पन्द्रहवाँ
अध्याय
यह तो हमने
पहले ही कहा है कि पन्द्रहवाँ
अध्याय
मिला-जुला है। इसमें कुछ तो संसार का ही,
इस सृष्टि का ही विवेचन-विश्लेषण है। कुछ ज्ञान
की बातें भी हैं। आत्मा की जानकारी के लिए यत्नों की चर्चा तथा दूसरे
उपाय प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में कहे गये हैं। इसीलिए पिछले और
अगले
अध्यायों
की सन्धि के रूप में इसका यहाँ आ जाना उचित ही है। सचमुच यदि देखा
जाय तो शुरू के दस श्लोकों में किसी न किसी रूप में सृष्टि के निरूपण
की
प्रधानता
है। फिर 'यतन्तो
योगिन:' आदि ग्यारहवें श्लोक से ज्ञान के
साधनों
की ही बात प्रधानतया
पायी जाती है। 'द्वाविमौ'
आदि अन्त के पाँच श्लोकों में तो यह बात आयी ही
है। यदि उनसे पहले के श्लोकों में विराट् की कुछ बातें आ गयी हैं,
तो एक तो वे चिन्तन और यत्न के
साधन
के रूप में ही आयी हैं। दूसरे,
यही तो आखिरी बार उनका उल्लेख है। या यों कहिए कि
प्रकारान्तर से उनके उपसंहार द्वारा उनसे बिदाई है।
चौदहवें
अध्याय के अन्त में जो आत्मा को सबका आधार या प्रतिष्ठा कह दिया है
उससे आनन्दबल्ली वाली बात सामने आ जाती है,
जिसमें
इस भौतिक सृष्टि के शरीर आदि के निर्माण का उल्लेख है। उसी के
साथ-साथ यह सृष्टि भी दिमाग में खामख्वाह आ जाती है। उसी का जिक्र
पन्द्रहवें अध्याय के शुरू में ही है। एक बात और भी है। यदि गुणों से
या त्रिगुणात्मक संसार से पार जाना है,
पार
पाना है,
तो क्या किया
जाय यह जो प्रश्न उठा था,
उसका
उत्तर यही दिया गया है कि आत्मा में ही लग जाओ। वही ब्रह्म का भी
आधार है,
नींव है,
प्रतिष्ठा है। इससे साफ हो जाता है कि शरीर के भीतर ही उसे ढूँढ़ना
होगा। एतदर्थ क्रमश: भीतर या नीचे जाना होगा। क्योंकि एके बाद दीगरे
बहुत से पर्दे उस पर पड़े हैं। मगर इसमें कुछ खतरे भी हैं। हमारा
ख्याल इससे संकुचित हो जा सकता है और हम बाहरी दुनिया की परवाह,
उसके
सुख-दु:ख की फिक्र छोड़ दे सकते हैं,
जो बात
गीता को आमतौर से पसन्द नहीं है। इसी के साथ यह भी हो सकता है कि हम
दुनिया से ऊँचे उठें ही न। हम तो अपनी आत्मा के अन्वेषण में नीचे ही
जायँगे न ?
भीतर
ही घुसेंगे न ?
गुफा
में ढूँढ़ना जो है। मगर दुनिया का मजा लेने और जीवन को आनन्दमय बनाने
के लिए इस बात की जरूरत है कि हम उससे ऊँचे उठें,
ऊपर
जायें। समूचे संसार को फाँद के जब ऊपर जा पहुँचें तभी मस्ती आ सकती
है। डर था,
शायद
यह बात न हो सके। इसीलिए चौदहवें के अन्त में आत्मा के उल्लेख के साथ
ब्रह्म का भी उल्लेख किया गया है। उसका सीधा मतलब यही है कि हम
ढूँढ़ते-ढूँढते नीचे भी जायें और ऊपर भी। आत्मा की तलाश में नीचे और
ब्रह्म की खोज में ऊपर बढ़ें। नतीजा यह होगा कि सबसे नीचे और सबसे ऊपर
जाना ही होगा। इस तरह अन्तिम छोरों के मिल जाने
(Extremes meet)
के अनुसार
आत्मा और ब्रह्म एक हो जायेंगे और हमारा काम हर तरह से पूरा हो
जायगा। बिना सबके नीचे और ऊपर गये तो इन दोनों का ठीक-ठीक पता लग
नहीं सकता है। 'अत्यतिष्ठद्दशांगुलम्'
के द्वारा वैदिक ऋषियों ने तो ऐसा ही बताया है।
और ऐसा होने पर दोनों का अन्तिम मिलन अनिवार्य है। इसी बात का
स्पष्टीकरण पन्द्रहवाँ
अध्याय
करता है।
कुछ और भी
बातें हैं। 'वासुदेव:
सर्वमिति' (7।19)
में
समस्त संसार को वासुदेव कह के इसी रूप में इसे देखने वाले ही पक्के
और पहुँचे महात्मा बताये गये हैं। ज्ञान का आखिरी रूप यही कहा गया
है। इधर हमारे यहाँ पुरानी से भी पुरानी परिपाटी है कि पीपल के वृक्ष
को वासुदेव कहते और मानते हुए इसकी जड़ को सींचते रहते हैं। यह एक
धार्मिक प्रथा है। पीपल को ही अश्वत्थ भी कहते हैं। उधर उपनिषदों में
इस संसार को ही अश्वत्थवृक्ष के रूप में लिखा है। इसकी जड़,
पत्तो
आदि भी बताये गये हैं। कठोपनिषद् के द्वितीय अध्याय की छठी बल्ली का
पहला ही मन्त्र यों हैं,
'ऊधर्वमूलोऽवाक्
शाख एषोऽश्वत्थ: सनातन:। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदैवामृतमश्नुते'।
गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पहला श्लोक इसके पूर्वार्ध्द से
बिलकुल ही मिलता सा है। उपनिषद् ने कहा है कि इस अश्वत्थ की जड़ ऊपर
और शाखाएँ नीचे हैं और यह सनातन है,
अनादि
है। यह कब बना कोई कह नहीं सकता। मगर जिसे अविनाशी ब्रह्म कहते हैं
और मोक्षावस्था में जिसकी प्राप्ति होती है वह इससे जुदा नहीं है।
इसके मूल में वही है। गीता ने सनातन की जगह
'अव्यय'
कह
दिया है। मगर आशय वही है। इस प्रकार वासुदेव या ब्रह्मरूप में इस
जगत् को मानने तथा देखने की जो पुरानी प्रणाली है वह गीता के मत के
अनुकूल ही है। इसीलिए उसी का श्रीगणेश इस अध्याय में किया है।
हम इस संसार
को सचमुच ही मजबूत और सनातन न मान बैठें,
इसीलिए
अश्वत्थ नाम दिया गया है। अश्वत्थ का तो अर्थ ही है कि जो कल न रहे।
यह तो सदा परवर्तीत्तानशील है,
कमजोर
है और आत्मज्ञान से इसका खात्मा पलक मारते हो जाता है। आज ज्ञान हो
और कल ही यह लापता! यह है भी तो भयानक ही। इसमें तो कष्ट ही कष्ट है।
इसीलिए तो योगदर्शन में पतंजलि ने कहा है कि अर्थ से इति तक यह केवल
दु:खमय ही है ऐसा विवेकी मानते हैं। साफ ही देखते हैं कि यहाँ तीनों
गुणों की ऐसी आपसी कुश्ती और खींचतान है कि कुछ पूछिए मत,
'परिणामतापसंस्कार
दु:खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु:खमेव सर्वं विवेकिन:'
(2।15)।
नैयायिकों ने भी संसार को दु:खात्मक ही माना है। यहाँ तक कि सुख को
भी दु:ख ही कहा है। उनके मत से छ: इन्द्रियाँ-पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ
और मन-उनके छ: विषय-ज्ञान और छ: विषय,
शरीर,
सुख और
दु:ख यही इक्कीस दु:ख उनने माने हैं। उनके मत से यह संसार दु:खात्मक
है और इन्हीं का ध्वंस मुक्ति है। मगर यहाँ तो उल्टी ही गंगा बहती
नजर आती है। सभी लोग फूले मस्त हैं,
राजपाट,
बाल-बच्चों और स्वर्ग-बैकुण्ठ के ही पीछे मस्त हैं। उन्हें तो संसार
की दु:खरूपता दीखती ही नहीं। फिर इससे पार जाने का यत्न वे क्यों
करने लगे ?
प्रश्न
है कि ऐसा हुआ क्यों
? बात
तो उल्टी है न ?
कष्टात्मक ही तो यह संसार है। तब यह ऐसा हुआ कैसे
? इसके
ऐबों को किसने छिपाया
?
इसका उत्तर
गीता पहले ही श्लोक के उत्तारार्ध्द में देती है कि वैदिक कर्मकाण्ड
ने ही तो ऑंखों में धूल झोंक दी है। दिन-रात उसी के पीछे पड़े रहते
हैं और फुर्सत मिलती ही नहीं! जहीं-तहीं वैदिक साहित्य में,
वेदमन्त्रों में स्त्री-पुत्रादि की प्रशंसा,
स्वर्ग
की बड़ाई,
राजपाट की
महिमा लिखी मिलती है। फलत: जनसाधारण यदि कभी ऊबें भी तो पुनरपि इसी
वजह से उसी में पड़े रहते हैं। जैसे वृक्ष के हरे-भरे पत्तो उसे छेंके
और घेरे रहते हैं। इसीलिए उसके तने और शाखा-प्रशाखाओं की नग्नता दूर
से मालूम नहीं होती। किन्तु ज्यों ही पत्तो हटे कि समूचा पेड़
नंग-धड़ंग,
बेढंगा और
भयावना नजर आता है। ठीक वैसे ही वैदिक मन्त्रों और तन्मूलक साहित्य
ने इस अश्वत्थ के लिए भी पत्तो का काम कर दिया है,
जिससे
हम इसकी भयावनी सूरत देख नहीं पाते। इस तरह हम देखते हैं कि ज्ञान की
ओर बढ़ने में गीता का यह वर्णन कितना आलंकारिक एवं महत्तवपूर्ण सहायक
है,
खासकर ऐसा कह
के कि जो इसके नग्नरूप को जानता है। दरअसल वही वेद का ज्ञाता है। वह
पर्दे के भीतर घुस जो जाता है।
पीपल में यह
भी देखा जाता है कि ऊपर से बरोहें निकलती हैं। ये हैं दरअसल जड़ें ही।
पकड़ी,
बरगद और पीपल
में ही ऊपर की डालों से निकल के नीचे लटकती हैं। बरोह के मानी हैं
ऊपर से निकलनेवाली। बर+आरोह
से ही बरारोह बनके बरोह हो गया। बर कहते हैं ऊपर को। यह बात कितनी
खूबी के साथ जगत् से मिलती है। ऊपर ठहरा ब्रह्म। वहीं से जगत् की
सारी जड़ें निकली तथा फैली हैं। यदि इन जड़ों का पता लगाना है तो ऊपर
जायें। तभी इन्हें पायेंगे और काट देंगे। ऊपर जाने या संसार के
पदार्थों से अलग होने में अगर हजार ढंग के ताल्लुक
बाधक
हैं,
तो वैराग्य की शरण लें और मन को इनसे हटायें।
इनमें आसक्ति का त्याग करें। यही त्याग तलवार का काम करता है इन्हें
काट डालने में; ताकि ऊपर जा सकें। बिना
इसके वह मूलाधार
ब्रह्म मिलने का नहीं। इस तरह इसके काटने का उपाय है सही। फिर भी यह
है दरअसल लोहे का चना। सांसारिक वासनाएँ इतनी मजबूती से जकड़ी और
चारों ओर फैली हैं कि इनसे पिण्ड छुड़ाना मुश्किल है। इस तरह संसार के
पार जाना वैराग्य और विवेक के सहारे आसान भी है और मुश्किल भी।
क्योंकि जहीं जाइए एक फन्दा लगा है और हम उसी में फँस जाते हैं।
कहते हैं कि
किसी अच्छे पण्डित ने मौत से पहले ही किसी प्रकार यह जान लिया कि
मरने पर सूअर का शरीर पाऊँगा। उनने अपने बच्चों को यह बात कह दी। यह
भी बता दिया कि कहाँ कब सूअर का शरीर मिलेगा। उनने पहचान भी बता दी
कि फलाँ-फलाँ चिद्द होंगे;
ताकि
लड़के बेखटके पहचान सकें। फिर उनने कहा कि वह योनि तो बड़े कष्ट की है,
यह
जानते ही हो। इसलिए पता लगा के फौरन मार देना;
ताकि
कष्टमय जीवन से चटपट छुटकारा हो जाय। पीछे जब वह मर गये तो ठीक समय
पर खोजते-पूछते उनके लड़के उस मुकाम पर पहुँची तो गए जहाँ वह सूअर बने
विचरते थे। ढूँढ़ते-ढँढ़ते उनने पता भी पा लिया कि हो न हो,
यही
वही सूअर है। उसके बाद उसके मालिक से बातें करके सूअर के मारने का
हर्जाना भी तय कर लिया। बाद में तलवार ले के उसके पास पहुँचे ही थे
कि खत्म कर दें कि वह गिड़गिड़ा के बोल उठा कि
''नहीं-नहीं,
मुझे
मत मारो,
तुम्हें शपथ
है,
मैं खूब मौज
में हूँ''।
देखा न ?
यही है भारी
बन्धन। आत्मा जहीं हो,
मौज ही
मालूम पड़ती है।
इसी से
नीचे-ऊपर,
इधर-उधर
सर्वत्र ही जहाँ भी इस संसार की शाखाएँ हैं बन्धन का ही काम करती
हैं। क्योंकि आखिर त्रिगुणात्मक तो हईं और तिहरी रस्सी बड़ी मजबूत भी
होती है। सभी जगह इन्द्रियों के विषय सुन्दर कोंपलों जैसे लुभावने
दीखते हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि बुरे-भले कर्मों के संस्कार
के रूप में वासनाएँ पैदा होती हैं। फिर उनके फलों को भोगने के बाद
दूसरे ढंग की वासनाएँ पैदा होती हैं,
जिन्हें चसक कह सकते हैं। उन्हीं के करते हम पुनरपि कर्मों में लगते
हैं,
इस तरह यह
चक्र चालू रहता है। यों तो वास्तविक मूल ब्रह्म हुई। मगर जिस मूल को
काटना है,
ताकि यह वृक्ष
सूख जाये,
वह तो यह
वासनाएँ ही हैं। ये इतनी गहरी और नीचे पड़ी रहती हैं कि इन्हें पकड़ना
कठिन है। यही हैं इस अश्वत्थ की अपनी निजी जड़ें। अश्वत्थ की जड़ें यों
भी सचमुच बहुत गहराई में जाती हैं। वे बहुत ज्यादा होती भी हैं।
वासनाओं की भी यही हालत है। ये भी अनन्त हैं,
बहुत
फैली हैं। आशा की बात यही है कि पूर्ण-विवेक-दृष्टि के सामने न तो ये
वासनाएँ और न संसार का यह लुभावना रूप ही टिक सकता है। केले की मूसली
के छिलकी की तरह उधोड़-बुन करते जाइए और अन्त में कुछ भी सार हाथ नहीं
लगता। पता ही नहीं चलता कि कहाँ शुरू,
कहाँ
बीच और कहाँ अन्त है। समूचे का समूचा निस्सार ही सिध्द हो जाता है।
इस पन्द्रहवें
अध्याय में जो खूबी है वह यही कि इसने हमारी पुरानी भावनाओं से
फायदा उठाके वासुदेव के रूप में ही संसारवृक्ष को सामने ला दिया है।
इस रूपक के द्वारा इसे काट बहाने की भावना भी जाग्रत कर दी है। नहीं
तो कहाँ क्या करें और इसे कैसे खत्म करें यह अथाह समुद्र की सी बात
हो रही थी। इसमें उपनिषदों की भी सहायता इसे मिली है। उनका अनुसरण भी
अच्छी तरह हो गया है। पहले की सारी बातें सुनने और गुणातीत अवस्था को
जानने के बाद जो एक प्रकार की किंकर्तव्य-विमूढ़ता सी अर्जुन को और
दूसरों को भी हो सकती थी कि कहाँ से कैसे इन गुणों को काटना शुरू
करें,
वह भी इस
प्रकार दूर हो गयी। उसे ख्याल करके ही तो कृष्ण् ने बिना पूछे ही यह
कहना शुरू भी कर दिया। चौदहवें अध्याय के अन्त में यह कहा है जरूर
कि आत्मा की भक्ति करें। मगर वह तो आसान नहीं। मन को बाहर से रोकना
जो पड़ेगा। यह रोक किस चीज से कैसे शुरू करें,
यही तो
सबसे बड़ा सवाल था। ऐसी बात का मालूम हो जाना जरूरी था जहाँ से
श्रीगणेश करते। कृष्ण ने इस वृक्ष को,
इसकी
जड़ों को और काटने के हथियार को भी बता के सारी समस्या ही हल कर दी।
इस तरह गुणों के निरूपण से भी आसानी से फायदा उठाया जा सकता था।
क्योंकि जब सभी चीजें बन्धाक हैं,
खतरनाक
हैं,
तो उनसे मन को
हटाने में दिक्कत वैसी न होगी जैसी पहले होती। इन्हीं सब विचारों को
मन में रख के-
श्रीभगवानुवाच
ऊधर्वमूलमधा:शाखमश्वत्थंप्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित॥1॥
श्रीभगवान् ने
कहा (कि) ऊपर जिसकी जड़ें और नीचे शाखाएँ हों तथा वेदमन्त्र जिसके
पत्तो हों ऐसे (संसार रूपी) पीपल वृक्ष को सदा रहने वाला कहा गया है।
(मगर) उसे जो यथार्थ रूप में जान जाता है वही वेदज्ञाता है।1।
अधाश्चोधर्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृध्दा विषयप्रवाला:।
अधाश्च
मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धाीनि मनुष्यलोके॥2॥
(दरअसल)
उसकी शाखाएँ नीचे-ऊपर (सर्वत्र) फैली हैं (जो) गुणों के चलते खूब बढ़ी
हैं और विषय ही जिनकी कोंपलें हैं। (उसकी) जड़ें भी बहुत गहराई में जा
के खूब फैली हुई हैं (और) इस दुनिया में कर्म करने में (चस्का पैदा
करके लोगों को उसमें) लगाती हैं।2।
न
रूपमस्येहतथोपलभ्यते नांतो न चादिर्नं च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसंगशस्त्रोण दृढेन छित्तवा॥3॥
तत: पदं
तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न
निवर्तन्ति
भूय:।
तमेव
चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यत: प्रवृत्ति:
प्रसृता पुराणी॥4॥
(लेकिन
इसका जैसा सनातन और दृढ़) रूप (कहा जाता) है वैसा (तो विचारने पर)
दीखता नहीं और न इसके आदि,
अन्त
(और) मध्य (का ही पता चलता है)। (फिर भी) जिसकी जड़ें बहुत ही मजबूत
हैं उस इस अश्वत्थ वृक्ष के बन्धनों को (वैसे ही) मजबूत
वैराग्य-आसक्तित्याग-रूपी शस्त्र से काट के-संसार से वैराग्य प्राप्त
करके-अनन्तर उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जहाँ जाने पर फिर वापस
आना-जन्म-मरण-नहीं होगा।
'हम
उसी आदिपुरुष-परमात्मा-की शरण आये हैं,
जिससे
यह पुरानी सृष्टि पैदा हुई',
(इसी
प्रकार) वह अन्वेषण करना चाहिए।3।4।
निर्मानमोहा जितसंगदोषा
अध्यात्मनित्या
विनिवृत्तकामा:।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत्॥5॥
अभिमान और मोह
से रहित,
आसक्ति के दोष
से बरी,
आत्मा में
निरन्तर लगे हुए,
सभी
कामनाओं से शून्य,
सुख-दु:ख संज्ञक द्वन्द्वों से छुटकारा पाये पूर्णज्ञानी ही उस
अविनाशी पद को पाते हैं।5।
न
तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावक:।
यद्
गत्वा न
निवर्तन्ते
तध्दाम परमं मम॥6॥
न तो वहाँ
सूर्य का प्रकाश जाता है,
न
चन्द्रमा का और न अग्नि का ही (और) जहाँ जाने पर फिर वापस नहीं आते
वही मेरा परम धाम है।6।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन:
षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥7॥
शरीरं
यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥8॥
श्रोत्रां चक्षु: स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठायमनश्चायंविषयानुपसेवते॥9॥
मर्त्यलोक में
मेरा ही सनातन अंश जीव बन के प्रकृति में रहने वाली मनसंयुक्त छ:
इन्द्रियों को साथ खींच ले जाता है। जब (नया) शरीर धारण करता है और
जब मरता है,
इन
इन्द्रियों को वैसे ही साथ ले जाता है जैसे हवा गन्ध के आश्रय
(पुष्पादि) से गन्ध ले जाती है। श्रोत्र,
चक्षु,
त्वक्,
रसना,
घ्राण
और मन (इन्हीं छ: इन्द्रियों) का अधिष्ठाता बन के विषयों का सेवन
करता है। 7।8।9।
पाँचवें श्लोक
में ज्ञान के कुछ साधनों का वर्णन कर दिया है। अगर कोई यह प्रश्न करे
कि यह कब सम्भव है कि संसार में लिपटा हुआ जीव ब्रह्मरूप हो जाय,
तो उसी
का उत्तर सातवें में यह दिया है कि वह तो ब्रह्म का ही रूप है। अंश
कहने का तात्पर्य हिस्सा या भाग से नहीं है। क्योंकि निरवयव और
निर्विकार ब्रह्म का भाग या चीड़-फाड़ कैसे हो सकती है
?
जैसे एक लोटा
पानी घड़े भर पानी का अंश होने से उसी का रूप है वैसे ही जीव भी
ब्रह्म का रूप है,
इतना
ही तात्पर्य है। सौ आईने रख के एक ही चन्द्रमा के सौ प्रतिबिम्ब या
सौ चन्द्रमा देख लीजिए। यही दशा जीव की है। अन्त:करण आईने की तरह है
जिसमें ब्रह्म का प्रतिबिम्ब जीव बना है। बिम्बरूप चन्द्रमा,
जो
आकाश में है,
प्रतिबिम्ब से न तो भिन्न है और न जरा भी दोनों के बीच फर्क है। ठीक
इसी तरह प्रतिबिम्ब रूप जीव ब्रह्म से जरा भी भिन्न नहीं। इस तरह
जितने शरीर हों उतने जीव बन भी गये और वे ब्रह्मरूप भीरहे।
प्रश्न होता
है कि यदि जीव ब्रह्म का स्वरूप ही है तो फिर उसका आवागमन या
जीवन-मरण कैसा ?
ब्रह्म
तो सभी जगह है। इसीलिए उसमें क्रिया असम्भव है। साथ ही,
वह
सांसारिक विषयों से नाता कैसे रखता है
?
वह तो सर्वत्र
एकरस है। फिर विषयों को भोगने और सुख-दु:ख में पड़ने के मानी क्या हैं
?
इन्हीं बातों
के उत्तर सातवें के उत्तारार्ध्द और शेष दो श्लोकों में दिये गये
हैं। आईने के चलाने से उसमें रहने वाला चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब
इधर-उधर डोलता है। यहाँ मन,
इन्द्रियादि को मिला के जो सूक्ष्म शरीर होता है वही आईना है। उसमें
रहने वाले प्राण खूब चलते हैं। इन्द्रियाँ और मन भी क्रियाशील हैं।
बस इन्हीं के चलने से जीव का आवागमन माना जाता है। जब मनुष्य मरने
लगता है तो जीव इसी सूक्ष्म शरीर के साथ स्थूल शरीर से निकल जाता है।
वही घूमता-घामता पति-पत्नी के वीर्य और रज में प्रवेश करके नवीन शरीर
के गर्भाशय में और पीछे नवीन शरीर में भी इसी सूक्ष्म शरीर के साथ
प्रविष्ट होता है। इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही कर्मवाद प्रकरण
में डाला जा चुका है। इसी प्रकार इन्हीं इन्द्रियों के द्वारा ही
विषयों का भोग भी करता है। विषयों में तो जाती हैं इन्द्रियाँ ही।
मगर यही उनका अधिष्ठाता है। इसीलिए इस पर ही जवाबदेही आती है। मालिक
या अधिष्ठाता ही नौकरों की हार-जीत या कामों का जवाबदेह होता है।
उनके करते सुख-दु:ख और हानि-लाभ का भी अनुभव करता है। यदि नाता तोड़
ले तो कुछ न हो। मगर शरीर से जीव का नाता तो ज्ञान से ही टूटता है न
?
मरणोत्तार प्रयाण करने और फिर नये शरीर में आने के दरम्यान
इन्द्रियाँ तो रहती हैं वही पुरानी। मगर उनमें वह शक्ति नहीं होती जो
शरीर में रहने के समय पायी जाती है। उस समय इनसे विषयों का भोग तो
करना है नहीं। फलत: उनकी सूक्ष्म या बीज रूपी अवस्था ही उस समय रहती
है,
न कि ऐसी प्रकट और चलबल वाली। यही बात जानने के
लिए उन्हें 'प्रकृतिस्थ'-'प्रकृति
में रहने वाली' कहा है। इसका तात्पर्य यह
है कि उस समय वे अपने सूक्ष्म या बीज रूप में ही रहती हैं। यही कारण
है कि आत्मा का अधिष्ठातृत्व
उस समय नहीं हो पाता है। जैसे इमली में नमक डालने से उसमें रहने वाली
खटाई का पता जबान से नहीं चल पाता,
वही बात उस समय इन्द्रियों की भी होती है। आत्मा
का
सम्बन्ध
रहते हुए भी वह उन्हें विषयों में प्रेरित कर नहीं सकती। इसलिए उसकी
अधिष्ठातृता
मुर्दा या बेकार सी हो जाती है। मगर स्थूल शरीर में आने पर वह बात
चालू हो जाती है और स्थिति में परिवर्तन हो जाता है। इसी परिवर्तन की
सूचना नौवें श्लोक का
'अधिष्ठाय'
पद देता है।
इस पर यदि कोई
कह बैठे कि ऐसा मालूम तो किसी को होता नहीं;
फिर यह
बात मानी कैसे जाय
?
तो इसी के
उत्तर में अगले दो श्लोक आये हैं। और आगे उन्हीं का विस्तार किया गया
है। मोटी बात यह है कि यदि अन्धो सूर्य को नहीं देखते तो क्या वह
गायब हो जायगा ?
देखना
तो आखिर ऑंखवालों का ही काम है न
?
यहाँ भी
ज्ञान-दृष्टि और विवेक-शक्ति जिनके पास है वह जरूर देखते हैं। हाँ,
जिनके
पास यह चीज नहीं है वह नहीं देखते। मगर इसमें दोष उनका है,
न कि
वस्तु का। यदि ऐसे देखने वाले कम हैं तो इससे क्या
? एक
ऑंख वाला हजार और लाख अन्धों के मुकाबिले में किसी चीज को ठीक बता
सकता है। उसकी ही बात मानी भी जाती है। आखिर बीमारी का अस्तित्व केवल
डॉक्टर की ही बातों से माना जाता है;
न कि
लाखों दूसरों के न बताने से उसका इन्कार हो जाता है।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुजानं व गुणान्वितम्।
विमूढ़ा
नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष:॥10॥
यतन्ता
योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस:॥11॥
मरणोपरान्त
प्रयाण करते हुए,
नया
शरीर धारण करके उसमें स्थित या इन्द्रियादि के साथ विषयों को भोगते
हुए भी इस आत्मतत्तव को अज्ञानी नहीं देख पाते;
(किन्तु)
ज्ञान दृष्टिवाले ही देखते हैं। (जिन्हें यह दृष्टि न भी प्राप्त हुई
है ऐसे) योगी भी (समाधि आदि के रूप में) यत्न करते हुए इस आत्मा की
झाँकी अपने भीतर ही पा जाते हैं। (मगर) जिनके मन मलिन हैं ऐसे मूढ़
लोग हजार यत्न करके भी नहीं देख पाते हैं।10।11।
अन्तिम श्लोक
में यह बता दिया है कि आत्मदर्शन के लिए कोई भी यत्न करने के पूर्व
मन पर काबू होना चाहिए और इन्द्रियों पर नियन्त्रण। नहीं तो
'मन
न रंगायो तू रंगायो योगी कपड़ा'
वाली
बात होती है। इसी का जिक्र इसमें है।
यत्न के बारे
में अब प्रश्न होता है कि वह किस तरह किया जाय
?
समाधिवाला यत्न तो सबके लिए सुलभ है नहीं और उसके लिए भी तो पहले
तैयारी चाहिए। तो आखिर वह है कौन सी
? और
जो लोग ऐसे नहीं हैं वह भी कैसे इस आत्मा को देख पायेंगे
?
आत्मा को भी तो आखिर में परमात्मा के रूप में ही देखना है न
? सो
कैसे होगा ?
परमात्मा को आत्मा का रूप कैसे जानेंगे
?
इन्हीं बातों
को समझाने के लिए आगे के चार (12-15)
श्लोक
हैं। इनमें ऊपर से ही शुरू करके धीरे-धीरे शरीर और अन्त:करण के भीतर
घुसने तथा आत्मवस्तु के देखने की रीति कही गयी है। परमात्मा तो
अत्यन्त देदीप्यमान एवं सूर्य,
चन्द्र
आदि को भी प्रकाश देने वाला पहले ही कहा गया है। इसलिए वहीं से शुरू
करके पृथिवी में आते हैं वहाँ से जठरानल में जा के शरीर में घुसते
हैं और अन्त में हृदय में प्रवेश करके उस आत्मा को देखते हैं। योगी
लोग भी यही रीति अपनाते हैं। योगसूत्रों में धारणा के प्रसंग से ये
बातें आयी हैं।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तोजो विध्दि मामकम्॥12॥
गामाविश्य च भूतानि
धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधी:
सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:॥13॥
अहं
वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधाम्॥14॥
सर्वस्य
चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं
च।
वेदैश्च
सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥15॥
सूर्य में
रहने वाला जो तेज समस्त संसार को आलोकित करता है,
जो
(तेज) चन्द्रमा में और जो अग्नि में है,
वह
(सभी) तेज मेरा ही जानो। पृथ्वी में प्रवेश करके अपने बल से मैं ही
पदार्थों को धारण कर रखता हूँ। (नहीं तो पृथ्वी धँस जाती,
टूट
जाती और पहाड़ वगैरह का भारी बोझ बर्दाश्त कर न पाती।) रसमय चन्द्रमा
बन के सभी अन्नादि औषधियों को पुष्ट करता हूँ। मैं ही जठरानल होके
प्राणधारियों के शरीर में रहता और प्राण तथा अपान (की धौकनी) से
प्रदीप्त हो के चार प्रकार के खाद्य पदार्थों को पचाता हूँ। मैं ही
सबों के हृदयों में प्रविष्ट हूँ। मुझी से (लोगों को पदार्थों के)
स्मरण और ज्ञान होते हैं,
विस्मृति और भूल होती है। मैं ही सभी वेदों के द्वारा जाना जाता हूँ।
वेदान्त का बनाने वाला एवं वेदवेत्ता भी मैं ही हूँ।12।13।14।15।
यहाँ जो चार
प्रकार के अन्न कहे गये हैं उन्हें भक्ष्य,
भोज्य,
लेह्य
और चोष्य कहते हैं। जिनके खाने में दाँतों से काम लिया जाय ऐसी पूड़ी,
पुआ,
रोटी,
चबेनी
वगैरह भक्ष्य हैं। जिनमें दाँतों से काम लेने की जरूरत न हो ऐसे,
दूध,
दही,
हलवा
आदि भोज्य हैं। जबान से ही जो चाटे जायँ वही कढ़ी,
चटनी
आदि लेह्य हैं। जिन्हें चूसा जाय ऐसे आम,
ऊख आदि
चोष्य हैं। 'अयमग्निर्वैश्वानरो
योऽयमन्त: पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते'।
(वृहदा. 5।9।1।)
आदि वचनों में जठरानल को वैश्वानर कहा है। इसी प्रकार
'येन
द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा'
(यजु.
32।6)
'स
दाधार पृथिवीम्'
(यजु.
25।10)
में
पृथिवी का धारण करने वाला परमात्मा ही कहा गया है। उसी से यहाँ
तात्पर्य है। इस अध्याय में शशांक और सोम को दो कामों के लिए
उल्लिखित देख के एकाएक ख्याल हो जाता है कि सोम और शशांक (चन्द्रमा)
दो पदार्थ तो नहीं हैं
?
दोनों में कुछ अन्तर तो नहीं है
?
आगे के तीन (16-18)
श्लोक
जीवात्मा और परमात्मा में कितना फर्क है। यही बात बता के उसी अन्तर
को दूर करने के लिए अर्थत: ज्ञान की आवश्यकता सुझाते हैं। क्योंकि
यदि आत्मा को ब्रह्म का रूप ही मान लें तो फिर सारे यत्न ही बेकार हो
जायँगे। कोई भी क्यों आत्मज्ञानार्थ ध्यान,
समाधि
या श्रवण,
मनन आदि करेगा
? ऐसी
दशा में गीतोपदेश की भी व्यर्थता हो जायगी।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षर:
सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥16॥
उत्तम:
पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत:।
यो
लोकत्रायमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर:॥17॥
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित:
पुरुषोत्तम:॥18॥
दुनिया में दो
पुरुष हैं,
क्षर
या विनाशी तथा अक्षर या अविनाशी। सभी जड़ पदार्थ यानी प्रकृति क्षर है
और निर्विकार आत्मा अक्षर। (इन दोनों से ही) उत्तम पुरुष तो तीसरा है
जो परमात्मा कहा जाता है और जो अविनाशी,
शासनकर्ता (एवं) सारी दुनिया के भीतर प्रवेश करके उसे कायम रखता है।
क्योंकि मैं तो क्षर से निराला हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ। इसीलिए
वेद में और लोक में भी पुरुषोत्तम विख्यात हूँ।16।17।18।
यहाँ संसार
में रहने वाले पदार्थों से ही शुरू करके देखा कि प्रकृति तो पूर्ण या
सर्वत्र मौजूद है,
व्यापक
है,
इसीलिए उसे
पुरुष कहा। पुरुष का अर्थ ही है पूर्ण या व्यापक। इंच भर भी जगह
प्रकृति या प्राकृतिक पदार्थों से शून्य नहीं है। यह ठीक है कि ये
पदार्थ विनाशी हैं। फिर जागे बढ़े और सोचा कि जब ये पदार्थ विनाशी हैं
तो इनके मूल में कोई होना ही चाहिए। इस प्रकार आत्मा का पता लगाया।
अब यदि उसे भी विनाशी मानें तो उसका मानना ही बेकार होगा। क्योंकि
उसका भी मूल कारण ढूँढ़ना होगा और उसे ही आत्मा मानेंगे। इस पर ज्यादा
तर्क पहले ही लिख चुके हैं। इस प्रकार किसी न किसी को अविनाशी तो
मानना ही होगा जिससे सभी पदार्थ बने। इसीलिए उसे कूटस्थ या निर्विकार
कहा। क्योंकि कोई पदार्थ बिना विकार या खराबी के नाश हो नहीं सकता।
साथ ही,
वह भी पुरुष
होगा,
पूर्ण या
व्यापक होगा। नहीं तो फिर विनाशी पदार्थ रूप पुरुष को वह बनायेगा
कैसे ?
फलत: उसे
पुरुष का भी पुरुष होना चाहिए। मगर ऐसा तो कुछ होता नहीं। इसलिए उसे
भी पुरुष ही कह दिया।
किन्तु उसका
संसर्ग तो विनाशी से ही है,
क्षर
से ही है न ?
इन्हीं
के बीच वह रहता जो है,
सुखी-दु:खी होता जो है। कलाली के पास खड़ा रहने वाले की ही तरह कम से
कम वह बदनाम होता ही है। परमात्मा में यही बात नहीं है। इसीलिए वह
अक्षर पुरुष से उत्तम जरूर है। है तो वह इसी की जाति-बिरादरी का। मगर
उत्तम है। क्षर के साथ तो उसका कोई मुकाबिला हुई नहीं है वह तो इससे
विपरीत है-लाख कोस दूर है। इसीलिए कह दिया कि यह क्षर से तो निराला
हुई,
अलग हुई,
जुदा
हुई,
भिन्न हुई-'यस्मात्क्षरमतीत:'।
किन्तु अक्षर से भी उत्तम है। इसीलिए पुरुषोत्तम कहा जाता है। जीव को,
अक्षर
पुरुष को भी यही बनना है। एतदर्थ उसकी मैल धोना जरूरी है,
उसमें
साबुन लगाना जरूरी है। मैल है क्षर या प्रकृति का संसर्ग और साबुन
लगाना है आत्मज्ञान। यही है हमारे सभी प्रयत्नों का और मानवजीवन का
चरम लक्ष्य। पुरुषोत्तम हो जाना ही सब कुछ है। यही बात नीचे के दो
श्लोकों में कह के अध्याय पूरा कर दिया है।
यो
मामेवमसंमूढो जानाति
पुरुषोत्तमम्।
स
सर्वविद्भजति माँ सर्वभावेन भारत॥19॥
इति
गुह्यतमं
शास्त्रमिदमुक्तं
मयाऽनघ।
एतद्बुध्दवा बुध्दिमान् स्यात्कृत्यश्च भारत॥20॥
हे भारत,
पूर्ण
विवेकी मुझ पुरुषोत्तम को इस प्रकार जान जाता है वही सब पदार्थों का
जानकार है और मुझे सम्पूर्ण जगत् के रूप में ही भजता है। हे अनघ,
मैंने
यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र बताया है। हे भारत,
इसे ही
जानने पर बुध्दिमान हो सकते हैं और कृतकृत्य भी।19।20।
इन श्लोकों
में और इनसे पहले भी जो आत्मा के ही लिए
'अहम्'
'माम्'
आदि
बार-बार आये हैं वे सचमुच ही अमूल्य हैं। ये शब्द आत्मा को किस
सुन्दर रूप में खड़ा करते और उसे सम्पूर्ण संसार का रूप बना देते हैं,
ब्रह्म
रूप बना देते हैं,
वासुदेव बना देते हैं! इन्हें बलात् तोड़-मरोड़ के साकार ईश्वर या
कृष्ण के मानी में घसीटना कितनी बड़ी निर्दयता है! इसी की पुष्टि में
कह दिया है कि इस आत्मा को जानने वाला सब कुछ जान जाता है। उसकी
दृष्टि से कोई भी क्षर अक्षर बच पाता नहीं। इसीलिए अपने को आपको सभी
पदार्थों का रूप देखता है,
मानता
है,
बना डालता है,
खुद
सबों की आत्मा बन जाता है। यही है उसका सर्वभावेन भजन। उफ,
कितना
ऊँचा ख्याल है,
कितना
ऊँचा आदेश है! एक पत्थर भी तोड़िये तो वह ज्ञानी अपने को ही टूटता
देखता है! और चिहुँक उठता है! सहसा आह भर लेता है! उससे बढ़ के
जन-सेवक,
संसार-सेवक और
कौन है ?
सचमुच ही उससे
बढ़ के 'सर्वभूतात्मं
भूतात्मा'
तथा
'सर्वभूतहितेरत'
कौन हो
सकता है ?
इसीलिए
उसे पुरुषोत्तम कहा है। व्यष्टि और समष्टि की या पिण्ड और
ब्रह्माण्ड की एकता जो हो गयी! उससे उत्तम और ऊँचा कोई भी,
कुछ भी
हुई नहीं! यही कारण है कि उसे अब कुछ भी करना-धरना रह नहीं जाता!
उसने सब कुछ कर धार लिया! वह कृतकृत्य हो गया! अब अगर कुछ भी करता है
तो इसीलिए कि उसका स्वभाव ही वैसा हो गया,
न कि
उस करने-धरने में कुछ प्रयोजन देखता है। इस अध्याय का विषय यदि यही
पुरुषोत्तम है तो उचित ही है। सारे अध्याय का पर्यवसान ही उसी में
है।
इति.
पुरुषोत्तमयोगो नाम पंचदशोऽध्याय:॥15॥
श्रीम. जो
श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका पुरुषोत्तम योग नामक
पन्द्रहवाँ अध्याय यही है।
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