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निबंध

मुख-मर्दन उर्फ चुम्बन

पांडेय बेचन शर्मा उग्र


निकाल लेने दे ऐ चर्ख़! हौसले दिल के,
शबाब तक तो रहे ऐश उम्र भर न सही।

- अकबर

‘चोरी और उस पर सीनाजोरी’ इसी का नाम है। दिनदहाड़े दूसरे सत्‍कवियों की कृतियों पर छापा मारना जिसका पेशा है; दूसरी भाषाओं के लब्‍धप्रतिष्‍ठ साहित्‍य-शिल्पियों की चीजों पर कुरुचिपूर्ण काट-छाँट की भद्दी वार्निश लगाकर, साहित्‍य की मर्यादा और ज्ञान से कोरे सम्‍पादकों को धोखा देना जिसका नित्‍यकर्म है; स्‍वर्गीय अमर लेखकों की पुस्‍तकों से चैप्‍टर के चैप्‍टर निकालकर रंगमंच की लकदक और भोले-भाले चेहरों पर विस्‍मय-विमुग्‍ध हो पड़नेवाली ‘गाँठ की पूरी आँख की अंधी जनता’ को और उसके साथ ही रंगमंच के विधाताओं को ठगना जिसके ‘पोयटिक लाइसेन्‍स’, ईमानदारी और प्रतिभा का नंगा ‘जाहर’ है वह भी साहित्‍य के अभ्‍युदय की चिन्‍ता में जीने-मरनेवाले समालोचक को सब्जबाग दिखलाना चाहता है। रोगी, वैद्य को पथ्‍य और संयम का उपदेश देता है। साहित्‍य क्षेत्र में यह अभूतपूर्व लुंठन-व्‍यापार कलकत्ता की अलफ्रेड कम्‍पनी के ‘वीरभारत’ से कम सुन्‍दर नहीं; जाननेवाले इसे खूब अच्‍छी तरह जानते हैं!

महजूब ‘फौजी’! अपने मौजी चन्‍द्रानन पर ‘वक्रतुंडत्‍व’ का ‘पाउडर’ पोतने की क्‍या जरूरत थी? तुम्‍हारा मनचला ‘तांडवनृत्‍य’ तो प्रथम-मिलन की पहली ही ‘शुभ-दृष्टि’ में तुम पर फ़रेक्‍त: हो चुका था; इस हिजाबेनाज़ के अन्‍दर अगर तुम अपना नंगाचित्र न दिखाते तो उसकी मैनोशी में क्‍या कुछ कमी आ जाती? यह बनावट, यह (हिन्‍दी में ये) अदाएँ, नग्‍ननृत्‍य देखकर तो, भई, उस्‍ताद ‘अकबर’ का यह शेर जबान पर आये बिना नहीं रहता :

अन्‍दाज़ क़यामत के हैं ऐ जान! तुम्‍हारे
    सौ दिल हों तो सौ दिल से हूँ कुरबान तुम्‍हारे।

सोचा था, एक बार तुम्‍हारे चेहरे पर मखमूर नजर डालकर अपनी राह लूँगा पर तुम्‍हारी इस शोखी ने तो मुझे कहीं का न रखा; दामन अलग करते ही नहीं बनता, दिल अलग मचल रहा है, तौबातिल्‍ला मचाये हुए है; फिर तुम्‍हीं सोचो इस ‘मुखमर्दन’ उर्फ ‘चुम्‍बन’ (मुआफ करना, हमारा चुम्‍बन जरा उग्र हुआ करता है) में मेरा क्‍या कुछ बस है? अपराध है?

इश्‍क़ के इजहार में हरचन्‍द रुसवाई तो है,
    पर करूँ क्‍या अब तबीयत आप पर आयी तो है।

- ‘अकबर’

तुमने fजिस प्‍यार के चक्‍कर में पड़कर ‘तुम’ जैसे प्रेम-‘पेटेंट’ शब्‍द से ‘तांडवनृत्‍य’ का अभिवादन किया है, उसी के सरूर से सरशार होकर ‘तांडवनृत्‍य’ तुम्‍हें ‘तुम’ से दीक्षित और सिद्ध कर रहा है, अन्‍यथा ‘आप’ की इज्जत वह खूब समझता है।

‘मौजी’ प्रिय, (लेकिन अब तो इस ‘प्रियता’ पर ‘तांडवनृत्‍य’ का भी दावा दायर हो चुका है) ‘फौजी’! संस्‍कृत श्‍लोक एवं फारसी, उर्दू के शेरों के परदे में ‘वक्रतुंडत्‍व’ दिखाने से काम नहीं चलेगा; उसमें तुम्‍हें सफलता नहीं मिल सकती। तुम्‍हारी चालाकियाँ इस ‘मोहान्‍ध’ (क्‍या खूब सम्‍बोधन अता हुआ है, गोया लैला के मुँह से मजनूँ के लिए फूल झड़े हों!) ‘तांडवनृत्‍य’ के पद-प्रहार में चूर होने से नहीं बच सकतीं। हाँ, इतना जरूर है कि हो तुम छँटे रँगीले - किन्‍तु इस बेचैन आशिक से इतना खेल खेलने की जरूरत नहीं है। वह तुम्‍हें खूब पहचानता है, खूब समझता है। दुनिया में उसने बहुत कुछ देखा है; तुम्‍हारे जैसे बीसों के सौन्‍दर्य की उपासना करना उसका नित्‍य का काम है। तुम इन विविध भाषाओं के उदाहरणों से उसका दिल लुभाना चाहते हो? धाक जमाना चाहते हो? उसे अपने बहुभाषा साहित्‍य-ज्ञान दिखाना चाहते हो? पर तुम्‍हें शायद मालूम नहीं है कि पहले ही आलिंगन में तुम्‍हारे हृदय की नाड़ियों का रक्‍त पहचाननेवाला ‘तांडवनृत्‍य’ तुम्‍हारी इन कलाबाजि़यों पर मुग्‍ध नहीं हो सकता। न जाननेवाली जनता भले ही तुम्‍हारे रौब में आ जाए पर वह तो खूब अच्‍छी तरह जानता है (और वही क्‍यों, सभी विविधभाषाभिज्ञ विद्वान साहित्यिज्ञ जानते होंगे) कि तुम्‍हारे ये उदाहरण, तुम्‍हारी बहुज्ञता के सूचक नहीं, हजरत ‘आजाद’ और पं. पद्मसिंह शर्मा के खजानों के चुराये हुए सिक्‍के हैं! अरे यार, (खुदा मगफरत करे और सहृदय पाठक मुआफ फरमावें ‘तांडवनृत्‍य’ और ‘वक्रतुंडत्‍व’ में कुछ दूसरा ही पौराणिक रिश्‍ता है - क्‍यों भई ‘मौजी’- प्रिय! है न? - पर दुर्भाग्‍य से उस सम्‍बन्‍ध में चुम्‍बन व मुखमर्दन का रस नहीं है, इसीलिए ‘तांडवनृत्‍य’ को मजबूर होकर यह सरस सम्‍बन्‍धबोधक-सम्‍बोधन इख्तियार करना पड़ा - क्‍या कीजिएगा कलियुग है न) + इतना हावभाव क्‍यों कर रहे हो? साफ-साफ क्‍यों नहीं कह देते कि ‘ज्‍यादा से ज्‍यादा मेरी पहुँच शर्माजी की बिहारी-सतसई (प्रथम भाग) के 240वें पेज (ज्ञानमंडली एडीशन) एवं हजरत ‘आज़ाद’ के ‘आबेहयात’ के 360 वें और 194 वें पेज तक ही है। वहीं से मैंने ये उदाहरण चुराकर रख दिये हैं; वस्‍तुत: मैं उर्दू, फारसी और संस्‍कृत साहित्‍य से उतना ही महरूम हूँ जितना गधा सींग से होता है।’ क्‍या तुम अपने ‘तांडवनृत्‍य’ पर भी विश्‍वास नहीं करते? तुम्‍हारी रहस्‍यमयी कथा क्‍या वह किसी से कह सकता है? विश्‍वास रखो, तुम अपनी रहजनी बन्‍द कर दोगे, कम से कम मुझसे स्‍वीकार कर लोगे तो वह तुम्‍हें बार-बार के चुम्‍बन से जलील करने थोड़े ही आएगा; फिर तो वह तुम्‍हारी गली छोड़कर दूसरे के घर डेरा डालेगा।

तुमने अपनी चोरी को स्‍वकल्पित काव्‍य-मर्यादा की सीमा के अन्‍दर जायज करार देने के लिए जो उछलकूद मचायी है और उस पर अपना खास रंग चढ़ाने के लिए ‘पोयटिक लाइसेन्‍स’ की जो तशरीह - व्‍याख्‍या - की है, उसपर ‘तांडवनृत्‍य’ को, लाख रोकने पर भी, हँसी आ ही गयी। मालूम नहीं मैथ्‍यू आरनॉल्‍ड जैसे काव्‍यमर्मज्ञों की आत्‍माएँ स्‍वर्ग से तुम्‍हारे इस कुत्सित कर्म को किस रूप में देख रही होंगी और ‘मौजी’ के अंग्रेजी भाषा एवं साहित्‍य से अभिज्ञ पाठक तो तुम्‍हारे अंग्रेजी साहित्‍यज्ञान पर ताली पीटे बिना शायद ही रहे हों। इस शब्‍द की तशरीह करने से पूर्व अगर ‘मौजी’ के एम.ए. सम्‍पादक से जरा पूछ लेते तो क्‍या तुम्‍हारी विद्वता पामाल हो जाती? - परन्‍तु वे तो तुम्‍हारे चेले हैं!

जिन प्राचीन रचनाओं के उदाहरण तुमने अपनी दलील के समर्थन में पेश किये हैं, उनमें एक दूसरे से भावापहरण अवश्‍य किये गये हैं किन्‍तु तुम्‍हारी उस रचना की तरह शब्‍द–समूह एवं क़ाफि़ये नहीं चुराये गये हैं, फिर भी काव्‍य-मर्मज्ञों ने इन्‍हें छोड़ा नहीं है। यदि तुमने किसी साहित्‍य का अध्‍ययन किया होता, तो तुम्‍हें इसका पता होता। गोस्‍वामी तुलसीदास की ‘जब-जब होइ धरम कै हानी’ इत्‍यादि चौपाइयाँ गीता के ‘यदा यदाहि धर्मस्‍य’ से ही अपहृत की गयी हैं, इसे कौन अस्‍वीकार करता है? किन्‍तु तुम्‍हारे समान थोथे तार्किक की समझ में यह बात क्‍यों नहीं आयी कि गोस्‍वामीजी की इज्‍जत में इन चौपाइयों ने कोई वृद्धि नहीं की है। अनेक काव्‍यमर्मज्ञों ने स्‍थान-स्‍थान पर इन चौपाइयों को उपर्युक्‍त श्‍लोकों का अनुवादमात्र लिखा है और इसके लिए काव्‍य की कसौटी पर परखते समय गोस्‍वामीजी की प्रशंसा किसी ने नहीं की है। गोस्‍वामीजी का सच्‍चा महत्व उनकी काव्‍यगतप्रतिभा में है भी नहीं, इस दायरे में तो हिन्‍दी के दूसरे कई कवि उनसे श्रेष्‍ठ ठहरते हैं। ‘बिहारी’ ने प्राचीन संस्‍कृत श्‍लोक का भावापहरण किया है, इसे स्‍वीकार करने में ‘तांडवनृत्‍य’ को कोई उज्र नहीं है। इसके लिए आवश्‍यकता पड़ने पर वह ‘बिहारी’ की भी आलोचना कर सकता है। ‘बिहारी’ के प्रेमियों ने भी इसके लिए बिहारी को धन्‍यवाद नहीं दिया है, इसे उनकी मौलिक सूक्तियों की श्रेणी में स्‍थान भी नहीं दिया है। हिन्‍दी के कितने ही धुरन्‍धर आचार्यों ने उन पर दोष लगाने में भी उनके साथ दया का व्‍यवहार नहीं किया है। यही बातें घटा बढ़ाकर नासिख एवं आतिश इत्‍यादि के शेरों के लिए भी कही जा सकती हैं। यदि अपने ‘तांडवनृत्‍य’ के उपदेश से शिक्षा ग्रहण कर किसी उर्दू दाँ उस्‍ताद के चरणों में नाक रगड़ते और उसकी कदम बोसी हासिल कर उर्दू-साहित्‍य का शान्‍त-सुस्‍थ मन से मनन करते तो तुम्‍हें मालूम होते शायद देर न लगती कि उर्दू के पुराने एवं नये काव्‍यमर्मज्ञ समालोचकों के मशहूर ‘तजकिरे’ ऐसी आलोचनाओं से भरे हैं। अभी तो हाल ही में निजाम द्वारा संक्षित सुप्रसिद्ध ‘अंजुमन तरक्किए उर्दू’ से एक उम्‍दा: ‘तजकिरा’ प्रकाशित हुआ है। ‘आतिश’ के कितने ही शिष्‍य ‘नासिख’ पर और ‘नासिख’ के शिष्‍य ‘आतिश’ पर ऐसी रचनाओं के लिए उनके जीवनकाल में ही दोषारोपण कर चुके हैं और इन दोनों स्‍कूलों के मोतक़िद अब भी एक दूसरे पर ऐसी चोटें करने से बाज नहीं आते। उर्दू के मशहूर मासिक ‘जमाना’, मृत ‘अदीब’, ‘सुबहेवतन’ (मालूम नहीं आजकल यह जिन्‍दा है या नहीं) तथा ‘नक्‍क़ाद’ में समय-समय पर निकले हुए उर्दू के आधुनिक काव्‍यमर्मज्ञों के अनेक लेखों में इस प्रकार की बातों की आलोचना हो चुकी है और अपहृत रचनाएँ हमेशा निन्‍दनीय ठहराई गयी हैं। खुद हजरत ‘आजाद ने भी मौके-मौके पर ऐसी रचनाओं की निन्‍दा की है और व्‍यंग्‍यमयी टिप्‍पणियाँ जड़ने में भी नहीं चूके हैं पर तुम्‍हें इन सब बातों की वाकफियत होती तो कहाँ से?’ तुमने कभी उर्दू साहित्‍य की शक्‍ल भी तो नहीं देखी? किसी अच्‍छे उस्‍ताद के पाले भी तो नहीं पड़े? ‘तांडवनृत्‍य’ के सत्‍संग से ही कुछ सीख जाओ तो भी गनीमत है!

तुमने लिखा है - ‘तुलसी, बिहारी, नासिख, आदि के ‘अनुवादित’ पदों के प्रति भी विद्वज्‍जन की वह श्रद्धा और अकबर का केवल आधार (? कुछ दिन किसी व्‍याकरणतीर्थ के तलवे चाटो यार) ले लेने पर तुम्‍हारी ‘फौजी’ के प्रति यह बेअदबी?...।’ वाह! तुम्‍हारी अद्भुत तर्कप्रणाली देखकर तो ‘तांडवनृत्‍य’ के हृदय का कोना-कोना जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक कवि गेटी (Goethe) के शब्‍दों में चिल्‍ला उठता है - ‘So bold or denk, its erein kind’ (ज्‍यों ही वह कुछ सोचना आरम्‍भ करता है, त्‍यों ही बालक हो जाता है)। अरे यार! व्‍यर्थ ‘विद्वज्‍जन की श्रद्धा’ का श्राद्ध क्‍यों कर रहे हो? विद्वज्‍जन ने कब इन ‘पदों’ की दाद दी है, कब श्रद्धा प्रकट की है? तुम्‍हारे जैसे माल-मारक विद्वानों ने भले ही ऐसी चीजों की कदर की हो पर साहित्‍यिक दुनिया में तो ऐसी बात कभी नहीं सुनी गयी। बड़े-बड़े लोगों की चीज़ों का हवाला देकर समझदारों के मस्‍तिष्‍क पर जादू चलाना चाहते हो? ‘तांडवनृत्‍य’ के विरुद्ध अपनी निस्‍सार दलीलों से ठगने के लिए लोगों की ‘इमोशनल सेन्‍सेज’ (Emotional senses) को उभारना चाहते हो? बड़े लोगों के नाम के प्रभाव से प्रभावित करना चाहते हो? पर याद रखो, अब लोग समझने लगे हैं कि ‘तुलसी’, नासिख और बिहारी की तो बात ही क्‍या, सत्‍य, राम और कृष्‍ण के व्‍यक्तित्‍व से भी अधिक -अत्‍यधिक - महान है। चोरी चाहे नासिख की हो, चाहे तुम्‍हारी, वह हेय ही है। समझे?

यार फौजी! तुम्‍हारे ‘वक्रतुंड’ ने ‘पोयटिक लाइसेन्‍स’ की व्‍याख्‍या करके जैसे करुण शब्‍दों में दुहाई दी है और ‘अकबर’ का ‘केवल आधार’ लेकर बनायी हुई कविता पर बिगड़े हुए ‘कवि के अधिकारों से नादान और बेखबर’ ‘तांडवनृत्‍य’ से जैसी मर्मस्‍पर्शी वाक्‍यावली में रियायत चाही है, उसे देख, सुन और पढ़कर तो वह एक चटपटे शेर को दुहराए बिना नहीं रह सकता :-

किस नाज से कहते हैं वह झुँझला के शबे-वस्‍ल,
    तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते।

- अकबर

भई ‘वक्रतुड’! ‘फौजी’ के ऊपर ‘तांडवनृत्‍य’ को फौजकशी करते देखकर तुम्‍हें उस पर अफसोस हो रहा है, इस सहृदयता के लिए तुम्‍हें धन्‍यवाद और मुझे दु:ख है क्‍योंकि उसने तो तुम्‍हारी अदाएँ देखते ही मुझ से कह दिया था :-

जनाबे शेख को है मेरे हाल पर अफसोस,
    कहो कि इससे भी होगा सिवा अभी क्‍या है?

- अकबर

यार! मेरी गरीब प्रतिभा की परीक्षा करने मत जाओ। उधर तुम्‍हारे जैसे अछूतों का प्रवेश-निषिद्ध है। तुम्‍हारे ‘मार्क’ किये हुए शब्‍दों ने ही तुम्‍हारी बुद्धि का परिचय दे दिया है। अब अधिक जरूरत नहीं है। हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि फरहंग आसफिया के पन्‍ने एक बार उलट तो जाओ!

इस नाचीज ‘तांडवनृत्‍य’ के भाषाज्ञान पर मत जाओ, इस विषय में तुम्‍हें पढ़ाने की वह बहुत कुछ लियाकत रखता है -

तर दामनी पे शेख हमारे न जा अभी,
    दामन निचोड़ दूँ तो फरिश्‍ते वज़ू करें।

- ग़ालिब

तुमको जितनी फारसी आती है उसका पता भी हमें खूब है, पर हाँ, (पाठक आत्‍मश्‍लाघा के लिए क्षमा करेंगे) इस विषय में तुम से कह देना अच्‍छा होगा कि फारसी के जिस ‘गुलिस्‍ताँ’ के दरवाजे से ही उसके मालियों ने तुम्‍हें धक्‍के देकर लौटा दिया है उसके बू कलमूं सहनों पर छह वर्ष की अवस्‍था में ही ‘तांडवनृत्‍य’ अपना कलनृत्‍य कर चुका है और विश्‍वास रखो उर्दू, फारसी के साहित्‍य पर उसका कम से कम इतना अधिकार तो अवश्‍य ही है कि वह तुम्‍हें पढ़ा लिखाकर उनमें तुम्‍हें पारगामी पंडित बना दे सकता है।

दो चार शब्‍द ‘मौजी’- सम्‍पादक भी। क्‍यों हजरत, बेचारे, ‘मतवाला’ ने आपका क्‍या बिगाड़ा था, जो उस पर भी दुलत्तियाँ झाड़ दीं? यह तो ‘खिसियानी बिल्‍ली खम्‍भा नोचे’ वाली कहावत हो गयी। मुझ पर चाहे जो आक्षेप करते किन्‍तु मेरी ‘फौजकशी’ से चिढ़कर बेचारे नाम: बर - ‘मतवाला’ - पर क्‍यों हाथ की सफाई दिखलाने लगे? बताइये तो -

खत लिखा था मैंने मेरे हाथ करने थे कलम,
    नाम:बर मेरा सजावारे खता क्‍यों कर हुआ?

मुझे दु:ख है कि आपकी दलीलें, शायद आपकी लिखी नहीं हैं। मुझे विश्‍वास है कि ‘आर्ट’ के ‘मास्‍टर’ होकर आप ऐसी थोथी चीजें पेश नहीं कर सकते। फिर भी आप सम्‍पादक हैं, आप पर जिम्‍मेदारी है अतएव आपको सोचना जरूर चाहिए था कि ‘कुड़मधुम’ के तर्क में जोर है या नहीं? समाचार तो सदैव एक ही होते हैं। एक ही समाचार विभिन्‍न पत्रों में छपता है। ‘मतवाला’ में यदि वही समाचार प्रकाशित हो गया, जिसे आप प्रकाशित कर चुके थे तो वह चोरी कैसे हुई? और फिर इसका मेरे लेखक के साथ क्‍या सम्‍बन्‍ध था? परन्‍तु आप तो...।

दूसरी टिप्‍पणी पहले से भी गयी बीती है। ‘इंग्लिशमैन’ एवं ‘स्‍टेट्समैन’ अपने रविवार अंकों को विलायती डाक की चोरी करके भर देते हैं, इसीलिए ‘मौजी’ भी चोरी करे? गोया ये दोनों गोरे पत्र जो कुछ करते हैं, वह सबके लिए उचित एवं अनुकरणीय है। अंग्रेजी लेखकों को पता नहीं चलता, इसलिए या और किसी कारणवश वे इन पत्रों के सम्‍पादकों पर दोषारोपण नहीं करते, परन्‍तु इससे यह कैसे सिद्ध हो गया कि उनकी तरह चोरी करना साहित्यिक मर्यादा के विरुद्ध नहीं है। अच्‍छा होता यदि आपकी अवधानता में ये टिप्‍पणियाँ न निकलतीं! परन्‍तु आप तो...!

मि. फौजी! इन अप्रिय बातों के लिए क्‍या तुम अपने स्‍नेही ‘तांडवनृत्‍य’ को क्षमा कर दोगे? तुम जानते ही हो, इश्‍क़ क्‍या-क्‍या नहीं करता? हाँ, इतना और कह देना वाजिब है कि तुम्‍हारी अच्‍छी से अच्‍छी कविताओं पर ‘कुछ कहने’ का जो ‘अल्टिमेटम’ तुम्‍हारे ‘वक्रतुंड’ ने तुम्‍हारे ‘तांडवनृत्‍य’ को दिया है, वह उसे सहर्ष स्‍वीकार करता है। यदि फुरसत मिली तो, वह प्रयत्‍न करेगा कि तुम्‍हारी अन्‍यान्‍य ‘अच्‍छी से अच्‍छी कविताओं’ पर भी वह कुछ कह सके। इच्‍छा न होते हुए भी तुम्‍हारे ‘वक्रतुंड’ की बदौलत मुझे यह चैलेंज स्‍वीकार करना पड़ रहा है। क्‍या करूँ :

खूब वह दिखला रहे हैं सब्ज़बाग,
    तुमको भी कुछ गुल खिलाना चाहिए।

- अकबर


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