(हमारे हवाई रिपोर्टर ने येन केन प्रकारेण आगरेवाले, दक्षिण अफरीक़ी, म्याऊँ-मुख, पड़पुड़गंडिस्ट प्रवर, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के उस भाषण की एक हस्तलिखित प्रति, बल्कि, एडवांस कापी पा ली है, जिसे वह राष्ट्रभाषा सम्मेलन के आगे भाखेंगे। हम भरपूर जिम्मेवारी के साथ उसे यहाँ उद्धत करते हैं।)
साधु, सीधे, विश्वासी, महात्मा सभापतिजी, हिन्दी के अज्ञात लेखकों, घासलेट आन्दोलन के ज्ञानी समर्थको, विशाल भारत के परिवारियो और परिवारनियो!
मैं जानता हूँ और मैं दावे के साथ जानता हूँ कि मुझसे ज्यादा इस राष्ट्र और इस भाषा में कोई भी नहीं जानता। यद्यपि मैं क्या जानता हूँ, यह जानना कोई मामूली काम नहीं।
मैं जानता हूँ, भाई घासलेटमंडली को! कि यह राष्ट्रभाषा सम्मेलन है। यहाँ पर अखिल भारतीय राष्ट्र के विद्वान, साहित्यिक, श्रीमान और कलाकार एकत्र हैं। यहाँ पर विख्यात बंगाली विद्वान विराज रहे हैं जिनकी भाषा और जिनका साहित्यिक उत्कर्ष भारतवर्ष ही की नहीं, वरन् संसार की किसी भी भाषा के पीछे नहीं। यही बात मद्रासी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं के एकत्र पंडितों की मातृभाषाओं के बारे में भी कही जानी चाहिए। मगर, दोस्तों, मित्रों, फ्रेंडो, बन्धुओं, भाइयों, सगो, सम्बन्धियों! अ क्ख...क्ख... खि...खि...खु..., खु...खे...खै... खौ...खं...खं... आप जरा मुझे खाँस लेने दीजिए। मुझे दक्षिण अफरीकी वायु लग गयी है।
भाइयो... मैं कह रहा था कि मैं जानता हूँ, और आप विश्वास मानिए - मैं फिर-फिर कह रहा हूँ कि, मैं जानता हूँ तथा मैं जीवन भर इस विशाल भारत में कहता रहूँगा कि मैं जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि यह राष्ट्रभाषा सम्मेलन है। इसमें अन्य भाषाओं के भाखी हमारी भाषा की विशेषता, विभूतियाँ, जानने के लिए आये हैं। मगर, भाइयो! मुझे अपनी भाषा की खूबी के बारे में कुछ भी नहीं कहना है। उसे तो सभापति महोदय कह चुके - या यदि नहीं कह चुके तो कहेंगे। मैं तो आपको अपनी राष्ट्रभाषा की ‘घास-लेटता’ बताने के लिए यहाँ ‘ठाढ़भयौं हों सहज सुभाये, जे बिनु काज दाहिने बायें,’ जैसा कि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी ने साधुओं के वर्णन में कहा है।
आप पूछेंगे यह ‘घासलेटता’ कौन-सी बला है। इस पर मेरा म्याऊँ उत्तर यह है कि घासलेटता ‘चाकलेटता’ का दूसरा रूप है। मगर यह तो ‘मघवा’ का अर्थ ‘विडौजा’ हो गया! अस्तु।
जरा बुद्धि की खुरपी उठाकर आप मुझे घासलेटता को परिष्कृत करने दें अपने को हिन्दी का क्रान्तिकारी कहने वाले साहित्यिक छोकरे ‘उग्र’ ने - जो सम्भवत: मेरे और मेरे महादल के भय से काशी या बनारस अथवा B-E-N-A-R-E-S-C-I-T-Y- भाग गया होगा या अपने दुर्भाग्य से शायद इस मजलिस में उपस्थित हो - एक गलीज भद्दी, गैर-जिम्मेवार पुस्तक लिखी। उसका नाम ‘चाकलेट’ है। अब उसी के वजन पर यह ‘घासलेट’ मैंने तैयार किया है। मगर, ठहरिए। मेरे मुँह से एक झूठ सरासर निकला भागा जा रहा है। इस ‘घासलेट’ में बीज है ‘चाकलेट’ का, जो ‘उग्र’ की सृष्टि है, और गर्भ है ‘आर्यमित्र’ सम्पादक पंडित हरिशंकर शर्मा का जो महात्मा गांधी तक को जिम्मेवाराना ढंग से गाली देने वाले श्रद्धेय महाकवि शंकरजी के S, O, N, हैं। मैं तो केवल इस असुन्दर के सुन्दर बच्चे की ‘दाई’ मात्र हूँ। मैं इसे पाल-पोस कर बड़ा कर रहा हूँ, इसलिए कि सयाना होकर अपने बाप ‘चाकलेट’ को मार डाले। और, आप बुरा न मानें, सिद्धान्त के लिए बाप तक को मार डालना कोई बुरी बात नहीं है। क्योंकि मैंने साबरमती आश्रम में प्रहलाद की कहानी सुनी है।
सज्जनों, यह चाकलेट पुस्तक बाल व्यभिचार-विरोधिनी कहानियों का कलेक्शन है। साथ ही, इसकी एक कहानी का शीर्षक है, ‘चाकलेट’। वह कहानी, इस कलकत्ता के प्रसिद्ध साप्ताहिक ‘मतवाला’ में सन् 1924 ई. की 31वीं मई को प्रकाशित हुई थी। और उसी सन् में, उसी विषय पर, उसी गंदे गल्प–गढ़क द्वारा, चार कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं। मुझे मालूम नहीं उस समय मैंने उन कहानियों को पढ़ा था या नहीं, मगर, मुझे यह मालूम है कि उनका विरोध उस समय से लेकर मेरे मुँह खोलने तक किसी ने नहीं किया। और मुझे तो यदि उस समय उन कहानियों की खबर होती तो भी मैं उनका विरोध न करता - क्योंकि उस समय मुझे भाषा का ज्ञान नहीं था। साहित्यिक परिष्कार का ध्यान नहीं था, और श्रीहरिशंकरजी के गर्भ के इस ‘घासलेट’ का भाग नहीं था। साथ ही, मेरे पाँवों तले विशाल भारत-सा कोई इंटरनेशनल ‘चहचहाता चिड़ियाघर’ का अड्डा नहीं था।
उसी सन् के लगभग वह गन्दा लेखक गोरखपुरी ‘स्वदेश के’ विजयांक में, कुछ राजद्रोह करने के अपराध में, 124 अ. में - गैर जिम्मेवाराना ढंग से जेल चला गया। जेल से आने के बाद वह कलकत्ता आया और यहाँ ‘मतवाला-मंडल’ में मंडित होकर उसने अनेक कथा-पुस्तकें लिखीं और प्रकाशित करायीं। यद्यपि मैंने यह बात अपने इंटरनेशल चिड़ियाघर में नहीं प्रकट की है - क्योंकि, मैं प्रोपॉगैंडिस्ट हूँ और प्रचार की दृष्टि से यह लिखना भूल होती - फिर भी यह सच है, और मेरा जाँचा हुआ सच है, कि, जब मैंने दरियाफ्त किया उस समय राष्ट्रभाषा मार्केट में उस ‘उग्र’ की पुस्तकें ऐसी चलती थीं जैसे पंजाब मेल! बस, इसी से तो मेरे कान खड़े हुए और मैं दो-चार तपस्वियों की सलाह से ‘चाकलेट’ की ओट में, उस दुष्ट साहित्य-निर्माता पर टूट पड़ा।
पर ध्यान रहे! - टूट पड़ने के पूर्व में कई बार उस चाकलेट-विधाता के प्रवासाश्रम पर गया भी था। मैंने उस छोकरे से एकबार कहा -
‘कुछ जिम्मेवार, सिकुड़-मुख, दढ़ियल और तपस्वी तुम्हारी रचनाओं के घोर विरोधी हैं - खासकर ‘चाकलेट’ के और उन कहानियों के जिन का सम्बन्ध दाढ़ी-चोटी से है। अत:, मैं मौका ढूँढ़कर तुम्हारे साहित्य का विरोध करना चाहता हूँ। इसे कहे दे रहा हूँ इसलिए कि, जिसमें हमारे सामाजिक प्रेम में बट्टा न लगे। क्योंकि यह शुद्ध साहित्यिक-विवाद होगा।’
इस पर उस उग्र ने ठठाकर कहा, ‘हा हा हा हा! कीजिए विरोध। पर, यह तो बताइये कि आपने मेरी कौन-कौन-सी कृति पढ़ी हैं?’
सज्जनों! इसका भला मैं क्या उत्तर देता? मैं तो प्रोपोगैंडिस्ट हूँ। मैं कुछ पढ़ता थोड़े ही हूँ। फिर, इस ‘विशाल भारत’ में कोई कितना पढ़ सकता है? मैंने तो दूसरों ही की राय पर अपनी राय चढ़ा रखी थी। जब चन्द दाढ़ीदार तपस्वी कह रहे हैं कि ‘उग्र’ की रचनाएँ घासलेट हैं तब वे अवश्य ही घासलेट होंगी। मैं उनकी जिम्मेवार राय पर सन्देह कैसे करता? आखिर वेदों में भी तो लिखा है - ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्।’ अत: मैंने सीधे से स्वीकार कर लिया कि मैंने तो तेरी एक भी रचना नहीं पढ़ी। फिर भी ओ दुष्ट! मैं तेरा विरोधी हूँ।
इस पर उस पागल ने अपनी सारी कृतियों की एक-एक प्रति मुझे मुफ्त ही में दी। कहा, ‘इन्हें पढ़कर इनका विरोध कीजिएगा।’ पर मैंने उन सबको नहीं पढ़ा। खासकर जिन पुस्तकों की हिन्दी के अनेक प्रतिष्ठितों, विद्वानों, कलाकारों ने प्रशंसा की उन्हें तो मैंने छुआ तक नहीं। केवल ‘चाकलेट’ पढ़कर मस्त हो गया और एक ही चावल से राष्ट्रभाषा की उस ‘उग्र-हाँड़ी’ का सारा भेद मेरे पेट में मलमला कर रह गया।
यह मैं अपने ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ अनुभव के आधार पर दक्षिण अफ्रीका के पूज्य पिता की शपथ खाकर कह सकता हूँ कि प्रोपोगंडिस्ट के लिए न तो कोई झूठ झूठ है और न कोई आचरण असत्! अत: ‘चाकलेट’ की आलू, चना के पूर्व मैंने ‘उग्र’ के समर्थकों को कागजी घोड़े दौड़ा-दौड़ाकर, कोने-कोने में ढूँढ़-ढूँढ़कर, अपने दल में मिलाने की कोशिश की। मैंने ‘प्रताप’ वालों को समझाया कि यद्यपि ‘चाकलेट’ - विषय पर सारे जिम्मेवारों के मुँह पर दही जमा रहने पर भी ‘उग्र’ ही ने पहली आवाज उठायी है, फिर भी, उसका ढंग तो नालायकाना है। आप लोग उसकी रचना को अयोग्य कहकर अपनी योग्यता के भोंपू अब फूँक दें और उसी में कृपा कर मेरे इस घासलेट स्वर को भी मिला लें। ‘चाकलेट विरोध’ को भी मिला लें। ‘चाकलेट विरोध’ के लिए मैं काशी गया, प्रयाग गया, कानपुर गया और आगरा तो मेरा घर ही है और उस ‘घासलेट’ शब्द का भी जो चाकलेट से चार कदम आगे बढ़कर इंटरनेशनल हो रहा है।
इसके बाद अपने मन की सारी काई और कालिख बटोरकर मैंने ‘चाकलेट’ को काला करना आरम्भ किया, उस बंगाली मासिक ‘चिड़ियाघर’ में। सारी पुस्तक छोड़ कर मैंने पहले उसकी उस पुरानी कहानी में से राम, कृष्ण, सुकरात और शेक्सपियर का नाम ढूँढ़ निकाला। आह! उन्हें पाते ही मैं फूलकर कुप्पा हो गया। मगर, याद रहे, स्वच्छ गोघृत का। घासलेट-घी का नहीं। मैंने सोचा जनता ज्योंही इस अपवित्र प्रसंग में रामादिक का नाम सुनेगी त्योंही उस उग्र को फाँसी के तख्ते पर लटका देगी। उस समय मैंने यह नहीं विचार किया कि उक्त नाम कहानी के पात्रों के मुँह से आये हैं। और वे पात्र, लेखक की तस्वीर नहीं, समाज के पठित - धूर्त चाकलेट पन्थियों के चित्र हैं। ‘कहि महिष, मानुष, धेनु, खर, अज, खल निशाचर भक्षहीं’ में तुलसी के मनोभाव नहीं, बल्कि राक्षसों की साफ छवि है। मगर मुझे तो ‘उग्र-साहित्य’ का, उसकी पुस्तकों की बिक्री का, उसकी आर्थिक और सामाजिक उन्नति का विरोध करना है। फिर मैं क्यों विचारता कि वह राम, कृष्ण, सुकरात, शेक्सपियर, ‘उग्र’ के नहीं; बल्कि ‘उग्र’ की तस्वीरों के हैं। फिर मैं ‘उग्र’ के ‘इन्द्रधनुष’ को उठाकर ‘सीता-हरण’ में राम की दूसरी उज्जवल छवि क्यों देखता। मेरी आँखों पर तो प्रोपोगैंडिस्ट का चश्मा था।
मैंने यह भी पता नहीं लगाया कि ‘चाकलेट’ के प्रथम संस्करण के आवरण पर, ‘A Public discussion of this very difficult and delicate subject has become necessary’ -Young India. आदि वाक्य नहीं थे। उसकी आलोचना में मैंने यह भी नहीं कहा कि ये वाक्य ‘उग्र’ के नहीं, बल्कि बिहार के बाबा सीताराम दास के उस पत्र से लिये गये हैं जो दूसरे संस्करण की भूमिका के रूप में है। बस मुझे तो ‘उग्र’ को बदनाम करना था। अत: राम, कृष्ण, के साथ महात्माजी का नाम भी जोड़कर और यह लिखकर कि ‘गांधी सिगरेट’ की तरह यह ‘चाकलेट पुस्तक’ भी महात्माजी के नाम पर बेची जा रही है, मैंने अपनी प्रोपॅगेंडा-गाड़ी हाँक दी। मैंने लिख मारा - हमारी सम्मति में वे मोहक-भाषा में लिखी हुई ‘सुगर कोटेड’ संखिया है, ‘घासलेट-साहित्य’ का निकृष्ट उदाहरण है और छिछोरी मनोवृत्ति का गन्दा नमूना है।’ मगर यह लिखने के पूर्व मैंने ‘चाकलेट लेखक’ के ‘कैफयित’ के ये शब्द नहीं पढ़े - या पढ़कर भी पी गया -
‘पढ़ें - समाज के बड़े-बूढ़े पढ़ें, "उग्र" की इस नाटकीय कृति को, कहानी और कला का सुख लेने के लिए नहीं, उसकी प्रतिभा की उड़ान देखने के लिए नहीं, बल्कि अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल रखने के लिए। उन्हें समाज के भिन्न-भिन्न रूपधारी दानवों से बचाने के लिए। उनका तेज और ब्रह्मचर्य रक्षित रखने के लिए। उन्हें पशुता से दूर और मनुष्यता से निकट रखने के लिए।’
‘पढ़ें - जीवन की ड्योढ़ी पर खड़े हमारे नवयुवक मित्र मेरी इस काली रचना को अवश्य पढ़ें; और इसे पढ़कर अपने हृदय की घृणित छाया को अपने किसी बन्धु या मित्र के कोमल हृदय पर डालने से परहेज करें। प्यार को शुद्ध प्यार की तरह प्यार करें और उसके मुख पर वासना की स्याही पोतने से हिचकें। अपने हृदय की कोठरी में धुआँ न फैलावें। किसी अबोध मित्र के घर में आग न लगावें।’
‘पढ़ें - देश के छोटे-छोटे फूल के खिलौने, सुन्दर बच्चे भी मेरी इन लकीरों को पढ़ें और शुरू से ही काँप उठें चाकलेट-पन्थियों के षड्यन्त्रों से, उनकी धूर्त्तताओं से। इन राक्षसी तस्वीरों को देखकर वह राक्षसों को पहचानना सीखें और सीखें उनके आक्रमणों से अपने फूले-फूले गुलाबी गालों को रक्षित रखना, अपने अधर-पल्लवों की रक्तिमा को महफ़ूज रखना और हृदय की पवित्रता को साधारण प्रलोभनों से अधिक महत्व देना।’
‘मुझमें दोष हैं, मेरी कृतियों में भी अवश्य ही दोष हैं।’ मगर पाठको को उस अमर कवि की इन लकीरों को स्मरण कर ही किसी की कृति को देखना चाहिए -
‘जड़, चेतन गुण, दोष मय
विश्व कीन्ह करतार,
सन्त हंस गुण गहहिं पय
परिहरि वारि विकार।’
इस तरह सज्जनो! गोकि उस ‘उग्र’ ने अपनी कृति ‘चाकलेट’ को स्वयं ही कोस लिया है और अपनी खाकसारी से धूल उड़ानेवालों के मुँह में खाक भर रखने की चेष्टा की है, मगर मुझे तो उसे साहित्य से गिराना है, बदनाम करना है। इसी से मैंने इन बातों को जानबूझकर भुला दिया था। क्योंकि, मैं प्रोपोगैंडिस्ट हूँ। इसी से मैंने और मेरे पीर पंडित पद्मसिंह शर्मा ने भी ‘मतवाला’ को उतना नहीं कोसा, जिसमें ये सारी चाकलेटी रचनाएँ छपी हैं, क्योंकि हम तो केवल सरकश ‘उग्र’ का सिर चाहते हैं।
मुझसे यह भी बताया गया है कि आयरिश अंग्रेजी-जीनियस मिस्टर आस्कर वाइल्ड ने एक कहानी - Portrait of Mr. W.H. - लिखकर शेक्सपियर को चाकलेटपन्थी साबित किया है। मगर मैं इस पर नहीं विश्वास करता, क्योंकि मैं ‘उग्र’ का नाश चाहता हूँ। मुझसे यह भी कहा गया है... ‘Aristotle advised abstinence from women, and preached sodomy in the place of natural love.’ मुझसे यह भी कहा गया है कि - Socrates regarded sodomy as the privilege and sign of higher culture. The male Greeks shared this view and lived in harmony with it. और मुझसे यह कहा गया है कि उक्त बातें जर्मनी के किसी विख्यात कम्युनिस्ट दार्शनिक August Bebel की पुस्तक Women: Past & Present में हैं। और है अनेक बड़े-बड़े चॉकलेट-पन्थियों की लिस्ट कहा गया है कि, ‘हैवलाक एलिस’ की ‘साइकालजी आफ सेक्स’ नाम्नी छह जिल्दी पोथी में भी है। साथ ही मैंने यह भी पढ़ा है कि ‘उग्र’ इस चाकलेट पन्थ का विरोधी है - अरस्तू और सुकरात की तरह समर्थक नहीं। फिर भी मैं, चाकलेट और ‘उग्र’ का विरोधी हूँ। क्योंकि वह क्रान्तिकारी बनता है; और बिना मूँछ-दाढ़ी निकले ही, तपस्वी बने ही, साबरमती आश्रम देखे ही तथा सबसे बड़ी बात यह कि बिना मुझ दक्षिण अफरीकी सन्त से पूछे ही।
मैं ‘अबलाओं का इन्साफ’ और ‘मनोरमा के पत्र’ के लेखकों के भी विरुद्ध हूँ। मगर बाद में हुआ हूँ। जब मुझे यह पता चला कि बिना इन्हें भी हथियाए ‘उग्र’ मारा न जाएगा। पर, ‘मनोरमा के पत्र’ के लेखक ने, मेरी डाँट सुनते ही, मिनमिना कर मुझसे क्षमा याचना कर ली है। हाँ-हाँ - विश्वास न हो तो चलिए चिड़ियाघर में, मैं आपको उनकी ‘दन्तनिपोर चिट्ठी’ तक दिखा दूँ। इसी से मैं उन्हें क्षमा कर देने पर तैयार हूँ। पर, सभापति महोदय, और घासलेट-मंडलिको! इस पापी ‘उग्र’ को अवश्य ही फाँसी दी जाए। जैसा कि मेरे साबरमती - शुद्ध खोपड़े ‘चाँद’ के फाँसी अंक के सिलसिले में लिखा है। ‘इन्साफ’ के प्रकाशक ने चाकलेट नहीं लिखा, साथ ही तपस्वियों की पुस्तकें और जीवनियाँ छापकर उसने अपने पाप-पुण्य का ब्योरा कुछ-कुछ ठीक कर लिया है। अत: उसे आजन्म द्वीपान्तरवास की सजा ही काफी होगी। मैं अनुचित अत्याचार नहीं करना चाहता। क्योंकि मैंने बुद्ध, तीर्थंकर महावीर, टाल्सटाय, गांधी आदि को पढ़ा भी है और देखा भी है।
यह ‘उग्र’ क्या चीज है मेरे महत्व के आगे; सज्जनो! मैं तो अपने मित्रवर सम्पूर्णानन्द को अभिमानी समझता हूँ, क्योंकि वह एम.एल.सी. हैं; दक्षिण अफ्रिका के संन्यासी भवानीदयाल को व्यर्थ समझता हूँ, क्योंकि उन्होंने भी मेरे ‘हेरिडेटरी’ अफ्रिका पर पुस्तक लिखने की धृष्टता की है। पं. जवाहरलाल नेहरू के नाम के आगे से ‘त्यागमूर्ति’ काट फेंकता हूँ, उन्होंने मेरे दक्षिण अफरीकी-खाते को ऐसी कड़ाई से जाँचा था जैसे लेनिन ने जार के खातों को। फिर भला यह कल का लड़का ‘उग्र’ मेरे आगे वैसे ही क्यों नहीं झुक जाता जैसे बूढ़े पंडित कृष्णकान्तजी झुक गये। हाँ, हाँ, कहिए तो चिट्ठी निकालकर दिखा दूँ।
अस्तु, सज्जनों - बस। मैं आज यहीं समापता हूँ अपने भाषण को। यह सम्मेलन मैने केवल ‘उग्र’ को गिराने के लिए रचा है। इसकी सफलता तभी सम्भव है जब आप लोग उस अप्रियवादी को आज ही फाँसी पर टाँग दें। दोहाई है महात्मा गांधी की! दोहाई है सारे नेताओं और विद्वानों की!! मेरे मुँह की ओर देखिए, मेरी तपस्या की ओर निहारिए, मेरी अफ्रिकी सेवाओं को समझिए और मेरी बात मानिए। उसे अवश्य ही फाँसी दीजिए, मैं फाँसी का समर्थक हूँ, मैं अहिंसावादी हूँ। मैं बारह बड़े-बड़े महीनों का अनुभवी जर्नलिस्ट हूँ। मैं कई जीवनियों का अनोखा जनक हूँ। भाइयो, बहनो, पुलिसो, सार्जंटो, सम्पादको, प्रूफरीडरो, लौंडो-लबाड़ियो! आप मेरी आज्ञा अवश्य - अवश्य-अवश्य मानिए मानिए!