पाँचवाँ
अध्याय
चौथे
अध्याय
में जो कुछ भी कहा गया है वह अर्जुन के और दूसरों के भी बड़े ही काम
का है। इसमें शक की जगह नहीं है। अर्जुन चुपचाप
ध्यानपूर्वक
इसीलिए सुनता भी रहा। कर्म-अकर्म के विशद निरूपण और ज्ञान के स्वरूप
के प्रतिपादन ने उसे
मुग्ध
कर दिया था। अन्त में जो यह कहा गया है कि कर्मों के करते-करते
संन्यास प्राप्त कर लेने पर ही ज्ञान होता,
आत्मा की प्राप्ति होती और कर्मों के
बन्धन
से छुटकारा मिल जाता है,
उससे भी उसे पूरा सन्तोष हुआ। फलत: भीतर ही भीतर
अपने तात्कालिक कर्तव्य की
उधेडबुन
वह करने ही लगा था कि एकाएक निराली बात
अध्याय
के आखिरी श्लोक में कह दी गयी! उसे तो यह देखना था कि मैं किस दशा
में हूँ। आया मुझे अभी कर्म ही करना चाहिए,
या अब मेरी योग्यता ऐसी हो गयी है कि संन्यास ले
लूँ। क्योंकि उपदेश सुनने के बाद उसे सोचना-विचारना और परिस्थिति के
अनुसार ही काम करना था। वह उसी
उधेडबुन
में लगा भी था। तब तक चटपट आज्ञा हुई कि खड़े हो जाओ और युध्दात्मक
कर्म में जुट जाओ।
इससे उसके मन
में खलबली मचना और सन्देह होना जरूरी था। क्योंकि कृष्ण को क्या पता
कि वह किस दशा में है,
उसकी
योग्यता क्या है
? उसका
पता तो आत्मनिरीक्षण के बाद अर्जुन को ही लग सकता था। निरीक्षण की
कसौटी भी उसे चौथे अध्याय में मिली ही थी। फिर कृष्ण को यह कहने की
क्या जरूरत थी कि तुम्हें तो कर्म ही करना है,
न कि
संन्यास लेना ?
तब तो
उपदेश की कोई जरूरत थी ही नहीं। किन्तु सीधे आज्ञा देनी थी,
फौजी
फरमान जारी कर देना था कि लड़ना होगा। मगर जब उपदेश हो रहा है और
तर्क-दलील के साथ बरा-बार कहा जा रहा है कि जानो,
समझो,
सोचो,
विचारो
'बोध्दव्यम्,
विध्दि',
तब यह
क्यों हुआ ?
तब यह
आज्ञा कैसी कि लड़ो
?
तब तो यह
उपदेश का नाटक ही माना जायगा न
?
कम से कम इस
प्रकार का ख्याल उसके दिमाग में बिजली की तरह एकाएक दौड़ जाना
स्वाभाविक था। फलत: कृष्ण से उसका चटपट प्रश्न करना जरूरी हो गया कि
एक ही साँस में दोनों बातें क्यों कहते हैं
?
या तो कर्म ही
कहिए और बात खत्म कीजिए;
या
संन्यास की ही बात कहिए और सोचने दीजिए कि आया मैं उसका अभी अधिकारी
हो पाया हूँ या नहीं। यह झमेला ठीक नहीं। साफ-साफ बोलिए। इसीलिए-
अर्जुन
उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
एच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥1॥
अर्जुन ने
पूछा-हे कृष्ण,
आप
(पहिले तो) कर्मों के संन्यास की बात कहते हैं और (फौरन ही) उन्हें
करने को कहते हैं! (यह क्या
?) इन
दोनों में जो अच्छा हो वही मुझे पक्का-पक्की बताइए।1।
यहाँ
'कर्मणां'
इस
षष्ठी विभक्ति के बाद
'संन्यास'
और
'योगं'
लिखने
से स्पष्ट हो जाता है कि संन्यास कहते हैं कर्मों के त्याग को और योग
कहते हैं उनके करने को। इसीलिए हमने
'कर्मेन्द्रियै:
कर्मयोगं' (3।7)
आदि
में 'करना'
यही
अर्थ किया है। यही वहाँ जँचता भी है। ऐसी दशा में यहाँ,
चौथे
अध्याय के अन्त में या ऐसी ही और जगहों में भी योग का दूसरे अध्याय
वाला कर्मयोग अर्थ जो लोग कर डालते हैं,
फिर भी
अपने अर्थ में खींचातानी देख पाते नहीं,
उनसे
हमें इतना ही अर्ज करना है कि खींचतान किसी की मौरूसी नहीं है। इसलिए
वे खुद अपने बारे में ही सोचने का कष्ट करें।
अर्जुन के
पूछने का यह भी अभिप्राय है कि यदि ज्ञान के लिए संन्यास जरूरी न हो
और कर्म से ही काम चलता हो,
तो
साफ-साफ कहते क्यों नहीं
?
आखिर
आत्मज्ञान तो आवश्यक है। उसके बिना तो काम चलने का नहीं । अब अगर
उसके लिए खामख्वाह संन्यास जरूरी न हो,
तो यही
बात साफ-साफ कह दीजिए। क्योंकि अब तक के कथन से तो पता चलता है कि
दोनों की जरूरत है। मैंने समझी है भी दोनों की जरूरत समानरूप से ही।
इसीलिए किसी को भी अपने मौके पर छोड़ा नहीं जा सकता। दोनों के ही
अलग-अलग मौके आते भी हैं। लेकिन अगर आप ऐसा मानते हों कि मेरी समझ
गलत है और दोनों की जरूरत समान नहीं है;
किन्तु
कर्म की ही आवश्यकता अनिवार्य है;
इसलिए
वही हर हालत में अच्छा है-कर्तव्य है,
तो यही
बात निश्चित रूप से साफ-साफ कह दीजिए। या अगर आप यह मानते हों कि
जरूरत तो दोनों की इक सी ही है;
दोनों
के ही अपने-अपने अवसर भी आते हैं,
फिर भी
कर्म की विशेषता इसलिए है कि वह पहली सीढ़ी है;
फलत:
उस पर पाँव दिये बिना संन्यास की दूसरी सीढ़ी पर या तो पहुँची नहीं
सकते या पहुँचने में खतरा है;
साथ ही,
कर्मों
के करने में दिक्कतें और परेशानियाँ जो होती हैं,
उन्हीं
के करते लोग जी चुरा के उनसे भागना चाहते हैं;
यही
कारण है कि कर्म पर जितना जोर देना जरूरी हो जाता है उतना संन्यास पर
नहीं;
यही नहीं,
कर्म
पर ही जोर देने और उसी को अच्छा बताने पर जब लोग उसमें पड़ जायँगे तो
संन्यास का मौका तो स्वयं आई जायगा और उसे लोग करी लेंगे;
तो यही
बात स्पष्टतया कह दीजिए।
कृष्ण खासतौर
से इसी आखिरी अभिप्राय से ही बातें कर रहे थे। उनके कहने का आशय भी
यही था। इसीलिए उसी को स्पष्ट करने के लिए पुनरपि-
श्रीभगवानुवाच
संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु
कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥2॥
श्रीभगवान् ने
उत्तर दिया-(बेशक),
कर्मों
का संन्यास और उनका करना (ये दोनों ही) परम कल्याण-मोक्ष-के देनेवाले
हैं। लेकिन इनमें संन्यास से योग-कर्मों का करना-ही अच्छा है।2।
ज्ञेय:
स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥3॥
हे महाबाहु,
उसी को
सदा संन्यासी मानना चाहिए जिसे न राग है,
न
द्वेष-जो न कुछ हटाना चाहता है,
न कुछ
लेना। क्योंकि जो (इस प्रकार) राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित है
वही आसानी से बन्धनों से छुटकारा पा जाता है।3।
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥4॥
सांख्य-संन्यास (और) योग को-दोनों को-दो चीजें ना समझ लोग (ही) मानते
हैं। (क्योंकि) यदि एक पर भी अच्छी तरह कायम रहे तो दोनों का फल मिली
जाता है।4।
यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं
साख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥5॥
जो स्थान
संन्यास से मिलता है वही योग से भी। (इसलिए इस तरह) संन्यास तथा योग
को जो एक ही समझता है (दरअसल) वही समझदार है।5।
संन्यास्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चरेणाधिगच्छति॥6॥
हे महाबाहु,
बिना
योग के संन्यास की सिध्दि-प्राप्ति-असम्भव है। (विपरीत इसके) जो
योगयुक्त है अर्थात् कर्म करता है उसे संन्यास की प्राप्ति शीघ्र ही
होती है।6।
आगे बढ़ने के
पहले इन पाँच श्लोकों के सम्बन्ध में कुछ बातें कह देना जरूरी है। एक
तो यह कि दूसरे श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका आशय वही है जो उससे
पहले हमने अर्जुन के प्रश्न के अभिप्राय के विवेचन के सिलसिले में
आखिर में कह दिया है। कर्म के खतरों को ध्यान में रख के ही उस पर
जोर देना कृष्ण जरूरी समझते हैं। उनके जानते वास्तविक संन्यास में
कोई खतरा है नहीं और कच्चे संन्यास को रोकने के लिए कर्मों पर ही जोर
देना जरूरी हो जाता है। मगर सर्वसाधारण के सामने हर बात इतनी सफाई के
साथ कही तो जा सकती नहीं। क्योंकि सब लोग इसे समझ पाते नहीं और भटक
जाते हैं। इसीलिए यही बातें दूसरे तरीके से कही जाती हैं जिन्हें
वेदवाद या अर्थवाद का तरीका गीता ने भी माना है और पुराने लोगों ने
भी। कृष्ण ने भी यही तरीका यहाँ अपनाया है।
असल में
संन्यास की सीढ़ी कर्मों के बाद आने के कारण ऊँची तो हुई। उसकी
जवाबदेही भी बड़ी है। इसीलिए शास्त्रों ने उसकी प्रशंसा काफी की है।
मगर दिक्कत यह होती है कि जन-साधारण प्रशंसा के कारणों और रहस्यों को
न समझ सकने के कारण उसके बाहरी रूप पर ही लट्टू हो के उसी ओर झुक
पड़ते हैं। फलत: कर्मों से हटने का खतरा बराबर रहता है। इसीलिए तीसरे
श्लोक में यह दिखाया गया है कि असली संन्यासी वही है जो रागद्वेष एवं
काम-क्रोध से शून्य हो,
जिसमें
बैर-विरोध आदि होई नहीं। उसे ही मुक्ति मिलती भी है। अब यदि यही
काम-क्रोधदि का त्याग कर्म करने वाले में आ जाय तो उसके दोनों ही हाथ
में लड्डू हैं। वह योगी का योगी-कर्मी-तो ठहरा ही। साथ ही,
यदि
देखा जाय तो संन्यासी भी हो गया और इस तरह उसने मुक्ति का रास्ता साफ
कर लिया। इससे फायदा यह होता है कि एक तो पाखण्ड और मिथ्याचार के रूप
में संन्यास को प्रश्रय नहीं मिलता। दूसरे जन-साधारण उससे हिचक जाते
और सोचने लगते हैं कि तब तो कर्म ही अच्छा है। क्योंकि हम
काम-क्रोधदि से शून्य तो हो सकते नहीं और इसमें ऐसा होना जरूरी भी
नहीं,
जबकि संन्यास
में नितान्त आवश्यक है। इसलिए आइए,
कर्म
ही करें और यथासम्भव काम-क्रोधदि को भी रोकें,
ताकि
आगे का भी रास्ता धीरे-धीरे साफ होता चले।
एक बात और भी
है। यदि यह निश्चय हो कि संन्यास और योग के फलस्वरूप जो स्थान या पद
मिलते हैं,
या
मुक्ति होती है वह दो चीजें हैं,
तो
स्वभावत: ख्याल होगा कि संन्यास के ऊँचे दर्जे की चीज होने के कारण
उसके फलस्वरूप जिस वस्तु की प्राप्ति होगी वह अवश्य ही श्रेष्ठ होगी,
और
श्रेष्ठ पदार्थ कौन नहीं चाहता
?
इसलिए उसी की
आतुरता और लोभ के चलते बहुत लोग फिर भी संन्यास पर जोर मार सकते हैं
और असमय ही उस ओर पाँव बढ़ा दे सकते हैं। अतएव यह बताने की जरूरत है
कि दोनों के दो फल न हो के दोनों का सम्मिलित फल एक ही है। चाहे
संन्यासी हों या कर्मी हों,
या
आगे-पीछे दोनों ही हों,
जायँगे
हर हालत में एक ही स्थान पर। एक ही स्थान के रास्ते के ये दो विभाग
हैं,
न कि और कुछ।
ऐसी दशा में एक तो बेचैनी और लोभ जाता रहेगा। दूसरे यह ख्याल होगा
कि जब रास्ते को पूरा ही करना है और पहले भाग के पूरा करने पर ही
दूसरा आयेगा तो जल्दबाजी क्यों करें
?
ऐसा करने से
मिलेगा भी क्या
? यही
बात आगे के दो-4,5-श्लोकों
में स्पष्ट की गयी है।
कुछ लोगों का
भ्रम हो सकता है और हो भी गया है कि श्लोकों के अनुसार यद्यपि फल है
एक ही;
तथापि दोनों
मार्ग उसकी प्राप्ति के लिए स्वतन्त्र हैं;
न कि
एक ही लम्बे मार्ग के ये दो पड़ाव हैं। मगर बात ऐसी नहीं है। चौथे
श्लोक के पूर्वार्ध्द के देखने से यह ख्याल जरूर हो जाता है कि
दोनों-संन्यास और योग-को जो एक कहा है वह इसीलिए कि इन दोनों
स्वतन्त्र मार्गों से एक ही जगह पहुँचते हैं। मगर जब उसी के
उत्तारार्ध्द पर गौर करते हैं तो यह ख्याल मिट जाता है और दोनों
मिला के एक ही रास्ता पूरा होता दीखता है। उत्तारार्ध्द का अर्थ यह
है कि ''यदि
एक रास्ते पर भी ठीक-ठीक चलें तो भी दोनों के फल मिल जाते हैं।''
इसमें
दो बातें हैं। पहली है दोनों के फल के मिलने की। यदि दोनों का फल
स्वतन्त्र रूप से एक ही होता तो इतना ही कहना काफी था कि
''वही
फल मिलेगा''-''तदेव
विन्दते फलम्।''
यह
कहने की क्या जरूरत थी कि एक पर चलने पर भी दोनों का फल मिलता है
?
दोनों कहने से
तो दोनों का सम्मिलित फल मिलता है,
यही
अर्थ निकलता है। एक कहने के बाद दोनों का-उभयो:-कहने पर दूसरा अर्थ
होई नहीं सकता। नहीं तो इतना ही कहना पर्याप्त था कि चाहे किसी
रास्ते पर चलिए नतीजा एक ही होगा।
लेकिन
''एक
पर भी ठीक-ठीक चले''-''एकमप्यास्थित:
सम्यक्''
यह भाग तो और
भी सफाई कर देता है। इसमें जो
'ठीक-ठीक'
विशेषण
लगा है वह यही बताता है कि रास्ते की पाबन्दी अच्छी तरह होना जरूरी
है। जल्दबाजी में एक रास्ते को छोड़ के दूसरे पर जाने में खतरा है। यह
तो सम्भव नहीं कि तीसरा भी रास्ता हो जिसमें भटक जायें और दो में एक
पर भी चल न सकें। क्योंकि जब दोई का नाम लेते हैं और तीसरे की चर्चा
भी नहीं करते तब उसका प्रश्न आता ही कहाँ है
?
और जब तीसरा
यहाँ उपस्थित हुई नहीं तब तो इतना ही कहना काफी है कि एक पर या किसी
पर भी चलने पर वहीं पहुँचेंगे। भटकने की बात हुई नहीं। हो भी क्यों
?
जो लोग
मोक्षमार्गी हैं उनके भटकने की बात गीता क्यों कहे
? वह
तो सारी बातें जानते हैं। उनने तो जान लिया है कि दो रास्ते हैं।
जानना शेष यही है कि आया ये दोनों ही एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं,
या एक
ही रास्ते के दो पड़ाव और विभाग हैं। अगर पड़ाव की बात नहीं है तो इतना
ही कहना काफी था कि चाहे किसी पर भी चलिए वहीं पहुँचिएगा। ठीक-ठीक
चलना तो हुई। गलत जाने की तो बात हुई नहीं है।
मगर जब
'ठीक-ठीक'
या
'सम्यक्'
कहा है
तो इससे कृष्ण का यही आशय जाहिर होता है कि हरेक पड़ाव को पूरा कर
लेना होगा। नहीं तो जल्दबाजी करने में रास्ता पूरा न होगा। लक्ष्य
स्थान पर पहुँच भी न सकेंगे। अनजान या आतुरता में कोई जल्दी ही
संन्यासी बन जाने की कोशिश न करे,
इसीलिए
यह चेतावनी है। क्योंकि ऐसा करने पर रास्ते पर ठीक-ठीक चलना नहीं हो
सकेगा। पाँचवें श्लोक में स्पष्ट भी कर दिया है कि संन्यास और योग से
जब एक ही जगह पहुँचना है तब घबराहट की क्या बात
?
योग में भी तो
रास्ता तय करी रहे हैं। उसके पूरा होते ही संन्यास वाला पड़ाव या वह
स्थिति भी अपने आप आयेगी ही। तब क्योंहों
?
अब आखिरी बात
यही रह जाती है कि एक ही मार्ग के दो पड़ाव होने पर भी पहले संन्यास
आता है,
या योग,
कौन
कहे ?
पहले संन्यास
ही क्यों न माना जाय
?
ऐसा सोचना
असम्भव नहीं । असल में आलस्य और अकर्मण्यता के करते स्वभावत: लोग
सोचते रहते हैं कि मुक्ति भी मिल जाय और विशेष कुछ करना न पड़े तो
अच्छा हो। यह भी ख्याल होता है कि जभी तक कर्मों के फन्दे से बचें
तभी तक सही। पीछे देखा जायगा। इसीलिए ऐसा ख्याल होना जरूरी है कि
पहले संन्यास ही क्यों न हो। तीसरे अध्याय के शुरू में ही यह ख्याल
दिखाया भी गया है। इसी का उत्तर छठे श्लोक में दिया है कि संन्यास
बाद की चीज है पहले तो योग ही आता है। इसीलिए योग के बिना संन्यास का
होना असम्भव है। यदि सच्चा संन्यास चाहते हैं तो पहले योग या कर्म
करना आवश्यक है। इस पर तीसरे अध्याय के शुरू में ही हमने काफी
प्रकाश डाला है।
छठे श्लोक में
ब्रह्म का अर्थ संन्यास है यह पता गौर से पूरे श्लोक के पढ़ने से ही
लग जाता है। हमने यह बात बहुत पहले बखूबी सिध्द भी की है। इसलिए जो
लोग ब्रह्म का परब्रह्म या परमात्मा अर्थ करते हैं वह भूलते हैं। जब
पूर्वार्ध्द में संन्यास की बात है तो उत्तारार्ध्द में एकाएक
परब्रह्म कैसे और कहाँ से आ गया
?
शुरू में तो
उसका प्रसंग भी नहीं आया है। इसी प्रकार पूर्वार्ध्द में जो
'दु:खमाप्तुम्'
शब्द है
उसका भी अर्थ है कि मिलना या प्राप्त करना असम्भव है। जो लोग इसका यह
अर्थ करते हैं कि कष्ट से मिलता है वह अक्षरों का अर्थ भले ही ठीक
करते हों;
मगर तात्पर्य गलत बताते हैं। ऐसा मुहावरा है कि
असम्भव की जगह कह या लिख दें कि
कष्टसाध्य
है। जैसे अंग्रेजी से इसका कोई काम नहीं है,
के मानी में 'इट् हैज
लिटिल यूज' (It has
little use)
बोलते हैं;
मगर लिटिल का थोड़ा अर्थ नहीं करते। वैसे ही
संस्कृत में भी ऐसा लिखने-बोलने की रीति है।
योग या कर्म
करते-करते कैसे मन और इन्द्रियों पर काबू रख के पूर्ण ज्ञान प्राप्त
किया जाता है और इस प्रकार कर्मों से छुटकारा प्राप्त किया जाता है,
या यों
कहिए कि कर्मों के करते रहने पर भी आत्मज्ञान के बाद वे आत्मा में
कैसे नहीं लिपटते या आत्मा उनमें नहीं चिपकती,
यही
बात आगे दूर तक कही गयी है। कर्मों से कैसे अन्त:करण की,
मन की
शुध्दि होती है इत्यादि बातें आगे के बीस (7-26)
श्लोकों में पूरी हुई हैं बल्कि यों कहिए कि कुल अध्याय ही इसी में
पूरा हो गया है। क्योंकि
26वें
के बाद दोई श्लोकों में पातंजल योग और समाधि की बात,
ज्ञान
की पूर्ण प्राप्ति के लिए,
कह के
29वें
में अध्याय को ही पूरा कर दिया है।
योगयुक्तो विशुध्दात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥7॥
कर्म
करते-करते जिसका मन या अन्त:करण अत्यन्त निर्मल और इसीलिए अपने काबू
में हो गया है (और उसके फलस्वरूप) इन्द्रियाँ भी काबू में हैं वह खुद
सभी सत्ताधारी पदार्थों की आत्मा ही हो जाता है। (इसीलिए) कर्म करते
हुए भी वह उसमें सटता नहीं।7।
नैव किञ्चित्करोमीति
युक्तो मन्येत तत्तववित्।
पश्यन्
शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन्श्वसन्॥8॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्त्तन्त
इति धारयन्॥9॥
(इस
प्रकार) पूर्ण अवस्था को प्राप्त योगी तत्तवज्ञानी हो जाने पर
देखता-सुनता,
छूता,
सूँघता,
खाता,
चलता,
सोता,
साँस
लेता,
बोलता,
मल-मूत्र त्यागता,
पकड़ता
और पलकें मारता हुआ भी यही धारणा रखता है कि यह तो इन्द्रियाँ ही
अपने कामों में लगी हैं;
मैं तो
कुछ भी करता-कराता हूँ नहीं।8।9।
ब्रह्मण्याधाय
कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते
न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा॥10॥
(लेकिन
जो इस तरह पहुँचा हुआ न भी हो ऐसा भी) जो कोई भगवान् को समर्पण करके
और हाय-हाय तथा आसक्ति छोड़ के कर्मों को करता है वह (भी) पाप से वैसे
ही नहीं सटता जैसे कमल का पत्ता पानी में रह के भी पानी से नहीं
सटता।10।
कायेन
मनसा बुध्दया केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिन:
कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुध्दये॥11॥
(क्योंकि)
कर्म करने वाले समझदारी से काम ले के और आसक्ति एवं हाय-तोबा को छोड़
के मन की शुध्दि के लिए केवल शरीर से,
केवल
इन्द्रियों से और केवल मन से कर्म करते रहते हैं।11।
युक्त:
कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्त:
कामकारेण फले सक्तो
निबध्यते॥12॥
(इस
तरह) समझदार और मन पर काबू रखने वाले कर्मों के फलों से नाता तोड़ के
ब्रह्मनिष्ठा-जीवन्मुक्ति-की शान्ति हासिल कर लेते हैं। (विपरीत
उनके) जो लोग समझदार और मन को दबाने वाले नहीं हैं वे फलों में लिपट
के जन्म-मरण आदि के बन्धनों में फँसते हैं।12।
ऊपर के तीन-10-12-श्लोकों
को देखने और एक साथ मिलाने से स्पष्ट हो जाता है कि इनमें जो बातें
कही गयी हैं वह आत्मज्ञानी की नहीं हैं। किन्तु साधारण कर्मियों की
ही हैं,
जिन्हें योगी
भी कहा है और युक्त भी। यही ठीक है कि वह गीता की गिनती में आने वाले
हैं,
न कि लम्पट।
लम्पटों की तो उलटे
12वें
श्लोक के उत्तारार्ध्द में निन्दा की है,
उनकी
दुर्दशा लिखी है। इसीलिए
10वें
श्लोक वाले 'ब्रह्मण्याधाय'-'ब्रह्म
में स्थापित करके'
का
अर्थ हमने 'यत्करोषि'
(9।27-28)
के
अनुसार भगवान् को समर्पण रूप पूजा ही किया है। ज्ञानियों को तो पहले
ही कह दिया कि वह कर्म से अपना ताल्लुक मानते ही नहीं हैं। फिर वे
क्या उन्हें ब्रह्म में रखेंगे
?
उन्हें कर्मों से लिपटने का सवाल भी कहाँ आता है
?
असल में ये तो
वही लोग हैं जो या तो भगवान् की पूजा की ही भावना से कर्म करके मन की
शुध्दि प्राप्त करते हैं,
या
सीधे इसी ख्याल से कि कर्म से मन:शुध्दि हो। मगर यों तो निराधार
कर्म होगा नहीं। मन:शुध्दि के लिए करने के भी तो कोई मानी नहीं जब तक
कर्मों को कहीं एक जगह बाँध या एक ही लक्ष्य में लगाया न जाय। फिर
चाहे वह ईश्वर-पूजा हो,
यज्ञ
हो,
या ऐसी ही और
कोई चीज। इसलिए पहले-10वें-से
मिलाकर ही 11वें
का अर्थ करना जरूरी हो गया है।
12वें
में भी जो कर्म के फल के त्याग से ब्रह्मनिष्ठावाली शान्ति की
प्राप्ति कही गयी है वह भी क्रमश: मन की शुध्दि आदि के द्वारा ही
होती है,
न कि सीधे
कर्मों से ही। क्योंकि केवल फल के त्यागने पर भी कर्म तो रही जाता है,
और जब
तक दोनों न छूटें वह शान्ति मिलेगी कैसे
?
मगर वह तो
छूटेंगे ज्ञान के बाद ही और वह प्राप्त होगा मन की शुध्दि आदि के
द्वारा ही। जब अध्याय के शुरू में ही सभी प्रकार के कर्मों की बात
आयी है तब तो ऐसे मन:शुध्दयर्थ कर्मों का यहाँ निरूपण ठीक ही है।
अब रह जाती है
11वें
श्लोक के उत्तारार्ध्द की एकाध बात। एक तो बुध्दि से कर्म होते नहीं
हैं। वे तो होते हैं सिर्फ शरीर या इन्द्रियों से ही और दोनों का
मददगार होने के कारण मन भी उसी दल में आ सकता है। मगर अगर बुध्दि या
अक्ल ठीक हो,
समझदारी से काम ले के कर्मों या उनके फलों की हाय-हाय को छोड़ दें और
फलों में भी आसक्ति छोड़ दें,
तो उन
कर्मों से यज्ञ की पूर्ति या भगवान् की पूजा की भावना के द्वारा मन
की शुध्दि हो जाती है। फिर तो वे कर्म केवल शरीर,
मन या
इन्द्रियों के ही रह जाते हैं। अर्थात् मन उनके करने में मददगार होने
पर भी फल में नहीं सटता। बुध्दि भी नहीं चिपकती। ऐसी दशा में सबों की
सम्मिलित चीज वे रहें तो कैसे
?
सम्मिलित होने के लिए तो आसक्ति और हाय-तोबा जरूरी है।
'केवलै:'
कहने
का यही मतलब है। यह
'केवलै:
विशेषण 'कायेन
मनसा'
का भी है।
हमने ऐसा ही अर्थ लिखा भी है।
अब आगे
अध्याय के अन्त तक जो कुछ कहा गया है वह आत्मज्ञानियों के ही कर्मों
के सम्बन्ध में है। उनकी क्या भावना होती है,
किस
प्रकार सर्वत्र उनकी समदृष्टि होती है,
इत्यादि बातें अत्यन्त विशद रूप में आयी हैं।
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥13॥
मन और
इन्द्रियों को अपने अधीन रखने वाला देह का मालिक जीव मन के द्वारा
विवेक से सभी कर्मों का संन्यास करके नौ दरवाजे वाले पुर में आराम से
रहता है (और) न कुछ करता है,
न
करवाता है।13।
जैसे कोई
महाराजा या बड़ा आदमी किसी गढ़ में रहता है जिसके दरवाजे होते हैं;
वही
दशा यहाँ रूपक के रूप में बताई गयी है। शरीर ही वह गढ़ है। चक्षु,
श्रोत्र,
नासिका के छ:
छिद्र,
मुख और
मल-मूत्र त्याग के छिद्र यही नौ दरवाजे हैं। जीवात्मा गढ़ का मालिक है
और मन उसका मन्त्री है। इन्द्रियाँ नौकर-चाकर हैं। वशी कहने के मानी
यही हैं कि वह सभी नौकर,
मन्त्री आदि पर अंकुश रखता और सतर्क रहता है। इसीलिए विवेक से काम ले
के मन से ही कर्मों का संन्यास कर डालता है। क्योंकि इन्द्रियाँ ही
तो दरअसल कर्म करती हैं। विवेक न होने से सभी कर्मों को अपने आप में
मानता था। अब विवेक होने से मन ने उन कर्मों को आत्मा से अलग करके
जहाँ वे वस्तुत: हैं वही मान लिया। यही हुआ संन्यास। देही कहने के
मानी हैं कि जीते-जी यह काम करना पड़ता है। नहीं तो मरने पर छुटकारा
हो न सकेगा। पुर या गाँव में रहने की बात का मतलब यह है कि जब
शरीरादि के कर्मों को अपने में मानता था तो शरीर के साथ अपने-आपको एक
करके कहता और समझता था कि घर में हूँ,
पलंग
पर हूँ,
गाड़ी में हूँ,
आदि-आदि। अब जब शरीरादि से अपने को जुदा समझ गया तो कहता और समझता है
कि शरीर भले ही घर में,
बाहर
या सवारी में बैठे;
लेकिन
मैं तो शरीर में ही बैठा हूँ।
न
कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:।
न
कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु
प्रवर्त्तते॥14॥
(ऐसी
दशा में) वह जीव सबका मालिक बन जाने पर न तो अपने आप में कर्म करने
की भावना लाता है,
न
लोगों से ही कर्म करवाता या करवाने का ख्याल करता है और न कर्मों के
फलों से सम्बन्ध या ताल्लुक ही पैदा करता है। (किन्तु) यह सब कुछ
प्रकृति के गुणों का ही पसारा है।14।
नादत्तो
कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:॥15॥
(इसलिए)
सर्वत्र फैला हुआ वह जीव न तो किसी के पुण्य का साथी या भागीदार है
और न पाप का। (दरअसल बात यह है कि) अज्ञान ने ज्ञान को छिपा दिया है।
(जिससे लोग बात समझ सकते नहीं। फलत: सभी) जीव भ्रम में पड़ के ही ऐसा
मानते हैं कि (हम पुण्य-पाप के भागी हैं)।15।
इन दो श्लोकों
में कुछ लोग प्रभु और विभु शब्दों का अर्थ परमात्मा कर डालते हैं।
मगर उसका तो कोई भी प्रसंग यहाँ हुई नहीं। जब जीवत्मा को वशी कह
दियातबतो 'एकोवशी'
(श्वेता.
6।12)
के
अनुसार उसी को प्रभु और विभु मानना ही होगा।श्वेताश्वतर में यह लिखा
भी है साफ ही। प्रभु का अर्थ भी मालिक या शासक और विभु का सर्वत्र
रहने वाला है,
और
आत्मा ऐसा ही पदार्थ है।
'शरीरं
यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:'
(15।8)
तथा
'परमात्मेति
चाप्युक्त:' (13।22)
में भी
यह बात साफ लिखी है।
ज्ञानेन
तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥16॥
(लेकिन)
जिनकी आत्मा का वह अज्ञान ज्ञान ने मिटा दिया है उन्हें तो वही ज्ञान
उसी शुध्द आत्मा को सूर्य की तरह प्रकाशित कर देता है। (फलत: वे अपने
को पुण्य-पाप के भागी नहीं मानते)।16।
तद्वुध्दयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा:।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं
ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:॥17॥
जिनकी बुध्दि
उसी आत्मा में लग चुकी है,
मन भी
वहीं लगा है,
उसी
में जो खुद रम गये हैं और उससे अन्य किसी की परवाह नहीं करते,
ऐसे ही
लोग ज्ञान से समस्त पापों को बखूबी धोके जन्म-मरण-रहित
पद-मुक्ति-प्राप्त कर लेते हैं।17।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनिचैव
श्वपा के च पण्डिता: समदर्शिन:॥18॥
इहैव
तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:॥19॥
पण्डित लोग
विद्या एवं सदाचरण से युक्त ब्राह्मण,
गौ,
हाथी,
कुत्तो
और कुत्ता खा जाने वाले प्राणी में (केवल) सम नामक वस्तु को ही देखते
हैं-समदर्शी होते हैं। (इस तरह) जिनका मन इस साम्यावस्था में डँट
गया-जम गया-वह तो जीते जी ही सृष्टि-जन्म-मरण-पर विजय पा जाते
हैं-इससे छुटकारा पा जाते हैं। क्योंकि निर्विकार एक रस ब्रह्म ही सम
है। इसलिए वे ब्रह्मनिष्ठ हो जाते हैं।18।19।
न
प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुध्दिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:॥20॥
(इसीलिए)
स्थिर बुध्दि वाला,
हर तरह
के मोह से रहित (जो) ब्रह्मनिष्ठ आत्मज्ञानी है (वह) न तो प्रिय
पदार्थ मिलने से खुशी के मारे लोट-पोट होता है और न अप्रिय मिलने से
घबराता है-सिर पीटता है।20।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विंदत्यात्मनि यत्सुखम्।
स
ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षय्यमश्नुते॥21॥
भौतिक
पदार्थों में (इस तरह) मन न रमने पर ब्रह्म में ही जिसका मन जम जाता
है वह पुरुष जब आत्मा में ही सुख का अनुभव करने लगता है (तो) अक्षय
सुख को प्राप्त कर लेता है।21।
ये हि
संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुधा:॥22॥
क्योंकि भौतिक
पदार्थों से जो आनन्द मिलता है वह (तो) आने-जाने वाला- अस्थायी-होने
से (अन्त में) दु:ख का ही कारण बन जाता है। इसीलिए समझदार लोग उसमें
कभी नहीं फँसते हे कौन्तेय।22।
शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं
वेगं स युक्त: स सुखी नर:॥23॥
जो मनुष्य
मरने के पहले ही इसी शरीर में काम और क्रोध के वेग को दबा देता है
वही योगी है,
वही
सुखी है।23।
याऽन्त:
सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव
य:।
स योगी
ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥24॥
जिस योगी को
अपने में ही आनन्द मिले तथा अपने में ही प्रकाश मिले (और) जिसका मन
अपने ही में रम जाय वही ब्रह्मरूप हो के निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त
करता है। 24।
लभन्ते
ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:।
छिन्नद्वैधा
यतात्मान: सर्वभूतहिते रता:॥25॥
जिनके मन काबू
में हैं,
जिनकी
दुविधाएँ मिट चुकी हैं,
जिनके
सभी मैल धुल चुके हैं (और) जो सभी पदार्थों के हित में निमग्न हैं
ऐसे ही विवेकी निर्वाण ब्रह्म को हासिल करते हैं।25।
कामक्रोधवियुक्तानां
यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो
ब्रह्मनिर्वाणंर् वर्त्तते
विदितात्मनाम्॥26॥
जिनने
आत्मसाक्षात्कार कर लिया है,
जिनके
मन काबू में हैं (और इसीलिए) जो काम-क्रोध से शून्य हैं,
ऐसे
यतियों-संन्यासियों-को दोनों दशा में-जीते-जी और मरने पर भी-निर्वाण
ब्रह्म प्राप्त ही प्राप्त है।26।
यहाँ यति शब्द
का अर्थ यत्न करने वाला न हो के संन्यासी ही है। क्योंकि आत्मज्ञान
हो जाने पर यत्न करने वाला कहना कुछ जँचता नहीं। आगे
28वें
में मुनि का भी संन्यासी ही अर्थ उचित है। इसीलिए यहाँ,
यह
प्रश्न हो सकता है कि संन्यासियों की यह दशा कब और कैसे होती है
? इसका
उत्तर यों है-
स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौं ॥27॥
यतेन्द्रियमनोबुध्दिर्मुनिर्मोक्षपरायण:।
विगतेच्छाभयक्रोधो
य: सदा मुक्त एव स:॥28॥
बाहरी विषयों
को बाहर ही रोक के,
दोनों
दृष्टियों को भौं के बीच में ही टिका के और नासिका के रास्ते
बाहर-भीतर जाने-आने वाले प्राण-अपान को मिला के-कुम्भक करके-एकमात्र
मोक्ष यानी आत्मा में ही ख्याल जमाए हुए जो मननशील संन्यासी अपने मन
और बुध्दि को बखूबी काबू में रखता तथा इच्छा,
भय और
क्रोध से सर्वथा नाता तोड़ लेता है वह हमेशा ही मुक्त है।27।28।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं
सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥29॥
सब यज्ञों और
तपस्याओं के भोगने वाले,
सब
लोगों के बड़े से बड़े शासक और सबों के कल्याण चाहने वाले मुझ परमात्मा
को जानकर ही (वह) शान्ति प्राप्त करता है।29।
इससे पूर्व के
दो श्लोकों में ध्यान,
समाधि
या पातंजल योग का संक्षिप्त वर्णन किया है। उसके फलस्वरूप जो ज्ञान
होता है और जिससे मुक्ति होती है उसी का जिक्र इस श्लोक में है। इस
श्लोक का आशय यही है कि आत्मा और परमात्मा को एक ही देखना यही
आत्मज्ञान है। समाधिस्थ संन्यासी यही अनुभव करता है कि मैं ही खुद सब
चीजों का करने-धरने वाला हूँ,
सारे
संसार के कार-बार का चलाने वाला हूँ। असल में
''अहं
हि सर्वयज्ञाना भोक्ता च प्रभुरेव च''
(9।24)
आदि
में जो कुछ कहा गया है उसी का यहाँ उल्लेख है। जिन कर्मों का वर्णन
इस अध्याय में आया है वह तो नीचे से लेकर ऊँचे के दर्जे तक के सभी
हैं। नवें अध्याय में स्पष्ट ही कहा है कि लोग भगवान् को ठीक-ठीक न
जान के औरों की पूजा आदि करने के कारण ही पतित हो जाते हैं;
हालाँकि सब पूजा,
यज्ञादि का फल भगवान् ही देते हैं,
फिर
चाहे वह देवी-देवता आदि किसी के निमित्त ही क्यों न किये जाएँ। उसी
श्लोक में प्रभु भी भगवान् को कहा है। वही बातें इस श्लोक में लिखी
गयी हैं। लिखने का आशय यही है कि वास्तविक संन्यासी इधर-उधर न भटक के
वस्तुत: भगवान् के ही ख्याल से सब कुछ करता है,
न कि
देवी-देवताओं के लिए। यह भी नहीं कि भगवान् तानाशाह है। वह तो सबका
सुहृद है,
कल्याणकामी
है। इसीलिए उसे अपनी आत्मा का स्वरूप जान लेने की पहचान यही होगी कि
हम भी सबसे सुहृद बन जायें,
हम भी
'सर्वेऽपि
सुखिन: सन्तु'
का
अमली पाठ करने लगें। भागवत में भी कहा है कि हम सभी भगवान् के आदेशों
में अपने स्वाभाविक कर्मों के द्वारा,
इस तरह
बँधे हैं जैसे बनिये के लादने का बैल। इसीलिए जो कुछ भी हम करते हैं
वह भगवान् की भेंट के ही रूप में,
''यद्वाचि
तंत्यांगुणकर्मदामभि: सुदुस्तरैर्वत्स वयं सुयोजिता:। सर्वे वहामो
वलिमीश्वराय प्रोता नसीव द्विपदे चतुष्पद:''
(5।1।14)।
पूर्व के दो
श्लोकों में जो ध्यान और प्राणायाम है वह योगदर्शन के ही अनुसार है।
योगी लोग भी मानते हैं कि दोनों भौं और नासिका की जड़ की सन्धि में
नजर टिकाने से मन एकाग्र होता है। प्राणायाम उसी में सहायक होता है।
यह भी माना जाता है कि प्राणायाम से जैसे मन एकाग्र होता है उसी तरह
मन की एकाग्रता से प्राणों की क्रिया भी स्वयं बन्द हो जाती है। यहाँ
दोनों को मिला दिया है।
पचीसवें श्लोक
में जो 'सर्वभूतहितेरता:'
कहा है
उसका कुछ विवरण प्रकारान्तर से पहले आ गया है। विशेष विवेचन आगे
मिलेगा। इस अध्याय में चार बार
'सम'
आया
है। उनमें आखिरी बार
27वें
श्लोक में मिलाने के अर्थ में है। शेष तीन बार
18-19
में समदर्शन के मानी में है,
जिसे
आत्मज्ञान कहते हैं।
इस अध्याय
में संन्यास की ही बात शुरू करके अन्त तक उसी का विवेचन होने से यही
इसका विषय माना गया है। शंकर ने इस अध्याय का विषय
'प्रकृतिगर्भ'
लिखा
है। इसका अभिप्राय बता चुके हैं और कह चुके हैं कि इसका भी अर्थ
संन्यास ही है। हमने पहले जो उल्लेख अमेरिका के रक्त आदिवासियों का
किया है उससे स्पष्ट है कि प्राकृतिक दशा
(back to the nature)
में
माया-ममता का स्वत: त्याग रहता है,
और संन्यास में यही चाहिए।
इति
श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रो
श्रीकृष्णार्जुन संवादे संन्यास योगो नाम पञ्चमोऽध्याय:॥5॥
श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मविद्या प्रतिपादक
योग शास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका संन्यासयोग
नामक पाँचवाँ अध्याय यही है।
अगला पृष्ठ
: छठाँ अध्याय
(शीर्ष पर वापस)
|