समस्या ज्यों की त्यों विद्यमान थी। सात महीने सोचते हुए बीत गये थे, लेकिन न तो शैलजा ही कोई उपाय सोच पायी और न ही शांतनु। ज्यों-ज्यों दिन निकट आते जा रहे थे शैलजा की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। पेट का बढ़ता आकार और घर और दफ्तर के काम - सुबह पाँच बजे से लेकर रात नौ बजे तक की व्यस्तता शैलजा को निढाल कर देती। वह सोचती, यदि घर के कामों में ही किसी का सहयोग मिल जाता तो इतना स्ट्रेन उसे बर्दाश्त न करना पड़ता। लेकिन शांतनु का सुबह-शाम के लिए कोई नौकरानी रख लेने का प्रस्ताव भी उसे स्वीकार नहीं था। नौकरानी के लिए निश्चित समय निर्धारित करना होगा और घर के कामों के लिए किसी प्रकार का बन्धन उसे पसंद नहीं। इसीलिए जैसे-तैसे निबटा ही लेती है काम।
और शांतनु चाहकर भी उसकी मदद नहीं कर पाता। सुबह आठ बजे वह कॉलेज के लिए निकल पड़ता है शैलजा के साथ। शैलजा केन्द्रीय सचिवालय के लिए बस पकड़ती है और शांतनु कॉलेज के लिए। कार्यालय से छूटकर शैलजा सीधे घर आ जाती है, लेकिन शांतनु रात नौ-दस से पहले कभी घर नहीं पहुँचता। कॉलेज के बाद कितने ही काम होते हैं उसके पास करने के लिए। कॉलेज की राजनीतिक गतिविधियों में तो वह सक्रिय है ही, विश्वविद्यालय प्राध्यापक संघ से भी संबद्ध है। इसके अतिरिक्त वह ‘अग्रिम दस्ता’ संस्था का संचालक भी है और इसी नाम से एक त्रैमासिक पत्रिका भी प्रकाशित करता है। संस्था और पत्रिका के लिए कॉलेज के बाद का अधिकांश समय उसका खर्च हो जाता है। कुछ वर्षों में ही उसकी सक्रियता के कारण ‘अग्रिम दस्ता’ उसके नाम का पर्याय बन चुकी है - शांतनु बनाम ‘अग्रिम दस्ता’। उसकी एक खास विचारधारा है - मार्क्सिस्ट-लेननिस्ट - और इस विचारधारा के लोगों का उसे भरपूर सहयोग प्राप्त होता रहता है।
जब भी ‘अग्रिम दस्ता’ की बैठक शांतनु के घर होती है, शैलजा का काम बढ़ जाता है। घंटों बैठक चलती रहती है - बहसें होती रहती हैं - इस देश के सर्वहारा की प्रगति और शोषण-मुक्त समाज की परिकल्पनाओं से लबालब बहसें शांतनु के किराये के लम्बे-चौड़े ड्राइंग रूम में गूँजती रहती हैं - और शैलजा चेहरे पर शिकन लाये बिना चाय-नाश्ते की व्यवस्था में निमग्न रहती है। उसे खुशी होती है यह सब करके। शांतनु की गतिविधियाँ उसे खिन्न नहीं करतीं। - और न उसे इस बात का खेद होता है कि शांतनु उसके लिए - घर के लिए बिलकुल समय नहीं दे पाता। वह यह सोचकर प्रसन्न होती रहती है कि उसका पति जो कुछ कर रहा है, उसके दूरगामी परिणाम अवश्य होंगे और एक दिन इस देश का ‘आम आदमी’ अपने अधिकारों को पा सकेगा। ऐसा सोचते समय उसे बार-बार लेनिन याद आते हैं और शांतनु लेनिन में परिवर्तित होता देखाई देने लगता है।
तब शैलजा मुग्ध हो उठती है मन-ही मन अपने चुनाव पर – माँ-पिता-भाई छूट गए उसके शांतनु के साथ शादी करने से तो क्या - शांतनु जैस पति तो उसे मिल गया। और उस दिन यह बात बार-बार उसे आंदोलित कर रही थी। वह किचन में चाय बना रही थी और ड्राइंग रूम में संस्था के सत्ताईस प्रमुख सदस्यों के मध्य शांतनु धीर-गंभीर आवाज में पत्रिका के आगामी अंक की रूपरेखा समझा रहा था।
‘माओत्से-तुंग के लेख का अनुवाद तो मैं कर लूँगा, और लूशुन की - ।’
शांतनु को बीच में ही टोककर कोई बोला था, ‘उसकी चिंता आप न करें - उसे मैं देख लूँगा।’
समय बहुत कम है और फिरोजशाह रोड की बैठक से पंद्रह दिन पहले पत्रिका प्रकाशित होना आवश्यक।’ शांतनु का स्वर था।
आप निश्चिन्त रहे।’ और लेनिन पर लेख - डॉक्टर परिमल, आपने कुछ किया?’
‘तैयार है - टाइप में दे दिया है।’ परसों तक मिल जायेगा?’
‘श्योर - बल्कि कल शाम ही दे दूँगा - कल तो आप कॉफी हाउस में मिलेंगे न?’
‘आ जाऊँगा - साढ़े सात के लगभग।’
‘बाबा - मेरे पास भगत सिंह का एक लेख है - धर्म और...।’ विश्वास था।
डॉक्टर विश्वास की बात बीच में ही शांतनु ने काट दी, ‘ठीक है - दे दीजियेगा। इस अंक में तो जा न पायेगा - अगले अंक के लिए देख लूँगा।’
विश्वास बुझ-सा गया। उसे विश्वास था कि जहाँ इतने लेख जा रहे हैं, वहाँ भगतसिंह के लेख के लिए भी गुंजाइश निकालनी ही चाहिए, लेकिन वह अधिक जोर नहीं दे सकता इसके लिए; क्योंकि उम्र में ही सबसे छोटा न था वहाँ वह - संस्था का सदस्य बने भी उसे अधिक समय नहीं हुआ था। और बाबा यानी शांतनु का निर्णय ही पत्रिका के विषय में अन्तिम होता था।
अग्रिम दस्ता’ संस्था की स्थापना के कुछ दिनों बाद से ही संस्था के सदस्य शांतनु को ‘बाबा जी’ कहने लगे थे। हालाँकि उसमें ऐसा कुछ था नहीं कि यह नाम उसके साथ जोड़ा जाता, सिवाय इसके कि सैंतीस की उम्र में ही उसके बाल भुट्टे जैसे होने लगे थे और वह फ्रेंच कट या कहा जा सकता है - लेनिन-कट दाढ़ी रखने लगा था। दाढ़ी के बाल अवश्य गंगा-जमुनी थे और दाढ़ी और बालों के प्रति वह विशेष सतर्क रहता और आम मोहल्ले के सैलूनों में वह दाढ़ी-बाल कभी सेट नहीं करवाता था। इसके लिए महीने में एक बार वह ‘कनॉट प्लेस’ जाता। वहाँ पैसे अवश्य अधिक खर्च करने पड़ते, लेकिन जब वह सैलून से बाहर निकलता, पूर्णतया संतुष्ट होता। ‘बाबा जी’ संबोधन के लिए उसके दाढ़ी-बाल तो एक कारण थे ही, दूसरा कारण उसकी कविताएँ थीं। उसकी कविताओं में साथियों को बाबा नागार्जुन की कविताओं जैसे बिम्ब दिखाई देते और लोगों ने साहित्य में बाबा नागार्जुन के अतिरिक्त एक और ‘बाबा’ को स्वीकार कर लिया था। हालाँकि यह सब संस्था के सदस्यों तक ही सीमित था - शेष शायद ही किसी ने शांतनु की कविताएँ पढ़ी थीं, लेकिन शांतनु को स्वयं को ‘बाबा’ कहे जाना अच्छा ही लगता था, बल्कि उसे बाबा कहा जाये यह भूमिका कभी उसी ने बनायी थी। वह तब और अधिक प्रसन्न होता जब शैलजा उसे ‘बाबा’ कहकर पुकारती थी।
उस दिन रात देर बैठक समाप्त होने के बाद जब दोनों बिस्तर पर गये तब शांतनु के दाढ़ी के बालों पर उँगलियाँ फेरते हुए शैलजा बोली, ‘बाबा, तुम इन बैठकों में ही व्यस्त रहोगे या आनेवाले के भविष्य के बारे में भी कुछ सोचोगे?’
शांतनु को प्यार आ गया शैलजा पर। करवट ले उसने शैलजा के बेडौल उदर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘मैं कहीं - कितना ही व्यस्त क्यों न रहूँ शैल - एक क्षण के लिए तुम्हारी और इस - की चिंता से मुक्त नहीं रहता। हम कितना सोच चुके हैं - हम दोनों के घर से तो कोई आयेगा नहीं - ।’
तुम तो कह रहे थे न कि तुम्हारी दीदी, जो विधवा हैं, शायद आ जायें।’
‘मैंने उन्हें पत्र लिखा था, कल ही उत्तर आया है - सॉरी शैल, तुम्हें बताने का ध्यान नहीं रहा - प्लीज डोंट माइण्ड - ।’ उसने शैलजा के होंठ चूम लिये, ‘दीदी ने लिखवाया है कि वे इसी हफ्ते देवर के साथ कलकत्ता जा रही हैं - देवरानी को भी शायद डिलिवरी होनेवाली है और वे देवर से पहले ही वायदा कर चुकी थी - हम लोगों ने यदि पहले लिखा होता तो शायद -।’
‘मैं तो कब से कह रही हूँ तुमसे - ।’ शिकायती स्वर में शैलजा बोली और उसने भी शांतनु की ओर करवट ले ली।
‘मैं समझता हूँ - हमें अब एक आया रखनी ही पड़ेगी।’
‘मैं आया रखने के पक्ष में नहीं हूँ - सारा दिन के लिए घर को क्या आया के भरोसे छोड़ा जा सकता है?’
‘क्यों नहीं?’ ड्राइंग रूम और किचन वगैरह खुला छोड़ दिया करेंगे - बच्चे सहित वह यहाँ रहेगी - दूसरे कमरे को बन्द कर दिया करेंगे। दो हजार रुपये मकान का किराया इसी सुविधा के लिए ही तो दे रहा हूँ न!’
‘नहीं - तुम समझते क्यों नहीं - आजकल नौकर और आया - इन पर विश्वास नहीं किया जा सकता - कब क्या कर गुजरें !’
‘फिर बच्चे को क्रेश में डाल दिया करेंगे - तीन महीने तो तुम्हें वैसे ही अवकाश मिल जायेगा और तीन महीने की ‘मेडिकल लीव’ ले लेना - फिर क्रेश - छः महीने का बच्चा तो क्रेशवाले रख ही लेते होगें?’
‘लेकिन मैं क्रेश के चक्कर में भी नहीं पड़ना चाहती।’
‘क्यों? कितने ही दम्पति ऐसा कर रहे हैं।’
‘कर रहे हैं - और रो भी रहे हैं।’
‘क्यों?’
‘सुनते हैं क्रेश में बच्चों को तरह-तरह की बीमारियाँ हो जाती हैं - सफाई नहीं रह पाती न वहाँ - डायरिया वगैरह तो आम बात है - और यह भी कि वहाँ आया वगैरह बच्चों को अफीम या कोई दूसरी नशीली चीज दे देती हैं, जिससे बच्चा सोता रहे - रो-रोकर परेशान न करे - जो दूध फल मां-बाप बच्चे के लिए भेजते हैं उसे वे खा-पी जाती हैं।’
‘ओह!’ शांतनु के चेहरे पर चिंता की रेखाएँ उभर आयीं। कुछ देर बाद वह बोला, ‘फिर शैल - ?’
‘मैं नौकरी छोड़ दूँ?’ शैलजा ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ा दीं।
‘कैसी पागलपन की बात कर रही हो - तुम्हें पता तो है, यह नौकरी कितनी मुश्किल से मिली थी तुम्हें - बच्चा बाबू के बँगले के चक्कर लगा-लगाकर जब तलवे घिस गये थे तब। नौकरी छोड़कर क्या तुम इतना बड़ा फ्लैट मेटेंन कर सकोगी और तब क्या मैं यह सब दुनियादारी कर सकूँगा? ‘अग्रिम दस्ता’ निकाल सकूँगा? देखती नहीं इसी के कारण कितने लोग पीछे घूमते रहते हैं! हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि आर्थिक स्वतन्त्रता हमारी गतिविधियों के लिए - इस आनेवाले के लिए आवश्यक है।’
‘मेरे नौकरी के प्रस्ताव पर तुम तो घबरा ही गये - अरे बाबा, मैं नौकरी कभी नहीं छोडूंगी - अब तो खुश।’ शैलजा ने उसके गाल थपथपा दिए।
शांतनु चुप रहा।
एक बात आज ही दिमाग में आयी है।’
‘कहो।’
‘मेरी सहेली है सुजाता - तुम्हें बताया था न - तुम्हें याद होगा, हमारी शादी के कुछ दिन बाद उसके पिताजी एक एक्सीडेंट में मारे गये थे। सुजाता उस समय एम.ए. (हिन्दी) फाइनल में थी। प्रथम श्रेणी आयी थी उसकी। आजकल वह मां के साथ अपने चाचा-चाची के साथ रह रही है। सुजाता मुझसे उम्र में कुछ वर्ष छोटी अवश्य है - लेकिन मेरी अच्छी फ्रेंड है या सच कहूँ तो मैं उसे बहन की तरह मानती हूँ। पीछे उसका पत्र आया था कि चाचा-चाची का व्यवहार उन लोगों के प्रति ठीक नहीं है। एम.ए. करने के बाद उसे कोई जॉब नहीं मिला ढंग का - डेढ़-दो सौ की स्कूल की प्राइवेट स्कूल मास्टरी छोड़कर। उसे जॉब की सख्त जरूरत है - कम से-कम इतना मिल जाय उसे, जिससे वह अपने साथ-साथ मां का भी पेट पाल सके - क्यों न फिलहाल उसे बुला लें? जब तक सुजाता को जॉब नहीं मिलता, वह घर संभालेगी। जैसे ही उसे जॉब मिल जायेगा - उसकी मां को बुलाया जा सकता है।’
‘तुमने पहले क्यों नहीं बताया?’
‘तो अभी क्या बिगड़ा है?’
‘फिर लिख दो सुजाता को - वह अकेले तुरन्त चली आए, जॉब की व्यवस्था हो जाएगी यहाँ - उसकी माता जी को बाद में बुला लेगें।’
‘क्या व्यवस्था करोगे उसके लिए?’ शैलजा ने पूछ लिया।
‘फिलहाल किसी कॉलेज में एडहाक लगवा दूँगा - बच्चा बाबू और ‘हेड ऑफ डिपर्टमेण्ट’ से कहना ही तो पड़ेगा - एक बार और सही। स्साला ‘हेड’ अपने इतने केंडीडेट इधर-उधर ठूंसता रहता है - मेरे एक केंडीडेट को नहीं रखेगा। उसके विरोध में होने का एक लाभ यह होगा या तो वह सुजाता को कहीं रखेगा या फिर उसका जुलूस निकलवा दूँगा - ‘अग्रिम दस्ता’ किस दिन काम आयेगा!’
‘फिर लिख दूं!’ ‘लिख दूं क्या – उठो - अभी लिख दो। सुबह दफ्तर जाते समय डाल देना - देखो मेज पर लिफाफा रखा है।’
शैलजा सुजाता को पत्र लिखने लगी और शांतनु करवट लेकर सोने का उपक्रम करने लगा। उस समय रात के ग्यारह चालीस बजे थे और गली में चौकीदर की पहली तेज सीटी के साथ सड़क पर उसका डण्डा खट-खट बज उठा था।
शांतनु भी उन लाखों दिल्लीवासियों में से एक था जो नौकरी की तलाश में इस महानगर में आते हैं। वैसे वह पटना के एक गाँव में जन्मा और उसने पटना विश्वविद्यालय से एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की थी। एक भूमिपति भूमिहार के बेटे को नौकरी की आवश्यकता नहीं थी - पिता भी यही चाहते थे कि शांतनु पटना में रहकर कोई व्यापार करे - पूँजी की कमी थी नहीं - और शांतनु भी पटना छोड़ना नहीं चाहता था। वहाँ की स्थानीय राजनीति में उसे रस मिलने लगा था और साहित्यिक गतिविधियों में भी वह सक्रिय होने लगा था। पटना और आस-पास के छोटे-बड़े साहित्यकार उसे जानने लगे थे। वह स्वयं किसी व्यापार में पूँजी लगाकर और सत्ता दल से संबद्ध होकर राजनीतिक विलासिता भोगना चाहता था। लेकिन उसका सोचा कहाँ हो सका था।
मधूलिका से उसकी मित्रता उसकी योजनाओं के लिए राहु बन गई थी। हालाँकि मधूलिका को लेकर उसकी नीयत साफ थी और जो कुछ भी मधु के साथ हुआ था वह उसके अनजाने में ही - प्रेम की अन्तिम परिणति सर्वत्र-सदैव जिस रुप में होती है - वही सब हो गया था। लोगों का यह आरोप असत्य था कि मधु जैसी सीधी-सादी गरीब बाप की बेटी को अपने धन-दौलत का सब्जबाग दिखाकर उसने उसका यौन-शोषण किया था। कितना घृणित आरोप था यह - यदि ऐसा ही होता तो वह मधु के समक्ष शादी का प्रस्ताव क्यों रखता! बस एक ही शर्त तो रखी थी उसने मधु से कि उसके पेट में बढ़ रही दोनों के प्रणय की परिणति से मधु पहले मुक्त हो ले, फिर वह उसके साथ शादी कर लेगा कोर्ट में जाकर।
सुनकर बिलखती हुई मधु बोली थी, ‘अपने ही रूप को नष्ट करना चाहते हो शांतनु - मुझ पर यह तुम्हारा दूसरा जुल्म होगा। प्लीज ऐसा करने के लिए मत कहो, शांतनु - ।’
‘तुम समझने की कोशिश करो मधु - घरवाले यह सब स्वीकार न करेंगे - वैसे ही पिता जी इस शादी को आसानी से नहीं मानेंगे - और ऊपर से कोढ़ में खाज यह - मेरी मजबूरी समझने का प्रयास करो, मधु - ।’ शिथिल स्वर में वह बोला था।
‘नही, मैं ऐसा नहीं करूँगी - हरगिज नहीं!’
‘एक बार सोचो - इस स्थिति में या किसी भी स्थिति में तुम्हारे साथ शादी करने का मतलब है पिता जी से कुछ भी पाने की आशा को त्यागना और तब अपने पैरों पर खड़ा होना ही एक विकल्प होगा - उस स्थिति में - दोनों के साथ तीसरे का बोझ - जरा सोचो - मधु, बच्चा तो हम व्यवस्थित होकर भी पा लेंगे...’ उसने मधु को समझाना चाहा था।
लेकिन मधूलिका चीख उठी थी, ‘नहीं - शांतनु!’ पेट पर हाथ रखकर वह बोली थी, ‘मैं इसे नष्ट नहीं कर सकती, भले ही - ।’
शांतनु चुप रहा था।
रात देर जब शांतनु होस्टल पहुँचा तब पता चला, पुलिस उसके कमरे के दो चक्कर लगा चुकी थी। क्यों? मधूलिका ने आत्महत्या कर ली थी! सीलिंग फैन से लटककर मरने के पूर्व एक पत्र छोड़ गई थी, जिसमें कहीं उसके नाम का भी उल्लेख था।
सुनकर शांतनु के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी थी। मित्रों ने सलाह दी कि उसे तुरन्त कहीं निकल जाना चाहिए। परीक्षाएँ समाप्त हो ही चुकी थीं। शांतनु ने भी निकल जाना ही उचित समझा था। उसे नारायण राय की याद आ गई थी। जेब में इतने रुपये थे कि दिल्ली की यात्रा के अतिरिक्त वहाँ कुछ दिन रहा जा सकता था - कम-से कम तब तक जब तक नारायण राय मिल न जाए। नारायण दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था और शांतनु का मित्र था।
नारायण विश्वविद्यालय के पी.जी. होस्टल में रहता था।
और उसी रात शांतनु दिल्ली के लिए रवाना हो गया था।
दिल्ली में पी.जी. होस्टल पहुँचने में उसे अधिक परेशानी नहीं हुई। नारायण से उसने सब कुछ स्पष्ट बता दिया। सुनकर नारायण मुस्कराया था, फिर बोला था, ‘ऐसे लोगों के लिए यह होस्टल निरापद जगह है गुरू - पुलिस झाँक नहीं सकती यहाँ।’
आश्वस्त हुआ था शांतनु।
‘यह वह स्थान है शांतनु जहाँ पार्षद तक लड़कियों के साथ बलात्कार कर जाते हैं - और अखबार इस बात पर चीखते रहते हैं - लेकिन प्रशासन और सत्ता खर्राटे लेते रहते हैं - तुम इसे अभयारण्य समझो और जब तक मैं यहाँ हूँ, ठाट से रहो।’
‘लेकिन कब तक यहाँ रहा जा सकता है - आखिर तुम भी तो...’
‘मैं अभी जा तो रहा नहीं - सेशन खत्म हो चुका है - फिर भी - वैसे तुम्हें बताऊँ ‘होम मिनिस्ट्री’ में हिन्दी अनुवादक के पद पर मेरा चयन हो चुका है। अगर जल्दी ज्वाइन करने को मिल गया तो कहीं कमरा ले लूँगा, यदि समय लगा तो यहीं। एम.फिल. के लिए प्रयास करूँगा - इसलिए तुम रहने-खाने-पीने की चिंता से मुक्त रहो।’
और शांतनु निश्चिन्त हो दिल्ली की हवा में अपने फेफड़ों को स्वस्थ करने लगा था।
सम्पर्क-सम्बन्ध बनने लगे थे शांतनु के भी। जे.एन.यू. के चक्कर भी वह लगाने लगा था, ख्योंकि वहाँ उसके प्रांत के छात्रों की संख्या पर्याप्त थी। और वहीं वह एक विशेष विचारधारा वाले युवकों-प्राध्यापकों के सम्पर्क में आया। कुछ महीने में ही शांतनु ने अपनी जड़ें जमा लीं और उसे अब कुछ ऐसे लोगों के सम्पर्क की तलाश थी जो किन्हीं महत्वपूर्ण पदों पर हों। घर उसने पिता को लिख दिया था कि वे उसकी चिंता न करें - और विश्वविद्यालय जाकर उसकी मार्क्सशीट भेज दें।
नारायण को ‘होम मिनिस्ट्री’ ने बुला लिया था। उसने वहाँ ज्वाइन कर लिया और मॉडल टाउन में एक बरसाती किराये पर लेकर वहाँ शिफ्ट कर गया। शांतनु भी उसके साथ था। शांतनु की पूरी जिम्मेदारी नारायण राय ने ओढ़ रखी थी। उसने जब भी पिता से पैसे मँगाने की बात चलायी, नारायण ने उसे डपट दिया - जब कहीं लग जाना - सूद ब्याज सहित दे देना। व्यर्थ में दिमाग को परेशान करने के बजाय कुछ और सोच।’
और शांतनु निश्चिंत हो गया था।
चार महीने बीत गये। पटना से शांतनु की मार्क्सशीट और कुछ सामान आदि आ गये थे। वहाँ मधूलिका प्रकरण ठंडा करवा दिया था उसके पिता ने पुलिस से मिलकर। नारायण शांतनु के लिए काफी परेशान रहने लगा था। एक दिन उसने शांतनु से कहा, ‘शाम छः बजे ‘आकाशवाणी बस स्टॉप’ पर मिल जाना - बच्चा बाबू के यहाँ चलेंगे - वैसे तो वे अपनी जातिवालों की आँख बन्द कर सहायता करते हैं - चाहे वह कहीं का भी राजपूत क्यों न हो - लेकिन यदि कोई बिहारी है तो वह चाहे जिस जाति का भी हो - उसकी भी भरपूर मदद वे करते हैं - अपने बिहार के ही तो हैं न वे भी।’
जे.एन.यू. के छात्रों के साथ उठ-बैठकर शांतनु जिस विचारधारा से जुड़ चुका था उसमें जाति और प्रांतीयता की गुंजाइश न थी, लेकिन इतने दिनों में उसने यह भी अनुभव कर लिया था कि जब तक किसी तोप का सहारा वह न लेगा, बेकारी की जंग जीत न सकेगा।
वह छह बजे नारायण को आकाशवाणी के बस स्टॉप पर मिला। दोनों पंडारा रोड स्थित बच्चा बाबू के बँगले पर पहुँचे। ज्ञात हुआ, बच्चा बाबू रात आठ बजे तक आयेंगे। दोनों चहल-कदमी करते रहे। नारायण उसे बच्चा बाबू की विशेषताएँ बताता रहा - उनकी साहित्यिक अभिरुचि पर प्रकाश डालता रहा - और यह समझाता रहा कि चूँकि शांतनु कविताओं के साथ-साथ आलोचनात्मक कार्य भी करता है - बच्चा बाबू उससे मिलकर अत्यधिक प्रसन्न होंगें। साहित्य की सीढ़ी चढ़ शांतनु बच्चा बाबू के निकट पहुँच सकता है और बच्चा बाबू यदि चाहें तो उसे प्रधानमंत्री सेक्रेटेरियेट तक में कोई महत्वपूर्ण पद दिला सकते हैं - किसी कॉलेज में लगवा सकते हैं - या कहीं सम्पादक भी बनवा सकते हैं - क्योंकि बच्चा बाबू पी.एम. के खास और विश्वसनीय अधिकारी हैं।
रात सवा आठ बजे बच्चा बाबू की गाड़ी बँगले में प्रविष्ट हुई। नारायण और शांतनु पहले ही पहुँच चुके थे। बच्चा बाबू के गाड़ी से उतरते ही नारायण ने लपककर उनके पैर छू लिए। शांतनु पर अब तक नारायण द्वारा वर्णित बच्चा बाबू छाये हुए थे। नारायण के हटते ही बिना कुछ सोचे शांतनु भी बच्चा बाबू के पैरों पर झुक गया। ‘अधिक प्रतीक्षा तो नहीं करनी पड़ी, नारायण?’ गंभीर स्वर में बच्चा बाबू आगे बढ़ते हुए बोले।
‘नहीं, सर!’ उनके पीछे घिसटते नारायण ने कहा। शांतनु भी साथ घिसट रहा था।
नारायण ने बच्चा बाबू से शांतनु का परिचय करवाया, कविता और आलोचना के क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उसे प्रस्तुत किया तो मधुर स्मिति के साथ बच्चा बाबू बोले, ‘तब तो शांतनु मेरे बड़े काम के हैं।’
‘बस सर, आप इस पर अपनी कृपादष्टि बनाए रखें - मेरा अच्छा मित्र है।’ नारायण ने हाथ जोड़ दिए थे।
‘चिंता न करो, नारायण - बस मिलते-जुलते रहना - तभी कुछ हो सकता है।’ बच्चा बाबू अभी भी मुस्करा रहे थे।
और उसके बाद बच्चा बाबू से शांतनु के मिलने का सिलसिला शुरू हो गया था।
एक दिन बच्चा बाबू ने उससे पूछ लिया कि उसे कौन-सी नौकरी अधिक पसन्द है। और शांतनु ने प्राध्यापकी को चुना था। सुनकर कुछ सोचते रहे थे बच्चा बाबू। फिर बोले थे, ‘हेड ऑफ डिपार्टमेंट से बात करूँगा विश्वविद्यालय के। दस दिन बाद पता कर लेना।’
दस दिन बाद जब शांतनु मिला, वे बोले, ‘तुमे एक काम करो-’मध्यप्रदेश की लोककथाएँ’ पर कर्य करके पंद्र-बीस दिन के अन्दर दे दो - पाण्डुलिपि पर किसी का नाम मत डालना।’
‘सर, किस प्रकार - ?’
शांतनु की बात बीच में ही काट बच्चा बाबू बोले, ‘यही - मध्य प्रदेश’ की जितनी भी लोककथाएँ मिलें, उनको एक स्थान पर संकलित कर दो - पाण्डुलिपि मुझे दे जाना। इस मध्य आशा है किसी कॉलेज में तुम्हे एडहॉक जगह मिल जाये।’
शांतनु ने पंद्रह दिन दिन-रात एक कर दिए। मध्यप्रदेश सूचना केन्द्र से लेकर कितने ही पुस्तकालयों के चक्कर लगाकर उसने लोककथाएँ एकत्रित कीं और ‘मध्यप्रदेश की लोककथाएँ’ पाण्डुलिपि एक दिन बच्चा बाबू को थमा दी। पाण्डुलिपि देख बच्चा बाबू उछल पड़े। बोले, ‘भाग्यवती डिग्री कॉलेज में अठारह तारीख को दो बजे तुम्हारे विषय के लेक्चरर पद के लिए साक्षात्कार है - एक रेगुलर और दो एडहॉक पोस्टस हैं। तुम कल जाकर प्रिंसिपल को आवेदन-पत्र दे दो। प्रिंसिपल हैं वहाँ उदयवीर सिंह - तुम्हारे लिए मेरी बात हो चुकी है और हेड ऑफ डिपार्टमेंट से भी बोल दिया है- इण्टरव्यू के लिए तुम्हारा नाम ‘इन्क्लूड हो जायेगा और हो भी जायेगा - फिलहाल एडहॉक-बाद में रेगुलर के लिए देखा जायेगा।’
‘मध्यप्रदेश की लोककथाएँ’ बच्चा बाबू के नाम से एक बड़े प्रकाशक के यहाँ से प्रकाशित हो गयी थी और शांतनु ‘भाग्यवती डिग्री कॉलेज’ में एक साल के लिए तदर्थ नियुक्ति पा गया था और वहीं से उसके जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ था।
‘भाग्यवती’ में उसके विषय के जितने भी प्राध्यापक दिन और सांध्य में थे, उनमें से आधे उसकी विचारधारा के थे। उनके साथ-साथ उस विचारधारा के दूसरे कॉलेज के प्राध्यापकों से संपर्क करने का अवसर शांतनु को मिला। कुछ ही दिनों में संपर्क संबंधों में बदल गया। उनमें से ही एक थे ‘रामजस कॉलेज’ के डॉ. अश्विनी बाजपेयी। अच्छे गीतकार-आलोचक। शांतनु उन्हें पसंद करने लगा और दोनों में घनिष्ठता स्थापित होने में अधिक समय नहीं लगा। शांतनु उनके घर आने-जाने लगा।
शांतनु ने नारायण के पास ही स्वयं भी एक बरसाती किराये पर ले ली, जहाँ प्रायः डॉ. बाजपेयी आ जाते और दोनों घंटों बातें किया करते। जिस दिन बाजपेयी न आते, शांतनु उनके घर चला जाता। डॉ. बाजपेयी मॉडल टाउन के फेज दो में रहते थे और शांतनु और नारायण फेज तीन में।
डॉ. बाजपेयी की पत्नी भी साहित्य में अभिरुचि रखती थीं और विचारधारा से कट्टर साम्यवादी थीं। वे भी उन दोनों की गप्प-गोष्ठी में शामिल रहतीं। कुछ दिनों बाद इस गोष्ठी में एक सदस्य की और बढ़ोत्तरी हुई थी। वह थी बाजपेयी की बहन राखी। डॉ. बाजपेयी ने उसके लिए हिन्दी की प्रोन्नति के लिए कार्यरत एक सरकारी संस्था में ‘टेक्निकल असिस्टेंट पद के लिए वहाँ के निदेशक से बात की थी और आते ही राखी को वहाँ तदर्थ नियुक्ति मिल गई थी।
राखी ने प्रथम मिलन में ही शांतनु को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। शांतनु उसके सौंदर्य का ही प्रशंसक न था, उसकी वक्तृता पर भी मुग्ध था। डॉ. बाजपेयी और उनकी पत्नी सावित्री उन दोनों को पर्याप्त अवसर भी देने लगे थे और उसका लाभ उठाकर राखी शांतनु के यहाँ तक जाने लगी थीं। कभी-कभी दोनों कनॉट प्लेस, लोधी गार्डन की ओर निकल जाते। उधर जाने का मन न होता तो राजघाट या प्रगति मैदान में ही बैठे रहते।
कितने ही दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा। शांतनु बच्चा बाबू के घर के निरन्तर चक्कर लगाता रहा और ‘भाग्यवती कॉलेज’ में उसके तदर्थ नियुक्ति की अवधि वर्ष दर वर्ष बढ़ती रही। पाँच वर्ष यों ही व्यतीत हो गये। इस मध्य राखी और शांतनु की मित्रता भी प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होती रही। राखी अपने कार्यालय में तदर्थ से स्थायी हो गई थी और प्राध्यापकी पाने के लिए उसने पी-एच.डी. के लिए मेरठ विश्वविद्यालय से रजिस्ट्रेशन भी करवा लिया था, लेकिन शांतनु अधर में लटका था। इसीलिए वह राखी के समक्ष कोई प्रस्ताव नहीं रख पा रहा था। लेकिन बाजपेयी के घर जाने, गप्पगोष्ठी करने का क्रम ज्यों का त्यों बना रहा। डॉ. बाजपेयी के घर आने वालों में एक और प्राध्यापक जुड़ गया था - डॉ. सुधांशु।
सुधांशु दिल्ली विश्वविद्यालय के एक डिग्री कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक था और विवाहित था। उसका अध्ययन गंभीर था - विशेषकर मार्क्सवादी साहित्य का। प्रयः उसके तर्कों के समक्ष शांतनु और बाजपेयी को चुप रह जाना पड़ता था। शांतनु उन दिनों राखी में एक परिवर्तन देखने लगा था - राखी सुधांशु के प्रति आकर्षित होने लगी थी और शांतनु के कहीं घूमने जाने के प्रस्ताव को अत्यन्त शिष्टता के साथ नकारने लगी थी। शांतनु तब और अधिक अपमानित-सा अनुभव करता जब उसके ही सामने राखी डॉ. सुधांशु के साथ कहीं जाने को तैयार हो जाती। लेकिन वह अभी भी राखी के प्रति आशान्वित था और बाजपेयी के घर जाने का सिलसिला ज्यों का त्यों बनाए हुए था।
और उन्हीं दिनों उसकी मुलाकात शैलजा से हुई थी डॉ. बाजपेयी के घर। शैलजा राखी की सहपाठिनी, लखनऊ में उसकी पड़ोसी और अच्छी मित्र थी। राखी ने ही उसे दिल्ली बुलाया था नौकरी के लिए और शैलजा घरवालों से विद्रोह कर दिल्ली आ गई थी।
शैलजा का गुलाबी सौंदर्य, झील-सी आँखें, सामान्य लम्बाई और सुगठित शरीर ने यकायक शांतनु को आकर्षित किया था। और राखी की उपेक्षा से त्रस्त शांतनु शैलजा की मित्रता का आकांक्षी हो उठा था। डॉ. बाजपेयी तो शैलजा की नौकरी के लिए प्रयत्न कर ही रहे थे, शांतनु भी उसे लेकर बच्चा बाबू से मिल आया था और बच्चा बाबू ने कुछ-न कुछ करने का आश्वासन भी दिया था।
बच्चा बाबू के कहने पर शांतनु ‘हिन्दी की नयी कविता’ पर एक आलोचनात्मक पुस्तक तैयार कर उन्हें पाण्डुलिपि सौंप आया था। यह पाण्डुलिपि भी बच्चा बाबू के नाम से शीघ्र ही प्रकाशित हो गई थी। लेकिन शांतनु को यह सौदा घाटे का न लगा था, क्योंकि उसके कुछ दिनों बाद ही वह ‘भाग्यवती कॉलेज’ में बच्चा बाबू की कृपा से स्थायी नियुक्ति पा गया था।
डॉ. बाजपेयी ने अपने ‘रिसोर्सेज’ का उपयोग कर शैलजा को आकाशवाणी में ‘लीव वैकेन्सी’ पर छः महीने के लिए नियुक्त करवा दिया था। शांतनु अपनी ओर से उसके लिए पृथक प्रयत्न कर ही रहा था। वह प्रायः शैलजा को आकाशवाणी से शाम दफ्तर से छूटने के बाद ‘पिक अप’ करता और दोनों कनॉट प्लेस के चक्कर लगाते हुए ‘मॉडल टाउन’ पहुँचते। राखी की मित्रता शुधांशु के साथ प्रगाढ़तर होती जा रही थी और शिक्षण-क्षेत्र में यह चर्चा होने लगी थी कि सुधांशु पत्नी को तलाक देकर राखी के साथ शादी करने का विचार कर रहा है।
और शांतनु शैलजा को अपना बनाने का विचार करने लगा था।
एक दिन कनॉट प्लेस में वोल्गा में बैठे हुए उसने शैलजा के समक्ष अपना प्रस्ताव रख ही दिया। शैलजा पहले से ही ऐसा सोच रही थी। उसने स्वीकृति दे दी। शान्तनु ने बाजपेयी से बात की, क्योंकि वही शैलजा के स्थनीय संरक्षक थे और बाजपेयी और उनकी पत्नी सावित्री ने इस पर प्रसन्नता ही नहीं व्यक्त की प्रत्युत ‘कोर्ट मैरिज’ की व्यवस्था भी उन्हीं ने ही की।
शादी के बाद शांतनु ने मॉडल टाउन छोड़ दिया। उसने ग्रीन पार्क में दो कमरे का फ्लैट किराये पर लिया। शादी के कुछ दिन बाद ही बच्चा बाबू की कृपा से शैलजा को होम मिनिस्ट्री में नियुक्ति मिल गयी थी। इसमें नारायण ने भी उसकी कुछ मदद की थी। लेकिन ग्रीन पार्क शिफ्ट कर लेने के बाद शांतनु नारायण से कम मिल पाता था। नारायण भी शादी कर गृहस्थी में खप गया था। अब शांतनु का संपर्क-क्षेत्र और विस्तृत हो गया था। बच्चा बाबू के यहाँ भी उसने जाना कम कर दिया था- साल में कभी एक बार।
शांतनु का सारा समय संस्था,पत्रिका, यूनियन या अन्य कामों में खर्च होने लगा था। शादी के दो-तीन वर्षों तक तो उन दोनों ने सायास बच्चा न होने देने का प्रयत्न किया, फिर दो-दीन साल चाहने पर भी बच्चा नहीं हुआ और अब जब होने वाला था तब शैलजा और शान्तनु उसके पालन-पोषण को लेकर चिन्तित थे।
शैलजा ने जब पत्र समाप्त किया तब तक शांतनु खर्राटे लेने लगा था।
और एक दिन जब शैलजा दफ्तर से शाम को लौटी, सुजाता को कमरे से बाहर छत को जाने वाले जीने की सीढ़ियों पर बैठी पाया। सुखद आश्चर्य से उसने सुजाता को गले लगा लिया। उसे आशा तो थी कि सुजाता आ जायेगी, लेकिन यह नहीं कि पत्र लिखने के एक सप्ताह के अंदर ही उसके पत्र का उत्तर दिए बिना सुजाता साक्षात आ उपस्थित होगी।
वर्षों बाद वह मिली थी सुजाता से। सुजाता के चेहरे पर वही सलोनापन दिखा शैलजा को। घंटों वह सुजाता के सुख-दुख और अपने व्यवस्थित होने से लेकर शांतनु के स्वभाव की विशिष्टताओं को वर्णित करती रही। सुजाता ड्राइंग रूम की सजावट निरखती सब सुनती रही थी। कीमती सोफा, फर्श पर महंगी कार्पेट,। रंगीन टी।वी।,डाइनिंग टेबुल और दीवार पर लटकी मूल्यवान कलाकृतियाँ। एक ओर मार्क्स, लेनिन के साथ मैक्सिम गोर्की और लूशुन के चित्र टंगे थे। उनके बगल में शैलजा और शांतनु का सहचित्र भी लगा हुआ था सुनहरे फ्रेम में। शांतनु का दाहिना हाथ शैलजा के कंधे पर था और शैलजा मुसकरा रही थी। शांतनु मुग्ध भाव से शैलजा की ओर देख रहा था। दूसरी ओर प्रेमचंद और टैगोर लटक रहे थे। दीवार पर बने शेल्फ पर मोटी-मोटी किताबें शीशे से बाहर झाँक रही थीं। एक कोने में कवर से ढका सितार रखा हुआ था।
‘सितार का शौक बरकरार है अभी?’ सुजाता ने बात का रुख मोड़ना चाहा।
‘कभी-कभी दो-चार महीने में एक बार- व्यस्तता इतनी है कि कुछ हो नहीं पाता - दिल्ली की जिन्दगी - बस कुछ मत पूछो - तुम आ गई हो, स्वयं देखोगी।’
सुजाता चुप रही।
‘बाबा हैं कि एक क्षण के लिए घर के लिए समय नही देते और - ।’
सुजाता ने शैलजा की बात बीच में ही काट दी, ‘यह बाबा जी कौन हैं?’
ठठा पड़ी शैलजा, ‘अरे शांतनु को ‘अग्रिम दास्ता’ वाले बाबा जी कहते हैं - तुम तो पहली बार मिलोगी न - वह लगता ही है पूरा बाबा - दिन भर काम में व्यस्त - कभी संस्था के लिए, कभी पत्रिका के लिए, कभी यूनियन के लिए तो कभी किसी व्यक्ति के लिए। न खाने की चिन्ता, न पहनने की। जो मिल गया खा-पहन लिया - बड़ा प्यारा इंसान है।’
‘आप बहुत चाहती हैं उन्हें।’
‘ऑफ कोर्स-है ही वह इस लायक। खाली हाथ दिल्ली आया था वह और तुम देख रही हो - क्या नहीं है आज हमारे पास - अच्छा-खासा नाम है उसका शिक्षण-क्षेत्र के साथ-साथ साहित्य में - तुम खुद ही देख लेना।’
सुजाता कुछ सोचने लगी थी। बोली नहीं।
शैलजा ही बोलती रही - संस्था, पत्रिका और शांतनु के बारे में। उसे यह भी याद नहीं रहा कि सुजाता इतना लम्बा सफर तय करके आयी है, उसे चाय-नाश्ता देना है। आखिर सुजाता को ही बोलना पड़ा, ‘शैल, बाथरूम किधर है - फ्रेश होना चाहती हूँ।’
‘अरे, मैं भी कितनी बोर हूँ, तुझे बातों में लगा दिया - सामने ही बाथरूम है - तू फ्रेश हो - मैं चाय बनाती हूँ।’
सुजाता उठने लगी तो उसने पूछा, ‘चाय बनाऊँ या कॉफी?’
‘चाय ही लूँगी।’
सुजाता फ्रेश होकर लौटी तब तक शैलजा चाय बना चुकी थी। चाय पीते समय वह लखनऊ, घर और परिचितों के बारे में पूछती रही। कुछ रिश्तेदारों के बारे में भी। उसे सुनकर दुख हुआ कि उसके बड़े भाई के एक और बेटी पैदा हो गई थी इतने दिनों में और यह कि उसके शांतनु के साथ विवाह करने के बाद से माँ प्रायः बीमार रहने लगी थीं। पिताजी तो जैसे तब थे, वैसे अब भी रहते हैं - अलमस्त।
चाय पीकर उसने सुजाता को अन्दर वाला कमरा दिखा दिया, जहाँ वह स्वयं सोती थी। सुजाता अटैची उठाकर कमरे में चली गयी और कपड़े बदलने लगी। शैलजा किचन में चली गई।
कपड़े बदलकर सुजाता भी किचिन में चली गई और शैलजा के न-न करने के बावजूद हाथ बंटाने लगी। जब शैलजा ने कहा, ‘आज तुम आराम कर लो - फिर तुम्हीं को सँभालना होगा कुछ दिन यह सब’, तब सुजाता बोली, ‘वह तो तुम्हें देखते ही मैं समझ गयी थी - फिर आज से ही क्यों नहीं!’
शैलजा समझने का प्रयत्न करती रही कि सुजाता ने व्यंग्य तो नहीं किया।
रात दस बजे के लगभग शांतनु आया। साथ में विश्वास भी था। सुजाता को देखकर शांतनु की आँखें चमत्कृत रह गयीं। वह उसे एकटक देखता रहा बहुत देर तक। सुजाता शर्मा गई।
विश्वास चाय पीकर चला गया तो शांतनु अंदर कमरे में आया। शैलजा और सुजाता एक ही बेड पर लेटी थीं। हड़बड़ाकर सुजाता उठ बैठी। शांतनु मुसकराने लगा, फिर बोला, ‘शैल, उठो, खाना खायेंगे - आओ, सुजाता - ’ और वह ड्राइंग रूम की ओर मुड़ पड़ा।
शांतनु के इस प्रकार के संबोधन से सुजाता के गाल सुर्ख हो गये। उसे लगा जैसे शांतनु उसे यह एहसास कराना चाहते थे कि वह उसे आज से नहीं पहले से जानते हैं। उसे यह देखकर अटपटा लगा कि शांतनु ने पैंट के ऊपर खादी का कुर्ता पहन रखा है और वह भी स्लीव के पास दो जगह फट रहा था।
शैलजा के साथ खाने का सामान लेकर जब सुजाता ड्राइगं रूम में पहुँची, शांतनु डाइनिंग टेबुल पर डटा हुआ था। खाना खाते समय वह दिन-भर के अपने कार्यक्रमों की जानकारी देता रहा और अनेक बार सुजाता को लक्ष्य कर उसने अपनी बात कही। सुजाता लगभग पूरे समय चुप रही थी।
सुजाता के आ जाने से शैलजा को राहत मिली थी। शांतनु भी निश्चिंत था, लेकिन उसे सुजाता के लिए जॉब की चिंता सताने लगी थी। शैलजा लगभग प्रतिदिन रात खाने के समय उसे इस बात की याद दिला देती थी। हर दिन उसका एक ही जवाब होता, ‘आज नहीं जा पाया - कल जरूर जाऊँगा बच्चा बाबू के पास। हेड से भी बात करूँगा...’ एक दिन सुजाता की आँखों में झाँकते हुए उसने पूछा, ‘क्यों सुजाता - फिलहाल किसी कॉलेज में एडहाक मिल जाए तो कोई आपत्ति तो नहीं?’
‘आपत्ति कैसी?’ सुजाता का संक्षिप्त उत्तर था।
‘दरअसल दिल्ली विश्वविद्यालय की यह विशेषता है कि वहाँ पहले एडहॉक ही रहना पड़ता है - कभी कभी वर्षों और कभी-कभी जिन्दगी ही एडहॉक में कट जाती है कुछ लोगों की - यह निर्भर करता है कैण्डीडेट की एप्रोच पर - और बिना एप्रोच यहाँ कुछ होता नहीं - यू.पी. वगैरह में रिश्वत चलती है तो यहाँ एप्रोच। और हिन्दी में तो स्थिति यह है कि यहाँ गुट बने हुए हैं - साम्यवादी गुट और संघी गुट - वर्षों से कोई संघी गुट का आदमी ही विभागाध्यक्ष होता आ रहा है - अब भी एक ऐसा ही प्रचण्ड मूर्ख अध्यक्ष है, जो रीतिकाल के अतिरिक्त कुछ नहीं जानता - वैसे वह मेरा विरोधी तो है, लेकिन डरता भी है कहीं अन्दर-ही अन्दर - जब भी मिल जाता है, खुद ही नमस्कार करता है।’
सुजाता शांतनु की बातें ध्यान से सुन रही थी। शांतनु को लगा वह उससे प्रभावित हो रही है। बोला, ‘तुम चिंता न करो - मैं कुछ भी उठा न रखूँगा। दयाल सिंह में सांध्य के लिए एक एडहॉक और एक रेगुलर वैकेन्सी आने वाली है - तुम भी विज्ञापन पर नजर रखना - मैं भी और तुम भी शैलजा।’
लगभग पंद्रह दिन बाद शांतनु सुजाता को लेकर एक दिन बच्चा बाबू के पास गया। मिलकर बच्चा बाबू ने भी ऐसा प्रदर्शित किया जैसे वे भी उसे वर्षों से जानते हों। उन्होंने भी उसे आश्वस्त किया कि वे दयालसिंह के लिए पूरा प्रयत्न करेंगे, भले ही पी.एम. से फोन करवाना पड़े। और यदि वहाँ काम नहीं बना तो वे अन्यत्र कहीं देखेंगे - लेकिन देखेंगे जरूर और सुजाता को अधिक दिन बेकार नहीं रहना पड़ेगा। बच्चा बाबू को जब शांतनु ने बताया कि सुजाता उन्हीं की जाति की है तब बच्चा बाबू की आँखें चमक उठीं थीं और सुजाता की पीठ पर हाथ फेरते हुए वे बोले थे, ‘बिलकुल चिन्ता मत करो, तुम्हारा काम जरूर होगा - सैंकड़ों ऐरे-गैरों को लगवा चुका हूँ - फिर तुम्हारे लिए क्यों न करूँगा।’ उसके बाद शांतनु की ओर मुड़कर उन्होंने पूछा था, ‘आजकल क्या लिखा जा रहा है, शांतनु?’
‘कुछ नहीं, सर! पत्रिका के काम में लगा हूँ।’ शांतनु घबरा रहा था कि कहीं कोई विषय इस बार भी न थमा दें बच्चा बाबू (इसीलिए उनके यहाँ जाना उसने लगभग बन्द कर दिया था)। लेकिन सुजाता के लिए तो कुछ करना ही था और बच्चा बाबू से बड़ा सोर्स उसके पास कोई था नहीं। सुजाता की समस्या हल हो जाने से उसे अपनी समस्या हल होती नजर आ रही थी। उसके लगते ही सुजाता की मां के आ जाने की पूरी आशा थी। और यही नहीं, अब वह अन्दर-ही अन्दर सुजाता के प्रति एक लगाव-सा अनुभव करने लगा था। जब वह बेडौल शैलजा को सामने रख सुजाता को देखता, सुजाता के प्रति अजीब आकर्षण अनुभव करने लगता।
बच्चा बाबू केवल मुसकराये थे उस दिन और केवल इतना ही कहा था, ‘जिस दिन दयाल सिंह की वैकेन्सी निकले उस दिन आकर बता जाना और जब साक्षात्कार के लिए बुलाया जाये उसके एक दिन पहले बता जाना - बस।’
वह और सुजात आश्वस्त होकर लौट पड़े थे।
सुजाता समझ रही थी कि शांतनु उसके लिए जी-तोड़ प्रयत्न कर रहा था। शांतनु उसके लिए अपने कॉलेज के पुस्तकालय से ढेर सारी पुस्तकें ले अया था पढ़ने के लिए। अपनी निजी लाइब्रेरी से तो छूट थी ही, सुजाता जो चाहे पुस्तक निकालकर पढ़े। शैलजा को पूरी तरह कार्यमुक्त कर दिया था सुजाता ने। सुबह जब तक शैलजा उठती, सुजाता सारा काम निबटा चुकी होती। शांतनु और शैलजा के जाने के बाद घर के शेष काम निबटाकर सुजाता कुछ-न कुछ पढ़ने बैठ जाती।
दयालसिंह के लिए वैकेन्सी निकल गयी थी और शांतनु वहाँ से फार्म लाकर सुजाता से भरवाकर जमा कर आया था। दूसरे दिन वह सुजाता को लेकर फिर बच्चा बाबू से मिलने गया था। लौटते समय शांतनु ने सुजाता से पूछा था कि क्यों न कनॉट प्लेस होकर घर लौटा जाय! सुजाता को कोई आपत्ति न थी। वह उसे वोल्गा ले गया था और वहाँ साढ़े नौ बजे रात तक बैठा रहा था। वह सुजाता को समझाता रहा था कि भाषा पर उसकी पकड़ मजबूत है और उसे कविता-कहानी, जो भी वह लिख सकती है, अवश्य लिखना प्रारंभ कर देना चाहिए।’
‘मैं और कविता-कहानी - आप क्यों मेरा उपहास कर रहे हैं?’ सुजाता खिलखिला उठी थी।
अपनी स्वाभाविक गंभीर मुद्रा में शांतनु बोला, ‘ऐसा मत कहो - मैं कभी किसी का उपहास नहीं उड़ाता - तुम मेरी बात को सीरियसली लो।’
सुजाता सोचने लगी कि शांतनु ने अवश्य उसमें कुछ ऐसा देखा होगा तभी तो कहा! वैसे भी शांतनु उतनी ही बात कहते हैं जितनी आवश्यक होती है, यह वह जबसे आयी थी, देख रही थी।
कनॉट प्लेस से लौटते समय शांतनु ने थ्री ह्वीलर लिया और सुजाता से सटकर बैठा था। रास्ते भर सुजाता की काया का रह-रहकर स्पर्श उसे मिलता रहा था और उसके अन्दर बेचैनी उभरती रही थी।
दूसरे दिन सुजाता ने एक छोटी-सी कविता लिखी थी। रात खाने के समय उसने शांतनु को दिखाई। पढ़कर वह उछल पड़ा। शैलजा ने उसे शांतनु के हाथ से झटक लिया और उसने भी शिथिल स्वर में कविता की प्रशंसा की। उसकी प्रशंसा की ओर ध्यान न देकर शांतनु बोला, ‘क्या खूब विचार हैं - गजब के क्रांतिकारी! मैं इस कविता को ‘अग्रिम दस्ता’ के लेटेस्ट अंक में छापूंगा।’
‘ऐसा तो नहीं है...’ सुजाता ने कहना चाहा था, लेकिन उसे बीच में ही टोककर शैलजा बोली थी, ‘बाबा झूठ थोड़े ही बोलेंगे।’
‘अच्छा बाबा...’ सुजाता खिलखिला उठी थी।
‘बहुत नटखट हो तुम - ’ सुजाता की आँखों में झाँकते हुए शांतनु बोला था और उठकर अपना कविता संग्रह ‘क्रांति होकर रहेगी’ शेल्फ से निकालकर सुजाता के सामने रख दिया था।
‘वाह साहब, तो यह भी एक उपलब्धि है आपकी - पहले क्यों नहीं बताया था?’ सुजाता की आँखें चमत्कृत थीं।
‘हर समय - हर बात नहीं बतायी जाती सुजाता - इसे गंभीरतापूर्वक पढ़ना, फिर बताना कैसी लगी।’ गंभीर स्वर में बोला था शांतनु।
डाइनिंग टेबुल पर वही दोनों बचे थे। शैलजा उठकर आराम करने चली गई थी। देर रात तक शांतनु सुजाता को कविता और उसकी क्षमता, शब्द-शक्ति और बिम्ब विधान आदि के बारे में बताता रहा था और यह भी कि आज ऐसी रचनाओं की आवश्यकता है, जो सर्वहारा को आंदोलित कर सकें - उन्हें क्रांति के लिए सन्नद्ध कर सकें। बिना क्रांति के शोषण-मुक्त समाज की कल्पना रेत-महल की भाँति है - ।’
शांतनु ने देखा था कि सुजाता उसकी बातों से प्रभावित हुई थी।
दूसरे दिन शाम चार बजे ही शांतनु घर आ गया। सुजाता उसका कविता संग्रह पढ़ रही थी उस समय। शांतनु को अच्छा लगा, लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। सोफे पर धंसते ही बोला, ‘एक कप चाय पिला दो सुजाता - थक गया हूँ।’
सुजाता चाय बना लायी तो कप लेते हुए शांतनु ने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा, ‘कैसा लगा कविता संग्रह?’
सुजाता भी चाय लेकर सामने सोफे पर बैठ गई और बोली, ‘केवल दो रह गई हैं पढ़ने को - बस ऐसा लगता रहा कि जल्दी ही क्रांति होकर रहेगी - क्या कविताएँ लिखी हैं आपने?’
‘अवश्य होकर रहेगी क्रांति - अगर तुमने चाहा तो!’ मन-ही मन खुश होते हुए ऊपर से गम्भीरता ओढ़े शांतनु बोला।
‘क्या मतलब?’ सुजाता चौंकी।
‘मतलब यह,’ गर्म-गर्म चाय जल्दी से घुटककर कप तिपाई पर रख सुजाता की उँगलियाँ छूकर वह बोला, ‘इनके सहयोग की जरूरत है - यानी तुम्हारी लेखनी अब निरंतर चलती रहनी चाहिए- फिर देखना।’
‘ओह!’ सुजाता ने लम्बी साँस ली और अन्तिम घूंट लेकर कप रख दिया। शांतनु उठकर उसके बगल में आ बैठा, फिर सुजाता का दाहिना हाथ अपने हाथ में ले बोला, ‘तुम्हें अपने को पहचानना चाहिए, सुजाता! मैं तो शैल से भी कहता रहा - शुरू में तो उसने कुछ उत्साह दिखाया भी, लेकिन बाद में घर में अपने को खपा दिया -अरे, अपनी प्रतिभा को मारने के बजाय उसे विकसित करना चाहिए - और तुममें मैं देखता हूँ प्रतिभा है।’
सुजाता ने हाथ खींच लिया और वक्र दृष्टि से शांतनु को निहारती रही। उसके इस प्रकार देखने से शांतनु अपने अंदर भूचाल-सा उठता महसूस करने लगा। उसे सुजाता की गोल-गुलाबी मुखाकृति, स्निग्ध त्वचायुक्त सुगठित शरीर और बड़ी-बड़ी मोहक आँखें आकर्षित करने लगीं। उसने लपककर उसे चूम लिया। सुजाता विद्युत गति से उठकर दूसरे सोफे पर जा बैठी और बोली, ‘आने दो शैल को - ।’ उस क्षण उसके गाल सुर्ख हो रहे थे।
शांतनु ने उठना चाहा, तभी घंटी घनघना उठी। सुजाता ने दरवाजा खोला - शैलजा थी। सुजाता और शांतनु - दोनों ही उसकी सेवा में व्यस्त हो गये थे।
डॉक्टर ने शैलजा को कमजोरी बतायी थी और दस दिन आराम करने की सलाह दी थी। शैलजा का केवल एक माह बचा था और वह केवल एक सप्ताह पूर्व मैटर्निटी लीव लेना चाहती थी। दस दिन के लिए उसने ‘मेडिकल लीव’ अप्लाई कर दी।
सुजाता पूरी तरह उसकी सेवा में व्यस्त रहने लगी। शांतनु उसके लिए दो बार और बच्चा बाबू से मिल आया था और हेड से मिलकर तय कर लिया था कि सुजाता को दयालसिंह में रख देने पर शांतनु और उसके साथी ‘भाग्यवती कॉलेज’ में होने वाली आगामी नियुक्ति में हेड के कैण्डीडेट का विरोध नहीं करेंगे।
लेकिन एक दिन शांतनु ने रात खाने के समय बताया, दयालसिंह में पहले से ही रेगुलर और ‘लीव वैकेन्सी’ के ‘अगेंस्ट’ लोग काम कर रहे हैं और संघी धड़ वाले एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं उनको नियुक्ति दिलाने के लिए। सुजाता का विरोध तो अवश्य होगा - क्योंकि यह मेरे यहाँ रहती है। यह बात भी हो रही है कि मैं सुजाता के लिए हेड को पटा रहा हूँ।’
‘फिर - ?’
सुजाता का चेहरा उदास हो गया था। ‘तुम इतने से ही घबरा गयीं! अरे, इन अंघियों-संघियों से निबटना आता है मुझे - तुम चिन्ता क्यों करती हो।’
सुजाता कुछ नहीं बोली। शायद वह पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पा रही थी।
‘और तुम्हारे क्या हाल हैं, मैडम?’ शांतनु ने पत्नी से पूछा।
‘सोचती हूँ अभी से अप्लाई कर दूं छुट्टी - हिम्मत नहीं पड़ती दफ्तर जाने की।’
शांतनु कुछ सोचने लगा, फिर बोला, ‘और तो कोई उपाय नहीं है - कर दो।’ फिर उसने सुजाता की ओर देखा।
‘सुजाता, ऐसा करते हैं - कल चलकर एक बार फिर बच्चा बाबू से मिल लेते हैं - शायद जल्दी ही इन्टरव्यू होने वाले हैं।’
‘चलिए।’ बुझे स्वर में बोली सुजाता।
दूसरे दिन शांतनु सुजाता को लेकर बच्चा बाबू के यहाँ गया, लेकिन ज्ञात हुआ कि वे पी.एम. के साथ हैदराबाद के दौरे पर गये हैं - दो दिन बाद लौटेंगे। वहाँ से दोनों कनॉट प्लेस चले गये और वोल्गा में कुछ देर बैठकर लौटे।
शैलजा ने छुट्टियों की एप्लीकेशन भेज दी और अब वह दिन गिनने लगी थी। उसे इस बात में कोई रुचि नहीं रही थी कि सुजाता की नौकरी का क्या हो रहा था और शांतनु कब-कहाँ आता-जाता था। वह या तो दिन भर लेटी रहती या आने वाले शिशु के लिए कपड़े-कच्छी या स्वेटर तैयार करती रहती। नवम्बर शुरू हो गया था और डॉक्टर द्वारा दी गई तारीख के अनुसार दस दिन शेष थे। प्रथम प्रसव के कारण वह जितना आतंकित थी, उससे कहीं अधिक प्रसन्न थी। वह जिस चीज की इच्छा व्यक्त करती, सुजाता तुरन्त उसके लिए तैयार करके देती। अस्पताल के लिए किन-किन चीजों की जरूरत होगी, शैलजा के निर्देश पर सुजाता उन्हें व्यवस्थित करके एक ओर सँभालकर रखती जा रही थी।
और उसी सब शेष दिन भी बीत गए।
जिस दिन दोपहर की डाक से सुजाता को दयाल सिंह कॉलेज से इंटरव्यू लेटर मिला, उसके कुछ देर बाद ही शैलजा को प्रसव-पीड़ा प्रारंभ हो गई। सुबह ही शैलजा ने शांतनु को तबीयत अजीब होने की आशंका व्यक्त कर सीधे घर आ जाने के लिए कह दिया था। शैलजा कराहने लगी तो सुजाता घबड़ा उठी। वह बार-बार दरवाजे पर जाकर शांतनु को देखने लगी। साढ़े तीन बजे के लगभग शांतनु आया। सुनकर वह टैक्सी लेने दौड़ा। सुजाता भी शैलजा के साथ ‘आल इंडिया इंस्टीट्यूट ‘गई। शैलजा को एडमिट कर बाहर दोनों बेंच पर बैठे रहे। शैलजा की प्रसव-पीड़ा बढ़ गई थी और शांतनु का चेहरा सूख-सा रहा था।
‘आप कुछ अधिक ही परेशान हैं।’ सुजाता ने छेड़ा उसे।
‘नहीं, ऐसा तो नहीं है।’ शांतनु ने मुसकराने की कोशिश की।
‘आज बुलावा आ गया है।’
‘कैसा बुलावा?’
‘नहीं समझे! क्यों बुद्धू बन रहे हैं!’ झिड़का था सुजाता ने - ‘आज दोपहर इंटरव्यू लेटर आ गया है।’
‘मुबारक हो।’ शांतनु बोला।
‘फिर कब चलेंगे बच्चा बाबू के यहा? उन्हें बताना होगा न!’
‘कब है इंटरव्यू?’
तीस की दोपहर दो बजे’
‘अभी कई दिन हैं। कल या परसों शाम चलेंगे... आज रात तक शायद शैल का रिजल्ट - ।’
‘रात नहीं तो सुबह तक तो निश्चित ही ओपेन हो जाएगा।’ सुजाता मुसकरा दी शांतनु ने उसके गाल पर चिकोटी काट ली।
‘सी’ कर सुजाता थोड़ा खिसक गई।
रात दस बजे के लगभग नर्स ने कहा, ‘आप लोग कल सुबह आएं। अभी उसे वक्त लगेगा और डॉक्टर ने किसी को भी न रुकने के लिए कहा है।’
शांतनु और सुजाता उठ खड़े हुए। बाहर सड़क पर आकर शांतनु ने थ्री व्हीलर लिया। आज पुनः सुजाता के शरीर का स्पर्श उसे सुखकर लग रहा था और अंदर से बेचैन कर रहा था।
घर पहुँचकर कपड़े बदल वह बेड पर लेट गया और बोला, ‘सुजाता, मेरी तो इच्छा है नहीं कुछ खाने की। तुम चाहो तो अपने लिए कुछ बना लो।’
‘बनाना क्या, सुबह का बना फ्रिज में रखा है। लेकिन इच्छा तो मेरी भी नहीं है कुछ खाने की।’
‘फिर कुछ देर बातें करते हैं। तुम चाहो तो कपड़े बदल लो। इजी हो जाओ। फिर-’ सुजाता की आँखों में झाँकते हुए वह बोला।
सुजाता दूसरे कमरे मे चली गई और गाउन पहनकर सोफे पर आ बैठी।
‘वहाँ क्यों बैठ गईं! इधर आ जाओ। कंबल पैरों पर डाल लो।’
सुजाता बेड पर बैठ गई शांतनु के दूसरी ओर। शांतनु की नजरें उसके चेहरे पर गड़ी थीं। अचकचाकर सुजाता ने पूछ लिया – ‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’
‘बस, ऐसे ही।’ शांतनु का मन हुआ, उसे दबोच ले बाज की तरह; लेकिन वैसा न कर पूछा, ‘कोई और कविता लिखी?’
‘कविता नहीं, इस समय इंटरव्यू की बात कीजिए।’
‘अरे, उसकी चिंता तुम क्यों कर रही हो! तुम्हारा सेलेक्शन श्योर है! आज मैं प्रॉमिस लेकर आया था हेड से।’
‘सच !’
‘तो तुम क्या समझती हो,मुझे तुम्हारी बिलकुल ही चिंता नहीं! अब इस विषय को मुल्तवी करो कल तक के लिए। कल या परसों हम चलेंगे ही बच्चा बाबू के यहाँ।’
‘जैसा आप चाहें; मुल्तवी कर देती हूँ।’
‘अब हम कविता की बात क्यों न करें! तुम्हारी कविता, तुम्हारे क्रांतिकारी विचार -’ सुजाता का हाथ अपने हाथ में थाम बोला शांतनु।
‘और आप अपने कविता संग्रह की बात क्यों नहीं करते! बहुत कुछ तो मैंने आपसे सीखा है!’ हाथ ढीला छोड़ वक्र दृष्टि उस पर डाल सुजाता बोली।
‘और भी बहुत कुछ सिखा दूँगा तुम्हें, सुजाता।’ शांतनु सुजाता को अपनी ओर खींच बोला, ‘सच सुजाता, कविता की तरह तुम भी मुझ पर छा गई हो! क्यों न हम आज एक नई कविता गढ़ें - और क्रांति होकर ही रहे।
सुजाता न-न तो कर रही थी, लेकिन उसके विरोध में शक्ति न थी। शांतनु उसके विरोध को उसकी स्वीकृति समझ रहा था। उसके हाथ क्रांति की जमीन तैयार करने में व्यस्त हो गए थे। सुजाता लगातार अपने पर उसका दबाव महसूस करती जा रही थी और क्षण भर बाद - सुजाता की चीख के साथ शांतनु की क्रांति शुरू हो गई थी।
उस समय ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ में शैलजा प्रसव की मर्मांतक पीड़ा से छटपटा रही थी।