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निबंध

तुलसी दल

पांडेय बेचन शर्मा उग्र


लोग अक्‍सर पूछते हैं कि, ‘ऐसी अच्‍छी जानकारी रखते हुए भी तुलसीदास का प्रचार कम्‍युनिस्‍ट-मत के विरुद्ध आप क्‍यों नहीं करते? क्‍यों नहीं स्‍वतन्‍त्र भारत की सरकार पर जोर डालते कि विश्‍वशान्ति के लिए वह तुलसीदास के मत का प्रचार सारे संसार में करावे?’ इसके उत्तर में पहले मैं यह कहता हूँ कि वर्तमान विश्‍व शान्ति चाहता नहीं, भले ही लाउडस्‍पीकर से दिन में चौबीस घंटे और महीने में तीस दिन ॐ शान्ति: ॐ शान्ति: की आवाज बुलन्‍द करता हो। वर्तमान विश्‍व के महान या क्षुद्र राष्‍ट्रों के बजट पर एक निगाह डाल यह जाँचने से कि कितना व्‍यय युद्ध के नाम पर होता है और कितना शान्ति के नाम पर, सहज ही ज्ञात हो जाएगा कि विश्‍व का विश्‍वास किस पर विशेष है - युद्ध या शान्ति? युद्ध की तैयारी के मुकाबले में शान्ति की तैयारी के लिए रुपये में दमड़ी भी लगाने को दुनिया के दिमागदार दानिशमन्‍द (!) तैयार नहीं! ऐसे वातावरण में तुलसी-मत से दुनिया का इलाज कराने की कोशिश वैसी ही है जैसे अभागे कोरियनजनों के दर्द की दवा के लिए 38 वीं अक्षांश-रेखा पर तुलसी के पौधे लगाना - अमेरिकन और चीनी ज्‍वालामुखी तापों के बीच में। अभिप्राय यह कि फिलहाल दुनिया शान्ति चाहती नहीं, अत: तुलसीदास के शब्‍दों से यही सत्‍य मालूम पड़ता है कि -

‘समुझि सुनीति कुनीति रत जागत ही रह सोइ,
    उपदेसिबो जगाइबो तुलसी भलो न होइ।’

तुलसीदास का प्रचार होगा तो महँगे एटम बमों, हवाई जहाजों, युद्धपोतों और तोपों के (अमेरिका और रूस दोनों के) संग्रह व्‍यर्थ चले जाएँगे। युद्ध की घनघोर तैयारी करते हुए शान्ति-शान्ति चिल्‍लानेवाले वर्तमान महाराष्‍ट्र पूर्व की ओर मुँह किये सीधे दक्खिन चले जा रहे हैं। सो, निकट भविष्‍य में संसार में अशान्ति की सम्‍भावना ही अधिक है। ऐसा न होता तो शान्ति के पैगम्‍बर महात्‍मा गांधी की हत्‍या न की जाती। मैं गांधीजी की हत्‍या का कारण नाथूराम गोडसे के पागलपन से अधिक वर्तमान विश्‍व की स्‍वार्थी, हत्‍यारिणी, असाधु मनोवृत्ति को मानता हूँ। अब दुनिया का नाश हो जाने के पहले शान्ति का कोई दूसरा अवतार होता मुझे तो नहीं नजर आता और नाश हो जाने के बाद शान्ति हुई भी तो क्‍या?

दूसरी बात मैं यह कहता हूँ उनसे जो यह समझ बैठे हैं कि तुलसीदास का प्रचार होने से कम्‍युनिस्‍ट मतवालों को धक्‍का लगेगा कि मैं तुलसीवाद को कम्‍युनिस्‍टवाद से उग्रतर मानता हूँ। कम्‍युनिस्‍ट अर्थवादी, तुलसीदास परमार्थ वादी। कम्‍युनिस्‍ट को काम चाहिए, दाम चाहिए, रो‍टी चाहिए, बोटी चाहिए; उसे दुनिया के सभी सुख चाहिए जिन्‍हें तुलसीदास मायामय और मिथ्‍या मानते हैं। कम्‍युनिस्‍ट को प्रोपैगंडा चाहिए, डंडा चाहिए, प्रतिपक्ष को मार-मार कर ठंडा या कंडा कर देने के लिए, पर, तुलसीदास का ‘मनुष्‍य’ शुद्ध हृदय से चाहता है कि -

कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो,
    श्री रघुनाथ कृपालु कृपा तें सन्‍त सुभाव गहौंगो।
    जथा लाभ सन्‍तोष सदा, काहूसों कछु न चहौंगो,
    परहित निरत निरन्‍तर, मन, क्रम, बचन नेक निबहौंगो,
    परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक ना दहौंगो,
    बिगत मान सम सीतल मन पर गुन नहि दोष कहौंगो।
    परिहरि देह जनित चिन्‍ता, दुखसुख समबुद्धि सहौंगो,
    तुलसीदास प्रभु यहि पथ रहि अविचल हरि भगति लहौंगो।

यह साम्‍यवाद देखिए - ‘सम सीतल मन’ जिसमें ‘दुखसुख समबुद्धि सहौंगो’ शक्तिमय तटस्‍थ निश्‍चय।

कम्‍युनिस्‍ट कहते - और सब ठीक तुलसी में लेकिन यह ‘श्री रघुनाथ कृपालु कृपा’ की कामना का वर्डिस, कायरता, कमजोरी है। मेरा ख्‍याल है कर्म में दम्‍भ से बचने के लिए ही तुलसीदास ‘श्री रघुनाथ कृपा’ की दुहाई देते हैं न कि अकर्मण्‍य बनने के लिए, फिर, कार्ल मार्क्‍स, लेनिन और स्‍टालिन के चित्र आप पूजें तो ठीक प्रगतिगामी और तुलसीदास ‘श्री रघुनाथ-कृपालु कृपा’ का भी सहारा लें तो दुर्गतिगामी। यहीं पर भावुकता अन्‍धी नजर आती है। मार्क्‍स की बड़ाई क्‍या? यही तो कि वह सबका भला चाहनेवाले गरीब परवर थे? मैं पूछता हूँ तुलसीदास के ‘श्री रघुनाथ’ अगर मार्क्‍स से करोड़ों वर्ष पहले से ही गरीब परवर हों तो? सर्वहारा के हितैषी हों तो? दशरथ के बेटे के राम वे जानें, पर तुलसी के राम कम्‍युनिस्‍टक कमनीयता में किसी भी कम्‍युनिस्‍ट से कदमों नहीं, कोसों आगे हैं।
ऐसे राम दीन-हित कारी

अति कोमल, करुना निधान बिनु कारन पर उपकारी!
    साधन हीन, दीन निज अघ बस सिला भाई मुनि-नारी,
गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारी!
    हिंसारत निषाद तामस बपु पशु समान बन चारी,
भेंट्यो हृदय लगाह प्रेम बस नहिं कुल जाति बिचारी!
    यद्यपि द्रोह किये सुरपति सुत कहि न जाए अति भारी,
सकल लोक अवलोकि सोकरत सरन गये भय टारी
    बिहँग जोंनि आमिष अहार पर गीध कौन व्रत धारी?
जनक समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी!
    अधमजाति सबरी जोषित जड़ लोक वेद तें न्‍यारी,
जाति प्रीति दै दरस कृपा निधि सोउ रघुनाथ उधारी।
    कपि सुग्रीव बन्‍धु-भय व्‍याकुल आयो शरन पुकारी,
सहि न सके दारुन दुख जन के हत्‍यो बालि सहि गारी!
    रिपु को अनुज विभीषण निसिचर कौन भजन अधिकारी...?
सरन गये आगे ह्वै लीन्‍हों भेट्यो भुजा पसारी!
    अशुभ होइ जिनके सुमिरंतें बानर, रीछ बिकारी...
वेद विदित पावन किये ते सब महिमा नाथ तुम्‍हारी!
    कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिनकी तुम बिपति निवारी,
कलिमल ग्रसित दास तुलसी पर काहे कृपा बिसारी!


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