भैरवी! जान पड़ता है तू उस ‘भैरवराग’ को भूल गयी। संगीतविद्या की पंडिता और भूल गयी! आश्चर्य!! अपनी (भैरवी -) रागिनी गा-गाकर तू प्रभात को प्रकृति-प्रांगण में रोज ही बुलाती है और उसे बाल-दिवस बनाकर ‘आसावरी’ सुनाती है, दोपहर के समय, जब प्रभात पूर्ण युवा हो जाता है, तू ‘सारंग’ गाकर उस युवक पर मोह-रंग चढ़ाती है, दिवस का पतन प्रारम्भ होते ही तेरे कंठ से ‘पीलू’ का प्रादुर्भाव होता है - तू गाती है ‘डगमग हालै मोरी नैय्या रे-ए-ए-ए-ए कन्हैया बिन!’- पर कभी भैरवराग क्यों नहीं गाती?
सन्ध्या सुकुमारी के प्रकृति–सिंहासन पर बैठते ही तू उसके कल्याण के लिए ‘श्यामकल्याण’ का स्वर छेड़ देती है और उसके बाद ‘इमन’, ‘खम्माच’, ‘कान्हरा’, ‘दरबारी’, ‘मालकोष’ न जाने कौन-कौन राग-रागिनियाँ अलापती चली जाती है। मानो तुझे निशा के अवसान की सुध ही नहीं रहती, मानो तू समझती है कि निशा की मोहनिद्रा ही संसार के लिए अधिक शान्तिकर है। पर संसार से पहले तेरी ही आँखें खुलती हैं। आखिर तू योगिनी ही तो ठहरी। जिस समय से तेरा रोदन आरम्भ होता है। तू ‘बिहाग’ के स्वर में कहती है - ‘सबै दिन नाहिं बराबर जात।’ यौवन के उत्थान की छाती ही पर उसके पतन की भूमिका लिखी जाती है, फूलों का मस्त होकर खिलखिलाना ही उनके टूटने, बन्धन में पड़ने, दलित-मलित होने, सबकुछ खोने और अन्त में पैरों से रौंदे जाकर धूल में मिल जाने का कारण होता है! पिछली रात के पहले तू चीखकर ‘सोहनी’ क्या गाती है कलेजा निकाल देती है। उस समय के तेरे आँसू, सोते हुए लताद्रुमों की छाती पर जम जाते हैं!’ ‘परज’ गाती-गाती तो तू बेहोश हो जाती है पर अभागिनी, कभी भैरवराग क्यों नहीं गाती?
सचमुच तू उसे भूल गयी। अच्छा मैं सुनाऊँ? ठीक-ठीक तो याद न होगा फिर भी उसकी झलक दिखा सकता हूँ। इसका यह अर्थ न समझ लेना कि मैं तुझसा बड़ा संगीतज्ञ हूँ। मैं तो एक साधारण कवि मात्र हूँ। कवि ही तो संगीत का सृष्टा है? हाँ, अब सुन! भैरवराग का देवता है विश्वप्रेममय निर्विकार परन्तु भयंकर क्रोध, फल है -सुन्दरशान्ति। भैरवराग के गान के नायक वृन्दावन के मनमोहन नहीं, कुरुक्षेत्र के चक्रपाणि, कर्मवीर कृष्ण हैं, देशद्रोही जयचन्द नहीं, रणवीर पृथ्वीराज हैं, (तीन सौ वर्ष पहले के) बीकानेर के राजा नहीं, उदयपुर के ‘राणा’ हैं, मीरजाफर नहीं सिराजुद्दौला हैं। उस कविता की पदावली -
‘सुन्दर रूप सोहाय -
कमरिया नागन-सी बलखाय।’
की तरह की कायरतामयी नहीं होती, उसमें तो श्रृंगार की मदिरा के स्थान में क्रोध का ज्वालामुखी रहता है। भैरवराग में गाया जा सके ऐसा गान सब नहीं लिख सकते! उस कविता के विधाता ‘भूषण’, ‘बायरन’, ‘काबूर’, ‘बंकिम’, ‘सावरकर’ या ‘लेनिन’ ही हो सकते हैं! मेरा स्वर शुद्ध नहीं, हृदय में यथेष्ट बल भी नहीं फिर भी तुझे याद दिलाने के लिए टूटा-फूटा भैरवराग सुनाता हूँ, सुन -
भैरवी नाच रही है
व्याह में दानवता के!
सभी को मोह लिया है
राग विप्लव का गाके!
रणस्थल-रंगभूमि पर
तना अम्बर-वितान है,
रक्त-रेखाओं का दल
सजा ‘चौका’ समान है!
भैरवी नाच रही है!!!
* * *
डटे योद्धा-बाराती
धरे केसरिया बाना
देखते हैं वह नर्तन
और सुनते हैं गाना
ताल, नर-मुंड दे रहे
धमाधम रुंडों से गिर
झनझनाकर स्वर भरता
कृपाणों का दल अस्थिर!
भैरवी नाच रही है!!!
* * *
तुपक का तर्जन गर्जन,
भयंकर ‘हा-हा’ करना,
कटे मुंडों का रव है -
भैरवी का स्वर-झरना!
योगिनी दल के खप्पर
छलकते शोणित से भर
वही तो है गुलाबजल
उसी से तन सबका तर!
भैरवी नाच रही है!!!
* * *
रणस्थल के मंडप में
रुद्र का पूजन होता
‘हाय! - हा! - हो-हो-हो!!’ ही
मन्त्र उच्चारण होता!
पुष्प अंगों के चढ़ते
पूत हो शाणित-सर में
पड़ी माला मुंडों की
उग्र के कंठ-अधर में!
भैरवी नाच रही है।