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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/ब्रूनो की बेटियाँ(iii)
 

 

 
जो रिसता था बारिश के दिनों में
उनके घर थे
जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में।


वहाँ रात ढलती थी
चाँद गोल बनता था


दीवारें थीं
उनके आँगन थे
जहाँ तिनके उड़ कर आते थे
जिन्हें चिड़िया पकड़ लेती थीं हवा में ही।


वहाँ कल्पना थी
वहाँ स्मृति थी।


वहाँ दीवारें थीं
जिन पर मेघ और सींग के निशान थे
दीवारें थीं
जो रोकती थी झाड़ियों को
आँगन में जाने से।


घर की दीवारें
बसने की ठोस इच्छानएँ
उन्हें मिट्टी के गीले लोंदों से बनाया गया था
साही के काँटों से नहीं
भालू के नाख़ून से नहीं

 
कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है
और कैमरों से रंगीन पर्दों पर
 

वे मिट्टी की दीवारें थीं
प्राचीन चट्टानें नहीं
उन पर हर साल नयी मिट्टी
चढ़ाई जाती थी !
वे उनके घर थे - इन्तज़ार नहीं।
पेड़ के कोटर नहीं
उड़ रही चील के पंजों में
दबोचे हुए चूहे नहीं।


सिंह के जबड़े में नहीं थे उनके घर
पूरी दुनिया मे नक़्शे में थे एक जगह
पूरे के पूरे


वे इतनी सुबह काम पर आती थीं
उनके आँचल भीग जाते थे ओस से
और तुरत डूबे चाँद से


वे इतनी सुबह आती थीं
वे कहाँ आती थीं ? वे कहाँ आती थीं ?
वे क्यों आती थीं इतनी सुबह
किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह ?


क्या वे सिर्फ़ मालिकों के लिए
आती थीं इतनी सुबह
क्याथ मेरे लिए नहीं?
क्याथ तुम्हारे लिए नहीं?


क्या उनका इतनी सुबह आना
सिर्फ़ अपने परिवारों का पेट पालना था ?
 

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