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निबंध

यह कौन साहित्य है

पांडेय बेचन शर्मा उग्र


सत्‍यम? शिवम्? सुन्‍दरम्?

आह, ‘विशाल-भारत’ - सम्‍पादक!

‘बाक़ी है दिल में शेख के हसरत गुनाह की!’

(पढ़िए - ‘विशाल भारत’ पृष्‍ठ 638, दूसरा कॉलम - वर्ष-1, खंड-2, संख्‍या-5, अगहन, संवत् 1985)

इतने कवियों की कविताएँ सुनी जाने के बाद टकापन्‍थ प्रवर्तक कविवर कुक्‍कुटराजजी काव्‍य-कानन में कूदे। आपके ‘कुकड़ूंकूं’ करते ही जनता ने हर्षध्‍वनि की और उत्‍सुकता से उनकी ओर दृष्टिपात किया। कुक्‍कुट कविराज ने चोंच चलाते, पूँछ हिलाते और चोटी चमकाते हुए बाँग देना शुरू किया -

‘वोट दे दो रे! भाई, भिखारीलाल को,
    लोगों की बातों में हरगिज न आओ
    खद्दर न पहनो, न जेलों में जाओ।
    है चुंगी चुनाव चली कल को -
    वोट दे दो रे! भाई, भिखारीलाल को।
    बढ़-बढ़ के लाला ने दावत खिलायी,
    कोठी हवेली दुकानें बनायी।
    सीधे हैं, जाने न छल-बल को -
    वोट दे दो रे! भाई, भिखारीलाल को।’

अहा! कुक्‍कुट कवि की इस परोपकार प्रवृत्ति पर सब कवियों ने साधुवाद की शिला सरकानी शुरू की, ‘मरहवा’ की मटकी फोड़ दी, ‘वाह-वाह’ की बाँह तोड़ दी। धन्‍य हैं, ऐसे अशरण-शरण कविराज! देखिए न सेठजी के‍ लिए, आपके दराजदिल-दालान में कैसे-कैसे प्रेम के पीपे भरे पड़े हैं - वाह-वाह खूब!

कवि कुक्‍कुट जी की ‘कुकड़ूं कू’ समाप्‍त होते ही घटना, घन-घमंड घोंघा, घुग्‍घू घासलेटानन्‍दजी, अपनी अकड़ में घोर घोषणा करते हुए, उसी प्रकार बिना बुलाये पंच बनकर मंच पर आ आरूढ़ हुए, जिस प्रकार ‘साइमन सप्‍तक’ भारत के माल पर आ धमका। सभापति श्री गरुड़देवजी ने गुस्‍से से गुर्राते हुए कहा, ‘अच्‍छा, पढ़िये, पहले आप ही पढ़िए। तब श्री घासलेटानन्‍दजी ने अगाई-पिछाई तोड़ और कुंडे-कुंडी फोड़कर साहित्‍य क्षेत्र का सुविस्‍तीर्ण मैदान पा महामोद मनाते हुए नीचे लिखा सरल आलाप करना शुरू किया -

‘गोबिन्‍द-भवन की कथा सुनो, वेश्‍याओं के अट्टे देखो,
    लो लोट "लाटरी" के लुटते बाजारों में सट्टे देखो।
    लड़कों पर प्‍यार करें टीचर, वह चाकलेट चर्चा सुन लो,
    विधवा व्‍यभिचार प्रचार करे, सो सुनो शोक से सिर धुन लो।
    हाँ, एक-एक करके तुमको, सब विस्‍तृत बात बताता हूँ।
    परदे में पाप करें कैसे, सो सब तुमको समझाता हूँ।’

श्री घासलेटानन्‍दजी की अभी भूमिका भी समाप्‍त न हुई थी कि काक, कंक, कारंडव, कीर आदि कवियों ने कोपपूर्ण काँव-काँव करनी शुरू कर दी। नहीं, नहीं हम यहाँ ऐसी विचित्र विधि सुनना नहीं चाहते। घासलेटानन्‍दजी बैठ जाइए। इस सारहीन सिखावन से संसार को बख्शिए। इनके विपरीत दूसरे कवियों ने कहा, ‘कहिये, कहिये, जरूर कहिये। बराबर सिलसिला जारी रखिए। जाति-जागृति का जतन जितनी जल्‍दी जनता को जनाया जाए, उतना ही अच्‍छा है।’ ‘कहिए, कहिए, घासलेटानन्‍दजी कहिए’ की आवाज ने कविवरजी की नाक में दम कर दिया। वे ‘हाँ’ ‘ना’ की खींचातानी में त्रिशंकु की तरह बीच में लटक गये। युगल चुम्‍बक के मध्‍य में पड़ी सुई की तरह सिटपिटाने लगे। अड़ें या बढ़ें, हटें या डटें, चहकें या बहकें, जमें या रमें, उन्‍हें कुछ न सूझ पड़ा। अन्‍त में श्रीसभापतिजी के आदेश से आप अधवर में ही बैठ गये और विरोधियों की बुद्धि पर बड़बड़ाते हुए अपनी अक्‍ल की स्‍तुति करने लगे।


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