‘सुन लीजे गोश-दिल से मेरे मुशफिका य’ अर्ज।
मानिन्द-बेद ग़ुस्स: से मत थरथराइये।।’
- इंशा
जबलपुर की सुप्रसिद्ध मासिक-पत्रिका ‘श्री शारदा’ अब त्रैमासिक रूप में निकलती है। सम्पादन अच्छा होता है। लेखों के चुनाव में कोर-कसर नहीं की जाती, कागज और छपाई आदि बढ़िया होती है। मतलब यह कि पत्रिका की उपयोगिता में किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। इस त्रैमासिक रूप के प्रथम वर्ष का द्वितीय अंक हमारे सामने हैं, इसमें 4 लेख हैं। इन्हीं चारों में एक लेख है - कवि और समाज, लेखक हैं - श्री गुरुप्रसाद पांडेय। आप साहित्यरत्न हैं, और बी.ए., एल.एल.बी. भी हैं। अतएव आपकी विद्वत्ता में किसी को सन्देह न होना चाहिए! फिर चाहे आपने इसमें ऊटपटाँग ही क्यों न लिख मारा हो। साहित्यरत्न जी ने जिस प्रकार अपने पक्ष की वकालत की है! जैसा असम्बद्ध-प्रलाप किया है, वह वस्तुत: दर्शनीय है। आपने अपने वृथा-पुष्ट लेख में यही सिद्ध करने की चेष्टा की है कि ईस्वी सन् के बाद संस्कृत और हिन्दी कवि-समुदाय तथा तत्कालीन भारतीय समाज बहुत ‘पतित’ रहा है। इस सम्बन्ध में तो फिर कभी कुछ लिखा जाएगा। आज आपके कुछ असम्बद्ध-वाक्यों की बानगी पाठकों के सामने रखता हूँ, आप 87वें पृष्ठ की 14वीं पंक्ति में लिखते हैं कि, ‘आप कालिदास को भले ही बड़ा मान लें।’ यहाँ आप का अभिप्राय मालूम नहीं किन ‘आप’ से है। पंडितों से तो है नहीं, क्योंकि आपने इसी पंक्ति में आगे चलकर उनका निषेध कर दिया है! फिर पंडित-इतर ये आपके ‘आप’ कौन हैं? कोई, ‘देवानां प्रिय’।
आपके मत से कालिदास का भारत में प्रसिद्धि प्राप्त करने का कारण उनकी ‘सरल और सच्ची’ कविता नहीं है। किन्तु ‘जनता की श्रृंगार-तृप्ति का पुरस्कार’ है! ठीक है पांडेय जी! ‘जबान के आगे खन्दक’ थोड़े ही है। पृष्ठ 88 की 16वीं पंक्ति में आप लिखते हैं कि, ‘एक जैन कवि का लिखा हुआ "धनंजय" नामक ग्रन्थ भी ऐसा ही है।’ वाह! महाराज, इसी ज्ञान के बल पर आप प्राचीन समाज का, ‘सानुमान ज्ञान’ प्राप्त कीजिएगा! इतना बड़ा अन्याय ग्रन्थकार के नाम ही को ‘ग्रन्थ’ बना डाला! क्या है उस ‘धनंजय’ नामक ग्रन्थ में? और किस जैन कवि का वह लिखा हुआ है? कहीं सुन सुनाकर तो नहीं लिख दिया! महाराज जरा कान खोलकर सुनिए ‘धनंजय’ ग्रन्थ नहीं है, कवि का नाम है। यही धनंजय नामक जैन कवि हैं, जिन्होंने ‘द्विसन्धान’ नाम श्लेषात्मक ग्रन्थ लिखा है और जिसको आपने ‘धनंजय’ बना डाला है। बलिहारी इस ऐतिहासिक ज्ञान की! इसी पृष्ठ पर आपने ‘भट्टि काव्य’ का एक श्लेषात्मक श्लोक लिखकर यह राय दी है, कि पंडित लोग इसको प्रथम श्रेणी की कविता समझते थे। उन लोगों ने ऐसी कविताओं को ‘तुच्छश्वपुच्छच्छटयेव वाचा’ (तुच्छ कुत्ते की पूँछ के समान) ही कहा है। किन्तु पांडेय जी को इससे क्या मतलब? पृष्ठ 90 की 10वीं पक्ति में आपने लिखा है, ‘समालोचक ही कवि की रुचि के प्रवर्तक हैं।’ वाह! कैसी अनूठी गवेषणा है! कैसा नूतन ‘आविष्कार’ है! अरे मेरे दोस्तों! इसको नोट कर लेना। यह बड़ी मेहनत से की हुई खोज है।
अगर समालोचक ही कविता की रुचि के प्रवर्तक हैं, यह बात सत्य है तो कम से कम संस्कृत साहित्य में श्रृंगार-रसमयी कविताएँ न होनी चाहिए थीं। कारण वहाँ का एक दल तो श्रृंगार-रचना के कारण कविता का ही विरोध करता था, उसकी आज्ञा थी, कि ‘असभ्यार्थ विधायित्वान्नोपदेष्टव्यं काव्यम्’ और भी कितने ही समालोचक श्रृंगार-रस के विरुद्ध खड्ग-हस्त थे। लेकिन समालोचकों का प्रभाव कवियों पर प्रतिभावान कवियों पर पड़ ही क्या सकता था! आपके लेख भर में कवियों पर अश्लीलता और कुरुचि प्रवर्तक प्रेम के वर्णन करने का अपराध लगाया गया है, पर हम न समझ सके, कि अश्लीलता और कुरुचि की आपने परिभाषा क्या निश्चित की है। आप कविता में आखिर क्या चाहते हैं, केवल वैराग्य और नीति की बातें! आप कहते हैं कि यहाँ के लोग काम-वासना को ही प्रेम समझते थे। वौ कैसे? पांडे जी, इस प्रकार की निराधार बातें आप क्यों कहते हैं?
आपकी एक और भी विचित्र राय है, कि यहाँ की जनता ‘उच्चादर्श’ प्रिय नहीं थी और उसमें ‘पशुता के मुख्यगुण - हृदय कठोरता, और प्रबल काम इच्छा आदि का भाव खूब जोरों पर था? ठीक है, उस्ताद, कहते चलो, जो जी में आये। कोई टोकनेवाला थोड़े ही है।’
शायद वेदान्त-वाद की गणना उच्चादर्श में नहीं है। भारतवर्ष के हिन्दू आज भी अपने उच्च आदर्श के लिए बदनाम हैं, उच्च आदर्श के मुख्यगुण सर्व-हितैषणा का लोप इस गिरे हुए समय में भी हिन्दू जाति से नहीं हुआ है। परन्तु साहित्य रत्नजी इस आदर्श का अभाव बहुत पुराने जमाने से देखते हैं! रही प्रबल ‘कामैषणा’, सो इसका साक्षी इतिहास है। हमारे पूर्वजों का समय विश्वविख्यात रहा है। लेकिन ‘घर के लड़के’ पांडेय जी इस बात को नहीं मानते। पृ. 98 में लिखा है, कि ‘इसका वर्णन रति-ग्रन्थों में आवश्यक हो गया’ किन रति-ग्रन्थों में? कोकशास्त्र आदि में। क्या साहित्य में कुछ ‘रति-ग्रन्थ भी हुआ करते थे। यदि हाँ, तो वे कौन-कौन से हैं!’
सबसे बढ़कर एक बात आपने जो कही है, वह है, ‘हिन्दी में सच्चे प्रेम का वर्णन वास्तव में वेश्यावों के साथ ही देखा जाता है’ (पृ. 100)। वैसे तो पांडेयजी ने अपने इस लेख में कई तथ्यों का आविष्कार किया है, किन्तु यह तथ्य सबसे अनूठा है; अश्रुत-पूर्व है। इसके अतिरिक्त आपने कई जगह अपने कथन के सिद्ध करने के लिए या यों कहिए कि अपने पूर्वजों की निन्दा करने के लिए कई विदेशी विद्वानों के वाक्यों के अवतरण दिए हैं, जिसकी कोई आवश्यकता न थी। हमारा विचार है, कि पांडे जी ने इस लेख को जोश में आकर लिख डाला है। यदि वह शान्तचित्त होकर विचार करते तो उन्हें अपना भ्रम स्पष्ट मालूम हो जाता। कवियों ने यदि श्रृंगार-रस का वर्णन किया है, और आपको उसमें अनौचित्य दीख पड़ता है, तो आप उन पर खूब लिखिए। किन्तु सभ्य समाज को उसके साथ घसीटना कहाँ का न्याय है? कवियों ने स्वयं अश्लीलता को दोषों के अन्दर माना है और काव्यालंकार के निर्माता रुद्रट आदि ने स्पष्ट शब्दों में लिख दिया है कि, ‘नहि कविनापरदारा-द्रष्टव्या’ आदि। फिर समाज जहाँ इन कवियों का आदर करता है वहाँ कितने ही नीतिकारों और वेदान्तवादियों का इनसे भी अधिक आदर करता है। फिर समग्र समाज को लक्ष्य करके इस तरह अंट-संट कहने की क्या जरूरत थी, सो हम नहीं समझते।
पं. रामनरेश त्रिपाठी द्वारा सम्पादित होकर प्रयास से प्रकाशित होने वाली कविता-कौमुदी का चतुर्थ अंक हमारे सामने है। लेख सब के सब अच्छे हैं; सुपाठ्य हैं। केवल ‘नायिका-भेद’ शीर्षक लेख में जो विद्वान सम्पादक महोदय का लिखा हुआ है, थोड़ी-सी त्रुटि रह गयी है। आपने ‘ऊढा’ और ‘अनूढा’ को स्वकीया नायिकाओं के अन्तर्गत ही शुमार किया है। प्राचीन कवि ‘ऊढा’ और ‘अनूढा’ को परकीया नायिकाओं के अन्तर्गत मानते रहे हैं। शायद अब जमाने की रफ्तार के अनुसार त्रिपाठी जी ने इनका सम्पादन करके बिलकुल ‘अपटूडेट’ बना कर ‘स्वकीया’ के अन्दर कर दिया है। बहुत अच्छा हुआ। आखिरकार अब तो भारत में ‘कोर्टशिप’ की प्रथा का प्रचार हो ही रहा है, इससे ‘अनूढा’ तो ‘स्वकीया’ है ही, रही ‘ऊढा’ सो डाईवोर्स का प्रचार हो जाए तो वे भी स्वकीया श्रेणीभुक्त होने की अधिकारिणी हो जाएगी।