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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-3 (गीता हृदय)

दूसरा-गीता भाग : तीसरा अध्‍याय

मुख्य सूची खंड - 1 खंड - 2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6


तीसरा अध्‍याय

तीसरे अध्‍याय का श्रीगेणश अर्जुन के प्रश्न से ही होता हैं। वह प्रश्न भी कर्म के ही बारे में किया गया हैं। इससे साफ हो जाता हैं कि दूसरे अध्‍याय के 39वें श्लोक में जिस योग या कर्मयोग के निरूपण का सूत्रपात किया गया था, वही उस अध्‍याय के अन्त तक होता रहा हैं। क्योंकि बीच में यदि कोई दूसरी बात खासतौर से आने को होती तो अर्जुन का यह प्रश्न यहाँ न हो के वहीं हो जाता। जब कर्म के ही सम्बन्ध में यह सवाल हैं तब तो उसका पूरा निरूपण हो जाने और उसके मुतल्लिक सारी बातें सुन लेने के बाद ही फौरन इसे आना चाहिए। नहीं तो यों ही हवाई बात होने के कारण प्रधान विषय से इसका ताल्लुक रही न जायेगा। इसीलिए और बातों के निरूपण का प्रसंग आते ही अर्जुन फौरन खामख्वाह यही प्रश्न पहले ही पूछ बैठता और इस प्रकार कृष्ण को मौका ही न देता कि दूसरा विषय छेड़ दें। क्योंकि तब तो कर्म की बात नीचे पड़ जाती और वह नया विषय ही ऊपर आ जाता। इसीलिए यह तो निर्विवाद हैं कि कर्मयोग वाली बात ही इसके पहले या यों कहिये कि दूसरे अध्‍याय के अन्त तक आयी हैं

    यह भी तो विदित हो ही चुका हैं कि इस कर्मयोग के निरूपण के सूत्रपात से लेकर अन्त तक जो बातें कही गयी हैं उन पर अध्‍यात्मज्ञान, तत्त्वविवेक, मनोनिरोध और मस्ती की मुहर कदम-कदम पर लगी हुई हैं। मालूम होता हैं कि ये सभी बातें कर्मयोग के प्राण की तरह, जीवन बिन्दु की तरह हैं। फलत: इनके अलग करते ही कर्मयोग कुछ रही नहीं जायेगा-वह निरा कर्म रह जायेगा। क्योंकि इन बातों को कर्मयोग से अलग करने का सीधा अर्थ हो जायेगा कर्मयोग से योग को ही निकाल के कर्म को उसी रूप में छोड़ देना और अकेले रहने देना जिस रूप में आमतौर से हमेशा से पाया जाता हैं। कर्म के उस रूप को ही ले के गीता ने अपने निराले करिश्मे और अलौकिक मन्तर-यन्तर के रूप में उसे परिमार्जित एवं शुद्ध करने का उपाय निकाला हैं। गीता के इस उपाय के पहले का कर्म खाँटी, लोहे या पारे के ढंग का हैं। जिसका जरा भी प्रयोग मारक बन जाता हैं, अनेक व्याधियों को पैदा करता हैं-जन्म-मरण के चक्र एवं उससे उत्पन्न संकटों का अनवरत प्रवाह जारी रखता हैं। गीता का उपाय उस लोहे या पारे को भस्म करके-मार के-अमृत बना देता हैं, रस बना देता हैं, जिसके सेवन से न सिर्फ व्याधियाँ दूर होती हैं, किन्तु अपार शक्ति मिल जाती हैं। इसीलिए कृष्ण ने इस उपाय की, इस तरकीब की, इस हिकमत और बुद्धि की-अक्ल और युक्ति की-खूब ही प्रशंसा की हैं कि इस बुद्धिरूप योग की अपेक्षा कर्म अत्यन्त तुच्छ हैं-'दूरेणह्यवरंकर्म' (249)। उसी श्लोक में इस योग, उपाय या हिकमत को बुद्धि ही कहा भी हैं। उसके पहले के 'यावानर्थ उदपाने' (246) में भी इस ज्ञान या बुद्धि की प्रशंसा की हैं और कहा हैं कि इसी से सब काम चल जाता हैं।

    इसी के साथ 'एषातेऽभिहिता' (239) में यह साफ ही कह दिया हैं कि दो मार्ग स्वतन्त्र रूप से पाये जाते हैं-एक हैं सांख्य या सांख्ययोग का मार्ग और दूसरा हैं योग या कर्मयोग का मार्ग। संक्षेप में इन्हें सांख्य और योग या ज्ञान और कर्म के मार्ग भी कहते हैं तथा ज्ञानयोग एवं कर्मयोग भी । यह भी साफ ही हैं कि कर्मयोग के मार्ग में भी यह ज्ञान लगा ही हैं। अर्जुन बहुत ज्यादा बारीकी समझ सका भी नहीं। उसने सीधे और साफ देख लिया कि ज्ञान या बुद्धिवाला सांख्य मार्ग हर तरह से उत्तम बताया गया हैं। उसके मुकाबिले में दूसरे या कर्म के मार्ग की कोई गिनती नहीं हैं। यदि कर्म कर्मयोग बन जाता भी हैं तो इस अध्‍यात्मज्ञान के करते ही। फिर तो निस्सन्देह यही सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ हैं, उसने यही निष्कर्ष निकाला। मगर इसी के साथ उसने यह भी देखा कि 'तस्माद्युधयस्व' (218), 'उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:' (237) तथा 'युद्धाय युज्यस्व' (238) में साफ ही मुझे युद्ध करने की आज्ञा दे के इस युद्धात्मक घोर कर्म में ही लगाया जा रहा हैं और बार-बार कहा जा रहा हैं कि सोच-फिक्र न कर, चिन्ता मत कर, आदि-आदि। वह कृष्ण को अपना सबसे बड़ा हितेच्छु मानता था। इसीलिए वह आगे-पीछा में पड़ गया कि यह क्या बात हैं? एक ओर तो ज्ञान मार्ग सर्वोत्तम बताया जा रहा हैं। दूसरी ओर मेरे लिए हिंसामय युद्ध ही कर्तव्य कहा जा रहा हैं! वह घबरा गया और इसी पसोपेश में पड़ के कुछ भी निश्चय न कर सकने के कारण कृष्ण से-

अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।

तत्कि कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥1

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुध्दिं मोहयसीव मे।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥2

    अर्जुन ने पूछा-हे जनार्दन, हे केशव, यदि कर्म की अपेक्षा बुद्धि-ज्ञान-को ही श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर (हिंसात्मक युद्ध जैसे) घोर कर्म में मुझे क्यों लगाते हैं? (असल में) आपके बीच-बीच में मिले-जुले वचनों से ऐसा मालूम पड़ता हैं कि जैसे मुझे घपले में डाल रहे हों। इसलिए पक्कापक्की निश्चय करके दोनों में एक को ही मुझे बताइये, जिससे मैं कल्याण प्राप्त कर सकुँ।12

    यहाँ कृष्ण पर दो इल्जाम लगे मालूम होते हैं। पहला यह कि साफ-साफ नहीं बोल के कभी ज्ञान की बात और बड़ाई करते हैं तो कभी कर्म की, और कभी फिर उलट के कर्म की, तब ज्ञान की। इससे सफाई तो हो पाती नहीं। किन्तु उल्‍टे सुननेवाला घपले में पड़ जाता हैं। इसीलिए दूसरा इल्जाम यही हैं कि बुद्धि को पसोपेश और घपले में डालते हैं। मगर असल में तो ये इल्जाम हैं नहीं। भला, अर्जुन जैसे शरणागत के साथ कृष्ण ऐसा क्यों करने लगे? वह तो किसी के भी साथ ऐसा नहीं कर सकते थे। फिर अर्जुन की तो बात ही जाने दीजिए। इसीलिए-और अर्जुन उन पर यह इल्जाम लगाता भी कैसे? यह तो बड़ी भारी गुस्ताखी और छोटे मुँह बड़ी बात हो जाती-इसलिए भी दूसरे श्लोक में दो बार 'इव' आया हैं, जिसका अर्थ यही हैं कि मुझे मालूम होता हैं कि आप ऐसा कर रहे हैं। हो सकता हैं, इसमें मेरी समझ का ही दोष हो। अर्जुन वह दोष अपने माथे पर ही लेने को तैयार भी था। क्योंकि वह तो शरणागत शिष्य बन चुका था। फिर दूसरी हिम्मत करता तो कैसे? इसीलिए वह अब ऐसी सफाई चाहता हैं जिससे बखूबी समझ जाये और सन्देह की गुंजाइश रही न जाये।

श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥3

    श्री भगवान ने उत्तर दिया-हे पापरहित (अर्जुन), इस संसार में दो प्रकार के मार्ग हमने पहले ही-पूर्व समय में-ही बताये हैं (एक तो) ज्ञानियों का ज्ञानयोग और दूसरा योगियों का कर्मयोग।3

    यहाँ 'पुरा' शब्द का कुछ लोग 'पहले' अर्थ करके दूसरे अध्‍याय में कही गयी दो निष्ठाओं या बताये गये दो मार्गों को ही पुरा शब्द से लेते हैं; क्योंकि तीसरे अध्‍याय के पहले वह बात आ चुकी हैं। मगर यह बात ठीक नहीं हैं। पुरा का अर्थ हैं असल में पूर्व समय में। यही अर्थ गीता में इसी पुरा शब्द का आगे दो बार माना भी गया हैं। वहाँ किसी ने भी इसका दूसरा अर्थ स्वीकार नहीं किया हैं। एक तो तीसरे ही अध्‍याय में ''सहयज्ञा: प्रजास्सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:'' (310) में और दूसरा ''यज्ञाश्च विहिता: पुरा'' (1723) में। गीता में तीन ही बार यह शब्द आया हैं। इसमें दो बार तो सभी ने 'पूर्व समय में' यही अर्थ करके ''सृष्टि के आदि या युगों के आरम्भ में'' यही मानी लगाया हैं। यही ठीक भी हैं। फिर दूसरा अर्थ हो गया कैसे? दूसरे अर्थ में तो यह भी दिक्कत हैं कि पुरा का अर्थ होगा पूर्व स्थान में। तभी तो 'दूसरे अध्‍याय में' यह अर्थ हो सकेगा। मगर 'पूर्व स्थान में' यह इस शब्द का अर्थ आज तक कहीं किसी ने माना ही नहीं हैं। यह भी दिक्कत हैं कि ऐसी दशा में 'लोकेऽस्मिन्' शब्द का कोई मेल खा सकेगा नहीं। क्योंकि दूसरे अध्‍याय ने तो साफ ही 'एषातेऽभिहिता' में 'तुझे कहा' ऐसा लिखा गया हैं। नहीं तो फिर वहाँ भी 'ते' की क्या जरूरत थी? वहाँ भी 'लोके' कह देते, ताकि यहाँ बेखटके वही मान लिया जाता। 'लोक एषोदिता साख्ये बुद्धिर्योगे त्विमांशृणु' ऐसा सुन्दर श्लोक भी अनायास बन सकता था। और अगर आगे लिखी कर्मयोग की परम्परा पुराने समय वाली ही मानी गयी हैं, तो कर्मयोग का उपदेश भी पुराने समय का ही क्यों न माना जाये? क्योंकि बिना ऐसा हुए उसकी परम्परा पुराने समय वाली कैसे होगी? फिर उसी का स्मरण यहाँ भी पुरा शब्द से क्यों न माना जाये? गीता में जहाँ पहले कही बात को ही याद कर लेना हो वहाँ तो 'पुरा' जैसा कोई शब्द न कह के केवल इतना ही कह देते हैं कि यह बात कह चुके हैं। जैसे ''दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु'' (166)। यदि ऐसी ही बात होती तो यहाँ भी वैसा ही कहते। उसी (166) श्लोक में पुराने जमाने की बात हैं उसे 'द्वौ भूतस्वर्गौ लोकेऽस्मिन्' (166) कहा हैं और वही 'लोकेऽस्मिन्' यहाँ भी हैं। फिर वैसा ही अर्थ यहाँ भी क्यों न हो?

    यहाँ निष्ठा का अर्थ हैं मार्ग या रास्ता, जिसे अंग्रेजी में कोर्स (Course) या प्रोसेस (Process) कहते हैं। स्कूल्स ऑफ थाट्स (School of thoughts) भी उसी को कहा जाता हैं। निष्ठा का शब्दार्थ हैं किसी बात में अपने को लगा देना, अर्पित कर देना, उसी में जीवन गुजार देना। ये दोनों मार्ग और दोनों विचारधाराएँ ऐसी हैं जिनमें एक-एक में जाने कितने सहस्र, कितने लक्ष महापुरुषों ने अपने जीवन लगा दिये हैं, अपने को मिटा दिया हैं। इसका जिक्र आगे चौथे अध्‍याय में हैं। महाभारत तथा अन्यान्य ग्रन्थों एवं उपनिषदों में भी इसका वर्णन बहुत ज्यादा आया हैं। कृष्ण अपनी आत्मा को सभी ऋषि-मुनियों की आत्मा के रूप में ही अनुभव करते हुए बोलते हैं कि मैंने ऐसा कहा हैं। फलत: कृष्ण का उपदेश उन सभी का ही उपदेश हैं। कृष्ण की इस मनोवृत्ति पर हम काफी प्रकाश पहले ही डाल चुके हैं। सांख्य और योग का भी अर्थ बता चुके हैं।

न कर्मणामनारम्भान्र्नैष्कम्यं पुरुषोऽश्नुते।

न च संन्यसनादेव सिध्दिं समधिगच्छति॥4

    (लेकिन कोई भी) आदमी कर्मों को शुरू न करके कर्मत्याग या संन्यास प्राप्त कर सकता नहीं। (और खामखा) कर्मों के त्याग से ही सिद्धि नहीं मिलती-इष्ट या कल्याण की-मोक्ष की-प्राप्ति नहीं हो जाती।4

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥5

    (यह भी तो हैं कि) कोई भी क्षणभर भी बिना कर्म किये रही नहीं सकता। क्योंकि प्रकृति के गुणों से मजबूर हो के सभी को कर्म करना ही होता हैं।5

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥6

    (इसलिए) जो (हाथ, पाँव आदि) कर्म करने वाली इन्द्रियों को (जबर्दस्ती) रोक के मन से इन्द्रियों के विषयों को याद करता रहता हैं वह ढोंगी कहा जाता हैं।6

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥7

    (विपरीत इसके) हे अर्जुन, जो तो इन्द्रियों को मन के अधीन करके कर्मेन्द्रियों से काम करना शुरू कर देता हैं। (और फलादि के लिए) हाय-हाय करता नहीं रहता वही अच्छा हैं।7

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।

शरीरयात्रपि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:॥8

    (इसलिए) तुम अपने लिए निश्चित कर्म (जरूर) करो। क्योंकि न करने से करना कहीं अच्छा हैं। (आखिर) कर्म सर्वथा छोड़ देने पर तुम्हारी शरीर-यात्र भी तो न चल सकेगी।8

    यहाँ पर 4 से 8 तक के श्लोकों के बारे में कुछ जरूरी बातें जान लेने की हैं। चौथे का आशय यही हैं कि बिना कर्म किये कर्म का त्याग या संन्यास असम्भव हैं और खामख्वाह कर्म छोड़ देने से ही कुछ होता जाता नहीं। इसमें दो बातें हैं। एक यह कि जब कर्म करते ही नहीं तो उसे छोड़ने के मानी क्या होंगे? जो चीज हमारे पास हुई नहीं उसे त्यागना क्या? यह तो प्रवंचना मात्र हैं, महज झूठी बात हैं। इसी को 'अशक्त: परम: साधु:' या 'वृद्धवेश्या तपस्विनी' कहते हैं। असल में जब तक वर्णमाला पढ़ न लें उससे पिण्ड छूटता ही नहीं। जब कभी ग्रन्थों के पढ़ने का प्रश्न उठता हैं तो वह वर्णमाला पहाड़ की तरह सामने खड़ी हो जाती हैं कि हमें पूरा करो-पार करो। बड़े ग्रन्थों के पढ़ने का अर्थ हैं वर्णमाला के पढ़ने का त्याग। मगर वह त्याग हो पाता नहीं जब तक वर्णमाला पढ़ ली न जाये। ठीक यही बात संन्यास या कर्म-त्याग की हैं। निदिध्यासन और समाधि, जो आत्मविज्ञान के लिए ही नहीं, बल्कि सभी विज्ञानों के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं, बिना कर्मों के त्याग के हो ही नहीं सकते। कर्मों का तो पँवारा ऐसा हैं कि चौबीस घण्टे उनसे फुर्सत होती ही नहीं। अगर यही रहे तो निदिध्‍यासन और समाधि कैसी? उनका मौका ही कहाँ होगा? इसलिए उनके करने का अर्थ ही हैं कर्मों का त्याग। मगर जब तक कर्म न करें निदिध्‍यासन आदि की योग्यता होगी ही नहीं। फिर कर्मों के त्याग का प्रश्न ही कहाँ उठता हैं? इसकी जरूरत होती हैं कहाँ? और अगर इतने पर भी खामख्वाह त्याग किया जाये तो साफ ही कह देते हैं कि इससे कुछ भी होता जाता नहीं। यह तो ठगी और प्रवंचना हैं। यह तो अपने आपको और संसार को भी ठगना हैं। इसीलिए जभी कभी वास्तविक कर्मत्याग या संन्यास की बात उठे तो उसी समय स्पष्ट हो जाता हैं कि पहले कर्म करें। पीछे त्याग की जरूरत होगी और अवश्य होगी। मगर अभी नहीं।

    दूसरी बात यह हैं कि खामख्वाह यों ही कर्म छोड़ देने से काम बनने के बजाये बिगड़ता ही हैं। श्लोक में जो सिद्ध शब्द हैं उसका यही अभिप्राय हैं कि कोई काम नहीं बनेगा, वह लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा जिसके लिए कर्मत्याग करते हैं। बल्कि उल्‍टे बिगड़ेगा। जब खेत जोत-गोड़ के तैयार किया ही नहीं गया हैं और पानी-वानी दे के बीज उगने योग्य बनाया गया ही नहीं हैं तो दूसरा होगा ही क्या, सिवाय इसके कि बीज और परिश्रम दोनों की बेकार जायें? यह तो निरी बच्चों वाली बात हो जायेगी, या पागलों की सी ही। इसीलिए इस बात पर जोर दिया गया हैं कि पहले तो हरेक आदमी को कर्म करना ही होगा। कर्म से ही दरअसल प्रगति का श्रीगणेश होता हैं, और संन्यास तो प्रगति के इसी सिलसिले की एक आवश्यक (unavoidable) सीढ़ी (step) हैं। इसीलिए इस श्लोक के पूर्वार्ध्द की उत्तरार्ध्द से मिलान करने पर 'नैर्ष्कम्य' का अर्थ संन्यास ही हैं, न कि और कुछ। अर्जुन के दिमाग की सफाई करनी थी। इसीलिए शुरू से ही क्या कर्तव्य हैं, यही बात उठा के अन्त तक जाना जरूरी हो गया हैं। नहीं तो वह फिर भी घपले में पड़ जाता, यदि चुनी-चुनाई बातें ही कही जातीं।

    इसके बाद पाँचवें श्लोक में तो यह बात भी खत्म कर दी गयी हैं कि खामख्वाह यों ही कर्मों का त्याग सम्भव हैं। चौथे उत्तरार्ध्द में यह बात मानकर ही, कि कर्मों का त्याग सम्भव हैं, उत्तर दिया हैं कि उससे सारा गुड़ गोबर होने के अलावे कोई मतलब पूरा नहीं होता। मगर अब तो जड़ को ही उड़ा देते हैं यह कह के कि कर्मों का त्याग ही असम्भव हैं। प्रकृति के तीन गुण माने जाते हैं। इस बात का विस्तृत विवेचन पहले कर चुके हैं। ये परस्पर-मिथुन कहे जाते हैं जिसका मतलब यही हैं कि तीनों ही सर्वत्र मिले-जुले रहते हैं। इन तीनों में रज का तो काम ही हैं क्रिया या कर्म। उसका तो स्वरूप ही हैं कर्म या हलचल (action and motion)। फिर यह कैसे सम्भव हैं कि कोई भी पदार्थ एक क्षण भी निष्क्रिय रहे। तीनों गुणों के अलावे तो कोई भी भौतिक पदार्थ हैं नहीं। ऐसी दशा में शरीर या इन्द्रियादि यदि क्षण भर भी निष्क्रिय रहें तो इसके साफ मानी हैं कि उनमें गुण हुई नहीं। मगर यह तो बात हैं नहीं। संसार ही त्रौगुण्य माना गया हैं। तब अपना स्वभाव कोई कैसे छोड़ेगा? शरीरादि का तो स्वभाव ही हैं हिलना-डोलना या हलचल। जब हमारी आँखें इसका पता नहीं भी पाती हैं तब भी प्रयोगशाला में जाने या यन्‍त्रों के प्रयोग से पता लगता हैं कि क्रिया बराबर चालू हैं। उसे विराम नहीं। इसीलिए कह दिया हैं कि कर्म या क्रिया की तो मजबूरी हैं। इससे पिण्ड छूट सकता ही नहीं। संसार का अर्थ ही हैं क्रियाशील या चलने वाला।

    इसीलिए जो लोग जबर्दस्ती कर्म करने वाली इन्द्रियों को रोकते हैं, रोकना चाहते हैं, उनका काम अप्राकृतिक हैं, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध हैं। क्योंकि जबर्दस्ती तो कर्म करने के लिए खुद प्रकृति कर रही हैं, पदार्थों का स्वभाव ही कर रहा हैं, और हम चले हैं उसे ही रोकने। फलत: हमारा यह हठ, हमारी यह जबर्दस्ती अप्राकृतिक-अस्वाभाविक-नहीं हैं, तो और हैं क्या? और अस्वाभाविक चीज तो चलने वाली नहीं, वह तो कभी होने की नहीं। इसीलिए दम्भ और पाखण्ड चलता हैं, ठगी होती हैं। ऊपर से तो देखने के लिए कर्मेन्द्रियाँ रुकी हैं। मगर भीतर ही भीतर उनका काम जारी हैं। क्योंकि ऐसे लोग मन को तो रोक सकते हैं नहीं। वह तो ऐसे पामरों के कब्जे के बाहर रहता ही हैं। उल्‍टे यही लोग मन के कब्जे में रहते हैं। उधर मनीराम ने सभी इन्द्रियों को पीठ ठोंक दी हैं। इसलिए भीतर ही भीतर-छिपे रुस्तम-उनका काम जारी हैं। इसे ही कहते हैं 'डूब के पानी पीना', या 'खुदामियाँ से चोरी'। ज्ञानेन्द्रियों को तो यों भी ऐसे लोग नहीं रोकते। वे रोक सकते भी नहीं। उन्हीं के साथ आँख दबा के कर्मेन्द्रियाँ भी मौज करती हैं। हमने काशी में ग्रहण के समय एक बार घाट के ऊपर छोटे से मन्दिर के पास एक संन्यासी बाबा को देखा कि आसन मारे मूँड़ी नीचे किये आँखें मूँदे बैठे हैं। बगल में एक कपड़ा फैला पड़ा हैं कि लोग उस पर पैसे चढ़ायेंगे! हमने गौर किया तो पता लगा कि वह नीचे-नीचे रह-रह के कपड़े और पैसों को देखा करते हैं। इसे ही कहते हैं, ''ऊपर-ऊपर राम-राम, नीचे-नीचे सिद्ध काम!'' इसका पता तो सपने में लगता हैं जब यह चोरी खुल जाती और जाने क्या क्या अनर्थ होते हैं, कौन-कौन सा प्रपंच फैलता हैं। सपने में तो यह चोरी छिप सकती हैं नहीं। इसीलिए ऐसों को पाखण्डी और मिथ्याचार कहकर छठे श्लोक में दुतकारा हैं।

    यही कारण हैं कि सातवें श्लोक में सबका निचोड़ निकाल के कह दिया हैं कि जो लोग मिथ्याचारी और पाखण्डी नहीं बनना चाहते वह उनके विपरीत काम करें। वह यह कि सबसे पहले सभी इन्द्रियों पर और खासकर ज्ञानेन्द्रियों पर तो जरूर ही, मन का नियन्त्रण एवं अंकुश रखें। असल में मन का इन्द्रियों पर नियन्त्रण न रहने से जहाँ ज्ञानेन्द्रियाँ विषयों में फँसाने के साथ ही कर्तव्य कर्मों से विमुख करके वाहियात कामों में लगा देती हैं, तहाँ कर्मेन्द्रियाँ भी ज्यादती कर बैठती हैं। फलत: किसी भी काम की सीमा लाँघ के उसे भी खराब कर देती हैं। इस तरह सब किये-कराये पर पानी फिर जाता हैं। इसीलिए सभी पर मन का नियन्त्रण जरूरी कहा गया हैं।

    उसके बाद कर्मेन्द्रियों से सभी कर्मों को शुरू कर दें। जरा भी आगा-पीछा न करें। यहाँ जो 'कर्मयोगमारभते' कहा हैं उसका सीधा अर्थ यही हैं कि काम करना शुरू कर दे। यहाँ दूसरे अध्‍याय वाले कर्मयोग से मतलब नहीं हैं। उसका तो प्रसंग हुई नहीं। यहाँ तो ऐसे लोगों की बात हैं जो सबसे नीचे पड़े हुए हैं। इस श्लोक में 'यस्तु' में जो 'तु' हैं वह भी यही सूचित करता हैं कि इससे पहले जो कुछ कहा हैं उसके ही मुकाबिले में दूसरी बात यहाँ कही जा रही हैं। और पहले तो पतित या मिथ्याचारी की ही बात आयी हैं जो दरअसल कर्म नहीं करता हैं। हठी नालायक जो ठहरा और विषय लम्पट भी। उसी के मुकाबिले में इस श्लोक में यह कहना जरूरी हो गया कि उन नहीं करने वाले पाखण्डियों की अपेक्षा वे कहीं अच्छे हैं जो कुछ कर्म करते हैं और इन्द्रियों पर मन का अंकुश भी रखते हैं। इसीलिए ऐसे आदमी को 'स विशिष्यते'-'वह कहीं अच्छा हैं' कहा हैं। इस 'विशिष्यते' क्रिया का दूसरा अर्थ हो भी नहीं सकता हैं। नहीं करने से करना अच्छा हैं-'अकरणात्करणं श्रेय:' (something is better than nothing) यही बात यहाँ कही गयी हैं। न कि पहले कहे गये पतित-पाखण्डी के साथ इस कर्मी की तुलना हैं। ऐसा करना तो इसका भी अपमान करना हो जायेगा। इसीलिए उस तुलना का सूचक कोई 'तत:' या 'तस्मात्' आदि पंचमी विभक्ति वाला पद यहाँ हैं भी नहीं। आगे यह बात और भी साफ हो जाती हैं जब खुल के कह देते हैं कि नहीं करने से करना अच्छा हैं, ''कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:'' (38)

    ऐसी दशा में ऐसा आदमी गीता का वह महान कर्मयोग कैसे जानने गया कि उसे करेगा? यह तो गधो को शासन की गद्दी पर बिठाने जैसी ही बात हो जायेगी। यह भी तो जानना चाहिए कि यहाँ जो 'आरभते' क्रिया हैं और जिसका अर्थ हैं 'शुरू करता हैं', वह कर्मयोग में लागू होती भी नहीं। वह तो केवल कर्म में लागू होती हैं। कर्म ही या कर्म का करना ही शुरू होता हैं, न कि कर्मयोग। योग तो बुद्धि हैं यह सभी मानते हैं। तब उसको शुरू कैसे किया जायेगा? सो भी कर्मेन्द्रियों से? वह तो मार्ग हैं, निष्ठा हैं, विचारधारा हैं। उसका आरम्भ हर आदमी कर सकता नहीं। उसका आरम्भ बहुत पहले उसके प्रर्वतक आचार्य ने किया था। अब आरम्भ कैसा? यदि मान भी लें, तो हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियों से उसका आरम्भ कैसे होगा? यदि आरम्भ का अर्थ हैं उस मार्ग में प्रवेश, तो भी वह कर्मेन्द्रियों से होता नहीं। वह तो मन और बुद्धि से या अधिक से अधिक ज्ञानेन्द्रियों से ही हो सकता हैं। इसीलिए कर्मयोग का यहाँ अर्थ हैं कर्मों का योग, जोड़ना या करना; और इसका श्रीगणेश कर्मेन्द्रियाँ ही करती हैं। इसीलिए आत्मा या मन की शुद्धि के लिए जो कर्म किया जाता हैं वह भी गीता के कर्मयोग में आता नहीं। क्योंकि उसमें तो शुद्धि रूप फल की इच्छा हुई। फिर भी उसे कर्म कहके उसके करने वाले को भी योगी कह दिया हैं-'योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये' (525)'दैवमेवापरे यज्ञं योगिन:' (425) में भी योगी का अर्थ आत्मज्ञानी से भिन्न ही हैं। इसका विचार वहीं किया हैं।

    इसीलिए यहाँ जो 'असक्त:' शब्द आया हैं उसका अर्थ उस कर्मयोगी की ही तरह कर्मासक्ति एवं फलासक्ति का त्याग, ऐसा जो लोग करते हैं वह भूलते हैं। 'भूखे बंगाली की भात भात' की तरह सर्वत्र एक ही बात देखना उचित नहीं। पूर्वापर और प्रसंग भी देखना होगा, और हैं वह मामूली कर्म करने वालों का ही। फिर एकाएक वह परले दर्जे की अनासक्ति यहाँ आ धामकी कैसे? उसकी तो यहाँ गुंजाइश हुई नहीं। यहाँ तो असक्त कहने का केवल इतना ही प्रयोजन हैं कि, जैसे इससे पूर्ववाला आदमी कर्म का सोलह आना विरोधी होता हैं और उसे देखना नहीं चाहता ठीक उसके विपरीत होने से कहीं यह ऐसा न हो जाये कि दिन-रात कर्मों या फलों के लिए हाय-हाय ही करता रहे। क्योंकि तब तो यह कुछ करी न सकेगा। यह तो उसी हाय-हाय में इतना व्यस्त रहेगा कि इसके हाथ-पाँव ठीक-ठीक काम करी न सकेंगे। इसीलिए कह दिया कि ऐसा न हो-ऐसी हाय तोबा न रहे। साधारणत: फल वगैरह की इच्छा तो रहेगी ही। क्योंकि यह तो साधारणत: कर्मी ही ठहरा। मगर गीता के कर्मी की गिनती में उसे आने के लिए इस इच्छा-आकांक्षा को बेलगाम नहीं छोड़ देना होगा, बेहद परेशान होना न होगा। यही अभिप्राय हैं और यही युक्तिसंगत भी हैं। गीता की गिनती में आने का प्रयोजन भी हैं। क्योंकि आगे ऐसे ही आदमी के लिए 19वें श्लोक में परमात्मा की प्राप्ति लिखी हैं। वहाँ भी यही 'असक्त:' शब्द कर्म के साथ ही आया हैं। तात्पर्य यह हैं कि हाय-हाय छोड़ देने से अन्त:करण की स्थिरता और शान्ति के रूप में शुद्धि हो के परमात्मा की प्राप्ति का रास्तामात्र खुल जाता हैं। कुछ यह नहीं होता कि कर्मों से ही ठेठ परमात्मा को प्राप्त कर लेताहैं।

    आगे बढ़ने के पहले यहीं पर उन्होने 8वें श्लोक में स्पष्ट ही कह दिया हैं कि कुछ न करने और निठल्ले बैठ रहने से तो कुछ करना कहीं अच्छा हैं। इसीलिए तुम अपने लिए पक्का-पक्की ठहराये गये कर्मों को जरूर ही करो। ऐसे ही कर्मों को नियत (assigned) नाम गीता में बार-बार दिया गया हैं'नियतस्य तु संन्यास' (187), 'नियतं क्रियतेऽर्जुन' (189), 'नियतं संगरहितं' (1823) आदि में यह बात पाई जाती हैं। नियत या निश्चित कहने का यह मतलब हैं कि यों तो खान पान आदि कर्म सभी लोग करते ही हैं। इनमें तो सभी की मजबूरी हैं। मगर इनके सिवाय कुछ ऐसे कर्म हैं। जिनमें ऐसी मजबूरी न होने पर भी उनका करना समाजहित की दृष्टि से और अपने अन्तिम कल्याण या उदार्त्त स्वार्थ (enlightened self interest) के ख्याल से भी जरूरी हो जाता हैं। ऐसे कर्म या तो समाज के द्वारा ही हरेक के लिए तय कर दिये गये हैं, या ऋषि-मुनियों, औलिया-पैगम्बरों तथा बड़े-बूढ़ों ने उन्हें बताया हैं और समाज ने या खुद व्यक्तियों ने भी उन्हें अपनाया हैं। इसीलिए वे नियत और नित्य (assigned and fixed) माने जाते हैं। आश्रितों की रक्षा, देश या घर-बार के लिए लड़ना, पीड़ितों की सेवा, सन्ध्‍या, पूजा, नमाज, प्रार्थना (Prayer) आदि ऐसे कर्मों में आते हैं। जब कर्मों के करने न करने की बात कहीं भी आती हैं तो इन्हीं से मतलब होता हैं न कि सामान्य कर्मों से। मल-मूत्र त्याग, खानपान आदि तो बिना कहे ही मजबूरन करने ही होते हैं। उनके बारे में करने का विधान या उसकी ताकीद बेकार हैं। मगर नियत कर्मों में आलस्य आदि के चलते लापरवाही हो सकती हैं, हो जाती हैं। इसीलिए इन पर जोर देना और इनके लिए ही नियम-कायदे बनाना जरूरी हो जाता हैं। जब संन्यास और कर्मत्याग का सवाल आता हैं तो इन्हीं कर्मों के त्याग से मतलब होता हैं

    एक बात और भी जान लें तो अच्छा हो। जहाँ तक कर्मों के त्याग या संन्यास से ताल्लुक हैं, गीता ने चार सूरतें मानी हैं।

    1. मन की शुद्धि हो जाने पर तत्त्वज्ञान के साधन-स्वरूप निदिध्‍यासन और समाधि के सिद्धि के लिए कर्मों का स्वरूपत: त्याग।

    2. तत्त्वज्ञान के बाद मस्ती आ जाने पर खुद-ब-खुद कर्मों की ओर मानसिक प्रवृत्ति न होने से अलंबुद्धया स्वरूपत: कर्मों का वैसे ही छूट जाना जैसे पके फल का डाल से।

    3. मोह और भ्रम में पड़ के प्रवंचना बुद्धि से या शरीर, इन्द्रियादि के कष्ट के ख्याल से ही कर्मों को स्वरूपत: छोड़ देना।

    4. फलेच्छा, अभिनिवेश, कर्म करने की आसक्ति और हठ आदि का ही त्याग न कि स्वरूपत: कर्मों का त्याग। इनमें चौथे को तो कर्म का त्याग वस्तुत: कही नहीं सकते। इस दशा में तो कर्म बने ही रहते हैं। गीता ने भी 'नियतं संगरहितं' (1823) में इसे सात्तिवक कर्म ही गिनाया हैं। इसलिए इसे तो छोड़ ही देना चाहिए। इस पर विचार करने का प्रश्न आता ही नहीं।

    रह गये तीन। बेशक इन तीनों को कर्मत्याग या संन्यास शब्द से समझ सकते हैं जरूर। इनमें जो तीसरा हैं उसकी बात इसी अध्‍याय के शुरू में ही और आगे भी आयी हैं। इसलिए शेष दो या पहले तथा दूसरे को ही पहले देखना चाहिए। 'योगसंन्यस्तकर्माणं' (441), 'संन्यासस्तु महाबाहो' (56) और 'योगारूढ़स्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते' (63) श्लोकों में पहले को यानी समाधि आदि के लिए कर्मों के त्याग को आवश्यक और उचित बताया हैं। 'सर्वधर्मान्परित्यज्य' (1866) में इसी का उपसंहार भी किया हैं। इसी तरह 'यस्त्वात्मरतिरेवस्यात्' (317) से स्पष्ट हैं कि दूसरा संन्यास या स्वयमेव कर्मों का छूट जाना भी गीता को मान्य हैं। इसकी आवश्यकता एवं महत्व भी वह समझती हैं। द्विविधा निष्ठाओं का जो वर्णन दूसरे, पाँचवें और छठे अध्यायों में खासतौर से आया हैं और दोनों को जो वहाँ परम कल्याण या मोक्ष के देने वाले माना हैं, उससे भी इसकी कर्तव्यता निर्विवाद सिद्ध हो जाती हैं। इस बात का अधिक विवेचन पहले ही किया गया हैं।

    अब रहा तीसरा या मोह और कष्ट के डर से कर्मों का त्याग। इसी की बहुत ज्यादा निन्दा तीसरे अध्‍याय के इन्हीं श्लोकों में बार-बार की गयी हैं। इसका विवेचन हमने अभी किया हैं। 'नियतस्य तु' (187) और 'दु:खमित्येव' (188) में भी तामस और राजस कह के इस संन्यास को निन्दित बताया हैं। 'न बुद्धिभेदं जनयेत्' (326) में भी इसी बात पर पूरा जोर दिया गया हैं कि सर्वसाधारण लोग हर्गिज कर्म न छोड़ें। इस प्रकार इस विवेचन ने संन्यास का मार्ग अर्जुन के दिमाग में साफ कर दिया हैं और कर्म करने का भी।

    अब आगे जो कुछ विवेचन इस कर्म का किया जा रहा हैं वह इसी दृष्टि से कि समाज का काम चलाने, उसे कायम रखने और उसकी प्रगति के लिए कर्म अनिवार्य रूपेण आवश्यक हैं। इनके बिना एक क्षण भी समाज का काम चल नहीं सकता हैं। यज्ञचक्र के रूप में इन कर्मों का जो वर्णन किया गया हैं उसका रहस्य तो पहले ही बताया जा चुका हैं। यज्ञों का संकुचित अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं, यह बात 10 से 13 तक के श्लोकों से ही, जो यज्ञचक्र के निरूपण के ठीक पहले आये हैं, सिद्ध हो जाती हैं। दसवें श्लोक में जो 'प्रसविष्यधवम्' तथा 'कामधुक्' शब्द आये हैं उनका अर्थ हैं फलना, फूलना और विस्तार प्राप्त करना। इनके भीतर तो संसार के सारे काम आ जाते हैं। कोई भी बचने नहीं पाता। यह बात सर्वसाधारण के द्वारा आमतौर से माने गये घृत आदि की आहुति रूपी यज्ञों से तो होने की नहीं। यह दावा तो इन यज्ञों के समर्थक भी नहीं करते कि इन्हीं से सब काम हो जायेगा। फलत: खेती, गिरस्ती आदि की जरूरत हुई नहीं। कामधोनु कहने से भी यही बात सिद्ध होती हैं कि यह सब कुछ देने वाली चीज हैं। 'इष्टान् भोगान्' (312) में यही कह भी दिया हैं। इसीलिए देव शब्द का अर्थ भी रूढ़ नहीं हैं। यहाँ खास ढंग के देवताओं से मतलब न हो के दिव्य या अलौकिक शक्ति, प्रतिभा आदि सम्पन्न सभी पदार्थों को देव कहते हैं। इसीलिए गीता ने यज्ञों का अनेक विस्तृत रूप स्वयं बताया हैं। हमने भी इस पर पूरा प्रकाश डाला हैं। यज्ञ के रूप में ही कर्मों पर जोर देने के लिए ही आगे के श्लोक लिखे गये हैं।

    कुछ अर्ध्ददग्धा एवं अक्षरकट्टू लोग अपनी असली मनोवृत्ति को छिपा के केवल इस दलील के आधार पर ही कर्मों से पिण्ड छुड़ाना चाहते हैं कि ये तो जन्म-मरणादि बन्धन के कारण हैं। फिर इन्हें क्यों करें? उनका उत्तर यह हैं कि-

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।

तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंग समाचर॥9

    हे कौन्तेय, (जब कि) यज्ञ के लिए किये गये कर्मों के अलावे बाकी कर्मों से ही लोग बन्धन में फँसते हैं, तो तुम आसक्ति या हाय-हाय छोड़ के यज्ञार्थ कर्मों को ही ठीक-ठीक करो।9

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।

अनेन प्रसविष्यधवमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥10

    पूर्व समय-सृष्टि के आरम्भ काल-में ब्रह्मा ने लोगों-प्रजा-को यज्ञ के साथ ही पैदा करके कह दिया कि इस (यज्ञ) के जरिये खूब फलो-फूलो और तरक्की करो (और) यह तुम्हारे लिए कामधेनु का काम दे।10

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।

परस्परं  भावयन्त:  श्रेय:  परमवाप्स्यथ॥11

    इस यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को सन्तुष्ट करो, पुष्ट और समुन्नत करो और वे देवता तुम्हें भी वैसा ही करें। (इस तरह) परस्पर एक दूसरे को सुखी-सम्पन्न बनाते हुए परम कल्याण-मोक्ष-प्राप्त करो।11

इष्टान् भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।

तैर्दर्त्तनप्रदायैभ्यो यै भुंक्ते स्तेन एव स:॥12

    क्योंकि यज्ञों के द्वारा तृप्त और प्रसन्न किये गये देवता तुम्हें सभी अभिलषित पदार्थ देंगे। इसीलिए उन्हीं के दिये इन पदार्थों को उन्हें भेंट न करके जो (स्वयमेव) हड़प लेता हैं वह अवश्यमेव चोर हैं।12

यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सकिल्बिषे:।

भु×जते ते त्चघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥13

    यज्ञ के बाद बचे-बचाये पदार्थों को भोगने वाले सत्पुरुष सभी पापों और बुराइयों से छुटकारा पा जाते हैं। (लेकिन) वे पापी लोग तो पाप को ही भोगते हैं जो केवल अपने ही लिए (पदार्थ) पकाते हैं-तैयार करते हैं।13

    इस श्लोक के 'यज्ञशिष्टाशिन:' में अश् धातु भोजनार्थक हैं। मगर जिस भुज् धातु से भोजन शब्द बनता हैं उसी से भोग भी बनता हैं। इसीलिए भोजन या अशन का अर्थ केवल पेट में डालना ही नहीं हैं। मार खाने, धोखा खाने में भी तो खाना आता हैं। मगर ये तो पेट में रखने की चीजें हैं नहीं। उसी प्रकार यहाँ भी समझना होगा। यज्ञ के बाद जो शेष रहे उसी पदार्थ को खाना-पहनना या अपने निजी काम में लाना यही 'यज्ञशिष्टाशन' का अर्थ हैं। उसी तरह 'पचन्ति' में पच् धातु का अर्थ पकाना हैं और भात-रोटी आदि के पकाने को ही आमतौर से पकाना कहते हैं। मगर फसल पक गयी, घड़ा पक गया, आम पक गया, फोड़ा पक गया में तो तैयार होना ही अर्थ हैं। महाराष्ट्र में फसल को ही पाक कहते हैं। यहाँ भी तैयार करना ही अर्थ उचित हैं। सभी प्रकार के पदार्थों को तैयार करके पहले उन्हें यज्ञार्थ अर्पण करना चाहिए। इसका अभिप्राय यही हैं कि उनके कुछ अंश यथाशक्ति समाजहित या परोपकार के कामों में लगा के शेष को ही निजी काम में लाना उचित हैं। अन्न पका के भगवान या देव-पितरों को अर्पण करना भी इसी में आ जाता हैं।

    ऐसा करने के बाद जो पदार्थों को भोगता हैं वही महापुरुष यज्ञशिष्टाशी हैं। विपरीत इसके जो सब कुछ निजी कामों में ही खर्च करता हैं वही पापी हैं। उसके पदार्थ को दरअसल पाप ही कहा हैं, यद्यपि देखने में वह स्थूल पदार्थ प्रतीत होता हैं। असल में ऐसे स्वार्थी बनने पर समाज एक मिनट भी टिक सकता नहीं। जब हरेक को अपनी-अपनी ही सूझी तो समाज रहेगा कैसे? वह तो उसी क्षण खत्म हो गया। ऐसे स्वार्थी होने पर कोई भी कायम नहीं रह सकता। जब तक एक दूसरे की फिक्र और परवाह कम-बेश न करें सभी मर-मिटेंगे। किसी का भी काम चल सकेगा ही नहीं। इसीलिए ऐसे काम को पाप और बुराई कहा हैं। मनु ने यज्ञशिष्ट पदार्थ को अमृत कहा हैं। उनका यज्ञ उतना व्यापक नहीं था। केवल देवपितरों के लिए जो कर्म होते थे उन्हीं को उन्होने यज्ञ माना था। इसीलिए यज्ञ के सिवाय दूसरे परोपकारी कामों में जो चीज लगे उसके शेष को उन्होने विघस नाम दिया था। 'यज्ञशिष्टामृतभुज:' (431) में गीता ने भी यज्ञशिष्ट को अमृत ही कहा हैं। जो बात गीता के 13वें श्लोक में लिखी हैं वही मनुस्मृति में भी यों लिखी हैं कि 'अघं स केवलं भुंक्ते य: पचत्यात्मकारणात्। यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतामन्नं विधीयते' (3118)। इस श्लोक में गीता के ही अधिकांश को अक्षरश: दे दिया हैं। पूर्वार्र्ध्द तो प्राय: जैसे का तैसा ही गीता के श्लोक का उत्तरार्ध्द हैं। पूर्वार्ध्द में भी गीता के उत्तरार्ध्द का आधा प्राय: ज्यों का त्यों और उसके 'सन्त:' की जगह पर ही 'सतां' दे दिया हैं। पुराने समय में इस यज्ञ का इतना ज्यादा महत्त्व था कि ऋग्वेद में भी गीता के 'भुंजतेतेत्वघं पाप:' की ही तरह लिख दिया हैं कि ''नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी'' (101176) । मन्त्र के देखने से यह भी पता चलता हैं कि ऋग्वेद के समय यज्ञ का व्यापक अर्थ गीता की ही तरह माना जाता हैं। इसीलिए अर्यमा और सखा की पुष्टि की बात इसमें आयी हैं। अर्यमा मेघ सरीखे देवता को और सखा बन्धुबान्धाव को कहते हैं।

    आगे जिस यज्ञचक्र का वर्णन हैं उसका संक्षिप्त रूप प्राय: इसी तरह का मनुस्मृति में यों पाया जाता हैं, ''अग्नौप्रास्ताहुति: सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं तत: प्रजा''(376)। महाभारत के शान्तिपर्व (3403862) में भी इस यज्ञ की बात विस्तृत रूप से आयी हैं। मगर गीता के यज्ञ चक्र की खूबी कहीं हैं नहीं। हमने इसका पूर्ण विवरण पहले ही लिखा हैं।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥14

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥15

    अन्न से प्राणी और सत्ताधारी पदार्थ बनते हैं-उत्पन्न होते हैं। वृष्टि से अन्न पैदा होता हैं। यज्ञ से वृष्टि होती हैं। कर्मों से यज्ञ बनता हैं-यज्ञ का स्वरूप तैयार होता हैं। कर्म वेद (जैसे ज्ञानभण्डार) से ही मालूम होते हैं-जाने जाते हैं और वेद जैसा ज्ञानभण्डार अविनाशी (समष्टि महाभूत परमात्मा) से पैदा होता हैं। इसीलिए सभी बातों को अवगत कराने-जनाने-वाले वेदरूपी ज्ञान भण्डार का तात्पर्य यज्ञ करने में ही हैं। यज्ञ ही उसका आधार भी हैं।1415

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानरुवत्तायतीह य:।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥16

    (इसलिए) हे पार्थ, इस प्रकार जारी किये गये (यज्ञ) चक्र को इस दुनिया में जो (आदमी) कायम नहीं रखता (उसका) जीवन पापमय हैं, वह केवल इन्द्रियों को ही तृप्त करने वाला हैं। (इसीलिए) उसका जीना बेकार हैं।16

    यहाँ यज्ञचक्र के सिलसिले में इतनी सख्ती के साथ इसके चालू रखने की बात कही गयी हैं कि सन्देह होने लगता हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं हैं कि गीता के मत से कर्मों का त्याग कभी हो ही नहीं सकता। जब कर्म ही संसार की स्थिति, वृद्धि और प्रगति के लिए कामधेनु हैं, जब इन्हीं के द्वारा सब कुछ हो सकता हैं, जब यज्ञचक्र के रूप में कर्मों का सिलसिला जारी नहीं रखने वाले की जिन्दगी व्यर्थ हैं, वह पापमय जीवन ही गुजारता हैं एवं पामर विषयलोलुपों की तरह एकमात्र इन्द्रियों का ही पोषक हैं, ऐसा स्वयं गीता का आदेश हैं, तब तो यह ख्याल होना स्वाभाविक ही हैं कि किसी भी दशा में कर्मों से जिसका ताल्लुक टूटा वह पापी और बदमाश ही माना जायेगा। कम से कम गीता का तो यही सिद्धान्त होगा-वह तो इसी पर मुहर लगायेगी। ऐसी दशा में शुकदेव, वामदेव, जड़भरत आदि की तरह जिनके कर्म खुद-ब-खुद पके फल की तरह छूट गये हैं, गिर गये हैं और जो मस्ती की लापरवाह-बेफिक्र-जिन्दगी गुजारते हैं, उनका क्या होगा? वे भी वही ''अघायुरिन्द्रियारामा मोघं पार्थ स जीवति'' वाले घोर अभिशाप के शिकार होंगे? होना तो चाहिए। मगर यह तो असम्भव; अप्राकृतिक, अस्वाभाविक तथा केवल हास्यजनक बात मालूम पड़ती हैं। वह तो इतने ऊँचे हैं कि उन तक यह अभिशाप कभी पहुँच ही नहीं सकता। यह अजीब पहेली हैं! यह निराली समस्या हैं! जो अपनी आत्मा में ही-आत्मानन्द में ही-रम गये हैं, उसी में तृप्त हैं और उसी में सन्तुष्ट हैं; जिनकी अपनी तृप्ति से ऐसा हो गया हैं कि फिर कभी दूसरी ओर जाई नहीं सकते-जो सदा के लिए सन्तुष्ट हो चुके हैं, उनके सम्बन्ध में सचमुच यह पेचीदा पहेली ही हैं जिसका सुलझाना असम्भव लगता हैं। मगर गीता इसको-बीच में ही एकाएक पेश इस समस्या को-आगे के दो श्लोकों में आसानी से सुलझा के पुनरपि इस कर्म के यज्ञचक्र की बात को ही पकड़ती और आगे बढ़ती हैं।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥17

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥18

    (लेकिन) जो मनुष्य तो आत्मा में ही रम गया हैं, आत्मा ही में तृप्त हैं। और आत्मा में ही सन्तुष्ट हैं उसका कुछ भी कर्तव्य रही नहीं जाता हैं। न तो उसके करने से कुछ बनता ही हैं और न नहीं करने से बिगड़ता ही। सभी भौतिक पदार्थों में कोई भी ऐसा हुई नहीं जिसका आश्रय वह किसी भी काम के लिए ले।1718

    यहाँ अर्थ शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ में आया हैं जैसा कि बातचीत में ऐसे मौके पर आया करता हैं। आमतौर से काम, चीज या बात शब्द जिस मानी में बोले जाते हैं, ठीक उसी मानी में यह अर्थ शब्द आया हैं। यहाँ के सभी अर्थ शब्दों का यही मतलब हैं। इसीलिए सीधा अर्थ यही हो जाता हैं कि उसके करने-न करने से न तो कुछ बनता-बिगड़ता हैं और न दुनिया की कोई भी ऐसी चीज रही जाती हैं जिसकी प्राप्ति की कोशिश करने की उसे जरूरत हो। फिर उसके लिए कर्म करना जरूरी होगा क्यों? आखिर कर्मों की जरूरत होती हैं अपने या दूसरों के किसी मतलब के ही लिए न? मगर जिसके कर्मों से किसी का कोई भी मतलब सिद्ध होने वाला हो ही न, वह क्योंकर उन्हें करें? हाँ, यदि न करने से कुछ भी बिगड़ने वाला हो, किसी का भी बिगड़ने वाला हो, तो भी एक बात हैं। मगर यहाँ तो वह बात भी नहीं हैं। सबसे बड़ी बात, सब बातों की एक बात यह हैं कि राई से लेकर पर्वत तक या चींटी से लेकर भगवान तक से कोई न कोई काम निकालने के ही लिए क्रिया या कर्म की जरूरत पड़ती हैं। मगर मस्तराम के लिए तो यह भी बात नहीं हैं। उनके कर्मों के फलस्वरूप किसी से भी कोई काम सधाने-बनने का हुई नहीं!

    श्लोक में 'कश्चिदर्थ-व्यपाश्रय:' आया हैं। उसका खास महत्त्व और मतलब हैं किसी भी काम के लिए हमें तो किसी न किसी छोटे-बड़े पदार्थ का आश्रय-सहारा-लेना ही होता हैं। मगर मस्तराम के लिए ऐसा कोई पदार्थ रही नहीं जाता। उसके लिए तो सभी अपनी आत्मा ही हैं-आत्मा से जुदा कोई हुई नहीं। कही चुके हैं कि वह 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' हो जाता हैं। तब किसका सहारा ले? किसकी ओर नजर दौड़ाये? किधर बढ़े, चले? कोई दूसरा हो तब न? यहाँ तो सब कुछ वही हैं-''आत्मन्येवात्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति'' (वृहदा. 4423),''यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तात्केन कं पश्येत्केन कं जिघ्रेत्...केनकं विजानीयात्'' (वृह. 4515)। वह तो अपने आपको ही सर्वत्र देखता हैं, सुनता हैं, पढ़ता हैं, समझता हैं। क्योंकि उसकी नजरों में दूसरा कोई हुई नहीं, द्वैत मिट गया, 'दुई' जाती रही, ''दुई रा चूं बगर करदम यकी दीदम दो आलम रा। यकी जूयम यकी बीनम यकी खानम यकी दानम।'' फिर तो बिना कुछ किये ही सब कुछ हाजिर हैं! शाहंशाह जो ठहरा! प्रकृति को हिम्मत कि उसकी दरबारदारी न करे? इसीलिए हर चीजें उसी का आश्रय लेती हैं, अनायास अधीन हो जाती हैं। महाभारत के ''यदा च नाहमिच्छामि गन्धान्घ्राणगतानपि। तदा मे सर्वदा भूमिर्वशे तिष्ठति नित्यदा'' आदि कई श्लोकों में यही दिखाया हैं कि सभी चीजें उसके चाहे बिना ही हाजिर रहती हैं! जो लोग उसे खिलाते-पिलाते या शरीर-सेवा करते हैं उनका मनोरथ और उनकी सभी जरूरतें अकस्मात् पूरी होती रहती हैं! तब और चाहिए ही क्या?

    कुछ लोगों ने यह कोशिश की हैं कि 'तस्य कार्यं' आदि में षष्ठी विभक्ति का सम्बन्ध अर्थ लगा के यहाँ यह अभिप्राय बतायें कि उसे अपने लिए कोई कर्तव्य नहीं रह जाता हैं। इसीलिए जो कुछ करता हैं वह परोपकार और लोकसंग्रह के ही लिए। मगर वह भूल जाते हैं कि ''कृत्यानांर् कत्तारि वा'' (2371) और 'र्'कत्तृकर्मणो कृति'' (2365) इन पाणिनीय सूत्रों के रहते उनका यह मतलब पूरा होने का नहीं। यह तो कर्ता के ही अर्थ में षष्ठी बताते हैं, न कि सम्बन्ध में। एक बात और भी तो देखें कि पहले तो साधारण कर्मियों की ही बात कही गयी हैं, जैसा कि बता चुके हैं। इसके बाद भी वही बात हैं। तो फिर बीच में यह कर्मयोगी की बात कैसे आ गयी? और उसका प्रसंग भी कौन सा आ गया? लोकसंग्रह की बात तो 'कर्मणैव हि' (320) श्लोक में फौरन ही आगे कही गयी हैं। फिर एक श्लोक पहले भी उसे कहने का क्या मौका? यही नहीं 20 से 26 तक के श्लोकों में इस लोकसंग्रह और परोपकार की बात बहुत विस्तार से लिखी गयी हैं। फिर यहाँ कैसे बेमौके आ गयी? सो भी अधूरी? किसी-किसी को बारह महीने हरियाली ही सूझने की बात ठीक नहीं। सर्वत्र एक ही चीज को देखने और बताने की कोशिश उचित नहीं हैं।

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पुरुष:॥19

    इसलिए आसक्ति छोड़ के-पूर्व बताये ढंग की हायहाय छोड़ के-अपना कर्तव्य कर्म ठीक-ठीक करते रहो। क्योंकि आसक्ति छोड़ के कर्मों को करने से मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता हैं।19

    लेकिन यदि परमात्मा को प्राप्त करना न हो तो? जो लोग आत्मज्ञानी और जीवन्मुक्त हैं। उन्हें न तो कोई सांसारिक-पदार्थ ही प्राप्त करने योग्य रहते हैं और न परमात्मा ही। वह तो खुद ही परमात्मा-निर्वाणब्रह्म-हो जाते हैं। फिर वह क्यों कर्म करेगे? वह तो नहीं ही करेंगे न? नहीं-नहीं, वह भी करेंगे, यदि पूरे मस्तराम परमहंस न हो गये हों। यदि पूछें कि क्यों? तो सुनिये-

कर्मणैव हि संसद्धिमास्थिता जनकादया:।

लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कत्तरुमर्हसि॥20

    आखिर संसिद्धि-ब्रह्मनिर्वाण-को प्राप्त हुए जनक आदि भी (तो) कर्म करते ही रहे-उन्होने कर्म को ही अपना साथी बराबर बनाये रखा। इसलिए लोकसंग्रह-संसार का पथप्रदर्शन-करने का ही ख्याल करके भी (तो) तुम्हें कर्म करना ही होगा-करना ही चाहिए।20

    यहाँ जो लोग यह मानते हैं कि जनकादि को कर्म से ही मोक्ष मिला, वह एक तो यह भूल जाते हैं कि मोक्ष ज्ञान से ही मिलता हैं। यह बात हम बहुत ही खूबी के साथ बता चुके हैं। उन्होने से दूसरी जगह यही माना हैं। यदि मान भी लें कि कर्म से भी मुक्ति होती हैं, तो भी यह तो वे भी नहीं मानते कि निरे कर्म से मुक्ति होती हैं। वे तो ज्यादे से ज्यादा यही मानते हैं कि ज्ञान और कर्म दोनों के समुच्चय से-दोनों की सम्मिलित शक्ति से-ही मोक्ष मिलता हैं। मगर यहाँ तो 'कर्मणा एव' लिखा हैं, जिसका अर्थ हैं सिर्फ कर्म से। यह कैसे होगा? इसीलिए यहाँ कर्मणा इस तृतीया को 'कत्तरृकरणयोस्तृतीया' (प. 2318) के अनुसार साधन वाचक न मान के 'विनाऽपि तद्योगं तृतीया' के अनुसार 'सह' शब्द के न रहने पर भी उसका अर्थ प्रतीत होने पर ही तृतीया हो जाती हैं, यही मानना उचित हैं। हम इसीलिए, कर्म के साथ ही रहे, बराबर कर्म करते ही रहे, उसे कभी न छोड़ा यही अर्थ किया भी हैं।

    सबसे मोके की बात यहाँ, यह हैं कि इससे पहले के श्लोक में 'तस्मात्' कहके एक बात का उपसंहार कर लिया हैं, ऐसा स्पष्ट हैं। इसलिए इस श्लोक में कोई दूसरी नई बात शुरू हो के आगे चल रही हैं, ऐसा प्रतीत होता हैं। इसीलिए इस श्लोक के पूर्वार्ध्द की मिलान उत्तरार्ध्द के साथ करने से और उसी के अनुसार आगे बढ़ने से सब बात ठीक हो जायेगी। नहीं तो यह पूर्वार्ध्द यों ही बीच में ही लटका रह जायेगा। क्योंकि उत्तरार्ध्द का तो साफ ही आगे से सम्बन्ध मानना होगा। जिस लोकसंग्रह का इसमें उल्लेख सूत्र रूप से हैं उसी का भाष्य आगे के पूरे छह श्लोककरते हैं। जनक को लोकसंग्रह करने वाला और पथदर्शक कर्मयोगी मानते भी हैं। इसलिए उत्तरार्ध्द के साथ मिला के हमने जो अर्थ किया हैं वही यहाँ पर उचित और ठीक हैं।

यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तादेवेतरो जन:

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनरुवत्ताते॥21

    बड़े लोग जो-जो करते हैं वही-वही काम जनसाधारण भी करते हैं। बड़े जितना करते और जिसे सही मानते लोग भी उतना ही करते और उसी को सही मानते हैं।21

    यहाँ 'प्रमाणं' का अर्थ प्रमाण या सही भी हैं और नापजोख भी। 'यत्प्रमाणं' शब्द जब समस्त माना जाये तब तो इसका अर्थ हैं 'जितना'। और अगर यत् तथा प्रमाणं अलग-अलग दो शब्द स्वतन्त्र माने जाये तब 'जिसे सही' यह मानी हैं।

न मे पार्थास्तिर् कत्ताव्यं त्रिषु लोकेषु कि×चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यंर् वत्ता एव च कर्मणि॥22

    हे पार्थ, तीनों लोक-सारे संसार में-मेरा कुछ भी कर्तव्य रह नहीं गया हैं। ऐसा भी नहीं कि कोई वस्तु मुझे हासिल न हो (और) उसे प्राप्त करना हो। फिर भी (देखो न) कर्म में लगा ही रहता हूँ।22

यदि ह्यहं नर् वत्तोयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।

मम वर्त्मानरुवत्तान्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥23

    क्योंकि हे पार्थ, अगर मैं (खुद) कभी भी आलस्यरहित हो के कर्म करने से हिचकूँ तो सभी लोग मेरा ही रास्ता (चट) अख्तियार कर लेंगे।23

    इस सम्बन्ध में यह याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण की रासलीला का इस कथन से स्पष्ट विरोध होने के कारण वह प्रक्षिप्त तथा पीछे जोड़ी गयी चीज हैं। शिशुपाल से बढ़कर कृष्ण का शत्रु कोई न था जो खुले आम गाली-गलौज करता और उनके सच्चे-झूठे ऐबों के बारे में लेक्चर देता फिरता था। युधिष्ठिर के यज्ञ में जब कृष्ण की पूजा की गयी तो उसे बर्दाश्त न हो सकी। फलत: उसने बहुत कुछ अंटसंट बक डाला। उन्हें नीचा दिखाने के लिए यहाँ तक किया कि उनके मुरारि, मधुसूदन आदि नामों के अर्थ तक उसने बदल दिये, उन्हें खानदानी भगेड़ा बताया, वगैरह-वगैरह। मगर यह हिम्मत तो उसे भी न हुई कि कह डाले कि कृष्ण व्यभिचारी था, उसने गोपियों के साथ शरारत की, बदमाशी की। यदि उसे जरा भी गन्ध इस बात की मालूम होती तो ऐसा करने से वह हर्गिज न चूकता। फिर तो तिल का ताल बना छोड़ता। इससे स्पष्ट हैं कि कृष्ण का चरित इतना ऊँचा था कि उनके कट्टर से भी कट्टर दुश्मन तक को यह हिम्मत न थी कि इस बारे में जबान भी खोले। यदि गोपियों की रासलीला की गन्ध भी उस समय होती तो शिशुपाल क्या-क्या न कर डालता, कह डालता? इसलिए मानना होगा कि उस समय इसका नाम भी न था, चर्चा भी न थी। यह बात पीछे जुटी हैं, जोड़ी गयी हैं।

    श्री कुमारिल की लिखी तन्त्रवार्तिक नाम की मीमांसा की पोथी की एक महत्त्वपूर्ण चर्चा भी इस मामले में प्रकाश डालती हैं। मीमांसादर्शन के सूत्रों पर जो शबर भाष्य हैं उसी की टीका का नाम तन्त्रवार्तिक हैं। दरअसल भट्टपाद कुमारिल की समूची टीका तीन भागों में बँटी हैं। पहले अध्‍याय के प्रथम पाद की टीका का नाम हैं श्लोकर्वात्तिक। उस अध्‍याय के शेष को लेकर तीसरे अध्‍याय के अन्त तक की टीका को ही तन्त्रवार्तिक कहते हैं। शेषांश की टीका कही जाती हैं टुप्टीका। उसी तन्त्रर्वात्तिक में प्रथमाध्‍याय के तीसरे पाद के सातवें सूत्र 'अपिवा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतीयेरन्निति' के व्याख्यान में एक स्थान पर नास्तिक की शंका के रूप में लिखा हैं कि हिन्दू लोग जिस कृष्ण को महान पुरुष मानते हैं उनकी हालत यह थी कि शराब पीते थे। उन्होने मामा की लड़की से शादी भी की थी। दरअसल रुक्मिणी उनके मामू की ही तो पुत्री थी। इस प्रकार धर्माचार्यों और अवतारों पर एक के बाद दीगरे दोषारोपण करके सनातन धर्म की निन्दा की गयी हैं। किन्तु जहाँ ब्रह्मा, व्यास आदि के बारे में उसने व्यभिचार आदि की बातें लिखी हैं तहाँ कृष्ण के बारे में उसे सिर्फ पूर्वोक्त दोष ही नजर आये हैं। लेकिन यदि भट्टपाद के समय में रासलीला की बात प्रसिद्ध होती तो वह नास्तिक के मुँह से जरूर ही वही बात कहलवाते। वह साधारण लोगों के समझ में आने की बात भी थी। मगर शराब पीने या मामू की कन्या से शादी करने की बात तो कुछ ऐसी ही हैं। फलत: मानना होगा कि नौवीं शताब्दी तक, जब कि भट्टपाद हुए, रासलीला का पता कहीं न था। यह तो उसके बाद ही पोथियों में घुसेड़ी गयी मालूम पड़ती हैं। खूबी तो यह हैं कि कुमारिल ने समाधन करते हुए जहाँ लिखा हैं कि रुक्मिणी सचमुच मामू की लड़की न थी, वहीं यह भी लिखा हैं कि जो कृष्ण संसार के लिए आदर्श-स्थापक थे वही खुद विरुद्ध काम भला कैसे कर सकते थे? फिर उन्होने गीता के उन्हीं श्लोकों को उध्‍दृत भी कर दिया हैं कि ''मम वत्तर्मानरुवत्तोरन्मनुष्या: पार्थ सर्वश:। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तादेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनरुवत्ताते'' (32321)। उनका यह उद्धरण बड़े काम का हैं और वस्तुस्थिति को बताता हैं।

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥24

    (नतीजा यह होगा कि) यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सभी लोग-सारी दुनिया-ही चौपट हो जाये। (इस तरह) मैं ही वर्णसंकर करने का जिम्मेदार बन जाऊँ (और) इस सारी प्रजा का नाशक हो जाऊँ।24

    ख्याल हो सकता हैं कि जब सभी को एक ही लाठी से हाँका जाता हैं, जब कर्मों का करना विद्वान्-अविद्वान् या ज्ञानी-अज्ञानी के लिए समान रूप से ही जरूरी हैं, तो फिर दोनों में फर्क रही क्या जाता हैं? ज्ञानी को विद्वत्ता ने उसे क्या किया? यह तो कुछ उल्‍टी सी बात हो गयी। अविद्वान् को आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्त्यात्मिक ये तीन ही कष्ट होते हैं। मगर विद्वान् होने पर बड़े-बड़े पोथों के अभ्यास करने का कष्ट, यदि कुछ भूले तो उसका, अगर कहीं विवाद में हारे तो उसका और न हारने पर जबर्दस्त साँड़ की तरह गर्व का, इस तरह कुल सात कष्ट हो जाते हैं। कहाँ चले थे तीनों से पिण्ड छुड़ाने और कहाँ चार और जुट गये! ''चौबे गये दूबे बनने तो छब्बे होके लौटे'' वाली बात हो गयी! इसीलिए नारद ने सनत्कुमार से कहा था कि महाराज, कोई रास्ता बताइये, नहीं तो यह तो बला हो गयी और लेने के देने पड़ गये! जितना ही पढ़ा और पोथी-पुराण उल्टा उतनी ही आफत बढ़ती गयी, जैसा कि (छान्दोग्य 711-3) तथा ''वेदाभ्यासात्पुरातापत्रयमात्रोण दु:खिता। पश्चात्तवभ्यासविस्मारभंगगर्वैश्च शोकिता'' (पंचदशी 1119) में लिखा हैं। जब दोनों ही गधो की तरह दिन-रात कर्मों में खटते-मरते ही रहेंगे, तो सचमुच ही दोनों में फर्क होगा क्या? इसका उत्तर यह हैं-

सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥25

    हे भारत, कर्मों में लिपटे-चिपटे अनजान लोग जिस तरह उन्हें (पूरा दिल लगा के) करते हैं विद्वान् भी वैसा ही दिल लगा के करे। (मगर फर्क यही रहे कि एक तो वह) उनकी तरह लिपटा-चिपटा न रहे या हाय तोबा न करे। दूसरे उसका लक्ष्य लोकसंग्रह ही रहे।25

    जो लोग ख्याल करते हैं कि निजी स्वार्थ न रहने और आसक्ति खत्म हो जाने पर कर्म उतनी खूबी और लगन के साथ नहीं किये जा सकते, उनका उत्तर भी इसी में आ गया हैं। विद्वान् का अपना तो समस्त संसार ही हो जाता हैं-उसका परिवार तो बहुत विस्तृत एवं व्यापक हो गया। इसीलिए उसकी लग्न कर्मों में और भी तेज हो जाती हैं। यह हाय-तोबा न रहने के कारण उसकी सारी दृष्टि ईधर-उधर न बँट के कर्म पर ही रहने से कर्म और भी खूबी तथा सुन्दरता के साथ पूरा होता हैं। यही तो हैं कर्म के ऊपर समस्त शक्ति का केन्द्रीभूत (Concentration) होना। हाय-तोबा खत्म हो जाने से बेचैनी-परेशानी-भी नहीं रहती। वह बराबर मस्त भी रहता हैं

    जिनका विचार हो कि विद्वान् स्वयं तो कर्म लगन के साथ जरूर करे। मगर अज्ञानियों को कुछ समझाता-बुझाता भी रहे कि वे कर्म में आसक्ति छोड़ें और अपनी प्रगति का रास्ता साफ करें, उन्हीं के लिए आगे के चार (26-29) श्लोकों की बातें हैं। दरअसल अविद्वान् और अज्ञानी जनों को दो दलों में बाँट सकते हैं। एक तो ऐसे लोगों का, जो कुछ न कुछ समझते हैं सही। फिर भी विद्वानों के समान या उनके समाज के लायक नहीं होते। उन्हें अक्षरकट्टू कहिये, टटुपुँजिये समझदार कहिये, या अर्ध्द-दग्धा कहिये। मगर उनमें इतनी ही विशेषता होती हैं कि वे बातें समझते हैं, समझाने से कम-बेश समझ सकते हैं। इसीलिए वे गीता की गिनती में और गीताधर्म की ओर अग्रसर होनेवालों में भी आ सकते हैं, यद्यपि उनका दर्जा सबसे नीचे होता हैं। ऐसे ही लोगों के बारे में 'असक्त: स विशिष्यते' (37) कहा गया हैं। उन्हें समझाना-बुझाना ठीक ही होता हैं-उसका कुछ न कुछ परिणाम होता ही हैं, फिर चाहे जल्द हो या देर से हो।

    मगर दूसरा दल ऐसों का होता हैं जो चींटे की तरह कर्मों से लिपटते हैं, ऊँट की पकड़ पकड़ते हैं। वे जिस चीज को पकड़ते हैं उसे छोड़ना जानते ही नहीं। वे इतने सीधे और भोले होते हैं कि विवेक और अक्ल से उन्हें ताल्लुक होता ही नहीं। वे तो सिर्फ देखा-देखी करते हैं। उन्हें समझाइयेगा तो शायद ही समझें इसीलिए सीधे कह दीजिए कि यह काम करो और वे उसमें तन-मन से लिपट पड़ेंगे। सच पूछिये तो उन्हीं के लिए कह सुनाने की अपेक्षा कर दिखाने की जरूरत कहीं ज्यादा होती हैं। पहले जो कृष्ण ने अपना दृष्टान्त देकर लोकसंग्रह का विवरण बताया हैं वह ऐसों ही के लिए हैं। लोकसंग्रह के लोक या लोग ऐसे ही सीधे जन हैं। उन्हीं का संग्रह या सन्मार्ग पर जाना, यही लोकसंग्रह हैं। उन्हें ईधर-उधर भटकने न दे के एक रास्ते में बाँध रखा जाता हैं।

    ऐसे ही लोगों के बारे में एक पण्डितजी के श्राद्ध करवाने की बात कही जाती हैं। पण्डितजी का यजमान इतना सीधा था कि ठीक ही आँख मूँद के चलता था। पिण्डदान के समय पहले ही पण्डितजी ने उससे कह दिया कि मैं जो बोलूँ वही तुम भी बोलना। उनका आशय तो था मन्त्रों से, कि मैं जो मन्त्र जैसे पढ़ईँ तुम भी वैसे ही पढ़ते जाना। मगर वह था इतना सीधा कि उसने ऊँट की पकड़ पकड़ ली। जब पण्डित ने श्रीगणेश करते हुए उससे कहा कि तैयार हो जाओ, तो वह भी चट बोल बैठा कि तैयार हो जाओ। इस पर पण्डितजी ने रंज हो के कहा कि मैं तुमको पिण्डदान के लिए तैयार हो जाने को कहता हूँ। फिर तो वह भी बोल उठा कि मैं तुमको पिण्डदान के लिए तैयार हो जाने को कहता हूँ! अजीब बात थी! पण्डित जी जो बोलते थे वह भी वही दुहराता जाता था। उन्होने लाख कोशिश की कि उसे समझा के ठीक करें। मगर घण्टों इस हुज्जत में लगने पर भी कुछ नतीजा न हुआ। उसने तो उनकी शुरूवाली बात पकड़ ली थी। बस, ऐसे ही लोगों से यहाँ मतलब हैं। उन्हें समझाने की कोशिश करना बला मोल लेना हैं, जैसी कि पण्डितजी की हालत हुई, परेशानी हुई, और अन्त में क्रोध में पटका-पटकी तक हो गयी, जिसमें उसने पण्डितजी को धार दबोचा। मजबूत तो था ही। खूबी तो यह कि इतने पर भी वह समझता था कि मैं श्राद्ध ही कर रहा हूँ और यही श्राद्ध हैं! ऐसे लोगों को समझाने की कोशिश करने पर वह कहीं के नहीं रह जाते। वह तो ऊँट की पकड़वाली एक ही अक्ल जानते हैं, जैसा कि हितोपदेश का मेढक केवल भागने की एक अक्ल-एक बुद्धि जानता था। उपदेश देने में वह बुद्धि भिन्न हो जाती हैं, टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं, बँट जाती हैं और वह आदमी कहीं का रह जाता नहीं।

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्॥26

    कर्मों में लिपटे-चिपटे भोले अज्ञानी जनों की (उस ऊँट की पकड़वाली एक) अक्ल को छिन्न-भिन्न (हर्गिज) न करे। किन्तु योगी विद्वान् स्वयं सभी कर्मों को करता हुआ (देखा-देखी) उनसे भी करवाये।26

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते॥27

    (क्योंकि यद्यपि) प्रकृति के गुणों के द्वारा ही सभी कर्म किये जाते हैं (न कि आत्मा करती हैं। तो भी) जिनकी आत्मा अहन्ता-ममता-मैं और मेरे के ख्याल-के करते बिलकुल ही मोह में-घोर अँधरे में-फँसी हैं; फलत: जिन्हें (कुछ भी नहीं सूझता) वह अपने आपको ही करने वाले माने बैठे होते हैं।27

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।

गुणा गुणेषुर् वत्तान्त इति मत्तवा न सज्जते॥28

    हे महाबाहो, (इसके विपरीत) जो लोग गुणों और कर्मों के हिसाब-किताब और ब्योरे को पूर्ण रूप से जानते हैं-उसकी असलियत को देखते हैं-(कि किस गुण के साथ किस कर्म का कैसा ताल्लुक हैं) वह तो, यही जानकर कि गुणों से बनी कर्मेन्द्रियाँ ही उन्हीं से बने कर्मों में लगी हैं, उन कर्मों में लिपटते नहीं।28

    प्रकृतेर्गुणसंमूढा:  सज्जन्ते  गुणकर्मसु।
      
तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥ 29

    (लेकिन) जो प्रकृति के गुणों की इन सभी बातों को कतई जानते ही नहीं, वे गुणों के कर्मों में खुद फँस जाते हैं। (इसीलिए) सारी बातों को पूर्ण रूप से न जान सकने वाले उन नादानों को सभी बातों का जानकर आदमी (हर्गिज) घपले में न डाले।29

    हमने पहले गुणवाद के प्रकरण में इन तीनों गुणों के सभी पहलुओं पर पूर्ण प्रकाश डाला हैं। वहीं बताया हैं कि किस तरह गुण आपस में मिल के चलते और सभी कर्म करते-कराते हैं। इन्द्रियों का भी विवरण अच्छी तरह दिखाया गया हैं कि कौन सी इन्द्रियाँ किस गुण से बनी हैं। इन्द्रियों को और समूचे संसार को भी-इसीलिए कर्मों को भी-गुण क्यों कहते हैं यह भी बताया गया हैं। ऊपर के तीन (27-29) श्लोकों में यही बातें कही गयी हैं। इसीलिए कर्मों और इन्द्रियों को भी गुण कहा हैं और गुणों तथा कर्मों के बँटवारे या विभाग की भी बात इसीलिए कही गयी हैं।

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्‍यात्मचेतसा।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युधयस्व विगतज्वर:॥30

    (इसलिए तुम) आत्मज्ञान के बल से सभी कर्मों को मुझमें-भगवान में-अर्पण करके (और) सभी तरह की आसक्तियों एवं ममताओं से रहित हो के मस्ती के साथ लड़ो।30

    यहाँ जो 'अध्‍यात्मचेतसा' दिया हैं, ठीक इसी तरह की बात 'चेतसा सर्व-कर्माणि' (1857) में आयी हैं। गौर से देखने से मालूम होता हैं कि दोनों जगह एक ही बात कही गयी हैं। मगर अठारहवें अध्‍याय वाले श्लोक के उत्तरार्ध्द में 'बुद्धियोगमुपाश्रित्य' शब्द भी आया हैं। उससे पूर्व के (50-56) श्लोकों में ज्ञाननिष्ठा की ही बात आयी हैं। सो भी सबसे ऊँचे दर्जे की-परा-ज्ञाननिष्ठा की बात। उसी के सिलसिले में छठे अध्‍याय के ध्‍यानयोग की ही तरह वहाँ भी ध्‍यानयोग का और उसके साधन-स्वरूप नियमित भोजन आदि का वर्णन आया हैं। इससे स्पष्ट हो जाता हैं समाधि वगैरह के द्वारा पूर्ण आत्म-साक्षात्कार और आत्मानुभव की बात वहाँ कही गयी हैं। यही वजह हैं कि उसी समाधि की सिद्धि के लिए कर्मों का स्वरूपत: त्याग भी जरूरी हो जाता हैं। यह बात वहाँ भी आयी हैं। मगर आत्मज्ञान होने के बाद भी शायद कर्मों के त्याग पर हठ होने लगे, इसीलिए यह कहने की जरूरत हुई हैं कि पीछे तो कर्मों के स्वरूपत: संन्यास की जरूरत नहीं होती। यों स्वयमेव छूट जाये यह बात दूसरी हैं। तो फिर होता हैं क्या? होता हैं यही कि तत्त्वज्ञान के फलस्वरूप कर्मों को अपने में, आत्मा में तो सटने देते नहीं-कर्म आत्मा में तो रहने पाते नहीं। वहाँ से तो निकाल बाहर कर दिये गये! फिर वे रहें कहाँ यह सवाल होने पर उत्तर मिलता हैं कि जहाँ सारी दुनिया रहती हैं। यह दुनिया तो भगवान में ही रहती हैं यह बात 'मयिसर्वमिदं प्रोतं' (77), 'यो मां पश्यति सर्वत्र' (630), 'वासुदेव: सर्वमिति' (719), 'यस्यान्त: स्थानि भूतानि' (822), 'मत्स्थानि सर्वभूतानि' (94) आदि में साफ ही कही गयी हैं। इसीलिए 'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि' (510) में भी कर्मों को ब्रह्म में ही स्थापित कर देने की बात कही गयी हैं। वही बात यहाँ भी हैं। ज्ञानी यही समझता हैं कि मैं तो कुछ कर्ता-वत्तरा नहीं। सृष्टि का काम चलता हैं तो चले। इसमें अड़ंगा डालने वाला मैं कौन? मैं ऐसा करूँ भी क्यों? जिसकी यह सृष्टि हैं वह जाने और उसका काम जाने। मुझे इसकी फिक्र कि ये मेरे कर्म कहाँ रहेंगे और क्या करेंगे? इन सभी वाहियात खुराफातों का भार मेरे ऊपर तो हैं नहीं। यही हैं तत्त्वज्ञानपूर्वक कर्मों का भगवान में अर्पण, निक्षेप, स्थापना या संन्यास।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यंते तेऽपि कर्मभि:॥31

    जो मनुष्य हमारे इस सिद्धान्त के अनुसार काम करने की बराबर कोशिश करेंगे और मेरी बातों में श्रद्धा रखने के साथ ही निन्दा की जरा भी भावना न रखेंगे उनका भी कर्मों से छुटकारा होगा।31

    इस श्लोक में यद्यपि 'अनुतिष्ठन्ति' शब्द हैं, जिसका अर्थ होता हैं कि मेरे मत के अनुसार अनुष्ठान या काम करते हैं। फिर भी यह ठीक नहीं हैं। क्योंकि उत्तरार्ध्द में जो 'वे भी-तेऽपि' लिखा हैं उससे पता चलता हैं कि तत्त्वज्ञानियों के अलावे ये कोई दूसरे ही हैं। तत्त्वज्ञानियों के कर्मों से छुटकारे की बात तो पहले कही चुके। अब उसका कोई मौका हुई नहीं। अब तो नई बात कहनी हैं। तत्त्वज्ञानियों के लिए श्रद्धा और निन्दा न करने की बात भी नहीं आती। वे तो इन सभी बातों से बहुत दूर और ऊपर होते हैं। उनके नजदीक भी कर्म नहीं फटक पाता। फिर उससे छुटकारे का क्या सवाल? इसीलिए अनुष्ठान या काम करने की कोशिश करते हैं, यही अर्थ हमने किया हैं। यही उचित भी हैं। इसलिए नित्य या बराबर कहना भी ठीक होता हैं। क्योंकि बराबर कोशिश किये बिना सफलता नहीं मिलती हैं। ज्ञानी के लिए तो बराबर की बात हुई नहीं। उसके लिए यह कहना बेकार हैं। उस कोशिश में ही श्रद्धा का होना और निन्दा-बुद्धि का न होना भी सहायक होता हैं। इसीलिए जरूरी हैं। श्रद्धा एवं अनसूया का इतना ही अर्थ हैं कि ईमानदारी के साथ दिलोजान से यत्न किया जाये।

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।

सर्वज्ञानविमूढांस्तान् विद्धि नष्टानचेतस:॥32

    विपरीत इसके जो लोग मेरे इस सिद्धान्त की निन्दा करते हुए इसके अनुष्ठान का यत्न नहीं करते, समझ लो कि उन्हें किसी बात की जरा भी जानकारी नहीं हैं। हैं वे निर्बुद्धि और चौपटानन्द ही।32

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेज्र्ञानवानपि।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥33

    ज्ञानी भी (तो) अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलता हैं। (क्योंकि) सभी को प्रकृति के अनुकूल ही चलना होता हैं। इसमें रोकथाम क्या करेगी?33

    इस श्लोक और इसके बाद के दो श्लोकों को समझने के लिए एक तो इसके स्थान और प्रसंग को ठीक-ठीक जानना होगा। दूसरे पूर्व के पाँच (26-30) श्लोकों के अर्थ पर दृष्टि देना पड़ेगा। यह जानने में कुछ दिक्कत नहीं हैं कि इस श्लोक का असली स्थान 'मयि सर्वाणि' (330) के बाद ही हैं। क्योंकि बीच के दो श्लोक यों ही प्रासंगिक हैं। कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि कृष्ण किसी प्रकार अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए सारा प्रपंच रच रहे और आडम्बर फैला रहे हैं, इसीलिए 'ये मे मतमिदं' आदि दो (31, 32) श्लोकों में यह कह दिया गया हैं कि यह सर्वोपयोगी ध्रुवसिद्धान्त हैं जो सभी के लिए समान रूप से लागू हैं। अत: जो ही इसके अनुसार चलें या चलने की कोशिश ईमानदारी से करें उन्हीं का कल्याण हो जायेगा। विपरीत इसके जो ऐसा न करेंगे वे चौपट भी जरूर हो जायेगे। फलत: इन दो श्लोकों का कोई सैद्धान्तिक महत्त्व नहीं हैं। ये यों ही उठी शंका या खामख्‍याली को दूर कर देते हैं। इसीलिए बीच में इनके आ जाने पर भी इनके बाद के 33वें श्लोक का सम्बन्ध इनके पहले के 30वें के साथ ही रहता हैं।

    अब जरा पीछे वाले उन पाँचों के अर्थों पर गौर करें। उनमें यही कहा गया हैं कि नासमझ एवं सीधे-सादे लोगों के सामने ज्ञान कथन न सिर्फ बेकार हैं, बल्कि खतरनाक भी हैं। क्योंकि वे दुविधो में पड़ जाते हैं। उनकी बुद्धि ऐसे घपले में आ जाती हैं कि वे न तो घर के रहते और न घाट के। इतना ही नहीं। यदि समझदार और बड़े-बूढ़े लोग कर्म न करें तो वह देखा-देखी वैसा ही करते हैं। फलत: चौपट हो जाते हैं। ज्ञानियों और बड़े-बूढ़ों की भीतरी बातें वे क्या जानने गये? वे तो ऊपर से कर्मों का त्याग देख के खुद भी वैसा ही कर बैठे-कर बैठते हैं। इसीलिए ज्ञानियों के कर्मत्याग में यह बड़ा खतरा हैं। इसी से कृष्ण ने इसे रोका हैं और कहा हैं कि परमात्मा में ही कर्मों को छोड़ के ज्ञानी लोग उन्हें करते चलें। वे तो यह समझते ही हैं कि कर्म तो गुणों में हैं, प्रकृति के भीतर हैं, हममें तो हैं नहीं, हम तो उनसे बे लगाम हैं।

    ज्ञानी जनों के इसी ख्याल के साथ कि हममें तो कर्म हैं नहीं, किन्तु गुणों में ही हैं, यदि यह ख्याल भी आ मिले, जो पीछे के सत्रहवें श्लोक में आ गया हैं कि मस्तराम को कुछ भी करना-धरना रह नहीं जाता; फलस्वरूप वे लोग-आमतौर से यदि यही मान बैठें कि जब कर्मों का ताल्लुक हमसे हुई नहीं तो फिर हम करें ही क्यों? जब 'गुणागुणेषु वर्तन्ते' ही हैं तो फिर हम नाहक माथापच्ची क्यों करें? परेशानी क्यों उठायें? तो क्या होगा? नासमझ लोग तो प्रकृति के गुणों के बारे में निरे कोरे हैं, कुछ भी नहीं जानते। इसलिए वे भले ही कर्मों में चिपटें उनके लिए कर्म ठीक भी हैं। मगर हम ज्ञानीजन उनमें क्यों मरे-पिचें? हमें तो अपनी बात पहले देखनी हैं, पीछे दूसरों की, यदि यह ख्याल पक्का हो जाये तो कर्म छूटी जायेंगे। कम से कम कर्मों के लिए एक भारी खतरा तो खड़ा हो ही जायेगा और सारा उपदेश बेकार जायेगा। बस, इसी का उत्तर आगे के श्लोक देते हैं।

    ये श्लोक तीन बातें कहते हैं। श्लोक भी तीन ही हैं। इसीलिए क्रमश: तीनों की एक-एक बातें हैं। पहला-33वाँ-तो इतना ही कहता हैं कि मस्तराम को देख के दूसरे ज्ञानी कैसे हाथ-पाँव रोक देंगे, यदि वे चाहें भी? प्रकृति के गुणों की जो बात उनके बारे में कही जाती हैं उसकी आधी ही बात क्यों ली जाये और पूरी क्यों नहीं? एक तो मस्तराम की प्रकृति निराली और शेष ज्ञानी जनों की दूसरी ठहरी। प्रकृति के मानी तो यहाँ शरीर, इन्द्रिय, अन्त:करणादि होंगे न? प्रकृति का कोई दूसरा रूप तो होगा नहीं, जब हर आदमी के प्रति उसका विचार किया जायेगा। ऐसी दशा में मस्तराम के मन आदि दूसरे और शेष जनों के निराले ही ठहरे। और अगर मस्तराम के मन आदि कर्मों से हट भी जाये या कर्म ही पके फल की तरह उनसे हट जाये, तो इसका दूसरे के मन, इन्द्रियादि से क्या सम्बन्ध? दूसरे के मन, इन्द्रिय आदि क्यों हटेंगे? वे तो दूसरे हैं और अपनी-अपनी प्रकृति के ही अनुसार सभी चलते हैं। दूसरी बात यह भी हैं कि प्रकृति के गुणों की जैसी यह बात हैं कि कर्मों का ताल्लुक उन्हीं से हैं, न कि आत्मा से; ठीक वैसी यह बात भी तो हैं कि गुण कर्मों को कभी छोड़ नहीं सकते; मजबूरन कर्म करना ही पड़ता हैं-''कार्यतेह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:'' (35)? फिर यदि कोई भी ज्ञानी जन जबर्दस्ती हाथ-पाँव रोक के कर्म से हटना चाहेंगे तो यह कैसे होगा? उनकी यह रोकथाम क्या कुछ भी कर सकेगी? वह तो महज बेकार साबित होगी।

    तब फौरन यह प्रश्न उठता हैं कि यदि हाथ-पाँव आदि इन्द्रियों की रोकथाम हो ही नहीं सकती, जब रोकथाम बेकार हैं, क्योंकि वह कुछ भी कर सकती ही नहीं, तो ज्ञानेन्द्रियों की रोकथाम भी कैसे सम्भव हैं? आखिर सभी इन्द्रियाँ तो गुणों से ही बनी हैं न? और जब प्रकृति या उसके गुणों पर ही कब्जा नहीं हैं, तो फिर इन्द्रियों पर कैसे होगा, चाहे ज्ञानेन्द्रियाँ हों या कर्मेन्द्रियाँ, ऐसी हालत में इन्द्रियों के निग्रह, रोकथाम या नियमन का सवाल ही बेकार हो जाता हैं। और अगर यही बात मान लें, तो 'इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य:' (258), 'तानि सर्वाणि संयम्य' (261) तथा 'तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि' (268) में इन्द्रियों के निग्रह पर जो सबसे ज्यादा जोर दिया गया हैं और जो स्थितप्रज्ञ और योगी के लिए बुनियादी एवं मौलिक वस्तु माना गया हैं वह कैसे ठीक होगा? यही नहीं। इन्द्रियनिग्रह तो अध्‍यात्मशास्त्र और योग की सबसे मुख्य बात मानी जाती हैं और वही अब झूठी साबित होती हैं।

    इसका उत्तर बादवाला श्लोक यों देता हैं। आखिर शरीरयात्र के लिए इन्द्रियों की क्रिया जरूरी हैं और ज्ञान या विवेक के भी लिए। हाँ, इनके विषयों के साथ जो रागद्वेष हैं उन पर जरूर ही नियन्त्रण चाहिए- राग और द्वेष को ही खत्म करना चाहिए। यह बात बराबर सम्भव भी हैं। प्रकृति के ही गुणों में सत्त्व ऐसा हैं कि यदि उसकी प्रगति हो, पूर्ण विकास हो तो रागद्वेष को मिटा दे और हमें उनके चंगुल में कभी फँसने न दे। वह खतरे से पहले ही आगाह जो कर देता हैं।

    इसीलिए अर्जुन ने शुरू में ही जो कहा था कि मुझे यदि कर्म में भी लगाते हो, तो लगाओ, मगर हिंसात्मक युद्ध में क्यों खामख्वाह धकेलते हैं, उसका भी उत्तर हो जाता हैं। बाद का 35वाँ श्लोक यही उत्तर देता हैं कि यद्यपि युद्ध हिंसात्मक हैं, तो भी क्षत्रिय के लिए और खासकर अर्जुन के लिए तो वह स्वधर्म हैं, उसका निजी कर्तव्य हैं। अठारहवें अध्‍याय में तो साफ ही कहा हैं कि युद्ध क्षत्रिय का स्वाभाविक धर्म हैं, 'क्षात्रां कर्म स्वभावजम्' (1843) इसलिए 'स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत:' (1845) तथा 'स्वभावनियतं कर्म' (1847) में स्पष्ट कह दिया हैं कि ऐसे स्वधर्मों एवं स्वाभाविक कर्मों के करने में पाप और बुराई का तो सवाल ही नहीं। प्रत्युत इन्हीं से कल्याण होता हैं। 'चातुरर्वण्यं मया सृष्टं' (413) का भी यही आशय हैं। प्रकृति कहिये, या स्वभाव कहिये। बात तो एक ही हैं। अर्जुन को यही कहा गया हैं कि स्वधर्म को छोड़ परधर्म में जाना खतरनाक हैं। वह तो 'देशी मुर्गी बिलायती बोल' वाली बात हो जायेगी। फिर तो ऐसा करने वाले कहीं के न रह जायेगे।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्‍तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥34

    प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के साथ राग और द्वेष नियमित रूप से लगे हैं। इसलिए उनके वश में कभी न जाये। क्योंकि इस आत्मा के बटमार और लुटेरे वही दोनों हैं।34

शेयान्स्वधार्मो त्रिगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधार्मे निधानं श्रेय: परधार्मो भयावह:॥35

    दूसरे के बहुत अच्छी तरह पूरे किये गये धर्म की अपेक्षा अपना धर्म (देखने में) खराब या अधूरा रहने पर भी कहीं अच्छा हैं। (इसलिए) अपने धर्म के पीछे मर-मिटना ही अच्छा हैं। दूसरे का धर्म तो खतरनाक हैं।35

    लेकिन यह तो आमतौर से देखा जाता हैं कि लोग गलत रास्ते पर जाते हैं और अपना कर्तव्य पालन नहीं करते। युद्ध की निन्दा करना और इसे बुरा ठहराना यह आम बात हैं। लोग इससे हिचकते और भागते भी हैं-वही लोग जिनका यह स्वधर्म हैं। सभी बातों में यही देखा जाता हैं कि आमतौर से लोग पाप या कुकर्म की ही ओर झुकते हैं। ऐसा मालूम पड़ता हैं कि नाहक की मारकाट, निर्दयता, दुराचार-व्यभिचार मिथ्या भाषण आदि ही स्वाभाविक तथा प्राकृतिक चीजें हैं। जैसे चटाई के किनारे को पकड़ के मोड़ने में ऐसा होता हैं कि जब तक दबाव रहता हैं तभी तक मुड़ी रहती हैं और ज्योंही दबाव हटा कि ज्यों की त्यों हुई। ठीक वैसे ही मन और इन्द्रियों पर जब तक दबाव हैं, कुकर्म से बचती हैं। मगर ज्योंही दबाव हटा कि फिर वही पाप और कुकर्म। कुत्तो की पूँछ की सी हालत हैं। जब तक दबाओ तभी तक सीधी रहती हैं, नहीं तो फिर टेढ़ी की टेढ़ी । जैसा उसका टेढ़ापन या चटाई का सीधापन स्वाभाविक हैं, वैसे ही, मालूम पड़ता हैं, बुराई ही इन्द्रियों का स्वभाव हैं। इसी से देखते हैं कि युग-युगान्तर से ऋषि-मुनि, अवतार, पीर-पैगम्बर और औलिया हजारों और लाखों हुए। उन्होने उपदेश भी दिया। मगर संसार में उसी असत्य, उसी व्यभिचार, उसी निर्दयता आदि का ही बोलबाला हैं! मानो कुछ हुआ ही नहीं! गोया यही असली एवं अकृत्रिम बातें हैं और सत्य आदि ही कृत्रिम हैं! यहीं नहीं; बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी कभी न कभी इनमें फँसी गये हैं ! जब समाज के लिए सत्य आदि ही आवश्यक हैं और ठीक भी हैं और जब प्राकृतिक धर्मों का ही करना जरूरी हैं, उन्हीं को करना ही चाहिए, तो यह उल्‍टी बात क्यों होती हैं, यही बड़ी सी पहेली अर्जुन के सामने खड़ी हैं। इसीलिए-

अर्जुन उवाच

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥36

    अर्जुन ने पूछा-हे वार्ष्णेय, भला (बताइए तो सही कि) हजार न चाहने पर भी यह मनुष्य बुरा कर्म किसके दबाव से-क्यों-कर डालता हैं? मालूम पड़ता हैं, जैसे किसी ने जबर्दस्ती करवाया हो! 36

    इसीलिए दुर्योधन के बारे में कहा जाता हैं कि उसने कहा था कि, यह जानते हुए भी कि पाण्डवों का हक देना उचित हैं, मैं दे नहीं सकता। साथ ही, द्रौपदी आदि के साथ वाले दरुव्यवहार को बुरा समझते हुए भी मैं उससे बाज नहीं आ सकता। मालूम पड़ता हैं, कोई बड़ी भारी शक्ति भीतर बैठी जबर्दस्ती करवा रही हैं-''जानामि धार्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधार्मं न च मे निवृत्ति:। केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि''। क्या चोर नहीं समझता कि चोरी बुरी हैं ? क्या व्यभिचारी नहीं समझता कि यह काम खराब हैं? फिर भी सभी वही करते ही हैं! प्रश्न होता हैं कि नहीं चाहते हुए भी करने का रहस्य क्या हैं?

श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्॥37

    श्रीभगवान ने उत्तर दिया-यह काम-राग-हैं और यही क्रोध-द्वेष-भी हैं। इसकी उत्पत्ति रजोगुण से होती हैं। इसका पेट कभी भरता ही नहीं। यह पुराना पापी हैं। इस दुनिया में इसी को बैरी समझो।37

       धूमेनाव्रियते वद्दिर्यथादर्शो मलेन च।

       यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥38

    जैसे धुएँ से आग छिपी रहती हैं, जिस तरह मैल से आईना छिपा होता हैं, (या) जिस प्रकार गर्भ की झिल्ली में बच्चा छिपा रहता हैं, उसी तरह उस काम ने इस (ज्ञान) को छिपा दिया हैं।38

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥39

    ज्ञानियों के सदा के इस शत्रु ने, जिसे काम कहते हैं, जो कभी पूरा होता ही नहीं और जिसका अन्त भी नहीं होता या जो आग की तरह भीतर ही भीतर जलाता रहता हैं, ज्ञान को छिपा रखा हैं।39

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।

एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥40

    इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि (यही तीन) इसके अड्डे हैं। इन्हीं के द्वारा ज्ञान या भले-बुरे के विवेक पर पर्दा डाल के यह काम आत्मा को भटका देता हैं-किंकर्तव्यविमूढ़ कर देता हैं।40

तस्मात्तवमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥41

    इसलिए हे भरतश्रेष्ठ, पहले तुम इन्द्रियों को ही नियन्त्रण में ला के ज्ञान और विज्ञान को चौपट करने वाले इस बदमाश को जड़ से जरूर खत्म करो।41

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य परं मन:।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुध्दे: परस्ततु स:॥42

    (और पदार्थों की अपेक्षा) इन्द्रियाँ ऊँची या बड़ी हैं, इन्द्रियों से भी बड़ा मन हैं, मन से ऊपर बुद्धि हैं और जो बुद्धि के भी ऊपर हैं वही वह (आत्मा हैं)।42

एवं बुध्दे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥43

    हे महाबाहो, बुद्धि के भी ऊपर रहने वाली आत्मा को इस प्रकार जानकर और स्वयमेव मन को रोक के, वश में करके बड़ी दिक्कत से पकड़े जाने वाले कामरूपी इस शत्रु को खत्म करो।43

    यहाँ दो-एक जरूरी बातें जाने बिना अन्त के चार-पाँच श्लोकों के अर्थ समझने में दिक्कत होगी। इसीलिए वे बातें कह देना जरूरी हैं। यह तो दूसरे अध्‍याय में ही कह चुके हैं कि काम और क्रोध एक ही चीजें हैं। उसी की सफाई यहाँ की गयी हैं। सोलहवें अध्‍याय के अन्त में इन्हीं दो के साथ लोभ भी जुट गया हैं 'काम:क्रोधस्तथा लोभ:' (1621)। जिस तरह काम और क्रोध एक हैं, उसी तरह लोभ भी काम से भिन्न नहीं हैं। असल में इस काम, कामना, वासना या इच्छा के ही ये क्रोध और लोभ दो रूप हैं, जो परिस्थितिवश बन जाते हैं-काम को ही क्रोध के रूप में और लोभ के रूप में परिणत हो जाना पड़ता हैं। जिसे कामना नहीं उसे क्रोध और लोभ से भी कोई ताल्लुक नहीं हैं। क्रोध से कैसे भीतर अन्धकार हो जाता हैं यह 'क्रोधद्भवति सम्मोह:' के अर्थ में स्पष्ट दिखा चुके हैं। उसी को आवरण या पर्दे के रूप में यहाँ कहा हैं।

    यह काम ही विवेकी जनों का असल शत्रु हैं। इसका नाश इसीलिए जरूरी हैं। मगर इसके अड्डे का पता चले तब न इस पर धावा बोलें? इसलिए इन्द्रिय, मन और बुद्धि इन तीनों को ही इसका अड्डा बता दिया हैं। यह रहता तो हैं दरअसल अन्त:करण में और उसी के रूप हैं मन और बुद्धि। मगर इन्द्रियों के बिना बाहर तो मन या बुद्धि जा नहीं सकती और बाहरी पदार्थों में ही रागद्वेष होते हैं। बाहरी से तात्पर्य हैं भौतिक पदार्थों से। इसीलिए इन्द्रियों को भी अड्डा करार दिया हैं। बुद्धि यदि ठीक हो, विवेकयुक्त हो तो भी काम रहेगी न। इसीलिए उसे भी इसका डेरा कहा हैं। यों तो असली डेरा मन ही हैं। इस प्रकार तीन अड्डे हो गये। लिखा हैं भी कि इन तीनों की मदद से ही देह के मालिक-देही-आत्मा को यह काम भटका देता हैं।

    अब रहा इसे खत्म करने का उपाय। असली बला तो इन्द्रियाँ ही हैं। न वे बाहर मनीराम को जाने देंगी और न कामना होगी। इसलिए यह तो आसानी से जाना जा सकता हैं कि इस तरफ पहला कदम जो बढ़ेगा वह इन्द्रियों पर नियन्त्रण, अंकुश या कब्जा रखने से ही शुरू होगा। इसीलिए कह दिया हैं कि इन्द्रियों को सबसे पहले बिना सोचे-विचारे ही आँख मूँद के कब्जे में करो। उसके बाद आगे का उपाय सोचो। ऐसा कहने का यह अर्थ कभी नहीं हैं कि सिर्फ इन्द्रियों को रोक कर ही इसे खत्म करेंगे। तब तो आगे के श्लोकों में कही बातें बेकार हो जायेंगी। केवल इन्द्रियों के रोकने से यह मर भी नहीं सकता। इसके दूसरे भी तो अड्डे हैं और वही असली हैं-बुनियादी हैं। बिना मन और बुद्धि को वश में किये इन्द्रियाँ सोलह आने वश में हो भी नहीं सकती हैं। इसीलिए हमने कहा हैं कि उनका रोकना नींव या श्रीगणेशायनम: ही समझिए।

    असली उपाय यह बताया हैं कि इन्द्रियाँ शरीर और अन्य पदार्थों से बड़ी या उनके ऊपर हैं। वही शरीर को दौड़ाती रहती हैं। सिनेमा, गान, भोज में खींच ले जाती हैं। यद्यपि विषय इन्द्रियों को भी खींचते हैं। तथापि उन्हें यहाँ छोड़ दिया हैं। क्योंकि अवें को ही पकड़ना था। इन्द्रियों के ऊपर हैं मन और मन के ऊपर बुद्धि। आत्मा तो सभी का मालिक हैं। देह में ही ये सब हैं और देही वही हैं। यह बात पहले अच्छी तरह समझाई जा चुकी हैं। अब काम यों होता हैं कि पहले आत्मा का तत्त्वज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर बुद्धि से उसके आनन्द का अनुभव करते हैं। इस तरह बुद्धि को उसमें फँसा देने पर-क्योंकि वह आनन्द हुई ऐसा कि एक बार मजा आने पर बुद्धि वहाँ से हट सकती ही नहीं-मन भी उधर ही खिंचेगा। कोचवान के ही हाथ में लगाम होती हैं न? और मन हैं लगाम और बुद्धि कोचवान। फिर तो इन्द्रियाँ भी खिंच गयीं और बाहरी पदार्थों में न जा के आत्मा में ही लग गयीं। तब काम महाराज रहेंगे कहाँ? कुछ समय इन्तजार करके हमेशा के लिए उन्हें आत्महत्या करनी पड़ती हैं जब पूर्ण निराश हो जाते हैं। फलत: ज्ञान और विज्ञान का ही बोलबाला रहता हैं। इन दोनों का अर्थ बताया जा चुका हैं।

    इन्द्रिय और मन आदि को जो एक दूसरे के ऊपर कहा हैं यही...विषय, महान और अव्यक्त को जोड़ के कठोपनिषद् में भी दो बार यों आयी हैं, ''इन्द्रियेभ्य: परा ह्यर्था ह्यर्थेभ्यश्च परं मन:। मनसस्तु परबुद्धिर्बुध्देरात्मा महान्पर:''10। महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर: । पुरुषान्नपरं कि×चत्सा काष्ठा सा परागति:'' 11।(13), तथा ''इन्द्रियेभ्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्ताम्। सत्तवादधिमहानात्मामह तोऽव्यक्तमुत्तामम्।7। अव्यक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिंगएव! यज्ज्ञात्वामुच्यते जन्तुरमृतत्तवं च गच्छति''8। (26)। यहाँ सत्त्व का अर्थ हैं बुद्धि और महान आत्मा का अर्थ हैं महत्व या महतत्त्व। अव्यक्त नाम हैं प्रकृति का। क्रम तो यही हैं। मगर गीता को इस विस्तार से कोई काम नहीं हैं। वह तो बुद्धि को ही आत्मा में लगा के मन और इन्द्रियों को अपनी ही ओर खींच लेना और इस तरह काम, राग या अभिलाषा को मार डालना चाहती हैं। उसने यही बताया भी हैं

    आखिरी श्लोक जो में दुरासद शब्द हैं उसका अर्थ हैं बड़ी कठिनाई से पकड़ा जाने वाला। असल में इस राग या काम के इतने स्थूल, सूक्ष्म और विभिन्न रूप हैं कि जल्द उनका पता लगना असम्भव हैं। काम की हालत भी यह हैं कि धोखा दे के फँसा लेता हैं और पता ही नहीं चलता हैं कि फँस गये हैं। भक्ति और  उपासना के नाम पर जानें कितने ही प्रपंच रचे जाते हैं जो पतन के ही मार्ग हैं। मगर पता ही नहीं लगता और लोग उनमें फँस जाते हैं; इसीलिए इसे दुरासद कहा हैं ताकि लोग सजग रहें।

    इस अध्‍याय में साधारण से साधारण कर्मों से ही शुरू किया हैं और अन्त तक उसी की बात कहते आये हैं। मामूली से मामूली कर्मों से लेकर ऊँचे से ऊँचे  या कर्मयोग तक का वर्णन इसमें आ गया हैं। 'मयि सर्वाणि' (330) में आखिर हैं क्या यदि कर्मयोग नहीं हैं? इसलिए समूचे अध्‍याय पर कर्म की ही छाप लगी हैं। यही कारण हैं कि ज्ञान की जो बात आयी हैं वह गौण या अप्रधान हैं। वह या तो उसी का साधन हैं या मस्ती का ही; जैसा कि 'यस्त्वात्मरति:' (317) में कहा हैं। फलत: कर्म की प्रधानता के कारण इस अध्‍याय का विषय कर्म ही हैं। जैसे दूसरे अध्‍याय का विषय सांख्य या ज्ञान हैं। ज्ञान से ही शुरू करके बीच में और अन्त में भी उसी का वर्णन हैं। कर्म तो बीच में ही आया हैं, सो भी अप्रधान रूप से ही।  

    इति श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रो श्रीकृष्णार्जुन संवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्‍याय:॥3 

    श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद हैं उसका कर्मयोग नामक तीसरा अध्‍याय यही हैं।

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तीसरा अध्‍याय

 

 

 

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