(इसी दिसम्बर 1928 के प्रयाग के प्रसिद्ध ‘चाँद’ पत्र में उसी कार्यालय द्वारा प्रकाशित ‘अबलाओं का इन्साफ’ नाम्नी पुस्तक की आलोचना के सिलसिले में, श्रद्धेय पंडित बालकृष्ण भट्ट के सुपुत्र, पंडित जनार्दन भट्ट एम.ए. जो एक विख्यात स्थानीय विद्यालय के प्रधानाध्यापक भी हैं, लिखते हैं -)
‘विशाल भारत’ के सुयोग्य और श्रद्धेय सम्पादक पं. बनारसीदासजी चतुर्वेदी ने कुछ दिनों से हिन्दी संसार में एक नया शब्द गढ़ डाला है, जो हिन्दी की अखबारी दुनिया में ‘घासलेटी साहित्य’ के नाम से मशहूर हो रहा है। जहाँ तक मुझे मालूम हुआ है, चतुर्वेदीजी का मतलब ‘घासलेटी साहित्य’ से अश्लील साहित्य का है। पर ‘घासलेट’ से ‘अश्लीलता’ का अर्थ कैसे निकला तथा ‘अश्लीलता’ का भाव प्रकट करने के लिए चतुर्वेदी जी को इसी शब्द का सहारा क्यों लेना पड़ा, यह मेरी समझ में न आया। आगे चलकर हिन्दी का कोष लिखनेवालों को यह शब्द जरूर एक बड़ी भारी पहेली या बला साबित होगा। कोई इसकी उत्पत्ति शायद ‘घास’ से निकालेंगे और कोई ‘लीद’ से और कोई ‘घास-लीद’ दोनों से। उनकी मेहनत को हल्का करने और उन्हें इस झंझट से बचाने के लिए मैं ‘घास-लेट’ शब्द की उत्पत्ति यहाँ पर लिखे देता हूँ। ‘घासलेट’ अंग्रेजी शब्द ‘गैस-लाइट’ (Gas light) से निकला है और वह ‘केरोसिन’ या ‘मिट्टी के तेल’ के लिए बम्बई में इस्तेमाल होता है। अस्तु, ‘मिट्टी का तेल’ और ‘अश्लीलता’ के बीच क्या रिश्ता है, यह चतुर्वेदी जी ही बतला सकते हैं! शायद उनको ऐसे शब्द की तलाश थी जो वजन से पूरा ‘चाकलेट’ की तरह उतरे और साथ ही ‘अश्लीलता’ का अर्थ भी प्रकट कर सके। सचमुच ‘चाकलेट’ और ‘घासलेट’ में वजन खूब बैठता है, ‘लेट’ दोनों में समान है, खाली ‘चाक’ और ‘घास’ का फर्क है।
आजकल जैसे हर बात में अराजकता का भूत सरकार को दिखाई पड़ा करता है, उसी तरह हिन्दी के कुछ लेखकों को बहुत सी पुस्तकों और लेख में गन्दगी का परनाला बहता नजर आता है। वे हर बात में अश्लीलता की बू सूँघा करते हैं। ऐसे लोगों में हमारे श्रद्धेय मित्र पं. बनारसीदासजी चतुर्वेदी भी हैं। मेरा चतुर्वेदीजी से नम्र निवेदन है कि यदि उन्हें अश्लीलता की इतनी तलाश है, तो उनको वेद और पुराण से शुरू करना होगा, क्योंकि जितना इन ग्रन्थों का प्रचार और प्रभाव जनता के बीच है, उतना ‘चाकलेट’ जैसी पुस्तकों का नहीं। खैर, वेद को जाने दीजिए, क्योंकि उसके मन्त्रों के भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकते हैं। पुराण को लीजिए। पुराण अश्लीलताओं से भरे पड़े हैं। नमूने के तौर पर बह्मा का अपनी लड़की के पीछे भागना, महादेव का मोहनी के पीछे दौड़ना, इन्द्र का गौतम ऋषि की पत्नी को धर्मभ्रष्ट करना, तथा चौर-जार-शिरोमणि भगवान कृष्ण का गोपियों के साथ विहार करना, आदि पुराणों में पढ़िए और अश्लीलता की बानगी का मजा चखिए। संस्कृत के महाकाव्यों और नाटकों को भी पढ़िए जो श्रृंगार-रस से भरे हुए हैं। ढूँढ़ने से उनमें बहुत-सी अश्लीलता की सामग्री मिल जाएगी। परन्तु अश्लीलता के पीछे लाठी लेकर न पड़नेवालों को उनमें कविता का अलौकिक आनन्द प्राप्त होगा और अनेक उपयोगी शिक्षाएँ भी मिलेंगी। मिसाल के तौर पर महाकवि भवभूति का ‘उत्तररामचरित’ लीजिए। संस्कृत के कवियों में भवभूति सबसे शुद्ध और उनका ‘उत्तररामचरित’ सबसे अधिक अश्लीलता रहितग्रन्थ माना जाता है। पर वह भी कुछ अश्लीलतान्वेषी सज्जनों की दृष्टि में अश्लीलता से खाली नहीं है। ‘उत्तररामचरित’ का वह श्लोक, जो अश्लील समझा जाता है, यह है :-
किमपि किमपि मन्दं मन्दमासत्ति योगाद्,
अविरलितकपोलं जल्पतोरक्रमेण।
अशिथिल परिरम्भ-व्याप्तैृकैदोष्णो
रविदितगतयामा रात्रिरेवं व्यरंसीत्।।
अर्थात् - रामचन्द्रजी सीता से कहते हैं - ‘प्रिये, यह वही प्रसावण पर्वत है, जहाँ वनवास के समय हम लोग रहते थे और जहाँ हम दोनों एक दूसरे का गाल आलिंगन किये हुए तथा एक दूसरे के गाल से गाल सटाए हुए रात की रात बिता देते थे, पर हम लोगों की बात खतम न होती थी। रात बीत जाती थी, पर बात न बीतती थी।’
यह श्लोक कुछ लोगों की राय में अश्लील माना जाता है और भवभूति की लेखनी से न लिखा जाना चाहिए था। एक लिहाज से देखा जाए तो सचमुच इसमें अश्लीलता का पुट मिला हुआ मालूम पड़ता है। परन्तु जिनका ध्यान अश्लीलता की ओर नहीं, बल्कि कविता की ओर है वह इसमें अश्लीलता नहीं, बल्कि कविता का अनोखा आनन्द पाते हैं। यही हाल हिन्दी के बहुत से काव्य-ग्रन्थों का भी है। दो-एक छोड़कर, शायद कोई हिन्दी का काव्य ऐसा न होगा जिसमें कुछ न कुछ अश्लीलता न पायी जाती हो। पर अश्लीलता उनके लिए है जो अश्लीलता की खोज के लिए उन्हें पढ़ते हैं। बाकी काव्य का और भक्ति का वही स्वाद उनमें मिलता है जो संस्कृत के काव्यों और ग्रन्थों में मिलता है। यही बात ‘चाकलेट’ जैसी पुस्तकों के लिए भी कही जा सकती है। किसी पुस्तक के सम्बन्ध में कुछ फैसला करने के पहले हमें यह देखना चाहिए कि वह किस उद्देश्य से लिखी गयी है। पुस्तक लिखने में लेखक का उद्देश्य क्या है - अश्लीलता फैलाने या किसी व्यभिचार, अत्याचार या कुरीति की ओर समाज का ध्यान खींचकर उसे सुधारना? उसके कुछ फिकरे उधर से लेकर अपनी पहले ही से मान ली हुई राय के मुताबिक फैसला न करना चाहिए, बल्कि कुल पुस्तक पढ़ लेने के बाद देखना चाहिए, कि उसका क्या असर हम पर पड़ता है!
यही नहीं, जिस कुरीति की ओर जनता का ध्यान खींचने के लिए वह पुस्तक लिखी गयी है, उसकी ओर ध्यान खींचने में वह सफल हुई या नहीं, या जिस किसी अच्छे उद्देश्य से लिखी गयी है उसको ‘अन्ततोगत्वा’ कुछ न कुछ पूरा करने में सफलता प्राप्त की है या नहीं। ‘चाकलेट’ को ही लीजिए। मैंने इस पुस्तक को पढ़ा नहीं है, पर जहाँ तक चतुर्वेदी जी की आलोचना से पता चला है, यह पुस्तक सदभिप्रायपूर्ण उद्देश्य से लिखी गयी है, न कि जनता को अश्लीलता की ओर ले जाने के उद्देश्य से। जहाँ तक मुझे ज्ञात हुआ है, लेखक का उद्देश्य समाज का ध्यान एक ऐसे महाघृणित और अस्वाभाविक पाप की ओर खींचने का है, जो समाज में महाभयंकर रूप से फैला हुआ है और जिसका पर्दाफाश करने की हिम्मत, झूठी लज्जा या अश्लीलता के डर से बड़े-बड़े अगुआ, उपदेशक या लेखक की भी नहीं पड़ती। पर यह एक ऐसा व्यभिचार है, जो समाज को घुन की तरह खोखला बना रहा है। न जाने कितने सुकुमार, सुन्दर और कोमल-वयस्क बालक, जो आगे चलकर देश की भावी आशाओं को सफल बना सकते थे, विषयी-लम्पट तथा अस्वाभाविक पापाचार में रत, नरपिशाचों की घृणित काम-तृष्णा के शिकार बनकर प्रतिदिन शारीरिक, मानसिक और नैतिक पतन के गड्ढे में गिर रहे हैं और समाज अपने आसन से जरा भी नहीं डिगता। विधवाओं के ऊपर जो अत्याचार होते हैं, उनसे कहीं बढ़कर ये अत्याचार हैं जो समाज के नवयुवक बालकों के ऊपर हो रहे हैं। इस अप्राकृतिक पाप के अपराधी यदि साधारण असभ्य और अनपढ़ लोग ही होते हो भी गनीमत थी, परन्तु पढ़े-लिखे, सभ्य और शिष्ट लोगों में भी यह पाप उसी भयंकर रूप में फैला हुआ है जैसा कि अशिक्षित और असभ्य लोगों में कोई फिर्का ऐसा नहीं, कोई समाज ऐसा नहीं, कोई पेशा ऐसा नहीं, जो इन नरपिशाचों से खाली हो। अध्यापकों में ये पाये जाते हैं, वकीलान में ये देखे जाते हैं, डाक्टरी पेशा इन से खाली नहीं, सम्पादकों में भी कई इस फन के उस्ताद मिलते हैं। कहाँ तक कहें, कोई समुदाय ऐसा नहीं जहाँ इन नर-पिशाचों का जाल न बिछा हो! मैं एक ऐसे सज्जन को जानता हूँ, जो देखने में बहुत ही सभ्य और शिष्ट, बातचीत करने में निहायत आला दर्जा के शाइस्ता-ख्याल, सरकारी नौकरी में बहुत ऊँचा ओहदा पाये हुए, शायद रायबहादुर भी हैं, दो-एक प्रतिष्ठित पत्रों के सम्पादक भी रह चुके हैं, दोनों वक्त सन्ध्या जरूर करते हैं, उम्र भी 40-45 से कम न होगी; पर हजरत इस फन में पूरे उस्ताद हैं। अब तक सैकड़ों नहीं तो कई दर्जन कोमल-वयस्क, गुलाब के समान सुन्दर बालकों और नवयुवकों को अपनी अस्वाभाविक काम-तृष्णा को शान्त करने के लिए सदाचार से भ्रष्ट कर चुके हैं और अपने पीछे एक दो नहीं, बल्कि अनेक अपने सिखलाए हुए इस सम्प्रदाय के मुरीद छोड़ जाने वाले हैं। अभी थोड़े दिनों की बात है कि कलकत्ते का एक विद्यालय अपने एक ऐसे ही अध्यापक के कारण काफी बदनाम हो चुका है। कहा जाता है कि उस नराधम अध्यापक ने, न जाने कितने छात्रों को अपनी अस्वाभाविक काम-तृष्णा का शिकार बनाया था। मैं चतुर्वेदी जी से पूछता हूँ कि इस भयंकर दुराचार और पापाचार को रोकने का समाज ने क्या प्रयत्न किया है? मैं एक हेडमास्टर की हैसियत से कह सकता हूँ कि यह अस्वाभाविक व्यभिचार कितनी भयंकरता के साथ समाज में फैला हुआ है। पर समाज के सिर पर जूँ तक नहीं रेंगती और अगर कोई हिम्मत करके अपने ढंग पर इस गंदे पाप का पर्दाफाश करता है और इसकी ओर समाज का ध्यान खींचना चाहता है, तो अश्लीलता की गुहार की जाती है और यह कहा जाता है कि लिखनेवाला ‘जिम्मेदार’ शख्स नहीं है और उसका मस्तिष्क ‘सभ्य और सुसंस्कृत’ नहीं। परन्तु यह निश्चय करना जरा टेढ़ी खीर है कि कौन ‘जिम्मेवार’ है और किस का मस्तिष्क ‘सभ्य और सुसंस्कृत’ गिना जा सकता है? अगर कोई शख्स ‘जिम्मेदारी’ का और ‘सभ्यता और सुसंस्कृतता’ का दावा करता है और यह कहता है कि फलाँ शख्स ‘जिम्मेवार’ नहीं है तो वह महज हिमाकत करता है। खैर, हमारे मित्र चतुर्वेदी जी एक लिस्ट ऐसे सज्जनों की बना देते जो उनकी राय में ‘जिम्मेदार’ हों और दूसरी लिस्ट ऐसे आदमियों की छपा दें जो उनकी पाक राय में ‘गैर-जिम्मेवार’ समझे जाएँ तो बहुत अच्छा होता, ताकि हम ऐसे लोग अगर ‘जिम्मेवार’ न समझे जाएँ तो अनाधिकार चर्चा से बरी रहें।
चुरु से पंडित बी. जोशी खन्दालजी साहित्य-भूषण, काव्य-व्याकरण-साहित्य विशारद, काव्य और साहित्य शास्त्री, एच.एस.के.बी. विद्यावाचस्पति साहित्य और काव्य तीर्थ महोदय लिखते हैं -
श्री महोदय
कल ‘उग्रजी’ की लिखी हुई ‘चाकलेट’ मिली। सचमुच ‘उग्रजी’ की लेखनी में अद्भुत करामात है। तभी तो उन्होंने ऐसे नारकीय विषय पर कलम चलायी। आजकल, श्री बनारसीदासजी चतुर्वेदी जो घासलेटी साहित्य नामकरण करके इस प्रकार की रचनाओं को तुच्छ एवं खराब देखते हैं यह ठीक नहीं। इस प्रकार की पुस्तकों का अधिकाधिक प्रचार होना चाहिए जिससे देश का परोपकार हो।
मैंने इस पुस्तक को आदि से अन्त तक पढ़ा है और यह बड़ी प्रसन्नता से कहता हूँ कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद कोई युवक चाकलेटी के फन्दों में नहीं आ सकता। पुस्तक बड़ी उपादेय है। इसलिए धन्यवाद। सचमुच ‘उग्र’ साहित्य सबके अध्ययन करने योग्य है। और ‘उग्रजी’ ने ऐसी पुस्तकों की रचना करके देश का बड़ा उपकार किया है। इसके पहले ‘दिल्ली का दलाल’ भी पढ़ चुका हूँ। वह पुस्तक भी बड़ी उपादेय है। ‘उग्रजी’ ने ये क्रान्तिकारी रचनाएँ करके समाज तथा देश और जाति को बड़ा लाभ पहुँचाया है।