पहले अध्याय
में जो कुछ कहा गया
हैं
वह अर्जुन के अपने विचार थे जो बेरोक बाहर आये थे। उनसे उसकी
मनोवृत्ति
पर पूरा प्रकाश पड़ता
हैं।
कृष्ण ने देखा कि यह तो अजीब बात
हैं।
लड़ाई के मैदान में ऐन मौके पर यह ज्ञान-वैराग्य की बात और तन्मूलक
कर्तव्यविमूढ़ता,
या यों
कहिए कि निठल्ले बैठ जाना तो निराली चीज
हैं।
सो भी युद्ध
में सबके अग्रणी और नेता-पेशवा-का ही बैठ जाना। अतएव वह कुछ घबराये सही।
मगर फिर
ख्याल
किया कि आखिर अर्जुन भी तो आदमी ही ठहरा और आदमियों को ऐसे मौकों पर
मानवसुलभ कमजोरियाँ दबाती ही हैं। मालूम होता
हैं,
यही
बात अर्जुन की भी
हैं।
वह कुछ दयार्द्र हो जाने के कारण ही कमजोरी दिखा रहा
हैं।
हिंसा का भीषण रूप यहाँ
आँखों
के सामने नाच रहा
हैं।
इसीलिए यह कमजोरी स्वाभाविक
हैं।
उन्होने
यह भी
ख्याल
किया कि इसी भावोद्रेक और प्रेमप्रवाह के करते वह अपने आपको शायद भूल गया
हैं
कि उसे वहाँ क्या करना
हैं-वह
इस युद्ध-क्षेत्र
में क्या लक्ष्य और कौन मिशन (mission)
ले के
आया
हैं।
वह यह भी इसीलिए नहीं सोच रहा
हैं
कि इसमें उसकी बदनामी
हैं।
इसलिए यदि यह बात उसे याद दिला दी
जाये
और इसके चलते होने वाली हानि सुझा दी
जाये
तो शायद फिर तैयार हो
जाये।
आखिर ऐन लड़ाई के समय का यह आगा-पीछा अब तक सब किये-कराये पर पानी जो फेर
देगा। इसीलिए दूसरे अध्याय
का श्रीगणेश कृष्ण की इन्हीं बातों से ही हुआ। इसीलिए संजय ने यही बात
धृतराष्ट्र
से कही भी। फलत: इस अध्याय
के शुरू में ही-
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:॥1॥
संजय ने कहा-इस तरह कृपा से ओतप्रोत,
आँसू भरी बेचैन आँखों वाले और विषादयुक्त उस उर्जन से मधुसूदन ने आगे वाली
बात कही।1।
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यर्मकीत्तिकरमर्जुन॥2॥
श्रीभगवान बोले-अर्जुन,
ऐसे संकट के समय में-लड़ाई के मैदान में-तुम में यह गन्दगी कहाँ से आ गयी?
गन्दगी भी ऐसी कि जिसे भले लोग कभी अपनाते नहीं,
जो उन्नति की ओर तो ले जाने वाली नहीं। (हाँ) बदनामी फैलानेवाली (जरूर)
हैं।2।
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ
परन्तप॥3॥
पार्थ,
नामर्दी मत दिखाओ। यह तुम्हें शोभा नहीं देती। ओ दुश्मनों को तपानेवाले,
हृदय की (इस) नाचीज कमजोरी को छोड़ के खड़ा हो जाओ।3।
अब अर्जुन ने देखा कि कृष्ण को मेरे दिल की बातों का ठीक-ठीक पता नहीं हैं।
वह समझते हैं कि मैं केवल माया-ममता की कमजोरी से ऐसा कर रहा हूँ इसलिए
जरूरत इस बात की हैं कि सारी बातें खोल के उनके समाने रख दी जाये,
ताकि परिस्थिति का पूरा पता उन्हें लग जाये। इससे यह भी होगा कि यदि संभव
होगा और उचित समझेंगे तो कोई रास्ता भी सुझायेंगे। नहीं तो युद्ध में तो अब
पड़ना हुई नहीं। इसलिए-
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभि: प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥4॥
अर्जुन कहने लगा-हे मधुसूदन-मधुदैत्य के नाशक-,
हे अरिसूदन-शत्रुनाशक-,
(चन्दन,
पुष्पादि से) पूजा करने योग्य भीष्मपितामह तथा द्रोणाचार्य के साथ इस युद्ध
में वाणों से लड़ाईँ कैसे?।4।
गुरूनहत्तवा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैंव
भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान॥5॥
गुरुजनों-बड़े-बूढ़ों-को न मार के इस दुनिया में भीख से भी गुजर करना कहीं
अच्छा हैं। अर्थलोलुप गुरुजनों को मारकर तो यहीं पर (उन्हीं के) खून से
रंगे पदार्थों को भोगना होगा।5।
न चैतद्विद्मः
कतरन्नो
गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिता: प्रमुखे
धृर्त्तराष्ट्रा:॥6॥
यह भी तो नहीं मालूम कि हमारे लिए (दोनों में) कौन सी चीज अच्छी हैं (और यह
भी नहीं जानते कि) हम (उन्हें) जीतेंगे या वे लोग ही हमें जीतेंगे। जिन्हीं
को मार के हम जीना नहीं चाहते वही धृतराष्ट्र के बेटे सामने ही डटे हैं।6।
इस श्लोक के उत्तरार्ध्द के बारे में तो कोई विवाद नहीं। उसका अर्थ तो सभी
लोग एक ही समझते हैं। मगर पूर्वार्ध्द में गड़बड़ हैं और कुछ लोग भटक के
दूसरा ही अर्थ कर डालते हैं। असल में यदि इससे पूर्व के श्लोक से इसे जोड़
के उसी प्रसंग में इसे भी मान लें तो यह दिक्कत न हो। इसी के साथ एक बात और
भी करनी होगी। हमें इस श्लोक के
'कतरत्'
और
'गरीयस्'
शब्दों का भी ख्याल करना होगा। हमारे जानते तो इसका सीधा अर्थ इस तरह हैं।
पहले श्लोक में जो कहा गया हैं कि गुरुजनों को न मार के भिक्षावृत्ति से
गुजर करना कहीं अच्छा हैं;
क्योंकि उन्हें मारने पर तो परलोक की कौन कहे यहीं पर खून में सने पदार्थों
को ही भोगना होगा,
उससे दो पक्ष सिद्ध होते हैं। एक तो हैं युद्ध न करके भिक्षावृत्ति तक के
लिए तैयारी और दूसरा हैं लड़कर के इसी शरीर से खूनी पदार्थों का भोग। इनमें
पहले पक्ष को यद्यपि अर्जुन ने अच्छा ठहरा दिया हैं। फिर भी इस बात की पूरी
जानकारी तो उन्हें हैं नहीं। इसीलिए अगले श्लोक में इसी जानकारी की बात
जानने के लिए
'वि:र्ं'
शब्द बोलते हैं। जिस विद धातु से यह शब्द बना हैं उसी से वेद,
वेत्ता,
विद्वान् आदि शब्द बनते हैं। उसका अर्थ हैं पूरी जानकारी और वही हमें नहीं
हैं यही बात
'न
चैतद्विद्मः'-'यही
तो नहीं जानते'-शब्दों
में कहते हैं। इसीलिए आगे के भी सातवें श्लोक में पाँचवें जैसा ही
'श्रेय:'
शब्द कहके कहते हैं कि जो मेरे लिए अच्छा हो सो कहिए।
एक बात और भी हैं। पाँचवें में सिर्फ इतना ही कहा हैं कि गुरुजनों को न मार
के भीख माँगना भी अच्छा हैं और यह सर्वसाधारण बात हैं। इसका यह मतलब तो
हर्गिज नहीं होता कि यह चीज सभी के लिए अच्छी हैं। हो सकता हैं क्षत्रिय के
लिए ठीक न हो के भी औरों के ही लिए ठीक हो। यह चीज अच्छी हैं यह आम लोगों
की धारणा ही तो उन्होने कही हैं,
न कि अपने लिए भी उसे खामख्वाह अच्छा कह दिया हैं। इसीलिए सातवें श्लोक में
'मे'
शब्द देकर साफ कहते हैं कि मेरे लिए जो बात
'श्रेय'
हो,
ठीक हो वही कहिए। यही वजह हैं कि पाँचवें के उत्तरार्ध्द में जो दलील देते
हैं कि रोटी-पैसे के ही लिए दुर्योधन के यहाँ फँसे गुरुजनों को मार के
उन्हीं के खून से रँगे पदार्थ यहीं भोगने होंगे,
उससे यह झलकता हैं कि यदि मरने के बाद नर्क आदि की बात होती तो एक बात भी
थी। तब देखा जाता। तब सोचते कि चलो,
यहाँ तो आराम कर लें,
आगे देखा जायेगा। मगर यह तो कुछ ऐसी चीज हो जाती हैं कि उन्हीं के खून से
रँगे पदार्थ ही हमें यहाँ मिलते हैं। उसमें एक बात और भी हो जाती हैं कि ये
बेचारे हमारे बड़े-बूढ़े जिन्हीं चीजों को लेके एक प्रकार से पथभ्रष्ट हुए
वही चीजें आखिर उनसे हम छीन ही लें,
सो भी उनका खून करके,
यह कैसा तो लगता हैं। यह तो कुछ ऐसा मालूम होता हैं कि वे लोग तो पथभ्रष्ट
हुए ही थे। मगर अब हम भी ऐसा करके वैसे ही हो जायेगे और यह ठीक नहीं लगता।
गुरुजनों को
'अर्थकाम'
कहने का यही मतलब हैं। इसी अर्थ में
'कामकामी'
(2।70)
शब्द आया हैं।
इस प्रकार अर्जुन का मन कुछ अजीब पसोपेश और घपले में पड़ा हैं। क्या वह इन
बातों को करते हुए भी यह नहीं जानता कि आखिर क्षत्रिय का ही धर्म तो लड़ना
हैं,
दूसरे का नहीं?
फिर वह यों ही निश्चय कैसे कर लेता कि भीख माँगना ही अच्छा?
मगर इतने पर भी उसके पसोपेश की गुंजाइश सिर्फ इसलिए रह जाती कि आखिर युद्ध
में सीधे अपने ही लोगों एवं गुरुजनों को ही मारना पड़े यह तो कोई जरूरी नहीं
हैं। लड़ाई तो ऐसी भी हो सकती हैं जिसमें यह कुछ भी न करना पड़े। ऐसी दशा में
वैसी ही लड़ाई क्षत्रिय का धर्म क्यों न माना जाये,
न कि ऐसी?
यह शंका तो स्वाभाविक थी। उधर कृष्ण इसी में प्रोत्साहित कर रहे थे। रोकते
तो थे नहीं। इसलिए यह भी ख्याल होता था कि यदि यह बुरी होती तो वह ऐसा
कदापि नहीं करते। यही था पूरा घपला। अर्जुन इसी की सफाई के लिए कहता हैं कि
हमें यह भी तो पता नहीं कि इन दोनों पक्षों में कौन सा हमारे लिए उत्तम हैं,
अच्छा हैं।
'गरीयस्'
और
'कतरत्'
शब्द भी यही अर्थ ठीक हैं ऐसा सूचित करते हैं। पहले
'गरीयस्'
शब्द को ही लें। यह शब्द,
गुरु शब्द से बना हैं और गुरु शब्द का अर्थ हैं भारी,
वजनी,
बड़ा,
श्रेष्ठ,
अच्छा। इसलिए
'गरीयस्'
शब्द का अर्थ हो जाता हैं ज्यादा अच्छा,
ज्यादा वजनदार,
और भी अच्छा,
और भी श्रेष्ठ। अर्जुन के कहने का यही आशय हैं कि यों तो दोनों ही पक्ष
अच्छे हैं,
वजनी हैं,
श्रेष्ठ हैं। क्योंकि तर्क-दलीलें दोनों ही पक्षों में हैं जिन्हें मैं दे
भी चुका हूँ। मगर दोनों में भी ज्यादा वजनदार,
ज्यादा अच्छा,
ज्यादा श्रेष्ठ कौन हैं इसका पता मुझे नहीं लगता। मेरे लिए यही तो बड़ी
दिक्कत हैं। मेरी हालत तो
'दोलाचलचित्तवृत्ति:'
हैं,
मेरा दिमाग तो झूले की तरह दोनों ही ओर बराबर जा रहा हैं-कभी ईधर और कभी
उधर। फलत: निर्णय नहीं कर सकता हैं।
अब इसी के साथ
'कतरत्'
शब्द को भी मिला के देखें। ये दोनों ही शब्द यहाँ पर नपुंसक-लिंगी ही हैं।
पुल्लिग होने पर
'कतर:'
और
'गरीयान्'
होते।
'कतर'
शब्द दो में से एक को चुन लेने,
अलग कर लेने के मानी में आता हैं। इसका अर्थ हैं दो में कौन सा?
दो से ज्यादे में से चुनना हो तो
'कतम'
शब्द बोलते हैं। इसी तरह
'न:'
शब्द का अर्थ हैं हमारा या हमारे लिए। सब मिला के अर्थ हो जाता हैं कि
हमारे लिए इन दोनों पक्षों में कौन सा पक्ष ज्यादा अच्छा हैं। जहाँ कोई
निश्चित लिंग न हो वहाँ नपुंसक ही बोला जाता हैं। यहाँ भी वही बात हैं। दो
पक्ष,
दो बातें,
दी चीजें हैं और इनके लिंग का कोई ठिकाना हैं नहीं। मगर जब
'न:'
का अर्थ करते हैं
'हम
लोगों में'
या
'हम
लोगों में से',
तो वह साफ ही पुलिंग हो जाता हैं। तब तो साफ ही पता चलता हैं कि अर्जुन
अपना और दुर्योधन का ख्याल करके ही कहता हैं कि हम दोनों में कौन वजनी हैं,
कौन जीतेगा,
यह मालूम नहीं। मगर उस दशा में उसे
''कतरो
नो गरीयान्''
ऐसा ही कहना उचित था। श्लोक भी ठीक ही रह जाता हैं। इसलिए मानना पड़ता हैं
कि यह बात नहीं हैं। साफ ही पुलिंग की जगह नपुंसक देने से निस्सन्देह वही
अर्थ ठीक हैं जो हमने माना हैं।
जो लोग इस नपुंसकवाली बात को मान के भी आगे के
'यद्वाजयेम'
आदि को इसी के साथ मिलाते हुए यह अर्थ करते हैं कि
'हम
जीतें या हमें वे लोग जीत लें-इन दोनों में श्रेयस्कर कौन हैं,
यह भी समझ नहीं पड़ता',
उनका भी कहना ठीक नहीं हैं। पहले की सारी दलीलें ऐसे अर्थ के विरुद्ध जाती
हैं। शायद
'जयेम'
और
'जयेसु:'
का विधिलिड्. देख के वे लोग इस भ्रम में पड़ गये हैं। मगर यहाँ तो चाहे
विधिलिड्. हो या भविष्य की क्रिया हो हर हालत में भविष्य ही अर्थ होगा
'जीतेंगे'।
पहले के श्लोक में
'भुंजीय'
क्रिया भी तो ऐसी ही हैं। मगर वहाँ उन्होने भी भविष्य ही अर्थ किया हैं।
फिर यहाँ भी वही क्यों न किया जाये?
विधिलिड्. और आशीर्लिंड्. का भविष्य भी अर्थ होता हैं यह तो
'भविष्यति
लिङलौटौ'
(3।3।173)
सूत्र में पाणिनि ने खुद माना हैं। अर्जुन का तो यही कहना हैं कि हम यह भी
तो नहीं जानते कि हम जीतेंगे या वे लोग। इस पूर्वार्ध्द में अर्जुन ने एक
तो यही कहा हैं। इसके पहले दूसरा यह कि इन दोनों बातों में कौन ज्यादा
अच्छी हैं। यह भी नहीं जानते।
इन दोनों को एक साथ घोलमट्ठा करके ऐसा कहना कि हम जीतें या वह जीतें इन
दोनों में हमारे लिए कौन बात अच्छी हैं यह मालूम ही नहीं हैं,
कुछ अच्छा जँचता भी नहीं। भविष्य की अनिश्चित बात को अभी तौलना ठीक नहीं
लगता। मारना और मरना तो निश्चित हैं,
चाहे जीते कोई। इसलिए उसके बारे में अच्छे-बुरे का खोद-विनोद ठीक हो सकता
हैं। मगर जो चीज अनिश्चित हैं उसके भले-बुरे का क्या विचार?
उसी में से किसी एक को पहले ही चुन लेने का क्या प्रसंग?
और जीत-हार में किसी एक को चुनने का तो यों भी प्रश्न नहीं उठता। हार तो
कोई भी नहीं चाहता। फिर अर्जुन क्यों चाहने लगा?
यह तो परले दर्जे की नादानी ही होगी। हाँ,
उस सिलसिले में मरने-मारने का प्रश्न और उसे चुनने या पसन्द करने न करने की
बात जरूर उठती हैं। हमने उसे माना भी हैं। अर्जुन ने वही बात
'या
नेवहत्वा'
में कही भी हैं। श्लोक में
'यद्वा'
और
'यदिवा'
शब्द भी जीत की संदिग्धाता ही को सूचित करते हैं। उनका ऐसा ही अर्थ होता
हैं।
'यदि'
शब्द तो खामख्वाह शक की सूचना करता हैं। उसी का साथी
'यद्वा'
शब्द भी यहाँ यही काम करता हैं।
इस श्लोक में तो अर्जुन साफ-साफ कहता हैं कि एक तो यही पता नहीं कि
भिक्षावृत्ति ही हमारे लिए ठीक हैं,
या मारकाट के बाद मिलने वाला राजपाट। दूसरे;
अगर हम राजपाट की ही बात ठीक मान भी लें तो यह भी तो पता नहीं कि हमीं
जीतेंगे या वही लोग। इसलिए यह तो
'गुनाह
बेलज्जत'
सी ही बात लगती हैं। मारकाट भी करें और राजपाट भी न हाथ लगे,
यह तो और भी बुरा होगा। यह भी नहीं कि लड़ने में अपने लोगों की मारकाट न
होगी। यहाँ तो साफ ही देखते हैं कि जिन्हें मारने से हटना चाहते हैं वही
दुर्योधानादि ही सामने डटे हैं। यह अर्थ इतना स्वाभाविक और मौजूँ हैं कि
इसमें ननु नच करने की जगह रही नहीं जाती।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वांधर्मसम्मूढ़चेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां
प्रपन्नम्॥7॥
कुछ भी निश्चय न कर सकने के फलस्वरूप मुझे कुछ सूझता ही नहीं और धर्म के
निर्णय के बारे में मेरी बुद्धि घपले में पड़ गयी हैं। (इसीलिए) आप से पूछता
हूँ। मेरे लिए जो ठीक हो वही पक्का-पक्की कहिए। मैं आपका शिष्य हूँ। मुझ
शरण में आये को-शरणागत को-सिखाइए-रास्ता बताइए।7।
यहाँ धर्म का अर्थ हैं कर्तव्य और वह कर्तव्य-अकर्तव्य दोनों का ही वाचक
हैं। अर्जुन का कहना यही हैं कि मैं कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय कर सकता
नहीं। मेरी अक्ल काम करती ही नहीं। वह चकरा उठी हैं। इसका कारण वह बताता
हैं। कार्पण्यरूपी दोष। कृपण शब्द से कार्पण्य बनता हैं और इसका अर्थ हैं
कृपणता। उसके जानते कृपणता ही वह दोष वा बुराई हैं जिसने बुद्धि को घपले
में डाल दिया हैं। शराब या भाँग के नशे में जैसे दिमाग चकराता हैं वैसे ही
यहाँ कृपणता के नशे से बुद्धि चकरा गयी हैं। कहाँ नशा और दोष एक ही चीज
हैं। कृपण और कृपणता किसे कहते हैं इसके सम्बन्ध में वृहदारण्यक उपनिषद के
तीसरे अध्याय के आठवें ब्राह्मण का दसवाँ मन्त्र इस तरह हैं-'यो
वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणोऽथ य एतदक्षरं
गार्गिविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मण:।'
इसका आशय यही हैं कि
''गार्गि;
इस अविनाशी आत्मा को जाने बिना ही जो मर जाता हैं वही कृपण हैं,
और जो इसे जान के मरता हैं वही ब्राह्मण हैं।''
गीता को जब उपनिषद का ही रूप मानते हैं तब तो कृपण और कृपणता के अर्थ के
सम्बन्ध में उपनिषद के उक्त वचन का सहारा लेना ही होगा। आमतौर से कंजूस के
अर्थ में कृपण शब्द बोला हैं। मगर वह मतलब तो यहाँ हैं नहीं। अर्जुन की
कंजूसी का यहाँ सवाल ही हैं क्या?
उसे कुछ खर्चना तो हैं नहीं। यह भी नहीं कि युद्ध में शक्ति खर्चने से डरता
हो। उसके सामने तो मरने-मारनेवाला सवाल चट्टान की तरह खड़ा हैं। उसी को ले
के स्वर्ग,
नर्क और धर्मनाश,
कुलनाशादि की समस्याएँ उठ पड़ी हैं। फिर खर्च की कंजूसी की क्या बात?
वह यह खुद-ब-खुद कहता भी कैसे कि मैं कंजूसी कर रहा हूँ?
और अगर कंजूसी होती तो फिर कृष्ण का जवाब दूसरे ढंग का क्यों होता?
वह तो आत्मा की अजरता,
अमरता और अविनाशिता से ही शुरू करते हैं। इससे भी पता चलता हैं कि आत्मा के
यथार्थ स्वरूप के न जानने को जो वृहदारण्यक में कृपणता के नाम से पुकारा
हैं उसी से यहाँ अभिप्राय हैं। नहीं तो प्रश्न कुछ और उत्तर कुछ दूसरा ही
हो जायेगा न?
मर्ज दूसरा और दवा निरालीवाली बात जो हो जायेगी। इसलिए कृपण शब्द का
वास्तविक अर्थ तो यही हैं। कंजूस के अर्थ में तो वह इसीलिए बोला जाता हैं
कि वैसा आदमी भी अज्ञानी होता हैं। वह अपनी चीज का ठीक उपयोग या खर्च जानता
नहीं। इसीलिए तो मुनासिब मौके पर ही उल्टा खिंच जाता और काम बिगाड़ देता हैं
जिसके फलस्वरूप दूसरे ढंग से कहीं ज्यादा खर्च हो जाता हैं। आत्मा को
ठीक-ठीक न जानने वाले भी उल्टा ही काम करते रहते हैं। इसीलिए अर्जुन जानना
चाहता हैं कि आत्मतत्त्व क्या हैं,
आत्मा का असली रूप क्या हैं,
बुरे-भले कर्मों का क्या रहस्य हैं,
आदि बातें उसे अच्छी तरह समझा दी जाये। ताकि उसके दिमाग का अँधेरा दूर हो
के कर्तव्य पथ प्रशस्त हो सके। इसीलिए
'उपहतस्वभाव'
में जो स्वभाव शब्द हैं और जिसका अर्थ पहले ही आत्मा का असली रूप या हस्ती
किया जा चुका हैं वह भी ठीक ही हैं। अज्ञान के चलते आत्मा के स्वरूप का
उपहत,
विकृत या मरने-मारने वाला मालूम होना ठीक ही हैं।
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृध्दं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥8॥
क्योंकि भूमण्डल का निष्कंटक समृद्ध राजपाट देवताओं का आधिपत्य-इन्द्र का
पद-मिल जाने पर भी मुझे तो (ऐसी चीज) नजर नहीं आ रही हैं जो इन्द्रियों
(तक) को सुखा डालने वाले मेरे इस शोक को दूर कर सके।8।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परंतप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥9॥
संजय कहने लगा-शत्रु को तपाने वाला अर्जुन हृषीकेश-कृष्ण-से इस तरह कह के
और (उन्हीं) गोविन्द से (यह भी) कह के कि (हर्गिज) न लड़ुँगा,
चुप हो गया।9।
तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मधये विषीदन्तमिदं वच:॥10॥
(इस
पर),
दोनों फौजों के बीच (खड़े) शोकाकुल अर्जुन से कृष्ण (उसका) कुछ उपहास करते
हुए से कहने लगे।10।
यहाँ यह जान लेना होगा कि अर्जुन की इन आखिरी बातों से कृष्ण को पता चल गया
कि यह मर्ज बहुत गहरा हैं। उन्होने बखूबी समझ लिया कि उनका पहला ख्याल कि
अर्जुन सिर्फ माया-ममता में पड़ के ही मानव स्वभाव सुलभ कमजोरियों के करते
आगा-पीछा कर रहा हैं,
गलत हैं। यदि यह बात होती तो पहली ही ललकार से काम चल गया होता। मगर यहाँ
तो बात ही दूसरी मालूम हुई। अर्जुन तो बहुत गहराई में घुस चुका था। आमतौर
से धर्मशास्त्रों के आदेशों और धर्म के अनुशासनों का अब उस पर तब तक असर
नहीं हो सकता था जब तक उसकी असली कमजोरी दूर न कर दी जाये। जब तक उसे यह
पता न लग जाये कि आत्मा अविनाशी हैं,
वह किसी को मारती नहीं और न खुद मरती हैं,
तब तक उसमें युद्ध की मुस्तैदी आ नहीं सकती।
असल में जो साधारण समझ के या बिना समझवाले लोग होते हैं उन्हें तो पशुओं की
तरह नीति एवं धर्मशास्त्रों के वचनों की लाठी से ही हाँक ले जाते हैं और
जहाँ चाहें भिड़ा दे सकते हैं। उनके लिए यही बात काफी होती हैं। मगर जो आगे
बढ़ गया और भले-बुरे का विचार स्वतन्त्र रूप से खुद ही कर सकता हैं उसके
सामने ये आदेश और वचन बेकार होते हैं। इतना ही नहीं। गुरुजनों की आज्ञा भी
उस पर कोई असर डाल नहीं सकती। जब तक उसके दिमाग में वह बात जँच न जाये। यही
कारण हैं कि कृष्ण जैसे महापुरुष की भी बात का प्रभाव अर्जुन पर जरा भी न
पड़ सका और वह टस से मस न हो सका।
इसीलिए कृष्ण को भी गहराई में जाना पड़ा। इस प्रकार जिस सूक्ष्म एवं
दार्शनिक दिमाग से वह दलीलें कर रहा था उसी का आश्रय ले के उसे निरुत्तार
करना और मनाना पड़ा। वह बार-बार भीष्म,
द्रोण आदि के मरने और अपने मारने की बातें करता था। इसलिए लाचार हो के
कृष्ण को सबसे पहले इस मरने-मारने का रहस्य बताना एवं भण्डाफोड़ करना ही
पड़ा। उन्होने साफ ही देखा कि इसे तो आत्मा के ककहरे का भी ज्ञान नहीं
हैं-यह जानता ही नहीं कि वह क्या चीज हैं। यह तो समझता हैं कि सचमुच वह
मरने-मारने वाली कोई चीज हैं। यही कारण हैं कि वह धर्म-अधर्म,
हिंसा-अहिंसा;
पुण्य-पाप और स्वर्ग-नर्क का ताल्लुक आत्मा से ही जोड़ के हिचकता हैं।
क्योंकि युद्ध में जब आत्मा ने हिंसा की तो पाप भागी होके खामख्वाह नर्क
जायेगी ही। इसीलिए वह हिंसा से बचना चाहता हैं। फलत: कुलसंहार के भयंकर
दोषों से उसकी आत्मा काँपती हैं। क्योंकि वह उसमें अपनी और दूसरों की
भी-सभी की-अधोगति देखता हैं।
इस प्रकार आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जाने बिना ही यह सारी बला हैं,
यह कृष्ण को साफ नजर आया। उन्होने देख लिया कि उस स्वरूप के जानते ही यह
सारा पर्दा कुहासे की तरह फट जायेगा। इसीलिए उन्होने आत्मा के ही स्वरूप को
ले के गीताउपदेश आरम्भ किया। यदि आत्मा अकर्ता और अविनाशी सिद्ध हो जाये तो
फिर स्वर्ग-नर्क और पाप-पुण्य का सवाल उठता ही कहाँ हैं?
इसलिए पहले जड़ को ही साफ करना उन्होने उचित समझा और जरूरी भी। क्योंकि आगे
चल के जो कर्मों और कर्मयोग का विवेचन उन्होने किया हैं वह भी आत्मज्ञान के
बिना नहीं समझा जा सकता और न वह योग ही हासिल हो सकता हैं। यह बात पहले
विस्तार के साथ बताई जा चुकी हैं। कर्मयोग का भी मूलाधार आत्मविवेक ही माना
गया हैं। इसीलिए आत्मविवेक पहले और कर्म का विवेक पीछे इसी दूसरे ही
अध्याय में आया हैं। शेष अध्यायों में तो उसी का प्रकारान्तर से स्वतन्त्र
रूप से स्पष्टीकरण किया जाकर एक-एक चीज पर काफी प्रकाश डाला गया हैं।
यहाँ जो प्रहास या उपहास की बात कही गयी हैं उसका भी मतलब समझ लेना होगा।
'इव'
शब्द देकर पूरा प्रहास रोका गया हैं। कहने का मतलब यह हो जाता हैं कि ऐसा
मालूम पड़ता था कि कृष्ण अर्जुन का उपहास कर रहे हैं-उसकी मखौल उड़ा रहे हैं।
अगले श्लोक में उनके कहने का जो तरीका हैं उससे भी ऐसा ही प्रतीत होता हैं।
वह कहते हैं कि बातें तो बड़ी अक्ल की करते हो। मगर अफसोस ऐसे पदार्थों का
करते हो जिनका करना चाहिए ही नहीं। यह एक तरह का परिहास ही तो हैं। यदि
किसी विपक्षी से बातें करनी हों तो यही बात परिहास हो जायेगी। मगर अर्जुन
तो शिष्य बन के शरण में आ चुका हैं। वह इहलोक तथा परलोक के सुखों से पूरा
विरागी भी हो चुका हैं,
जिससे साफ हो जाता हैं कि वह आत्मज्ञान का पूर्ण अधिकारी बन चुका हैं। भला
ऐसे आदमी का उपहास कृष्ण जैसा विवेकी महापुरुष कैसे कर सकता हैं?
यह तो उनकी महत्व के विपरीत अत्यन्त छोटी बात और विवेकशून्यता हो जायेगी।
उपहास तो प्रतिवादी,
प्रतिपक्षी या शत्रु का करते हैं,
या उसका जो समानता का दावा करे। जो शरणागत हो,
शिष्य हो,
संसार और स्वर्गादि के सुखों से विरागी हो,
उन्हें कुछ न समझता हो और ज्ञानप्राप्ति की ही जिसे भूख हो उसका उपहास कैसा?
इसीलिए कह दिया हैं कि कृष्ण अर्जुन का उपहास करते जैसे मालूम हुए। जिस तरह
उन्होने उपदेश देना शुरू किया उसे बाहर से देख के सारी बातों को न जानने
वाला कोई भी आदमी उपहास ही मान सकता हैं। यही वैसा कहने का आशय हैं।
असल बात यह हैं कि उस समय की कृष्ण की भावभंगी अजीब और मनोवृत्ति निराली
थी। उनकी विलक्षण दशा थी। वैसे संकट के समय एकाएक अर्जुन की वैसी हालत देख
के,
जिसका उन्हें या किसी को जरा सा आभास भी पहले न मिला था,
उन्हें आश्चर्य से दंग हो जाना पड़ा कि यह क्या हो गया! इस लड़ाई को ले के वह
काफी दौड़े-धूपे। परेशान भी पूरे हो चुके थे। इसी के करते उनके सगे भाई
बलराम एक तरह से विरागी भी हो गये थे। दुर्योधन के साथ न सिर्फ उनकी,
बल्कि औरों की भी,
काफी तनातनी हो चुकी थी और मामला बहुत दूर तक पहुँच चुका था। ऐसी दशा में
जिस चीज की जरा भी आशा-आशंका न थी वही हो जाने से एक तो उन्हें लड़कपन जैसे
जँची भी। आखिर वह बच्चा तो था नहीं। उसकी तर्क-दलीलों से ही साफ झलकता हैं
कि काफी समझदार और दूरंदेश था। फिर उसने मैदाने जंग में आने के जरा भी पहले
इसका क्यों न इशारा तक किया?
आखिर जो बातें वह वहाँ कह गया। वह कोई नई तो थीं नहीं। उन्हीं के लिए तो
वर्षों से सारी तैयारी हो रही थी। इसीलिए अर्जुन का लड़कपन समझ के उन्हें
कुछ क्रोध भी आया। हँसी भी आयी! साथ ही,
उन्हें एकाएक भारी अन्देशा भी हो गया कि कहीं सचमुच सारा गुड़ गोबर ही न हो
जाए। क्योंकि ऐसी आकस्मिक घटनाओं के चलते जो न हो जाये उसी में आश्चर्य हो
सकता हैं। अर्जुन का वह बच्चों जैसा रोना-धोना,
उसकी वह परेशानी और बेचैनी,
उसकी वह निराली मनोवृत्ति वगैरह देख के उन्हें दया भी हो आयी। उनका बहुत
पुराना प्रेमी तो था ही और उसी की यह दशा ! इसके सिवाय जब इतनी गम्भीर
बातों का उपदेश करना था और बारीकियों की तह में अच्छी तरह घुसना एवं उसे भी
घुसाना था,
तो गम्भीरता का होना भी जरूरी था।
इस प्रकार उनमें आश्चर्य,
क्रोध,
हँसी,
दया;
अन्देशा और गम्भीरता आदि अनेक बातों तथा भावनाओं एक ही साथ जमघट हो गया।
उन्हीं के साथ आगे-पीछे की जानें कितनी ही घटनाओं की स्मृति भी आ धमकी। ऐसे
मौके पर तो स्वभावत: हजारों बातें याद आई जाती हैं। ऐसी दशा में कृष्ण का
उस समय का,
जब उन्होने गीताउपदेश शुरू किया,
स्वरूप,
चेहरा और भावभंगी-ये सभी-निराले ढंग के थे,
अजीब थे,
अलौकिक थे। आधे दर्जन से ज्यादा ख्यालों और भावनाओं का,
जो प्राय: एक साथ कभी पायी जाती ही नहीं और परस्पर विरोधी सी हैं,
एक साथ सम्मिलित एक अलौकिक चीज थी,
जिसका ठीक-ठीक वर्णन किया जा सकता नहीं। इसीलिए यहाँ यद्यपि
''परिहास
करते हुए की तरह''
कह के ही खत्म किया। तथापि अन्त में अठारहवें अध्याय के
77वें
श्लोक में तो उस रूप को-कृष्ण की उस दशा और भावभंगी को-अत्यन्त अद्भुत,
अत्यन्त निराला,
न भूतो न भविष्यति,
कह दिया हैं। वहाँ संजय साफ ही कहता हैं कि कृष्ण के उस अद्भुत रूप को
बार-बार बखूबी याद करके मुझे महान आश्चर्य हो रहा हैं-मैं आश्चर्य में डूब
रहा हूँ और रह-रह के मुझमें आनन्द का प्रवाह भी बह रहा हैं-''तच्च
संस्मृत्य सस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:। विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च
पुन: पुन:''।
सचमुच ही वह अकथनीय,
अनिर्वचनीय आकृति थी।
कुछ लोगों ने
'इव'
देखकर ही प्रहास का अर्थ मुस्कुराहट करके सन्तोष किया मगर यह तो प्रहास
शब्द के साथ ज्यादती हैं। प्रहास,
परिहास और अवहास ये शब्द प्राय: एक ही मानी में आते हैं। अवहास में कुछ
अपमान की बात भी साफ मालूम होती हैं जो शेष दो में पायी नहीं जाती। किन्तु
अर्थात् आती हैं। केवल मुस्कुराने का सवाल तो वहाँ था नहीं। वहाँ तो पेचीदा
पहेली खड़ी थी जिसे सुलझाना था। इसलिए तो सारी दलीलें दी गयी हैं। केवल
मुस्कुराहट की बात कहने पर सारी परिस्थिति का अनादर करना हो जायेगा।
अब रही एक ही बात। आत्मा को अविनाशी,
अजन्मा अकर्ता सिद्ध करने के पूर्व यह प्रश्न हो सकता हैं कि जब भीष्मादि
का मरना-मारना सामने हैं तो देखना चाहिए कि भीष्मादि कहने से कौन सी चीज
समझी जाती हैं। भीष्म शब्द से दो ही वस्तुओं का बोध हो सकता हैं-या तो शरीर
का या उसमें रहने वाली आत्मा का। इन दोनों को ही मान के कृष्ण ने उत्तर
देना उचित समझा और दिया भी हैं। मगर पहले आत्मा की ही बात उठा के पीछे देह
की इसीलिए उठाई हैं कि आमतौर से लोग भीष्म आदि शब्दों से आत्मा को ही समझते
हैं,
न कि देह को। अर्जुन ने भी स्वर्ग,
नर्क आदि की बातें उठा के खुद मान लिया हैं कि भीष्म का अर्थ हैं आत्मा।
क्योंकि शरीर तो यहीं रह जाता,
सड़-गल या जल जाता हैं। वह तो स्वर्ग या नर्क में जाता हैं नहीं। वहाँ जाने
वाली चीज तो शरीर से जुदा आत्मा ही हैं। इसीलिए उसी आत्मा की बात ले के
पहले कृष्ण ने कहना शुरू किया। मगर जो लोग भीष्मादि कहने से उनके भौतिक
शरीरों या इन्द्रियादि को ही समझते हैं उन्हें भी मुँह तोड़ उत्तर देना ही
चाहिए,
इसीलिए आगे
'मात्र-स्पर्शा:'
(2।14)
'अन्तवन्त
इमे'
(2।18)
तथा
'अथ
चैन'
(2।26)
में उनकी बात भी आयी हैं। इसीलिए पहले-
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥11॥
श्री भगवान ने कहा-(यह अजीब बात हैं कि एक ओर तो) तू उन्हीं की चिन्ता करता
हैं जिनकी करना न चाहिए और (दूसरी ओर) अक्ल की बातें बोलता हैं! (क्योंकि)
पण्डित लोग (तो) मरे-जियों की चिन्ता करते ही नहीं। (शोक या चिन्ता के मानी
हैं यहाँ परवाह करना)।11।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्॥12॥
ऐसा तो हो सकता नहीं कि हम पहले कभी न भी थे,
तुम्हीं न थे (या) ये राजे ही न थे और यह भी नहीं कि इसके बाद भी हम सभी न
होंगे।12।
आत्मा को अविनाशी सिद्ध करने में कृष्ण की जो दलील यहाँ हैं उसका आशय यही
हैं कि सभी आत्माओं के तीन विभाग हो सकते हैं-कहने वाली (कृष्ण की) सुनने
वाली (अर्जुन की) और शेष उन सभी की जो या तो वहाँ लड़ने को मौजूद थे या और
जगह थे। लेकिन मरने-मारने का प्रसंग होने के कारण ही और जगह वालों का नाम न
लेके सिर्फ रणक्षेत्र में मौजूद तीन तरह के लोगों की ओर इशारा किया हैं।
इसीलिए
'ये
राजे'-'इमे
जनाधिपा:'-कहने
का अभिप्राय केवल राजा लोगों से ही न होके जो वहाँ मौजूद थे सभी से हैं। यह
ठीक हैं कि कुछ को छोड़ सभी राजे या क्षत्रिय ही थे-उन्हीं की प्रधानता थी।
इसीलिए सभी को राजे-'जनाधिपा:'
कह दिया। जैसे जहाँ ब्राह्मण अधिक हों उस गाँव को ब्राह्मणों का गाँव कह
देते हैं। क्योंकि आखिर कुछ और लोग तो गाँव में खामख्वाह होंगे। नहीं तो
काम कैसे चलेगा?
जो कुछ तर्क युक्ति दी हैं उससे यह साफ हो जाता हैं कि जब सभी आत्माएँ
मौजूद ही हैं तो वर्तमान के लिए तो कोई बात हुई नहीं। रह गयी भूत और भविष्य
की बात सो तो साफ ही कह दिया हैं कि न तो पहले ही ऐसा कोई समय था जब हम सभी
मौजूद न थे और न आगे ही ऐसा वक्त होगा जब हम न रहें। नतीजा यह हुआ कि जो
पदार्थ सभी समयों में रहे वह तो नित्य एवं अविनाशी ही हुआ। नित्य या
अविनाशी का लक्षण ही यही हैं कि जो तीनों कालों में-सदा-रहे। फिर आत्मा के
मरने का सवाल आता ही कहाँ से हैं?
मरने का अर्थ ही हैं न रहना,
और आत्मा को तो आगे भी सदा रहना ही हैं।
यदि किसी का ख्याल हो कि पहले वाली आत्मा दूसरी थी,
वर्तमानवाली और ही हैं और आगे तीसरी ही होगी। भूत,
वर्तमान,
भविष्य में एक ही कैसे रहेगी?
भूत,
वर्तमान और भविष्य की शरीरें तो निश्चय ही तीन हैं। फिर उनमें रहने वाली
आत्माएँ भी तीन क्यों न हों?
तो उसका उत्तर यह हैं कि-
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिध्रस्तत्र
न मुह्यति॥13॥
जिस तरह आत्मा या जीव के इस शरीर की लड़कपन,
जवानी,
बुढ़ापा (ये तीन दशाएँ होती हैं),
ठीक उसी तरह दूसरी देहों-जन्मों की प्राप्ति भी हैं। (इसलिए) उस बात में
समझदार (कभी) धोखे में नहीं पड़ता हैं।13।
इसके सम्बन्ध में ज्यादा बातें पहले ही कही जा चुकी हैं और यह बात खूब साफ
की जा चुकी हैं। कहने का निचोड़ यही हैं कि जिस प्रकार इस जन्म में बालपन,
बुढ़ापा और जवानी के तीन विभिन्न एवं भूत,
वर्तमान तथा भविष्य कालवर्ती शरीरों में एक ही आत्मा सभी मानते हैं,
जरा भी शक नहीं करते और न धोखे में पड़ते हैं। ठीक उसी प्रकार तीन या ज्यादा
जन्मों की भूत,
वर्तमान और भावी देहों में भी एक ही आत्मा क्यों न मानी जाये?
तर्क-युक्ति तो दोनों जगह एक ही हैं। एक शरीर की तीनों अवस्थाएँ भूत,
वर्तमान और भविष्य की तो हुईं। बाल्यावस्था की अपेक्षा यद्यपि जवानी एवं
बुढ़ापा भविष्य की चीजें हैं। फिर भी बाल्य के गुजरने पर जवानी ही वर्तमान
होती हैं,
बालपन भूत और बुढ़ापा भावी। श्लोक में तीन अवस्थाएँ जो शरीर की दिखाई गयी
हैं वह एक दूसरे से बिलकुल ही जुदी हैं और उन्हीं में सारा शरीर गुजर जाता
हैं। इन तीन अवस्थाओं से यहाँ कोई खास मतलब यह नहीं हैं कि कितने वर्ष तक
कौन सी रहती हैं। यहाँ बाल की खाल खींचना हैं नहीं।
इस प्रकार तर्क दलीलों से आत्मा की अमरता सिद्ध हो गयी। मगर संसार का काम
सिर्फ तर्क दलीलों से ही तो नहीं चलता। यहाँ तो कुछ ठोस बातें हैं जिनसे
इन्कार किया जा सकता हैं नहीं,
और उन्हीं के अनुसार यह बराबर देखा जाता हैं कि प्रियजनों के संयोग-वियोग
से सुख-दु:ख होते ही हैं। चाहे आत्मा अमर हो या उससे भी बढ़ के हो। मगर
शरीरान्त होने पर सगे-सम्बन्धियों को अपार कष्ट होता ही हैं,
और यही बात इस युद्ध के चलते विस्तृत रूप में होने वाली हैं। फिर क्यों न
इससे किनाराकशी की जाये?
भीष्मादि कहने से शरीर भी तो लिये ही जाते हैं और उनका नाश होता ही हैं।
इसी बात का उत्तर यों देते हैं-
मात्रस्पर्शास्तु
कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥14॥
हे कौन्तेय,
भौतिक पदार्थों के सम्बन्ध सर्दी-गर्मी की तरह कभी सुख और कभी दु:ख देते
रहते हैं (जरूर)। मगर यह ठहरे तो आने-जाने वाले ही और इसीलिए चन्दरोजा ही।
(अतएव) इन्हें तो बर्दाश्त करना ही होगा हे भारत!।14।
मात्र स्पर्श ही गीता (5।21-22)
में बाह्य स्पर्श कहा हैं। स्पर्श नाम हैं सम्बन्ध का। बाह्य कहते हैं
भौतिक को। वहीं देखने से यह साफ हो जाता हैं।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥15॥
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ,
सुख-दु:ख में एक रस रहने वाले जिस पुरुष को ये पदार्थ उद्विग्न नहीं कर
पाते वही अमृतत्व-मुक्ति-प्राप्त करता हैं।15।
'सम
दु:ख-सुख'
का यह मतलब नहीं कि दोनों को एक बना दें। ऐसा तो होना असम्भव हैं। दोनों दो
चीजें हैं। फिर एक कैसे होंगी?
यह भी न कि दु:ख या सुख जरा भी मालूम ही न हों। चेतन पुरुष के लिए यह भी
अनहोनी चीज हैं। किन्तु जैसे पानी की लकीर बनते ही मिट जाती हैं ठीक वैसे
ही दिल-दिमाग पर जब ये दोनों नाममात्र का ही असर करें तभी मनुष्य सम
दु:ख-सुख कहा जाता हैं। सारांश यह कि दिल-दिमाग की गम्भीरता
(serenity or balance)
को ये बिगाड़ न सकें। यही गीता का साम्यवाद
हैं
जो अभी पहली बार आया
हैं।
इस प्रकार आत्मा को अविनाशी या नित्य और शरीरादि को अनित्य तो बता दिया।
इससे काम भी चल गया। मगर कौन-सा पदार्थ नित्य और कौन-सा अनित्य हैं इसे कौन
जानें?
हरेक पदार्थ को गिन-गिन के देखना और समझना तो असम्भव हैं। क्योंकि पदार्थ
ठहरे अनन्त। फिर सभी को जाना कैसे जाये?
और अगर किसी को न जान सके तो उसी को लेकर भ्रम और गड़बड़ हो सकती हैं कि यही
आत्मा तो नहीं हैं?
इस तरह अनिश्चय का वायुमण्डल बना रह सकता हैं। फलत: पूर्व के प्रतिपादन से
पूरा काम चलता दीखता नहीं। इसीलिए एक तो नित्य और अनित्य या सत्य और मिथ्या
के बारे में कोई दार्शनिक नियम,
लक्षण तथा परिभाषा चाहिए। ताकि बेखटके पहचान हो सके। दूसरे,
आत्मा की पहचान भी पक्की होनी चाहिए कि वह कौन हैं। नहीं तो शायद घपला हो
जाये। ऐसे मामले में जितनी सफाई हो जाये उतना ही अच्छा।
एक बात और भी हैं। ऐसी शंका कर सकते हैं कि यह क्यों न माना जाये कि इस
शरीर में जो आत्मा हैं उसका अस्तित्व इससे पहले न था?
वह अस्तित्व तो पहले-पहल इसी शरीर में ही आया हैं,
हुआ हैं। इसी तरह यह भी क्यों न मान लिया जाये कि इसी शरीर के अन्त के साथ
आत्मा का भी अन्त हो जाता हैं और आगे उसे पा नहीं सकते?
यह भी प्रश्न हो सकता हैं। अतएव इसका पूरा-पूरा समाधन हो जाना जरूरी हैं।
आगे के
16वें
से लेकर
25वें
श्लोक तक यही बात समझाई गयी हैं। उसमें भी पहले शुरू किया हैं इस आखिरी
शंका को ही लेकर कि इस शरीर में जो आत्मा हैं वह पहले न थी।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्तवदर्शिभि:॥16॥
जो पदार्थ पहले न हो उसका अस्तित्व हो ही नहीं सकता-वह बनी नहीं सकता,
(और)
जो मौजूद हैं-सत्तावाला हैं-उसका नाश या खात्मा भी नहीं हो सकता। इन दोनों
बातों का निर्णय तत्त्वदर्शी लोगों ने (ही) कर दिया हैं।16।
यहाँ अन्त शब्द तत्त्वदर्शी शब्द के साथ होने से निश्चय या निर्णय के ही
अर्थ में आया हैं। क्योंकि तत्त्वदर्शी तो दार्शनिक होते हैं। जिस बात का
आखिरी फैसला वाद-विवाद के बाद कर लेते हैं उसे ही सिद्धान्त,
राद्धान्त तथा कृतान्त भी कहते हैं। इन तीनों शब्दों का एक ही अर्थ हैं। वह
यह हैं कि जिन पदार्थों के बारे में अन्त या अन्तिम बात हो चुकी,
फैसला हो चुका वही सिद्धान्त हैं।
'सांख्ये
कृतान्ते'
(18।13)
में कृतान्त शब्द और उसके अन्त शब्द का यही अर्थ हैं।
इस तरह सिद्ध हो जाता हैं कि यदि आत्मा नाम का कोई पदार्थ पहले न होता तो
उसका अस्तित्व इस शरीर में होता ही नहीं। इसी तरह जब यहाँ वह हैं तो आगे भी
रहेगा। क्योंकि जो चीज हैं वह खत्म हो नहीं सकती। इसलिए आत्मा अनित्य हैं।
उसकी पहचान यों हैं-
अविनाशि तु तद्विद्धि
येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्त्तरुमर्हति॥17॥
अविनाशी तो वही वस्तु-आत्मवस्तु-जानो जो इस समूचे जगत को फैलाती,बनाती
हैं और जो इसमें व्याप्त हैं-इसकी रग-रग में घुसी हैं। इस
अविनाशी-निर्विकार-का नाश कोई भी कर नहीं सकता।17।
जो सभी पदार्थों का स्व हैं,
निजी रूप हैं,
अपना रूप हैं,
स्वरूप हैं वही तो उसकी आत्मा हैं,
सबकी आत्मा हैं। यह स्व कहाँ नहीं हैं?
यह तो सभी जगह हैं,
सभी में हैं। आखिर अपना तो सभी का कुछ न कुछ होता ही हैं। इसीलिए वह आत्मा
अविनाशी हैं। क्योंकि स्व तो रहेगा ही। और नहीं,
तो जो पदार्थ नष्ट होगा उसके नाश की हस्ती,
सत्ता तो रहेगी ही और वह भी तो स्व हैं। कभी पदार्थ के रूप में वह स्व,
वह आत्मा नजर आती हैं तो कभी पदार्थ के नाश के रूप में कभी विधि रूप में
(Positively)
तो कभी
निषेध
रूप में
(negatively)।
इसीलिए तो उसे अविनाशी और नित्य मानना ही होगा। ऐसा तो
हो ही
नहीं सकता कि कभी यह स्व,
यह आत्मा
रहेगी
न। क्योंकि जब कुछ न होगा,
तो और नहीं तो न होने का स्व या अस्तित्व तो रहेगा ही।
कम से कम उसे तो उस समय मानना ही होगा। नहीं तो यह कहेंगे कैसे कि कुछ नहीं
रह गया
हैं?
इसीलिए उसे नाश की आत्मा मान के नित्य और अविनाशी मानते
हैं। जब विधि
और
निषेध
उसी के रूप हैं और सभी पदार्थ भी उसी के हैं तो यह भी ठीक ही
हैं
कि उसी ने सबका प्रसार किया
हैं,
जगत
का यह ताना बाना फैलाया
हैं।
मगर शरीर,
घड़ा,
कपड़ा,
रोटी,
जमीन वगैरह की क्या हालत हैं?
ये तो सर्वत्र फैले हैं नहीं। शरीर में कपड़े का,
कपड़े में शरीर का पता कहाँ हैं?
दोनों में घड़े का और घड़े में भी दोनों की सत्ता हैं कहाँ?
इसी प्रकार सभी पदार्थों को एक-एक करके देख सकते हैं। यहाँ तो अपनी-अपनी
डफली बज रही हैं। किसी का किसी से ताल्लुक नहीं हैं,
नाता-रिश्ता हुई नहीं। सभी अपने ही तक सीमित हैं। यह तो घोर विभिन्नता हैं,
अजीब जुदाई हैं,
निराली फूट हैं। यह अनोखा गृहयुद्ध
(Civil war)
हैं भयंकर गृहकलह
हैं।
यही तो वास्तविक कौरव-पाण्डव का महाभारत
हैं।
यहाँ कोई किसी को पूछता नहीं। फलत: सभी आपस में एक दूसरे से टकरा के खत्म
हो जाते हैं। कभी घड़े से टकरा के शरीर खत्म होता
हैं,
तो कभी शरीर से टकरा के घड़ा और दोनों से टकरा के कपड़ा।
यही हालत सभी पदार्थों की
हैं।
ठीक ही
हैं।
मेल में,
ऐक्य में जीवन
हैं,
जिन्दगी
हैं,
सृष्टि
हैं।
परमाणुओं का परस्पर या प्रकृति का पुरुष से संयोग होने से ही मेल होने से
हो तो सृष्टि होती
हैं।
विपरीत इसके उनकी जुदाई या पार्थक्य होने से ही प्रलय होती
हैं,
विनाश होता
हैं।
जब गुण आपस में मिलते हैं तभी सृष्टि होती
हैं
और ज्योंही तन गये कि प्रलय आ धमकी। यही बात
जगत
के सभी पदार्थों की
हैं।
मगर इन
सभी
के भीतर मालिक बनके स्व बैठा
हैं,
आत्मा मौजूद
हैं
और इन बच्चों के घरौंदों के बनने-बिगड़ने का तमाशा देख रही
हैं।
वह निरन्तर न रहे तो आखिर यह तमाशा देखे कौन?
यही बात इस तरह कहते
हैं-
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माषुधयस्व भारत॥18॥
इन शरीरों के मालिक अविनाशी तथा अचिन्त्य (आत्मा) के ये शरीर तो विनाशी ही
कहे गये हैं-माने गये हैं-। इसलिए युद्ध करो हे अर्जुन!
18।
जब इन शरीरों का नाश होना ही हैं तो फिर युद्ध में आनाकानी क्यों?
ये शरीर अगर लड़ाई में खत्म न हुए तो कहीं और ही जगह दूसरी ही चोट खा के या
बीमारी से ही खत्म होंगे ही। और नहीं तो बिजली गिरने,
पानी में डूबने या हिंसक जानवरों के आक्रमण से ही खत्म होंगे। तब हर्ज ही
क्या कि यहीं रणांगण में खत्म हों?
फर्क इतना ही हैं कि यहाँ
''समर
मरण अरु सुरसरि तीरा। राम काज क्षणभंग शरीरा।''
हैं। यहाँ मरने से यश हैं,
शान हैं,
कर्तव्य पालन का सन्तोष हैं,
मनस्तुष्टि हैं,
और अन्त में सद्गति हैं। मगर और जगह दूसरी तरह मरने में यह बात नहीं होने
से जबर्दस्त घाटा हैं। इसलिए जरूर लड़ो।
आत्मा को जो अप्रमेय कहा हैं और जिसका अर्थ हैं कि बुद्धि या दिमाग भी जिसे
पकड़ नहीं सकता,
जो उसकी भी पहुँच के बाहर की चीज हैं,
उसका मतलब साफ हैं। यदि वह किसी की पकड़ या कब्जे में आ जाये तो एक तो उसका
स्वातन्त्रय जाता रहे। दूसरे पराधीन होने पर वह जिसके अधीन होगी उसके हाथों
उसका सब कुछ किया जा सकता हैं,
यहाँ तक कि खात्मा भी। दिमाग या बुद्धि आदि भी तो शरीर आदि की तरह भौतिक
पदार्थ ही ठहरे,
जिनकी अपनी-अपनी खिचड़ी अलग पकती रहती हैं। इसीलिए उनका खात्मा भी होता हैं।
और अगर आत्मा भी उनकी मातहती में आ जाये तो वह कैसे बच पायेगी?
तब तो उसकी खैरियत न होगी लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी हैं। बुद्धि भले ही
चली जाये,
खत्म हो जाये। मगर उसके स्व को निषेध रूप में रहना ही हैं और वही स्व हैं
आत्मा। फिर आत्मा बुद्धि के पंजे में कैसे रहे?
वह तो साफ ही उसकी पहुँच से बाहर हैं। यही कारण हैं कि उसके बारे में
तरह-तरह के ख्याल होते हैं। कोई उसे मरणशील मानता हैं,
तो कोई उसे मारनेवाली ही कहता हैं। कोई नित्य मानता हैं,
तो कोई अनित्य। जब बुद्धि ठोकरें खा के वहाँ तक पहुँची नहीं सकती,
तो आखिर और हो ही क्या सकता हैं?
जब वहाँ तक बुद्धि पहुँचती ही नहीं तो उसे मारने-मरने वाली कहना केवल
नादानी हैं,
उल्टी बात हैं। क्योंकि इससे तो ऐसा हो जाता हैं कि बुद्धि ने उसे पहचान
लिया हैं,
उसकी हकीकत जान ली हैं,
वह उस तक पहुँच चुकी हैं। मारने-मरने की बात तो शरीरादि में ही हैं और यह
हैं आपसी टक्कर,
जैसा कि अभी कहा हैं। आत्मा में यह बातें मानना कोरा अज्ञान हैं,
मूर्खता हैं। यही बात आगे यों लिखी हैं-
य एनं वेत्ति
हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥19॥
(इसलिए)
जो इस आत्मा को मारनेवाली मानता हैं और जो इसे मरनेवाली समझता हैं उन दोनों
ही को असलियत मालूम नहीं हैं। क्योंकि यह तो न मारनेवाली हैं (और) न
मरनेवाली।19।
न
जायेते
म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥20॥
(क्योंकि)
यह (आत्म वस्तु) न तो कभी जनमती हैं और न मरती हैं (और यह भी इसीलिए कि) यह
पहले न रह के पीछे होती जो नहीं और हो के उसके बाद नहीं रहती भी नहीं।
इसीलिए यह जन्मरहित,
नित्य-काल से जो घिरी न हो-हमेशा रहने वाली और प्राचीन (से भी प्राचीन) चीज
हैं (जो) शरीर नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती।20।
इसमें एकाध बातें कुछ समझने की हैं,
हालाँकि वह नई नहीं हैं। जो बात
'नासतो
विद्यते'
में कही जा चुकी हैं वही यहाँ दूसरे शब्दों में कही गयी हैं। श्लोक के
पूर्वार्ध्द के आधे में आत्मा के जनमने-मरने का निषेध हैं। शेष आध में उसका
कारण दिया गया हैं। जन्म लेने का मतलब ही हैं पहले न रह के पीछे होना या
अस्तित्व में आना। परन्तु आत्मा में यह बात नहीं हैं। वह तो पहले भी थी ही।
फिर उसका जन्म हो कैसे?
इसी तरह मरने के मानी हैं कभी रह के बाद में न रहना। मगर आत्मा में तो यह
भी बात नहीं हैं। उसके कभी भी न रहने का तो सवाल ही नहीं हैं। तब उसका मरना
कैसे सम्भव हैं?
आत्मा को बुद्धि पकड़ तो सकती नहीं। फिर भी उधर जाने की कोशिश करती रहती
हैं। उसके लिए आत्मा तक पहुँचने की सीढ़ी यही हैं कि जो चीजें उसकी पकड़ में
आती जाये उन्हें छाँटती चली जाये। इसी को उपनिषदों में
'नेति-नेति'
की रीति या निषेध प्रक्रिया कहा हैं। इस तरह सब भौतिक पदार्थों को
छाँटते-छाँटते जो सभी का मूलाधार बच रहेगा आत्मा वही पदार्थ होगा। क्योंकि
निराधार तो कोई चीज होती नहीं। इस श्लोक के उत्तरार्ध्द में यही निषेधवाली
रीति का अनुसरण हैं। इसीलिए
'अज'
का अर्थ हैं जन्मरहित या जन्म लेने वालों से निराला। नित्य का अर्थ हैं जो
समय से बँधा न हो। अनित्य पदार्थों को समय घेरे रहता हैं,
वह समय के ही पेट में,
उसके भीतर रहते हैं। मगर आत्मा के बारे में यह बात नहीं हैं। नित्य शब्द
यद्यपि निषेध रूप में मालूम नहीं होता,
तथापि ऐसा ही अर्थ करना ही होगा। शाश्वत का भी यही अर्थ हैं। जब समय से
घिरा नहीं हैं तब उसे हमेशा रहने वाला कहने के मानी क्या हैं?
इसका सीधा अर्थ हैं कि वह समूचे समय से घिरा हैं। मगर यह बात पहले कथन के
विरुद्ध हो जाती हैं। जो समय से घिरा न हो वही समूचे समय से घिरा हो,
यह कुछ अजीब-सी बात हो जाती हैं। बात दरअसल यह हैं कि हरेक भौतिक पदार्थ
कुछ न कुछ समय से घिरे रहते हैं-किसी वक्त जन्म के कभी खत्म हो जाते हैं।
यह भी बात हैं कि समय तो उनके जन्म के पहले भी था और खत्म होने के बाद भी
रहता ही हैं। इसीलिए प्रत्येक भौतिक पदार्थों की यही बात हैं कि किसी न
किसी समय के ही भीतर रहते हैं। समूचे समय के भीतर कोई भी नहीं रहता हैं।
मगर आत्मा तो उनसे भिन्न हैं। क्योंकि निषेध की बात कह चुके हैं। इसीलिए
उसे समूचे समय से घिरी वस्तु या हमेशा रहने वाली कह देते हैं। न कि सचमुच
समय का अधिकार उस पर हैं। इसीलिए शाश्वत शब्द भी निषेधात्मक ही हैं। यही
हालत पुराण की भी समझिए। पीछे जितने पदार्थ मिलते जाते हैं सभी का निषेध
करते हैं कि यह आत्मा नहीं हैं यह आत्मा नहीं हैं। इस तरह पीछे बढ़ते जाने
पर जो पुरानी से भी पुरानी चीजें मिलें उनका भी निषेध करने के बाद अर्थत:
यह दिया जाता हैं कि वह तो पुरानों से भी पुरानी हैं। जब जन्म होता ही नहीं
तो खामख्वाह उसे पुराने से भी पुरानी कहना ही पड़ता हैं?
इस तरह अज और पुराण शब्द पीछे की तरफ जा के आत्मा को ढूँढ़ते और उसकी ओर
इशारा करते हैं। उत्तरार्ध्द का
'न
हन्यते'
आगे की तरफ जा के ढूँढ़ता और इशारा करता हैं और नित्य एवं शाश्वत शब्द बीच
में रह के वही काम करते हैं। जैसे आवश्यकता पड़ने पर यदि कोई चूहा किसी को
बिल्ली का परिचय कराना चाहे तो बिल्ली के निकट तो वह जा सकता नहीं;
किन्तु दूर से ही इशारा करता हैं कि देखा वह हैं,
वह या जैसे उल्लू पक्षी सूर्य की ओर इशारा करे;
ठीक उसी तरह बुद्धि आत्मा की ओर सिर्फ इशारा करती हैं कि देखो वह हैं,
वह । वह उसे ठीक-ठीक बता नहीं सकती।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥21॥
(इसलिए)
हे पार्थ,
जो पुरुष-मर्दाना-इस आत्मा को जन्मरहित,
विकार शून्य,
अविनाशी और काल के घेरे से बाहर जानता हैं-मानता हैं,
समझता हैं,
अनुभव करता हैं-वह (भला) किसे मरवाता (और) किसे मारता हैं?21।
अब यह प्रश्न होता हैं कि तो मरना-मारना आखिर कहते हैं किस चीज को?
दुनिया में मरने-मारने जैसी चीज नहीं हैं,
यह तो कही नहीं सकते हैं। यह तो आये दिन की चीज हैं,
हमारे रोज के व्यवहार की बात हैं। हम हमेशा ही यह मरा,
वह मरा,
इसने मारा,
उसने मारा,
फलाँ ने मरवाया,
की बातें करते ही रहते हैं। सभी लोग ऐसी ही बातें करते हैं। यह तो कही नहीं
सकते कि सबके-सब पागल हैं। इसलिए इतना तो मानना ही होगा कि यह कोई चीज हैं।
अब रही बात कि वह क्या चीज हैं?
और अगर यह कुछ भी हैं तो फिर उसके लिए चिन्ता-फिक्र करना मुनासिब ही हैं।
फिर भी इसकी चिन्ता न करके खुशी की चीज इसे कैसे मानें?
इसका उत्तर इस तरह देते हैं-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥22॥
जिस तरह पुराने कपड़ों को (खुशी-खुशी) छोड़ के (कोई भी कपड़ा पहने) आदमी दूसरे
नये कपड़े पहनता हैं। ठीक उसी तरह देह धारण करने वाली-देही-आत्मा पुराने
शरीरों को छोड़ के दूसरे नये शरीरों में पहुँचती हैं-उन्हें स्वीकार करती
हैं।22।
यहाँ कई बातों का ख्याल करना होगा। पहली बात तो यह कि जन्म-मरण नये-पुराने
कपड़े बदलने जैसी ही बातें हैं। जब ताजे से ताजे कपड़ों को भी खुशी-खुशी छोड़
के एकदम नये कपड़े पहनने में लोग आनन्द मनाते हैं तो मरने में गम क्यों
मनाया जाये?
यह तो उल्टी बात होगी। इस श्लोक में
'जीर्ण'
शब्द का फटा-पुराना अर्थ नहीं हैं। नये शरीरों का भी तो त्याग होता ही हैं
और नये कपड़ों का भी। महाभारत में अभिमन्यु जैसा कोरा जवान भी तो मारा गया
था। तो क्या उसके बारे में कोई और सिद्धान्त लागू होगा?
या कि उसके सम्बन्ध में गम मनाना ही ठीक था?
ये बातें तो ठीक नहीं। इसलिए जीर्ण शब्द का अर्थ हैं त्यागने के योग्य या
जिसके त्यागने का समय आ गया था।
'जृ'
धातु,
जिससे यह शब्द बना हैं,
का अर्थ भी वय की हानि ही हैं,
यानी अवस्था-उम्र-का पूरा हो जाना। जिसे छोड़ेंगे उसकी अवस्था तो छोड़नेवाले
के लिहाज से पूरी हो ही जाती हैं। या नहीं तो,
यों समझें कि अधिकांश लोग तो पुराने ही थे। इसीलिए जीर्ण शब्द प्रयुक्त हुआ
हैं। मगर पहली ही बात ज्यादा युक्तिसंगत लगती हैं।
दूसरी बात हैं नये शरीर के ग्रहण करने या जन्म लेने की। कोई ऐसा मान सकता
हैं कि पुराने के छोड़ने और नये कपड़े के पहनने में तो देर नहीं लगती। किन्तु
छोड़ने के बाद फौरन ही नया पहन लेते हैं। बीच में समय गुजरने पाता ही नहीं।
जब यही उदाहरण दिया गया हैं मरने और जनमने का,
तब तो नया जन्म भी फौरन ही होना चाहिए। बीच में जरा भी समय नहीं लगना
चाहिए। लेकिन यह समझ गलत होगी। कपड़े का दृष्टान्त केवल इसी मानी मानी में
दिया हैं कि एक तो कपड़ेवाले की ही तरह शरीर वाला-देही-जीव शरीर से जुदा
हैं। दूसरे वह पुराने शरीर को छोड़ के नये को खुशी से स्वीकार करता हैं। बस।
इससे आगे दृष्टान्त का कोई भी मतलब नहीं हैं। नहीं तो हमें यह भी मानना पड़
जायेगा कि जैसे धोती वगैरह के बदलने में ऐसा होता हैं कि नई धोती को पहले
ऊपर से पहन लेते और पीछे पुरानी को हटाते हैं,
शायद उसी तरह जीव भी नये शरीरों को धारण करके ही पीछे पुराने शरीरों को
छोड़ता हो। और अगर इतनी दूर जाने की या तो जरूरत नहीं हैं;
या जाने में अड़चन हैं;
क्योंकि यह बात सरासर असम्भव हैं,
तो फौरन ही शरीर ग्रहण करने की बात तक जाने में भी वही अड़चन हैं। इसीलिए
वहाँ तक जाने की जरूरत नहीं हैं।
हमने जो यह कहा हैं कि नये शरीरों को धारण करने के बाद ही पुरानों के छोड़ने
की भी कल्पना की जा सकती हैं,
वह केवल कल्पना ही नहीं हैं और न गीता के इस श्लोक से ही उसकी सम्भावना
मानी जाती हैं। वृहदारण्यक उपनिषद के चौथे अध्याय के चौथे ब्राह्मण के
तीसरे मन्त्र में जोंक या कीड़े का दृष्टान्त देकर कहा गया हैं कि जिस
प्रकार एक तृण पर रेंगने वाला कीड़ा जब उसके आखिरी सिरे पर पहुँचता हैं तो
जब तक दूसरे तृण का सहारा उसे न मिल जाये पहले तृण से अपने शरीर को कभी
नहीं समेटता हैं,
हटाता हैं। ठीक उसी तरह इस शरीर के त्याग के बारे में भी आत्मा की हालत
हैं। मगर यह बात कोई अक्षरश: लागू न कर ले,
इसीलिए आगे फौरन कह दिया हैं कि इस शरीर को छोड़ने के बाद अविद्या-सूक्ष्म
और कारण शरीर-का आश्रय ले के आत्मा दूसरे शरीर में जाती हैं-''तद्यथा
तृणजलायु का तृणस्यान्तं
गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसंहरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं
निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसंहरति।''
इसी कथन से समाधन भी हो जाता हैं। इस स्थूल शरीर के छोड़ने पर भी अविद्या
नामक अज्ञान तो रहता ही हैं। वही तो जन्म-मरण का कारण हैं। उसी अविद्या से
बना सूक्ष्म शरीर भी तो रहता ही हैं। उसी के आधार से आत्मा इस स्थूल शरीर
से बाहर जाती हैं और समय पा के दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करती हैं। गीता
के पन्द्रहवें अध्याय के
'ममैवांशो
जीवलोके'
(15।7-8)
आदि दो श्लोकों में साफ ही यह बात कही भी गयी हैं कि चक्षु आदि इन्द्रियों
और मन आदि को ही ले के वह जीव शरीर छोड़ता और नये शरीर में जाता हैं। यही
उसकी सवारी हैं। अपने लक्ष्य स्थान दूर देश में पहुँचने के लिए। हम भी यह
चीज पहले ही अच्छी तरह समझा चुके हैं। असल में फौरन ही दूसरे शरीर का मिलना
असम्भव भी तो हैं। कोई बने-बनाए शरीर में घुसा तो देते नहीं,
जैसी बनी-बनाई कोट में शरीर घुसाते हैं। शरीर तो गर्भ में बनता हैं। सो भी
पूरे दस महीने तक लग जाते हैं। मगर इस दस महीनों के पहले भी तो यह मानना ही
होगा कि यह जीव माता और पिता दोनों के ही रज-वीर्य में रहता हैं। तभी तो
दोनों के संयोग से बच्चे के शरीर का श्रीगणेश होता हैं।
फिर भी इतने से ही काम चलता नहीं। रज और वीर्य तो अन्न से बनता हैं। इसलिए
यह भी मानना ही होगा कि रज-वीर्य में जाने के पहले वह जीव अन्न में था जिसे
स्त्री-पुरुष दोनों ने खाया था। अब प्रश्न हैं कि अन्न में कहाँ से कैसे
आया?
इसका उत्तर छान्दोग्य,
वृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषदों में लिखी पंचाग्नि-विद्या के प्रकरण में
मिलेगा। वहीं लिखा गया हैं कि जीव मेघ में हो के वृष्टि के द्वारा अन्न या
फलादि में आता हैं। मेघ में भी क्रमश: चन्द्रलोक,
आकाश,
वायु और धूम में होता हुआ आता हैं। यह बात भी पहले कर्मवाद के प्रकरण में
विस्तार से लिखी जा चुकी हैं कि वह चन्द्रलोक में कैसे पहुँचता हैं। गीता
में भी उत्तरायण-दक्षिणायन मार्गों का जो वर्णन (8।24-25)
आया हैं उसमें लिखा हैं कि अग्नि,
धूम आदि के जरिए ही वहाँ पहुँचता हैं। यह तो बड़ी ही गम्भीर और अलौकिक बात
हैं। मगर हैं यह सही। इसी प्रकार कर्मों के चलते एक जगह शरीर छोड़ने के बाद
वही जीव हजारों कोस पर जा के जन्म लेता हैं। तब फौरन कैसे शरीर ग्रहण करेगा?
बीच में तो काफी समय जरूर ही लगेगा।
प्रश्न हो सकता हैं कि आत्मा का भी अन्त क्यों न हो जाये?
जब और चीजें खत्म होती हैं तो वह भी खत्म हो जाये,
नष्ट हो जाये। पानी में डूब के,
सड़ के,
आग में जल के,
हवा से सूख के या अस्त्र-शस्त्रदि की चोट से सभी पदार्थ नष्ट होते ही हैं।
तब यह क्या बात हैं कि आत्मा भी इसी तरह नष्ट नहीं हो जाती?
इसका उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि-
नैनं छिन्दन्ति
शस्त्रणि
नैनं दहति पावक:।
न चेनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥23॥
इसे शस्त्र काटते ही नहीं,
न अग्नि जलाती हैं। पानी भी भिगोता नहीं और न हवा सुखाती हैं।23।
(क्यों?
इसीलिए कि,-)
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥24॥
यह काटा जा सकता नहीं,
जलाया भी नहीं जा सकता। यह न (तो) भिगोया ही जा सकता हैं और न सुखाया जा
सकता ही हैं। (इसीलिए) यह (आत्मा रूप पदार्थ) समय के घेरे से बाहर,
सर्वत्र मौजूद,
सभी का आधार,
अचल और हमेशा रहने वाला हैं।24।
यहाँ सनातन शब्द का वही अर्थ हैं जो पहले शाश्वत का कह चुके हैं। इसी
प्रकार जो
'येन
सर्वमिदं ततम्'
(2।17)
में आत्मा का सब पदार्थों में घुसा रहना कहा गया हैं वही सर्वगत के मानी
हैं। सभी के आधार की बात जो पहले आयी हैं वही स्थाणु का अर्थ हैं। सिर्फ
अचल शब्द नया हैं। मगर अव्यय शब्द पहले जा चुका हैं। उसके ही मानी में अचल
आया हैं। विकार या गड़बड़ होने के लिए पूरी वस्तु को या उसके कुछ हिस्से को
ही हिलाना-डुलाना जरूरी हो जाता हैं। जब तक उसमें चाल या क्रिया
(action)
न हो,
किसी तरह की भी गड़बड़ या खराबी-विकार-का होना असम्भव
हैं।
परन्तु जो
सर्वत्र
मौजूद
हैं
उसमें क्रिया होगी कैसे?
क्रिया का अर्थ ही
हैं
एक स्थान से दूसरे में पहुँचना या जाना।
श्लोक में जो अच्छेद्य आदि शब्द आये हैं उनका अर्थ हमने किया हैं काटा जा
सकता नहीं,
आदि। इन शब्दों के बनने में व्याकरण का जो
'ण्य'
प्रत्यय लगा हैं उसे कृत्य प्रत्यय कहते हैं और पाणिनि के
'शकि
लिङ् च'
(3।3।172)
सूत्र के अनुसार कृत्य और लिङ् प्रत्यय
'सकने'
अर्थ में भी आते हैं। यहाँ यही अर्थ ठीक बैठ जाता हैं भी। जब हथियार वगैरह
काट सकते ही नहीं,
जब उनकी ताकत ही नहीं कि आत्मा को काट सकें,
तो फिर काटें कैसे?
इस तरह पहले श्लोक में नहीं काटने आदि की जो बात कही गयी हैं उसका कारण इस
श्लोक में स्पष्ट कर दिया हैं। आखिर ये शस्त्रदि काट या जला भी सकें तो
कैसे?
जब यह आत्मा ही हैं तो जैसे हमारी और आपकी,
अर्जुन और कृष्ण की आत्मा हैं,
वैसे ही अस्त्र,
शस्त्र,
आग,
पानी,
हवा वगैरह की भी। यह तो सभी की स्व हैं,
सभी का स्वभाव हैं,
सभी का अस्तित्व हैं,
सत्ता हैं। तब यह कैसे हो कि अग्नि अपने आपको ही जलाये?
क्योंकि तब तो खुद अग्नि ही खत्म हो जायेगी न?
फिर औरों को जलायेगी कैसे?
जब वह रही ही नहीं,
जब उसका अस्तित्व रही नहीं गया तो वह जलाये किसे?
यही बात पानी,
हवा आदि की भी हैं। भला अपने आपको ही ये खत्म करें! यह हिम्मत किसे होगी?
यह तो सोचना भी भूल हैं।
पहले के
6
और
7
श्लोकों में जो
'भुंजीय',
'जयेम'
आदि में लिङ् आया हैं उसका भविष्य के अलावे यह
'सकना'
भी अर्थ हो सकता हैं। उसका तब यह मतलब होगा कि इन गुरुजनों को मार के
ज्यादे से ज्यादा खून से रँगे पदार्थों को भोग ही तो सकते हैं। और कौन कहे
कि कौन जीत सकता हैं?
हम जीत सकते हैं या वही लोग,
अभी से यह कौन बताये?
हाँ,
तो इस श्लोक में जो आत्मा को अचल कहा उसकी तो वजह साफ ही हैं। जब वह स्थूल,
या व्यक्त पदार्थ नहीं हैं जो इन्द्रियों के कब्जे में आ सके तो उसे
हिलाये-डुलायेंगे कैसे?
और जब वह बुद्धि की भी पकड़ के बाहर हैं तो यह बात और भी असम्भव हैं। इसलिए
उसे निर्विकार-विकारशून्य-ही मानना पड़ेगा। यही बात आगे इस तरह कहते हैं-
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥25॥
यह आत्मा व्यक्त (स्थूल पदार्थ-दृष्टि में आने वाली-तो) हैं नहीं और न
बुद्धि की ही पकड़ में आ सकती हैं। (इसीलिए) यह निर्विकार कही जाती हैं।
अतएव इसे इस तरह जान लेने पर तुम्हारा बार-बार रोना-धोना ठीक नहीं हैं।25।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥26॥
और अगर तुम इसे बराबर जनमने और मरने वाली ही मानते हो,
तो भी ओ बहादुर-शक्तिशाली भुजा वाले-तुम्हारा इस तरह अफसोस करना अच्छा नहीं
हैं।26।
पहले श्लोक में अनुशोचितम् में जो अनु शब्द आया हैं। उसी की जगह यहाँ
उत्तरार्ध्द में एवं आया हैं। उसका भी वही अर्थ हैं कि बार-बार शोक करना या
रोना-धोना ठीक नहीं हैं।
जातस्य हि धा्रुवो मृत्युधरा्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥27॥
क्योंकि पैदा होने वाले की मौत ध्रुव-अवश्यंभावी-हैं। मरे हुए का जन्म भी
ध्रुव हैं। इसलिए जिन बातों में किसी का वश हुई नहीं उन्हीं के बारे में
तुम्हारी यह चिन्ता-फिक्र कभी मुनासिब नहीं हो सकती हैं।27।
जब जन्म और मरण को कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती-जब ये दोनों बातें अनिवार्य
हैं-तो इनके बारे में हाय-हाय कैसी?
यदि आसमान के तारे टूटें और इससे हम लोगों का भारी नुकसान हो जाये,
या अगर भूकम्प से चारों ओर हड़कम्प पड़ जाये तो भी कोई समझदार हाय-हाय क्यों
करेगा,
कि उफ,
हम ये बातें रोक न सके?
इतना ही नहीं। जिन शरीरों के मरने या नष्ट होने का ख्याल करके हाय-तोबा का
यह पँवारा फैला रहे हो आखिर उनकी हकीकत भी तो देखो और विचारो। ये चीजें तो
सिर्फ
''चार
दिनों की चाँदनी''
हैं,
सपने की सम्पत्ति हैं,
जादूगर के तमाशे हैं। क्या यह नहीं होता कि सपने में भी हम बन्धु-बान्धावों
से मिलते-जुलते,
बातें करते और मौज करते हैं?
हम हजार कोस दूर कहीं पड़े हैं,
या जेल के भीतर बन्द हैं। फिर भी सपने में स्वजनों के साथ हमारा मधुर मिलन
तो हो ही जाता हैं और उससे आनन्द भी होता ही हैं । मगर एकाएक नींद खुली और
सब मजा किरकिरा! सभी प्रेमी,
स्वजन और गुरुजन गायब! ऐसी बेमुरव्वती की कुछ पूछिए मत! लेकिन क्या इसके
लिए हम माथा पटकते,
छाती पीटते या हाय-हाय करते हैं?
क्यों?
इसीलिए न,
कि यह मिलन कुछी देर पहले लापता था,
सपने में मिलने वाले ये स्वजन लापता थे,
नजर के ओझल थे,
दीखते न थे। फिर बीच में कुछ देर के लिए आ गये,
दिख गये,
मिल गये! और फिर?
फिर थोड़ी ही देर बाद एकाएक गायब हो गए,
लापता हो गए,
कहीं दीखते ही नहीं,
हजार ढूँढ़ो सही,
मगर मिलते ही नहीं! मालूम पड़ता हैं,
जिस अदर्शन से अव्यक्त दशा से व्यक्त हुए थे,
आये थे,
दीखने लगे थे,
पुनरपि उसी हालत में चले गये,
उसी अव्यक्त और अदर्शन में जा मिले!
इसीलिए महाभारत के अन्त के स्त्रीपर्व में अव्यक्त न कहके अदर्शन शब्द ही
आया हैं-''अदर्शनादापतिता:
पुनश्चादर्शनं गता:। न ते तव न तेषां त्वं तत्र का परिदेवना''
(2।13)।
इसका आशय यह हैं कि ये सभी अदर्शन से ही आये थे और पुनरपि वहीं चले गये। न
तो वाकई में ये तुम्हारे हैं और न तुम इनके। फिर इसमें अफसोस क्या?
इसी श्लोक का
'तत्रकापरिदेवना'
गीता के अगले श्लोक में भी हैं। हर्बर्ट स्पेन्सर
(Herbert Spencer)
नामक पश्चिमी दार्शनिक ने अपनी पुस्तक
'मूल सिद्धान्त'
(First
principles)
में यही बात यों लिखी
हैं
कि यदि किसी पदार्थ का पूरा परिचय प्राप्त किया
जाये
तो पता लगेगा कि वह किसी अदृश्य दशा से निकल के कुछ दिनों बाद फिर उसी दशा
में चला जाता
हैं-“An
entire history of anything must include its appearance out of the
imperceptible and its disappearance into the imperceptible” (page 253)
यही बात स्वयं कृष्ण इस तरह कहते हैं-
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमधयानि भारत।
अव्यक्तनिधानान्येव तत्र
का परिदेवना॥28॥
हे भारत,
सभी भौतिक पदार्थ आरम्भ में-पहले-अव्यक्त ही होते हैं,
अदृश्य ही रहते हैं,
बीच में व्यक्त और दृश्य होते हैं और अन्त में फिर खामख्वाह अदृश्य हो ही
जाते हैं। तब इसमें चिन्ता क्या?
28।
इस पर अब
एक ही बात उठती हैं और वह यह हैं कि-कहना-सुनना और तर्क-युक्ति तो यह सब
कुछ ठीक हैं और बात भी दर हकीकत यही हैं। मगर दिक्कत यही हैं कि हमें ऐसी
मालूम होती नहीं। अगर हमारे नित्य के अनुभव में यह चीज आ जाये तभी न हम
समझें कि दुरुस्त हैं?
नहीं तो जंगल में पका फल हमारे किस काम का?
उस
तक हमारी पहुँच हो तभी न हमारी भूख बुझे?
ये
सभी बातें तो सपने के साम्राज्य या बच्चों के खिलवाड़ की मिठाई जैसी ही हैं।
इसीलिए इनसे असली काम तो होता नहीं,
पेट तो भरता नहीं और यही हैं ठोस चीज। निरी बातों से तो कुछ होता जाता
नहीं।
और नहीं
तो कम से कम पढ़े-लिखों को तो इन बातों का अनुभव हो। नहीं तो कैसे जानें कि
ये चीजें सही हैं,
सत्य हैं?
बड़े-बूढ़े बतायें तो भी मान सकते हैं। मगर सो भी तो नहीं हैं। और यह बात भी
क्या हैं कि ऐसी खाँटी और पक्की चीज जनसाधारण की समझ में न आये?
वह
सौदा ही कैसा जो आम लोगों की पहुँच के बाहर हो?
वह
उनके किस काम का,
यों चाहे वह सोना ही क्यों न हो?
लाख अच्छा-भला क्यों न हो?
आखिर किसी वस्तु की सचाई-झुठाई की तराजू भी तो यह जनसाधारण का अनुभव ही हैं
और इस आत्मा के बारे में वही अनुभव लापता ठहरा! और हमें समझाना भी तो
जनसाधारण को ही हैं न?
तब
इसे क्योंकर माना जाये?
इसी का उत्तर आगे देते हुए कहते हैं कि यह कुँजड़े की साग-भाजी नहीं हैं कि
दर-दर मारी फिरे। यह तो जौहरी का अमूल्य रत्न हैं जिसे बिरले ही परख पाते
हैं-
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥29॥
इस (आत्मा) को जाननेवाला कोई बिरला ही होता हैं। (जानकर भी दूसरों को इसे)
बताने वाला तो (और भी) बिरला होता हैं। (यदि कोई बताने वाला हुआ भी तो)
इसके सम्बन्ध में बात सुनने वाला (तो उससे भी) बिरला होता हैं। (खूबी तो यह
हैं कि) इसे पढ़-सुन के भी कोई जानता ही नहीं-शायद ही कोई मुश्किल से जाने।29।
देही नित्यमवध्योऽयं
देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥30॥
(इसलिए
जब) हे भारत,
सभी के देह की मालिक यह (आत्मा) कभी भी मारी जा सकती हैं नहीं,
तो (नाहक) किसी भी भौतिक पदार्थ के बारे में तुम्हारा अफसोस करना अच्छा
नहीं हैं।30।
स्वधर्ममपि
चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धार्म्याद्धि
युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य
न विद्यते॥31।
अपने धर्म का ख्याल करके भी तुम्हारा (युद्ध से) डिगना उचित नहीं हैं।
क्योंकि क्षत्रिय के लिए (तो) धर्म-युद्ध से बढ़ के कोई चीज हो ही नहीं
सकती।31।
धर्मशास्त्र की बात पहले तो चला सकते न थे। क्योंकि अर्जुन स्मृतियों के
कोरे विधानों और आदेशों को आँख मूँद के मानने को तैयार न था। वह तो कोई
अनाड़ी या साधारण आदमी था नहीं कि स्मृतियाँ अपनी लाठी से उसे हाँक सकें। वह
तर्क-दलील की कसौटी पर कसके ही किसी चीज को भली-बुरी मानने को तैयार था।
इसीलिए कृष्ण ने पहले यही किया और दार्शनिक युक्तियों से उसे माकूल किया।
उसके बाद स्मृतियों के आदेश भी मजबूती के साथ काम कर सकते थे। इसीलिए पीछे
उनकी चर्चा भी दो श्लोकों में आ गयी हैं। मगर यह यों ही हैं। इसका कोई
स्वतन्त्र महत्त्व नहीं हैं। इसीलिए गीताधर्म या गीता की अपनी चीजों के
भीतर इसकी गिनती नहीं। यह वैसी ही बात हैं जैसी अपयश और मान-अपमानवाली
33-37
श्लोकों में कही बातें। वह तो गीताधर्म में आती हुईं नहीं,
यह निर्विवाद हैं। वे कही गयी हैं व्यावहारिकता की दृष्टि से ही अर्जुन में
केवल गर्मी लाने के लिए। गीता व्यावहारिक मार्ग को ही पकड़ के अपने लक्ष्य
की ओर अग्रसर होती हैं और यश-अपयश की बात सबसे ज्यादा चुभने के कारण ही
व्यावहारिक हैं।
धर्म-युद्ध कहने का मतलब यह हैं कि युद्ध के समय क्या किया जाये क्या न
किया जाये,
आदि बातों के लिए कुछ सर्वसम्मत नियम-कायदे हमेशा से माने जाते रहे हैं।
हेग की परम्परा
(Hague Convention)
के नाम से वर्तमान समय में भी ऐसी अनेक बातें सर्वमान्य समझी जाती हैं।
इन्हीं में घायलों की सेवा-शुश्रूषा,
युद्धबन्दियों
के साथ सलूक,
जो स्थान खुले
(open)
घोषित कर दिये गये उन पर आक्रमण न करना,
आम जनता
(Civil population)
पर प्रहार न करना जहरीली गैस का प्रयोग न करना आदि बातें आ जाती हैं।
हालाँकि अपनी-अपनी गर्ज से आज कभी इन नियमों में किसी को कोई तोड़ता
हैं,
तो किसी को दूसरा ही। फलत: नात्सी जर्मनी के इस युद्ध
में उसके पक्ष के
सभी
ने ही इन्हें तोड़-ताड़ के खत्म कर दिया
हैं।
महाभारत के भीष्म पर्व के देखने से पता चलता
हैं
कि युद्धारम्भ
के पहले ऐसे सभी नियम दोनों पक्षों ने साफ-साफ स्वीकार कर लिये थे। अतएव
इन्हीं नियमों के अनुसार होने वाले युद्ध
को
धर्मयुद्ध
और इन्हें तोड़-ताड़ के होने वाले को अधर्मयुद्ध
कहा
हैं।
यहाँ
धर्म
शब्द का दूसरा अर्थ असम्भव
हैं।
धर्मशास्त्र
में लिखा युद्ध
ही
धर्म
युद्ध
हैं
यह भी मतलब यहाँ नहीं
हैं।
सभी युद्ध
तो
धर्म शास्त्र
में ही लिखे रहते हैं। इसलिए जब तक उनके
सम्बन्ध
में लागू पूर्वोक्त नियमों को नहीं कहते तबतक
धर्मयुद्ध
कहना बेकार
हैं।
और जब स्वधर्म
कही चुके हैं,
तो फिर दुहराने का क्या प्रयोजन?
जो लोग यहाँ स्वधर्म की बात लिखी देख के इसकी मिलान आगे के
'कर्मण्येवाधिकारस्ते'
(2।47)
से करते हैं वह भी भूलते हैं। यह प्रकरण ज्ञान का ही हैं।
'ऐषा
तेऽभिहिता'
(2।39)
से ही कर्मयोग का प्रकरण शुरू होता हैं। इसलिए बीच में ही उसकी बात यहाँ
कैसे आ सकती हैं?
इसी प्रकार
'श्रेयान्
स्वधर्म:'
(3।35
तथा
18।47)
में भी स्वधर्म शब्द स्मृतियों के धर्मों के लिए ही नहीं आया हैं। वह तो
व्यापक अर्थ में कर्ममात्र का ही वाचक हैं। यह बात हम पहले ही अच्छी तरह
लिख चुके हैं। इन नियमों के साथ लड़ी जाने वाली लड़ाई भी धर्मशास्त्र-सम्मत
होनी चाहिए,
यही आशय यहाँ हैं।
'श्रेयस्'
शब्द के बारे में भी जान लेना चाहिए कि मोक्ष के अर्थ में उसका खासतौर से
प्रयोग गीता में कहीं शायद ही हुआ हो,
जैसा कि कठोपनिषद् के
'अन्यच्छे्रयोऽन्यदुतैव'
तथा
'श्रेयश्च
प्रेयश्च'
(1।2।1-2)
में आया हैं। तीसरे अध्याय के शुरू के दूसरे श्लोक के
'श्रेय:'
शब्द को कल्याण या मोक्ष के अर्थ में ले सकते हैं और इसका कारण भी आगे लिखा
हैं कि कहाँ ऐसा अर्थ होता हैं। मगर यहाँ कल्याण ही अर्थ उचित लगता हैं।
इसीलिए आगे
'श्रेय:
परमवाप्स्यथ'
(3।11)
में श्रेय: का विशेषण परं हो जाने से परमश्रेय या परमकल्याण का अर्थ मोक्ष
ठीक लगता हैं। क्योंकि वही तो आखिरी कल्याण हैं। असल में प्रशस्य शब्द से
ही यह श्रेयस् शब्द
'प्रशस्यस्य
श्र:'
(5।3।60)
पाणिनि सूत्र की सहायता से बनता हैं। इसमें प्रशस्य का अर्थ हैं प्रशंसनीय
या प्रशंसा के योग्य अर्थात् अच्छा। उसी से बने श्रेयस् शब्द का प्रयोग
करते हैं ऐसी ही जगह जहाँ कइयों में एक को अच्छा समझ के चुन लेना हो। इससे
स्वभावत: ज्यादा अच्छा सभी से अच्छा इसी मानी में श्रेयस् शब्द आता हैं और
हमने यही लिखा हैं। जब दो में एक को अच्छा लिखते हैं तो उतने ही से यह बात
अर्थात् सिद्ध हो जाती हैं कि वह बहुत अच्छा हैं। दूसरे की अपेक्षा कहने का
यही अर्थ होता हैं। गीता में आमतौर से ऐसा ही पाया जाता हैं भी। इसी के
अर्थ में
'विशिष्यते'
शब्द आया हैं। दोनों का ठीक-ठाक एक ही अर्थ हैं। हाँ,
जहाँ किसी का मुकाबिला न हो,
या दो में एक को चुनना न हो वहीं पर मोक्ष आदि अर्थ आते हैं,
जैसा कठोपनिषद् का दृष्टान्त दिया गया हैं। वहाँ श्रेयस् शब्द का स्वतन्त्र
प्रयोग हैं।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिन:
क्षत्रिय:
पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥32॥
हे पार्थ,
अकस्मात् या आप ही आप खुले स्वर्ग के द्वार के रूप में हाजिर इस तरह का
युद्ध तो खुशकिस्मत क्षत्रियों को ही मयस्सर होता हैं।32।
अथ
चेत्तवमिमं धार्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
तत:
स्वधार्मंर् कीत्तिं
च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥33॥
और अगर
तुम यह धर्मयुद्ध न करोगे तो अपने धर्म और कीर्ति दोनों को गँवा के (केवल)
पाप बटोरोगे।33।
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चराकीत्तिर्मरणादतिरिच्यते॥34॥
(इतना
ही नहीं),
लोग तुम्हारे अखण्ड अपयश-हमेशा रहने वाली बदनामी-की चर्चा भी करते रहेंगे।
और प्रतिष्ठित (पुरुष) के लिए (यह) अपयश तो मौत से भी बढ़कर (बुरा) हैं।34।
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।
षां
च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥35॥
(यही
नहीं),
महारथी लोग भी समझेंगे कि तू डर के मारे ही युद्ध से भाग गया हैं। (फलत:)
जो लोग (आज) तुझे ऊँची नजर से देखते हैं उन्हीं की नजरों में तू गिर
जायेगा।35।
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिता:।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम्॥36॥
(इसी
प्रकार) तेरे दुश्मन भी तुझे बहुत सी गालियाँ देंगे (और) तेरी ताकत की भी
शिकायत करेंगे। भला,
उससे बढ़ के बुरा और क्या हो सकता हैं?।36।
हतो
वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ
कौन्तेय युद्धाय
कृतनिश्चय:॥37॥
(यह
भी तो देख कि) यदि युद्ध में मर जायेगा तो स्वर्ग जायेगा और अगर जीतेगा तो
राजपाट मिलेगा। (इस प्रकार तेरे दोनों ही हाथों में लड्डू हैं।) इसलिए ओ
कौन्तेय,
लड़ने का निश्चय करके खड़ा हो जा-डट जा।37।
सुखदु:खे समे कृत्वा
लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो
युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥38॥
जय-पराजय,
हानि-लाभ और सुख-दु:ख में एक रस रह के युद्ध में डट जा। ऐसा होने पर तुझे
पाप छूएगा भी नहीं।38।
इसी श्लोक
के साथ ही अध्यात्म विवेक के प्रकरण का इस अध्याय में अन्त हो के आगे
कर्मयोग का प्रसंग शुरू होता हैं। उसके शुरू के आठ श्लोक भूमिका की तरह
हैं। नवें या गीता के
47वें
श्लोक में कर्मयोग का निरूपण शुरू हुआ हैं। इस श्लोक में भी समत्व या समता
की बात कही गयी हैं। जिसे समदर्शन भी कहते हैं। यह दूसरी बार समदर्शन की
बात आयी हैं। पहली बार,
जैसा कि कह चुके हैं,
15वें
श्लोक के 'समदु:खसुखं'
में आ चुकी हैं। इसलिए इस श्लोक का अर्थ समझने में उसे भी दृष्टि के सामने
रखना पड़ेगा,
खासकर उसके पूर्वार्ध्द
'यंहि
न व्यथयन्त्येते'
आदि को। नहीं,
तो
बहुत गड़बड़-घोटाला हो सकता हैं।
बात यह
हैं कि जब कम पानी वाले तालाब या गढ़े में मछुए मछली मारना चाहते हैं,
तो
उसके पानी को नीचे-ऊपर इतना ज्यादा हिला-डुला,
चला और मथ देते हैं कि पानी और कीचड़ मिल के एक हो जाते हैं। इससे मछलियाँ
घबरा के ऊपर आ जाती या थक-थका के ढीली पड़ जाती हैं। फलत: पहले की तरह तेजी
से ईधर-उधर भाग-फिर सकती हैं नहीं। इस तरह उनके पकड़ने में आसानी हो जाती
हैं और बात की बात में वे मछुओं के कब्जे में आ जाती हैं। नहीं तो उन्हें
पकड़ने में मछुओं को बहुत परेशानी होती हैं। इसी तरह दही को भी मथानी से ऐसा
मथ देते हैं कि पानी और दही एक हो जाते हैं। बन्दर जब किसी पेड़ पर पहले-पहल
चढ़ता हैं तो अकसर उसकी डालों को पकड़-पकड़ के झकझोर देता हैं और सारे पेड़ को
कँपा देता हैं,
बेचैन कर देता हैं। जब छोटा सा शिकार जबर्दस्त शिकारी कुत्तो के हाथ लगता
हैं तो उसे पकड़ के शुरू में ही वह ऐसा झकझोरता हैं कि शिकार के होश ही गायब
हो जाते हैं और कुत्ता उसे आसानी से खा जाता हैं।
यही दशा
मन की हैं। वह आत्मा को अपनी मर्जी के मुताबिक नचाने के पहले उसे अपने
कब्जे में सोलहों आना करना चाहता हैं और उसी की तरकीब करता रहता हैं।
मात्रस्पर्श या भौतिक पदार्थों के सम्बन्ध की जो बात पहले कही जा चुकी हैं
वह उसी तरकीब का एक भाग हैं। मन इन्द्रियों की पीठ ठोंकता हैं और वह
भले-बुरे सभी पदार्थों के साथ जुट जाती हैं। यही तो हैं मात्रस्पर्श।
गुरुजनों,
इष्ट-मित्रों,
बन्धु-बान्धावों एवं पुत्र-कलत्र आदि का ताल्लुक और हैं क्या यदि
मात्रस्पर्श नहीं हैं?
जो
सहृदय न हो,
जड़-पत्थर हो या पत्थर जैसा हो,
पागल हो उसमें या तो इन्द्रियाँ होती ही नहीं,
या
वह काम करती ही नहीं। इसीलिए वैसों को क्या सुख-दु:ख होगा?
इस प्रकार
मात्रस्पर्श होने के बाद ही बुरी-भली चीजों का अनुभव होता हैं उनकी जानकारी
होती हैं,
शत्रु-मित्र,
शीत-उष्ण,
अपने-पराए आदि की जानकारी होती हैं। जैसा कि आग को छूते ही गर्मी का अनुभव
हुआ करता हैं और बर्फ को छूते ही सर्दी का। उसी के बाद हाथ-पाँव जलते या
ठिठुरते हैं और फौरन तकलीफ या आराम का,
दु:ख और सुख का अनुभव होता हैं। फिर तो इन्सान या तो आनन्द में विभोर हो
जाता हैं,
या
कलेजा पीट के बेहोश। यदि सुख-दु:ख हल्के रहे तो यह बात कम हुई। मगर अगर
काफी हुए तो यह हालत भी परले दर्जे की हो गयी! मन के जाल की बात को लेकर हम
आनन्द-विभोरता या तकलीफवाली बेसुधी को ही यहाँ ले रहे हैं। इस तरह जब यही
बात बार-बार होने लगी तो मन ने समझ लिया कि आत्माराम पर हमारा पूरा कब्जा
हो गया। वह ताड़ जाता हैं कि अब तो बन्दर अच्छी तरह फँस गया,
इसलिए इसे जैसे चाहें नचा सकेंगे। युद्ध में भी पहले जय-पराजय,
बाद में लाभ-हानि और अन्त में सुख-दु:ख होता हैं जिसका जिक्र श्लोक में आया
हैं।
मगर ऐसा
भी होता हैं कि किन्हीं मस्तराम फकीर के पास चाहे आप अच्छी से अच्छी या
बुरी से बुरी चीजें लायें,
उन
पर उनका कोई असर होता ही नहीं! क्यों असल में वहाँ उल्टी बात जो हैं। कहाँ
तो दूसरों के मनीराम-मन-आत्माराम को नाचने और फँसाने की कोशिश में रहते तथा
सफल भी होते हैं और कहाँ मस्तराम के आत्माराम ने ही उलट के मनीराम पर मुसक
चढ़ा दी हैं। यहाँ तो मन ही मस्तराम के कब्जे में पड़ा रो रहा हैं। उसकी
आई-बाई ही हजम हैं। इसीलिए उसके सभी के सभी चेले-चाटी और दूत-मनहूस हैं,
बेकार सी पड़ी हैं। तब मात्रस्पर्श कैसे हो और आगे की लीला भी कैसे खड़ी हो?
यहाँ तो सारा नाटक ही बन्द हैं। यह भी नहीं कि मस्तराम पत्थर हैं या मुर्दा,
जिससे सुख-दु:ख आदि जानते ही नहीं। वह तो सब कुछ जानते ही हैं। मगर जान
लेना दूसरी चीज हैं और उसमें चिपक जाना निराली बात हैं। स्त्री को विरागी
भी देखता हैं और लम्पट भी। मगर दोनों के देखने में फर्क हैं-बहुत बड़ा
बुनियादी फर्क हैं। यही बात सुख-दु:खादि के मुतल्लिक भी हैं।
पन्द्रहवें श्लोक में जो
'व्यथयन्ति'
लिखा हैं वही इस फर्क को ठीक-ठीक बताता हैं। उसका अर्थ गढ़े के पानी या दही
के मथने और बन्दर या कुत्तो के झकझोरने के दृष्टान्त में बताया जा चुका
हैं। भौतिक पदार्थों के संसर्ग जिसे व्यग्र,
उद्विग्न,
परेशान या बेचैन नहीं कर सकते,
नहीं कर पाते वही सुख-दु:ख में सम हैं,
एक
रस हैं। समदु:ख-सुख हैं,
समदर्शी हैं। उसके दिल-दिमाग की गम्भीरता,
स्थिरता और एकरसता बिगड़ पाती नहीं। वह इन अन्धाड़-तूफानों के हजार आने पर भी
पर्वत की तरह अचल,
अटल रहता हैं,
न
कि घास-पात या पेड़-पल्लव की तरह काँपता और बेचैन हो जाता हैं। उसके
दिल-दिमाग की ममता और गम्भीरता (Serenity and balance)
कभी
बिगड़ती (upset)
नहीं।
फिर पाप-पुण्य का क्या सवाल?
ये तो बहुत नीचे दर्जे की चीजें हैं और वह इतना ऊँचा
उठा
हैं
कि जैसे चाँद को कोई छू नहीं सकता चाहे हजार कोशिश करे,
वैसे ही उसे पुण्य-पाप छू नहीं सकते,
उसके निकट फटक नहीं सकते। वह तो मस्त
हैं।
बेशक,
दुनिया की बेचैनी देख-देख के मुस्कुरा उठता
हैं,
कभी-कभी हँस देता
हैं।
इस चीज का ज्यादा विचार पहले ही हो चुका
हैं।
यहाँ
अधिक
लिखने की आवश्यकता नहीं
हैं।
एषा
तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगेत्विमां
शृणु।
बुद्धया
युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धां प्रहास्यसि॥39॥
यहाँ तक
(तो) आत्मतत्त्व की जानकारी-अध्यात्मज्ञान की खूबी और बारीकी- तुम्हें
बताई जा चुकी। अब योग की भी जानकारी-कर्म की पूरी जानकारी और उसकी
बारीकी-वाली वह बात भी सुन लो जिसके करते कर्मों के बन्धन से अपना पिण्ड
छुड़ा लोगे।39।
इस पर
बहुत अधिक बातें लिखी जा चुकी हैं। इसका स्पष्टीकरण भी बूखबी किया जा चुका
हैं। इसलिए यहाँ या आगे कुछ भी लिखना बेमानी हैं। फिर भी जिस कर्मयोग का
निरूपण आगे चल के
47वें
श्लोक में शुरू करेंगे वह सचमुच निराली चीज हैं,
गीता की अपनी खास देन हैं। इसीलिए और कहीं वह पायी जाती नहीं। अधूरी सी
कहीं मिले भी तो क्या?
सर्वांगपूर्ण कहीं भी नहीं मिलती। इसीलिए उसके पूर्व अर्जुन का दिमाग उसके
अनुकूल कर लेना जरूरी था। सर्वसाधारण परम्परा के अनुसार वह वैसी बात एकाएक
सुन के चौंक उठता कि यह क्या चीज हैं?
यह
तो अजीब बात हैं जो न देखी न सुनी गयी ऐसा ख्याल करके वह उस बात से हट सकता
था। कम से कम यह तो जरूर हो जाता कि उसका दिल-दिमाग उसमें पूरी तौर से लगता
नहीं। उसमें उसे चस्का तो आता नहीं,
मजा तो मिलता नहीं। फिर तो वैसे गम्भीर विषय को हृदयंगम करना असम्भव ही हो
जाता। इसीलिए उससे पहले के सात श्लोकों में उसी का रास्ता साफ कर रहे हैं।
कर्मकाण्ड
एवं धर्माधर्म के निर्णय तथा अनुष्ठान का सारा दारमदार सिर्फ
मीमांसाशास्त्र और मीमांसकों पर ही हैं। उनका अपना यही खास विषय हैं।
इसीलिए उन्होने इस सम्बन्ध की बहुत सी बातें लिखते हुए लिखा और माना हैं कि
कर्मों के करने में कौन-कौन से विघ्न होते हैं,
कैसा हो जाने पर सारा किया-कराया चौपट हो जाता हैं,
क्या हो जाने पर पुण्य के बदले पाप ही पाप हो जाता हैं और सांगोपांग कर्म
पूरा न हो जाने पर उसका फल नहीं मिलता। इस तरह की हजारों बातें और बाधाएँ
कर्ममार्ग में बताई गयी हैं,
खतरे खड़े किये गये हैं। यदि इनसे बचने का कोई भी रास्ता हो तो कितना अच्छा
हो?
तब तो लोग
आसानी से मीमांसकों का मार्ग छोड़ के वही मार्ग पसन्द करें। गीता ने लोगों
की इस मनोवृत्ति का ख्याल करके पहले तो यही किया हैं कि कर्मयोग में इन
खतरों का रास्ता ही बन्द कर दिया हैं। वहाँ थोड़ा-बहुत या अधूरा काम होने पर
भी न तो पाप का डर हैं,
न
विफलता की परेशानी और न दूसरी ही दिक्कत।
मीमांसकों
के मार्ग में दूसरी दिक्कत यह होती हैं कि उन्हें परेशानी बड़ी होती हैं।
पहले तो हजारों तरह के उद्देश्यों को ले के कर्म किये जाते हैं। फिर एक-एक
उद्देश्य की शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं और शाखा-प्रशाखाओं की भी
शाखा-प्रशाखाएँ। लोभ-लालच का कोई ठिकाना भी तो होता नहीं। ज्योंही सफलता
हुई या उसकी आशा नजर आयी कि नई-नई कामनाएँ पैदा होने लगती हैं। यह भी होता
हैं कि शक-शुबहे में कभी मन ईधर जाता हैं और कभी उधर-कभी आगे बढ़ने को
मुस्तैद होता हैं,
तो
कभी पीछे खिसक पड़ता हैं। इस तरह हजारों तरह की आशा-आकांक्षाओं,
कल्पनाओं एवं उमंग-मनहूसियों के घोर जंगल में भटकता रहता हैं और कभी भी चैन
मिलता नहीं। गीता ने इस सारी बला से भी बचने का रास्ता कर्मयोग को ही माना
हैं। उसने साफ कह दिया हैं। फिर तो लोग उधर उत्सुक होंगे ही।
मीमांसकों
की एक तीसरी चीज यह हैं कि वह स्वर्ग,
धन,
राज्य आदि सुख साधनों की गारण्टी करते हैं। वे कहते हैं कि विविध कर्मों के
अलावे दूसरा उपाय हुई नहीं कि ये सभी चीजें हासिल की जा सकें। यह भी नहीं
कि इन्हें कोई चाहता न हो। ये सभी लोगों की अभिलषित हैं। इसमें कोई भी शक
नहीं। परन्तु हजार युद्धादि के संकटों को पार करने पर भी इन सभी की गारण्टी
हैं नहीं। स्वर्गादि तो युद्ध से शायद ही मिल सकें। यह तो कर्म मार्ग ही
ऐसा हैं कि इन सभी पदार्थों को प्राप्त करवा देता हैं। उससे आसान रास्ता,
सभी बातों पर गौर करने के बाद,
दूसरा रही नहीं जाता।
बेशक उनकी
यह बात काफ़ी मोहनी रखती हैं। मगर गीता ने कह दिया हैं कि ये पदार्थ बड़ी
दिक्कत से यदि मिलें भी तो इनके लिए,
और
इनके परिणाम स्वरूप भी,
जन्म-मरण का सिलसिला निरन्तर लगा ही रह जाता हैं। जन्म-मरण के कष्ट किसे
पसन्द हैं?
यह
भी बात हैं कि मनोरथों में जब इस तरह मनुष्य फँस जाता हैं तो उसे कोई और
बात सूझती ही नहीं। स्वर्गादि की हाय-हाय के पीछे एक तरह से वह अन्धा हो
जाता हैं। उसे चैन तो कभी मिलता नहीं। यह करो,
वह
करो,
यह क्रिया
बिगड़ी,
उस
कर्म में विघ्न,
इसकी तैयारी,
उसकी पूर्ति की हाय तोबा दिन-रात लगी ही तो रहती हैं। अगर इतनी बेचैनी के
बाद यदि ये चीजें मिलीं भी तो किस काम की?
यह
भी बात हैं कि मिलने पर चस्का लग जाने से फिर जन्म,
पुनरपि क्रिया,
फिर मरण,
यह
ताँता टूटता ही नहीं। मनुष्य विषयासक्त हो के विवेक मार्ग से जानें कितनी
दूर जा पहुँचता हैं और कोई निश्चय कर पाता नहीं। मगर कर्मयोग इन सभी झंझटों
से पाक साफ हैं।
चौथी बात
उनकी यह हैं कि वेदों की आज्ञा जब यही हैं तो किया क्या जाये?
उनके आदेशों को कौन टाले?
हिम्मत भी ऐसी किसकी हो सकती हैं?
इसलिए चाहे हजार दिक्कत मालूम हो,
फिर भी इसमें आना ही पड़ेगा। इसका उत्तर गीता साफ ही देती हैं कि ये तो
सांसारिक झमेले हैं,
दुनिया की झंझटें हैं जिनमें ये कर्म हमें फँसाते हैं। हमें चैन लेने तो ये
देते नहीं। वेदों का काम भी तो यह आफत ही हैं न?
वह
भी तो इस त्रिगुणात्मक संसार में ही हमें फँसाते हैं। आखिर वह भी तो
त्रिगुण के भीतर ही हैं। इसीलिए तो
'मियाँ
की दौड़ मस्जिद तक'
ही
हैं। लेकिन जिसे दुनिया की,
सांसारिक पदार्थों की परवाह न हो वह क्या करे?
वह
इन वेदों के झमेले में क्यों पड़े?
वेदों से अभिप्राय हैं उसके कर्मकाण्ड भाग से ही। क्योंकि वही वेदों का
प्रधान भाग हैं-प्राय: सब कुछ हैं। ज्ञान काण्ड तो बहुत ही थोड़ा हैं-एक लाख
में सिर्फ चार हजार! वेदों के एक लाख मन्त्रों में पूरे छियानबे हजार
कर्मकाण्ड के और केवल चार हजार ज्ञानकाण्ड के माने जाते हैं।
'लक्षं
तु वेदाश्चत्वार:'
कहा हैं। गृहस्थों के यज्ञोपवीत के छियानबे चतुरंगुलों का अभिप्राय उन्हीं
छियानबे हजार से हैं। संन्यासी को यज्ञोपवीत नहीं हैं। उसका ताल्लुक चार ही
हजार से जो हैं और हैं वह छियानबे के बाहर! बस,
गीता ने कह दिया कि-''रहे
बाँस न बाजे बाँसुरी''।
संसार की त्रौगुण्य की परवाह छोड़ दो और वेदों के दायरे से बाहर आ जाओ। फिर
तो कर्मयोग का रास्ता साफ हैं।
ऐसी दशा
में आखिरी और पाँचवाँ सवाल यही हो सकता हैं कि इस प्रकार संसार के भौतिक
पदार्थों से लापरवाह होने से काम कैसे चलेगा?
वेदों का आश्रय लेते हैं क्या उन पर रहम करके,
या
किसी की मुरव्वत से?
उनके बिना हमारा काम चलता जो नहीं। वेदों में तो छोटे-बडे सभी कर्म आते हैं
और उनके बिना हमारी रोज की जरूरतें भी पूरी हो पातीं नहीं। जब हम संसार से
बिरागी हो जायेगे तो वेदों की परवाह नहीं करेंगे,
यह
कहना जितना आसान हैं इस पर अमल करना उतना ही सहज नहीं हैं। क्योंकि तब
हमारी जरूरतें कौन पूरा करेगा?
हमारी चीज-वस्तु की रक्षा भी कौन करेगा?
एक
यह बात भी हैं कि वैदिक कर्मकाण्ड से संकटों से तो हम जरूर बच जायेगे। मगर
उनके चलते जो आनन्द मिलता हैं उसकी कमी कैसे पूरी होगी?
वह
तो रही जायेगी न?
कर्मयोग के आनन्द में स्वर्ग का आनन्द कैसे मिलेगा?
यह
तो असम्भव हैं।
इसका सीधा
उत्तर गीता यही देती हैं कि इसमें सभी चीजें आ जाती हैं। कुएँ,
तालाब,
नदी वगैरह सभी का काम एक अकेला समुद्र जैसा लम्बा-चौड़ा जलाशय ही दे सकता
हैं। फिर इन चीजों को अलग जरूरत नहीं रह जाती। उसी प्रकार जिसने कर्मयोग का
रहस्य जान लिया उसे सभी वैदिक कर्मों के फलों की-आनन्द की प्राप्ति हो ही
जाती हैं। उसके भीतर अमृत-समुद्र की जैसी गम्भीरता होती हैं मस्ती रहती
हैं। फिर और चीजों की जरूरत ही क्यों हो?
जरूरत की चीजों की प्राप्ति और रक्षा-योग-क्षेम-भी होता ही रहता हैं। यह तो
आगे 'योगक्षेमं
वहाम्यहम्'
(9।22)
में कहा ही हैं।
यही पाँच
बातें,
या
यों कहिए कि मीमांसकों की पाँच मुख्य दलीलों के उत्तर क्रमश:
40
से 46
तक के सात श्लोकों में दिये जाके कर्मयोग की पूरी भूमिका तैयार कर दी गयी
हैं। इनमें पहले दो (40-41)
श्लोकों में क्रमश: पहली दो बातें आती हैं। फिर बाद के तीन (42-44)
श्लोकों में तीसरी आती हैं। अनन्तर
45वें
चौथी और 46वें
में पाँचवीं आ जाती हैं।
नेहाभिक्रमनाशाऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य
धर्मस्य
त्रयते
महतो भयात्॥40॥
इस (योग)
में (किसी भी) कदम-काम-का नाश तो होता नहीं-कोई भी कदम बेकार नहीं जाता,
इसमें पाप (का सवाल) हुई नहीं और इस (महान) धर्म का थोड़ा भी (अनुष्ठान)
(इसके करने वाले को) महान भय से बचा लेता हैं। अर्थात् इसमें कोई खतरा भी
नहीं हैं कि कहीं अधूरा रह जाने में उल्टा ही परिणाम हो जाये। इसका परिणाम
सदा ही सुन्दर होता हैं।40।
यहाँ
अभिक्रम का अर्थ हमने कदम किया हैं और यही अर्थ उस शब्द का दरअसल हैं भी।
कोई भी काम शुरू करने के मानी में कदम उठाना या बढ़ाना बोलते हैं। अंग्रेजी
में इसी को स्टेप (Step)
कहते
हैं। कहने का आशय यहाँ यही
हैं
कि इस कर्मयोग के सिलसिले में उठाया गया कोई भी कदम बेकार नहीं जाता। इसी
प्रकार
महान
भय से रक्षा का भी यही अभिप्राय
हैं
कि जैसे और कामों में खतरे हुआ करते हैं और अगर किसी आफत से बचने के लिए
कोई उपाय किया
जाये
तो जब तक वह पूरा न हो
जाये
उस आफत से छुटकारा नहीं होता,
सो बात यहाँ नहीं
हैं।
न तो यहाँ कोई खतरा
हैं
और न यही बात कि काम पूरा न हुआ तो आफत से पिण्ड न छूटेगा। यहाँ तक कि
आवागमन जैसे बड़ी से बड़ी बला से भी छुड़ा लेता
हैं
इस चीज का थोड़ा भी अनुष्ठान। फिर तो निर्वाणमुक्ति
ध्रुव
हो जातीहैं।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह
कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥41॥
हे
कुरुनन्दन (अर्जुन),
इसमें तो एक ही (तरह) की बुद्धि रहती हैं (सो भी) निश्चयात्मक।(विपरीत इसके
और मार्ग में) अनिश्चयात्मक बुद्धिवालों की बुद्धियाँ(एक तो) असंख्य होती
हैं। (दूसरे उनमें भी हरेक की) अनेक शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं।41।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।
वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥42॥
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥43॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तया पहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि:
समाधौ न विधीयते॥44॥
हे पार्थ,
वेद के कर्म-प्रशंसक वचनों को ही सब कुछ मान के उनके अलावे असल चीज दूसरी
हुई नहीं ऐसा कहनेवाले,
वासनाओं में डूबे हुए मनवाले और स्वर्ग को ही अन्तिम ध्येय माननेवाले
नासमझ लोग इस तरह के जिन लुभावने (वैदिक) वाक्यों को दुहराते रहते हैं उन
(वचनों का तो सिर्फ यही काम हैं कि) भोग और शासन की प्राप्ति के लिए ही
अनेक तरह के बहुत से कर्मों की बतायें। (इस तरह) उनका नतीजा यही हैं कि लोग
बार-बार जनमते तथा कर्म करते रहें। जिन भोग एवं शासन के लोलुप लोगों की
बुद्धि वैसे ही वचनों में फँस चुकी हैं। उनके दिमाग में तो (कभी)
निश्चयात्मक बुद्धि पैदा ही नहीं होती।42।43।44।
इन तीन
श्लोकों में जिन लोगों का सुन्दर चित्र खींचा गया हैं वही कर्मकांडी
मीमांसक लोग हैं। उन्हें नासमझ कहके फटकार सुनाई गयी हैं।
'अपाम
सोमममृता अभूम'-'सोमयाग
में सोम का रस पी के हम लोग अमर बन गये,'
स्वर्ग में देवताओं की इस तरह की गोष्ठी और बातचीत का उल्लेख ब्राह्मण
ग्रन्थों में पाया जाता हैं। कठोपनिषद् के प्रथमाध्याय की द्वितीयवल्ली के
शुरू के पाँच मन्त्रों में कल्याण या मोक्ष के मुकाबिले में स्वर्गादि
पदार्थों तथा उनके इच्छुकों की घोर निन्दा की गयी हैं। इसी प्रकार
मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मुण्डक के दूसरे खण्ड के शुरू के दस मन्त्रों में
विस्तार के साथ लिखा गया हैं कि कर्मकाण्डी लोग किन-किन कर्मों को कैसे
करते और उन्हें कौन-कौन से फल कैसे मिलते हैं। वहीं दसवें मन्त्र
'इष्टरापूत्तां
मन्यमाना वरिष्ठा:'
में 'प्रमूढ़ा'
शब्द आया हैं जो गीता के इन श्लोकों के
'अविपश्चित:'
के
ही अर्थ में बोला गया हैं। उस मन्त्र में जो बातें लिखी हैं उनका उल्लेख भी
कुछ-कुछ इन तीन श्लोकों में पाया जाता हैं। इनके सिवाय
'दर्शपूर्णमासाभ्यां
स्वर्गकामो यजेत्,'
'ज्योतिष्ठोमेन
स्वर्गकामो यजेत्',
तथा 'वाजपेयेन
स्वराज्यकामो यजेत्'
आदि ब्राह्मण वचनों में कर्मठों के कर्मों एवं उनके फलों का पूरा वर्णन
मिलता हैं। वहाँ इनकी प्रशंसा के पुल बाँधो गये हैं। इन्हीं प्रशंसक वचनों
को वेदवाद और अर्थवाद कहते हैं। इन्हें पढ़ के लोग कर्मों में फँस जाते हैं।
इसी का निर्देश इन श्लोकों में हैं। पूर्वोक्त मुंडक के वचनों में
'एक
ने प्लवाह्येते अदृढ़ा यज्ञरूपा:'
(1।2।7)
के
द्वारा इन यज्ञयागों को कमजोर नाव करार दिया हैं,
जिस पर चढ़नेवाले अन्त में डूबते हैं। गीता ने भी इसलिए इनकी निन्दा की हैं।
इनमें चसक
जाने पर मनुष्य को दूसरी बात सूझती ही नहीं। एक बार इन्हें करके जब इनके
रमणीय फलों को भोगता हैं,
या
ऐश्वर्य-शासन और इन्द्र आदि की गद्दी-प्राप्त कर लेता हैं तो फिर बार-बार
इन्हीं के करने पर उतारू होता हैं। यही चस्का हैं। इसका नतीजा यही होता हैं
कि जन्म ले के इन्हें करता,
मरके फल भोगता और चसक के स्वर्गादि फल भोगने के बाद पुनरपि जनमता और कर्म
करता हैं। यही चक्कर चलता रहता हैं। एक कोढ़ी और गन्दे स्वभाव के आदमी की
कहानी हैं कि वह साल भर में कभी शायद ही नहाता हो। जाड़ों में तो हर्गिज
नहीं। मगर घोर जाड़े में मकर की संक्रान्ति के दिन तड़के ही जरूर नहा लेता
था। क्यों?
क्योंकि उसने सुना था कि माघ के महीने में सूर्योदय के ठीक पहले पानी बहुत
तेज चिल्लाता हैं कि यदि महापापी भी हममें एक गोता लगा ले तो उसे फौरन
पवित्र कर दें-''माघमासि
रटन्त्याप: कि×चदभ्युदिते
रवौ। महापातकिनं वापि कं पतन्तं पुनीमहे।''
यही
हैं
वेदवादों और अर्थवादों की मोहनी शक्ति जिसका उल्लेख यहाँ
हैं।
इस श्लोक
में समाधि शब्द का अर्थ दिमाग या अन्त:करण लिखा गया हैं। अनेक माननीय
भाष्यकारों ने यही अर्थ किया हैं और यह घटता भी हैं अच्छी तरह। मगर समाधि
का अर्थ योग करना भी ठीक ही हैं।
'समाधिस्थस्य'
(2।54)
के
व्याख्यान में हमने इस ओर भी इशारा किया हैं। यहाँ
'समाधि
के लिए'
यही अर्थ 'समाधौ'
का
हैं जैसा कि
'यतते
च ततो भूय: संसिध्दौ''
(6।43)
में 'संसिध्दौ'
का
अर्थ हैं। 'संसिद्धि
के लिए'।
यहाँ अभिप्राय यही हैं कि आगे जिस योग का निरूपण हैं उसके लिए जो मूलभूत
जरूरी बुद्धि हैं वह ऐसे लोगों को होती ही नहीं।
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दूसरा अध्याय
(भाग-2)
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