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सहजानंद समग्र/ खंड-3

 Swami Sahajanand Saraswati
स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-3 (गीता हृदय)

दूसरा-गीता भाग : सातवाँ अध्याय

मुख्य सूची खंड - 1 खंड - 2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6


सातवाँ
अध्‍याय

जैसा कि हमने पहले ही गीता के अध्‍यायों की संगति के सिलसिले में कहा है और अवसर पा के बीच के गत पाँच अध्‍यायों में लिखा है, गीता के मुख्य प्रतिपाद्य विषयों का निरूपण यहीं पूरा हो जाता है। इन छ: अध्‍यायों के बाद कोई भी प्रतिपादनीय मुख्य विषय रह जाता नहीं है। यों तो, जैसा कही चुके हैं, दो और तीन अध्‍यायों में ही ज्ञान और कर्म रूप दोनों ही मुख्य विषय आ चुके हैं। मगर  उनके कुछ प्रधान पहलू रह जाते हैं और उन्हीं का निरूपण शेष तीन अध्‍यायों में किया गया है। इस तरह ज्ञान के स्वरूप, संन्यास और ध्यान या समाधि पर पूरा प्रकाश पड़ गया है। यही ज्ञान है। इन विषयों और उनके मुख्य पहलुओं पर पूरा प्रकाश डालने के लिए जो कुछ भी निरूपण अब तक हुआ है उससे इन विषयों का केवल परोक्ष या दिमागी ज्ञान काफी हो जाता है। इसी से इस समूचे निरूपण एवं प्रतिपादन को भी ज्ञान कहते हैं, जैसे तेरहवें अध्‍याय में ज्ञान के साधनों और उपायों को ही ''एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तं'' (1311) में ज्ञान कहा है।

    लेकिन इतने से ही काम नहीं चलता। एक तो ज्ञान को ही और भी मजबूत बनाने के लिए बार-बार उसके समबन्ध में खोद-विनोद करने और सोचने-विचारने की जरूरत होती है। इसी चीज को पुराने लोग मनन कहते आये हैं। पहले पढ़ या सुनके जो ज्ञान होता है उसी की मजबूती इस मनन से होती है। पढ़ने-सुनने को श्रवण कहते हैं। श्रवण और मनन के बाद जो तीसरी बात की जाती है, जिससे जानी-सुनी चीज की प्रत्यक्ष जानकारी हो जाये, उसी का नाम  निदिध्‍यासन है। उसका निरूपण छठे अध्‍याय में किया गया है। मगर यह निदिध्‍यासन उन्हीं के लिए है जो साक्षात्कार या प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहते हैं। उनके उपदेशक तथा आचार्य तो यह करते नहीं। क्योंकि उन्हें तो पहले से ही साक्षात्कार होता है। लेकिन वह शिष्यों को, जिन्हें उनने श्रवण, मनन कराया है, इतनी मदद दे सकते हैं। जिससे उनका निदिध्‍यासन आसानी से हो सके। इसी को आज की भाषा में प्रयोग (experiment) कहते हैं। इससे सुनने और विचारनेवालों को इतनी आसानी हो जाती है कि पीछे यही काम वह खुद भी कर सकते और दूसरे को सिखा सकते हैं। इस प्रयोग के बिना उन्हें दूसरों को उपदेश देने की पूर्ण योग्यता शायद ही हो सके। जिसे पहले कहा था उसी को पीछे कर दिया-कह सुनाये को कर दिखाया। इस पर पहले भी लिखा गया है।

    सातवें से लेकर दसवें और बारहवें से लेकर अठारहवें अध्‍याय तक मनन का ही काम किया गया है। हाँ, अठारहवें में सभी बातों का उपसंहार भी किया है। अधिकांश में उसे उपसंहार का ही अध्‍याय कहना चाहिए। यों तो उपसंहार करने में भी पूरा मनन होई जाता है। केवल ग्यारहवें अध्‍याय में निदिध्‍यासन के सहायतार्थ उन्हीं बातों का प्रयोग (experiment) करके अर्जुन को साफ-साफ दिखा दिया गया है। आत्मा से जुदा परमात्मा है नहीं और यह जगत् भी परमात्मा से पृथक् न हो के उसी का स्वरूप है, यही बात अर्जुन को उस अध्‍याय में प्रत्यक्ष दिखाई गयी है। फलत: यह प्रयोग नहीं है तो और है क्या ? मालूम होता है, किसी प्रयोगशाला में बैठ के कोई पक्का जानकार चेले को प्रयोग के द्वारा चीजें दिखा रहा है। मनन की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है, सो भी निरन्तर। इसीलिए प्रयोग के बाद भी मनन जारी रखा गया है। यदि मनन न रहे तो सारा प्रयोग बेकार हो जाय और भूल जाय। यह भी भूलना न चाहिए कि श्रवण की तरह मनन के समय भी ज्ञान होता ही है। उसके बिना मनन होगा कैसे ? इसीलिए आगे जो विज्ञान के लिए मनन के रूप में बातें कही गयी हैं उन्हें केवल विज्ञान न कहके 'ज्ञानं विज्ञानसहितम्' (91) या 'ज्ञानं सविज्ञानं' (72)  में ज्ञान के सहित विज्ञान या ज्ञान-विज्ञान दोनों ही कहा है। विज्ञान में तो संशय की गुंजाइश रही नहीं जाती। इसीलिए सातवें के शुरू में ही 'असंशयम्' कह दिया है।

    छठे अध्‍याय के अन्त में जो आत्म-साक्षात्कार के लिए यह कहा है कि मुझ परमात्मा में ही मन लगा के मुझी में डूब जाओ, तभी काम पूरा होगा, उसी बात को ले के सातवें अध्‍याय का श्रीगणेश होना इसीलिए उचित भी है। जब साक्षात्कार की आखिरी बात और उसका अन्तिम एवं ध्रुव मार्ग यही बताया गया है तब तो मनन और निदिध्‍यासन कराने के साधनों के रूप में उसी पर विशेष प्रकाश डालना ही होगा। यह बात ऐसी भी नहीं कि किसी के प्रश्न करने पर कही जाय। यह तो आम बात है। सभी जानकार यही करते हैं। इसके लिए प्रश्न करने की कोई जरूरत हुई नहीं। इसीलिए अर्जुन के प्रश्न के बिना ही स्वयमेव-

श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युं जन्मदाश्रय:।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥1

    श्रीभगवान् बोले-हे पार्थ, मुझ परमात्मा में मन को जोड़ के और मुझी को सब कुछ समझ के योग का अभ्यास करते हुए मुझे पूरी तौर से निस्सन्देह जिस तरह जान सकोगे वही बात सुनो।1

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥2

    (लो,) मैं तुम्हें ज्ञान और विज्ञान दोनों पूरा-पूरा अभी बताता हूँ, जिसे जानने के बाद इस दुनिया में और कुछ भी जानने योग्य रही न जायगा। 2

    यहाँ 'इदं वक्ष्यामि' का 'वक्ष्यामि' पाणिनि के र्'वत्तामान सामीप्येर् वत्तामानवद्वा' (33131) के अनुसार फौरन कहने के ही मानी में बोला गया है। ऐसे मौके पर 'लो, जाता हूँ,' आदि के ही अर्थ में 'एष गच्छामि, एष गमिष्यामि, इदं गमिष्यामि' आदि बोलने की पुरानी रीति है। और इसके बाद ही चौथे श्लोक से वही बात फौरन शुरू भी तो हो गयी है। बीच में जो तीसरा श्लोक आया है वह तो इस विज्ञान की दुर्लभता और कठिनाई को ही बताता है, ताकि उधर पूर्ण रूप से लोगों का ध्‍यान आकृष्ट हो सके और हम गौर से सारी बातें सुन सकें, विचार सकें।

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिध्दये।

यततामपि सिध्दानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्तवत:॥3

    (एक तो) हजारों आदमियों में (शायद ही कोई) योगसिध्द और ज्ञानप्राप्ति के लिए कोशिश करता है (और) योग की सिध्दि को प्राप्त हुए इन यत्न करनेवालों में भी (शायद ही) कोई मुझ परमात्मा को यथार्थत: जानता-मेरा साक्षात्कार करता-है।3

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुध्दिरेव च।

अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥4

    भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्व और प्रधान या मूल प्रकृति-इस प्रकार यह मेरी प्रकृति-माया-ही के आठ विभाग हैं।4

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विध्दि मे पराम्।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥5

    हे महाबाहु, यह तो अपरा या नीचे दर्जेवाली मेरी प्रकृति है। (लेकिन) इससे निराली जीवरूपी मेरी उस परा या श्रेष्ठ प्रकृति को भी तो जान लो, जो इस (समूचे) जगत् को कायम रखती है।5

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।

अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा॥6

    इन्हीं (दोनों प्रकृतियों) से ही सभी पदार्थ बनते हैं ऐसा निश्चय कर लो। (अन्ततोगत्वा तो इस तरह) मुझसे ही सारा संसार पैदा होता है और मुझी में समा जाता है।6

मत्त: परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रो मणिगणा इव॥7

    (क्योंकि) हे धनंजय, मुझसे बड़ा (तो) कोई हुई नहीं। यह सब कुछ (दृश्य जगत्) मुझमें उसी तरह पिरोया हुआ है जैसे माला के दाने सूत में।7

    यहाँ चौथे श्लोक का अर्थ समझने के लिए पूर्व का गुणवाद प्रकरण पढ़ लेना जरूरी है। वहीं इसका पूर्ण स्पष्टीकरण मिलेगा। परमात्मा के सिवाय इस दृश्य तथा अदृश्य जगत् के मूल में दो पदार्थ हैं, जिन्हें जीव और माया या प्रधान कहते हैं। प्रधान को ही प्रकृति भी कहते हैं। प्रकृति का अर्थ है मूल कारण। यहाँ पर जीव और प्रधान दोनों को ही प्रकृति कहा है, जिनमें प्रधान नीचे दर्जे की और जीवात्मा ऊँचे दर्जे की है। इन्हीं दो से सारे जगत् का पसारा हुआ है। मगर इन दोनों का भी पसारा अन्त में ब्रह्म या परमात्मा से ही है। फलत: उसके सिवाय और कोई सत्य पदार्थ हुई नहीं । इन दोनों में जीवात्मा तो परमात्मा का रूप ही है। किन्तु प्रकृति, माया या प्रधान अनिर्वचनीय, अनादि और मिथ्या है। इस तरह ब्रह्म-आत्मा के अलावे सत्य वस्तु जब कोई हुई नहीं तो द्वैत या विभिन्नता का प्रश्न उठता ही कहाँ है  ? ये सारी बातें भी गुणवाद के ही प्रसंग से वहीं लिखी हैं। माले के दाने और सूत का दृष्टान्त देकर इतना ही कहा है कि जैसे सूत के बिना दाने अलग हो जायँगे और माला रही न जायगी, साथ ही, जैसे हर दाने के भीतर सूत मौजूद है, ठीक उसी तरह परमात्मा या आत्मा के बिना सभी पदार्थ बिखर जायँगे और यह जगत् रही न जायगा। सूत की तरह परमात्मा ने ही सब पदार्थों को पकड़ रखा है, रोक या धार रखा है। आखिर आत्मा तो सभी की होती है न  ? फलत: उसके बिना कोई चीज रहेगी ही कैसे ? इसलिए वही सबों को जरूर ही धारण् करनेवाली है। यह बात भी पहले खूब बता चुके हैं।

    आगे के पाँच (8-12) श्लोकों में थोड़ा-सा नमूने के तौर पर इस बात का विवरण दिया गया है कि परमात्मा या आत्मा सूत की तरह पदार्थों में कैसे व्याप्त हैं, पदार्थ उनमें पिरोये हुए हैं। इसका विशेष विवरण कुछ तो नवें (16-19) और बहुत अधिक दसवें अध्‍याय में दिया गया है। जो भी हो, इस विवरण के पढ़ने से मालूम पड़ता है कि या तो कोई विशेषज्ञ और पूरा जानकार आदमी किसी पाठशाले में बैठ के अपने शिष्यों को यह बात समझा रहा है कि किस प्रकार ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के मिलाने से, संयोग से ही पानी बनता है; इसीलिए इन दो अदृश्य वायुवों के अलावे पानी की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, हस्ती नहीं है, या कोई वेदान्ती जिज्ञासुओं एवं मुमुक्षुओं को बता रहा है कि सपने में जितनी चीजें नजर आती हैं, जो पदार्थ देखे जाते हैं, वह देखने वाले से वस्तुत: जुदा हैं नहीं; हालाँकि जुदा तो साफ ही मालूम होते हैं। इसीलिए जागने पर देखने वाले के सिवाय और कुछ भी पाया जाता नहीं। सिर्फ नींद के ही करते यह सारा तूफान और प्रपंच बन गया होता है। क्योंकि दरअसल नींद के ही चलते उस देखने वाले को होश नहीं रहता, उसे अपनी सुध-बुध नहीं रहती। इसीलिए दुनिया भर की अण्ट-सण्ट चीजें बात की बात में यों ही रच-बना के देखता-सुनता है। ठीक उसी तरह भगवान् की माया के ही करते उसे भी आपा बिसर जैसा गया है। फलत: सपने की तरह सारे जगत् को यों ही बात की बात में बना के देख रहा है। नहीं तो दरअसल उसके अलावे और कुछ है वै नहीं। इसीलिए जैसे नींद के पहले कोई चीज न रहने पर भी सपने में देखने वाले से ही सपने की सारी चीजें बन के नींद खुलते ही उसी में जा मिलती हैं, उसी तरह यह सारा जगत् परमात्मा से ही बन के उसी में जा मिलता है।

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।

प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥8

    हे कौन्तेय, (देखो न,) मैं ही तो जल में (उसका सार) रस हूँ। चन्द्र और सूर्य का सार प्रकाश भी मैं ही हूँ। सब वेदों में (उनका सार) प्रणव या ऊँकार भी मैं ही हूँ। आकाश में शब्द (और) मनुष्यों में पौरुष-मर्दानगी-भी मैं ही हूँ।8

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥9

    पृथ्वी में सुगन्ध, अग्नि में तेज, सभी पदार्थों में जीवन (और) तपस्वियों में तप मैं ही हूँ।9

बीजं मां सर्वभूतानां विध्दि पार्थ सनातनम्।

बुध्दिर्बुध्दिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥10

    हे पार्थ, सभी पदार्थों का सनातन मूलकारण मुझी को जानो। बुध्दिमानों में बुध्दि तथा तेजस्वियों में तेज मैं ही हूँ।10

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।

धार्माविरुध्दो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥11

    हे भरतर्षभ, बलवानों में कामना और राग से रहित जो बल है वह मैं ही हूँ। प्राणियों में जो कामना धर्म की विरोधी नहीं हो वह भी मैं ही हूँ।11

ये चैव सात्तिवका भावा राजसास्तामसाश्च ये।

मत्त एवेति तान् विध्दि न त्वहं तेषु ते मयि॥12

    (इस तरह संक्षेप में) जितने भी सात्तिवक, राजस और तामस पदार्थ पाए जाते हैं सबके सब मुझ परमात्मा से ही बने हैं। (लेकिन याद रहे कि) मैं उनमें नहीं हूँ, (किन्तु) वही मुझमें हैं।12

    ऊपर के इन पाँच श्लोकों में इस सृष्टि के मूल कारण का जो उल्लेख आया है वह कई दृष्टियों से महत्तवपूर्ण है। यह ठीक है कि सृष्टि के कुछी पदार्थों को चुन के उन्हीं के बारे में चार श्लोकों में कह दिया है कि उनकी आत्मा, उनका हीर, उनकी असलियत मैं ही हूँ, आत्मा ही है, परमात्मा ही है। किन्तु पाँचवें श्लोक में तो सात्तिवक, राजस, तामस शब्दों में त्रौगुण्य या सभी पदार्थों को सामान्य रूप से लेकर वही बात कह दी गयी है। कुछ चुने-चुनाए पदार्थों के बारे में ऐसा करने का एक खास प्रयोजन अन्त में इसी अध्‍याय में कहेंगे। यहाँ यही देखना है कि उनमें भी पाँच भूतों में पृथ्वी, जल, तेज और आकाश इन चार को ही पृथक्-पृथक् गिनाया है और वायु को इस रूप में छोड़ दिया है। इन चारों के जो असली गुण या परिचायक हैं, इनकी जो विशेषताएँ (characteristics) हैं, और इसीलिए जिन्हें इनकी आत्मा कह सकते हैं, उन्हीं को परमात्मा का रूप बना दिया है। सचमुच ही यदि भूत से गन्ध को, आकाश से शब्द को, अग्नि से तेज को और जल से रस को निकाल लें तो उन पदार्थों का अपना क्या रह  जायगा  ? उन्हें फिर भी पृथ्वी, जल आदि के नाम से कोई पुकारेगा भी क्या  ? तब तो वे लापता ही होंगे। उनके अस्तित्व का कोई भी प्रमाण रही न जायगा। भूमि में दार्शनिकों ने गन्ध ही सब कुछ माना है। जहाँ वह न भी मालूम हो वहाँ भी रहता ही है। लोहे, पत्थर वगैरह में मालूम न होने पर भी उनके भस्म में स्पष्ट ही मालूम होता है।

    रह गया वायु। असल में यदि देखा जाय तो इस भौतिक सृष्टि के मूल में जो पाँच भूत हैं उनमें वायु का ही महत्तव सबसे ज्यादा है। अन्य पदार्थों के बिना तो सभी पदार्थ कुछ देर टिक भी सकते हैं। मगर हवा के बिना एक मिनट भी टिकना असम्भव हो जाता है। उसे प्राण भी इसीलिए कहा है कि वह सबों को कायम रखता है, उनमें हलचल या क्रिया जारी रखता है। असल में क्रिया ही तो अस्तित्व का लक्षण है और वह है वायु की ही चीज। इसीलिए छठे अध्‍याय में कहा है कि वायु को रोक देना या उसकी क्रिया बन्द कर देना असम्भव है। तब तो दुनिया ही खत्म हो जायगी। शरीर के भीतर खून का संचार क्षण भर भी रुका कि मरे। पदार्थों के भीतर से नये-पुराने परमाणुओं का जाना-आना रुका कि वे खत्म हुए। यही कारण है कि वायु के हीर को-सार को-लेने की अपेक्षा समूचे वायु को ही 'जीवनं सर्व भूतेषु' (79) में जीवन शब्द से ले लिया है। जीवन का सीधा अर्थ है प्राण। मगर दरअसल उसके मानी हैं अस्तित्व जिससे कायम रहे, या स्वयं अस्तित्व ही। वायु को जीवन भी कहते हैं। पानी भी तो दो वायुवों के सम्मिश्रण से ही बनता है। इसीलिए उसे भी कहीं-कहीं जीवन कहा गया है। वायु को भूतों में न गिनने का एक और भी कारण अन्त में इसी अध्‍याय में हमने दिखाया है।

    इस प्रकार जगत् के मूलभूत पंचभूतों को ही आत्मा का रूप बना दिया है। इसके बाद कुछ खास-खास चीजें चुन ली हैं। इनमें सूर्य और चन्द्र भी आये हैं। सचमुच ही ये दोनों जगत् के बड़े काम के हैं। चन्द्र के बारे में तो पन्द्रहवें अध्‍याय में कह दिया है कि अमृत या रस के रूप में सभी अन्नादि को पुष्ट करता है जिन्हें खा के सभी पुष्ट और जीवित रह सकते हैं। इसी प्रकार सूर्य समस्त शक्तियों का भण्डार, सभी शक्तियों का देने वाला पहले भी माना गया है। आज के विज्ञान ने भी ऐसा ही माना है। अब यदि इन दोनों के प्रकाश को हटा लें तो इनमें रहेगा ही क्या ? असल में सूर्य को तो 'प्रकाश का पुंज ही' कहा है, 'तेजसांगोलक: सूर्य:' चन्द्रमा में भी सूर्य का ही प्रकाश माना जाता है। उसे प्रकाश का स्वतन्त्र पुंज नहीं माना है। यही कारण है कि दोनों का सार प्रकाश ही बताया गया है। यदि प्रकाश के अलावे इन दोनों में और भी स्थूल पदार्थ मानें, जैसा कि आज के वैज्ञानिक बताते हैं, तो भी क्या  ? प्रकाश निकाल लेने पर इन दोनों को चन्द्र और सूर्य तो कोई भी न कहेगा। बस यहाँ यही आशय है।

    हिन्दू लोग वेदों को सर्वमान्य और सर्वश्रेष्ठ कहते हैं। उन्हें ज्ञानागार भी मानते हैं। असल में वेद शब्द का अर्थ ही है ज्ञान या ज्ञान देने वाला। इसीलिए वेद कहने से सभी सद्ग्रन्थों और ज्ञान देने वाली पोथियों से मतलब होता है। फिर चाहे वह किसी धर्म की हों, या उन्हें धर्म से कोई वास्ता न भी हो, और केवल औषधियों आदि की हजारों वैज्ञानिक जानकारियाँ करायें। पुराने लोग प्रणव या ¬कार को ही सब वेदों का निचोड़ मानते थे, '¬कार: सर्ववेदानां सारस्तत्तवप्रकाशक:।' ¬ में भी अ, , म् ये तीन अक्षर माने गये हैं, जिनमें प्रधानता अकार की ही है। अकार ही समस्त व्यंजनों के उच्चारण का सहायक माना गया है। ऐसा भी लगता है कि सभी स्वर अक्षरों के मूल में यह अकार ही है। क्योंकि उनके उच्चारण में पहले अकार का ही आभास होता है। अब तो नयी वर्णमाला में इस प्रकार से ही शेष स्वरों को बनाने भी लगे हैं। इस प्रकार सभी अक्षरों के मूल में अकार के होने से और सभी ग्रन्थों के इन अक्षरों से ही बने होने के कारण सबों के मूल में यह अकार आ जाता है, और वही है आत्मा का रूप।

    पुरुषों में पौरुष या मर्दों में मर्दानगी, तपस्वियों में तप, बलवानों में बल, तेजस्वियों में तेज और बुध्दिमानों में बुध्दि यही पाँच चीजें और भी ली गयी हैं। असल में अर्जुन जैसे तेजस्वी, बली, बुध्दिमान और मर्द का ख्‍याल करके ही ये बातें कही गयी हैं। वह तो तप करने के लिए भी जंगल की शरण लेने को तैयार ही था। इसीलिए तप भी आ गया है। इन पाँचों की दुनिया में भी बड़ी कद्र है। अर्जुन भी कहीं समझता हो कि मैं कुछ हूँ। इसलिए साफ ही कह दिया कि ये सभी चीजें परमात्मा रूपी ही हैं। फिर तुम्हारी अलग हस्ती हुई क्या  ? तुम स्वतन्त्र करी क्या सकते हो  ?

    इन सभी पदार्थों के सिलसिले में दोई बातें और आयी हैं। एक तो पृथ्वी के गन्ध को पुण्य या सुन्दर गन्ध कहा है, जिससे पता लगता है कि दुर्गन्ध परमात्मा का रूप नहीं है। दूसरे काम या कामना को भी कहा है कि वह धर्म-विरोधी न हो तो भगवान् का रूप ही है। फलत: धर्म-विरोधी कामना या अभिलाषा उसका रूप नहीं है। इससे सिध्द होता है कि गीता ने दुर्गन्ध की स्वतन्त्र सत्ता न मान के उसे विकार या खराबी ही माना है, और सृष्टि के प्रसंग में विकार या खराबी के कहने के मानी हो जाते हैं सृष्टि के नाश के। इसीलिए उसे छोड़ दिया। इसी तरह 'धर्मो धारयतेप्रजा:' के अनुसार धर्म उसी को कहते हैं जो सृष्टि को कायम रखने में सहायक हो। फलत: धर्म-विरोधी चीज सृष्टि का नाशक बन जायगी। यही कारण है कि सृष्टि की बातें गिनाने में प्रलय के सामानों को छोड़ दिया है।

    अन्त में तो 'बीजं मां सर्वभूतानां' में यह भी कह दिया है कि यह तो नमूने के रूप में कुछी पदार्थों को गिनाया है। असल में तो सभी पदार्थों का सनातन बीज परमात्मा ही है। आम का बीज गुठली भले ही हो। मगर वह तो सनातन नहीं है। वह तो खुद भी नष्ट हो जाती है और पैदा होती है। फलत: उसका भी बीज कोई न कोई हुई। इस तरह बढ़ते-बढ़ते अन्त में ऐसी जगह पहुँचना होगा जिस बीज का नाश नहीं होता, जो सदा रहता है और जिससे सभी पदार्थ क्रमश: बनते हैं, पैदा होते हैं। वही है मूल कारण या सनातन बीज और वह आत्मा के सिवाय और कुछ नहीं है।

    आखिरी श्लोक में जो यह कहा है कि सभी पदार्थ मुझ परमात्मा में ही हैं, न कि मैं ही उनमें हूँ, उसका कुछ मतलब है। अब तक रस, गन्ध आदि के रूप में सभी पदार्थों के जिन मूल कारणों को बताया है उन्हें देखने से पता चलता है कि वे उन्हीं पदार्थों में रहते हैं। सप्तमी विभक्ति लगा-लगा के यही कहा भी गया है। माला के दाने का जो दृष्टान्त दिया है उसमें भी सूत दानों के भीतर ही है, न कि दाने सूत के भीतर। इससे कोई ऐसा न समझ ले कि परमात्मा के आधार ये भौतिक पदार्थ ही हैं, इसलिए कहना पड़ा कि मैं उनमें नहीं हूँ, किन्तु वही मुझमें हैं-वे मेरे आधार नहीं हैं, किन्तु मैं उनका आधार हूँ। पदार्थों को आधार मानने से अन्ततोगत्वा उनका स्वतन्त्र अस्तित्व मानना ही पड़ता और इस तरह अद्वैतवाद या सर्वभूतात्मभूतात्मावाला गीताधर्म लागू हो पाता नहीं। इसलिए ऐसा कहना जरूरी हो गया। इस कथन का तात्पर्य यही है कि इस प्रकार हर पदार्थों का विश्लेषण करते-करते अन्त में इनका पता कुछ नहीं लगता। एक आत्मरूपी परमात्मा ही सबों के मूल में रह जाता है। उसी में इनकी कल्पना सपने की तरह हुई है। इसीलिए इन्हें देख के इनके मूल का अन्वेषण करने से ही काम चलेगा जो इनमें न हो के इनसे स्वतन्त्र है। इसका विस्तृत विवेचन छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्‍याय के आठवें खण्ड में आया है। वहाँ बार-बार लिखा है कि ''अन्नेन शुंगेनापोमूलमन्विच्छादिभ: सोम्य शुंगेन तेजो मूलमन्विच्छतेजसा सोम्य शुंगेन सन्मूलयन्विच्छ सन्मूला: सोम्येमा प्रजा सदायतना: सत्प्रतिष्ठा:।''

    अन्त में सात्तिवक आदि शब्दों से जो भौतिक पदार्थों को याद किया है उसका दूसरा प्रयोजन भी है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि ऐसी जानकारी सबों को क्यों नहीं होती  ? इसका समाधान जरूरी है। यों तो तीनों गुणों के भीतर जगत् आई जाता है। फिर भी इन त्रिगुणात्मक पदार्थों की यह खूबी है कि ये अपने भीतर ही लोगों को फँसा लेते हैं। इनके फँसाने के कौन-कौन से तरीके हैं यह बात गुणवाद में विस्तृत रूप से कही जा चुकी है। नतीजा यह होता है कि इनसे आगे हम बढ़ने पाते ही नहीं। इनका फन्दा ऐसा ही जो ठहरा। लोभी बनिये की तरह हम बारह महीने, तीस दिन जीवन भर यही सोचते रह जाते हैं कि बच्चों के लिए थोड़ा यह कर लें, वह कर लें, तो फिर भगवान् को याद करने कहीं अलग चलेंगे। जरा मन्दिर बना लें, तीर्थ कर लें, दान-पुण्य कर लें, कथा-वार्ता सुन लें, तो फिर विरागी बनेंगे। ऐसा ही सोचते-सोचते और करते-करते जीवन खत्म हो जाता है और आगे बढ़ पाते नहीं। इसीलिए कह दिया है कि इन पदार्थों में मैं नहीं हूँ, यही मुझमें हैं। इन्हें छोड़ो तो मुझे पाओगे। बिना ऐसा किये आत्मा-परमात्मा को पहचानना असम्भव है। ये माया के ही गुण और पदार्थ हैं और माया तो ठगने वाली ही ठहरी न  ? उसने उसी रस्सी में फँस लिया है। उसकी हजार चालें हैं। जब तक इनसे हट के परमात्मा की ओर बिलकुल ही लग न जायें तब तक न तो माया से-इस बड़ी नींद से-पिण्ड ही छूटेगा, न जगेंहीगे और न इन पदार्थों का पूर्वोक्त रहस्य समझ सकेंगे। यही बात आगे के श्लोकों में कही गयी है। वहाँ इस जगने का, इस ज्ञान का महत्तव सुझाया गया है। यह भी बताया गया है कि परमात्मा की ओर मुखातिब होने वाले भी लोग भटक जाते हैं। इसलिए सजग रहना होगा।

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥13

    इन त्रिगुणात्मक पदार्थों में ही फँस के भूला हुआ यह संसार इनसे निराले और अविनाशी मुझ भगवान् को ठीक-ठीक समझ पाता नहीं।13

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥14

    (ऐसा इसीलिए होता है कि) विलक्षण चमत्कार वाली, जिससे पार न पाया जा सके ऐसी (तथा) अनेक गुणों-फँसाने के साधनों-वाली मेरी माया ही तो आखिर यह सब कुछ है। (इसीलिए) जो लोग केवल मुझ परमात्मा में ही लग जाते हैं वही इस माया से पार पाते हैं।14

न मां दुष्कृतिनो मूढ़ा: प्रपद्यन्ते नराधामा:।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥15

    (विपरीत इसके) जो मनुष्यों में अधम, दुष्कर्मी, आसुरी प्रकृतिवाले (और) मूढ़ हैं-विवेकशून्य हैं (और) जिनका ज्ञान माया ने हर लिया है वह तो मुझमें कभी लगते नहीं।15

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

आत्तर् जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञाना च भरतर्षभ॥16

    हे अर्जुन, हे भरतर्षभ, (जो) सुकर्मी जन मुझ परमात्मा में लगते हैं वे चार प्रकार के होते हैं-धन चाहने वाले, कष्ट में पड़े हुए, ज्ञान की इच्छावाले और ज्ञानी।16

    यहाँ यद्यपि श्लोक में क्रम दूसरा है तथापि असली क्रम इन चारों का वही है जो हमने लिखा है। श्लोक में छन्द रचना के लिए ही उलट-फेर करना पड़ा है। दरअसल भगवान् की ओर मुखातिब होने वाले भी पहले धन-सम्पत्ति में ही फँस जाते हैं, वहीं तक रह जाते हैं। यदि कोई आगे बढ़ा भी तो एकाध भारी संकट आते ही उसी से त्राण चाह के वहीं फँस जाता है। हाँ, जो इन दो फन्दों से पार हो जाते हैं उनमें पहले तो यही भावना होती है कि मुझे आत्मज्ञान प्राप्त हो। यह ठीक भी है। भटकना तो यह है नहीं। क्योंकि यही असली सीढ़ी है। इसी इच्छा से भगवान् की तरफ जाने और उसमें लग जाने वाले ही पीछे ज्ञानी होते हैं, जो समस्त जगत्  को अपना स्वरूप ही देखते हैं। इस तरह यदि देखा जाय तो परमात्मा की ओर जाने वाले सभी के सभी लोग पामरों से तो अच्छे ही हैं।

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥17

    एक-अद्वैत ब्रह्मात्मा-ही में लीन ज्ञानी उन (चारों) में (भी) श्रेष्ठ है। क्योंकि मैं ज्ञानी का सबसे प्यारा हूँ और वह भी मेरा सबसे प्यारा है।17

    आखिर आत्मा से-अपने आप से-बढ़कर अपना प्यारा होगा कौन ? और ये ब्रह्म एवं ज्ञानी तो परस्पर एक दूसरे की आत्मा होई चुके हैं। वे एक दूसरे से जुदा नहीं हैं, पृथक् नहीं हैं। एक की हस्ती-सत्ता-दूसरे से जुदा हुई नहीं। ज्ञान के यही मानी हैं।

उदारा: सर्व एवैत ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।

आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमांगतिम्॥18

    (यों तो) सभी अच्छे ही हैं। (लेकिन) ज्ञानी तो मेरी (अपनी) आत्मा ही हैं। क्योंकि वह मुझी में मन को जोड़ता तथा मुझसे बढ़ के दूसरा कुछ भी मानता ही नहीं।18

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥19

    बहुत जन्मों (में यत्न करते-करते तब कहीं सब) के अन्त में ज्ञान प्राप्त करके 'यह सब कुछ भगवान् ही हैं' इस प्रकार मुझ परमात्मा में जो लग जाता है वही अत्यन्त दुर्लभ महात्मा है।19

    लेकिन कोई ऐसा न समझ बैठे कि इस प्रकार चार ही ढंग के लोग भगवान् की ओर बढ़ते हैं, इसीलिए गीता के श्रध्दावाले सिध्दान्त के अनुसार, जिसका पूरा वर्णन पहले ही किया जा चुका है, यह बताना जरूरी हो गया कि और भी लोग हैं जो घूम-घाम के भगवान् की ओर जाते हैं, न कि सीधे। फर्क यही है कि ये चार सीधे जाते हैं। इसलिए इन्हें वहाँ औरों की अपेक्षा शीघ्र पहुँचने का मौका है। बेशक, इन चारों की अपेक्षा शेष लोग भूले हुए जरूर माने जाने चाहिए। क्योंकि वे यह समझते हैं कि भगवान् तो केवल मुक्ति देता है, बाकी पदार्थ तो दूसरे देवता लोग ही दे सकते हैं, देते हैं। अपनी अनेक प्रकार की कामनाओं के करते वे अन्धो हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि भला ये तुच्छ चीजें भगवान् क्या देंगे! इसीलिए भटकते भी तो हैं। क्योंकि उन्हें जानना चाहिए था कि जो कुछ भी देना-दिलाना या करना-कराना हो केवल भगवान् ही करते हैं। औरों की ओर नजर करना ठीक वैसा ही है जैसे कुत्तो का खून-मांस के लिए सूखी हड़डी चबाना। वे बेचारे ऐसा इसीलिए करते हैं कि गुण-कर्म के अनुसार उनकी प्रकृति ही ऐसी होती है।

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।

तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥20

    अनेक प्रकार की कामनाओं के चलते समझ खराब हो जाने से (बहुतेरे लोग) अपनी-अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न देवताओं की शरण में उन्हीं-उन्हीं के नियमों के अनुसार जाते हैं।20

    यहाँ प्रकृति का स्वभाव अर्थ है। उसमें दो बातें आती हैं। एक तो उसी के अनुसार भगवान् को छोड़ के सामान्यत: राजस, तामस आदि ख्‍याल से दूसरे देवताओं की ओर झुकते हैं। दूसरे विशेष रूप से कौन किस देवता की ओर झुकेगा इसमें भी प्रकृति से पैदा हुई रुचि कारण है। इस पर विशेष प्रकाश पहले ही डाल चुकेहैं।

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रध्दयार्चितुमिच्छति।

तस्य तस्याचलां श्रध्दां तामेव विदधाम्यहम्॥21

स तया श्रध्दया युक्तस्तस्याराधानमीहते।

लभते च तत: कामान्मयैव विहितान् हितान्॥22

    जो-जो भक्त जिस-जिस देवता की पूजा श्रध्दा से करना चाहता है उस-उसकी उसी श्रध्दा को मैं-परमात्मा-अचल बना देता हूँ (और) वह उसी श्रध्दा के साथ उस (देवता) की आराधना करता भी है। (मगर) उसके बाद अपनी इच्छा के अनुकूल मेरे ही दिये पदार्थों को पाता है।2122

    इन श्लोकों के श्रध्दा और भक्त शब्द महत्तव रखते हैं। इन दोनों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जब तक अपने लक्ष्य में पूर्ण विश्वास के साथ सच्चे दिल और ईमानदारी से कोई काम न करे तब तक सफलता नहीं मिलती है और अगर ये बातें हैं तो वह चाहे कुछ भी करे सब ठीक ही है। जो श्रध्दा-भक्ति भगवान् के सम्बन्ध में होती है वही यहाँ भी है। फर्क यही है कि लक्ष्य और रास्ता बदल गया है। लेकिन यदि श्रध्दा-भक्ति में कमी हो गयी तो सब चौपट ही समझिए। तब तो कोई भी लक्ष्य सिध्द होगा नहीं। श्रध्दा के अचल होने के यही मानी हैं।

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधासाम्।

देवान्देवयजो यांति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥23

    (फर्क यही होता है कि) उन नासमझों को जो फल मिलता है वह अचिर-स्थायी होता है। (क्योंकि) देवताओं के पूजक (ज्यादे से ज्यादा) देवताओं तक ही पहुँच पाते हैं। (लेकिन) मेरे भक्त तो मुझ तक भी पहुँच जाते हैं-मेरा स्वरूप भी हो जाते हैं।23

    यहाँ 'मामपि' में जो अपि शब्द है उससे 'मुझे भी' ऐसा अर्थ हो जाता है। अर्थात् भगवान् के भक्त भगवान् तक तो पहुँचते ही हैं। लेकिन दूसरे पदार्थों तक भी उनकी पहुँच होती है-उन्हें दूसरे पदार्थ भी प्राप्त होई जाते हैं। न कि वे भूखे-प्यासे मरते हैं। इसीलिए कह दिया है कि 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' (922)'आत्तर् जिज्ञासु' (716) में भी कही दिया है कि भगवान् की भक्ति दूसरे-दूसरे उद्देश्यों से भी होती है। इसीलिए यहाँ यह कह देना जरूरी था कि मेरी भक्ति से दूसरी चीजें भी मिलती हैं। मैं तो मिलता ही हूँ। मगर 'मियाँ की दौड़ मस्जिद तक' के अनुसार देवताओं के पूजक अधिक से अधिक उन्हीं तक जा सकते हैं।

    यदि यह प्रश्न हो कि वह लोग ऐसा क्यों करते हैं ? सभी भगवान् को ही क्यों नहीं भजते  ? क्योंकि यहाँ तो दोनों हाथों में लड्डू है, तो इसका उत्तर पहले ही दे चुके हैं 'हृतज्ञाना:' और 'प्रकृत्या नियता: स्वया' इन्हीं शब्दों से। उसी का विवेचन आगे के दो श्लोकों में है। असल में ऐसे लोग चाहते तो हैं कि भगवान् की ओर चलें। चलते भी हैं। लेकिन समझ तो होती नहीं। इसीलिए भौतिक वायु-मण्डल में पैदा हो के उसी में पले ये लोग उस परिस्थिति को डाँक सकते नहीं। फलत: इन्हीं भौतिक स्थूल पदार्थों का ही देवी-देवताओं के रूप में भगवान् समझ के पूजने लगते हैं। उनका भगवान् कोई दूसरा तो होता नहीं। वैसा निराकार और अविनाशी भगवान् तो उनकी नजरों से ओझल है। बीच में वह ठगने वाली एवं अनेक युक्ति फैलाने वाली माया जो आ गयी है और उसी में वे फँस गये हैं।

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुध्दय:।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥24

नाहं प्रकाश: सर्र्वस्य योगमायासमावृत:।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥25

    मेरे निर्विकार, सर्वोत्ताम एवं सबसे बढ़े-चढ़े अदृश्य स्वरूप को नासमझ लोग नहीं जानते (फलत:) मुझे स्थूल या भौतिक रूप ही मान लेते हैं। (क्योंकि) मैं तो अनेक हिकमत वाली माया से छिपा होने के कारण सर्वसाधारण की नजर में आता नहीं। (इसीलिए) ये मूढ़ लोग मुझ अजन्मा (और) अविनाशी को ठीक-ठीक समझ पाते नहीं। 2425

    इस पर प्रसंगवश फौरन ही यह प्रश्न उठता है कि जब भगवान् और जनसाधारण के बीच माया का बहुरंगा पर्दा है और वही भगवान् को छिपाए हुए है, जिससे लोग उसे देख नहीं सकते, तो वह भी लोगों को, इस बाहरी दुनिया को कैसे देख सकेगा ? वह पर्दा तो समानरूप से दोनों की ही दृष्टि रोकेगा। प्रत्युत जब भगवान् माया से घिरा है, आवृत है, बल्कि समावृत है, अच्छी तरह घिरा है, तब तो उसकी दृष्टि और भी संकुचित होनी चाहिए। विपरीत उसके जनसाधारण तो उसके सिवाय बाकी सभी पदार्थों को बखूबी देख सकते हैं। क्योंकि उनके लिए तो केवल भगवान् ही पर्दे में है न ? इसका चट-पट उत्तर दे के ही आगे बढ़ते हैं। उत्तर यों है-

वेदाहं समतीतानि वर्त्तमानानि चार्जुन।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥26

    हे अर्जुन, मैं तो पुराने गुजरे हुए, वत्तामान एवं भविष्य सभी पदार्थों को देखता हूँ। लेकिन मुझी को कोई नहीं देखता।26

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥27

    हे भारत, हे परन्तप, रागद्वेष से पैदा होने वाले द्वन्द्व के झमेले के चलते सभी प्राणियों को जन्म से ही भूल-भुलैया में पड़ जाना होता है।27

येषान्त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता:॥28

    (लेकिन) जिन पुण्यकर्मा लोगों के पाप खत्म हो चुके हैं, वे द्वन्द्वों के झमेले से छुटकारा पा के मुझ परमात्मा को ही बड़ी मुस्तैदी से पकड़ लेते हैं। 28

    बीच में प्रसंगवश जो इन तीन श्लोकों में लिखी बातें आ गयी हैं उनके बारे में कुछ और भी जान लेना आवश्यक है। यह ठीक है भगवान् पर पर्दा होने से उसकी भी दृष्टि संकुचित होने का प्रश्न पैदा होता है। उसका उत्तर देना भी इसीलिए जरूरी हो जाता है। इसी से कह भी दिया है कि भगवान् तो त्रिकालदर्शी है और सब कुछ जानता है। मगर लोग ही उसे जान नहीं सकते। इसका कारण भी यही है कि इस माया की नींद ने भगवान् को सुलाया तो है नहीं कि उसकी जानकारी जाती रहे और वह सपने देखने लगे। यह तो जीवों या जनसाधारण की ही नींद है, जिससे उनकी ऑंखें बन्द हैं। फलत: वे परमात्मा को, जो उन्हीं की आत्मा है, देख नहीं सकते। इसीलिए जरूरत भी इस बात की है कि भगवान् में लगन लगा के इस नींद एवं माया को मिटाया जाय, जैसा कि पहले इसी अध्‍याय में कह दिया है।

    लेकिन इस प्रश्न की जरूरत ही क्या थी, यह पूछा जा सकता है। यदि भगवान् की दृष्टि भी तंग हो जाय तो हमारा क्या बिगड़ता है  ? अर्जुन का क्या घटता था ? उसका काम तो वैसे ही चलता रहता। आखिर उसकी दृष्टि संकुचित से विस्तृत तो हो गयी नहीं। यह बात पहले कही जा चुकी ही है।

    दरअसल अर्जुन की और दूसरे लोगों की भी हानि जरूर ही थी यदि भगवान् की नजर भी तंग हो। क्योंकि तब तो गीता का जो उपदेश है वह खासकर सृष्टिके सम्बन्ध में जो बातें कृष्ण कह रहे थे उन पर अविश्वास करने की ही नौबतआजाती।जब साधारण लोगों जैसी ही या उनसे भी गयी गुजरी समझ उपदेशक के पास होतोउसकी बात का क्या ठिकाना ? उसमें विश्वास करेगा ही कौन ? इसलिए ही यह कहना पड़ा । लोगों की दृष्टि ऐसी क्यों होती है और भगवान् की नहीं यह बात 27वाँ श्लोक बताता है। यह ठीक है कि जीव और परमात्मा एक ही हैं। दोनों में वस्तुगत्या कोई भी फर्क नहीं है। फिर भी जीवों के साथ अनादिकाल से काम-क्रोध तथा रागद्वेष का भारी पचड़ा लगा है और यही सब गुड़गोबर करता है। यह बात बार-बार कही गयी है। तीसरे अध्‍याय के अन्त में तो इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश भी डाला गया है कि इन रागद्वेषों के चलते क्या-क्या अनर्थ होते हैं और खत्म कैसे किया जा सकता है। किन्तु ये दोनों भगवान् में हैं नहीं। इसलिए वहाँ कोई गड़बड़ हो पाती नहीं। इन रागद्वेषों के चलते अपने-पराये, सुख-दु:ख, शत्रु-मित्र आदि द्वन्द्वों के बखेड़े उठ खड़े होते हैं। फिर तो मनुष्य का मानस पटल पक्का अखाड़ा ही बन जाता है, उसकी गर्द उड़ जाती है, धज्जियाँ उड़ जाती हैं और चारों ओर अंधेरा जैसा छा जाता है। यही है द्वन्द्व से होने वाला मोह। इसी को दूसरे अध्‍याय में क्रोध के भीतर ही शामिल कर दिया है। उसके बादवाले सम्मोह को ही यहाँ मोह कह दिया है। यही है किर्कत्तव्य विमूढ़ता या भ्रम या अज्ञान। यह बात जन्म के साथ ही होती है। फिर तो ये रागद्वेष जरा भी मौका नहीं देते कि हम सँभल सकें। यही बात 'सर्गे यांति' (727) में कही गयी है। इसीलिए शुरू से ही इससे पिण्ड छूटने पर मन भगवान् में जा सकता है यह बात 28वें श्लोक में आयी है। ताकि इन्हें खत्म करने में हम जनमते ही लग पड़ें।

    अब फिर पुराने प्रसंग यानी 25वें श्लोक की बात को पकड़ के आगे बढ़ते हैं। क्योंकि बीच के तीन श्लोक प्रसंगवश ही आये थे। हाँ, तो यह समस्त संसार ब्रह्मरूप ही है यही बात चलती थी। अगर शुरू के चार (8-11) श्लोकों पर, जिनमें खास पदार्थों का वर्णन आया है, गौर करें तो पता चलेगा कि उन्हें तीन दलों में बाँट सकते हैं, जिन्हें पुराने लोगों ने आध्‍यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक कहा है। पृथिवी, जल, अग्नि और आकाश तो भूत हैं। इसीलिए इनके गन्ध, रस आदि का वर्णन आधिभौतिक हुआ। क्योंकि गन्ध, रसादि भूतों में ही रहते हैं। अत: अधिभूत हो गये। इसी प्रकार चन्द्र और सूर्य की बात आधिदैविक हो गयी और बुध्दि, बल, तेज, तप, जीवन और काम ये छ: हो गये आध्‍यात्मिक। शरीर के भीतर ही तो ये पाये जाते हैं। यह भी एक कारण कि वायु को भूत में न रख के जीवन के रूप में यहीं रख दिया है। नहीं तो दो बार कहना पड़ता। क्योंकि अध्‍यात्‍म में प्राण् जैसी प्रसिध्द चीज को छोड़ नहीं सकते थे। उपनिषदों में भी उसे कहीं नहीं छोड़ा है। चन्द्र-सूर्य में चमक और दिव्य तेज होने से उनका दल आधिदैविक हुई। इन आध्‍यात्मिक आदि चीजों पर विशेष प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है। वहीं यह भी बताया गया है कि अधियज्ञ नाम की चौथी चीज क्यों और कैसे आई है। यह भी बता चुके हैं कि किस प्रकार सुख-दु:ख, बल, बुध्दि से बढ़ते-बढ़ते आत्मा को ही अन्त में अध्‍यात्‍म मानने लगे। ब्रह्म की बात तो बार-बार सर्वत्र आयी ही है और कर्म की भी। 'प्रणव:' 'सर्ववेदेषु' कहने से भी इस कर्म की तरफ इशारा होता है। क्योंकि 'ब्रह्मणोमुखे' कहके वेदों में कर्मों की ही प्रधानता मानी है।

    इस प्रकार अधिभूत, अध्‍यात्‍म, अधियज्ञ, अधिदैव आदि के रूप में जो लोग ब्रह्म का निरन्तर मनन करते हैं वही विज्ञान के अधिकारी होते हैं। इसीलिए इस सातवें अध्‍याय में संक्षेप से अध्‍यात्‍म आदि का उल्लेख नमूने के तौर पर ही हुआ है। मनन करने वाले इसी नमूने को बढ़ा के हजारों पदार्थों में इस बात का मनन-चिन्तन कर सकते हैं और अन्त में अद्वैत आत्मा का साक्षात्कार भी कर सकते हैं। यों कहिए कि उन्हीं को पूर्ण ब्रह्म का ज्ञान या ब्रह्म का पूर्ण साक्षात्कार होता है। जिनने ऐसा कर लिया है उनकी बुध्दि चक्कर या भ्रम में-सम्मोह में-पड़ ही नहीं सकती। यहाँ तक कि मरणकाल की अपार वेदना के समय भी वह विचलित नहीं हो पाती। क्योंकि वह जिधर ही जाती है अधयात्मादि के रूप में आत्मा ही आत्मा पाती है। यही है बहुत बड़ी विशेषता इस विवेचन की। संक्षेप में यही बातें कहते हुए दो श्लोकों में अध्‍याय का उपसंहार इस प्रकार करते हैं-

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।

ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमधयात्मं कर्म चाखिलम्॥29

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्त चेतस:॥30

    (फलत:) जन्म और मरण से छुटकारे के लिए जो मुझमें ही मन लगा के यत्न करते हैं वही उस पूर्ण ब्रह्म को, अध्‍यात्‍म को और समस्त कर्मों को जानते हैं। (इसी तरह) अधिभूत, अधिदैव एवं अधियज्ञ के रूप में भी जो मुझ परमात्मा को साक्षात् अनुभव करते हैं; पूर्ण समाधि में मन लगानेवाले वही लोग मरण के समय भी मुझ परमात्मा का ही साक्षात्कार करते हैं।2930

    यहाँ जरा से जन्म समझना ही ठीक है। वही मरण की साथिनी है और सर्वत्र आया करती है। असल में जन्म के कष्ट का तो अनुभव रहता नहीं। इसीलिए कष्ट दिखाने के लिए जरा लिखा है। मरण का कष्ट खुद देखते ही हैं। जन्म का कष्ट माँ अनुभव करती है, न कि बच्चा। जन्म कहने से जीवन भर के कष्ट आ जाते हैं। इसी प्रकार कर्म का अर्थ केवल यज्ञयागादि न हो के सृष्टि का सारा व्यापार ही है, जैसा कि आठवें अध्‍याय में लिखा है। आत्मज्ञानी को सृष्टि के समस्त व्यापार नजर आने लगते हैं कि कैसे क्या बनता है, जमीन आदि कैसे बनती है, बनी है। तभी तो उसे निस्सन्देह अद्वैत ज्ञान होता है।

    इस अध्याय का विषय ज्ञान-विज्ञान है यह तो कही चुके हैं।

    इति श्री. श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय:॥7

    श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में, जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका ज्ञान-विज्ञान योग नामक सातवाँ अध्याय यही है।

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