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रचनावली

अज्ञेय रचनावली
खंड : 2
संपूर्ण कविताएँ - 2

अज्ञेय

संपादन - कृष्णदत्त पालीवाल

अनुक्रम

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अज्ञेय रचनावली

खंड : 2

सम्पादक-मंडल

(स्व.) डॉ. कन्हैयालाल नन्दन
प्रो. रमेशचन्द्र शाह
प्रो. नन्दकिशोर आचार्य

 

              सम्पादक
             कृष्णदत्त पालीवाल

 

 

 

निवेदन

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय के समग्र साहित्य को एकसूत्र में अनुस्यूत करके हिन्दी के पाठक-समाज को अर्पित करते हुए अत्यधिक हर्ष का अनुभव हो रहा है। अज्ञेय ने नये सृजन और चिन्तन कर्म को आधुनिक हिन्दी-साहित्य में पुनःसम्भव बनाया। वे साहित्य की सभी विधाओं में लगभग साठ वर्षों तक साहित्य-साधना में निरन्तर समर्पित रहे। (वह हिन्दी-भाषियों के साथ अहिन्दी भाषियों के सर्वाधिक प्रिय रचनाकार हैं।) आज का प्रबुद्ध पाठक उनके सृजन-चिन्तन के प्रति एक विशेष प्रकार के गहरे लगाव का अनुभव करता रहा है। ‘अज्ञेय रचनावली’ की प्रकाशन-योजना पाठक के उसी गहरे लगाव को पूरा करने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयत्न है।

अज्ञेय की साहित्य-यात्रा निरन्तर उत्कर्ष की ओर जानेवाली गरिमामय यात्रा का इतिहास सामने लाती है। सच बात तो यह है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद के भारतीय साहित्य को वे दूर तक प्रेरित-प्रभावित करते रहे हैं। वह विद्रोही स्वभाव के रचनाकार हैं और भाषा, साहित्य, संस्कृति के सम्बन्ध में पारम्परिक अवधारणाओं का मूर्तिभंजन उनकी रचना-प्रकृति का अंग है। बहुधा उनका सृजन और चिन्तन रचना-कर्म के श्रेष्ठतम शिखरों का स्पर्श करता है। उनका प्रदेय अनेक अर्थों में एक क्रान्तिकारी देशभक्त, अलीकी चिन्तक, प्रयोग और प्रगति के प्रति आस्थावान, नयी राहों के अन्वेषी होने के कारण विशिष्ट और बहुवचनात्मक है। उनके सृजन और चिन्तन में ‘उड़ चल हारिल’ के अपराजेय संकल्प के साथ अपने को ‘आहुति बनाकर’ देखने और रचने का साहस है। वह मानवीय व्यक्तित्व की स्वाधीनता के लिए, स्वाधीन चिन्तन के लिए जीन-भर संघर्ष करते रहे। ऐसे संघर्षशील रचनाकार सच्चे अर्थों में समाज, संस्कृति के निर्माता होते हैं। अज्ञेय के स्वाधीनता-प्रेम को एक ऐसा गौरव-बोध अनुप्राणित किये था-जो दृष्टि को व्यापक और उदार बनाता था, जिसके लिए स्वाधीनता केवल राजनीतिक सीमा में बँधी नहीं थी बल्कि जिसके सांस्कृतिक आयाम इतने व्यापक थे कि उसमें इतिहास और कला, पत्रकारिता और सम्पादन, दर्शन और साहित्य सब समा जाते थे। न उनका व्यक्तित्व खंडित था-न चिन्तन। वे भारत के स्वाधीनता-कामी समाज की मानो सजीव स्मृति थे। प्राचीन परिभाषा में सच्चे ज्ञानवान व्यक्ति को ‘बहुपठित’ नहीं, ‘बहुश्रुत’ ही कहते थे। ‘बहुश्रुत’ कैसा हो सकता है इसके अज्ञेय जी अद्भुत उदाहरण थे।

अज्ञेय उन इने-गिने भारतीय रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने बीसवीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्परा, भारतीय आधुनिकता के साथ साहित्य-कला-संस्कृति, भाषा की बुनियादी समस्याओं, चिन्ताओं, प्रश्नाकुलताओं से प्रबुद्ध पाठकों का साक्षात्कार कराया है। व्यक्तित्व की खोज, अस्मिता की तलाश, प्रयोग-प्रगति, परम्परा-आधुनिकता, बौद्धिकता, आत्म-सजगता, कवि-कर्म में जटिल संवेदना की चुनौती, रागात्मक सम्बन्धों में बदलाव की चेतना, रूढ़ि और मौलिकता, आधुनिक संवेदन और सम्प्रेषण की समस्या, रचनाकार का दायित्व, नयी राहों की खोज, पश्चिम से खुला संवाद, औपनिवेशिक आधुनिकता के स्थान पर देशी आधुनिकता का आग्रह, नवीन कथ्य और भाषा-शिल्प की गहन चेतना, संस्कृति और सर्जनात्मकता आदि तमाम सरोकारों को अज्ञेय किसी न किसी स्तर पर रचना-कर्म के केन्द्र में लाते रहे हैं। उन्होंने नयी रचना-स्थिति की चुनौतियों पर अनेक कोणों से विचार किया है।

आधुनिक हिन्दी साहित्य के उत्तर-छायावाद या छायावादोत्तर काल में शायद ही कोई रचनाकार अज्ञेय जैसा ‘विद्रोही स्वभाव’ लेकर सामने आया है। भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन में भागीदारी करने के कारण वे जेल गये, यातनाएँ झेलीं। लेकिन स्वाधीनता, निर्भयता का दामन कभी नहीं छोड़ा। अपनी संस्कृति, परम्परा की ओर मुड़ने की अपनी जड़ों की तलाश की ललक रहने का परिणाम यह हुआ कि समय-समाज-इतिहास द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों के बीच ‘नयी राहों का अन्वेषण’ अस्वीकार के साहस से सम्भव बना सके। भारतीय आधुनिकता, बौद्धिकता के नवअंकुरण-‘राही नहीं, नई राहों के अन्वेषण’ की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति हमें अज्ञेय और उनकी समवर्ती पीढ़ी के सृजन-चिन्तन में होती दिखाई देती है-इस पीढ़ी के रचना-कर्म में पाठक को वह पहचान स्पष्ट उभरती दिखाई देती हैं जिसे अज्ञेय जी ने ‘नयी रचना-स्थिति के तर्क का पूरी तरह स्वीकार’ कहा है। उन्होंने अपने सृजन-चिन्तन में इस परिस्थिति की सजग पड़ताल करने में पहल की और साहित्य की नयी चिन्ताओं, समस्याओं, चुनौतियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया। ‘सप्तकों’ की भूमिकाओं में नवीन साहित्य-प्रवृत्तियों की पैरवी करते हुए उन्होंने नवीन सैद्धान्तिक स्थापनाएँ कीं और हिन्दी में नवीन समीक्षा-शास्त्र की नींव डाली है। इन सैद्धान्तिक स्थापनाओं का नवीन साहित्यालोचन पर गहरा असर है। कवि-कर्म की प्रमुख समस्या ‘साधारणीकरण और सम्प्रेषण’ को मानने के बाद ‘दूसरा सप्तक’ के सम्पादकीय में उन्होंने साफतौर पर कहा-‘‘लेकिन जैसे-जैसे बाह्य वास्तकिता बदलती है वैसे-वैसे हमारे उससे रागात्मक सम्बन्ध जोड़ने की प्रणालियाँ भी बदलती हैं-और अगर नहीं बदलतीं तो उस बाह्य वास्तविकता से हमारा सम्बन्ध टूट जाता है। कहना होगा कि जो आलोचक इस परिवर्तन को नहीं समझ पा रहे हैं, वे उस वास्तविकता से टूट गये हैं जो आज की वास्तविकता है। उससे रागात्मक सम्बन्ध जोड़ने में असमर्थ वे उसे केवल बाह्य वास्तविकता मानते हैं, जबकि हम उससे वैसा सम्बन्ध स्थापित करके उसे आन्तरिक सत्य बना देते हैं।’’ दरअसल, परम्परागत मूल्यों को तोड़ने-छोड़ने के साथ उन्होंने ‘स्वाधीनता’, ‘व्यक्ति-स्वातन्त्र्य’ जैसे नये मूल्यों को स्थापित करने वाली ‘दृष्टि’ को विकसित किया है। अज्ञेय द्वारा सम्पादित चारों सप्तकों की भूमिकाओं ने हिन्दी चिन्तन के रूढ़िवाद, रीतिवाद, छायावादी भावुक संस्कारों पर आघात करते हुए नये बौद्धिक विवेक, वयस्क चिन्तन का प्रवर्तन किया है। अज्ञेय आधुनिक संवेदना से सम्पन्न बौद्धिक रुझानों के रचनाकार हैं और उनके लिए रचनाकर्म हृदय की मुक्तावस्था न होकर बुद्धि की मुक्तावस्था है। बुद्धि की मुक्तावस्था से अर्जित स्वाधीनता-बोध के कारण ही अज्ञेय हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक विवादास्पद रचनाकार रहे हैं।

अज्ञेय के रचनाकार ने ‘स्वाधीन मनुष्य’ और ‘स्वाधीन चिन्तन’ के लिए अपने आत्म-बोध, आत्मान्वेषण, आत्म-समर्पण और दायित्वपूर्ण सामाजिकता को एक विलक्षण संयम-सन्तुलन से साधा है। हिन्दी के आधुनिक साहित्य में भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, मुक्तिबोध जैसे बड़े लेखक हैं। लेकिन इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो अज्ञेय की तरह इतनी विधाओं में शीर्ष चक्रवर्तित्व स्थापित करता हो। अज्ञेय कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, संस्मरण, डायरी, यात्रावृत्त, अनुवाद, पत्रकारिता सभी में शिखर पर रहे हैं। नये लेखकों के संवर्द्धन में साहित्य की कोई भी दीवार टटोलिए उसमें अज्ञेय के हाथ की लगी ईंट मिल जाएगी। रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रमेशचन्द्र शाह, नन्दकिशोर आचार्य, मनोहरश्याम जोशी, कोई भी रचनाकार हो, उसमें अज्ञेय की प्रेरणा बाँसुरी की तरह बजती मिलेगी।

अज्ञेय को पुराने मठाधीशों, आचार्यों, विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकताओं के पाठकों-आलोचकों से निरन्तर विरोध झेलना पड़ा। इस अन्धी, विरोधी हिन्दी आलोचना से जुड़ा एक पीड़ादायक इतिहास है। कभी उन्हें टी.एस. एलियट और पश्चिम का नकली रचनाकार कहा गया, कभी ‘विदेशी दलाल’। हिन्दी में ‘विदेशी साहित्य का डाकिया’ और ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ का अमेरिकी प्रचारक। क्या-क्या नहीं कहा गया। लेकिन उन्होंने सब धैर्य एवं संयम से ‘चुप्पा’ बनकर झेला तथा विरोधों से शक्ति पायी है। ‘शेखर : एक जीवनी’ जैसे उपन्यास को लेकर कितना विरोध-बाबेला मचा। शील-अश्लील, नैतिकता-अनैतिकता के प्रश्न उठाकर अज्ञेय का सामाजिक बहिष्कार किया गया तथा जगह-जगह ‘शेखर : एक जीवनी’ की प्रतियों को जलाया गया। जबकि ‘शेखर : एक जीवनी’ एक नया उपन्यास प्रयोग है और हिन्दी-उपन्यास-परम्परा में नया मोड़ लाने वाला अपूर्व अद्भुत उपन्यास। आज हिन्दी में ‘आधुनिकता’ लानेवाला पहला आधुनिक उपन्यास प्रयोग भी इसे कहा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि ‘गोदान’ के बाद हिन्दी का दूसरा क्लासिक उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ ही है। ‘शेखर : एक जीवनी’ जीवनी है या आत्मकथा-इसको लेकर हिन्दी आलोचना में बड़ा भारी ‘महाभारत’ हुआ है। आलोचना के कई केन्द्रों से यह प्रचार किया गया कि शेखर तो अज्ञेय की अपनी जीवनी है और शेखर तथा अज्ञेय एक ही हैं। अभी तक इसके दो भाग ही प्रकाशित हुए हैं और तीसरे भाग की चर्चा भर है। कई बार अज्ञेय ने इसके लिखे जाने की चर्चा की है-अपने साक्षात्कारों में और पत्र-पत्रिकाओं में। अज्ञेय जी के परम निकट मित्र डॉ. रमेश चन्द्र शाह ने मुझे बताया है कि उन्होंने ‘शेखर : एक जीवनी’ के तीसरे भाग को लिखने के लिए पेंसिल से लिखकर कुछ नोट्स बनाये थे। लेकिन तीसरा भाग लिखा ही नहीं है। मेरा दुर्भाग्य कि बहुत प्रयास करने पर भी पेंसिल से लिखे तीसरे भाग के नोट्स मुझे प्राप्त नहीं हो सके। मेरे देखने में वह कहीं भी आजतक प्रकाशित नहीं हुआ। इस तरह ‘शेखर : एक जीवनी’ दो भागों में प्रकाशित अधूरा उपन्यास है। इसलिए मैं इन दो भागों को ही पूरा मुकम्मल उपन्यास मानने को विवश हूँ। अज्ञेय जी के बेहद आत्मीय नन्दकिशोर आचार्य ने भी एक परिसंवाद में हिस्सेदारी करते समय इसके दो भागों की ही चर्चा की है, क्योंकि तीसरा भाग उपलब्ध नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि शेखर ही ‘नदी के द्वीप’ में भुवन बनकर अवतरित हुआ और शशि वहाँ रेखा बनकर। ऐसी स्थिति में मुझे नहीं पता सच क्या है। हाँ, ‘अपने-अपने अजनबी’ अस्तित्ववादी मुहावरे में स्वाधीनता-स्वतन्त्रता की खोज है। यहाँ मैंने कई रचनाकारों के साथ मिलकर किए गये उपन्यास प्रयोग ‘बारह खम्भा’ के साथ उनके दो अधूरे उपन्यास, ‘छाया मेखल’ और ‘बीनू भगत’ को दे दिया है। इन दोनों अधूरे उपन्यासों का प्रकाशन आदरणीया इला डालमिया के प्रयासों से सम्भव हुआ था। प्रयास के इसी दौर में इला जी ने अज्ञेय की शेष बची कविताओं को ‘मरुथल’ नाम से प्रकाशित करवाया था। इस काव्य-संग्रह को अज्ञेय जी की कविताओं के खंड में दे दिया गया है।

अज्ञेय जी के विचार से उस सृजन-कर्म की कोई प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, जिसमें सांस्कृतिक अस्मिता नहीं बोलती है। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता ही व्यक्तित्व एवं अस्तित्व का निर्माण करती है। सांस्कृतिक अस्मिता का आग्रह प्रसाद जी, निराला जी में कम नहीं रहा और न अज्ञेय जी के गुरु स्थानीय राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त में। अन्य रचनाकारों के प्रति श्रद्धा-भाव होते हुए भी अज्ञेय के मन में यदि किसी रचनाकार के प्रति सर्वाधिक आकर्षण रहा है-तो जयशंकर प्रसाद के प्रति। साहित्यिक परम्परा में अज्ञेय जी ही प्रसाद के सच्चे उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं। दोनों में अद्भुत समानताएँ हैं। नयी कविता के सिद्धान्तकार विजयदेवनारायण साही जी ने कहा है कि अज्ञेय ने ‘समरसता’ के दर्शन के बजाय ‘निर्वैयक्तिक अनुभूति’ के प्रश्न उठाकर एक बार फिर से ‘दर्शन को अनुभूति’ में घुलाने की राह निकाली। विवेक और हृदय, संकल्प और विवशता को ‘नये योग’ में बाँधा। यही कारण है कि अज्ञेय प्रयोगवाद-नयी कविता की धारा-को मोड़ने में समर्थ रहे। टी.एस. एलियट, लारेन्स, पाउंड आदि से प्रभावित होने पर भी अज्ञेय उनमें से किसी का अनुकरण नहीं करते। उनकी सांस्कृतिक मनोभूमिका में पश्चिम नहीं बोलता-भारतीयता की पावन कालिदासीय लय बोलती है।

दरअसल, अज्ञेय किसी भी विचारधारा की गुलामी स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए हैं। अपने रचना-कर्म में वे विचारधाराओं का अतिक्रमण करते हैं, उनकी दृष्टि में मानव के लिए स्वाधीन-चिन्तन की स्वाधीनता से बड़ा कोई मूल्य नहीं है। इस स्वाधीन-चिन्तन के कारण ही हिन्दी की असाध्यवीणा अज्ञेय के हाथों ही बजी। वे ही इसके प्रियंवद साधक हैं।

‘अज्ञेय रचनावली’ का विषय और विद्या दोनों दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर विभिन्न खंडों का विभाजन किया गया है। कुल मिलाकर ये अठारह खंड हैं :

1. पहला खंड-काव्य
2. दूसरा खंड-काव्य
3. तीसरा खंड-कहानियाँ
4. चौथा खंड-उपन्यास
5. पाँचवाँ खंड-उपन्यास
6. छठा खंड-उपन्यास
7. सातवाँ खंड-भूमिकाएँ
8. आठवाँ खंड-यात्रा-वृत्त
9. नौवाँ खंड-डायरी
10. दसवाँ खंड-निबन्ध
11. ग्यारहवाँ खंड-निबन्ध
12. बारहवाँ खंड-निबन्ध
13. तेरहवाँ खंड-निबन्ध
14. चौदहवाँ खंड-संस्मरण, नाटक, निबन्ध
15. पन्द्रहवाँ खंड-साक्षात्कार
16. सोलहवाँ खंड-साक्षात्कार और पत्र
17. सत्रहवाँ खंड-अनुवाद
18. अठारहवाँ खंड-अनुवाद

इस ‘अज्ञेय रचनावली’ को क्रमबद्ध करने में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा है। किन्तु इस बात का ध्यान रखा गया है कि यह रचनावली अधिकाधिक उपयोगी हो सके। इस विशाल योजना की परिपूर्णता में अनेक मित्रों ने अपना अमूल्य सहयोग दिया है जिसके बिना निश्चय ही यह कार्य पूर्ण नहीं हो पाता।

यहाँ मैं, परम श्रद्धेय स्वर्गीय डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंधवी को स्मरण करता हूँ जिनकी स्मृति से प्रेरणा की सुगन्ध आती है। परम पूजनीय डॉ. कर्णसिंह जी (वत्सल-निधि-न्यास के अध्यक्ष) के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिनके आशीर्वाद ने इस कार्य की हर सम्भव बाधा को मुझसे दूर रखा है। वत्सल-निधि-न्यास के सदस्य सचिव और मेरे आदरणीय गुरुवर प्रोफेसर इन्द्रनाथ जी चौधुरी के स्नेह-शक्ति-संबल के बिना यह कार्य सम्भव नहीं था। उनकी प्रेरणा मेरी शक्ति रही है। वत्सल-निधि-न्यास के सम्पादक मंडल के सदस्य (स्व.) डॉ. कन्हैयालाल नन्दन, डॉ. रमेशचन्द्र शाह, डॉ. नन्दकिशोर आचार्य, श्री अशोक वाजपेयी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिनके समय-समय पर दिए गये सुझावों से मैं लाभान्वित हुआ हूँ। कविवर सौमित्र मोहन की सलाह का आभारी हूँ।

अन्त में साहू श्री अखिलेश जैन, श्री आलोक जैन और भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया जी तथा भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से जुड़े डॉ. गुलाबचन्द्र जैन का कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने तत्परता और लगन से इस योजना को सम्पूर्ण रूप दिया है। इन शब्दों के साथ ‘अज्ञेय रचनावली’ का सम्पूर्ण रचना-संसार हम वृहद् हिन्दी विश्व परिवार को समर्पित करते हैं। अपनी तमाम भूलों के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
हिन्दी-विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली                                                
-कृष्णदत्त पालीवाल

 

 

पुरोवाक्

 

‘शब्द में मेरी समाई नहीं होगी’

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की काव्य-यात्रा को दो भागों में बाँटकर समझना होगा-पूर्व-अज्ञेय और उत्तर-अज्ञेय। पूर्व-अज्ञेय के काव्य पर छायावादी रुझानों के स्पष्ट संकेत हैं और यहाँ कवि एकदम चौकन्ना, प्रयोग विश्वासी, नयी राहों का अन्वेषी तथा अदम्य आत्मविश्वास से भरा हुआ है। वह प्रश्नाकुल है और अस्वीकार के साहस में अभय। उत्तर-अज्ञेय में शान्त-संयम मौन और परम्परा की व्यापकता से कमाई गयी क्लासिकल संवेदना का उत्कृष्ट उत्कर्ष है। देखने पर पूर्व-अज्ञेय और उत्तर-अज्ञेय का कंस्ट्रास्ट इतना प्रबल है कि लगता है कि दोनों की दो अलग दुनियाएँ हैं। पूर्व-अज्ञेय में कवि की सर्जनात्मक ऊर्जा में तनी हुई आत्मनिर्भर रचनात्मक विस्फोट से सम्पन्न-समर्थ दुनिया है और ‘उत्तर-अज्ञेय’ में अर्थात् ‘इन्द्रधनु रौंदे हुए ये’ 1957 से आरम्भ होकर ‘मरुथल’ तथा ‘ऐसा कोई घर आपने देखा है’ [1986] तक की वैचारिक मोड़ों, राजनीति के झंझावातों से घायल, मानव अनुभूतियों पर बौद्धिक अकुंश लगाकर सोचती-समझती दुनिया है।

उत्तर-अज्ञेय की काव्य-यात्रा ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ (1959), ‘आँगन के पार-द्वार’ (1961), ‘कितनी नावों में कितनी बार’ (1967), ‘सागर मुद्रा’ (1970), ‘क्योंकि मैं उसे जानता हूँ’ (1970), ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’ (1974), ‘महावृक्ष के नीचे’ (1977), ‘नदी की बाँक पर छाया’ (1981), ‘ऐसा कोई घर आपने देखा है’ (1986) तथा ‘मरुथल’ (1989) तक की अनवरत यात्रा है। इस अखंड-आत्मान्वेषणीय यात्रा में कहीं थकान नहीं है। कवि का संवेदन बदला हुआ है और बदलाव का नया स्वर पाठक इनमें पाता है। परम्परा से फूटती आधुनिकता या समकालीनता मम और ममेतर के साथ आत्मदान, आत्मसमर्पण की आकांक्षा से दीप्त-प्रदीप्त है। यहाँ भी अज्ञेय की अद्वितीयता यह रही कि यह अद्वितीयता कवि ने गम्भीर ऐतिहासिक दायित्व के काल में अर्जित की है। इस दुनिया में अद्भुत आत्म-विस्तार और आत्म-संवाद है। इस आत्म-विस्तार में अन्य के लिए पूरी तरह खुली जगह है और यह जीवन के अमूल्य को संचित करती रही है। जाहिर है इस उत्तर-अज्ञेय की सृजन-यात्रा के तीन कोण हैं-आत्म-संवाद, आत्म-विस्तार और आत्म-उन्मोचन। ‘उत्तर अज्ञेय’ की सृजन-यात्रा का यह काल जीवन के सभी क्षेत्रों में जबरदस्त उथल-पुथल का काल है-जिसमें एक नया जीवन-यथार्थ, एक नया रचना-कर्म करबट ले रहा है। बहुत कुछ टूट रहा है और एक नया चुनौतियों-चिन्ताओं, यातनाओं से भरा संसार जन्म ले रहा है। अज्ञेय की कविता ‘नाच’ इस पूरी स्थिति का पाठ प्रस्तुत करती है। ‘असाध्य वीणा’ का साधक एक नये बदलाव के प्रवाह में नव-निर्माण, नव संस्कृति के संस्कार रच रहा है। टी.एस. एलियट, टी.एच. लारेन्स के भाव-पक्ष की छाप फीकी पड़ रही है और अज्ञेय का कवि रचना-कर्म के काल-मूल्यों की रक्षा की लड़ाई अकेले लड़ रहा है। अज्ञेय अपने कला-विवेक से काव्य की कलात्मकता का परिष्कार कर उसे निखारते हैं। अज्ञेय के विरोधियों ने उन्हें ‘परम्परा द्रोही करार’ दिया है जबकि अज्ञेय परम्परा को अपने सार्थक ढंग से प्रसाद जी की विपरीत दिशा में मोड़ देते हैं। परम्परा की इस नवीन सर्जनात्मक व्याख्या द्वारा ही अज्ञेय उस अराजक साहित्यिकता में परिवेश का प्रतिकार कर सकते थे, जिसमें कविता की विच्छिन्न जड़ों को नष्ट होने से बचाया जा सके।

प्रश्न उठता हैं, वह कौन सी परम्परा थी जिसकी अज्ञेय जी रक्षा करना चाहते थे? निश्चय ही वह आम जन की परम्परा थी जिसे वह उदात्त-मानव-परम्परा कहकर रक्षित करना चाहते थे। इस परम्परा का आधार कालिदास-भवभूति के साथ छायावाद की सांस्कृतिक परम्परा थी जिसमें ‘स्वाधीनता’ का व्यापक अर्थ सन्दर्भ निहित था। अज्ञेय ने इस परम्परा पर ही अपने आगामी चिन्तन की नींव रखी और इस परम्परा के मूल्य-मानों की रक्षा के लिए जीवन भर लड़ाई लड़ी है। इस लड़ाई में निषेध और अस्वीकार को पूरी छूट मिली हुई है। उत्तर-अज्ञेय की तथ्य और सत्य की स्थापनाएँ इसी वैचारिकता की कलात्मक भूमि से उपजी स्थापनाएँ हैं। ‘मेरी स्वाधीनता : सबकी स्वाधीनता’ तथा ‘सभ्यता का संकट’ जैसे तमाम निबन्धों में उन्होंने इन्हीं स्थापनाओं का वैचारिक भाष्य किया है। अज्ञेय की इस भारतीय आधुनिकता को आज पहचानने की जरूरत है-जिसमें पश्चिमी औपनिवेशिक आधुनिकता का पूरी तरह निषेध है। एक तरह से उत्तर-अज्ञेय हमारे साहित्य के राममनोहर लोहिया हैं। जैसे डॉ. लोहियाजी भारतीय राजनीति में चिन्तन का एक नया भूचाल लाते हैं वैसे ही अज्ञेय हिन्दी-साहित्य में एक नवीन वैचारिक सुनामी को। रूढ़ियों के पालन की गुलामी को ध्वस्त कर अज्ञेय हमें पश्चिम की गुलाम मानसिकता से मुक्त करना चाहते हैं। भूलना न होगा कि मुक्ति की आकांक्षा ही अज्ञेय का स्थायी संकल्प रही है। अज्ञेय के सामने नव-संस्कार, नव-शिक्षण तथा नवनिर्माण का अर्थ है-पुराने तथ्य का निषेध और नये सत्य का स्वीकार। इसीलिए अज्ञेय जी राग-सम्बन्धों की बदली प्रणालियों पर इतना बल देते हैं। काल और स्मृति-काल और देश के रिश्ते को इतनी गहराई से उठाकर पहली बार हिन्दी में काल-चिन्तन करते हैं। इस चिन्तन के आत्मदान में दीप किसी पंक्ति को दे दिया जाता है। अज्ञेयजी की बौद्धिकता ने उसके काव्य अहं को पुष्ट किया और शब्द और अर्थ के बीच की दीवार को विस्फोटक से उड़ा दिया। साथ ही यह प्रार्थना की-‘अर्थ दो/मत हमें रूपाकार इतने व्यर्थ दो/हम समझते हैं इशारा जिन्दगी का/हमें पार उतार दो/रूप मत, बस सार दो।’ यहाँ अज्ञेय की कविताओं का वर्तमान नयी पीढ़ी से आत्म-संवाद स्थापित करता है-अज्ञेय ‘सेतु’ बन जाते हैं। ‘यों मुझे मत छोड़ दो सागर’ की काव्य-टोन में जन-समूह से जुड़ने का तड़पता अरमान मिलता है। लेकिन भाषा, संस्कृति, रचनाकार की स्वाधीनता प्रश्नों से अज्ञेय यहाँ भी निरपेक्ष नहीं हैं। इस तरह अज्ञेय की काव्य-यात्रा रचना-कर्म के दायित्व को वहन करने वाली यात्रा है। अज्ञेय ने सांस्कृतिक चेतना के नवसंस्कार के लिए हमेशा कहा-‘हमें एक आलोचक राष्ट्र का निर्माण करना होगा।’ (त्रिशंकु) इन दो अज्ञेयों में मलयज ‘तीसरे अज्ञेय की तलाश’ करते हैं-जो जरूरी है। यह अज्ञेय कह रहे हैं कि मैं ‘छन्द’ हूँ जीवन के राग-दीप्त सच से निर्मित छन्द-

    मैं सभी ओर से खुला हूँ
    वन सा, वन-सा, अपने में बन्द हूँ
    शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
    मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।

सच है, प्रसाद जी जहाँ से छोड़ते हैं-अज्ञेय जी वहाँ से हिन्दी की काव्य-धारा को मोड़ते हुए से प्रतीत होते हैं।

‘अज्ञेय रचनावली’ के इस दूसरे काव्य-खंड में मैंने ‘सदानीरा’ के क्रम को छोड़ना उचित नहीं माना है। पूरा क्रम वही है-केवल ‘ऐसा कोई घर आपने देखा है’ तथा ‘मरुथल’ को अक्षय भाव से जोड़ दिया है। यहाँ भी अज्ञेय की कविता जीवन की सच्ची आलोचना है।

- कृष्णदत्त पालीवाल

अनुक्रम

निवेदन

पुरोवाक्

भूमिका : अज्ञेय

कविताएँ

चार : कविताएँ (1957-64)

पाँच : कविताएँ (1965-72)

छह : कविताएँ (1973-1980)

सात : कविताएँ (‘ऐसा कोई घर आपने देखा है’

संग्रह, 1986 में प्रकाशित)

आठ : 1995 में प्रकाशित ‘मरुथल’ काव्य-संग्रह

परिशिष्ट

1. शीर्षकों की सूची

2. प्रथम पंक्तियों की अनुक्रमणिका

भूमिका

आधी शती तक कविता लिखते और छपाते रहने के बाद कविता के बारे में कहने को कुछ तो होना चाहिए। लेकिन पचास वर्ष में अगर अनुभव का कुछ संचय हो जाता है, तो उसके साथ-साथ कुछ कठिनाइयाँ भी जुट जाती हैं-बल्कि कुछ तो अनुभव से पैदा हुई कठिनाइयाँ ही होती हैं। सबसे पहली कठिनाई तो यही है कि कवि जानता है कि कहने को जो कुछ होगा वह सब, भले ही थोड़े बहुत शाब्दिक हेर-फेर के साथ, पहले कहा जा चुका हुआ होगा, जो कवि अपनी रचना की चर्चा में मुखर होते हैं, उन के बारे में तो सम्भावना भी की जा सकती है कि वे स्वयं ही वह सब पहले ही कह चुके होंगे जो कहने को हो सकता है और यही सम्भावना दूसरे पक्ष अर्थात् पाठक के लिए उतनी ही प्रबल है कि वह भी यही सारी बातें पढ़ चुका होगा।

इन शंकाओं से अधिक आतंकित कर देने वाली शंका यह है कि कवि जो बातें कहना चाहेगा अथवा कहने के लिए जुटाएगा, वे सबकी सब अप्रासंगिक हो चुकी होंगी।

ऐसी आशंका क्यों होगी? क्योंकि कविता के बारे में कुछ कहने को प्रस्तुत करने पर कवि अपने से ही पूछ बैठेगा कि ‘कविता के बारे में’ का आशय क्या है? कवि जो कहना चाहेगा, वह किस बारे में होगा? क्या भाषा के बारे में? क्या शब्द, छन्द, लय के बारे में? क्या रूपाकार के बारे में? अपने समाज के बारे में? अपने काल, अपने समय, अपने युग के बारे में? अपनी दृष्टि के, विश्व दर्शन के बारे में? क्या उन प्रभावों के बारे में जो उस पर पड़े या जो उस ने ग्रहण किये? क्या सम्प्रेषण की कठिनाइयों के बारे में? या अभिव्यक्ति की समस्याओं के बारे में? या कि आत्म-साक्षात्कार के बारे में? यानी कविता के बारे में बोलने का उपक्रम कर के वह कुछ कहेगा तो अपने ही बारे में? क्या उस की कोई आवश्यकता नहीं है?

यह तो आवश्यक नहीं है कि कवि जो कहे वह किसी एक चीज के बारे में हो-वह उपर्युक्त कई एक चीज़ों के बारे में हो सकता है। फिर भी इस सम्भावना से तो छुटकारा नहीं है कि उस का अधिकांश पहले कहा जा चुका होगा-ठीक उसी क्रम में नहीं, विभिन्न उपकरणों के उसी मिश्रण में नहीं, उसी तेवर से नहीं, फिर भी जैसे-तैसे कहा तो जा ही चुका होगा।

फिर इन पंक्तियों का लेखक तो यों भी सदा कहता आया है कि कवि को नहीं, कविता को ही बोलना चाहिए। इस बात को कहता रह कर भी वह स्वयं उसे सौ प्रतिशत नहीं, थोड़े संशोधन के साथ ही मानता रहा है, क्योंकि वह समझता है कि कवि को भी कभी-कभी तो कुछ अप्रासंगिकताएँ ऐसी होती हैं जिन्हें अनिवार्य माना जा सकता है। उनमें हमें कुछ मिलता जरूर है, भले ही वह नहीं मिलता जो हमें दिया जा रहा जान पड़ता है।

मेरा अनुमान है कि इन में पहली बात शायद प्रभाव ही होगी। किसी भी आलोचक ने मुझे अप्रभावित नहीं माना-अप्रभावित कोई संवेदनशील कवि रह भी कैसे सकता है? यद्यपि यह अनेक बार हुआ है कि जो प्रभाव बताये गये, वे नगण्य हैं और जिन प्रभावों का महत्त्व होता, उन का उल्लेख नहीं हुआ, बल्कि बहुधा वे अलक्षित भी रह गये।

प्रभाव की समस्या आधुनिक कवि मात्र की एक बड़ी समस्या है। इतनी बड़ी कि ‘प्रभाव की चिन्ता’ को ले कर समकालीन कविता की व्याख्या के कुछ सिद्धान्त भी गढ़े गये हैं। हर कवि प्रभावित है, चिन्तित है कि कहीं वह प्रभावित तो नहीं है; शंकित है कि कहीं ये प्रभाव दीख न जाएँ। लेकिन दूसरी तरफ हर आधुनिक कवि काफी पढ़ने वाला है और वह यह भी चाहता है कि उसकी रचना भी उसके पढ़े-लिखे होने का प्रमाण दे; और यह इच्छा उसमें एक प्रतियोगिता के भाव को भी जन्म देती है अर्थात्, कुल मिला कर यह स्पष्ट हो जाता है कि आज का कवि जिस परिस्थिति में है, जिस में अपने को रखना चाहता है और जिस में अपने को स्थित दिखाना चाहता है, उस में वह प्रभावों के प्रति वेध्य है। अगर वह ऐसी स्थित में है, और चाहता है कि पाठक समाज देखे कि वह ऐसी स्थिति में है, तब वह अपने वक्तव्यों में आख़िर करता क्या है-वक्तव्य देता क्यों है? क्या यही दिखाने के लिए कि वह दुराव-छिपाव में कितना कुशल है? क्या एक-उसे हम चोर न भी कहें, एक हुनरमंद फ़नकार-अपने हाथ की सफ़ाई दिखाना भर चाहता है? कालिदास या भवभूति के ज़माने में प्रथा थी कि अपने पूर्ववर्तियों के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए-‘इदं कविभ्यः पूर्वभ्यः नमो वाकं प्रशास्महे’-उन का ऋण स्वीकार करते हुए अपनी बात आरम्भ की जाए। ऐसा स्वीकार कवि का विनय था और उस से उस की कोई हेठी नहीं होती थी। उसी समाज में गर्वोक्तियाँ भी थीं और विज्जिका जैसी कवयित्री स्वयं सरस्वती को चुनौती दे सकती थीः

    नीलोत्पलदलश्यामां विज्जिकां मामजानता।
    वृथैव दण्डिना प्रोक्तं सर्वशुक्ला सरस्वती।।

भले ही विज्जिका के पक्ष में यह कहा जा सके कि यहाँ कवि का गर्व नहीं, केवल रूपवती नारी का दर्प बोल रहा है (यों यह तर्क टिकता नहीं, क्यों कि विज्जिका अपने साँवले होने को स्वीकार कर रही है उस समाज में जिस में गोराई नारी सौन्दर्य का अनिवार्य अंग माना जाता था)। कवियों की गर्वोक्तियाँ भी कवि कौशल के नमूने ही होते थे, उन्हें आत्यन्तिक रूप से कवि के अविनय या औद्धत्य का प्रमाण नहीं माना जा सकता था। पूर्ववर्ती कवियों के प्रति विनयशीलता ही समाज-सम्मत थी। भवभूति की गर्वोक्ति प्रसिद्ध हैः

    उत्पत्स्यते मम तु कोपि समानधर्मा,
    कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।।

लेकिन आज भी वह उद्धृत की जाती है तो कवि के अहंकार का नमूना बना कर नहीं, बल्कि काव्यार्थ में उस की निष्ठा के प्रमाण के रूप में। दूसरी ओर पूर्ववर्तियों की वन्दना का जो उदाहरण ऊपर दिया गया है, वह भी भवभूति की उक्ति है।

कदाचित् उस युग के कवियों के लिए ऐसी विनयशीलता सम्मत ही नहीं, आसान भी थी। काव्य का भंडार छोटा था और रीति से जुड़ने की आवश्यकता अधिक। और आज स्थिति ठीक उलटी है। आज के कवि का संवेदन बदल गया है; आज कविता का अम्बार लगा है, आज रीति अमान्य है और कवि को बार बार आक्रमण भाव से अपने को सामने लाने की आवश्यकता का अनुभव होता है। अपने को सामने लाने के लिए वह अपने कुछ समकालीनों के साथ एक संगठन तो खड़ा करता है, लेकिन ऐसे समानधर्मा क्यों कि समकालीन होते हैं, इसलिए उन की एक-दूसरे को दी गयी टेक को प्रभाव नहीं कहा जाता। प्रभाव के मामले में ऐसे कवि शंकित ही रहते हैं और पूर्ववर्तियों के किसी भी प्रभाव का खंडन करते हैं। कभी कभी किसी पूर्ववर्ती की ‘विरासत’ की बात आवश्यक होती है, लेकिन उस का आशय यह नहीं होता कि उस का प्रभाव स्वीकार किया जा रहा है, आशय यह होता है कि उस के समान पदत्व का दावा किया जा रहा है।

मुझे हमेशा ऐसे मनोभाव पर आश्चर्य होता रहा है। यह तो मैं समझ सकता हूँ कि कवि के सर्जक होने के दावे में-एकदम नया कुछ रचने के दावे में-कहीं सभी पूर्ववर्तियों की अपर्याप्तता का संकेत भी है। कोई भी कवि ऐसा नहीं मानता, नहीं मान सकता, कि वह केवल पहले रचे गये हो दोहरा रहा है। वैसा होता तो उस की ‘रचना’ कहाँ होती और उस की आवश्यकता क्या होती? लेकिन कवि दूसरे की बात दोहरा नहीं रहा है, इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उस पर कोई प्रभाव नहीं है। हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा न केवल प्रभावों का ग्रहण होती है, बल्कि उस का लक्ष्य ही यह होता है कि हम प्रभाव ग्रहण करें। इसी लिए जहाँ हम प्रभावों के प्रति सतर्क रहते हुए कुछ कहते हैं, वहाँ भी ये प्रभाव अनिवार्य रूप से काम कर रहे होते हैं। प्रभाव और सर्जना में कोई आत्यन्तिक विरोध नहीं है। जहाँ हम जानबूझ कर किसी प्रसिद्ध पूर्ववर्ती जैसा लिखना चाहते हैं, वहाँ जो प्रभाव लक्षित होता है वह मौलिकता में बाधक माना जा सकता है-लेकिन वैसा भी जरूरी नहीं है। वह एक प्रकार का परकाया प्रवेश भी हो सकता है जिसके लिए लम्बी दीक्षा भी चाहिए, साहस भी चाहिए और प्रतिभा भी चाहिए-और उसके द्वारा ज्ञान का नया उन्मेष भी हो सकता है। परिणाम देख कर ही ऐसे प्रभावों के रचनात्मक होने या न होने का निर्णय हो सकता है। दूसरी ओर ऐसा भी हो सकता है कि कवि अनजाने ही किसी पूर्ववर्ती जैसा लिख रहा हो-भाषा की, छन्द अथवा परियोजना की दृष्टि से, वस्तु की दृष्टि से, इत्यादि-और विवेकवान् पाठक ही उस गूँज को पहचाने। ऐसे प्रभाव के मूल्यांकन में भी इस बात का विचार होगा ही कि प्रभाव और नकल में जो अन्तर है, उसे सहृदय आलोचक तो पहचानता ही है, हर सहृदय पाठक भी अच्छी तरह से समझता है। और जब हम परम्परा की बात करते हैं, तो प्रभावों की एक शृंखला की बात निहित होती है जो सर्वथा प्रभावमुक्त है-अगर ऐसा कोई कवि होता है तो-वह किसी परम्परा में नहीं है। वह दूसरे कवियों के द्वारा प्रभावित न हो कर किसी दूसरी विद्या के विशारदों द्वारा प्रभावित हो, ऐसा तो हो सकता है। लेकिन तब वह दूसरे क्षेत्रों से कुछ प्रभाव ला कर काव्य परम्परा में जोड़ रहा होगा, दूसरे कवि से प्रभावित न होना उस का प्रभावमुक्त होना तो नहीं होगा।

मैं परिस्थितिवश आरम्भ से ही समाज से बाहर रहा और पुस्तकों का समाज ही मेरा समाज रहा। जिन पुस्तकों के बीच में पला और बड़ा हुआ, उनमें काव्य-ग्रन्थ भी थे और शास्त्र-ग्रन्थ भी, इतिहास, पुराण, दर्शन, पुरातत्त्व सम्बन्धी पुस्तकों का तो बड़ा भंडार था। साथ ही संस्कृत, हिन्दी और अँग्रेजी कृति साहित्य-काव्य, उपन्यास, कहानी, नाटक सभी-यथेष्ट था। उर्दू और फारसी के भी कुछ अच्छे ग्रन्थ थे। चित्र और मूर्तिकला सम्बन्धी अनेक सचित्र पुस्तकें भी थीं। मैं ने सभी तरह की पुस्तकें पढ़ीं-अनियोजित ढंग से पढ़ीं लेकिन बहुत पढ़ीं। स्कूल जाने का अवसर ही नहीं हुआ, इस लिए समय भी बहुत मिलता रहा-समय का उपयोग भी मैं ने अनियोजित ढंग से किया लेकिन बहुत किया। पुस्तकों के इस भंडार में कुछ कमी थी तो विज्ञान की पुस्तकों की-विभिन्न विज्ञानों से सम्बद्ध कुछ पाठ्य पुस्तकें ही घर के संग्रह में थीं। फिर भी जो थीं उन में गणित, भौतिकी, रसायन, जीव विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, चिकित्सा आदि विभिन्न विज्ञानों से सम्बद्ध पुस्तकें थीं। कोश और विश्वकोश भी अनेक थे। मैं कह सकता हूँ कि पुस्तकों का मैं ने सदुपयोग किया और सभी से प्रभाव ग्रहण किये। पढ़ना अनियोजित ढंग से हुआ और मैं ने ऐसा भी बहुत कुछ पढ़ डाला जिस का साधारणतया किशोरों की पठन सामग्री में कोई स्थान नहीं होता। इस लिए ऐसा तो हो सकता है कि अनेक प्रभाव पहचाने न जान सकते हों अथवा अलक्षित रह जाएँ क्यों कि उन की सम्भावना ही न की गयी हो। प्रायः ऐसा हुआ भी है कि आलोचकों ने कभी तो ऐसी रचनाओं का प्रभाव मुझ पर बताया है जिन की रचनाएँ मैं ने तब तक पढ़ी ही नहीं थीं, और कभी ऐसे कवियों का उल्लेख भी नहीं किया जिन का प्रभाव और तो और स्वयं मुझे भी दिख जाता है।

मैं ने कहा कि जिन पुस्तकों के बीच रहा उन में संस्कृत, हिन्दी, अँग्रेजी, उर्दू और फारसी सभी पुस्तकें थीं। कुछ बांग्ला साहित्य भी था-कुछ काव्य साहित्य भी था-कुछ नागरी लिपि में, कुछ गुरुमुखी और कुछ फारसी लिपि में भी। इस सब को भी मैं ने उलट-पलट कर देखा और कुछ को पढ़ा भी। आरम्भ में रचना करना शुरू किया तो हिन्दी और अँग्रेजी दोनों में। कुछ छन्द लिखे जिन के लिए आदर्श सामने था तो पहले श्री मैथिलीशरण गुप्त और उस के बाद कभी-कभी ‘हरिऔध’ का। गुप्त जी की कुछ सरलतर कविताओं से तो बचपन से ही परिचित था और ‘जयद्रथवध’ जैसी पुस्तकें पहले बहन के मुख से सुनी, फिर स्वयं पढ़ी थीं। ‘हरिऔध’ से परिचय ‘प्रियप्रवास’ से ही हुआ। काव्य के रूप में उस ने विशेष आकृष्ट नहीं किया, उस के आकर्षण का अधिक महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि उस के छन्द संस्कृत के छन्द थे। संस्कृत के श्लोक सस्वर पढ़ने का अभ्यास बहुत बचपन से था, लेकिन ऐसा नहीं था कि जो पढ़ सकता था उस का अर्थ भी जानता था (उदाहरण के लिए, रावण कृत शिवस्तुति का अथवा शिवमहिम्न स्तोत्र का अर्थ लगाने में आज भी मुझे थोड़ी कठिनाई होगी)। ‘प्रियप्रवास’ ने एकाएक यह सुविधा दी कि छन्द तो संस्कृत के हों जिन्हें मैं सस्वर पढ़ सकूँ, और भाषा हिन्दी हो जिसे मैं पहले ही वाचन में लगभग पूरा समझता भी चलूँ (लगभग पूरा इस लिए कि उस समय की और मेरे सीमित परिचय की दृष्टि से भी ‘प्रियप्रवास’ की भाषा एक कृत्रिम और प्रयासगम्य भाषा थी)।

हिन्दी छन्द मैं ने मैथिलीशरण गुप्त और ‘हरिऔध’ को सामने रख कर लिखे तो अँग्रेज़ी में भी मैं ने काफी पद्य रचे। अँग्रेज़ी के लिए मेरा पहला मॉडल टैनिसन था। यों मैं ने अँग्रेज़ी के सभी रोमांटिक कवि और विक्टोरियन युग के अन्य प्रमुख कवि लगभग पूरे पढ़ डाले थे। टैनिसन के अनुकरण में मैं ने अगर छोटे प्रगीत न लिख कर खंडकाव्य ही लिखना आरम्भ किया तो समझ में आ सकता है। छोटे प्रगीत के लिए भाषा पर जैसा अधिकार चाहिए, वैसा मुझे कहाँ था? बल्कि भाषा और भाव के अनुशासन की समझ भी कहाँ थी!-और टैनिसन के छोटे प्रगीत तो अँग्रेजी साहित्य में भी अप्रतिम हैं। मेरे लिए अपेक्षया सरल था तो राजा आर्थर और उस के साथी सूरमाओं की गाथाओं वाले खंडकाव्यों को सामने रख कर लिखना। इस में छन्द के कोई बड़े बन्धन न निभाने पड़ते, न तुक की ही कोई समस्या होती; और अँग्रेज़ी का पाँच ‘लघु-गुरु’ के चरणों वाला अतुकान्त छन्द (आशम्बिक पैंटामीटर) लय की दृष्टि से अँग्रेज़ी बोलचाल की सहज लय के निकटतम आता है।

काव्य के अतिरिक्त मैं ने गद्य भी लिखा। उस में मैं अनुकृति के सहारे इस तरह का अभ्यास करता रहा। इस अभ्यास के लिए आधार यद्यपि पुस्तकों से ही मिलता था-उन लेखकों की रचनाओं से जो मेरे मॉडल बनते थे-तथापि इस से एक लाभ यह हुआ कि मैं क्रमशः पुस्तक की भाषा से निकल कर सीधे सम्प्रेषण की भाषा के प्रति सजग हुआ-सामाजिक व्यवहार और आम बोलचाल की भाषा के प्रति सजग। सामाजिक व्यवहार के प्रति सजगता ही भाषा व्यवहार के अनेक स्तरों और कोटियों की समझ बढ़ाती है और सम्प्रेषण प्रक्रिया के पूरे विस्तार की समझ विकसित करती है-जिस में भंगिमा, बलाघात और काकू के उपयोग का स्थान तो है ही, विरामों की अर्थवत्ता और मौन के प्रभावशाली उपयोग की समझ भी शामिल है। इस प्रकार गद्य के, और उस में भी विशेष रूप से औपन्यासिक गद्य के और कथोपकथन की भाषा के, अभ्यास से भाषा की समझ विकसित हुई जो स्वभावतः मेरी काव्य भाषा के विकास को भी प्रभावित करती रही और मेरी भाषा को उन कवियों की भाषा से भी अलग करती गयी जिन्हें मैं ने मॉडल अथवा आदर्श रूप में सामने रखा था अथवा जिन का काव्य मुझे प्रिय था।

युवा होने तक मुझे कोई नाटक देखने को ही नहीं मिला था (जो दो-एक देखे, वे तो भाषा की दृष्टि से मुझ से भी पीछे थे, उन में कथोपकथन भी पद्य में और प्रायः उर्दू के बँधे छन्दों में होता था)। फिर भी मेरी कविता में नाटकीय उक्ति का तत्त्व जब तब पहचाना जा सकता है जिस की जड़ें असल में बोलचाल के अनुभव अथवा सामाजिक भाषा-व्यवहार में नहीं रहीं, बल्कि सम्प्रेषण की इस विकसित होती हुई सैद्धान्तिक समझ में ही रहीं। ब्राउनिंग के नाटकीय प्रगीतों के परिचय ने इस समझ को और बढ़ाया। इस सैद्धान्तिक समझ के कारण मैं ने अपने को ‘साहित्यिक भाषा’ के नाम पर साधार बोलचाल के तेवर से न केवल दूर ही रखा, बल्कि यत्नपूर्वक अपने को उसके प्रति खुला रखा। मैं तो यही मानता हूँ कि इससे मुझे लाभ ही लाभ हुआ। इसी लिए मैं तो स्वीकार करता हूँ कि हिन्दी मैं ने सीखी और यत्नपूर्वक सीखी। कुछ बड़े आलोचकों को इस स्वीकारोक्ति में केवल यही दीखता है कि हिन्दी मेरी भाषा नहीं थी। उस अर्थ में तो हिन्दी उन की भी भाषा नहीं थी और शायद यह कहना भी अन्याय न हो कि हिन्दी उन की भाषा अब भी नहीं है, क्योंकि उन की घरेलू बोलचाल की भाषा तो दूसरी है। मेरे लिए तो हिन्दी ही वह पहली भाषा थी जो मैं ने सीखी और जिस का व्यवहार मैं अपने जीवन के हर क्षेत्र में और हर स्तर पर करता हूँ-साधु हिन्दी का।

आरम्भ से ही मैं ने गद्य और पद्य दोनों में लिखा और आरम्भ से ही हिन्दी और अँग्र्रेज़ी दोनों में। जब तक पुस्तकों के संसार में रहा, तब तक इन दोनों में से कोई एक भाषा चुन लेने की अनिवार्यता नहीं थी। मेरे आस-पास दोनों भाषाओं का अच्छा साहित्य प्रभूत मात्रा में उपलब्ध था और दोनों साहित्यों के औपन्यासिक चरित्रों को मैं अपना पड़ोसी मान कर उन से उन की भाषा में बातचीत कर सकता था। लेकिन उस जगत् के बाहर तो ऐसी स्थिति नहीं थी। बाहर का समाज-जितने भी समाज तक मेरी पहुँच हो पाती थी-वह अगर हिन्दी भाषी नहीं भी था, तो अपनी अपनी भाषा के सहज व्यवहार की चुनौतियाँ मेरे सामने रखने वाला समाज तो था ही। अभ्यास के लिए हिन्दी और अँग्रेज़ी दोनों लिखते हुए (और कभी-कभी शब्द लालित्य अथवा स्वर सम्मोह के कारण संस्कृत अथवा बांग्ला में भी कुछ पद रचने के बावजूद) मैं उस बिन्दु तक पहुँच गया जहाँ रचनाकार अन्तिम रूप से चुनता है कि कवन के लिए उस की भाषा कौन-सी होगी। दूसरी भाषाओं को वह छोड़ नहीं देता, लेकिन जिस एक भाषा को चुनता है उस के साथ उसका सम्बन्ध फिर हमेशा के लिए दूसरा हो जाता है। बल्कि उसे वह चुनता ही इसी लिए है कि उस के साथ उसका पहले से ही एक दूसरे प्रकार का सम्बन्ध होता है, वरण की प्रक्रिया में वह उस सम्बन्ध को पहचानता भर है। यह पहचान केवल भाषा के साथ अपने अनेक स्तरीय सम्बन्ध की पहचान नहीं होती, बल्कि आत्म प्रत्यभिज्ञा भी होती है। इस प्रत्यभिज्ञा में यह बोध भी होता है कि सम्बन्ध में दोनों तरफ ऐसी अनेक सत्ताएँ क्रियाशील रहती हैं जो साधारण अर्थ में इसी जन्म के अनुभवों तक सीमित नहीं हैं। ऐसा कहना जन्मान्तरवाद का स्वीकार अथवा अनुमोदन नहीं है, केवल इस बात की ओर संकेत है कि हमारी भाषा में भी, और जिसे मैं यहाँ ‘आत्म’ कहता हूँ उसमें भी, एक मन और एक स्मृति क्रियाशील होती है जिस की सीमाएँ एक जीवनावधि से निर्धारित नहीं होतीं। स्मृति अनिवार्यता एक जातीय और सांस्कृतिक परम्परा भी बोलती है और व्यक्तित्व के निर्माण में भी इस बृहत्तर, दीर्घतर स्मृति का गहरा प्रभाव होता है।

अन्तिम रूप से यह चुनाव कर लेने के बाद, और उस चुनाव के पूरे आशय को समझ लेने के बाद, मैं उन बहुत-सी कठिनाइयों से और भीतरी संघर्ष से बच गया जो मैं जानता हूँ अँग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा पाने वाले अनेक भारतीय साहित्यकारों को सताता रहा है-कुछ तो आज भी उस के कारण एक विभाजित दृष्टि के शिकार हैं। मुझे इस बात से कुछ और भी सुविधा हुई कि मैं विज्ञान का विद्यार्थी हुआ। साहित्य से ही बँधा रहता तो अभिव्यक्ति और भाषा की कुछ कठिनाइयाँ फिर भी मेरे साथ जुड़ी रहतीं। विज्ञान की दीक्षा ने एक तरफ मुझे अभिव्यक्ति की इन कठिनाइयों से बचाया और दूसरी ओर व्यवस्थित सुतर्कित ढंग से सोचने की दीक्षा भी दी। मैं जानता हूँ कि इस दीक्षा के कारण मेरे गद्य का रूप भी कुछ अलग ढंग से विकसित हुआ है और इस भिन्नता को आलोचकों ने लक्षित किया है। लेकिन अधिकतर आलोचक इस से यही परिणाम निकालते रहे हैं कि मेरा सोचने का ढंग ‘पश्चिमी’ है। वास्तव में वह पश्चिमी संस्कार का नहीं, विज्ञान की चिन्तन पद्धति में, रूपाकार चेतना में, संरचना की अवधारणा में, इत्यादि-लेकिन इन पहलुओं की विस्तृत चर्चा न मुझे अभीष्ट है, न मुझ से अपेक्षित होगी। वह काम आलोचक का है।

लम्बी अवधि में रचे जाते रहे काव्य के एक समग्र संकलन को सामने रख कर कई बातें देखी या कही जा सकती हैं, और उन में से कुछ रचयिता के कहने की भी हो सकती हैं। कुछ यहाँ पर भी कही जा सकती थीं, लेकिन मैं अनुभव करता हूँ कि उन्हें यहाँ कहना उन्हें दोहराना ही होता। मैं ने कवि-कर्म के बारे में बहुत कुछ लिखा है-रचना के बारे में, काव्य की समकालीन स्थिति के बारे में, समाज के बारे में, सम्प्रेषण के बारे में, भाषा के बारे में, रूप और संरचना के बारे में और कवि की नियति के बारे में। बल्कि कुछ तो मैं ने कविता में भी कहा है-कवि की अवस्थिति के बारे में ही नहीं, बल्कि परम्परा से उस के सम्बन्ध के और रचना के परिदृश्य के बारे में भी, और ये कविताएँ यहाँ संगृहीत भी हैं।

मैं आशा करता हूँ कि जो पाठक ‘सदानीरा’ में संचित कविताएँ पढ़ेंगे, वे उन गद्य रचनाओं की ओर भी आकृष्ट होंगे, अथवा उन से परिचत होंगे, जिन में मेरे कवि-कर्म सम्बन्धी विचार प्रकट हुए हैं। यह आशा करता हूँ, और ऐसा विश्वास करना चाहता हूँ कि कविताओं के साथ उन विचारों को भी ग्रहण करते हुए पाठक समाज में पिछली आधी शती के हिन्दी काव्य का और रचना कर्म का एक परिदृश्य बनेगा जो न धुँधला होगा न विकृत, जो काव्य मात्र में पाठक की आस्था को दृढ़तर आधार देगा। जिस वातावरण में यह भूमिका लिखी जा रही है, उसमें ऐसे लोग बहुत हो गये हैं जो भविष्यत् संसार में कविता की उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। मैं कहूँ कि मैं ने पचास वर्ष में यह सीखा है कि मानव जीवन और मानवीय सभ्यता में काव्य का एक स्थान है और बना रहेगा। काव्य से मैं ने प्रचार का काम नहीं किया, लेकिन अगर मेरी रचना से इस आस्था की प्रतीति होती है और यह विश्वास फैलता है, तो मुझे उससे तृप्ति ही होगी।

‘सदानीरा’ को इस रूप में प्रस्तुत करने में मुझे अपने जिन युवतर बन्धुओं से सहायता मिली है, उन का मैं हृदय से आभारी हूँ। ऐसे ग्रन्थ की प्रस्तुति में शोध और सम्पादन का बहुत-सा परिश्रम होता है जो दीखता नहीं। उस के अदृश्य रहने में ही उस की सफलता होती है। कविताओं को रचना-तिथि के क्रम से संयोजित करने और अनुक्रमणिकाएँ तैयार करने और जाँचने में डॉ. नन्दकिशोर आचार्य और श्रीमती नीलम कुमारी ने जो श्रम किया, उसके बिना इस सम्पूर्ण संग्रह ग्रन्थ का प्रकाशन कदाचित् इस वर्ष न हो सका होता।

यह ग्रन्थ सहृदय पाठकों को सौंपता हूँ। ‘सदानीरा’ उन्हें काव्य स्रोतस्विनी में अवगाहन करने के लिए सदा आमन्त्रित करती रहे, यही मेरी कामना है। यह जानता हूँ कि उस स्रोतस्विनी का केवल एक उत्स नहीं है, उसकी धारा भी केवल एक नहीं है।

7 मार्च, 1986

-‘अज्ञेय’


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