‘रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना होगा
क्या मिलोगे न कभी राह में आते जाते।।’
इलाहाबाद के पंडित रामनरेशजी त्रिपाठी हिन्दी-कविता साहित्य में बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। वह स्वयं सुकवि हैं, सुलेखक हैं, काव्य मर्मज्ञ हैं, देश-भक्त हैं, सम्पादक हैं, और भी न जाने क्या-क्या हैं! आपकी कृपा से कविता-प्रेमियों को बहुत लाभ पहुँचा है। आपके द्वारा सम्पादित कविता-कौमुदी के दो भाग पहले निकल चुके हैं और उनका आदर भी हिन्दी-संसार में खूब हुआ है। अब उन्होंने कविता-कौमुदी का तृतीय-भाग प्रकाशित किया है। इसमें संस्कृत-भाषा के 57 कवियों की कविताएँ संगृहीत हैं और सरल भाषा में उनका अर्थ भी दे दिया गया है। इसका सम्पादन एक साहित्याचार्य महोदय ने किया है। हमें इस संग्रह में कुछ त्रुटियाँ प्रतीत हुई हैं, और हम उन्हीं पर कुछ निवेदन करना चाहते हैं। आशा है, हमें त्रिपाठी जी के कोपानल में दग्ध न होना पड़ेगा।
संस्कृत भाषा कई सहस्र वर्षों तक कविता की एकमात्र भाषा रही है। समय-समय पर अनेक सुकवि अपनी-अपनी रचनाओं से संस्कृत-साहित्य को अलंकृत करते रहे हैं। यद्यपि उनकी सब कृतियाँ आज उपलब्ध नहीं हैं, तो भी जो कुछ मिलती हैं, वही इस जमाने में, जबकि संस्कृत-भाषा किसी-किसी के मतानुसार मृत है, किसी भी सभ्य और जीवित भाषा से टक्कर लेने के लिए पर्याप्त है। आर्य कवीश्वरों की यशोरक्षा के लिए अलम् हैं। भले ही उनमें पूर्व और पश्चिम के सन्धि-स्थल में खड़ा होने की क्षमता न हो! और वे, आर्य कविगण विश्व–साहित्य में स्थान पाने के अनुपयुक्त हों, फिर भी जो कुछ उन्होंने कहा है, वह उनका अपना है। उस पर उनकी छाप लगी हुई है। वह उनकी अपनी सूझ-बूझ है। वह उनके हृदय की, उनके मस्तिष्क की उपज है। किसी की चोरी नहीं है। यद्यपि इस छोटी सी पुस्तक में उन सब कवियों का स्थान नहीं हो सकता था, दिया भी नहीं गया, किंतु संग्रह किस क्रम से हुआ है, यह हमारी समझ में न आया। समझ में आये कैसे? सम्पादक-महोदय ने भूमिका लिखने में पूरी कंजूसी की है। हाँ पूरी कंजूसी! अजी साहब, सम्पादकीय वक्तव्य है ही नहीं, अतएव यह जानने का कोई उपाय नहीं है, कि इन 57 कवियों की रचनाओं को ही सम्पादक ने क्यों पसन्द किया? और योग्य होने पर भी अन्य कवियों को इस संग्रह में स्थान क्यों नहीं मिला। स्थानाभाव का कारण तो नहीं है, इतना हम अपनी ओर से बलपूर्वक कह सकते हैं। कारण, पुस्तक के अन्त में एक बहुत विस्तृत कौमुदी-कुंज है, अभी तक तो लता कुंज, आदि ही सुन पड़ते थे, अब त्रिपाठी जी की कृपा से कौमुदी-कुंज के भी दर्शन होने लगे। हिन्दी भाषा-भाषियों का सौभाग्य! हाँ, तो स्थानाभाव के अतिरिक्त कोई और ही गूढ़ कारण होगा? इस रहस्य पर प्रकाशक महोदय ने भी अपनी भूमिका में कुछ प्रकाश डालने का कष्ट नहीं स्वीकार किया।
फिर काव्य-प्रकाश रचयिता मम्मट भट्ट को इसमें स्थान क्यों नहीं मिला, यह कह सकना हमारे जैसे नाहर के लिए भी असम्भव है। कविता कौमुदी (अवश्य ही तृतीय भाग) के सब पन्ने उलट डालिये, तो भी निम्नलिखित कवियों का नाम नहीं मिलेगा। ‘काव्यादर्श’ और ‘दशकुमारचरित’ आदि के प्रणेता दंडी, काव्यालंकार निर्माता रुद्रट, ‘चंड कौशिक’ - प्रणेता आर्यक्षेमीश्वर, ‘मृच्छकटिक’ के शूद्रक, विक्रम की सभा के नवरत्न घटकर्पर, ‘भट्टि-काव्य’ के भट्टि, ‘पंचतन्त्र’ के विष्णुशर्मा... कहाँ तक गिनावें, अभिनवगुप्त, गुणाढ्य, व्यांडि, शिल्हण और उमापतिधर आदि कवियों को क्यों इसमें स्थान नहीं मिला? इन लोगों की क्यों उपेक्षा की गयी है, यह बतलाना सम्पादक महाशय का काम है। हमारा नहीं! यदि कौमुदी-कुंज कुछ संक्षिप्त कर दिया जाता, और उस रिक्त-स्थान में यदि उन उपयुक्त कवियों के विषय में संक्षेप में ही कुछ कह दिया जाता, तो शायद ‘कविता-कौमुदी’ की शोभा में किसी प्रकार की बाधा न उपस्थित होती। लेकिन सम्पादक हैं, साहित्याचार्य, अतएव उनसे कुछ कहते भी डर लगता है। एक बात और है, उसमें वर्णानुक्रम से कवियों को स्थान मिला है! अन्यभागों से इसमें यह व्यतिक्रम क्यों हुआ? यह हम नहीं जानते! कविता-कौमुदी के प्रथम और द्वितीय भाग में समय के अनुसार और एक ही समय के कवियों को शायद गुणानुसार स्थान दिया गया है! किन्तु तृतीय भाग में बूढ़े बाबा बाल्मीकि पीछे भटक रहे हैं, और अकाल-जलद, महाशय आगे ही गम्भीर-घोष कर रहे हैं। सम्भवत: इसमें भी कोई रहस्य ही होगा।
महाशयो, थोड़ा-सा निवेदन अभी और है, वह यह कि इसमें प्रूफ की गलतियाँ बहुत हैं, प्रकाशक महाशय ने यद्यपि इसके लिए खेद प्रकट कर दिया है और ‘पाठकों से क्षमा प्रार्थना भी कर लिया है, तथापि हमें तो इससे जरा भी सन्तोष नहीं हुआ। पुस्तक शुद्ध रूप में निकालने में शायद कुछ ही अधिक देर लगती, किन्तु वह न करके अगले संस्करण में सुधारने का वादा किया है। इससे जबरदस्त हानि होने की सम्भावना है। पढ़नेवाले सब धनाढ्य नहीं होते। न हर एक संस्करण की पुस्तक ही बार-बार खरीदी जा सकती है। ऐसी दशा में जिनके हाथ में इस संस्करण की पुस्तक रहेगी, उन्हें गलतियों से आप कैसे बचाइएगा?’ हम केवल दो उदाहरण रखते हैं, ये श्लोक हैं, पंडितराज जगन्नाथ के। पृ.सं. 104 प. 18 से 21
‘आमूलाद्रत्न सानोर्मलय वलयिता दाचकूलात्पयोधे,
आबन्त: सन्तिकाव्य प्रणेन पटवसो विशङ्क बदन्तु!
मृद्वीकामध्य निर्यन्मसृण पद धुरी माधुरी साग्यसाजां
बाचाभाचार्यतया पदमनुभवितुं कोऽस्मि धन्यो मदन्य:’
सम्प्रत्युज्झितमासनं मधुरीमध्ये हरि: सेव्यते।
और भी इसी प्रकार की प्रूफ की अगणित गलतियों से पुस्तक परिपूर्ण है। क्या ऐसी भद्दी भूलों के लिए भी क्षमा प्रार्थना की जा सकती है? श्लोकों के अर्थ जो सरल भाषा में लिखे गये हैं, उन पर बहुत कुछ कहना है सो तो फिर कहेंगे। आज इतना कहे देते हैं, कि अधिकांश अर्थों में श्लोकों का भाव ठीक-ठीक व्यक्त नहीं हो सका। कम से कम हम तो हजार चेष्टा करने पर भी नहीं समझ सके। कवियों की कृतियों की विशेषताओं पर कुछ नहीं कहा गया पदों का अर्थ कहकर पिंड छुड़ाया गया है। ऐसी दशा में संस्कृत कवियों की बहुत गौरव हानि हुई है। बानगी फिर पेश करेंगे। आज तो अब विदा होते हैं। अच्छा। त्रिपाठी जी, प्रणाम।