सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय के समग्र साहित्य को एकसूत्र में अनुस्यूत करके हिन्दी के पाठक-समाज को अर्पित करते हुए अत्यधिक हर्ष का अनुभव हो रहा है। अज्ञेय ने नये सृजन और चिन्तन कर्म को आधुनिक हिन्दी-साहित्य में पुनःसम्भव बनाया। वे साहित्य की सभी विधाओं में लगभग साठ वर्षों तक साहित्य-साधना में निरन्तर समर्पित रहे। (वह हिन्दी-भाषियों के साथ अहिन्दी भाषियों के सर्वाधिक प्रिय रचनाकार हैं।) आज का प्रबुद्ध पाठक उनके सृजन-चिन्तन के प्रति एक विशेष प्रकार के गहरे लगाव का अनुभव करता रहा है। ‘अज्ञेय रचनावली’ की प्रकाशन-योजना पाठक के उसी गहरे लगाव को पूरा करने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयत्न है।
अज्ञेय की साहित्य-यात्रा निरन्तर उत्कर्ष की ओर जानेवाली गरिमामय यात्रा का इतिहास सामने लाती है। सच बात तो यह है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद के भारतीय साहित्य को वे दूर तक प्रेरित-प्रभावित करते रहे हैं। वह विद्रोही स्वभाव के रचनाकार हैं और भाषा, साहित्य, संस्कृति के सम्बन्ध में पारम्परिक अवधारणाओं का मूर्तिभंजन उनकी रचना-प्रकृति का अंग है। बहुधा उनका सृजन और चिन्तन रचना-कर्म के श्रेष्ठतम शिखरों का स्पर्श करता है। उनका प्रदेय अनेक अर्थों में एक क्रान्तिकारी देशभक्त, अलीकी चिन्तक, प्रयोग और प्रगति के प्रति आस्थावान, नयी राहों के अन्वेषी होने के कारण विशिष्ट और बहुवचनात्मक है। उनके सृजन और चिन्तन में ‘उड़ चल हारिल’ के अपराजेय संकल्प के साथ अपने को ‘आहुति बनाकर’ देखने और रचने का साहस है। वह मानवीय व्यक्तित्व की स्वाधीनता के लिए, स्वाधीन चिन्तन के लिए जीवन-भर संघर्ष करते रहे। ऐसे संघर्षशील रचनाकार सच्चे अर्थों में समाज, संस्कृति के निर्माता होते हैं। अज्ञेय के स्वाधीनता-प्रेम को एक ऐसा गौरव-बोध अनुप्राणित किये था-जो दृष्टि को व्यापक और उदार बनाता था, जिसके लिए स्वाधीनता केवल राजनीतिक सीमा में बँधी नहीं थी बल्कि जिसके सांस्कृतिक आयाम इतने व्यापक थे कि उसमें इतिहास और कला, पत्रकारिता और सम्पादन, दर्शन और साहित्य सब समा जाते थे। न उनका व्यक्तित्व खंडित था-न चिन्तन। वे भारत के स्वाधीनता-कामी समाज की मानो सजीव स्मृति थे। प्राचीन परिभाषा में सच्चे ज्ञानवान व्यक्ति को ‘बहुपठित’ नहीं, ‘बहुश्रुत’ ही कहते थे। ‘बहुश्रुत’ कैसा हो सकता है इसके अज्ञेय जी अद्भुत उदाहरण थे।
अज्ञेय उन इने-गिने भारतीय रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने बीसवीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्परा, भारतीय आधुनिकता के साथ साहित्य-कला-संस्कृति, भाषा की बुनियादी समस्याओं, चिन्ताओं, प्रश्नाकुलताओं से प्रबुद्ध पाठकों का साक्षात्कार कराया है। व्यक्तित्व की खोज, अस्मिता की तलाश, प्रयोग-प्रगति, परम्परा-आधुनिकता, बौद्धिकता, आत्म-सजगता, कवि-कर्म में जटिल संवेदना की चुनौती, रागात्मक सम्बन्धों में बदलाव की चेतना, रूढ़ि और मौलिकता, आधुनिक संवेदन और सम्प्रेषण की समस्या, रचनाकार का दायित्व, नयी राहों की खोज, पश्चिम से खुला संवाद, औपनिवेशिक आधुनिकता के स्थान पर देशी आधुनिकता का आग्रह, नवीन कथ्य और भाषा-शिल्प की गहन चेतना, संस्कृति और सर्जनात्मकता आदि तमाम सरोकारों को अज्ञेय किसी न किसी स्तर पर रचना-कर्म के केन्द्र में लाते रहे हैं। उन्होंने नयी रचना-स्थिति की चुनौतियों पर अनेक कोणों से विचार किया है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के उत्तर-छायावाद या छायावादोत्तर काल में शायद ही कोई रचनाकार अज्ञेय जैसा ‘विद्रोही स्वभाव’ लेकर सामने आया है। भारतीय स्वाधीनता-आन्दोलन में भागीदारी करने के कारण वे जेल गये, यातनाएँ झेलीं। लेकिन स्वाधीनता, निर्भयता का दामन कभी नहीं छोड़ा। अपनी संस्कृति, परम्परा की ओर मुड़ने की अपनी जड़ों की तलाश की ललक रहने का परिणाम यह हुआ कि समय-समाज-इतिहास द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों के बीच ‘नयी राहों का अन्वेषण’ अस्वीकार के साहस से सम्भव बना सके। भारतीय आधुनिकता, बौद्धिकता के नवअंकुरण-‘राही नहीं, नई राहों के अन्वेषण’ की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति हमें अज्ञेय और उनकी समवर्ती पीढ़ी के सृजन-चिन्तन में होती दिखाई देती है-इस पीढ़ी के रचना-कर्म में पाठक को वह पहचान स्पष्ट उभरती दिखाई देती हैं जिसे अज्ञेय जी ने ‘नयी रचना-स्थिति के तर्क का पूरी तरह स्वीकार’ कहा है। उन्होंने अपने सृजन-चिन्तन में इस परिस्थिति की सजग पड़ताल करने में पहल की और साहित्य की नयी चिन्ताओं, समस्याओं, चुनौतियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया। ‘सप्तकों’ की भूमिकाओं में नवीन साहित्य-प्रवृत्तियों की पैरवी करते हुए उन्होंने नवीन सैद्धान्तिक स्थापनाएँ कीं और हिन्दी में नवीन समीक्षा-शास्त्र की नींव डाली है। इन सैद्धान्तिक स्थापनाओं का नवीन साहित्यालोचन पर गहरा असर है। कवि-कर्म की प्रमुख समस्या ‘साधारणीकरण और सम्प्रेषण’ को मानने के बाद ‘दूसरा सप्तक’ के सम्पादकीय में उन्होंने साफतौर पर कहा-‘‘लेकिन जैसे-जैसे बाह्य वास्तकिता बदलती है वैसे-वैसे हमारे उससे रागात्मक सम्बन्ध जोड़ने की प्रणालियाँ भी बदलती हैं-और अगर नहीं बदलतीं तो उस बाह्य वास्तविकता से हमारा सम्बन्ध टूट जाता है। कहना होगा कि जो आलोचक इस परिवर्तन को नहीं समझ पा रहे हैं, वे उस वास्तविकता से टूट गये हैं जो आज की वास्तविकता है। उससे रागात्मक सम्बन्ध जोड़ने में असमर्थ वे उसे केवल बाह्य वास्तविकता मानते हैं, जबकि हम उससे वैसा सम्बन्ध स्थापित करके उसे आन्तरिक सत्य बना देते हैं।’’ दरअसल, परम्परागत मूल्यों को तोड़ने-छोड़ने के साथ उन्होंने ‘स्वाधीनता’, ‘व्यक्ति-स्वातन्त्र्य’ जैसे नये मूल्यों को स्थापित करने वाली ‘दृष्टि’ को विकसित किया है। अज्ञेय द्वारा सम्पादित चारों सप्तकों की भूमिकाओं ने हिन्दी चिन्तन के रूढ़िवाद, रीतिवाद, छायावादी भावुक संस्कारों पर आघात करते हुए नये बौद्धिक विवेक, वयस्क चिन्तन का प्रवर्तन किया है। अज्ञेय आधुनिक संवेदना से सम्पन्न बौद्धिक रुझानों के रचनाकार हैं और उनके लिए रचनाकर्म हृदय की मुक्तावस्था न होकर बुद्धि की मुक्तावस्था है। बुद्धि की मुक्तावस्था से अर्जित स्वाधीनता-बोध के कारण ही अज्ञेय हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक विवादास्पद रचनाकार रहे हैं।
अज्ञेय के रचनाकार ने ‘स्वाधीन मनुष्य’ और ‘स्वाधीन चिन्तन’ के लिए अपने आत्म-बोध, आत्मान्वेषण, आत्म-समर्पण और दायित्वपूर्ण सामाजिकता को एक विलक्षण संयम-सन्तुलन से साधा है। हिन्दी के आधुनिक साहित्य में भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, मुक्तिबोध जैसे बड़े लेखक हैं। लेकिन इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो अज्ञेय की तरह इतनी विधाओं में शीर्ष चक्रवर्तित्व स्थापित करता हो। अज्ञेय कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, संस्मरण, डायरी, यात्रावृत्त, अनुवाद, पत्रकारिता सभी में शिखर पर रहे हैं। नये लेखकों के संवर्द्धन में साहित्य की कोई भी दीवार टटोलिए उसमें अज्ञेय के हाथ की लगी ईंट मिल जाएगी। रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रमेशचन्द्र शाह, नन्दकिशोर आचार्य, मनोहरश्याम जोशी, कोई भी रचनाकार हो, उसमें अज्ञेय की प्रेरणा बाँसुरी की तरह बजती मिलेगी।
अज्ञेय को पुराने मठाधीशों, आचार्यों, विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकताओं के पाठकों-आलोचकों से निरन्तर विरोध झेलना पड़ा। इस अन्धी, विरोधी हिन्दी आलोचना से जुड़ा एक पीड़ादायक इतिहास है। कभी उन्हें टी.एस. एलियट और पश्चिम का नकली रचनाकार कहा गया, कभी ‘विदेशी दलाल’। हिन्दी में ‘विदेशी साहित्य का डाकिया’ और ‘कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम’ का अमेरिकी प्रचारक। क्या-क्या नहीं कहा गया। लेकिन उन्होंने सब धैर्य एवं संयम से ‘चुप्पा’ बनकर झेला तथा विरोधों से शक्ति पायी है। ‘शेखर : एक जीवनी’ जैसे उपन्यास को लेकर कितना विरोध-बावेला मचा। शील-अश्लील, नैतिकता-अनैतिकता के प्रश्न उठाकर अज्ञेय का सामाजिक बहिष्कार किया गया तथा जगह-जगह ‘शेखर : एक जीवनी’ की प्रतियों को जलाया गया। जबकि ‘शेखर : एक जीवनी’ एक नया उपन्यास प्रयोग है और हिन्दी-उपन्यास-परम्परा में नया मोड़ लाने वाला अपूर्व अद्भुत उपन्यास। आज हिन्दी में ‘आधुनिकता’ लानेवाला पहला आधुनिक उपन्यास प्रयोग भी इसे कहा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि ‘गोदान’ के बाद हिन्दी का दूसरा क्लासिक उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ ही है। ‘शेखर : एक जीवनी’ जीवनी है या आत्मकथा-इसको लेकर हिन्दी आलोचना में बड़ा भारी ‘महाभारत’ हुआ है। आलोचना के कई केन्द्रों से यह प्रचार किया गया कि शेखर तो अज्ञेय की अपनी जीवनी है और शेखर तथा अज्ञेय एक ही हैं। अभी तक इसके दो भाग ही प्रकाशित हुए हैं और तीसरे भाग की चर्चा भर है। कई बार अज्ञेय ने इसके लिखे जाने की चर्चा की है-अपने साक्षात्कारों में और पत्र-पत्रिकाओं में। अज्ञेय जी के परम निकट मित्र डॉ. रमेश चन्द्र शाह ने मुझे बताया है कि उन्होंने ‘शेखर : एक जीवनी’ के तीसरे भाग को लिखने के लिए पेंसिल से लिखकर कुछ नोट्स बनाये थे। लेकिन तीसरा भाग लिखा ही नहीं है। मेरा दुर्भाग्य कि बहुत प्रयास करने पर भी पेंसिल से लिखे तीसरे भाग के नोट्स मुझे प्राप्त नहीं हो सके। मेरे देखने में वह कहीं भी आज तक प्रकाशित नहीं हुआ। इस तरह ‘शेखर : एक जीवनी’ दो भागों में प्रकाशित अधूरा उपन्यास है। इसलिए मैं इन दो भागों को ही पूरा मुकम्मल उपन्यास मानने को विवश हूँ। अज्ञेय जी के बेहद आत्मीय नन्दकिशोर आचार्य ने भी एक परिसंवाद में हिस्सेदारी करते समय इसके दो भागों की ही चर्चा की है, क्योंकि तीसरा भाग उपलब्ध नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि शेखर ही ‘नदी के द्वीप’ में भुवन बनकर अवतरित हुआ और शशि वहाँ रेखा बनकर। ऐसी स्थिति में मुझे नहीं पता सच क्या है। हाँ, ‘अपने-अपने अजनबी’ अस्तित्ववादी मुहावरे में स्वाधीनता-स्वतन्त्रता की खोज है। यहाँ मैंने कई रचनाकारों के साथ मिलकर किए गये उपन्यास प्रयोग ‘बारह खम्भा’ के साथ उनके दो अधूरे उपन्यास, ‘छाया मेखल’ और ‘बीनू भगत’ को दे दिया है। इन दोनों अधूरे उपन्यासों का प्रकाशन आदरणीया इला डालमिया के प्रयासों से सम्भव हुआ था। प्रयास के इसी दौर में इला जी ने अज्ञेय की शेष बची कविताओं को ‘मरुथल’ नाम से प्रकाशित करवाया था। इस काव्य-संग्रह को अज्ञेय जी की कविताओं के खंड में दे दिया गया है।
अज्ञेय जी के विचार से उस सृजन-कर्म की कोई प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, जिसमें सांस्कृतिक अस्मिता नहीं बोलती है। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता ही व्यक्तित्व एवं अस्तित्व का निर्माण करती है। सांस्कृतिक अस्मिता का आग्रह प्रसाद जी, निराला जी में कम नहीं रहा और न अज्ञेय जी के गुरु स्थानीय राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त में। अन्य रचनाकारों के प्रति श्रद्धा-भाव होते हुए भी अज्ञेय के मन में यदि किसी रचनाकार के प्रति सर्वाधिक आकर्षण रहा है-तो जयशंकर प्रसाद के प्रति। साहित्यिक परम्परा में अज्ञेय जी ही प्रसाद के सच्चे उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं। दोनों में अद्भुत समानताएँ हैं। नयी कविता के सिद्धान्तकार विजयदेवनारायण साही जी ने कहा है कि अज्ञेय ने ‘समरसता’ के दर्शन के बजाय ‘निर्वैयक्तिक अनुभूति’ के प्रश्न उठाकर एक बार फिर से ‘दर्शन को अनुभूति’ में घुलाने की राह निकाली। विवेक और हृदय, संकल्प और विवशता को ‘नये योग’ में बाँधा। यही कारण है कि अज्ञेय प्रयोगवाद-नयी कविता की धारा-को मोड़ने में समर्थ रहे। टी.एस. एलियट, लारेन्स, पाउंड आदि से प्रभावित होने पर भी अज्ञेय उनमें से किसी का अनुकरण नहीं करते। उनकी सांस्कृतिक मनोभूमिका में पश्चिम नहीं बोलता-भारतीयता की पावन कालिदासीय लय बोलती है।
दरअसल, अज्ञेय किसी भी विचारधारा की गुलामी स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए हैं। अपने रचना-कर्म में वे विचारधाराओं का अतिक्रमण करते हैं, उनकी दृष्टि में मानव के लिए स्वाधीन-चिन्तन की स्वाधीनता से बड़ा कोई मूल्य नहीं है। इस स्वाधीन-चिन्तन के कारण ही हिन्दी की असाध्यवीणा अज्ञेय के हाथों ही बजी। वे ही इसके प्रियंवद साधक हैं।
‘अज्ञेय रचनावली’ का विषय और विद्या दोनों दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर विभिन्न खंडों का विभाजन किया गया है। कुल मिलाकर ये अठारह खंड हैं :
1. पहला खंड-काव्य
2. दूसरा खंड-काव्य
3. तीसरा खंड-कहानियाँ
4. चौथा खंड-उपन्यास
5. पाँचवाँ खंड-उपन्यास
6. छठा खंड-उपन्यास
7. सातवाँ खंड-भूमिकाएँ
8. आठवाँ खंड-यात्रा-वृत्त
9. नौवाँ खंड-डायरी
10. दसवाँ खंड-निबन्ध
11. ग्यारहवाँ खंड-निबन्ध
12. बारहवाँ खंड-निबन्ध
13. तेरहवाँ खंड-निबन्ध
14. चौदहवाँ खंड-संस्मरण, नाटक, निबन्ध
15. पन्द्रहवाँ खंड-साक्षात्कार
16. सोलहवाँ खंड-साक्षात्कार और पत्र
17. सत्रहवाँ खंड-अनुवाद
18. अठारहवाँ खंड-अनुवाद
इस ‘अज्ञेय रचनावली’ को क्रमबद्ध करने में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा है। किन्तु इस बात का ध्यान रखा गया है कि यह रचनावली अधिकाधिक उपयोगी हो सके। इस विशाल योजना की परिपूर्णता में अनेक मित्रों ने अपना अमूल्य सहयोग दिया है जिसके बिना निश्चय ही यह कार्य पूर्ण नहीं हो पाता।
यहाँ मैं, परम श्रद्धेय स्वर्गीय डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी को स्मरण करता हूँ जिनकी स्मृति से प्रेरणा की सुगन्ध आती है। परम पूजनीय डॉ. कर्णसिंह जी (वत्सल-निधि-न्यास के अध्यक्ष) के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिनके आशीर्वाद ने इस कार्य की हर सम्भव बाधा को मुझसे दूर रखा है। वत्सल-निधि-न्यास के सदस्य सचिव और मेरे आदरणीय गुरुवर प्रोफेसर इन्द्रनाथ जी चौधुरी के स्नेह-शक्ति-संबल के बिना यह कार्य सम्भव नहीं था। उनकी प्रेरणा मेरी शक्ति रही है। वत्सल-निधि-न्यास के सम्पादक मंडल के सदस्य (स्व.) डॉ. कन्हैयालाल नन्दन, डॉ. रमेशचन्द्र शाह, डॉ. नन्दकिशोर आचार्य, श्री अशोक वाजपेयी के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिनके समय-समय पर दिए गये सुझावों से मैं लाभान्वित हुआ हूँ। कविवर सौमित्र मोहन की सलाह का आभारी हूँ।
अन्त में साहू श्री अखिलेश जैन, श्री आलोक जैन और भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया जी तथा भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से जुड़े डॉ. गुलाबचन्द्र जैन का कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने तत्परता और लगन से इस योजना को सम्पूर्ण रूप दिया है। इन शब्दों के साथ ‘अज्ञेय रचनावली’ का सम्पूर्ण रचना-संसार हम वृहद् हिन्दी विश्व परिवार को समर्पित करते हैं। अपनी तमाम भूलों के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
-कृष्णदत्त पालीवाल
पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
हिन्दी-विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली