से सम्पन्न बौद्धिक रुझानों के रचनाकार हैं और उनके लिए रचनाकर्म हृदय की मुक्तावस्था न होकर बुद्धि की मुक्तावस्था है। बुद्धि की मुक्तावस्था से अर्जित स्वाधीनता-बोध के कारण ही अज्ञेय हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक विवादास्पद रचनाकार रहे हैं।

अज्ञेय के रचनाकार ने 'स्वाधीन मनुष्य' और 'स्वाधीन चिन्तन' के लिए अपने आत्म-बोध, आत्मान्वेषण, आत्म-समर्पण और दायित्वपूर्ण सामाजिकता को एक विलक्षण संयम-सन्तुलन से साधा है। हिन्दी के आधुनिक साहित्य में भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, मुक्तिबोध जैसे बड़े लेखक हैं। लेकिन इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो अज्ञेय की तरह इतनी विधाओं में शीर्ष चक्रवर्तित्व स्थापित करता हो। अज्ञेय कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, संस्मरण, डायरी, यात्रावृत्त, अनुवाद, पत्रकारिता सभी में शिखर पर रहे हैं। नये लेखकों के संवर्धन में साहित्य की कोई भी दीवार टटोलिए उसमें अज्ञेय के हाथ की लगी ईंट मिल जाएगी। रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रमेशचन्द्र शाह, नन्दकिशोर आचार्य, मनोहरश्याम जोशी, कोई भी रचनाकार हो, उसमें अज्ञेय की प्रेरणा बाँसुरी की तरह बजती मिलेगी।

अज्ञेय को पुराने मठाधीशों, आचार्यों, विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकताओं के पाठकों-आलोचकों से निरन्तर विरोध झेलना पड़ा। इस अन्धी, विरोधी हिन्दी आलोचना से जुड़ा एक पीड़ादायक इतिहास है। कभी उन्हें टी.एस. एलियट और पश्चिम का नकली रचनाकार कहा गया, कभी 'विदेशी दलाल'। हिन्दी में 'विदेशी साहित्य का डाकिया' और 'कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम' का अमेरिकी प्रचारक। क्या-क्या नहीं कहा गया। लेकिन उन्होंने सब धैर्य एवं संयम से 'चुप्पा' बनकर झेला तथा विरोधों से शक्ति पायी है। 'शेखर : एक जीवनी' जैसे उपन्यास को लेकर कितना विरोध-बाबेला मचा। शील-अश्लील, नैतिकता-अनैतिकता के प्रश्न उठाकर अज्ञेय का सामाजिक बहिष्कार किया गया तथा जगह-जगह 'शेखर : एक जीवनी' की प्रतियों को जलाया गया। जबकि 'शेखर : एक जीवनी' एक नया उपन्यास प्रयोग है और हिन्दी-उपन्यास-परम्परा में नया मोड़ लाने वाला अपूर्व अद्ïभुत उपन्यास। आज हिन्दी में 'आधुनिकता' लानेवाला पहला आधुनिक उपन्यास प्रयोग भी इसे कहा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि 'गोदान' के बाद हिन्दी का दूसरा क्लासिक उपन्यास 'शेखर : एक जीवनी' ही है। 'शेखर : एक जीवनी' जीवनी है या आत्मकथा-इसको लेकर हिन्दी आलोचना में बड़ा भारी 'महाभारत' हुआ है। आलोचना के कई केन्द्रों से यह प्रचार किया गया कि शेखर तो अज्ञेय की अपनी जीवनी है और शेखर तथा अज्ञेय एक ही हैं। अभी तक इसके दो भाग ही प्रकाशित हुए हैं और तीसरे भाग की चर्चा भर है। कई बार अज्ञेय ने इसके लिखे जाने की चर्चा की है-अपने साक्षात्कारों में और पत्र-पत्रिकाओं में। अज्ञेय जी के परम निकट मित्र डॉ. रमेश चन्द्र शाह ने मुझे बताया है कि उन्होंने 'शेखर : एक जीवनी' के तीसरे भाग को लिखने के लिए पेंसिल से लिखकर कुछ नोट्ïस बनाये थे। लेकिन तीसरा भाग लिखा ही नहीं है। मेरा दुर्भाग्य कि बहुत प्रयास करने पर भी पेंसिल से लिखे तीसरे भाग के नोट्ïस मुझे प्राप्त नहीं हो सके। मेरे देखने में वह कहीं भी आजतक प्रकाशित नहीं हुआ। इस तरह 'शेखर : एक जीवनी' दो भागों में प्रकाशित अधूरा उपन्यास है। इसलिए मैं इन दो भागों को ही पूरा मुकम्मल उपन्यास मानने को विवश हूँ। अज्ञेय जी के बेहद आत्मीय नन्दकिशोर आचार्य ने भी एक परिसंवाद में हिस्सेदारी करते समय इसके दो भागों की ही चर्चा की है, क्योंकि तीसरा भाग उपलब्ध नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि शेखर ही 'नदी के द्वीप' में भुवन बनकर अवतरित हुआ और शशि वहाँ रेखा बनकर। ऐसी स्थिति में मुझे नहीं पता सच क्या है। हाँ, 'अपने-अपने अजनबी' अस्तित्ववादी मुहावरे में स्वाधीनता-स्वतन्त्रता की खोज है। यहाँ मैंने कई रचनाकारों के साथ मिलकर किए गये उपन्यास प्रयोग 'बारह खम्भा' के साथ उनके दो अधूरे उपन्यास, 'छाया मेखल' और 'बीनू भगत' को दे दिया है। इन दोनों अधूरे उपन्यासों का प्रकाशन आदरणीया इला डालमिया के प्रयासों से सम्भव हुआ था। प्रयास के इसी दौर में इला जी ने अज्ञेय की शेष बची कविताओं को 'मरुथल' नाम से प्रकाशित करवाया था। इस काव्य-संग्रह को अज्ञेय जी की कविताओं के खंड में दे दिया गया है।

अज्ञेय जी के विचार से उस सृजन-कर्म की कोई प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, जिसमें सांस्कृतिक अस्मिता नहीं बोलती है। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता ही व्यक्तित्व एवं अस्तित्व का निर्माण करती है। सांस्कृतिक अस्मिता का आग्रह प्रसाद जी, निराला जी में कम नहीं रहा और न अज्ञेय जी के गुरु स्थानीय राष्टरकवि मैथिलीशरण गुप्त में। अन्य रचनाकारों के प्रति श्रद्धा-भाव होते हुए भी अज्ञेय के मन में यदि किसी रचनाकार के प्रति सर्वाधिक आकर्षण रहा है-तो जयशंकर प्रसाद के प्रति। साहित्यिक परम्परा में अज्ञेय जी ही प्रसाद के सच्चे उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं। दोनों में अद्भुत समानताएँ हैं। नयी कविता के सिद्धान्तकार विजयदेवनारायण साही जी ने कहा है कि अज्ञेय ने 'समरसता' के दर्शन के बजाय 'निर्वैयक्तिक अनुभूति' के प्रश्न उठाकर एक बार फिर से 'दर्शन को अनुभूति' में घुलाने की राह निकाली। विवेक और हृदय, संकल्प और विवशता को 'नये योग' में बाँधा। यही कारण है कि अज्ञेय प्रयोगवाद-नयी कविता की धारा-को मोड़ने में समर्थ रहे। टी.एस. एलियट, लारेन्स, पाउंड आदि से प्रभावित होने पर भी अज्ञेय उनमें से किसी का अनुकरण नहीं करते। उनकी सांस्कृतिक मनोभूमिका में पश्चिम नहीं बोलता-भारतीयता की पावन कालिदासीय लय बोलती है।

दरअसल, अज्ञेय किसी भी विचारधारा की गुलामी स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए हैं। अपने रचना-कर्म में वे विचारधाराओं का अतिक्रमण करते हैं, उनकी दृष्टि में मानव के लिए स्वाधीन-चिन्तन की स्वाधीनता से बड़ा कोई मूल्य नहीं है। इस स्वाधीन-चिन्तन के कारण ही हिन्दी की असाध्यवीणा अज्ञेय के हाथों ही बजी। वे ही इसके प्रियंवद साधक हैं।

'अज्ञेय रचनावली' का विषय और विद्या दोनों दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर विभिन्न खंडों का विभाजन किया गया है। कुल मिलाकर ये अठारह खंड हैं :

1. पहला खंड-काव्य
2. दूसरा खंड-काव्य
3. तीसरा खंड-कहानियाँ
4. चौथा खंड-उपन्यास
5. पाँचवाँ खंड-उपन्यास
6. छठा खंड-उपन्यास
7. सातवाँ खंड-भूमिकाएँ
8. आठवाँ खंड-यात्रा-वृत्त
9. नौवाँ खंड-डायरी
10. दसवाँ खंड-निबन्ध
11. ग्यारहवाँ खंड-निबन्ध
12. बारहवाँ खंड-निबन्ध
13. तेरहवाँ खंड-निबन्ध
14. चौदहवाँ खंड-संस्मरण, नाटक, निबन्ध
15. पन्द्रहवाँ खंड-साक्षात्कार
16. सोलहवाँ खंड-साक्षात्कार और पत्र
17. सत्रहवाँ खंड-अनुवाद
18. अठारहवाँ खंड-अनुवाद

इस 'अज्ञेय रचनावली' को क्रमबद्ध करने में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा है। किन्तु इस बात का ध्यान रखा गया है कि यह रचनावली अधिकाधिक उपयोगी हो सके। इस विशाल योजना की परिपूर्णता में अनेक मित्रों ने अपना अमूल्य सहयोग दिया है जिसके बिना निश्चय ही यह कार्य पूर्ण नहीं हो पाता।

यहाँ मैं, परम श्रद्धेय स्वर्गीय डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी को स्मरण करता हूँ जिनकी स्मृति से प्रेरणा की सुगन्ध आती है। परम पूजनीय डॉ. कर्णसिंह जी (वत्सल-निधि-न्यास के अध्यक्ष) के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिनके आशीर्वाद ने इस कार्य की हर सम्भव बाधा को मुझसे दूर रखा है। वत्सल-निधि-न्यास के सदस्य सचिव और मेरे आदरणीय गुरुवर प्रोफेसर इन्द्रनाथ जी चौधुरी के स्नेह-शक्ति-संबल के बिना यह कार्य सम्भव नहीं था। उनकी प्रेरणा मेरी शक्ति रही है। वत्सल-निधि-न्यास के सम्पादक मंडल के सदस्य (स्व.) डॉ. कन्हैयालाल नन्दन, डॉ. रमेशचन्द्र शाह, डॉ. नन्दकिशोर आचार्य, श्री अशोक वाजपेयी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिनके समय-समय पर दिए गये सुझावों से मैं लाभान्वित हुआ हूँ। कविवर सौमित्र मोहन की सलाह का आभारी हूँ।

अन्त में साहू श्री अखिलेश जैन, श्री आलोक जैन और भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया जी तथा भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से जुड़े डॉ. गुलाबचन्द्र जैन का कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने तत्परता और लगन से इस योजना को सम्पूर्ण रूप दिया है। इन शब्दों के साथ 'अज्ञेय रचनावली' का सम्पूर्ण रचना-संसार हम वृहद्ï हिन्दी विश्व परिवार को समर्पित करते हैं। अपनी तमाम भूलों के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

- कृष्णदत्त पालीवाल

पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

पुरोवाक्

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' एक युग प्रवर्तक विद्रोही रचनाकार और चिन्तक।

अज्ञेय जी कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, निबन्ध लेखक, पत्रकार, सम्पादक, संस्मरणकार, यात्रावृत्त-लेखक, डायरी-लेखक, नाटककार, आलोचक, अद्ïभुत अनुवादक, गद्य की सर्जनात्मकता के प्रतिमान, योजना-विश्वासी, अपने समय के विवाद-पुरुष, भाषा-संस्कृति के चिन्तक, लेखक शिविरों और लेखक यात्राओं तथा व्याख्यान मालाओं के शुरू करने में अग्रणी, गोष्ठीपुरुष, नये प्रयोगों के प्रति निष्ठावान, नयी राहों के अन्वेषी, भारतीय सांस्कृतिक-साहित्यिक नवजागरण के प्रतीक-पुरुष रहे हैं।

अज्ञेय जी ने जीवनभर साहित्य के एक समर्पित साधक के रूप में जो रचा वह अठारह खंडों में पाठकों के सामने है। प्रश्नाकुल अज्ञेय जी साहित्य के बहुआयामी रचनाकार हैं। एक रचनाकार, पत्रकार, सम्पादक के रूप में उनका निर्माणकाल भारतीय स्वाधीनता-संघर्ष के चरम-उत्कर्ष का काल है। यह समय भारतीय नवजागरण का वह शक्तिशाली दौर है जिसमें नयी परिस्थितियाँ सर्जनात्मकता के सामने नयी चिन्ताएँ और नयी चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रही हैं। मानव-मन में स्वाधीनता के लिए एक नयी ललक और अदम्य उत्साह है। इस परिवेश में यह स्वाभाविक ही है कि अज्ञेय जी जैसे देशभक्त, साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद-विरोधी रचनाकार में स्वाधीनता की बहुआयामी तलाश रचना का केन्द्रीय सरोकार हो। देश की परिस्थितियों के इसी प्रभाव-दबाव ने अज्ञेय जी को क्रान्तिकारी चिन्तन का रचनाकार व्यक्तित्व दिया। अज्ञेय जी के सृजन-संघर्ष और चिन्तन का बहुस्तरीय मूल्य-बोध उनकी विज्ञान की शिक्षा-दीक्षा से भी जुड़ा रहा है। उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए क्रान्तिकारी आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निबाही। जेल में अनेक प्रकार की यातनाएँ भोगीं और उन कष्टों के सामने अपराजेय नायक सिद्ध हुए। हिन्दी के आधुनिक साहित्य में अनेक स्तरों पर सर्जन और चिन्तन में स्वातन्त्र्य-बोध की महत्त्व-प्रतिष्ठï का उन्हें गौरव प्राप्त है।

यह न भूलना चाहिए कि अज्ञेय का जन्म खंडहरों में-शिविर में हुआ था। उसका बचपन भी वनों और पर्वतों में बिखरे हुए महत्त्वपूर्ण पुरातत्त्वावशेषों के मध्य बीता। इन्हीं के बीच उन्होंने आरम्भिक शिक्षा पायी। वह भी पहले संस्कृत में, फिर फारसी में, फिर अंग्रेजी में। ''और इस अवधि में वह सर्वदा अपने पुरातत्त्वज्ञ पिता के साथ और बीच में बाकी परिवार से-माता और भाइयों से अलग रहता रहा। खुदाई में लगे पुरातत्त्वान्वेषी पिता के साथ रहने का मतलब था-अधिकतर अकेला ही रहना। और अज्ञेय बहुत बचपन से एकान्त का अभ्यासी है।'' (आत्मपरक-'अज्ञेय अपनी निगाह में') बचपन का नाम था 'सच्चा'। सच्चा चुप्पा था। ''संस्कृतज्ञ पिता के प्रभाव से मेरी शिक्षा संस्कृत से आरम्भ हुई। वह भी पुराने ढंग से यानी अष्टाध्यायी रटकर। आज भी सबसे पहले और पुराने काव्य-प्रभावों का स्मरण करने लगें तो संस्कृत श्लोकों की पुरानी काव्य-ध्वनियाँ ही मन में गूँज जाती हैं। शिवमहिम्नस्तोत्र का मन्द्र गम्भीर शिखरिणी छन्द, पिता के भारी और ओजस्वी कंठ स्वर में गाए हुए शार्दूल विक्रीडित के छन्द, जिनमें कुछ उन्होंने भी कंठस्थ कराये थे और जो अभी तक अविस्मृत हैं। जैसे सरस्वती की वन्दना का श्लोक, तुलसी की शिववन्दना और राम-वन्दना, रामायण का बालकांड और अयोध्याकांड पिता से बाद में पढ़ा-पर तुलसी रामायण तो बहुत पीछे।'' असल में पिता का विश्वास था-उस काल में बहुत से लोग ऐसा मानते थे कि पढऩा हो तो संस्कृत-फारसी पढ़ें; हिन्दी का क्या है, वह तो अपने आप आ जाएगी। ''आज मैं यह तो न मानूँगा कि हिन्दी विधिवत्ï पढ़े बिना आ जाती है; पर यह मानता हूँ कि उसे ठीक जानने के लिए संस्कृत और फारसी दोनों जानना और उर्दू से परिचित होना आवश्यक है। (ऋण स्वीकारी हूँ) और अंग्रेजी की बारी इसके बाद ही आयी। यद्यपि इसके बाद तो लगातार तीन-चार भाषाओं के प्रभाव साथ-साथ चलते रहे और अभी तक मैं जितना हिन्दी काव्य पढ़ता हूँ-कम से कम उतना ही हिन्दीतर भाषाओं को भी-पर उस समय तो एकदम ही अंग्रेजी साहित्य में डूब गया।'' ''लांग फेलो और टेनिसन से शुरू किया'' पर प्रभाव टेनिसन का स्थायी हुआ। टेनिसन कई बार पढ़ा और उसके प्रभाव में अंग्रेजी में लिखना भी शुरू किया। समय के साथ टेनिसन का सौन्दर्य स्मृति में बसा रहा, बाकी सब गायब हो गया। अंग्रेजी में तो इसके बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुर से परिचय हुआ। ब्राउनिंग के ओज-भरे आशावाद और ठाकुर के आशा-भरे रहस्यवाद के सम्मिश्रण ने मेरे नये विकसित मन पर क्या प्रभाव डाला-''यह सोचा जा सकता है। पर अंग्रेजी की परम्परा यहाँ सहसा टूटी। हिन्दी में पढ़ा और फिर :

     नीलांबर परिधान हरित पट पर सुन्दर है
     सूर्य-चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकार है।
     करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस वेश की
     हे मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।

उसके बाद तो मैथिलीशरण गुप्त की जो रचना मिली पढ़ डाली।'' 'सर्जना के क्षण' की भूमिका में कहा-''मेरे गुरु स्थानीय स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त वाचिक परम्परा के अन्तिम महाकवि थे। उनका शिष्य जब मैं लिखने लगा तो नयी रचना-स्थिति के तर्क को पूरी तरह स्वीकार करके, और यह जान-मान करके कि नयी रचना-स्थिति को, नयी सम्पे्रषण स्थिति के नियामक प्रभाव को पूरी तरह स्वीकार करके ही आधुनिक कवि हुआ जा सकता है-फिर वह आधुनिकता चाहे जितनी कठिनाइयाँ अपने स्वीकार के साथ लाए।'' (पृ. 9) वाचिक परम्परा के अन्तिम कवि मैथिलीशरण भी अपने समय में कम विद्रोही न थे। उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रेरणा-प्रभाव से रीतिवाद-विरोधी अभियान चलाया था और 'मेघनाथ वध', 'वीरांगना', 'व्रजांगना' का हिन्दी में अनुवाद तो कभी मधुशाला का अनुवाद, कभी भास के नाटकों का अनुवाद। 'पंचवटी', 'जयद्रथ-वध', 'भारत-भारती' का कवि मैथिलीशरण गुप्त अज्ञेय का काव्य-संस्कार बना है जो उसके कारक हैं। हिन्दी में इन 'कारकों' की चर्चा कम हुई है? क्यों हुआ है ऐसा? क्योंकि मैथिलीशरण गुप्त को ही हिन्दी-समीक्षा ने इतिवृत्तात्मकता का कवि कहकर ठुकरा दिया है। कोई-कोई बुद्धि तो उन्हें हिन्दू कवि तक कहती रही है। जबकि गुप्तजी के विपुल साहित्य की परम्परा हमारे जनमानस में लगातार भिदती रही है। आज जरूरत उनकी महानता के बखान की नहीं है, उनके महत्त्व को समझने की है। औपनिवेशिक दासता के दौर में गुप्तजी ने भारतीय चेतना का पुनर्निर्माण किया। देश में गुप्तजी के सृजन की प्रेरणा ने सांस्कृतिक नवजागरण को धारदार बनाया। यह चेतना अज्ञेय के लिए प्रेरणा बन गयी। किसी भी साहित्यिक कृति का कोई बँधा-ढला एक अर्थ नहीं होता, वह तो पाठ के साथ बदलता है। फिर गुप्तजी हिन्दू साम्प्रदायिकता के कवि नहीं थे-उनमें पूरा देश बोलता था-'भारतीयता के भाव-परिष्कार' के साथ। इसी भारतीयता को अज्ञेय जी ने गुप्तजी से धारण किया। अज्ञेय जी का 'भारतीयता' शीर्षक निबन्ध इसी बात को पुष्ट करता है।

अज्ञेय ने पढ़ा तुलसीदास को, पर उनका मन उस भक्त कवि में नहीं रमा। उनका मन सूरदास के भाव-विभोर करने वाले पदों में रमा और विद्रोही कबीर में। मीराबाई के भजनों की अटपटी तन्मयता में वे डूबते उतराते रहे। संस्कृत में वाल्मीकि के साथ कालिदास पर मुग्ध रहे-विशेषकर 'कुमारसम्भव' और 'रघुवंश' पर। छायावाद के काव्यों में महादेवी वर्मा की कविताएँ और प्रसाद का 'आँसू' हृदय में उतरता गया। फिर पन्त और निराला ही घनिष्ठï होते गये और ''जब-जब निराला को पढ़ता हूँ मानो नया आविष्कार करता हूँ।'' 'स्मृतिलेखा' का कथन साक्षी है कि उन पर निराला का गहरा असर है-''अब भी राम की शक्तिपूजा, 'बादल राग' अथवा निराला के अनेक गीत बार-बार पढ़ता हूँ, लेकिन 'तुलसीदास' जब-जब पढऩे बैठता हूँ तो इतना ही नहीं, एक नया संसार मेरे सामने खुलता है। ऐसी रचनाएँ तो बहुत होती हैं जिनमें एक रसिक हृदय बोलता है। बिरली ही रचना होती है जिसमें एक सांस्कृतिक चेतना सर्जनात्मक रूप में अवतरित हुई हो। 'तुलसीदास' मेरी समझ में ऐसी ही रचना है।'' वैसे निरालाजी अज्ञेय के विलोम थे। पर विलोम का आकर्षण भी कम नहीं होता। अव्यवस्थित निराला का अज्ञेय ने कभी 'विशाल भारत' में विरोध किया था। लेकिन इस विरोध का बाद में पश्चाताप भी कम नहीं किया। उनके असली तार पन्त से नहीं जयशंकर प्रसाद से मिले। जबकि पे्रमचन्द, नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी उन्हें निरन्तर खींचकर अपना बनाते रहे।

संकोची और समाज-भीरु अज्ञेय के मानस में समय-समाज-राजनीति-धर्म-दर्शन-साहित्य, नैतिकता और साहित्य के प्रयोजन को लेकर निश्चित और दृढ़ धारणाएँ रही हैं। क्रान्तिकारियों की संगति में अज्ञेय ने बम बनाने से लेकर बम ढोने तक का कार्य किया। पकड़े गये जेल काटी। 'कोठरी की बात' तथा 'शेखर : एक जीवनी' में इसी अनुभूति को अर्थ दिया है। 'स्मृतिलेखा' में 'एक भारतीय आत्मा : एक चुनौती' संस्मरण में लिखा-''माखनलालजी की कविता से पहला परिचय कारावास में हुआ। और भी अनेक पाठकों का पहला परिचय उसी कविता से हुआ होगा जिससे मेरा, पर उस परिस्थिति में नहीं। दिल्ली षड्ïयन्त्र के एक अभियुक्त के रूप में दिल्ली जेल में लम्बे दिन काटते हुए मैंने एक कापी में हिन्दी की कविताएँ उतारकर रखना आरम्भ किया था। कविता पढऩे में रुचि थी और किताबें एक साथ दो-तीन से अधिक रख नहीं सकता था। तभी एक दिन चमत्कृत-सा होकर एक भारतीय आत्मा की छोटी-सी कविता पढ़ी :

     चाह नहीं मैं सुरबाला के केशों में गूँथा जाऊँ
     चाह नहीं, प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ
     चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ
     चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ
     मुझे तोड़ लेना वनमाली , उस पथ पर देना तुम फेंक
     मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।

कविता फौरन कापी में उतार ली गयी, इतना ही नहीं एक साथी से, जिसका गला अच्छा था, वह बार-बार गायी जाकर सुनने को मिलती भी रही। जेल की अवधि समाप्त नहीं हुई कि एक और कविता-इस बार लम्बी कविता 'कैदी और कोकिल' पढऩे को मिली :

     इस शान्त समय में
     अन्धकार को बेध रो रही क्यों हो ?
     कोकिल बोलो तो
     चुपचाप मधुर विद्रोह बीज
     इस भाँति बो रही क्यों हो ?
     कोकिल बोलो तो!

यह कविता भी कापी पर उतार ली गयी; फिर गायी हुई तो नहीं सुनी गयी; पर रात में अकेली कोठरी में कई बार जोर-जोर से पढ़ी जाती रही-मैं तब काल-कोठरी में था और लम्बी रातें प्राय: कविता पढ़ते हुए अपने ही स्वर के सख्य के सहारे कटती थीं...नि:सन्देह इस कविता के उन दिनों इतना प्रिय होने में एक कारण मनोवैज्ञानिक भी रहा होगा-कोकिल के साथ एकात्मा का बोध, क्योंकि उन दिनों हम बन्दी क्या अपने को 'चुप मधुर विद्रोह बीज बोने वाले' नहीं मानते थे?'' (पृ. 96) मधुर विद्रोही अज्ञेय की इसी मानसिकता का सर्जनात्मक विस्तार उनके सम्पूर्ण साहित्य में अन्तव्र्याप्त है। माखनलाल के काव्य की तेजस्विता और प्रवहमयता अज्ञेय को निरन्तर आकृष्ट करती रही। फिर अज्ञेय के लिए हिन्दी जितनी 'जानी हुई' भाषा थी, कम से कम उतनी ही 'सीखी हुई' भाषा भी थी-''अत: मेरे लिए स्वाभाविक था कि मैं भाषा के संस्कार के बारे में सतर्क रहूँ-न केवल स्वयं बोलते या लिखने समय बल्कि दूसरों का लिखा या बोला हुआ पढ़ते या सुनते समय भी।'' इसका प्रभाव अज्ञेय पर यह पड़ा कि रचना-कर्म हो या पत्रकारिता (प्रतीक, नया प्रतीक, दिनमान आदि) में संस्कारी भाषा को स्थान दिया-सम्मान दिया और कीर्तिमान स्थापित किया। संस्कार और भाषा संयम पीछे के रचनाकारों के लिए अज्ञेय से सीखने की चेतना ही बन गयी। और स्वातन्त्र्योत्तर भारत में अज्ञेय एक नये तरह के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी बनते गये।

अज्ञेय में 'सेन्स ऑफ प्राइवेसी' का दृढ़ भाव रहा। इस भाव का देश में बड़ा आदर रहा है कि अपने मनोवेगों को अधिक मुखर न होने दिया जाए। निजी अनुभूतियों की निजता पर व्यक्ति संयम-सन्तुलन स्थापित करे। इसलिए 'प्राइवेट फेसेज इन पब्लिक प्लेसेज' की बात उठाई गयी और कहा गया कि प्रत्येक स्थान पर सोच-विचार कर बोलना चाहिए। अनर्गल गप्प और उपहास से शिष्टता का क्षरण हो जाता है। इसलिए वाक्-संयम को एक तरह का तप कहा गया है। अपने इस वाक्-संयम के लिए अज्ञेय का जीवन और सृजन स्मरणीय रहा है। ''एक सीमा से आगे वह दूसरों के जीवन में प्रवेश या हस्तक्षेप नहीं करता। इस तरह का अधिकार वह बहुत थोड़े से लोगों से चाहता है और बहुत थोड़े लोगों को देता है। जिन्हें देता है उन्हें अबाधरूप से देता है, जिन्हें चाहता है उनसे उतने ही निर्बाध भाव से चाहता है।'' अज्ञेय को लेकर अनेक किंवदन्तियाँ फैलाई जाती रही हैं। उन्होंने स्वयं कहा है, ''इससे गलतफहमी जरूर होती है। बहुत से लोग बहुत नाराज भी हो जाते हैं। कुछ को इसमें मनहूसियत की झलक मिलती है, कुछ अहंमन्यता पाते हैं, कुछ आभिजात्य का दर्प, कुछ और कुछ। कुछ की समझ में यह निरा आडम्बर है और भीतर के शून्य को छिपाता है जैसे प्याज का छिलका पर छिलका।'' मैं साक्षी हूँ कि अज्ञेय को इन सब प्रतिक्रियाओं से बहुत क्लेश होता रहा है। फिर हर आदमी की अपनी प्रकृति, अपना स्वभाव, अपना संस्कार होता है। अज्ञेय दूसरों के प्रति करुणा द्रवित सजग मनुष्य थे और उनकी मनुष्यता में आत्म-दान का दुर्लभ-भाव था। वे घर छोड़ संन्यासी तो थे नहीं। रचनाकार-चिन्तक और गहरी सामाजिकता से सम्पन्न थे। देश और समाज की राजनीति तथा धर्म-चेतना को समझते थे और तदनुकूल आचरण भी। इसलिए उनके रचनाकार की सामाजिकता का दायरा न छोटा था न संकुचित। छोटा होता तो चार सप्तकों में सत्ताईस-अट्ïठाईस कवि कैसे जुटा पाते और कैसे जुटा पाते पे्रमपरक उपन्यास की प्रयोग-भूमि। 'बारहखंभा' में उपन्यासकारों की एक अलग-अलग राय रखने वाली पीढ़ी। 'तारसप्तक' में मुक्तिबोध, गिरिजाकुमार माथुर, नेमिचन्द्र जैन, रामविलास शर्मा आदि को एक साथ लय में ले आना अज्ञेय का ही कलेजा था। दूर पास बिखरे हिन्दी के रचनाकारों की सर्जनात्मक शक्ति इस तरह साहित्य में मिलना दुर्लभ है। 'नया प्रतीक' और 'दिनमान' हिन्दी पत्रकारिता के दो ऐसे कीर्तिमान हैं-जिनसे पीढ़ियों ने प्रेरणा और विश्वास पाया है। दूसरों की गाली खाकर भी प्रसन्न रहना और कहना कि शब्द और अर्थ जो दोनों सदा एक दूसरे से तने रहते हैं-''उन्हें कब कैसे कहाँ मिला दूँ।'' क्योंकि दोनों ही हैं ''बन्धु सखा चिर सहचर मेरे।'' शब्द और शब्द की अन्तरात्मा का ज्ञान ही अज्ञेय को कृती बनाता है।

भारतीय जातीय स्मृति के भंडार थे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। अज्ञेय ने उन्हें 'बीसवीं सदी का बाणभट्ïट' कहा है। अज्ञेय ने उन्हें शान्तिनिकेतन के आकर्षण 'विश्वभारती' में पाया। आचार्य द्विवेदी के घर अज्ञेय ठहरे थे। बलराज साहनी के साथ उन्होंने वात्सल्य-भरे आतिथेय की चिन्ता न की और 'अंधड़' में निकल पड़े। कडक़ती बिजली की तीखी कौंध झेली और कहा-''वैसा सुन्दर दृश्य जीवन में कदाचित्ï ही देखा होगा।'' (वही, पृ. 130) अनिर्वचनीय सौन्दर्य की सिहरन। लेकिन पंडितजी की चिन्तामग्न आत्मीयता, वनस्पतियों में दोनों की गहरी रुचि, वनस्पतियों के देशज स्थानीय नामों से लेकर 'शास्त्रीय' नामों की खोज में दोनों एक साथ रहे हैं। दोनों की खोज पागलपन की हद पार किये थी-''यों ऐसा नहीं था कि बात वनस्पतियों तक ही सीमित रह जाती हो या संस्कृत तक ही सीमित रहती हो। पशु-पक्षियों, रत्नों, जनजातियों के नाम और उनसे सम्बद्ध किंवदन्तियाँ, कवि-प्रसिद्धियाँ और लोक-विश्वास सभी हमारी पड़ताल के घेरे में आ जाते थे। मानो विश्व-भर के सांस्कृतिक नेतृत्व की पोथियाँ हमारे सामने खुल जाती थीं। लक्ष्मी उल्लू का वाहन क्यों? पश्चिमी सभ्यता में शुभ और पूर्वी सभ्यता में अशुभ क्यों? वही पश्चिम में ज्ञान का प्रतीक है और हमारी सभ्यता में मूर्खता का।'' इस तरह के विचार-संवादों से अज्ञेय को आचार्य द्विवेदी से वह मिला जो कोई और न दे सकता था। समाज को संस्कृति की दीक्षा देने वाले गुरु थे आचार्य द्विवेदी। आचार्य द्विवेदी ने कवि गुरु रवीन्द्रनाथ से बहुत कुछ पाया था।

अज्ञेय ने 'असीम और ससीम के बीच' के कवि बालकृष्ण शर्मा नवीन से भी कम नहीं पाया था। सन्ï 1935 में उनकी भेंट नवीन जी से हुई। जेल-जीवन में अज्ञेय ने नवीन की कविताओं को गाकर तनाव कम किया था। नवीन जी को अज्ञेय के क्रान्तिकारी जीवन की जानकारी थी और यह भी कि वे कहानियाँ लिखते हैं। अज्ञेय कवि हैं यह उन्हें बाद में पता चला। नागपुर कवि सम्मेलन के बाद अज्ञेय फिर से उन्हें नरेन्द्रदेव के यहाँ मिले और फिर पंडित जवाहरलाल नेहरु के यहाँ 'आनन्द भवन' में। अज्ञेय ने श्रीमती सरोजिनी नायडू के व्याख्यान सुने और उनसे भीतर तक भीगे। नवीन जी ही कवि अज्ञेय को भारत-कोकिला सरोजिनी नायडू के पास ले गये। श्रीमती नायडू ने अज्ञेय को देखकर कहा-''यस, ही लुक्स लाइक ए पोएट-हैल्दी, स्ट्रांग ऐंड हैंडसम।'' नवीनजी ने नायडू से कहा-''यह हमारा क्रान्तिकारी अभी जेल से छूटकर आया है।'' श्रीमती नायडू ने कहा-''नैचुरली! ए पोएट मस्ट बी ए रेबेल।'' अज्ञेय और नवीन दोनों कवि-कर्म पर बतियाते-चिढ़ाते और यह निष्कर्ष पाते थे कि कविता में राजनीति होती है लेकिन कविता राजनीति का बाइ-प्रोडक्ट नहीं है। कविता जीवन है-जीवन की पुनर्रचना। असल चीज है जीवन। राजनीति भी तो उसी में से निकलती है।

आगरे का 'सैनिक' अखबार छोडक़र अज्ञेय कलकत्ता के 'विशाल भारत' में गये और वहाँ नवीन जी को खूब छापा। दद्दा मैथिलीशरण गुप्त जब दिल्ली आये तो नवीनजी भी उनके दरबार में आते। नवीनजी 'परनिन्दा' में तो नहीं पर शृंगारिक स्केंडलों में बड़ी रुचि रखते थे। यहाँ अज्ञेय भी आते और चुपचाप बैठते। काव्य-प्रयोगों की बात आने पर नवीन जी प्राय: अज्ञेय को छेड़ते-''यह तो आपका ही विषय है'' और इस विषय प्रयोग की बात 'शब्द' पर पहुँचती तो अज्ञेय जी कहते-''दद्दा, हर शब्द का अपना संस्कार होता है। कोई संज्ञा कोई एक अपना चालू अथवा कोशगत अर्थ लेकर नहीं आती बल्कि अपने साथ एक पूरा इतिहास, एक परिवेश, एक सांस्कृतिक अनुगूँज लेकर आती है। बात सिर्फ मात्राएँ गिनने की ही तो नहीं होती, उस पूरी दुनिया की होती है जो शब्द के साथ बँधी होती है।'' (वही, पृ. 149) निष्कर्ष यह कि कविता में शब्दों के न तो पर्याय चलते हैं न एक शब्द की जगह दूसरा शब्द बदला जा सकता है। इसलिए कविता शाब्दिक क्रिया है। समर्थ कवि शब्द की सूक्ष्मतर अर्थ-व्यंजकता या अनगूँज को पहचानता है-कमजोर कवि यह सब नहीं जानता। अज्ञेय के कवि-कर्म का भाष्य करने वाले विद्वान मानते हैं कि अज्ञेय के बहुत से विचार एजरा पाउंड और टी.एस. एलियट से मिलते हैं। लेकिन यह होते हुए भी ये भिन्न संस्कृति-परम्परा और दृष्टि के कवि हैं। यूरोपीय परम्परा अज्ञेय को जन्म नहीं दे सकती थी। उनकी कवि-निष्पत्ति को भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं से ही पाया जा सकता था। इसलिए जो आलोचक अज्ञेय पर विदेशीपन का आरोप लगाते हैं उन्हें पुनर्विचार की आवश्यकता है। अज्ञेय के पूर्ववर्ती काव्य में विदेशी झटके हैं लेकिन परवर्ती काव्य पूरी तरह भारतीयता में पोर-पोर भीगा हुआ है।

नवीन जी की तरह अज्ञेय भी 'हम विषपायी जनम' के क्या नहीं रहे? क्या दोनों जीवन के वसन्त से कटकर पतझड़ में नहीं भटके? जबकि दोनों ही महाकाव्योचित व्यक्तित्व से सम्पन्न रहे। दोनों ही अपनी वैष्णवता में फक्कड़, अपनी परम्पराओं को खोजने-गहने में परम धाकड़ साहसी और ट्रेजेडी की सम्भावनाओं से भरे, उजले-पावन भारतीय विश्वास के ऋषि प्रतीक। दोनों ही इन्दु मथित सिन्धु लहर से खेलने वाले लीला नायक। लेकिन यायावर अज्ञेय नवीन से जुडक़र भी एकदम अलग अखंड अडिग व्यक्तित्व के धनी। 'अरे यायावर रहेगा याद' तथा 'एक बूँद सहसा उछली' के देश-विदेश छानने रमने वाले अज्ञेय-जापानी जेन-चिन्तक के साधक अज्ञेय, 'अरी ओ करुणा प्रभामय' की साधना में मग्न-मस्त-अनुरक्तनेत्र-पनडुब्बा, पियरेक्वीर की समाधि पर विदेश में धूनी रमाते अज्ञेय, कविता के 'सुनहले शैवाल' में जीवन का आलोक-दीप्तराग पाते अज्ञेय, हिरोशिमा में बौद्ध चिन्तन का सत्य पाते अज्ञेय। मेरे मन में न जाने कितने अज्ञेय हैं-अज्ञेय के नानाविध बिम्ब हैं-मथुरा-वृन्दावन में कृष्ण-राधा-रस खोजते अज्ञेय और अपनी जातीय अस्मिता को खोजते-पहचानते-जीते 'जन जनक जानकी' के अज्ञेय, लीला-नायकों, पर्वों, तीर्थों, नदियों में भारतीय संस्कृति के विस्मृत अतीत को स्मृति के आलोक में लाकर उसमें धडक़ते-रचते अज्ञेय; अपनी संस्कृति की आँख से अपना आत्मालोचन करते अज्ञेय। मानवेन्द्र राय के विचारों के साथी फिर मानवेन्द्र राय से मुक्त होते अज्ञेय एक आलोचक राष्टï्र को खोजने निकले हैं और कह रहे हैं हमें एक आलोचक राष्ट्र का निर्माण करना होगा। भारतीय मिश्र-संस्कृति के विमर्श में अपनी धुन छेड़ते हैं अज्ञेय। खूब सोच-समझकर अज्ञेय जी इस विचार पर पहुँचे थे कि भारतीय संस्कृति 'सामासिक-संस्कृति' नहीं है, मिश्र संस्कृति है। संस्कृतियाँ प्रभाव ग्रहण करती हैं। उनमें आदान-प्रदान चलता है इसलिए वे अपनी 'संग्राहता' से 'मिश्रता' को ही उजागर करती हैं। समन्वय-सामंजस्य, विरोधों का मेल, टकराहट-तनाव-संघर्ष यह सब संस्कृति का भीतरी संवादी-स्वर है जो अन्तत: एक मिश्र-संस्कृति का रूप ले लेता है। समाजशास्त्रीय-पुरातात्त्विक खोजों का सार-सर्वस्व यही है कि भारतीय संस्कृति को 'मिश्र-संस्कृति' ही कहा जा सकता है।

अज्ञेय के रचना-कर्म का 'मौन' बुद्ध-ईसा के मौन की याद दिलाता है। यह मौन आरम्भ में एकान्तवास से पनपा, फिर चिन्तन की दिशा में। ''जेल में अपने सहकर्मियों के दिन-रात के अनिवार्य साहचर्य से त्रस्त होकर उसने काल-कोठरी की माँग की थी और महीनों उसमें रहता रहा। एकान्तजीवी होने के कारण देश और काल के आयाम का उसका बोध कुछ अलग ढंग का है। वह घंटों निश्चल बैठा रहता है, इतना निश्चल कि चिडिय़ाँ उसके कन्धों पर बैठ जाएँ या कि गिलहरियाँ उसकी टाँगों पर से फाँदती चली जाएँ। पशु-पक्षी और बच्चे उससे बड़ी जल्दी हिल जाते हैं।'' 'राग-दीप्त पे्रमी' अज्ञेय अपने कवि-कर्म में इन सभी को स्थान देता है। इस पे्रम का अनन्त विस्तार 'असाध्य वीणा' में मिलता है जहाँ किरीटी-तरु से केहरि पीठ खुजलाने आते हैं, वन-यूथों का शोर और द्रुत धावित पक्षियों के पैरों की सिहरन है। अज्ञेय की कविता में पशु-पक्षी जगत्ï बहुत बड़ा है। पूरी प्रकृति से तदाकार हैं कवि अज्ञेय-वह प्रकृति जिसपर आज आरियाँ चल रही हैं, जिसे काटा-उजाड़ा जा रहा है, नन्दादेवी के वन की तरह। पूरे पर्यावरण के विनाश की चिन्ता से अज्ञेय का परवर्ती-सृजन और चिन्तन भरा पड़ा है। 'विकास' तथा 'प्रगति' के नाम पर आयी सत्यानाशी आधुनिकता के विरोधी रहे हैं अज्ञेय।

प्रकृति का साहचर्य मानव को जीवन का रूप-रंग-रस देता है। इस भारतीय चिन्तन का अज्ञेय जी प्रसाद जी की तरह विस्तार करते हैं। ''पशु-उसने गिलहरी के बच्चे से तेंदुए के बच्चे तक पाले हैं। पक्षी-बुलबुल से मोर चकोर तक, बन्दी-इनमें से दो-चार से अधिक किसी को नहीं रखा। उसकी निश्चलता ही उन्हें आश्वस्त कर देती है। लेकिन गति का उसके लिए दुर्दान्त आकर्षण है। निरी अन्ध गति का नहीं, जैसे तेज मोटर या हवाई जहाज की।...आकर्षण है एक तरह की ऐसी लययुक्त गति का-जैसे घुड़दौड़ के घोड़े की गति, हिरण की फलाँग, या अच्छे तैराक का अंग-संचालन या शिकारी पक्षी के झपट्ïटे की या सागर की लहरों की गति। उसके लेखन में, विशेषकर कविता में यह आकर्षण मुखर है। पर जीवन में भी उतना ही प्रभावशाली है।'' (आत्मपरक, पृ. 316) सागर, नदी, पर्वत का अज्ञेय में अगाध आकर्षण है। जापान में सागर और पर्वत को एक साथ मिले देखकर अज्ञेय विस्मय-विमुग्ध रहे और कहा कि यदि वहाँ हिन्दी बोली जाती होती तो वहीं रहना पसन्द करते, महाबुद्ध की करुणा के गीत गाते।

अज्ञेय अन्तर्मुखी रचनाकार हैं, लेकिन यह अन्तर्मुखता समाज-विरोधी न होकर गहरे में समाज से शान्त सामंजस्य बैठाने वाली है। यह शान्त सन्त-स्वभाव अज्ञेय के रचनाकार का है और यह रचनाकार समाज को बदलना चाहता है क्योंकि आज ज्ञान-विज्ञान के प्रभाव से गति इतनी तेज हो गयी है कि जो व्यक्ति, समाज या देश नहीं बदलेगा वह पिछड़ जाएगा। किन्तु यह बदलाव हमें अपनी संस्कृति की मूल्यदृष्टि के हिसाब से करना होगा, दूसरों की नकल पर जीवित रह कर नहीं। प्रकृत बदलाव शान्ति एवं आत्मबल देता है। नकली बदलाव पागलपन लाता है इसलिए चुनना चाहिए, कवि को सर्वोत्तम चयन में प्रवृत्त होना चाहिए। स्वयं अज्ञेय इसी ओर प्रवृत्त रहे हैं। 'नया कवि : आत्मस्वीकार' कविता में कहते हैं :

     किसी का सत्य था , मैं ने सन्दर्भ में जोड़ दिया।
     कोई मधुकोष काट लाया था , मैं ने निचोड़ लिया।
     किसी की उक्ति में गरिमा थी , मैं ने उसे थोड़ा सँवार दिया ,
     किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था , मैं ने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।
     कोई हुनरमन्द था , मैं ने देखा और कहा , '' यों। ''
     थका भारवाही पाया - घुडक़ा या कोंच दिया , '' क्यों ?''
     किसी की पौध थी , मैं ने सींची और बढऩे पर अपना ली ,
     किसी की लगाई लता थी , मैं ने दो वल्ली गाड़ उसी पर छवा ली।
     किसी की कली थी , मैं ने अनदेखे में बीन ली ,
     किसी की बात थी , मैं ने मुँह से छीन ली।
     यों मैं कवि हूँ , आधुनिक हूँ , नया हूँ :
     काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
     चाहता हूँ आप मुझे एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें।
     पर प्रतिमा - अरे वह तो जैसी आपको रुचे आप स्वयं गढ़ें।

कवि का काम बस इतना है-'सत्य' को सन्दर्भ में जोड़ देना। पचास वर्ष तक हिन्दी में कविता लिखने के बाद 'सदानीरा' की 'भूमिका' में ध्यान दिलाया अपने पाठक को या ग्रहीता को कि कवि-कर्म एक प्रकार का परकाय-प्रवेश है। लेकिन कवि को नहीं, कविता को बोलना चाहिए। ''कवि जो कहना चाहेगा वह किस बारे में होगा? क्या भाषा के बारे में? क्या शब्द, छन्द, लय के बारे में? क्या रूपाकार के बारे में? अपने समाज के बारे में? अपने काल, अपने समय, अपने युग समाज के बारे में? अपनी दृष्टि के, विश्व-दर्शन के बारे में? क्या उन प्रभावों के बारे में जो उस पर पड़े या जो उसने ग्रहण किये? क्या सम्पे्रषण की कठिनाइयों के बारे में? या अभिव्यक्ति की समस्याओं के बारे में? या कि आत्म-साक्षात्कार के बारे में?'' क्या इस उपक्रम की आवश्यकता है? फिर अज्ञेय हों या कोई भी कवि हो उसकी काव्य-संवेदना अप्रभावित कैसे रह सकती हैï? अज्ञेय ने कभी सौन्दर्यवाद, प्रतीकवाद, बिम्बवाद, अस्तित्ववाद का प्रभाव ग्रहण किया तो कभी मानवेन्द्रराय और लोहिया-गांधी-जयप्रकाश नारायण का। उनपर अरविन्द और विवेकानन्द की धमक भी कम नहीं है। किन्तु यह सब प्रभाव भी नकल के स्तर पर नहीं है और ''प्रभाव की समस्या आधुनिक कवि-मात्र की एक बड़ी समस्या है। इतनी बड़ी कि 'प्रभाव की चिन्ता' को लेकर समकालीन कविता के कुछ सिद्धान्त भी गढ़े गये हैं। हर कवि प्रभावित है, चिन्तित है कि कहीं वह प्रभावित तो नहीं है, शंकित है कि कहीं यह प्रभाव दीख न जाए।'' कितनी बड़ी बात है कि अज्ञेय ने इन प्रभावों को कभी छिपाया नहीं-चाहे प्रभाव हेडेगर का हो या कामू-सात्र्र-नीत्से या एलियट-पाउंड का। आज का कवि कविता को ज्यादा बोलने नहीं देता, बेशुमार वक्तव्यबाजी करता है। जबकि अज्ञेय वक्तव्यबाजी कम करते हैं कविता को मुक्त बोलने देते हैं-यह उनकी कविता की स्वाधीनता है। अज्ञेय की कविता वाल्मीकि-कालिदास-भवभूति-सूर-कबीर-जायसी-मीरा-गुप्त-प्रसाद-निराला को श्रद्धा से भर कर बोलती है। इसमें हमारी परम्परा के पुरखे बोलते हैं, वह चिन्तन बोलता है जिसमें हमारी आत्मा बसती है। रचनाकर्म में एक चुनौती भवभूति देते हैं, विनय और शील के साथ। यह विनय और शील अज्ञेय धारण करते हैं। उनके कथन भी अहंकार के नहीं, काव्यार्थ में निष्ठा के प्रमाण हैं-''यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ।'' आज के युग में कोरी विनय से काम नहीं चल सकता। ''आज के कवि का संवेदन बदल गया है;'' आज कविता का अम्बार लगा है और रीति अमान्य है। इसलिए नये प्रयोग, नयी संवेदना, नया जीवन-छन्द-लय-भाषा के साथ ''रागात्मक सम्बन्धों की प्रणालियाँ बदल गयी हैं। और इन बदली हुई प्रणालियों का कवि-कर्म पर गहरा असर पड़ा है। फिर आज का कवि केवल 'विरासत' पर नहीं जी सकता। उसे अपने को बार-बार नये ढंग से संस्कारित करना पड़ता है। आज उसकी शक्ति प्रश्नाकुलता है, विनयशील-श्रद्धा नहीं। कवि में शिक्षा-दीक्षा, प्रतिभा, बहुज्ञता और निर्भयता भी चाहिए ताकि समय के सच को कह सके। 'नये कवि से' अपेक्षा क्या है?''

     आ , तू आ ,
     हाँ , ,
     मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर ,
     मिटाता उसे
     मुझे मुँह भर-भर गाली देता
     आ , तू आ।
     तेरा कहना है ठीक : जिधर मैं चला
     नहीं वह पथ था :
     मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर
     सदा जिसे पथ कहा गया , जो
     इतने-इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि उस पर
     कोई छाप नहीं पहचानी जा सकती थी।
     मेरी खोज नहीं थी उस मिट् ï टी की
     जिसकी जब चाहूँ मैं रौंदूँ : मेरी आँखें
     उलझी थीं उस तेजोमय प्रभापुंज से
     जिससे झरता कण-कण उस मिट्टी को
     कर देता था कभी स्वर्ण तो कभी शस्य
     कभी जीव तो कभी जीव्य।
     अनुक्षण नव-नव अंकुर-स्फोटित , नवरूपायित
     मैं कभी न बन सका करुण , सदा
     करुणा से उस अजस्र
     सोते की ओर दौड़ता रहा जहाँ से
     सब कुछ होता जाता था प्रतिपल
     आलोकित रंजित दीप्त , हिरण्यम् ï
     रहस्य वेष्टित प्रभा-गर्भ जीवनमय।

अज्ञेय नयी सर्जना की तलाश में भटके, उड़े, लेकिन रुके नहीं। विजय- देवनारायण साही जी के शब्दों में, उन्होंने ''नयी कविता को पुन: सम्भव बनाया।'' उन्होंने जीवन-संवेदना को राग-रस से सींचा और पीछे मुडक़र नहीं देखा क्योंकि उन्हें सामने का जीवन-प्रकाश बुलाता रहा। टेरती आँखों की जिन्दा ज्योति का उन्होंने स्वागत किया। इसी अर्थ में अज्ञेय अतीत के नहीं, वर्तमान के कवि हैं-वर्तमान की चिन्ताओं से बेचैन व्यंग्य के कवि। बीहड़ पथों पर चलकर हर दल-दल को पार किया, तभी तो ''काँटों पर ये संकेत, एकोन्मुख संकेत लहू के'' अपना अर्थ रखते हैं। 'इशारे जिन्दगी के' कविता की ये पंक्तियाँ देखिए :

     जिन्दगी हर मोड़ पर करती रही हमको इशारे
     जिन्हें हमने नहीं देखा।
     क्योंकि हम बाँधे हुए थे पट्टयाँ संस्कार की
     और हमने बाँधने से पूर्व देखा था! -
     हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं।
     जिन्दगी करती रही नीरव इशारे :
     हम धनी थे शब्द के।
     " शब्द ईश्वर है , इसी से वह रहस् है '',
     '' शब्द अपने आप में इति है ''-
     हमें यह मोह अब छलता नहीं था।
     शब्द रत्नों की लड़ी गूँथ कर माला पिन्हाना चाहते थे
     नये रूपाकार को और हमने यही जाना था
     कि रूपाकार ही तो सार है।

शब्द संकेत है जिन्दगी के किसी गहरे अर्थ का। सत्य को अंक भेंटने की ललक का और उस वाणी का जो जीवन के शिव और सौन्दर्य की रक्षा करती है। इसीलिए तो :

     बढ़े चाहे बोझ जितना 
     शास्त्र का , इतिहास का ,
     रूढि़ के विन्यास का या सूक्त का -
     कम नहीं ललकार होती जिन्दगी की।
     मोड़ आगे और भी है -
     कौन उसकी ओर , देखो झाँकता है

इसलिए 'नया कवि : आत्मोपदेश' कविता का सार है कि नयी अनुभूति से मत डरो। यहाँ भी अज्ञेय को पुरातत्त्ववेत्ता पिता की स्मृति प्रेरणा देती है। अज्ञेय कविता में हमेशा पिता के साथ रहे। इसलिए अकेले होते हुए भी अकेले नहीं रहे। ''पुरातत्त्ववेता की छाया में अकेले रहने का एक लाभ अज्ञेय को और भी हुआ है। चाहे विरोधी के रूप में चाहे पालक के रूप में, वह बराबर परम्परा के सम्पर्क में रहा है। रूढि़ और परम्परा अलग-अलग चीजें हैं, यह उसने समझ लिया है। रूढि़ वह तोड़ता है और तोडऩे के लिए हमेशा तैयार है। लेकिन परम्परा तोड़ी नहीं जाती। बदली जाती है या आगे बढ़ाई जाती है, ऐसा वह मानता है और इसी के लिए यत्नशील है। कहना सही होगा कि वह मर्यादावान विद्रोही है।'' (अज्ञेय : अपनी निगाह में) क्या विडम्बना है कि प्राय: अज्ञेय के इस कथन को व्यंग्य-विद्रूपता में ही ग्रहण किया जाता रहा।

अज्ञेय का कितना ही उपहास किया गया हो, किन्तु वे मौन झेलते रहे और ''रूप-रस-गन्ध-गान'' की अपनी ऐन्द्रिय-संवेदना, ज्ञानात्मक संवेदना को कभी न छितराने दिया, न कुन्द होने दिया। अज्ञेय ने विरोधियों से शक्ति पायी। विरोधियों ने उनसे शक्ति पायी या नहीं, कौन कह सकता है। फिर अज्ञेय काव्य को पश्चिमी अर्थ में कला नहीं मानते। भारतीय अर्थ में 'विद्या' मानते हैं-ऐसी विद्या जो हमारी जड़ता को काटकर हमें मुक्त करती है। अज्ञेय में नेता का यह गुण रहा है कि वह अपने दृष्टिकोण को अपने पर इतना हावी हो जाने दें कि ''दूसरों के दृष्टिकोण की अनदेखी भी कर सकें।'' इसीलिए अज्ञेय ने अपने ढंग से हिन्दी कविता का नेतृत्व किया। उन्होंने व्यवस्थित चिन्तन किया-शास्त्र को तोड़ा-छोड़ा लेकिन धीरज के साथ। अव्यवस्थित चिन्तन के प्रति उनमें एक तीव्र असहिष्णुता रही है। चिन्तन के क्षेत्र में किसी भी प्रकार का 'लबड़धोंपन' उन्हें नापसन्द रहा। इसलिए उनके मित्र कम रहे। हिन्दी के आलोचकों-अध्यापकों का ढुलमिल चिन्तन अज्ञेय को जीवन-भर गहरी पीड़ा पहुँचाता रहा। अज्ञेय ने 'नयी कविता' शीर्षक लेख में एक प्रोफेसर और अध्येता के वाद-विवाद को प्रखरता से प्रस्तुत किया। छायावाद की ''अयि कल्पने सुकुमारि'' से कवि अज्ञेय ने विदा ली तो छायावादी संस्कारों की प्रोफेसर पीढ़ी ने विरोध किया। विरोध क्या एक पूरी पीढ़ी अज्ञेय-विरोध में डट गयी। अज्ञेय ने कहा कि कविता अपनी इन्द्रिय बदल रही है। नयी कविता सुनी कम पढ़ी ज्यादा जाती है, एकाग्र-मौन पाठ से उसकी बौद्धिकता खुलती है। इसीलिए प्रगतिवादी-प्रयोगवादी बिल्ले ''नयी कविता के सामने ओछे पड़ते हैं। फिर प्रगतिवाद तो एक राजनीतिक बिल्ला है और प्रयोगवाद एक गाली। इसलिए ये दोनों नाम गलत हैं, उतने ही गलत जितना कभी 'छायावादी' नाम गलत था। गलत और निरर्थक। नयी कविता में 'कविता' पर ध्यान केन्द्रित रहा है, कवि पर नहीं। नयी कविता मानती है कि नयी कविता सबसे पहले एक नयी मन:स्थिति का प्रतिबिम्ब है, एक नये मूड का-एक नये राग-सम्बन्ध का।'' कभी 'छायावाद' एक मूड का प्रतिबिम्ब था फिर नयी कविता नये मूड का प्रतिबिम्ब बनी और यह परिवर्तन पहले परिवर्तन से ज्यादा गहरा व्यापक और विद्रोही था। छायावाद में सभी आस्तिक थे, नयी कविता में आस्तिक-नास्तिक दोनों हैं। नयी कविता में अनेक अन्तर्धाराएँ हैं, अनेक अर्थ-ध्वनियों का कोलाहल। अज्ञेय का कवि-स्वभाव-चिन्तन ग.मा. मुक्तिबोध के चिन्तन से अलग है-किन्तु विरोधी नहीं, पूरक है। अज्ञेय की तलाश सही शब्द की तलाश है : ''मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की खोज है। भाषा का उपयोग मैं करता हूँ निस्सन्देह, लेकिन कवि के नाते जो मैं कहता हूँ वह भाषा के द्वारा नहीं केवल शब्दों के द्वारा। मेरे लिए यह भेद गहरा महत्त्व रखता है।'' (सर्जना और सन्दर्भ, पृ. 188) अज्ञेय ने न जाने कितनी बार कहा है कि ''कला-सृजन के माध्यमों में सबसे वेध्य माध्यम का उपयोग करता हूँ-ऐसे माध्यम का जिसको निरन्तर दूषित और संस्कारच्युत किया जाता रहा है। उसका उपयोग मैं ऐसे ढंग से करना चाहता हूँ कि वह नये प्राणों से दीप्त हो सके। ऐसा मैं कैसे करता हूँ या कर सकता हूँ? अपना ध्यान शब्द पर-हमेशा शब्द पर-केन्द्रित करके ही। निस्सन्देह दूसरी कलाएँ भी वेध्य हैं। इन सभी को व्यापारिक, लौकिक या पॉपुलर बनाया जा सकता है और निरन्तर बनाया जाता है। लेकिन चित्रकारी किए बिना, गाए बिना, पत्थर या लकड़ी उकेरे बिना भी सामाजिक हुआ जा सकता है, बोले बिना सामाजिक नहीं हुआ जा सकता। भाषा को ही यह चिन्त्य विशिष्टïता प्राप्त है कि उसे निरन्तर और अनिवार्य हीनतर संस्कार का शिकार बनना पड़ता है।'' मूल बात यह कि किसी भी कला-माध्यम का जितनी उसकी क्षमता है उससे कम कहने के लिए उपयोग करना उसे संस्कार भ्रष्ट करना है। कवि का काम शब्द का उपयोग करना नहीं, उसके पार जाकर अर्थ-

सम्भावनाओं का विस्तार करना है। अर्थात् शब्दों का ही अर्थ-गर्भ उपयोग नहीं, अर्थ-गर्भ मौन का भी उपयोग करना है। प्राय: कविता शब्दों में नहीं होती-कविता शब्दों के बीच निहित नीरवताओं में होती है, जबकि मौन के द्वारा भी सम्पे्रषण हो सकता है।

अज्ञेय ने शब्द-मौन के उपयोग पर अपने जीवन का उदाहरण दिया-''एक समय था जब मैं एक क्रान्तिकारी संगठन का सदस्य था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ रहा था, उस युद्ध में मैंने सभी साधनों का उपयोग किया था, भारतीय सेना तब अभी ब्रितानी सेना ही थी। उस समय भी मैंने कई साधनों का उपयोग किया जिनमें क्रान्तिकारी जीवन में प्राप्त कौशल भी थे। अवसर आया होता तो और भी साधनों का मैंने उपयोग किया होता। आज मैं दिल्ली से एक राजनैतिक समाचार-साप्ताहिक (दिनमान) का सम्पादन कर रहा हूँ। इनमें से किसी कार्य का मुझे अनुशोच या परिताप नहीं है तो दूसरी ओर इन कामों में और काव्य-रचना में कोई विरोधाभास भी नहीं दीखता है।'' (वही, पृ. 190) अज्ञेय को वाल्टर ह्विटमैन क्यों याद आते हैं? विद्रोह भाव के कारण ही न! ह्विटमैन की तरह वे भी स्वतन्त्रता के लिए, सामाजिक न्याय के लिए, मानव व्यक्तित्व की प्रतिष्ठïा के लिए, विशालतर सामान्य उद्देश्यों की सिद्धि के प्रयत्नों के लिए आग्रह करना अपना कर्तव्य समझते रहे हैं। आस्था के मूल्यों पर खड़ा कर्मरत मानव अज्ञेय का श्रेय-पे्रय दोनों है-''भीड़ों में / जब जब जिस-जिससे आँखें मिलती हैं / वह सहसा दिख जाता है / मानव / अंगार सा-भगवान-सा / अकेला / और हमारे सारे लोकाचार / राख की युगों-युगों की परतें हैं।'' यह मानव अंगारे-सा मानव ही उनके चिन्तन के केन्द्र में है-ईश्वर नहीं। यह मानव आज यन्त्रयुग प्रकट होने के दबाव में अजनबीपन, खंडित अस्मिता, संत्रास का सामना कर रहा है। इन स्थितियों के ठीक वही कारण हैं जो विदेशों में क्रियाशील हैं। पश्चिमी समाज में विराट्ï यन्त्र-उद्योगों के निरात्म और अमानुषी संगठन के विरुद्ध व्यक्ति जन की स्थिति जैसी नगण्य हो गयी है।'' पश्चिमवाद के क्रूर सन्त्रास की चिन्ता अज्ञेय को घेरती रही है। फिर यह चिन्ता कि एक समूची पीढ़ी मूल में न जीकर ''अनुवादों में जी रही है। और ऐसे अनुवाद में जी रही है जिसके मूल तक उसकी पहुँच नहीं है, जिसके मूल के बारे में उसकी पक्की जानकारी नहीं है।'' (सर्जना और सन्दर्भ-भाषा और अस्मिता, पृ. 339) यह अनुवादजीवी संस्कृति भारत में पनप रही है और अपने मूल को खोकर पनप रही है। अज्ञेय से लेकर रघुवीर सहाय तक, गोविन्द चन्द्र पांडेय से लेकर रमेशचन्द्र शाह तक, जड़ावलाल मेहता से लेकर नन्दकिशोर आचार्य तक यही चिन्ता व्याप्त है कि कैसे अनुवादजीवी संस्कृति हमें हमारी धुरियों से उतार कर नष्टï कर रही है। हरिऔध और मैथिलीशरण गुप्त की चिन्ताओं का यह नया रूप नहीं है क्या जिसमें भारत की भारती के आँसू टपक रहे हैं? आजाद भारत में भारत की पराधीनता, हीनता का उपनिवेशवाद, नव-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का झाँसा, समाजवाद की आड़ में पूँजीवाद, उत्तर-पूँजीवाद का काला नाग-''साँप, तुम सभ्य तो हुए नहीं'' बुदबुदाता रहा है। भारतीय संवेदन-सामर्थ्य का ह्रास, अस्मिता का संकट सभी क्षेत्रों में अवमानवीकरण की पीड़ा, अवमानना और तिरस्कार न जाने कब तक यह देश झेलेगा।

हमारी पूरी पीढ़ी के सामने यह यक्ष प्रश्न उपस्थित है कि भारत के इतने सारे लेखकों ने अपने को पश्चिमवाद-आधुनिकतावाद-मानववाद के जाल में क्यों फँस जाने दिया? यहाँ सूरजपाल नायपॉल याद आते हैं-जो भारत की 'घायल सभ्यता' पर अफसोस जाहिर करते रहे हैं कि संस्कृति की मौलिकता को गिरवी रखने का क्या अर्थ है, खास तौर से उस देश के लिए जिसके पास दर्शन-इतिहास-कला-धर्म-संस्कृति-साहित्य की समृद्ध परम्परा हो, जिस संस्कृति के मूल को कवियों ने गढ़ा हो? अज्ञेय प्रश्न पूछते रहे हैं कि किसी संस्कृति का इतना महान अतीत है क्या? शायद ही किसी संस्कृति के निर्माण में कवियों का इतना बड़ा योगदान रहा हो जितना भारतीय संस्कृति के निर्माण में रामायण-महाभारत, रघुवंश और उत्तररामचरितम्ï का रहा है, सन्त कवियों का रहा है। इधर सर्जनेतर उपयोग में गढ़ी हुई नयी शब्दावली आ रही है, उसमें वास्तव में वैसी अर्थ-वहन की क्षमता नहीं है। खोटी धातु से बार-बार धोखा खाकर नया लेखक मानो हार कर अपनी भाषा के प्रति अजनबी हो गया है। जो मूल्य या अर्थ उसे अभीष्ट है वह पराये शब्दों में उसे मिलता जान पड़ता है। इसी का परिणाम है कि वह निरन्तर अनुवादजीवी बना रहता है। इसलिए 'रचनात्मक भाषा और सम्पे्रषण की समस्या' विकराल हो उठी है। पढ़-लिखकर असमर्थ होता समाज भाषा की सांस्कृतिक अर्थ-व्यंजनाओं से निरन्तर कट रहा है, इससे जीवन की कालिदासीय लय के टूट जाने का खतरा बढ़ गया है। शब्द को, शब्दों की सम्पे्रषण क्षमता को प्रदूषित करके हम भाषा की चिन्तन-शक्ति का क्षरण कर रहे हैं। इसी दृष्टि से अज्ञेय ने 'यथार्थ संप्रेषण : कथा-भाषा की समस्याएँ' पर विचार किया है। समाज का यथार्थ स्थिर नहीं, गतिशील है, निरन्तर बदलता यथार्थ। इसलिए यथार्थ की हर अवधारणा सन्दिग्ध है। रचना में गायब होते 'सहृदय समाज' की जगह 'ऑडिएन्स' ले लेती है, एक मास ऑडिएन्स। यह सब मास कल्चर में खप जाता है। रचना में न व्यक्ति रहता है, न व्यक्तित्व रह पाता है, वह सब केवल समष्टिगत 'उपभोक्ता समुदाय' बन जाता है। अब बचा क्या है? बिना चेहरे की ऑडिएन्स और व्यक्तित्वरहित स्रष्टा। उसके बीच 'संवाद' कैसा और क्यों? गृहीता बिना चेहरे का उपभोक्ता और सर्जक स्रष्टा न होकर 'उत्पादक' व्यक्तित्वरहित उत्पादक। 'मास मीडिया' और 'मास कल्चर' का यह आक्रमण अज्ञेय खुली आँखों देख रहे थे। क्योंकि वे जानते थे मास कल्चर में साहित्य उपभोग्य वस्तु अथवा जिन्स बन जाता है। फिर जो साहित्य 'खपत माल' में बदल जाता है, उसका 'रसास्वादन' नहीं हो पाता। पाठक समुदाय भोक्ता-उपभोक्ता और व्यक्तित्वरहित रचनाकार उत्पादक मात्र रह जाता है। 'मास कल्चर' में पुस्तक को पढऩे-समझने का प्रश्न नादानी है; सयानापन है कि वह किताब कितनी बिकती है, उसका मनोरंजन आधुनिक तनावों को खत्म करने में कितनी मदद करता है। वह केवल वर्तमान की स्थिति को अधिक सहनीय बनाने वाला बनाता है और हमारे अनुभव में काल ऐतिहासिक क्रम में नहीं आता; सब कुछ उलट-पुलट जाता है। सच बात तो यह है कि 'कलाकृति' पर अज्ञेय के विचार उत्तर-संरचनावादी विचारकों-पाल डी मान, मिशेल फूको, ल्योतार-के नजदीक दिखाई देते हैं।

अज्ञेय अपने समय-समाज की सर्जनात्मकता को पहचान कर उसे डी-कंस्ट्रक्ट करते हैं। तभी तो उनके चिन्तन के केन्द्र में रही है आधुनिक मानव की स्वाधीनता और सर्जनात्मकता। इसी चिन्तन के वशीभूत होकर वे परम्परागत काव्य-लय को छोडक़र गद्य भाषा की ओर बढ़े। गद्य की लय को अपनाया और वक्तृता में वैशिष्ट्ïय की निष्पत्ति की। 'असाध्य वीणा' का प्रियंवद अज्ञेय 'कितनी नावों में कितनी बार' चढ़ा-उतरा। उनकी रचना-प्रक्रिया की कशमकश कवि की जागरूकता का प्रमाण रही है। तत्सम से तद्ïभव की ओर बढ़ती रचना-यात्रा में देसीपन का लोक-विस्तार और भाव-संवेदना उनकी भाषा में आती गयी। कितनी अद्ïभुत बात है कि अपने परवर्ती काव्य में अज्ञेय जी निराला की तरह सहज और 'जन-मन' के निकट आते गये। कवि-दृष्टि का देसीपन पूरी कवि-दृष्टि, कवि-सृष्टि में समाता गया। 'नदी की बांक पर छाया' की एक 'पंडिज्जी' शीर्ष कविता देखिए
   
     अरे भैया
, पंडिज्जी ने पोथी बन्द कर दी है
     पंडिज्जी ने चश्मा उतार लिया है
     पंडिज्जी ने आँखें मूँद ली हैं   
     पंडिज्जी चुप से हो गये हैं।

     भैया , इस समय पंडिज्जी
     फकत आदमी है।

'पंडिज्जी' की बोलचाल की लय और काव्य-टोन एकदम देसी। ये पंडिज्जी और कोई नहीं स्वयं अज्ञेय हैं, जिनका समय-परिवेश ने काया-कल्प कर दिया है। 'क्योंकि मैं उसे जानता हूँ' की आत्मीय उठान का उत्कर्ष दार्शनिकता-काव्यात्मकता खोकर कबीराई अन्दाज में आ गया है। सर्वनामों से जीवन-विस्तार को नापते अज्ञेय का यह नया कवि-बिम्ब है, आभिजात्य के दम्भ को पछाड़ता अज्ञेय का कवि-बिम्ब। आजादी के बाद 'आलोक मंजूषा' को समर्पित कवि कह उठता है कि 'छब्बीस जनवरी' एक विद्रूप-व्यंग्य में बदल गयी है। ऐसी ही भाव्य-व्यंजना कभी अज्ञेय के मानस-शिष्य सर्वेश्वर ने व्यक्त की थी-''झाँकियाँ निकलती हैं ढोंग अविश्वास की/बदबू आती है मरी हुई बात की।'' आजादी के बाद का विद्रूप लोकतन्त्र रघुवीर सहाय में सर्वाधिक स्थान पाता गया है-''राष्टï्रगीत में भला कौन यह भारत भाग्य विधाता है!'' अज्ञेय की पत्रकारिता ने-'दिनमान', 'नवभारत टाइम्स' के समय की पत्रकारिता ने-रचनाकार अज्ञेय को मथा-पीसा-रगड़ा और बेचैन किया। यहाँ कविता में तीखा-तगड़ा व्यंग्य स्थान पाता है गद्य-लय के साथ। 'केले का पेड़' कविता में व्यंग्य देखिए-''तू एक बार तन कर खड़ा तो होता / मेरे लुजलुज भारतवासी।'' केले की तरह रीढ़-विहीन होने का क्या अर्थ? स्वाधीनता के गर्व से रहित अपने ही देश में आत्मधिक्कार के शिकार पश्चिमी संस्कृति के नकलची, मानसिक गुलाम भारतवासी की पीड़ा कवि को मथती है।

'सागर मुद्रा' में फिर कवि का प्यार उफनाता और प्रकृति के पुराने मुहावरे को लेकर कवि गाता है 'कन्हाई ने प्यार किया', 'छातियों के बीच', 'राधा-टेर' तथा 'पे्रमोपनिषद्ï' का नया पाठ। पुकार का मूल भाव है 'तुम सागर क्यों नहीं हो?' सागर कवि को मुक्त करता है उसके व्यक्तित्व का प्रतीक है। इसी लौ में 'भले आये राम जी आँधी की ओट में अनाहूत चले आये, गुप्त जी के राम, निराला के राम, फिर आये अज्ञेय के राम-उदास-व्याकुल। उत्तर-आधुनिक युग के प्रताडि़त राम युग के नये संस्करण बने हैं। 'वन तुलसी की गन्ध' तथा 'देर तक गरमाए गये दूध की धुईली वास' उमड़ कर 'पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ' में बस जाती है। यादों की चादर में लिपटा कवि सन्नाटे का छन्द बन जाता है। 'मैं सन्नाटे का छन्द हूँ' कवि-कर्म के लिए सार्थकता की तलाश है। फिर शुरू हुआ सामान्य जन का प्रकृत भाव भरा 'नाच'। छायावाद से नयी कविता और समकालीन कविता की अन्तर्यात्रा का 'नाच'। सूरदास की याद आती है-'अब हौं नाच्यो बहुत गोपाल'। इस नाच में अज्ञेय की जीवन-वेदना-यातना का दर्द है तथा भोग का अर्थ-सन्दर्भ रस्सी पर नाच दिखाने की पीड़ा। लोग नाच देखते हैं :

     न मुझे देखते हैं जो नाचता है
     न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ
     न खम्भों को जिस पर रस्सी तनी है
     न रोशनी को जिसमें नाच दीखता है :
     लोग सिर्फ नाच देखते हैं।

क्या अद्ïभुत बात है कि यायावर अज्ञेय को परवर्ती काव्य में 'घर' की हुडक़ सताती है। गृहस्थ की पीड़ा-रामायण का यह नया अध्याय है, बहुलार्थक 'पाठ' से भरा कविता का ध्वन्यर्थ। तभी तो ''आँगन के पार / भवन के ओर-छोर में खो गया भवन / घर मेरा दो दरवाजों को जोड़ता है / एक घेरा है घर / जिसमें बाहर का दृश्य दीखता है / घर नहीं दीखता।'' क्या यह कविवर नवीन जी के 'हम अनिकेतन' का नया भाष्य तो नहीं है! तभी तो कवि ने 'नहीं यूलिसी ज' नामक कविता में 'सत्य' यह पाया है :
 
     नहीं
, यूलिसीज
     न तुम्हें कभी मिलेगी इथाका
     न मुझे कभी द्वारका।
     वापसी में यों भी
     कोई नगर नहीं मिलते
     प्रवासी लौटते तो हैं
     पर उनकी घर वापसी नहीं होती
     जहाँ उनकी वापसी होती है वहाँ उनके घर नहीं होते
     उन्हें कोई नहीं पहचानता।

'वत्सलनिधि' द्वारा आयोजित 'भारतीय घर' शीर्षक परिसंवाद का यह कैसा निचोड़ है। अन्तिम काव्य-संग्रह ''ऐसा कोई घर आपने देखा है'' यहाँ चिड़िया रैन बसेरा का अनुभव क्यों है क्या है? ''चिड़िया को जितने नाम दिये थे / सब झूठे पड़ गये।'' क्यों झूठे पड़ गये? वह कविता क्यों पूरी नहीं हुई-''काँपी और थिर हो गयी पत्ती।'' विराट् का स्पन्दन चिड़िया का पत्ती-डाल पर बैठना-उडऩा। जीवन ऋतु का नया अनुभव-संवेदन और संवेदन में विराट् का जीवन-स्वर-लीला-गायन। कवि की अनिर्वचनीय उड़ान की अष्टTध्यायी यहाँ है। कवि अब 'छन्द' बन गया है : 

     मैं सभी ओर से खुला हूँ

     वन-सा , वन-सा अपने में बन्द हूँ
     शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
     मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।

अज्ञेय में 'मौन' के छन्द गतिमान हैं, थिरकते हैं, फिर महाकाल में प्रवेश पाकर समाधि लगा लेते हैं। इस तरह 'मौन' के अनेक ध्वन्यर्थ हैं। मौन मधु होकर भाषा को, शब्द को लयमान कर लेता है-''मैं मौन नहीं हूँ मुझमें स्वर बहते हैं'' वाली भवानी भाई की 'सन्नाटा' कविता का मौन। मौन ही सबसे मुखर गति है, योग की चित्त-समाधि का नाम-जप। मौन अजपा जाप का नया अर्थ-सन्दर्भ अज्ञेय का मौन है। महाबुद्ध की करुणा का मौन अर्थ में बोलता मिलता है। 'असाध्य वीणा' का मौन और मौन तोडक़र पूरी संसृति की संगिनी प्रकृति-लय का लास्य सौन्दर्य। जीवन के पार्वती-सौन्दर्य का साक्षात्कार ही तो अज्ञेय का कवि-कर्म है। 'कामायनी' के इच्छा-क्रिया-ज्ञान का सामरस्य भरा मौन अज्ञेय में 'स्मृति' बनकर सर्जनात्मकता को 'अर्थ' देता है 'छन्द' में नाद-सौन्दर्य का संगीत।

अज्ञेय ने सोच-समझकर ही अपने को सन्नाटे का छन्द कहा है, क्योंकि वह जीवन और प्रकृति की लय को छन्द बनाते हैं, और उस जीवन-छन्द की लय को जन-मन में उतारना चाहते हैं-''दीप हूँ मस्तक पर मेरे दीपशिखा है नाच रही।'' आज भी हिन्दी कविता से एक आवाज उठ रही है-''दूर-दूर-दूर-मैं वहाँ हूँ! मैं हूँ, मैं यहाँ हूँ, पर सेतु हूँ/जो है और जो होगा दोनों को मिलाता हूँ।'' तभी तो परम्परा से फूटती भारतीय आधुनिकता का नाम है-अज्ञेय।

द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि ने अज्ञेय को काफी दूर तक कविता-कहानी-उपन्यास-निबन्धों में प्रभावित किया है। इसी के भीतर से उपजा क्षणवाद है जिसे 'परिवेश' से जोडक़र ही समझना होगा। मात्र यह कहना पर्याप्त नहीं होगा कि यह सब पश्चिम की नकल है और पश्चिम का सबसे नकलची रचनाकार है अज्ञेय। क्योंकि अज्ञेय के 'भीतर जागा दाता' कहता रहता है-''यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया, सब तुम्हें दिया।'' यह अनुभव-अद्वितीय ''सर्जना के क्षणों में वज्र जिससे फोड़ता चट्ïटान को'' की शक्ति से स्वाति में पडक़र मोती उपजाता है।

अज्ञेय ठीक पहचानते हैं कि हमारी परम्परा में 'विरुद्धों के सामंजस्य' वाली शक्ति भारतीय आधुनिकता की चेतना को उजला और प्रखर बनाती रही है। यह परम्परा उस 'ट्रेडीशन' का पर्याय नहीं है जिसमें विपरीत दो धाराओं का अलगाव हो। यूनान से निकलती फलसफे की परम्परा और धर्म से निकली धार्मिक परम्परा में मिलनबिन्दु गायब है। एक परम्परा तर्कबुद्धि को लेकर परेशान रही है और दूसरी आस्था को लेकर चकित-आस्था और तर्क के बीच संवाद न होने से सीधा तनाव। यह सीधा तनाव ही पश्चिमी बौद्धिकों को भारतीय परम्पराओं का कर्म-संस्कृति-दर्शन-साहित्य वाला अन्त:सूत्र नहीं पकडऩे देता। पश्चिमी जगत्ï अपनी भ्रान्तियों का जो कूड़ा भारत में फेंकता रहा है, उसे फिर से बुहार कर फेंकने का समय आ गया है। यदि इस कूड़े को पड़ा रहने दिया गया तो जो बचा-खुचा है वह भी विकृत-प्रदूषित हो सकता है। अज्ञेय का प्रयास रहा है कि एशिया के अन्य देशों की तरह आधुनिकता और आधुनिकीकरण पश्चिम का पर्याय बनकर नहीं आना चाहिए। यदि शत-प्रतिशत पश्चिमी आधुनिकता का आगमन यहाँ हुआ तो 'भारतीयता' पर न केवल तुषारापात होगा बल्कि पूरी चिन्तन की दिशा ही बदल जाएगी। हमारी बहुदेवतावाद वाली उदार अनन्तता का स्थान एकेश्वरवादी चिन्तन पद्धति में गर्क हो जाएगा। इस दृष्टि से 'परम्परा' को लेकर अज्ञेय की चिन्ता 'भारतीयता' की चिन्ता है क्योंकि परम्परा को 'सेक्यूलरिज़्म' का पर्याय बनाने के प्रयास में लगे हमारे कुछ भटके बुद्धिजीवी 'भारतीयता' के नाम पर असहिष्णु हो जाते हैं। वास्तव में, यह विवेकानन्द और गाँधी को एक-साथ खारिज करने की कोशिश है। जबकि अज्ञेय तो प्रसाद-निराला की तरह भारतीयता का आरक्षण ही नहीं चाहते, उसको सम्मानित स्थान दिलाना चाहते हैं। इधर के वर्षों में हुआ यह है कि परम्परा का अविच्छिन्न प्रवाह न केवल बाधित हुआ है अपितु उसकी अखंड विश्वसनीयता का भी क्षरण हुआ है। यह नहीं कि परम्परा या परम्पराओं का आदान और प्रदान न हो। हम सभी जानते हैं कि परम्पराओं में लेन-देन रुकते ही सर्जनात्मकता को लकवा मार जाता है। परम्परा को हम विरासत के रूप में प्राप्त जरूर करते हैं किन्तु यदि उस विरासत में प्रवाह रुक गया तो जड़ता आ जाती है। मैक्समूलर के लिए वेद चाहे मामूली गड़रियों का गीत हों, लेकिन हमारे लिए विचार-यज्ञ की आग हैं, जिनका हम संकट के समय भाष्य-पुनर्भाष्य करते हैं और उससे नयी प्रेरणा पाते हैं। हम वेदों को निरर्थक कहकर नहीं फेंकते, क्योंकि वे हमारे पूर्वजों की आदिम आवा जें हैं। आज भी अज्ञेय जैसा कवि 'विरला-हठीला' उस 'समिधा' को सुलगाता मिलता है। यही तो अज्ञेय में 'काल की मौना' का संचय है जिसके लिए अज्ञेय 'अनुरक्त नेत्र' 'उल्लम्ब बाहु' रहे हैं। 'यह कवि, आधुनिक और नया' एक उन्मेष के साथ कहता है :

     यह दीप अकेला
     स्नेह भरा
     है गर्व भरा मदमाता , पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
     यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा ?
     पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा ?
     यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
     यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
     यह दीप अकेला स्नेहा-भरा है
     गर्व-भरा मदमाता , पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
     यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युग संचय ,
     यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय ,
     यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय ,
     यह प्रकृत , स्वयम्भू , ब्रह् , अयुत , इसको भी शक्ति को दे दो।
     यह वह विश्वास , नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा ,
     यह पीड़ा , जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा ;
     कुत्सा , अपमान , अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में ,
     यह सदा द्रवित , चिरजागरूक , अनुरक्त नेत्र ,
     उल्लम्ब बाहु , यह चिर अखंड अपनापा।
     जिज्ञासु , प्रबुद्ध , सदा श्रद्धामय , इसको भक्ति को दे दो :
     यह दीप अकेला , स्नेह-भरा
     है गर्व-भरा मदमाता , पर इसको भी पंक्ति को दे दो।

यह है-नये कवि की प्रार्थना। प्रार्थना भरी नवयुग की विनयपत्रिका जिसमें दैन्य नहीं है, गर्व-भरा मदमातापन है। अपनी परम्परा के परिष्कार का संकल्प 'यह दीप अकेला' में बाँसुरी की तरह बजता मिलता है। अज्ञेय का यह 'दे-दो' वाला विनयशील स्वभाव जाने क्यों मुझे महादेवी की युग-प्रार्थना 'यह मन्दिर का दीप उसे नीरव जलने दो' की स्मृति दिलाता है जबकि दोनों अलग-अलग कवि-मानसिकता रखते हैं। फिर भी दोनों में आश्चर्य में डालने वाला भाव-साम्य है। महादेवी में जो अनुभूति युग के नवजागरण की मनोभूमि को स्मृति में जाग्रत कर देती है वही अनुभूति अज्ञेय में हठीली आग बनकर। इस आग में 'चिर अखंड अपनापा' का राग दीप्त आलोक, प्राचीन कवि-मनीषी का अज्ञेय में पुनरावतार, पुन:आविष्कार। महादेवी में सत्याग्रह-युग के संकल्प शक्ति में बदल रहे हैं तो अज्ञेय में स्वाधीन भारत की अकड़ती-कडक़ती आवाजका तेजस्वी प्रभामंडली स्वर। विजयदेवनारायण साही ने छायावाद की मनोभूमि को गहराई से विश्लेषित करने के बाद यह निष्कर्ष ठीक ही निकाला है कि ''हिन्दी के छायावादी काव्य में सत्याग्रह-युग की भारतीय अनुभूति की पूरी कथा हो, ऐसा तो नहीं है। लेकिन जो कुछ भी कहा जा सका है वह प्रधानत: नैतिकता में ही सत्य के विलयन की कथा है। निराला, पन्त, महादेवी नैतिकता में ही शक्ति का होम करते हैं।'' (छठा दशक, पृ. 274) महादेवी और अज्ञेय, प्रसाद और अज्ञेय की कृतियों के तल में सक्रिय अनुभूति भिन्न होते हुए भी उस युग की मनोभूमि का साक्षात्कार कराती है जिसमें महादेवी और प्रसाद की परम्परा का समृद्ध विकास अज्ञेय में दिखाई देता है। अज्ञेय के पास जो काव्यात्मक अनुभूति का इतना बड़ा खज़ाना है उसमें प्रसाद का, महादेवी का योगदान कम नहीं है। ''छायावादी कलाकृति मूलत: एक विस्फोट करता हुआ कलारूप है जैसे केन्द्रीय अर्थ फूटकर चारों ओर क्रमश: विलीन होता हुआ बिखर रहा हो। तीसरे दशक की कलाकृति उसे विस्फोट की तरह नहीं बल्कि एक लहर की तरह निर्मित करती है-जिस प्रयास में महादेवी से लेकर बच्चन तक के गीत निर्मित होते हैं। नयी कविता उस तरंग के रूप को एक 'स्ट्रक्चर' में बदल देती है, जैसे हीरे का क्रिस्टल हो।'' (वही, पृ. 312) अज्ञेय का 'यह दीप अकेला' क्या अपने पूरे स्ट्रक्चर में हीरे का क्रिस्टल नहीं है? बिल्कुल है। पोर-पोर काव्यात्मकता से दमकता हीरा।

अज्ञेय के लिए रचना परम्परा ही संस्कृति की आँख है। इस संस्कृति की आँख से ही अज्ञेय नदी, सागर, पहाड़, पर्वत, चिड़िया, गाय-सभी को देखते हैं। ''मतियाया सागर लहराया'' में तो अज्ञेय तरंग की पंखयुक्त वीणा पर पवन का उमंग-भरा गीत सुनते हैं। प्रकृति का लास्य-नर्तन ऐसा कि फेन झालरदार मखमली चादर पर मचलती किरण अप्सराएँ भारहीन पैरों से थिरक उठती हैं। सागर का झूम-झूम उठता किनारा देखकर दाता बोला-''लो यह, सागर मैं ने तुम्हें दिया।'' चंचला युवती सी लजाती पगडंडी ओट से झाँकती है। छरहरे पेड़ (मानव) की रंगीली फुनगी आकाश के भाल पर जयतिलक करती है। गेहूँ की हरी बालियों में से कभी राई की उजली, कभी सरसों की पीली फूल आभा दमकती है। कभी लाली पोस्ते को चौंकाती है, कभी तीसी की लघु नीलिमा मोहती है। ''मेरे भीतर फिर जागा दाता और मैं ने फिर नीरव संकल्प किया।'' प्रकृति में कितनी आत्मदान की प्रेरणा है-प्रकृति में आत्म-उन्मोचन की अनन्त-अनन्त भावना का अर्थ :

     लो , यह हरी भरी धरती यह सवत्सा कामधेनु - मैं ने तुम्हें दी :
     आकाश भी तुम्हें दिया :
     यह बौर , यह अंकुर , ये रंग , ये फूल , ये कोपलें ,
     ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ
     ये मैं ने तुम्हें दीं :

अज्ञेय की कविता में इतना विस्तृत प्रकृति-लय का संसार है कि वाल्मीकि, कालिदास, प्रसाद, निराला, महादेवी का प्रकृति-संसार स्मृति में आकाश-सा फैल जाता है। प्रकृति सौन्दर्य का अद्ïभुत-अनुपम लोक नयी कविता में बंजरता को ठहरने नहीं देता। अज्ञेय जी के लिए यह विचार लगातार उछाला गया है कि वे नयी कविता के सौन्दर्योपासक परम सन्त हैं और उनका सन्त फ्रायड तथा हाइडेगर के प्रभाव से भी ज्यादा कालिदास की प्रकृति-चेतना से चैतन्यता पाता है। इसलिए अज्ञेय ने एक प्रकार से कालिदास का ऋण चुकाया है। उनके परवर्ती सृजन में प्रकृति-विनाश (नन्दादेवी आदि) के प्रति गहरी चिन्ता की अभिव्यक्ति मिलती है। वनों पर चलते ठेकेदारों के आरे और सरकार की उदासीनता पूरे पर्यावरण के विनाश पर आमादा है। वन, नदी, पर्वत, पशु-पक्षी हमारे आदिम सहचर रहे हैं, वन कटता है, ये सब भी कटते हैं, उजड़ते हैं। अज्ञेय में प्रकृति से पे्रम, सृष्टि से पे्रम है, दुनिया से लगाव है, सबके साथ सबका होकर जीने का मानुष-भाव है। यह तो शुद्ध भारतीय चिन्तन परम्परा की उपनिषद-धारा से उपजी सौन्दर्य दृष्टि है जिसमें मानव और प्रकृति का सह-संवाद है, अद्वैतता है, तदाकारिता है। इसमें अलगाववादी 'अदर' या अन्य नहीं है, आत्म है और आत्म का विस्तार है, आत्मदान है, 'आँचल पसारकर लेने' का भाव है, आत्म-समर्पण और आत्म-उन्मोचन है। इस आत्म-दर्शन में सेक्यूलर और धार्मिक का विभाजन नहीं है, जो है वह पवित्र है-''चिर अखंड अपनापा'' से उपजा है, क्योंकि अज्ञेय पश्चिमी अर्थ में कलाकार या आर्टिस्ट नहीं हैं। कला के प्रति समर्पित 'असाध्य वीणा' के प्रियंवद की तरह शिष्य-साधक हैं। वस्तुत: प्रियंवद ही अज्ञेय हैं और अज्ञेय ही प्रियंवद के रूप में आधुनिक सर्जनात्मकता की असाध्य वीणा को बजाने वाला साधक है, सन्त है, भक्त है, ऋषि है, कवि है। 'असाध्य वीणा' का यदि कोई सत्य है तो यही कि वह हमें 'स्मृति' में लौटाती है, उस स्मृति में जहाँ हम देश और काल का अतिक्रमण करते हैं। कला का यह कालानुभव बहुवचन का अर्थ लिये है।

आधुनिक सभ्यता के संकट का साक्षात्कार अज्ञेय ने प्रसाद से अलग तरह से किया है। इसलिए दोनों के यथार्थ का अनुभव अलग है। 'कामायनी' में ''समरस थे जड़ या चेतन'' के साथ ''आनन्द अखंड घना था'' की रसानुभूति प्रबल है तो अज्ञेय में ''नर जिसकी अनझिप आँखों में नारायण की व्यथा भरी है'' का करुणा-भाव-विस्तार। अज्ञेय ने प्रसाद को काव्य-पाठकों के काम का रचनाकार स्वीकार नहीं किया। 'भवंती' में लिखा है ''चिन्तन प्रसाद ने अधिक किया है। काव्य निराला का श्रेष्ठ है। शब्द का ज्ञान पन्त का सबसे सूक्ष्म है। प्रसाद पढ़ाए जाएँगे। पन्त से सीखा जाएगा। निराला पढ़े जाएँगे।'' इस कथन से यह ध्वनि साफ है कि प्रसाद 'एकेडेमिक पोयट' हैं, पाठ्य-पुस्तकों के विश्वविद्यालयी कवि हैं और उनका विचारपरक दार्शनिक काव्य निराला से कमतर है। आज यह बात 'भाष्य' चाहती है कि अपने प्रिय कवि प्रसाद पर अज्ञेय ने इतनी कठोर टिप्पणी क्यों की? क्या प्रसाद की दार्शनिकता से उनका कवि-मन बोझ अनुभव करता रहा और वे अनुभूति को दर्शन में घुलाने की राह निकालते रहे? यहाँ फिर विजयदेवनारायण साही की एक टीप देना चाहूँगा : ''अज्ञेय प्रसाद को कवि नहीं मानते, या केवल विश्वविद्यालयों का कवि मानते हैं। मुझे इस पर सदा आश्चर्य हुआ है, यद्यपि इसका कारण मैं समझ सकता हूँ। शायद उनकी निगाह वैपरीत्य पर अधिक पड़ती है, साधम्र्य पर कम। उससे अधिक आश्चर्य प्रसाद के कुछ कठिन प्रशंसकों पर हुआ है जो प्रसाद की परम्परा की अभिलाषा तो रखते हैं, लेकिन उस परम्परा को तीसरे दशक की मनोभूमि में फलित होता देखते हैं। बेशक परम्परा का अर्थ हम केवल पुनरावृत्ति लें, तो बात दूसरी है। लेकिन यदि परम्परा हमेशा परिवर्तन और वैपरीत्य की दिशाओं में फूटती चलती है तो अज्ञेय आगे के इतिहासकार को, प्रसाद की ही परम्परा में दिखाई देंगे।'' (छठा दशक, लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस, पृ. 321) दरअसल, हिन्दी पाठक के मन में परम्परा का एक रूढ़ और भ्रामक अर्थ पैठ गया है। इस रूढिग़त अर्थ ने हमारी समझ का ऐसा विनाश किया है कि विकासमान या द्वन्द्वात्मक अर्थ में हम परम्परा की कल्पना ही नहीं कर पाते और यह गणित नहीं समझ पाते कि 'कामायनी' में जो अनुभूति दर्शन में परिवर्तित हो जाती है उसे अज्ञेय फिर दर्शन से अनुभूति में परिवर्तित करते हैं। कविता सम्बन्धी हमारी धारणाओं में अज्ञेय के इस कार्य से एक युगान्तरकारी परिवर्तन उपस्थित हो जाता है। हम पाते हैं कि कविता को इस परिवर्तन से जोडऩे वाली कड़ी 'आस्था' नहीं 'यथार्थ' है। अज्ञेय अपनी अनुभूति के तनाव को भीतर ही भीतर झेलकर आलोक उत्पन्न करते हैं और हम पाते हैं कि 'मौन भी अभिव्यंजना है।' शब्द का अर्थ-गर्भ मौन नव्य रहस्यवाद नहीं है क्योंकि अज्ञेय ईश्वर की जगह मानव को प्रतिष्ठित कर देते हैं, भीड़ में उस मानव से आँखें मिल जाती हैं। इसलिए रहस्य रहस्य नहीं रहता, पूरा अनुभव वस्तुगत यथार्थ हो जाता है।

अज्ञेय का रचना-कर्म वाचिक परम्परा से शक्ति ग्रहण करता हुआ भी उससे अलग राह पकड़ता है-'राही नहीं, राहों के अन्वेषी' बनकर, कठिन होते कवि-कर्म और जटिल होती संवेदना को सहज सम्पे्रषणीय बनाने के लिए। अज्ञेय के रचना-कर्म में 'नयी व्यंजना का सोता' फूट-फट पड़ता है। कवि केवल भावनाओं को नहीं सींचता, भाव-मिश्रित जीवन-विचारों की अग्नि को दहकाता है, उस अग्नि-कुंड में स्वयं समिधा बन जाता है, बिना मरे अपनी मुक्ति नहीं पाता। इसलिए उसके रचना-संसार की 'शिवेतरक्षतये' दृष्टि में अन्तर्भूत करुणा जीवन को 'अनुभव की भट्ïठी में गले हुए सच' का साक्षात्कार कराती है। यह वह बिन्दु है जहाँ से अज्ञेय के कवि-कर्म की चिन्ताएँ और प्रश्नाकुलताएँ नया स्वास्थ्य ग्रहण करते हुए पूर्ववर्ती कवियों से 'भिन्न' हो जाती हैं। 'आत्म-बलिदान' को 'आत्मदान' की विस्तृत भावभूमि प्राप्त होने का अर्थ हो जाता है-'लोकमंगल की भावभूमि' का विस्तार। अज्ञेय के भीतर का दाता अपने 'मौन' को 'प्यार' में विलय कर देता है और दाता अपने प्राप्त धैर्य से जीवन की धज्जियाँ उड़ाता है। जीवन की धज्जियाँ उड़ाता कवि अपनी जातीय अस्मिता को नयी पहचान देता है, रहस्यवादी बनकर आध्यात्मिकता का शरणार्थी नहीं बनता। वह अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को न तो अस्तित्ववाद में घुलाता है, न क्षणवाद में। वह हर तरह के संकट को ठेलकर जीवन की जिजीविषा को खोजता-पाता-अपनाता है। इसलिए अज्ञेय की काव्यानुभूति में अलगाववादी-मानववादी छलनाएँ नहीं हैं। वह उजली भारतीयता में श्रमरत-कर्मरत मानव है जो त्रासजनित विवेक को पावनताजनित विवेक में बदलकर दम लेता है।

अज्ञेय के कवि-कर्म में काल-चिन्तन की 'अपूर्व' व्याख्या है, पुनव्र्याख्या है। पहले 'आलवाल' के निबन्धों में काल-चिन्तन की कवि मानसिकता निर्मित हुई। इसी मानसिकता का विस्फोट 'संवत्सर' में नये आयामों के साथ हुआ। अज्ञेय ने माना कि धुनी लोगों का काल-बोध विशिष्ट प्रकार का होता है। काल-बोध काल के साथ उतना नहीं बँधा होता जितना 'बोध' के साथ। प्रश्न उठता है 'कालगति' क्या है? 'गति' है तो उसकी 'दिशा' होगी। ''काल की नदी दिग्विहीन बहती है'' अर्थात् काल एक गतिमय प्रवाह है, धारा है। इसीलिए उसे नदी की उपमा देना उचित ही है। रवीन्द्रनाथ 'काल के महाप्रांगण' की बात कहते थे। विदेशियों के लिए भी काल नहीं, काल-धारा का उपमान 'रिवर ऑफ टाइम, स्ट्रीम ऑफ कांशसनेस।' सच बात तो यह है कि उपमामूलक रूपकाश्रित चिन्तन मानव को भाषा के जाल में फँसाता है। जबकि अनुभव निरन्तर 'बोध' को जीवन्त करता है, स्मृति से जुड़ जाता है-स्मृति में संचित कालातीत आयाम। ''हमारा अनुभव हमें अनुक्षण बताता रहता है कि अपनी गत्वरता में भी काल सम-गति कभी नहीं होता-उसकी गति केंचुए की तरह कभी लम्बी होती और कभी सिकुड़ती रहती है।'' (संवत्सर, पृ. 14) काल-गति की केंचुए से उपमा पाकर क्या हम टामस मान की ओर नहीं बढ़ जाते? उनका 'काल प्रपात', 'काल निर्झर', 'काल नदी' का दर्शन ध्यान में नहीं आताï? और तो और हम जेम्स ज्वाइस को भी नहीं भूलते, जिसके विचार में यह निहित है कि धारा में भँवर पड़ सकते हैं, धारा विपरीत धारा में बह सकती है। यह विचार इतना बढ़ा कि उसमें चेतना की धारा (फ्रायड), अवचेतन की धारा तथा 'आइलैंड ऑफ टाइम, आइलैंड्ïस इन द स्ट्रीम' आदि जुड़ते गये। अज्ञेय को याद आया इबान बूनिन का उपन्यास 'द वेल ऑफ डेज'-'दिनों का कुआँ'। कैसे ठहर जाता है नदी का जल, ठहर कर कुएँ में निथुर जाता है। फ्रायड मानते थे कि अवचेतन का क्षेत्र कालधर्म से परे है, यानी अवचेतन में संचित स्मृतियाँ कालातीत हो जाती हैं। सिद्ध रचनाकार वही है जो 'काल निचोड़ के अमृत पिए'। योगी की तरह 'जल स्तम्भन' की सिद्धि प्राप्त करे। फिर ''हर कविता एक स्फटिक समाधि होती है, क्योंकि एक नश्वर अनुभूति को एक पारदर्शी मंजूषा में सुरक्षित कर अमर कर देती है। नदी का नाम 'सरस्वती' का क्या सन्दर्भ? क्या साहित्य-देवता वाक् सचमुच में सरस्वती नहीं है जो एक साथ ही सरोवरों को भी, स्रोतों को भी हमारी चेतना में रूपायित करती हैं, वह 'कल्याणी वाक्' क्या हमारे ज्ञान-नेत्र नहीं खोलता?''

अज्ञेय का एक प्रसिद्ध निबन्ध है-'काल का डमरु नाद'। यह निबन्ध अज्ञेय के काल-चिन्तन (परम्परा-आधुनिकता के द्वन्द्व) की सर्जनात्मकता के शिखर-स्पर्श का प्रमाण देता है। काल हमें देवों के निकट, दिव्यता-पावनता 'कैथार्सिस' की ओर ले जाता है। इस 'ले जाने' में प्रतीक मदद करते हैं, फिर प्रतीक एकार्थी नहीं, अनेकार्थी होते हैं। प्रतीक, रूपक नहीं होते। उसमें एक अर्थ दूसरे अर्थ के बदले नहीं आता। प्रतीक में अनेकार्थी चमक जितनी ज्यादा हो प्रतीक उतना ही बड़ा अर्थ देता है। मिथक की भाँति प्रतीक में स्वयंसिद्ध, स्वयंप्रकाश व्यवस्था होनी चाहिए। ''प्रतीक अपने में एक स्वत: प्रमाण दुनिया है।'' भारत के आवर्ती काल का चिन्तन पश्चिम वालों के पल्ले नहीं पड़ता। लेकिन यह सच है कि प्राचीन संस्कृतियों में आवर्तन और पुनरारम्भ के मिथक पाए जाते हैं। अज्ञेय भारतीय संस्कृति की आदिमता में से खगालकर उदाहरण लाते हैं-विवाह में प्रयुक्त जड़ाऊ छल्ला या 'इटर्निटी रिंग' में काल की अनन्तता उसके आवर्तन को मानकर ही तो चलती है। आवर्तीकाल अर्थात् निरन्तरता या सातत्य। निरन्तरता का प्रतीक 'काल सर्प' अपनी पूँछ को निगलता सर्प हर अन्त का एक नया आरम्भ है। कालचक्र ही अमरत्व का चक्र है। निरन्तरता, अमरत्व, सातत्य का मूल है-'वृत्त'। काल की चक्र-गति। काल की वृत्ताकार गति। मदारी के हाथ में डमरू देखकर ध्यान नहीं जाता कि वह कितना गहरा प्रतीक है। नटराज के हाथ का सार्थक प्रतीक-काल-प्रतीक। काल डमरू। डमरू-नाद ब्रह्मï-नाद का प्रतीक है। काल-प्रतीक के रूप में डमरु की कटि वर्तमान-वर्तमान का क्षण-दोनों ओर के शंकु अतीत और भविष्यत। ''कालजीवी हम सदैव वर्तमान के बिन्दु पर स्थित रहते हैं : अस्ति उसी स्थिति का नाम है या हो सकता है। जब-जब डमरु की जीभ इस या उस ताँत पर-अतीत या भविष्यत्ï पर-आघात करती है तब-तब हमें काल का 'स्रोत' के रूप में बोध होता है। काल-चेतना अनु- या प्रति-गति की चेतना है-भविष्य की ओर गति या अतीत से परे गति है : स्मृति है अथवा प्रतीक्षा है।'' भारतीय काल गणना में चतुर्युग की आवृत्ति-चक्रावर्तन-कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग। काल-गणना हम आवर्तन के आरम्भ बिन्दु से नहीं करते, वर्तमान से करते हैं, डमरु की कटि से करते हैं-वर्तमान के क्षण से करते हैं। त्रिकोणमिति में भी यही अर्थ-सन्दर्भ है। पश्चिम के कवि एलियट और येट्ïस ने भारतीय साहित्य-दर्शन को समर्पित होकर समझा था। नतीजा यह हुआ कि येट्ïस में शंकु 'निरन्तर सिमटते हुए वृत्त' बनाते थे शून्य के वृत्त से सनातन आवर्तन का सिद्धान्त। जीरो टाइम हमारे काल-डमरु का कटि-बिन्दु वर्तमान का क्षण। भारतीय साहित्य पर इस 'काल डमरु' का गहरा असर है। समकालीन साहित्य में जब मिथक का प्रयोग होता है तब अवश्य उसमें भारतीय आख्यान साहित्य मूलत: आवर्ती रहा है। आवर्ती कथा ही विश्व के आख्यान साहित्य को भारत की विशिष्ट देन है। बल्कि संसार में प्रचलित प्राय: सभी आवर्ती कथाओं के प्रारूप अथवा मूल अभिप्रायों का उत्स भारत ही रहा है। ईसप के दृष्टान्त, अलिफ लैला, डेकामेरॉन सभी के प्रारूप भारतीय हैं। इसके विपरीत, पश्चिम की काल परिकल्पना मूलत: ऋतु रेखानुसारी है, अर्थात् शार्ट स्टोरी में। कथासरित्सागर, पंचतन्त्र, हितोपदेश में भी कथाओं की काल-गति आवर्ती है-कथा के वृत्त के भीतर वृत्त-कथा वहीं लौटकर आती है जहाँ से आरम्भ हुई। अन्त में आरम्भ और आरम्भ में अन्त-आवर्ती काल-चिन्तन का ही कमाल है।

भारतीय उपन्यास पश्चिमी प्रभाव से रेखानुसारी काल में चलता है। यह पूर्व-पश्चिम संवाद की आधुनिकता है लेकिन भारतीय परम्परा के संस्कार उसमें काल-चक्र की गति का प्रमाण देते हैं-अवचेतन की संचित स्मृतियों का उत्कर्ष, परम्परा की नित्यता या सातत्य या स्मृति, रचना में काल की बृहत्तर चक्राकार गति, काल-वृत्त का रचनात्मक विस्तार। आधुनिकता की अवधारणा में मूल्य-बोध के साथ काल-बोध समाहित है, तभी तो काल में मानव की सार्थकता और विकास की दिशा का संकेत है। भारतीय संस्कृति में समाया मृत्यु-बोध-काल-चिन्तन का प्रारूप अज्ञेय की एक कविता में आता है-''साँस का पुतला हूँ मैं : / जरा से बँधा हूँ और / मरण को दे दिया गया हूँ।'' मृत्यु से जीवन और जीवन से मृत्यु-है न वृत्त, आवर्ती काल का भारतीय चिन्तन। इसलिए जो लोग अज्ञेय के चिन्तन को विदेशी नकल कह रहे हैं उन्हें समझना होगा कि अज्ञेय भारतीय परम्पराओं की दार्शनिक गहराइयों से उपजा रचनाकार है।

विज्ञान के विद्यार्थी अज्ञेय की तर्क-पद्धति पर विज्ञान का प्रभाव है। यही प्रभाव कहता है कि ''मेरी समझ में साहित्य का दोहरा कर्म होता है। एक तरफ तो वह निरन्तर वर्तमान की सही और सटीक पहचान करता रहता है और दूसरी ओर वह गृहीता समाज को अर्थवत्ता के बृहत्तर सन्दर्भ से जोड़ता है।'' (संवत्सर, पृ. 18) क्या अज्ञेय अपने गृहीता समाज को अर्थवत्ता के बृहत्तर सन्दर्भ से नहीं जोड़ते रहे? क्या उन्हें भारतीय चिन्तन के स्रोतों, मूल जड़ों की तलाश नहीं रही? क्या उन्होंने भारतीय आख्यान परम्पराओं से जुडक़र मिथकीय स्रोतों की खोज नहीं की? पुरातात्त्विक पिता की तरह स्मृतियों के खंडहरों की खुदाई नहीं की? खुदाई शिविर में जनमे अज्ञेय निरन्तर 'चुप्पा' मौन, तपव्रती, खोजी रहे हैं। इसी खोज की दमखम से उन्होंने हिन्दी की 'असाध्य वीणा' को ''कलाकार हूँ नहीं शिष्य-साधक'' बनकर क्या नहीं बजाया? जीवन-जगत् के नये स्वर पैदा नहीं किये? हिन्दी की रचनाधर्मिता को पुन: सम्भव नहीं बनाया? ईमानदार पाठक का उत्तर होगा-बनाया-बनाया-बनाया। प्रसाद, निराला, पे्रमचन्द से उनके लेखक की 'भिन्नता' उनकी मौलिकता का ही नाम है।

अज्ञेय के चिन्तन को जापानी ध्यान-सम्प्रदाय या जेन साधना तक ले जाने पर प्राप्त होता है कि वे उससे भीतर तक भीगे हैं। तभी तो उनके लिए 'झरना' प्रपात की तेजस्विता है, पत्ता भी झरता है और वन झरना भी झरता है और उसका झरना ही अनन्त प्रक्रिया है। हरी डाल पर अटका झरता पत्ता-''झरना : झरता पत्ता / हरी डाल से / अटक गया।'' प्रकृति के साहचर्य में रहने वाले श्रमण की ध्यान-परम्परा का अर्थ-प्रकृति से जीवन की नश्वरता-क्षणभंगुरता का संकेत और सन्देश। फिर झरते पत्ते से सतत आवर्तन की स्मृति / जो बचता है वह मिटता है-आरण्यक प्रकृति का संकेत। लोक में कहा जाता है-जो फरा सो झरा। यह परम्परा है, स्मृति है। हम यहाँ ऋतु में न जीकर काल में जीने लगते हैं। जीवन की लय और गति का अर्थ 'कालमृगया' में बड़ा अर्थ-सन्दर्भ रखता है-अज्ञेय के लिए वन में उन्मुक्त चौकड़ी भरते हिरण से अधिक सुन्दर कल्पना और क्या हो सकती है-चौकड़ी भरते हिरण-जोड़ी चली फलाँगती के बिम्ब। इस प्रतीति को रूपायित करती कविता कला-सर्जक की समस्या भी है और समाधान भी। कविता या कला काल में घटी घटना है पर उसका यथार्थ कितना यथार्थ है। काल में घटित घटना का आन्तरिक सच? इतिहास घटित का वृत्तान्त है लेकिन काव्य सम्भव की सर्जना-सृष्टि। इस तरह ''साहित्य किसी एक काल में किसी एक जाति अथवा समाज की सम्पूर्ण संस्कृति की उपज होता है। उसके वर्तमान में संस्कृति का समूचा इतिहास निहित होता है।'' (वही, पृ. 49) काल-धारा के बीच निरन्तर एक वर्तमान कारण-कार्य प्रक्रिया ही काल का प्रवाह है-आर्थिक काल ने मानव को बिकाऊ माल बना दिया और औद्योगिक संसार ने मानव-श्रम को जिंस।

प्रश्न उठता है कि अज्ञेय के सम्पूर्ण रचना-कर्म का ध्वन्यर्थ क्या है? इसका एक सीधा-साफ उत्तर हो सकता है-अज्ञेय का स्वाधीन चिन्तन। स्वाधीन मनुष्य का स्वाधीनता-बोध या मानव का स्वातन्त्र्य-दर्शन। यह सोचकर आज हृदय भारी हो जाता है कि अज्ञेय का स्वाधीन-चिन्तन हिन्दी आलोचना में सर्वाधिक विवाद के केन्द्र में रहा। कौन नहीं जानता कि अपनी स्वाधीनता का बोध खोकर रचनाकार अपने रचना-कर्म से स्खलित हो जाता है। इसलिए रचना-कर्म के लिए स्वाधीनता-बोध बहुत बड़ी चीज है। किसी रचनाकार को किसी विचारधारा की गुलामी करते देख कहीं न कहीं गहराई में पीड़ा का अहसास होता है। लेखक गांधीवादी, लोहियावादी या मार्क्सवादी अथवा फ्रायडवादी कैसा भी हो, हम उसे अस्वीकार तो नहीं करते। लेकिन लेखक अपनी भीतरी संवेदना के विवेक से तपकर निकला हो और उसका ''राग-दीप्त सच'' मानव में पावनता-जनित विवेक को जाग्रत करता हो तो उसके प्रति पाठक का सम्मान-भाव ही और तरह का होता है। फिर हमारी औपनिवेशिक गुलामी भी तो पीछा नहीं छोड़ती। इसलिए अज्ञेय का स्वाधीन-विवेक हमारी गुलाम मानसिकता को ह जम नहीं होता। हजम होता तो वे अज्ञेय को 'अभिजात' व्यक्तिवादी कहकर नहीं कोसते। निर्मल वर्मा ने अज्ञेय की स्मृति में 'लेखक की स्वतन्त्रता और स्वधर्म' लेख में बड़ी पीड़ा के साथ लिखा है-''स्वाधीनता अपने में कोई मूल्य नहीं, इसलिए यह संयोग नहीं जान पड़ता कि आपातकाल के दौरान सत्ता के आगे घुटने टेकने में हिन्दी के 'प्रतिबद्ध' लेखक सबसे आगे थे, जबकि उससे कुछ समय पहले तक अज्ञेय जयप्रकाश जी की पत्रिका 'एव्री मेंस' का सम्पादन कर रहे थे। अगर पिछले अनेक वर्षों से सोवियत सत्ता द्वारा लेखकों पर पाबन्दी को हमारे माक्र्सवादी लेखक सही मानते आये थे, तो अपने देश में उसी तरह की तानाशाही को स्वीकार करने में भला क्या आपत्ति हो सकती है।'' हिन्दी के एक प्रतिबद्ध आलोचक तो यह कहने तक में भी नहीं चूके कि हिन्दी की आधुनिक कविता में अज्ञेय का वही स्थान है जो रीतिकालीन कविता में बिहारीलाल का है। क्या उनसे यह पूछने का मन नहीं करता कि 'केशव की कविताई' लेख लिख देने मात्र से क्या अज्ञेय की मानसिकता में 'रीतिवाद' समा जाता है। सामन्तवादी-रीतिवादी-कलावादी-रूपवादी परिवेश और मूल्य अज्ञेय के रचना-कर्म में हैं कहाँ? अज्ञेय जैसे विद्रोही सर्जक की स्वाधीनता का क्या यही हश्र होना है? आखिरकार अरविन्द, विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ और गांधी ने भी तो पश्चिमी-संस्कृति-सभ्यता में न जाने कितनी लम्बी अन्तर्यात्राएँ की थीं लेकिन वे वहाँ खो नहीं गये। उन अन्तर्यात्राओं के अनुभवों से उनकी आस्था भारतीय सभ्यता-संस्कृति-धर्म-दर्शन-साहित्य आदि में और परिपुष्ट हुई। क्या ऐसा अज्ञेय के साथ नहीं हुआ? निश्चित तौर पर हुआ। उनकी 'भारतीयता' और पुष्ट-पैनी हुई। किसी की कली बीनने वाला नया कवि अज्ञेय बाहर से लाकर बहुत कुछ देता रहा-तभी तो ''यों मैं कवि हूँ आधुनिक हूँ नया हूँ। काव्य-तत्त्व की तलाश में कहाँ नहीं गया हूँ।'' अज्ञेय जापान गये तो जेन-बौद्ध-दर्शन, साहित्य का मर्म लेकर लौटे और उसे 'अरी ओ करुणा प्रभामय' की कविताओं में हाइकु को कला के साथ पुनर्नवा रूप देकर परोस दिया। यूरोप का सारा माल एलियट के चिन्तन के साथ अज्ञेय ने हिन्दी कविता को दिया। न जाने कितनी नयी से नयी बहसों को रोलाबार्थ की तरह अज्ञेय ने शुरू किया। पहली बार हिन्दी में 'परम्परा', 'आधुनिकता', 'प्रगति' 'प्रयोग', 'संस्कृति', 'अनुभूति' आदि पर अवधारणा के रूप में विचार-बहस करने की शुरुआत अज्ञेय ने की। 'तारसप्तक' 1943 की 'भूमिका' ने भारतीय काव्यशास्त्र के बासीपन को चुनौती देकर नया रूप दिया, नया सोच दिया। हिन्दी में आजादी के बाद जितनी भी नयी बहसें साहित्य-चिन्तन को लेकर हुई हैं उनके मूल में कहीं न कहीं अज्ञेय रहे हैं। यह कहना गलत है कि चक्रान्तशिला के खोजी अज्ञेय ने हिन्दी चिन्तन को भ्रष्ट किया है। अज्ञेय ने साहित्य से जुड़े तमाम प्रश्नों को लेकर हिन्दी तथा भारतीय साहित्यकारों के बीच एक 'संवाद' शुरू किया। संवाद-सेतु बनाया। अज्ञेय के जाते ही यह 'संवाद' रुक गया है और संवादहीनता के दौर में हिन्दी रचनाकार सम्पर्कवाद की मृगतृष्णा का शिकार हो रहा है। भूलना न चाहिए कि अज्ञेय हिन्दी में आधुनिक संवेदना के पहले आधुनिक बौद्धिक रचनाकार हैं जिन्होंने अपने नये पाठकों-व्याख्याकारों, विमर्शकों से रचना-संवाद स्थापित किया है। सत्य को पाने के लिए तर्क और प्रश्न उठाये हैं तथा कलाकृति को समग्रता में समझने की राह सुझायी है। फलत: अज्ञेय का रचना-संघर्ष आज भी पाठक की प्रेरणा है और उनका यह सोचना कि 'स्वाधीन' हुए बिना स्वाधीन चिन्तन नहीं किया जा सकता-हमें गाँठ में बाँध लेने लायक लगता है। हमारी पीढ़ी के लिए आज अज्ञेय के स्वाधीन रचनाकार का बिम्ब बहुत कीमती और प्रेरणादायक है।

                                                                      - कृष्णदत्त पालीवाल

खंड : 1

अज्ञेय की सम्पूर्ण कविताएँ - 1

भूमिका

अपने अनेक पाठकों का यह आग्रह स्वीकार कर के भी कि 'अज्ञेय' के सम्पूर्ण काव्य का एक संग्रह उपलब्ध हो जाना चाहिए, वैसा संग्रह तैयार करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कुछ तो ऐसी कठिनाइयाँ हैं जो लम्बी अवधि की रचनाएँ संकलित करते समय किसी के भी सामने आतीं। कुछ कठिनाइयाँ मेरे साथ विशेष रहीं, जिन का कारण मेरी जीवन परिपाटी रही। साधारणतया मैं व्यवस्थित ढंग से रहता हूँ और अपने कागज-पत्र भी अन्य लेखकों की अपेक्षा अधिक व्यवस्थित ढंग से रखता रहा हूँ। लेकिन निरन्तर घूमते रहने या घर बदलने की आदत (और कभी लाचारी) के कारण इस व्यवस्था प्रेम की सहज सीमाएँ रही हैं। जिन कागजों, पत्रों, पांडुलिपियों और पुस्तकों के बीच काम करता आया हूँ, उन्हें यथासम्भव व्यवस्थित और सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता रहा हूँ। लेकिन इस के साथ ही, बल्कि इस के कारण ही, प्रत्येक स्थानान्तरण के समय यह प्रश्न उठता है कि उस में से कितना साथ रखा जा सकता है। पुस्तकें तो साहित्यप्रेमी मित्रों को या पुस्तकालयों को दे देना कठिन नहीं है, लेकिन पांडुलिपियों के साथ अपरिग्रह के आदर्श के अलावा और भी बहुत से प्रश्न जुड़ आते हैं। कुछ पांडुलिपियाँ मैं ने भारत कला भवन, काशी को दे दी थीं और कालान्तर में और कई पांडुलिपियाँ वहीं जाएँगी, ऐसा संकल्प है। पर कुछ पांडुलिपियाँ ऐसी भी थीं जिन की फिर आवश्यकता पडऩे की सम्भावना थी और जिन्हें सुरक्षित तो रखना चाहता था, लेकिन जिन्हें हर व क्त साथ रखना सम्भव नहीं था। इस समग्र काव्य संकलन 'सदानीरा', दो भागों में (1980) की तैयारी में पाया कि ऐसी बहुत-सी सामग्री सुरक्षित होने पर भी अब मेरी पहुँच से बाहर है और इस लिए इस संकलन के सम्पादन में कुछ ऐसी बाधाएँ आ गयीं जिन का उपाय मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ।

तथापि इस तरह के संकलन की मुख्य कठिनाइयाँ तो वे ही होती हैं जो ऐसे सभी संकलनों के लिए सामान्य होंगी। पचास वर्ष की अवधि छोटी नहीं होती। इतने लम्बे समय की रचनाओं पर विचार करते समय लेखक, सम्पादक, आलोचक - सभी के सामने कई तरह के प्रश्न आ सकते हैं। समीक्षक अथवा सम्पादक तो अन्ततोगत्वा ऐतिहासिकता के तर्क के आधार पर अपने लिए सुविधा का रास्ता निकाल सकता है, लेकिन जहाँ लेखक ही स्वयं सम्पादक हो, वहाँ ऐतिहासिकता के तर्क को पूरा व जन देने के बाद भी मूल्यांकन की जिम्मेदारी का प्रश्न बना रहता है। पुरानी रचनाओं में से कितना छोड़ दिया जाए? जो रचनाएँ अब कोई महत्त्व रखती नहीं जान पड़तीं, उन्हें संकलित करना क्यों आवश्यक है? कभी वे लिखी गयी थीं, छपाई भी गयी थीं, इस के उत्तरदायित्व को अस्वीकार किये बिना भी क्या लेखक को यह सोचने का अधिकार है या नहीं कि ये रचनाएँ आज भी पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करने योग्य हैं अथवा नहीं? मैं ने जब भी जो भी छपने के लिए दिया है, कम से कम उस समय तो उसे इस योग्य मान कर ही दिया है। जिन रचनाओं के बारे में उस समय थोड़ा भी सन्देह या दुविधा रही, उन्हें मैं ने रोक लिया - पहले या पुस्तकाकार के पहले प्रकाशन के समय (क्योंकि कुछ रचनाएँ पहली बार पत्र-पत्रिका में छपीं और फिर पुस्तकाकार संगृहीत हुईं)। जो विवेक और उत्तरदायित्व अपेक्षित था, वह क्या परवर्ती काल में अनावश्यक हो जाता है? लेकिन दूसरी ओर जो रचनाएँ अलग-अलग पुस्तकों में वर्षों तक उपलब्ध रहीं, जो अब भी उपलब्ध हैं अथवा हो सकती हैं, जिन के आधार पर पाठक समाज ने कवि के विषय में अपनी धारणाएँ बनायीं (और जो धारणाएँ स्वयं कवि की अपने बारे में धारणा से भिन्न भी हो सकती हैं), उन्हें रोक लेने का कवि का क्या अधिकार है? अथवा कुछ अधिकार है भी तो कहाँ तक? समग्र संकलन में क्या एक हद तक यह अनिवार्य ही नहीं मानना चाहिए कि सम्पादक अपने आग्रह अथवा मूल्यबोध को अलग रख कर पूरी सामग्री पाठकों के सामने रख दे जिस के आधार पर वे मूल्यांकन करने को स्वतन्त्र हों? बल्कि समग्र संकलनों के पक्ष में एक मुख्य तर्क तो यही होता है कि कवि के व्यक्तित्व को यथासम्भव अलग रखते हुए उस के समूचे कृतित्व को देखा जा सके। नि:सन्देह विकास होता है, प्रौढ़ता और परिपक्वता आती है, और अगर यह प्रक्रिया होती है तो अवश्य ही रचना क्रम में कुछ ऐसा भी होगा अध-पका या कच्चा रहा हो, और कुछ ऐसा भी होगा जो पक कर उतरने लगा हो ऐसी प्रक्रिया निरपवाद है, उसमें व्यक्तिगत रुचि और मूल्यांकन के लिए गुंजाइश कहाँ है या क्यों मानी जाए? सम्पादक अन्य व्यक्ति न हो कर स्वयं कवि ही है, तो भी क्या? ऐसा क्यों मान लिया जाए कि इस लिए उस को कुछ विशेष अधिकार मिल गये हैं जो दूसरे सम्पादक को न होते?

जो हो, समग्र काव्य संकलन के वे सब नियम और पद्धतियाँ मैं ने अपने लिए भी स्वीकार कर लीं जिन्हें मैं दूसरे कवियों का ऐसा संकलन तैयार करते समय सम्पादक के नाते अपने लिए अनिवार्य मानता। सदानीरा की दो जिल्दों में 'अज्ञेय' के सन् 1929 से 1980 तक के काव्य का समग्र संकलन प्रस्तुत किया गया है। सन् 1929 से पहले की भी कुछ रचनाएँ थीं अवश्य - और उन में से एक कविता यहाँ आ भी गयी है - लेकिन ये रचनाएँ (मेरे सौभाग्य से!) अप्रकाशित ही रहीं और इस लिए उन्हें 'कृतित्व' में शामिल न कर के 'अभ्यास' अथवा 'किशोरवास्था की रचनाएँ' मान लेने का अपना अधिकार मैं ने अक्षुण्ण समझा। सम्पादक मैं न हो कर कोई दूसरा व्यक्ति होता, तो उस से भी यही अपेक्षा रखता-उस के अधिकार के नाते नहीं, बल्कि कर्तव्य के नाते। ऐसी रचनाओं का भी एक ऐतिहासिक महत्त्व हो सकता होगा, लेकिन उस का निर्णय दूसरों के ही द्वारा होता है, और कवि के न रहने के बाद ही होता है। अपनी शिक्षा-दीक्षा के कारण मैं यह भी मान लेता हूँ कि ऐसे काम के लिए जो पांडुलिपियाँ अथवा दस्तावे ज उपयोगी हो सकते हैं वे कहीं रहें, सुरक्षित रहने चाहिए।

संकलन की परिधि के विचार के बाद दूसरा सामान्य प्रश्न अनुक्रम का होता है। काव्य संग्रह का प्रभाव अच्छा पड़े, ऐसा मोह कवि को होना स्वाभाविक है। उस अच्छे प्रभाव के लए यह भी सोचा जा सकता है कि आरम्भ में कुछ अच्छी कविताएँ दी जाएँ। लेकिन यदि ऐसा किया भी जाए तो फिर अनुक्रम का निर्णय कैसे होगा? यही क्यों न मान लिया जाए कि ऐसे समग्र संग्रह की ओर आकृष्ट होने वाला पाठक, कवि के बारे में बहुत कुछ पहले ही जानता होगा, उस के महत्त्व और गुण-दोष के बारे में पहले से ही धारणा बना चुका होगा और उसकी कम से कम कुछ अच्छी रचनाओं से जरूर परिचित होगा? इस लिए एक समग्र संग्रह के द्वारा उसे आरम्भ से प्रभावित करने का प्रयत्न क्यों न अनावश्यक मान कर छोड़ ही दिया जाए? सदानीरा में वैसा ही मैं ने किया है। इस की कविताएँ रचना-क्रम से ही रखी गयी हैं और जहाँ तक सम्भव हुआ है, रचना की तारीख और स्थान भी रचना के अन्त में दे दिया गया है। जहाँ सही तारीख की कोई टीप पुरानी पांडुलिपि अथवा मूल लिपि में भी नहीं मिली, वहाँ महीना अथवा वर्ष दे देने का प्रयत्न तो किया ही गया है।

इस साधारण व्यवस्था में दो तरह के अपवाद हैं। कुछ रचनाओं की पांडुलिपि अथवा मूल लिपि, जैसा मैं ने ऊपर कहा, मेरी पहुँच से बाहर हो गयी हैं। ऐसी रचनाओं की तिथि आदि का पूरा ब्यौरा देना मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ। उस के बारे में निकटतम अनुमान अथवा दो एक वर्ष की सीमा के भीतर की अवधि का ही संकेत मैं ने दिया है। सम्भव है कि भविष्य में मुझे या किसी दूसरे व्यक्ति को इस बारे में जानकारी उपलब्ध हो सके या मूल हस्तलिपि देखने का सुयोग मिल सके - तब इस अधूरे काम को पूरा किया जा सकेगा।

इसी क्षेत्र की एक कठिनाई और थी। सदानीरा में यद्यपि 1929 से रचनाएँ संकलित की गयीं (1928 के एक अपवाद को छोड़ कर) तथापि शुरू से ही सब को कालक्रम में रखने में एक बाधा थी। कुछ रचनाएँ प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह भग्नदूत में आयीं। इस की रचनाएँ मुख्यतया 1931-32 की थीं, यद्यपि दो चार 1929-30 की अथवा 1933 की भी इस में सम्मिलित की गयी थीं। दूसरी ओर लगभग इसी काल की कई रचनाएँ एक दूसरी पुस्तक में भी सम्मिलित थीं जो कि फुटकर कविताओं का संग्रह न हो कर एक ऐसी शृंखला थी जिस में एक कथा भी निहित थी - जिसे इस लिए लगभग खंडकाव्य माना जा सकता है। बल्कि इस पुस्तक में भी दो शृंखलाएँ थीं - अर्थात् दो खंडकाव्य थे। पूरी पुस्तक चिन्ता नाम से प्रकाशित हुई थी और इस के दो भाग क्रमश: विश्वप्रिया और एकायन थे। प्रश्न यह उठता था कि भग्नदूत, विश्वप्रिया और एकायन की सभी रचनाओं को फुटकर रचनाएँ मान कर क्या सब को काल के अनुक्रम में रख दिया जाए? वैसा करने पर खंडकाव्य का कथासूत्र बिलकुल विशृंखलित हो जाता। अवश्य ही शृंखला की कविताएँ अलग भी अपना अस्तित्व रखतीं, और शृंखला तोड़ देने पर मुझे एक सुविधा यह भी हो जाती कि गद्यांश (कृपालु पाठक कह लें कि गद्य-काव्य वाला अंश) मैं निकाल भी ले सकता। लेकिन का फी विमर्श के बाद मैं इसी परिणाम पर पहुँचा कि चिन्ता के निहित कथासूत्रों को विशृंखलित नहीं करना चाहिए। उसकी अलग अलग कविताओं की भी रचना तिथि और रचना-स्थान यथासम्भव दे दिया गया है। लेकिन उन कविताओं का क्रम बदलकर उन्हें कड़े कालक्रम से नहीं रखा गया है। शृंखला में वे जिस क्रम में हैं उस की एक सार्थकता है जो पाठक के सामने आनी चाहिए। जिन पाठकों या अध्येताओं को इन कविताओं को भी काल क्रम से देखना आवश्यक जान पड़ेगा, उनकी सुविधा के लिए तत्सम्बन्धी जानकारी कविताओं के साथ दे दी गयी है। पाठक लक्ष्य करेंगे कि एकायन के सम्बन्ध में यह जानकारी अधूरी है। उसकी पांडुलिपि या मूल लिपि मुझे नहीं मिल सकी। इतना ही कह सकता हूँ कि उसकी रचनाएँ मुख्यतया 1934-36 की हैं। कुछ कविताएँ 1939 तक ही भी होंगी, प्रकाशन के समय पहली शृंखला की कुछ कविताएँ हटा कर दूसरी रख दी गयी थीं।

इन खंडकाव्यों का अभ्यन्तर क्रम न बदलने का निश्चय कर लेने के बाद भी यह प्रश्न बना रहा कि क्रम में इन्हें कहाँ रखा जाए। जो विकल्प थे, उनमें से प्रत्येक पर आपत्ति हो सकती थी। मैं ने यही ठीक समझा कि एक ही अवधि की रचनाओं में फुटकर रचनाओं को पहले न रख कर चिन्ता के संकलन को ही पहले रख दिया जाए। इसी लिए प्रस्तुत संकलन में पहला खंड चिन्ता है और दूसरे खंड से फुटकर रचनाएँ आरम्भ होती हैं, यद्यपि उनमें कुछ का रचनाकाल चिन्ता की रचनाओं से पहले का भी है। ऐसा न करता, तो प्रस्तुत दूसरे खंड का भी फिर विभाजन करना पड़ता। उस में भग्नदूत की कविताएँ पहले रख कर चिन्ता की कविताएँ बाद में देनी होतीं, बल्कि चिन्ता के भी दो खंड करने होते - विश्वप्रिया वाले अंश की कविताएँ पहले दे कर इत्यलम् की कविताओं में से कुछ पहले और एकायन की कविताएँ उसके बाद देनी पड़तीं। इतने अधिक विखंडन से कोई विशेष लाभ न होता, और वैसा विखंडन न करने से कोई हानि नहीं हुई, क्योंकि कविताओं की रचना तिथि तो दे ही दी गयी है।

मेरा पिछला कविता संग्रह नदी की बाँक पर छाया 1981 में छपा था। उसके बाद की भी कुछ रचनाएँ - जो अभी किसी संग्रह में नहीं आयी हैं-सदानीरा में जोड़ दी गयी हैं। लेकिन इस की चर्चा तो सदानीरा के दूसरे भाग में करना उचित होगा।

पाठकों की सुविधा के लिए प्रत्येक भाग में संगृहीत कविताओं की शीर्षक सूची और प्रथम पंक्तियों की अनुक्रमणिका परिशिष्ट के रूप में दे दी गयी है। शीर्षकों के साथ यह भी संकेत दे दिया गया है कि कविता किस स्वतन्त्र संग्रह में प्रकाशित हुई। यह आनुषंगिक सामग्री तैयार करने में जिन प्रियजनों का सहयोग मिला उन का आभारी हूँ।

प्रकाशकों का भी आभार मानता हूँ कि कागज के अधुनातन संकट में वे इतना बड़ा उद्यम कर रहे हैं।

                                                                                         -'अज्ञेय'

('सदानीरा' से)


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हिंदी समय में अज्ञेय की रचनाएँ



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