तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हों चारु चकोर ।
निसि बासर लागो रहै, कृष्णचंद्र की ओर ।।1।।
अच्युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल ।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल ।।2।।
अधम वचन काको फल्यो, बैठि ताड़ की छाँह ।
रहिमन काम न आय है, ये नीरस जग माँह ।।3।।
अन्तर दाव लगी रहै, धुआँ न प्रगटै सोइ ।
कै जिय आपन जानहीं, कै जिहि बीती होइ ।।4।।
अनकीन्हीं बातैं करै, सोवत जागे जोय ।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय ।।5।।
अनुचित उचित रहीम लघु, करहिं बड़ेन के जोर ।
ज्यों ससि के संजोग तें, पचवत आगि चकोर ।।6।।
अनुचित वचन न मानिए जदपि गुराइसु गाढ़ि ।
है रहीम रघुनाथ तें, सुजस भरत को बाढ़ि ।।7।।
अब रहीम चुप करि रहउ, समुझि दिनन कर फेर ।
जब दिन नीके आइ हैं बनत न लगि है देर ।।8।।
अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।
साँचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ।।9।।
अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि ।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ।।10।।
अमृत ऐसे वचन में, रहिमन रिस की गाँस ।
जैसे मिसिरिहु में मिली, निरस बाँस की फाँस ।।11।।
अरज गरज मानैं नहीं, रहिमन ए जन चारि ।
रिनिया, राजा, माँगता, काम आतुरी नारि ।।12।।
असमय परे रहीम कहि, माँगि जात तजि लाज ।
ज्यों लछमन माँगन गये, पारासर के नाज ।।13।।
आदर घटे नरेस ढिंग, बसे रहे कछु नाहिं ।
जो रहीम कोटिन मिले, धिग जीवन जग माहिं ।।14।।
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल ।
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल ।।15।।
आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधु सनेह ।
जीरन होत न पेड़ ज्यौं, थामे बरै बरेह ।।16।।
उरग, तुरंग, नारी, नृपति, नीच जाति, हथियार ।
रहिमन इन्हें सँभारिए, पलटत लगै न बार ।।17।।
ऊगत जाही किरन सों अथवत ताही कॉंति ।
त्यौं रहीम सुख दुख सवै, बढ़त एक ही भाँति ।।18।।
एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड ।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड ।।19।।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय ।।20।।
ए रहीम दर दर फिरहिं, माँगि मधुकरी खाहिं ।
यारो यारी छोड़िये वे रहीम अब नाहिं ।।21।।
ओछो काम बड़े करैं तौ न बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय ।।22।।
अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय ।
जिन आँखिन सों हरि लख्यो, रहिमन बलि बलि जाय ।।23।।
अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिक्कन पान ।
हस्ती-ढक्का, कुल्हड़िन, सहैं ते तरुवर आन ।।24।।
कदली, सीप, भुजंग-मुख, स्वाति एक गुन तीन ।
जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन ।।25।।
कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय ।
पुरुष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय ।।26।।
कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय ।
प्रभु की सो अपनी कहै, क्यों न फजीहत होय ।।27।।
करत निपुनई गुन बिना, रहिमन निपुन हजूर ।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि मोहि समान को कूर ।।28।।
करम हीन रहिमन लखो, धँसो बड़े घर चोर ।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जागत ह्वै गौ भोर ।।29।।
कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय ।
तन सनेह कैसे दुरै, दृग दीपक जरु दोय ।।30।।
कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात ।
घटै बढ़ै उनको कहा, घास बेंचि जे खात ।।31।।
कहि रहीम य जगत तैं, प्रीति गई दै टेर ।
रहि रहीम नर नीच में, स्वारथ स्वारथ हेर ।।32।।
कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत ।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत ।।33।।
कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय ।
माया ममता मोह परि, अंत चले पछिताय।।34।।
कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग ।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ।।35।।
कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्वै जाय ।
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय ।।36।।
कागद को सो पूतरा, सहजहि मैं घुलि जाय ।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय ।।37।।
काज परै कछु और है, काज सरै कछु और ।
रहिमन भँवरी के भए नदी सिरावत मौर ।।38।।
काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई ।
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई ।।39।।
कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छाँह ।
रहिमन दाख सुहावनो, जो गल पीतम बाँह ।।40।।
काह कामरी पामरी, जाड़ गए से काज ।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्यो मिलै अनाज ।।41।।
कुटिलन संग रहीम कहि, साधू बचते नाहिं ।
ज्यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहिं ।।42।।
कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगर सों वैर ।।43।।
कोउ रहीम जनि काहु के, द्वार गये पछिताय ।
संपति के सब जात हैं, विपति सबै लै जाय ।।44।।
कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम ।
केहि की प्रभुता नहिं घटी, पर घर गये रहीम ।।45।।
खरच बढ्यो, उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन ।
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन ।।46।।
खीरा सिर तें काटिए, मलियत नमक बनाय ।
रहिमन करुए मुखन को, चहिअत इहै सजाय ।।47।।
खैंचि चढ़नि, ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति ।
आज काल मोहन गही, बंस दिया की रीति ।।48।।
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान ।
रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान ।।49।।
गरज आपनी आपसों, रहिमन कही न जाय ।
जैसे कुल की कुलबधू, पर घर जाय लजाय ।।50।।
गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव ।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछू उपाव।।51।।
गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूप ते काढ़ि ।
कूपहु ते कहुँ होत है, मन काहू को बाढ़ि ।।52।।
गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि ।
उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतोरी आहि ।।53।।
चरन छुए मस्तक छुए, तेहु नहिं छाँड़ति पानि ।
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि ।।54।।
चारा प्यारा जगत में, छाला हित कर लेय ।
ज्यों रहीम आटा लगे, त्यों मृदंग स्वर देय ।।55।।
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह ।
जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह ।।56।।
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस ।
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस ।।57।।
चिंता बुद्धि परेखिए, टोटे परख त्रियाहि ।
उसे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनी किआहि ।।58।।
छिमा बड़न को चाहिए, छोटेन को उतपात ।
का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात ।।59।।
छोटेन सो सोहैं बड़े, कहि रहीम यह रेख ।
सहसन को हय बाँधियत, लै दमरी की मेख ।।60।।
जब लगि जीवन जगत में, सुख दुख मिलन अगोट ।
रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुँन सिर चोट ।।61।।
जब लगि बित्त न आपुने, तब लगि मित्र न कोय ।
रहिमन अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिंन हित होय ।।62।।
ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात ।
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुने हाथ ।।63।।
जलहिं मिलाय रहीम ज्यों, कियो आपु सम छीर ।
अँगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आँच की भीर ।।64।।
जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय ।
मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय ।।65।।
जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोइ ।
ताहि सिखाइ जगाइबो, रहिमन उचित न होइ ।।66।।
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह ।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह ।।67।।
जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग ।
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग ।।68।।
जे रहीम बिधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि ।
चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बाढि ।।69।।
जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं ।
रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं ।।70।।
जेहि अंचल दीपक दुर्यो, हन्यो सो ताही गात ।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु ह्वै जात ।।71।।
जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन ।
तासों दुख सुख कहन की, रही बात अब कौन ।।72।।
जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय ।
ताकों बुरा न मानिए, लेन कहाँ सो जाय ।।73।।
जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह ।
धरती पर ही परत है, शीत घाम औ मेह ।।74।।
जैसी तुम हमसों करी, करी करो जो तीर ।
बाढ़े दिन के मीत हौ, गाढ़े दिन रघुबीर ।।75।।
जो अनुचितकारी तिन्हैं, लगै अंक परिनाम ।
लखे उरज उर बेधियत, क्यों न होय मुख स्याम ।।76।।
जो घर ही में घुस रहे, कदली सुपत सुडील ।
तो रहीम तिनतें भले, पथ के अपत करील ।।77।।
जो पुरुषारथ ते कहूँ, संपति मिलत रहीम ।
पेट लागि वैराट घर, तपत रसोई भीम ।।78।।
जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाँहि ।
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं ।।79।।
जो मरजाद चली सदा, सोई तौ ठहराय ।
जो जल उमगै पारतें, सो रहीम बहि जाय ।।80।।
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ।।81।।
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय ।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय ।।82।।
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल ।
तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल ।।83।।
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय ।।84।।
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय ।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय ।।84।।
जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट ।
भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट ।। 86।।
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ।।87।।
जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस ।
निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस ।।88।।
जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं ।
जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं ।।89।।
जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ ।।90।।
जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ ।
तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ ।।91।।
जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खाय ।।92।।
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ।।93।।
तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर ।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ।।94।।
तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम ।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ।।95।।
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान ।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान ।।96।।
तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस ।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास ।।97।।
तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ ।
उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ ।।98।।
तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय ।
खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय ।।99।।
थोथे बादर क्वाँर के, ज्यों रहीम घहरात ।
धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात ।।100।।
थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय ।।101।।
दादुर, मोर, किसान मन, लग्यो रहै घन माँहि ।
रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं ।।102।।
दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु।
भली बिचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ।।103।।
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय ।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय ।।104।।
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं ।
ज्यों रहीम नट कुण्डली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं ।।105।।
दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ।।106।।
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि ।।107।।
दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि ।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ।।108।।
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन ।।109।।
दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं ।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं ।।110।।
धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात ।
जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माँह समात ।।111।।
धन दारा अरु सुतन सों, लगो रहे नित चित्त ।
नहिं रहीम कोउ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त ।।112।।
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय ।।114।।
धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह ।
जैसी परे सो सहि रहै, त्यों रहीम यह देह ।।115।।
धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज ।
जेहि रज मुनिपत्नी तरी, सो ढूँढ़त गजराज ।।116।।
नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग ।
देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग ।।117।।
नात नेह दूरी भली, लो रहीम जिय जानि ।
निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि ।।118।।
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत ।।119।।
निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भाव के हाथ ।
पाँसे अपने हाथ में, दॉंव न अपने हाथ ।।120।।
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन ।
मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लौन ।।121।।
पन्नग बेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान ।
हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान ।।122।।
परि रहिबो मरिबो भलो, सहिबो कठिन कलेस ।
बामन है बलि को छल्यो, भलो दियो उपदेस ।।123।।
पसरि पत्र झँपहि पितहिं, सकुचि देत ससि सीत ।
कहु रहीम कुल कमल के, को बैरी को मीत ।।124।।
पात पात को सींचिबो, बरी बरी को लौन ।
रहिमन ऐसी बुद्धि को, कहो बरैगो कौन ।।125।।
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन ।
अब दादुर बक्ता भए, हमको पूछत कौन ।।126।।
पिय बियोग तें दुसह दुख, सूने दुख ते अंत ।
होत अंत ते फिर मिलन, तोरि सिधाए कंत ।।127।।
पुरुष पूजें देवरा, तिय पूजें रघुनाथ ।
कहँ रहीम दोउन बनै, पॅंड़ो बैल को साथ ।।128।।
प्रीतम छबि नैनन बसी, पर छवि कहाँ समाय ।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाय ।।129।।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं ।
रहिमन मैन-तुरंग चढ़ि, चलिबो पाठक माहिं ।।130।।
फरजी सह न ह्य सकै, गति टेढ़ी तासीर ।
रहिमन सीधे चालसों, प्यादो होत वजीर ।।131।।
बड़ माया को दोष यह, जो कबहूँ घटि जाय ।
तो रहीम मरिबो भलो, दुख सहि जिय बलाय ।।132।।
बड़े दीन को दुख सुनो, लेत दया उर आनि ।
हरि हाथी सो कब हुतो, कहु रहीम पहिचानि ।।133।।
बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बाढ़ि ।
यातें हाथी हहरि कै, दयो दाँत द्वै काढ़ि ।।134।।
बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ ।
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ ।।135।।
बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोलैं बोल ।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल ।।1361।
बढ़त रहीम धनाढ्य धन, धनौ धनी को जाइ ।
घटै बढ़ै बाको कहा, भीख माँगि जो खाइ ।।137।।
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटी समुद्र की, रावन बस्यो परोस ।।138।।
बाँकी चितवन चित चढ़ी, सूधी तौ कछु धीम ।
गाँसी ते बढ़ि होत दुख, काढ़ि न कढ़त रहीम ।।139।।
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय ।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय ।।140।।
बिपति भए धन ना रहे, रहे जो लाख करोर ।
नभ तारे छिपि जात हैं, ज्यों रहीम भए भोर ।।141।।
भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन ।
भजन तजन ते बिलग हैं, तेहि रहीम तू जान ।।142।।
भलो भयो घर ते छुट्यो, हँस्यो सीस परिखेत ।
काके काके नवत हम, अपन पेट के हेत ।।143।।
भार झोंकि के भार में, रहिमन उतरे पार ।
पै बूड़े मझधार में, जिनके सिर पर भार ।।144।।
भावी काहू ना दही, भावी दह भगवान ।
भावी ऐसी प्रबल है, कहि रहीम यह जान ।।145।।
भावी या उनमान को, पांडव बनहि रहीम ।
जदपि गौरि सुनि बाँझ है, बरु है संभु अजीम ।।146।।
भीत गिरी पाखान की, अररानी वहि ठाम ।
अब रहीम धोखो यहै, को लागै केहि काम ।।147।।
भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप ।
रहिमन गिर तें भूमि लौं, लखों तो एकै रूप ।।148।।
मथत मथत माखन रहै, दही मही बिलगाय ।
रहिमन सोई मीत है, भीर परे ठहराय ।।149।।
मनिसिज माली की उपज, कहि रहीम नहिं जाय ।
फल श्यामा के उर लगे, फूल श्याम उर आय ।।150।।
मन से कहाँ रहिम प्रभु, दृग सो कहाँ दिवान ।
देखि दृगन जो आदरै, मन तेहि हाथ बिकान ।।151।।
मंदन के मरिहू गये, औगुन गुन न सिराहिं ।
ज्यों रहीम बाँधहु बँधे, मराह ह्वै अधिकाहिं ।।1521।
मनि मनिक महँगे किये, ससतो तृन जल नाज ।
याही ते हम जानियत, राम गरीब निवाज ।।153।।
महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष ।
सो अर्जुन बैराट घर, रहे नारि के भेष ।।154।।
माँगे घटत रहीम पद, कितौ करौ बढ़ि काम ।
तीन पैग बसुधा करो, तऊ बावनै नाम ।।155।।
माँगे मुकरि न को गयो, केहि न त्यागियो साथ ।
माँगत आगे सुख लह्यो, ते रहीम रघुनाथ ।।156।।
मान सरोवर ही मिले, हंसनि मुक्ता भोग ।
सफरिन भरे रहीम सर, बक-बालकनहिं जोग ।।157।।
मान सहित विष खाय के, संभु भये जगदीस।
बिना मान अमृत पिये, राहु कटायो सीस ।।158।।
माह मास लहि टेसुआ, मीन परे थल और ।
त्यों रहीम जग जानिये, छुटे आपुने ठौर ।।159।।
मीन कटि जल धोइये, खाये अधिक पियास ।
रहिमन प्रीति सराहिये, मुयेउ मीन कै आस ।।160।।
मुकता कर करपूर कर, चातक जीवन जोय ।
एतो बड़ो रहीम जल, ब्याल बदन विष होय ।।161।।
मुनि नारी पाषान ही, कपि पसु गुह मातंग ।
तीनों तारे राम जू, तीनों मेरे अंग ।।162।।
मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं बिसेषि ।
स्याम कचन में सेत ज्यों, दूरि कीजिअत देखि ।।163।।
यह न रहीम सराहिये, देन लेन की प्रीति ।
प्रानन बाजी राखिये, हारि होय कै जीति ।।165।।
यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय ।
बैर, प्रीति, अभ्यास, जस, होत होत ही होय ।।166।।
यह रहीम मानै नहीं, दिल से नवा जो होय ।
चीता, चोर, कमान के, नये ते अवगुन होय ।।167।।
याते जान्यो मन भयो, जरि बरि भस्म बनाय ।
रहिमन जाहि लगाइये, सो रूखो ह्वै जाय ।।168।।
ये रहीम फीके दुवौ, जानि महा संतापु ।
ज्यों तिय कुच आपुन गहे, आप बड़ाई आपु ।।169।।
ये रहीम दर-दर फिरै, माँगि मधुकरी खाहिं ।
यारो यारी छाँडि देउ, वे रहीम अब नाहिं ।।170।।
यों रहीम गति बड़ेन की, ज्यों तुरंग व्यवहार ।
दाग दिवावत आपु तन, सही होत असवार ।।171।।
यों रहीम तन हाट में, मनुआ गयो बिकाय ।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीतर नॉंय ।।172।।
यों रहीम सुख दुख सहत, बड़े लोग सह साँति ।
उवत चंद जेहि भाँति सो, अथवत ताही भाँति ।।173।।
रन, बन, ब्याधि, विपत्ति में, रहिमन मरै न रोय ।
जो रच्छक जननी जठर, सो हरि गये कि सोय ।।174।।
रहिमन अती न कीजिये, गहि रहिये निज कानि ।
सैजन अति फूले तऊ डार पात की हानि ।।175।।
रहिमन अपने गोत को, सबै चहत उत्साह ।
मृ्ग उछरत आकाश को, भूमी खनत बराह ।।176।।
रहिमन अपने पेट सौ, बहुत कह्यो समुझाय ।
जो तू अन खाये रहे, तासों को अनखाय ।।177।।
रहिमन अब वे बिरछ कहँ, जिनकी छॉह गंभीर।
बागन बिच बिच देखिअत, सेंहुड़, कुंज, करीर ।।178।।
रहिमन असमय के परे, हित अनहित ह्वै जाय ।
बधिक बधै मृग बानसों, रुधिरे देत बताय ।।179।।
रहिमन अँसुआ नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ ।
जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कहि देइ ।।180।।
रहिमन आँटा के लगे, बाजत है दिन राति ।
घिउ शक्कर जे खात हैं, तिनकी कहा बिसाति ।।181।।
रहिमन उजली प्रकृत को, नहीं नीच को संग ।
करिया बासन कर गहे, कालिख लागत अंग ।।182।।
रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार ।
वायु जो ऐसी बह गई, वीचन परे पहार ।।183।।
रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो ना प्रीति ।
काटे चाटै स्वान के, दोऊ भाँति विपरीति ।।184।।
रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत ।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ।।185।।
रहिमन कबहुँ बड़ेन के, नाहिं गर्व को लेस ।
भार धरैं संसार को, तऊ कहावत सेस ।।186।।
रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की धाक ।
दाँत दिखावत दीन ह्वै, चलत घिसावत नाक ।।187।।
रहिमन कहत सुपेट सों, क्यों न भयो तू पीठ ।
रहते अनरीते करै, भरे बिगारत दीठ ।।188।।
रहिमन कुटिल कुठार ज्यों, करत डारत द्वै टूक ।
चतुरन के कसकत रहे, समय चूक की हूक ।।189।।
रहिमन को कोउ का करै, ज्वारी, चोर, लबार ।
जो पति-राखनहार हैं, माखन-चाखनहार।।190।।
रहिमन खोजे ऊख में, जहाँ रसन की खानि ।
जहाँ गॉंठ तहँ रस नहीं, यही प्रीति में हानि ।।191।।
रहिमन खोटी आदि की, सो परिनाम लखाय ।
जैसे दीपक तम भखै, कज्जल वमन कराय ।।192।।
रहिमन गली है साँकरी, दूजो ना ठहराहिं ।
आपु अहै तो हरि नहीं, हरि तो आपुन नाहिं ।।192।।
रहिमन घरिया रहँट की, त्यों ओछे की डीठ ।
रीतिहि सनमुख होत है, भरी दिखावै पीठ ।।194।।
रहिमन चाक कुम्हार को, माँगे दिया न देइ ।
छेद में डंडा डारि कै, चहै नॉंद लै लेइ ।।195।।
रहिमन छोटे नरन सो, होत बड़ो नहीं काम ।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम ।।196।।
रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि ।
प्रीति करै मुख चाटई, बैर करे तन हानि ।।197।।
रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन ।
जाय दशानन अछत ही, कपि लागे गथ लेन ।।198।।
रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय ।
ताकी गैल आकाश लौं, क्यो न कालिमा होय ।।199।।
रहिमन जा डर निसि परै, ता दिन डर सिय कोय ।
पल पल करके लागते, देखु कहाँ धौं होय ।।200।।
रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गइ सरग पताल ।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ।।201।।
रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय ।
बीच उखारी रमसरा, रस काहे ना होय ।।202।।
रहिमन जो रहिबो चहै, कहै वाहि के दाँव ।
जो बासर को निस कहै, तौ कचपची दिखाव ।।203।।
रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि ।
गाँठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि को धूरि ।।204।।
रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान सनमान ।
घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करिय पयान ।।205।।
रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि ।
पर बस परे, परोस बस, परे मामिला जानि ।। 206।।
रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय ।
नैन बान की चोट ते, चोट परे मरि जाय ।।207।।
रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुँह स्याह ।
नहीं छलन को परतिया, नहीं करन को ब्याह ।।208।।
रहिमन दानि दरिद्र तर, तऊ जाँचबे योग ।
ज्यों सरितन सूखा परे, कुआँ खनावत लोग ।।209।।
रहिमन दुरदिन के परे, बड़ेन किए घटि काज ।
पाँच रूप पांडव भए, रथवाहक नल राज ।।210।।
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि ।।211।।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय ।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय ।।212।।
रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम ।
पावत पूरन परम गति, कामादिक को धाम ।।213।।
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय ।।214।।
रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय ।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय ।1215।।
रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि ।
दूध कलारी कर गहे, मद समुझै सब ताहि ।।216।।
रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार ।
नीर चोरावै संपुटी, मारु सहै घरिआर ।।217।।
रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच ।
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हों हाड़ दधीच ।।218।।
रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून ।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून ।।219।।
रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फाँकें तीन ।।220।।
रहिमन पेटे सों कहत, क्यों न भये तुम पीठि ।
भूखे मान बिगारहु, भरे बिगारहु दीठि ।।221।।
रहिमन पैंड़ा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल ।
बिछलत पाँव पिपीलिका, लोग लदावत बैल ।।222।।
रहिमन प्रीति सराहिए, मिले होत रँग दून ।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ।।223।।
रहिमन ब्याह बिआधि है, सकहु तो जाहु बचाय ।
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय ।।224।।
रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छाँड़त साथ ।
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ ।।225।।
रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन को नाहिं ।
जे जानत ते कहत नाहिं, कहत ते जानत नाहिं ।।226।।
रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम ।
हरि बाढ़े आकाश लौं, तऊ बावनै नाम ।।227।।
रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात ।
बड़े बड़े समरथ भए, तौ न कोउ मरि जात ।।228।।
रहिमन मनहिं लगाइ के, देखि लेहु किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय ।।229।।
रहिमन मारग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव ।
जो डिगिहै तो फिर कहूँ, नहिं धरने को पाँव।।230।।
रहिमन माँगत बड़ेन की, लघुता होत अनूप ।
बलि मख माँगत को गए, धरि बावन को रूप ।।231।।
रहिमन यहि न सराहिये, लैन दैन कै प्रीति ।
प्रानहिं बाजी राखिये, हारि होय कै जीति ।।232।।
रहिमन यहि संसार में, सब सौं मिलिये धाइ ।
ना जानैं केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ ।।233।।
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट ह्वै जात ।
नारायन हू को भयो, बावन आँगुर गात ।।234।।
रहिमन या तन सूप है, लीजै जगत पछोर ।
हलुकन को उड़ि जान दै, गरुए राखि बटोर ।।235।।
रहिमन यों सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत ।
ज्यों बड़री अँखियाँ निरखि, आँखिन को सुख होत ।।236।।
रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप ।
खरो दिवस किहि काम को रहिबो आपुहि आप ।।237।।
रहिमन रहिबो वा भलो, जो लौं सील समूच ।
सील ढील जब देखिए, तुरत कीजिए कूच ।।238।।
रहिमन रहिला की भली, जो परसै चित लाय ।
परसत मन मैलो करे, सो मैदा जरि जाय ।।239।।
रहिमन राज सराहिए, ससिसम सूखद जो होय ।
कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय ।।240।।
रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय ।
पसु खर खात सवादसों, गुर गुलियाए खाय ।।241।।
रहिमन रिस को छाँड़ि कै, करौ गरीबी भेस ।
मीठो बोलो नै चलो, सबै तुम्हारो देस ।1242।।
रहिमन रिस सहि तजत नहीं, बड़े प्रीति की पौरि ।
मूकन मारत आवई, नींद बिचारी दौरी ।।243।।
रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय ।
भीति आप पै डारि कै, सबै पियावै तोय ।।244।।
रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय ।
राग सुनत पय पिअत हू, साँप सहज धरि खाय ।।245।।
रहिमन वहाँ न जाइये, जहाँ कपट को हेत ।
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत ।।2461।
रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार ।
चोरी करी होरी रची, भई तनिक में छार ।।247।।
रहिमन विद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम, जस, दान ।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिनु पूँछ बिषान ।।248।।
रहिमन बिपदाहू भली, जो थोरे दिन होय ।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय ।।249।।
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं ।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ।।250।।
रहिमन सीधी चाल सों, प्यादा होत वजीर ।
फरजी साह न हुइ सकै, गति टेढ़ी तासीर ।।251।।
रहिमन सुधि सबतें भली, लगै जो बारंबार ।
बिछुरे मानुष फिरि मिलें, यहै जान अवतार ।।252।।
रहिमन सो न कछू गनै, जासों, लागे नैन ।
सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन ।।253।।
राम नाम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि ।
कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकर कानि ।।254।।
राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि ।
कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गँवायो बादि ।।255।।
रीति प्रीति सब सों भली, बैर न हित मित गोत ।
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत ।।256।।
रूप, कथा, पद, चारु, पट, कंचन, दोहा, लाल ।
ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्मगति, मोल रहीम बिसाल ।।257।।
रूप बिलोकि रहीम तहँ, जहँ जहँ मन लगि जाय ।
थाके ताकहिं आप बहु, लेत छौड़ाय छोड़ाय ।।258।।
रोल बिगाड़े राज नै, मोल बिगाड़े माल ।
सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल ।।259।।
लालन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माँहिं ।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं ।।260।।
लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन ।
पद कर काटि बनारसी, पहुँचे मगरु स्थान ।।261।।
लोहे की न लोहार का, रहिमन कही विचार ।
जो हनि मारे सीस में, ताही की तलवार ।।262।।
बरु रहीम कानन भलो, बास करिय फल भोग ।
बंधु मध्य धनहीन ह्वै बसिबो उचित न योग ।।263।।
बहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत ।
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हें रेत ।।264।।
बिधना यह जिय जानि कै, सेसहि दिये न कान ।
धरा मेरु सब डोलि हैं, तानसेन के तान ।।265।।
बिरह रूप धन तम भयो, अवधि आस उद्योत ।
ज्यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्योत ।।266।।
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग ।
बाँटनेवारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग ।।267।।
सदा नगारा कूच का, बाजत आठों जाम ।
रहिमन या जग आइ कै, को करि रहा मुकाम ।।268।।
सब को सब कोऊ करै, कै सलाम कै राम ।
हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम ।।269।।
सबै कहावै लसकरी, सब लसकर कहँ जाय ।
रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरैं खाय ।।270।।
समय दसा कुल देखि कै, सबै करत सनमान ।
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान ।।271।।
समय परे ओछे बचन, सब के सहै रहीम ।
सभा दुसासन पट गहे, गदा लिए रहे भीम ।।272।।
समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जाय ।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछिताय ।।273।।
समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक ।
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक ।।274।।
सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम ।
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम ।।275।।
सर सूखे पच्छी उड़ै, औरे सरन समाहिं ।
दीन मीन बिन पच्छ के, कहु रहीम कहँ जाहिं ।।276।।
स्वारथ रचन रहीम सब, औगुनहू जग माँहि ।
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छाँहि ।।277।।
स्वासह तुरिय उच्चरै, तिय है निहचल चित्त ।
पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्त ।।278।।
साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान ।
रहिमन साँचै सूर को, बैरी करै बखान ।।279।।
सौदा करो सो करि चलौ, रहिमन याही बाट ।
फिर सौदा पैहो नहीं, दूरी जान है बाट ।।280।।
संतत संपति जानि कै, सब को सब कुछ देत ।
दीनबंधु बिनु दीन की, को रहीम सुधि लेत ।।281।।
संपति भरम गँवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं ।
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं माहिं ।।282।।
ससि की सीतल चाँदनी, सुंदर, सबहिं सुहाय ।
लगे चोर चित में लटी, घटी रहीम मन आय ।।283।।
ससि, सुकेस, साहस, सलिल, मान सनेह रहीम ।
बढ़त बढ़त बढ़ि जात हैं, घटत घटत घटि सीम ।।284।।
सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक ।
रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक ।।285।।
हरि रहीम ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर ।
खैंचि अपनी ओर को, डारि दियो पुनि दूर ।।286।।
हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर ।
जब डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर ।।287।।
हित रहीम इतऊ करै, जाकी जिती बिसात ।
नहिं यह रहै न वह रहै, रहै कहन को बात ।।288।।
होत कृपा जो बड़ेन की सो कदाचि घटि जाय ।
तौ रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय ।।289।।
होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम अति दूर ।
बढ़िहू सो बिनु काज ही, जैसे तार खजूर ।।290।।
सोरठा
ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्यों ।
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै ।।291।।
रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं ।
जिनके अगनित मीत, हमैं गीरबन को गनै ।।292।।
रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो रस ऊख में ।
ताहू में परतीति, जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं ।।293।।
जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस ।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ।।294।।
रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं ।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं ।।295।।
रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै ।
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै ।।296।।
रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु ।
बरु विष देय, बुलाय, मान सहित मरिबो भलो ।।297।।
बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै ।
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें ।।298।।
चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो ।
रहिमन उतरे पार, भर झोंकि सब भार में ।।299।।
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