ग्यारहवाँ
अध्याय
अर्जुन ने
दसवें
अध्याय
में जो विराट् रूप का विस्तृत विवरण सुना उससे उन्हें ऐसी आतुरता हुई
कि उसे जल्द से जल्द ऑंखों से देखने को लालायित हो उठे। चुन-चुन के
प्राय: सभी पदार्थों को भगवान् का रूप बताना तो केवल कहने की एक रीति
है। चमत्कार-युक्त पदार्थों पर ही तो पहले दृष्टि जाती है और एक बार
जब उन्हें परमात्मा का रूप मान लिया,
जब एक बार उनमें वह भावना हो गयी,
तब तो आसानी से सभी में वही भावना हो सकती है।
कहने का कौशल यही है कि इस बुध्दिमत्ता से बातें बतायें कि कुछी
बातें कहने से काम चल जाये और सुनने वाला बाकियों को खुद-ब-खुद समझ
जाये। कहते हैं कि किसी ने दूसरे से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है
?
उत्तर
मिला कि तिनकौड़ी। फिर प्रश्न हुआ कि बाप का
? जवाब मिला छकौड़ी। इसके बाद तो पूछने वाले ने
स्वयमेव कह दिया कि बस, ज्यादा कहने का
काम नहीं। अब तो मैं खुद तुम्हारे सभी पुरुषों तक के नाम जान गया।
क्योंकि इसी प्रकार दूना करता चला जाऊँगा। ठीक वही बात यहाँ भी हुई
है। जब सिंह को भगवान् मान लिया, तो शेष
पशुओं को भगवान् से अलग मानने के लिए कोई दार्शनिक युक्ति रही नहीं
जाती। सभी तो एक से हाड़-मांसवाले हैं। यही बात अन्य पदार्थों में भी
लागू है। इस प्रकार चुने-चुनाये पदार्थों के नाम लेने से ही सबों का
काम हो गया। यह भी बात है कि आखिर जब ऑंखों से प्रत्यक्ष देखने का
मौका आये तो सबों को जुदा-जुदा देखना असम्भव भी है। थोड़े से चुने
पदार्थों को ही देखते-देखते तो परेशानी हो जायेगी। लाखों तरह के
पदार्थ जो ठहरे। इसलिए नमूने के रूप में जिन्हें दसवें में गिनाया है
ग्यारहवें में उन्हीं को देखने में आसानी होगी,
मजा भी आयगा और बात दिल में बैठ भी जायगी कि ठीक
ही तो कहते हैं। जैसा कहा वैसा ही देखते भी तो हैं। जरा भी तो फर्क
है नहीं। नहीं तो सबों का देखना असम्भव होने से नाहक की परेशानी
(Confusion)
हो जाती और
काम भी वैसा नहीं बनता।
इसीलिए आगे
अर्जुन ने स्वयमेव कह दिया है कि भगवन्,
आप जो
कहते हैं वह अक्षरश: सही है। इसमें शक-शुभे की गुंजाइश है नहीं। हाँ,
कमी
यही रह गयी है कि जरा इन्हें ऑंखों देख नहीं लिया है। तो क्या देख
सकता हूँ ?
यदि
हाँ,
तो बड़ी कृपा
हो,
अगर आप दिखा
दें। इस कथन से और चटपट प्रश्न कर देने से भी उनकी आतुरता का पता चल
जाता है। जो देखा नहीं,
सुना
है,
उसको देख लेना
ही काफी है,
यही
उनका आशय है। इससे अब तक के मन की पुष्टि हो के निदिध्यासन में
प्रत्यक्ष सहायता भी हो जायगी। फिर तो स्वतन्त्र रूप से युध्द के बाद
अर्जुन यही काम कर सकेंगे। ग्यारहवें अध्याय के पढ़ने से पता चलता है
कि कोई विशेषज्ञ अपनी प्रयोगशाला
(laboratory)
में बैठ के
उन्हीं बताई बातों का प्रयोग
(experiment)
शिष्यों के
सामने कर रहा है। ताकि उन्हें वे बखूबी हृदयंगम कर लें,
जिन्हें अब तक समझाता रहा है। अर्जुन को शक था कि
भला ये चीजें देख सकेंगे कैसे ? इसीलिए
उसने कहा भी। जनसाधारण
भी तो यही मानते हैं कि भला कहीं दो हवाओं-ऑक्सीजन तथा हाइड्रोजन-के
सम्मिश्रण से ही पानी बन सकता है। मगर प्रयोगशाले में जब उनकी ऑंखों
के सामने विलक्षण आला और यन्त्रा लगा के प्रत्यक्ष दिखाया जाता है तब
मान जाते और आश्चर्य में डूब जाते हैं। अर्जुन की भी वही दशा हुई।
आश्चर्यचकित होने के साथ ही वह घबराया भी। क्योंकि यहाँ भयंकर और
बीभत्स दृश्य भी सामने आ गये जो दिल दहलाने वाले थे
'दिव्यं
ददामि ते चक्षु:', 'न तु मां शक्य से'
(11।8) के द्वारा
कृष्ण ने दिखाने के पहले अर्जुन को दिव्य दृष्टि क्या दी,
मानो कोई विलक्षण आला या यन्त्रा ऑंखों पर लगा
दिया।
हाँ,
तो
देखने की ही आतुरता से चटपट-
अर्जुन
उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमधयात्मसंज्ञितम्।
यत्तवयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम॥1॥
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्त:
कमलपत्रक्ष
माहात्म्यमपि चाव्ययम्॥2॥
अर्जुन बोल
उठा-मेरे ऊपर दया करके आपने अध्यात्म नामक जो परम गोपनीय बात कही
है उससे मेरा यह मोह तो खत्म हो गया। हे कमलनयन,
मैंने
आपके मुख से पदार्थों के उत्पत्ति-प्रलय विस्तार के साथ सुने और आपका
विकारशून्य माहात्म्य भी (सुन लिया)।1।2।
एवमेतद्यथात्थत्वमात्मानंपरमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामितेरूपमैश्वरंपुरुषोत्तम॥3॥
मन्य से
यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्॥4॥
हे परमेश्वर,
हे
पुरुषोत्तम,
जैसा
आप कहते हैं वह तो ठीक ही है। (अब केवल) मैं आपका वह ईश्वरीय रूप देख
लेना चाहता हूँ। प्रभो,
यदि आप
ऐसा मानते हों कि मैं उसे देख सकता हूँ तो,
हे
योगेश्वर,
अपना अविनाशी
रूप मुझे दिखाइए।3।4।
यहाँ प्रसंग
से एक बात कह देनी है। अब तो अर्जुन ने मान लिया कि कृष्ण का जो कुछ
भी अपने बारे में कहना है वह अक्षरश: सही है,
उसमें
जरा भी शक नहीं है। और कृष्ण ने अपने अवतार की बात के साथ ही यह भी
तो कही दिया है मुझे मनुष्य शरीरधारी समझ जो लोग मेरा तिरस्कार करते
हैं वह बिगड़े दिमागवाले बदबख्त लोग ही हैं। इतना ही नहीं।
'यद्यदारचित
श्रेष्ठ:'
(321-26)
आदि श्लोकों
में उनने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि मैं स्वयमेव सभी कर्म
इसीलिए करता हूँ कि मेरी देखादेखी जनसाधारण भी ऐसा ही करें। नहीं तो
यदि मैं उलटा करूँ तो वह भी वैसा ही करेंगे। क्योंकि उनके पास समझ तो
होती नहीं कि तर्क-दलील करके अपने फ़ायदे की बातें करें। वे तो ऑंख
मूँद के यही सोचते हैं कि जब खुद कृष्ण ही ऐसा करते हैं तो हम क्यों
न करें ?
यह जरूर ही
अच्छा काम होगा। नतीजा यह होगा कि मेरे चलते सारी दुनिया चौपट हो
जायगी।
इससे गोपियों
के साथ रासलीला वाली बात बिलकुल ही बेबुनियाद और निराधार सिध्द हो
जाती है। भला,
जो
महापुरुष औरों के बारे में और अपने बारे में भी इतनी सख्ती से बातें
करे कि लोगों को जरा भी विपथगामी होने का मौका हमें अपने आचरणों के
द्वारा नहीं देना चाहिए,
वही
ऐसा जघन्य और कुत्सित कार्य कभी करेगा,
यह
दिमाग में भी आने की बात है क्या
? जो
लोग ऐसी वाहियात बातों के समर्थन में लचर दलीलें पेश किया करते हैं
उन्हें गीता के इन वचनों को जरा गौर से पढ़ना और इनके अर्थ को समझना
चाहिए। तब कहीं बोलने की हिम्मत करनी चाहिए। हमने जो इन श्लोकों में
स्पष्टीकरण में बहुत कुछ लिखा है उससे उनकी भी ऑंखें खुल जायँगी,
यह आशा
कर सकते हैं। गोपियाँ वेद की ऋचाएँ थीं,
अनन्य
भक्त थीं आदि-आदि जो कल्पनाएँ की जाती हैं और इस तरह बाल की खाल
खींची जाती है उससे पहले यह क्यों नहीं सोचा जाता है कि इतनी गहरी और
बारीक बातें क्या जनसाधारण समझ सकते हैं
? और
अगर यही बात होती तो फिर यह कहने की क्या जरूरत थी कि वे तो हमारी
देखादेखी ही करेंगे और चौपट हो जायँगे
? तब
तो कृष्ण चाहे जो भी करते। फिर भी लोग कभी पथ-भ्रष्ट होते ही नहीं।
बस अर्जुन का
यह कहना था और कृष्ण ने अपना नाटक फौरन ही फैला ही तो दिया। वे तो
पहले से ही इसके लिए तैयार बैठे थे कि आखिरी काम यही करना होगा। उनके
जैसा विज्ञ सूक्ष्मदर्शी भला ऐसा समझे क्यों नहीं
?
इसीलिए-
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे
पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश:।
नानाविधानि
दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च॥5॥
श्रीभगवान्
कहने लगे-हे पार्थ,
मेरे
सैकड़ों (और) हजारों तरह के बहुरंगी,
अनेक
आकारवाले दिव्य रूपों को देख लो।5।
अर्जुन पीछे
कहीं घबरा न जाय,
इसीलिए
उसे पहले ही सजग कर देते हैं कि अजीब चीजें देखने को मिलेंगी,
जो कभी
दिमाग में भी नहीं आयी होंगी।
पश्यादित्यान्वसून् रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत॥6॥
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे
गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि॥7॥
न तु
मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं
ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्॥8॥
हे भारत,
(द्वादश)
आदित्यों, (आठ)
वसुओं, (एकादश)
रुद्रों,
दोनों अश्विनी
कुमारों, (तथा
उनचास) मरुतों को देख लो (और) पहले कभी न देखे बहुतेरे आश्चर्य-जनक
पदार्थ भी देख लो। हे गुडाकेश,
आज
यहीं पर मेरे शरीर में ही चराचर जगत् को एक ही जगह देख लो और जो कुछ
और भी देखना चाहते हो (सो भी देख लो)। लेकिन अपनी इन्हीं ऑंखों से तो
मुझे (उस तरह) देख सकते नहीं। (अत:) तुम्हें दिव्यदृष्टि दिये देता
हूँ। (फिर बेखटके) मेरा ईश्वरी योग या करिश्मा देखलो।6।7।8।
यहाँ सातवें
श्लोक में जो यह कहा है कि और भी जो कुछ देखना चाहते हो देख लो,
'यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि',
उसका
मतलब यही मालूम पड़ता है कि अर्जुन ने जो शुरू में ही कहा था कि यह भी
तो निश्चय नहीं कि हमीं जीतेंगे या वही लोग,
उसको
कृष्ण भूले नहीं हैं और इशारे से ही कह देते हैं कि यह भी अपनी ऑंखों
देख लो कि कौन जीतेगा। सचमुच आगे जो यह दिखाई पड़ा कि भीष्मादि सभी
भगवान् के मुँह में घुसे जा रहे हैं वह तो नयी बात ही थी न
? उसकी
तोअब तक चर्चा भी नहीं हुई थी। वह बात अर्जुन के मन में थी जरूर।
इसीलिए तो उसने शक जाहिर किया था। ताहम उसकी खुली चर्चा हुई न थी।
फिर भी देखने को वह भी मिली। पूछने पर कृष्ण ने आगे कहा भी कि सबों
का संहार करने चला हूँ।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरि:।
दर्शयामास पर्थाय परमं रूपमैश्वरम्॥9॥
संजय ने
(धृतराष्ट्र से) कहा-हे राजन् महायोगेश्वर कृष्ण ने ऐसा कह के चटपट
अर्जुन को (अपना इस तरह का) विलक्षण ईश्वरीय रूप दिखा ही तो दिया।9।
अनेकवक्त्रानयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥10॥
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धनुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्॥11॥
उस रूप में
बहुत ज्यादा मुँह और ऑंखें हैं,
बहुतेरी निराली दर्शनीय बातें हैं,
बहुत
से दिव्य अलंकार हैं,
अनेक
प्रकार के दिव्य (एवं) सजे-सजाये हथियार हैं,
दिव्य
मालाएँ (तथा) वस्त्र सजे हैं,
दिव्य
सुगन्धित पदार्थों का लेप लगा है। वह सब तरह से आश्चर्यमय,
दिव्य,
अनन्त
और विश्व-व्यापक है।10।11।
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भा:
सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मन:॥12॥
अगर एक ही साथ
आकाश में हजार सूर्य निकल पड़ें तो उनका जो प्रकाश हो वही (शायद) उस
महात्मा की प्रभा के जैसा हो सकता है।12।
तत्रौकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा॥13॥
वहाँ उस समय
देवताओं के भी देवता कृष्ण के शरीर में अर्जुन को एक ही जगह समूचा
संसार अनेक रूप में विभक्त दिखाई पड़ा।13।
तत: स
विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा
धनंजय:।
प्रणम्य
शिरसा देवं कृतांजलिरभाषत॥14॥
अब तो
धनंजय-अर्जुन-के रोंगटे खड़े हो गये (और) वह आश्चर्य में डूब गया।
(फिर) सिर झुका भगवान् को प्रमाण करके हाथ जोड़े हुए कहने लगा।14।
अर्जुन
उवाच
पश्यामि
देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥15॥
अर्जुन कहने
लगा-हे देव,
आपके
देह के भीतर सभी देवताओं को,
विभिन्न पदार्थों के संघों को,
कमल के
आसन पर बैठे सबों के शासक ब्रह्मा को,
सभी
ऋषियों को और अलौकिक सर्पों को देख रहा हूँ।15।
अनेकबाहूदरवक्त्रानेत्रांपश्यामित्वांसर्वतोऽनंतरूपम्।
नान्तं
न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥16॥
आपके अनेक
बाहु,
पेट,
मुँह
(एवं) ऑंखों से युक्त अनन्तरूप को ही चारों ओर देख रहा हूँ। हे
विश्वेश्वर,
हे
विश्वरूप,
न तो आपका
अन्त,
न आदि और न
मध्य ही देख पाता हूँ।16।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि
त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्॥17॥
मुकुट,
गदा और
चक्र धारण किये,
तेज की
राशि,
चारों ओर
प्रकाश फैलाये,
जिस पर
नजर टिक न सके ऐसा,
सब तरफ
दहकते सूर्य एवं अग्नि के समान देदीप्यमान और अपरम्पार आप ही को
देखता हूँ।17।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥18॥
तुम्हीं जानने
योग्य परम अक्षर अर्थात् ब्रह्म (हो),
तुम्हीं इस विश्व के आखिरी आधार (हो),
तुम्हीं विकारशून्य हो,
सनातन
धर्म के रक्षक हो (और) मेरे जानते तुम्हीं सनातन पुरुष हो ।18।
अनादिमधयान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामित्वांदीप्तहुताशवक्त्रांस्वतेजसाविश्वमिदं तपन्तम्॥19॥
आदि,
मध्य,
अन्त-तीनों-से रहित,
अनन्त
शक्तिशाली,
अनन्त
बाहुवाले,
चन्द्र-सूर्य
जिसके नेत्र हों,
दहकती
आग जैसे जिसके मुख हों और जो अपने तेज से इस विश्व को तपा रहा हो,
मैं
आपको ऐसा ही देख रहा हूँ।19।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हिं व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा:।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्॥20॥
आकाश और जमीन
के बीच की इस जगह को और सभी दिशाओं को भी अकेले आप ही ने घेर रखा है।
इसीलिए,
हे महात्मन्,
आपके
इस उग्र रूप को देख के सारी दुनिया काँप रही है।20।
अमी हि
त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीता: प्रांजलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्यक्त्वा महर्षिसिध्दसंघा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि:
पुष्कलाभि:॥21॥
देखिए न,
(कुछ)
देवताओं के झुण्ड आपके भीतर घुसे जा रहे हैं,
(और)
कुछ मारे डर के हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे हैं। महर्षियों एवं
सिध्दों के दल (भी)
'स्वस्ति
हो'
की पुकार के
साथ बहुत ज्यादा स्तुतियों के द्वारा आपका गुणगान कर रहे हैं।21।
रुद्रादित्या वसवो ये च साधया विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिध्दसंघा
वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥22॥
जो भी रुद्र,
आदित्य,
वसु,
साध्य,
विश्वदेव,
दोनों अश्विनी
कुमार मरुत,
पितर
तथा गन्धर्वों,
यक्षों
एवं असुरों के गिरोह के गिरोह हैं सभी विस्मित हो के आप ही को देख
रहे हैं।22।
रूपं
महत्तो बहुवक्त्रानेत्रां महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं
बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्॥23॥
हे महाबाहु,
बहुत
मुँहों तथा नेत्रोंवाला,
अनेक
बाहुओं,
जंघों एवं
पाँवों से युक्त,
बहुतेरे पेट वाला और बहुत सी डाढ़ों के करते भयंकर यह तुम्हारा विशाल
रूप देख के लोग घबराये हुए हैं और मैं भी व्यथित हूँ।23।
नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं
न विंदामि शमं च विष्णो॥24॥
हे विष्णो,
आकाश
चूमते हुए,
चकमक,
रंग-बिरंगे,
मुँह
फैलाये तथा जलते हुए लम्बे नेत्रों से युक्त आपको देख के मेरी आत्मा
दहल उठी है और मुझमें न तो धैर्य है और न चैन।24।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसंनिभानि।
दिशो न
जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास॥25॥
डाढ़ों के करते
विकराल (तथा) प्रलयकाल की अग्नि के समान (दहकते) हुए आपके मुँहों को
देख के ही मुझे न तो दिशाएँ सूझती हैं और न चैन ही मिल रहा है।
(इसलिए) हे देवेश,
हे
जगदाधार,
प्रसन्न हो
जाइए-कृपा कीजिए।25।
अमी च
त्वां
धृतराष्ट्रस्य
पुत्रा:
सर्वे सहैवावनिपालसंघै:।
भीष्मो
द्रोण: सूतपुत्रस्तथासौ
सहास्मदीयैरपि योधमुख्यै:॥26॥
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमांगै:॥27॥
राजाओं के
गिरोह के साथ ही ये सभी धृतराष्ट्र के बेटे आपके भीतर-पेट में-तेजी
से घुसे जा रहे हैं। भीष्म,
द्रोण
और यह कर्ण भी हमारे दल के प्रमुख योध्दाओं के साथ,
डाढ़ों
से विकराल दीखने वाले आपके भयंकर मुँहों में,
तेजी
से दौड़े जा रहे हैं। किसी-किसी की तो यह हालत है कि दाँतों के बीच
में ही सट गये हैं और उनके सिर चूर्ण-विचूर्ण नजर आ रहे हैं।26।27।
यथा
नदीनां बहवोऽम्बुवेगा: समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा
तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति॥28॥
जिस तरह
नदियों की बहुत सी तेज धाराएँ समुद्र की ही ओर दौड़ी चली जाती हैं,
उसी
तरह आपके धक्धाक् जलते मुखों में नरलोक के ये वीर बाँकुड़े घुसे जा
रहे हैं।25।
यथा
प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृध्दवेगा:।
तथैव
नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृध्दवेगा:॥29॥
जिस प्रकार
खूब तेज आग में पतिंगे बड़ी तेजी से घुस मरते हैं,
वैसे
ही आपके मुखों में ये लोग भी बड़ी तेजी से घुस रहे हैं।29।
लेलिह्यसे ग्रसमान: समंताल्लोकान्समग्रान्वदनर्ैज्वलदि्भ:
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्रा: प्रतपन्ति विष्णो॥30॥
(और)
आप अपने जलते मुँहों में चारों ओर से सभी लोगों को निगल के जीभ चाट
रहे हैं! हे विष्णो,
आपकी
उग्र प्रभाएँ अपने तेज से समस्त जगत् को घेर के खूब तप रही हैं।30।
आख्याहि
मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥31॥
हे देवताओं
में श्रेष्ठ,
मैं
आपको प्रणाम करता हूँ,
आप
प्रसन्न हों (और भला) बतायें तो (सही कि) यह उग्र रूपवाले आप हैं कौन
? मैं
आदि (पुरुष) आपको जानना चाहता हूँ। क्योंकि आपको क्या करना मंजूर है
यह मैं जान नहीं पाता हूँ।31।
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृध्दो लोकान्समाहर्त्तुमिह
प्रवृत्त:।
ऋतेऽपि
त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा:॥32॥
श्रीभगवान्
कहने लगे-मैं लोगों का संहार करने वाला मोटा-ताजा काल हूँ (और) यहाँ
लोगों का संहार करने में लगा हूँ। (इसीलिए) तुम्हारे बिना भी-तुम कुछ
न करो तो भी-परस्पर विरोधी फौजों में जितने योध्दा मौजूद हैं (सभी)
खत्म होंगे ही।32।
तस्मात्तवमुत्तिष्ठ
यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुंक्ष्व राज्यं समृध्दम्।
मयैवैते
निहता: पूर्वमेव
निमित्तमात्रं
भव सव्यसाचिन्॥33॥
इसलिए,
हे
सव्यसाची (अर्जुन),
तुम
तैयार हो जाओ,
यश लूट
लो (और) शत्रु को जीत के समृध्दियुक्त राज्य (का सुख) भोगो। मैंने तो
इन्हें पहले ही मार डाला है। अतएव केवल एक बहाना बन जाओ।33।
द्रोणं
च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्॥
मया
हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥34॥
मेरे हाथों
(पहले ही) मरे-मराये द्रोण,
भीष्म,
जयद्रथ,
कर्ण
तथा अन्यान्य वीर बाँकुड़ों को तुम मार डालो,
घबराओ
मत (और) लड़ो। युध्द में शत्रुओं को (जरूर) जीतोगे।34।
संजय उवाच
एतच्छ्रघत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमान: किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीत: प्रणम्य॥35॥
(तब)
संजय (धृतराष्ट्र से) बोला-किरीटी (अर्जुन) कृष्ण की यह बात सुन के
हाथ जोड़े काँपता हुआ कृष्ण को नमस्कार करके अत्यन्त भय के साथ रुँधो
गले से पुनरपि कहने लगा।35।
अर्जुन
उवाच
स्थाने
हृषीकेश तव प्रकीत्तर्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिध्दसंघा:॥36॥
अर्जुन
बोला-हे हृषीकेश,
(यदि)
आपके गुणगान से संसार हर्ष-प्रफुल्लित होता और अनुरागी बनता है (तो)
ठीक ही है (और अगर) राक्षस लोग (आपके) डर से इधर-उधर भागते फिरते हैं
तथा सिध्द लोगों के सभी संघ (आपका) अभिवादन करते हैं (तो यह भी उचित
ही है)।36।
कस्माच्च ते न नमेरन् महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकत्र्रो।
अनन्त
देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यतु॥37॥
हे महात्मन्,
गुरुओं
के भी गुरु (और) ब्रह्मा के (भी) आदि कारण तुम्हें वे प्रणाम क्यों न
करे ?
हे अनन्त,
हे
देवेश,
हे जगन्निवास,
स्थूल
(एवं) सूक्ष्म (तथा) उससे भी परे जो अक्षर ब्रह्म है वह तुम्हीं हो।37।
त्वमादिदेव: पुरुष: पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च
धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥38॥
तुम आदिदेव
(और) सनातन पुरुष (हो),
तुम्हीं इस विश्व के परम आधार (हो),
तुम्हीं ज्ञाता,
ज्ञेय
और परम ज्योतिस्वरूप (हो)। हे अनन्तरूप,
तुमने
विश्व को व्याप लिया है।
38।
वायुर्यमोऽर्ग्निवरुण: शशांक: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो
नमस्तेऽतु सहस्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥39॥
वायु,
यम,
अग्नि,
वरुण,
चन्द्रमा,
प्रजापति-ब्रह्मा,
कश्यप,
दक्ष
आदि-और उनके भी दादा हो। आपको हजार बार नमस्कार है और पुनरपि आप ही
को बार-बार नमस्कार है।39।
यहाँ प्रजापति
का अर्थ ब्रह्मा,
दक्ष,
मरीचि,
कश्यप
आदि सभी हैं। एकवचन कहने में कोई हर्ज नहीं है। तभी तो सभी लिये
जायँगे,
न कि खास तरह
से एकाध ही। यह कहना कि ये ब्रह्मा के बेटे हैं गलत बात है। मनु,
सप्तर्षि आदि की ही तरह ये सभी मानस हैं। मनु आदि भी प्रजापति ही
हैं। सबको भगवान् ने संकल्प से ही पैदा किया। ब्रह्मा को पितामह भी
कहते हैं और वह प्रजापतियों में ही आ गए। इसीलिए भगवान् को ही
प्रपितामह या उनका दादा कहा है।
नम:
पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:॥40॥
हे समस्त
जगत्स्वरूप,
आपको
आगे से नमस्कार,
पीछे
से नमस्कार,
और सब
ओर से नमस्कार है। आप अनन्तवीर्य तथा अमित पराक्रम वाले हैं। आप ही
सभी पदार्थों के रग-रग में व्याप्त हैं। इसीलिए सभी के स्वरूप ही
हैं।40।
वीर्य कहते
हैं वीरता या शक्ति को,
सामर्थ्य को। उसके अनुसार आगे बढ़ने या काम को पराक्रम कहते हैं।
सखेति
मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता
महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥41॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥42॥
साथी समझ के
(और) आपकी महिमा को इस तरह न जान के (कभी) जो आपको अपमान के रूप में
हे कृष्ण,
हे यादव,
हे
साथी इस तरह मैंने प्रमाद से या प्रेम के चलते ही कह दिया हो,
और हे
अच्युत हँसी-मजाक में जो घूमने-फिरने,
सोने,
बैठने
या भोजन के समय अकेले में या लोगों के सामने आपका अपमान कर दिया हो,
उसके
लिए अपरम्पार महिमावाले आपसे क्षमा चाहता हूँ।41।42।
पितासि
लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न
त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक:
कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥43॥
हे संसार भर
में अतुल प्रभाव वाले,
तुम इस
चराचर संसार के पिता हो,
पूज्य
(हो), (और)
गुरु के भी गुरु (हो)। तुम्हारी बराबरी का तो कोई हुई नहीं,
बड़ा
कोई कैसे होगा ?।43।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय
कायं प्रसादये त्वामहमीशमीडयम्।
पितेव
पुत्रस्य
सखेव सख्यु: प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥44॥
इसीलिए
साष्टांग प्रणाम करके ईश्वर और स्तुति-योग आपको खुश करना चाहता हूँ।
हे देव,
जैसे पुत्र का
अपराध पिता,
साथी
का साथी और स्त्री का पति क्षमा कर देता है वैसे ही-आप मेरी भूलें
भी क्षमा कर दें।44।
यहाँ
उत्तारार्ध्द में
'प्रियाया:'
का
'अर्हसि'
के साथ
सम्बन्ध होने पर व्याकरण के अनुसार
'प्रियाया
अर्हसि'
यही होना
चाहिए,
न कि सन्धि के
करते अकार विलुप्त हो जायगा,
या
'प्रियाया'
के
'या'
के
आकार में मिल जायगा। किन्तु गीता में तो ऐसा बहुत बार हुआ है। और तो
और,
इसी से तीन ही
श्लोक पहले हे सखे,
इति का
हे सखे इति की जगह हे सखेति कर दिया है। वहाँ भी ठीक इसी तरह का नियम
लागू है। मगर इसकी परवाह गीता उतनी नहीं करती। स्मरण रखना चाहिए कि
गीता का समय मान्य उपनिषदों के ही आस-पास है और उनमें ऐसा पाया ही
जाता है। लेकिन कुछ लोग इसी को प्राचीन भाष्यकारों की भारी भूल मानते
और 'प्रयायार्हसि'
में
षष्ठी की जगह चतुर्थी मान के
'प्रियायअर्हसि'
ऐसी
सन्धि करते हैं। काफी लेक्चर भी उनने दे डाला है। किन्तु वे इतना भी
न सोच सके कि पिता-पुत्र और साथी-साथी के दो विशेष दृष्टान्त देने के
बाद प्रिय को प्रिय माफी दे यह कहना कैसे उचित होगा। हाँ,
यदि
'प्रिय:'-की
जगह 'प्रिय'
ऐसा
सम्बोधन होता,
तब
शायद 'हे
प्रिय'
के लिए
'प्रिय'
कह
देने से काम चल सकता। लेकिन यहाँ तो सो है ही नहीं। अर्जुन अपने को
पुत्र न कहके प्रिय कहे यह भी ठीक नहीं। सखा आदि की बात के लिए तो
माफी माँगी चुका है।
यहाँ दो या
तीन 'इव'
की भी
बात नहीं उठ सकती है। ऐसा तो बार-बार मिलेगा कि ऐसे मौकों पर तीन की
जगह एक ही या दोई शब्द आते हैं। स्त्रियों का दृष्टान्त आलंकारिक
नहीं,
किन्तु
वस्तुस्थिति है। जो माफी पुत्र या साथी को भी नहीं दी जाती वह
स्त्री को दी जाती है,
बशर्ते
कि वह प्रिया हो और उसमें दिल लगा हो। इसीलिए उसका दृष्टान्त दिया
है। ऐसा भी होता है कि पुत्र को भी जो माफी नहीं मिलती वह साथी को
मिलती है। इसीलिए क्रमश: ऊँचे दर्जे के दृष्टान्त आये हैं।
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे
दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास॥45॥
जो कभी न देखा
था उसे देख के मेरे रोंगटे खड़े हो गये हैं और भय से मेरा मन व्याकुल
है। (इसलिए) हे देव,
हे
देवेश,
हे जगन्निवास,
कृपा
कीजिए (और) वही (पुराना) रूप मुझे फिर दिखाइए।45।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तामिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव
रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥46॥
(अभी)
जो आप मुकुट (एवं) गदा लिये (तथा) चक्रधारी बने हैं (उसकी जगह) मैं
आपको पहले ही की तरह देखना चाहता हूँ। हे चतुर्भुज,
हे
स्वामिन्,
हे सहस्त्रबाहु,
हे विश्वमूर्ति, (आप)
वही (पुराना) रूप बन जाइए।46।
इन दो श्लोकों
के पदविन्यास को देख के और उस पर पूरा गौर न करके बहुतेरे टीकाकार
धोखे में पड़ गये हैं। फलत: उनने यह अर्थ कर लिया है कि आप किरीट,
गदा और
चक्र लिये चतुर्भुज रूप बन जाइए,
यही
अर्जुन चाहता है। परन्तु आगे जब कृष्ण ने अपना विराट् रूप हटा के
अर्जुन की इच्छा पूर्ण कर दी है,
तो
51वें
श्लोक में अर्जुन जो यह कहता है कि आपका सीधा-सादा मनुष्य रूप देख के
अब कहीं मुझे होश हुआ है और मेरा मिजाज ठीक हुआ,
वह
कैसे संगत होगा ?
चतुर्भुज रूप तो मनुष्य का था नहीं और न चक्रधारी ही। किसने कहाँ कहा
कि किरीट और गदाधारी रूप आदमी का होता है और कृष्ण का भी वही रूप था
? कहा
जाता है कि जन्म के समय ही उनने ऐसा रूप देवकी-वसुदेव को दिखाया था।
मगर उसे फौरन हटाना पड़ा। यही नहीं,
'किरीटिनं
गदिनं' (11।17)
आदि से
तो स्पष्ट ही है कि विराट् रूप ही ऐसा था। फिर अर्जुन उसे ही कायम
रखने को कैसे कहता
? उसे
ही देख के तो उसके देवता कूच कर गये थे न
? और
जो रूप सामने ही था उसे
'वह'
या
'उसी
तरह'
का कहना कैसे
उचित था ?
उसे तो
47वें
में ठीक ही यह-इदम्-कहा है।
'यह'
के
मानी ही है मौजूद या हाजिर।
'वह'-तेनैव,
तदेव-और 'उसी
तरह'-तथैव-तो
सामने की चीज को न कह के परोक्ष या दूर की चीज को ही कहते हैं। और सच
कहिये तो कृष्ण का सीधा-सादा आदमी वाला रूप ही उस वक्त सामने न था।
अर्जुन उसे ही देखने को परेशान भी था।
इसीलिए हमने
अर्थ किया है कि जो अभी किरीट,
गदा
चक्र को धारण करने वाला आपका रूप है उसे ही पुराने और आदमी के रूप
में देखना चाहता हूँ। क्योंकि यह आदमी का न होके भगवान् का ही रूप
है। इसमें 'तथा'
और
'तेनैव'
भी ठीक
बैठते हैं। यही वजह है कि हमने
'चतुर्भुजेन'
शब्द
को एक न मानकर दो-चतुर्भुज+इन-माना
है और 'सहस्त्रबाहो
तथा विश्वमूर्ते'
की ही तरह इन दोनों को भी सम्बोधन ही माना है।
'इन' शब्द का
अर्थ है स्वामी और श्रेष्ठ। इस तरह हे चतुर्भुज,
हे स्वामिन्, ऐसा अर्थ
हो जाता है। एक यही शब्द कठिनाई पैदा करता था और वही अब दूर हो गयी।
इस पर-
श्रीभगवानुवाच
मया
प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं
विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्॥47॥
श्रीभगवान्
कहने लगे-हे अर्जुन,
(तेरे
ऊपर) प्रसन्न हो के ही मैंने तुझे अपनी सामर्थ्य से यह (वही) तेजमय,
अनन्त,
मूलभूत,
विलक्षण विश्वरूप दिखाया है जिसे तुझसे अन्य (किसी) ने भी पहले देखा
न था।47।
न
वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुगै्र:।
एवंरूप:
शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर॥48॥
हे कुरुवीर
शिरोमणि,
न वेद (पढ़ने)
से,
न यज्ञ (करने)
से,
न
(सद्ग्रन्थों के) अध्ययन से,
न दान
से,
न अन्य
क्रियाओं से (और) न कठिन तपस्याओं से ही (इस) मनुष्य लोक में
तुम्हारे अलावे दूसरा कोई मुझे इस रूप में देख सकता है।48।
मा ते
व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोर मीदृङ्ममेदम्।
व्यपेत
भी: प्रीतमना: पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य॥49॥
मेरा यह ऐसा
घोर रूप देख के तुम्हें (अब) व्यथा मत हो और घबराहट या
किर्कत्ताव्यविमूढ़ता भी मत हो। (किन्तु) निर्भय हो के खुशी-खुशी तुम
पुनरपि मेरे उसी रूप को यह अच्छी तरह देख लो।49।
इस श्लोक से
और भी साफ हो जाता है कि कृष्ण ने असली पुराने नररूप को ही फिर से
बना लिया था। क्योंकि पुनरपि-फिर भी-उसी रूप को देख लो,
ऐसा
कहते हैं। इसका तो आशय यही है न,
कि
जिसे पहले देखा था उसी को फिर देखो
?
दुबारा देखने का और मतलब होगा भी क्या
? जो
चतुर्भुज रूप सामने ही है उसी को पुन: देखना क्या
?
इसीलिए जब फिर
मानव रूप बनाया है तो कहते हैं यही अच्छी तरह देख लो-'इदं
प्रपश्य'।
इतना कहना था कि फौरन वही रूप नजर आ गया।
ठीक यही बात-
संजय उवाच
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूय:।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुन: सौम्यवपुर्महात्मा॥50॥
संजय कहने लगा
(कि),
कृष्ण ने
अर्जुन से ऐसा कह के (फौरन ही) अपना रूप फिर दिखा दिया और (इस तरह)
सीधा-सादा स्वरूपवान बन के महात्मा कृष्ण ने उस डरे हुए अर्जुन को
पुनरपि आश्वासन दिया।50।
अर्जुन
उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्त: सचेत: प्रकृतिं गत:॥51॥
(इस
पर फौरन ही) अर्जुन ने कहा (कि) हे जनार्दन,
आपका
यह सौम्य-सीधा-सादा मानव रूप देख के मुझे अभी होश हुआ है और मिजाज भी
ठीक हुआ है। 51।
श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदंरूपंदृष्टवानसियन्मम।
देवा
अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकांक्षिण:॥52॥
(तब),
श्रीभगवान् कहने लगे (कि आज) तुमने जो मेरा रूप देखा है इसका दर्शन
अत्यन्त दुर्लभ है। देवता लोग भी बराबर ही इस रूप के दर्शन की
आकांक्षा रखते हैं।
52।
नाहं
वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य
एवं विधो
द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥53॥
तुमने अभी-अभी
मुझे जिस तरह देख लिया है इस रूप में मैं वेद,
तप,
दान और
यज्ञ (किसी भी उपाय) से देखा नहीं जा सकता।
53।
भक्त्या
त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन।
ज्ञातुं
द्रष्टुं च तत्तवेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥54॥
हे अर्जुन,
हे
परन्तप,
किन्तु अनन्य
भक्ति से ही मुझे इस प्रकार जाना,
ऑंखों
देखा और उसी रूप में-वैसा ही स्वयं भी हो के-उसमें प्रवेश किया (भी)
जा सकता है।45।
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संगवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव॥55॥
(इसीलिए)
हे पाण्डव,
जो
मेरे ही लिए-पदार्थ-कर्म करे,
मुझी
को अन्तिम (लक्ष्य वस्तु) माने,
मेरा
ही भक्त हो,
आसक्तिशून्य हो और किसी भी पदार्थ से बैर न रखे,
वही
मुझे प्राप्त करता है।55।
यहाँ संक्षेप
में ही दो-तीन बातें जान लेनी हैं।
पहली बात यह
है कि यद्यपि 48वें
तथा 53वें
श्लोक में वेद आदि की बातें एक ही हैं,
जिससे
व्यर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है;
फिर भी
पहले श्लोक में अर्जुन को आश्वासन देने के ही लिए वह बातें कही गयी
हैं कि कहाँ तो वेदादि के बल से भी जो दर्शन नहीं हो सकता है वही
तुझे मिला है और कहाँ तू उलटे घबराता और बेहोश होता है! यह क्या
?
राम,
राम!
लेकिन वही बात दूसरे श्लोक में अनन्य भक्ति के साथ वेदादि के
मुकाबिले के लिए ही आयी है;
ताकि
इस भक्ति का पूर्ण महत्तव समझा जा सके।
दूसरी बात यह
है कि यहाँ जो कई बार कहा है कि कभी किसी और ने यह रूप नहीं देखा,
उसका
मतलब यह है कि यह तो आत्मदर्शन का प्रयोग था जो अर्जुन के ही लिए
किया गया था। इससे पहले यह प्रयोग किसी ने किया ही नहीं। अगर कभी
किसी ने देखा भी हो तो कौतूहलवश ही। क्योंकि उसे यह दृष्टि कहाँ मिली
और न मिलने पर वह इस दृष्टि से कैसे देखता
?
प्रयोग तो
करता न था।
तीसरी बात है
अन्तिम श्लोक की। इसमें जो कुछ कहा गया है वह आत्मदर्शी की बात न हो
के उधर अग्रसर होने वाले की ही है,
जो
अन्त में सब कामों के फलस्वरूप आत्मदर्शन करके ब्रह्मरूप बनता है।
प्रसंग और शब्दों से यही सिध्द होता है।
इति श्री.
विश्वरूपदर्शनं नामैकादशोऽधयाय:॥11॥
श्रीम. जो
श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका विश्वरूप दर्शन नामक ग्यारहवाँ
अध्याय यही है।
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