हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 

  Swami Sahajanand Saraswati
स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-3 (गीता हृदय)

पहला-अन्तरंग भाग : 1. गीता के मुख्य मंतव्य (I)

मुख्य सूची खंड - 1 खंड - 2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6

गीता-हृदय

गीता-सप्तश्लोकी
प्रारम्भिक शब्द

पहला : अन्तरंग भाग

1. गीता के मुख्य मन्तव्य

कर्तव्यके प्रश्न
अध्यात्मवाद और भौतिकवाद
गीता का समन्वय

श्रध्दा, दिल और दिमाग़
कर्म के भेद

यज्ञार्थ कर्म
ईश्वरार्पण और मदर्थ कर्म
कर्तव्य कर्म
स्वभाव के प्रभाव
महात्मा और दुरात्मा
संन्यास और लोक-संग्रह
आरुरुक्ष और आरूढ़

(...अगला पृष्ठ)

गीता-सप्तश्लोकी 

प्राचीन लोगों ने अपने-अपने खयाल के अनुसार गीता के सात श्लोकों को चुनकर एक या कई सप्तश्लोकियाँ मानी हैं। वैसा ही प्रचार भी हुआ है। गीता-हृदय लिखने के समय इस बार भी ध्‍यान दिया गया है। फलत: 'हृदय' ने जिसे सप्तश्लोकी स्वीकार किया है वह कुछ दूसरी ही है। उसका स्वरूप यह है :

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥247

योगस्थ: कुरुकर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनन्जय।

सिध्दयसिध्दयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥248

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥317

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगंकर्मकारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते॥63

सत्तवानुरूपा सर्वस्य श्रध्दा भवति भारत।

श्रध्दामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रध्द: स एव स:॥173

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं कुरुतेऽर्जुन।

ङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्तिवको मत:॥189

सर्वधार्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अह त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥1866

प्रारम्भिक शब्द

गीता के साथ मेरा सम्बन्ध प्राय: चालीस साल से है, जब मैं दस-ग्यारह वर्ष का बच्चा था। उपनयन और यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही मेरे दिल में अन्यान्य धार्मिक आचारों के साथ गीता को भी जाने कैसे स्थान मिल गया! आज इस मधुर स्मृति के फलस्वरूप आश्चर्य होता है कि सचमुच यह बात क्यों हो पाई जो आज तक कायम ही नहीं है, किन्तु उसने सूद भी काफी कमाया है। इन चालीस से ज्यादा वर्षों ने गीता के साथ मेरी जो तन्मयता और अभिन्नता कायम कर दी है वह मेरे जीवन की एक खास चीज है। धार्मिक और राजनीतिक मामलों में मैं इस दरम्यान कहाँ से कहाँ जा पहुँचा! इनके सम्बन्ध में मेरे भीतर ऐसी क्रान्ति हो गयी कि आज अपने को बिलकुल ही निराली दुनिया में पाता हूँ! फिर भी गीता और गीताधर्म अपनी जगह पर ज्यों-के-त्यों हैं-अविचल हैं, अटल हैं। बल्कि वह तो और भी बद्धमूल हो गये हैं!

    बेशक, गीता के साथ मेरा पहला सम्बन्ध केवल धार्मिक था-धार्मिक उसी मानी में जिसमें इस शब्द का आमतौर से व्यवहार किया जाता है और अब भी तो वह सम्बन्ध धार्मिक ही है। फर्क इतना ही है कि पहले का 'केवल' हट गया है। या यों कहिये कि धर्म का रूप बहुत व्यापक बन गया है। इसे व्यापक तो और लोग भी कहते और मानते हैं। मगर मेरे सम्बन्ध में इसकी व्यापकता कुछ निराली है और गीता-हृदय की पंक्तियाँ इसे साफ बताती हैं। सारांश यह कि गीता के सार्वभौम धर्म ने मेरे धर्म को भी अपना लिया है और उसे भी सार्वभौम बना डाला है। यही तो मेरे वेदान्त का असली अद्वैतवाद है। एक समय था, जब मैं गीता में संकुचित मुक्ति का मार्ग देखता था, निष्क्रिय वेदान्तवाद और अध्‍यात्मवाद की झाँकी पाता था। परन्तु आज ये सभी चीजें व्यापक और सार्वभौम हो गयी हैं, पूर्ण सक्रिय हो गयी हैं। एक वक्त था-और वह आज से प्राय: छ: साल पहले तक था-जब मैं मानता था कि मेरे जैसे गीता-प्रेमी के लिए मार्क्‍सवाद में स्थान नहीं है और यह कि गीताधर्म का मार्क्‍सवाद के साथ मेल नहीं है-विरोध है! मगर आज? आज तो वह खयाल सपने की चीज हो गयी है और मैं न सिर्फ यही मानता हूँ कि गीताधर्म का मार्क्‍सवाद के साथ विरोध नहीं है; किन्तु मेरे जानते गीताधर्म मार्क्‍सवाद का पोषक है। मेरे खयाल से गीता के 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' और 'सर्वभूतहितेरता:' सिवाय सच्चे मार्क्‍सवादियों के और कौन हो सकते हैं? वही तो समस्त मानव समाज का पुनर्निर्माण इस तरह करना चाहते हैं कि एक भी आदमी दु:खी, पराधीन, समुन्नति के सभी साधनों से वंचित न रहने पाये।

    निस्सन्देह प्रारम्भ में गीता का अर्थ मैंने जो समझा था और बहुत दिन बाद तक भी, वह अब ठीक उसी प्रकार बदल गया जैसे उस समय के जीवन सम्बन्धी दूसरे विचार आमूल परिवर्तित हो गये। यह है भी स्वाभाविक। जीवन के चालीस साल गुजरने पर ही विचारों में स्थायित्व और परिपाक होता है। फलत: जब मैं पीछे देखता हूँ तो उस दकियानूस दुनिया को देख के चकित हो जाता हूँ और खुश भी होता हूँ कि उससे पिंड भले छूट गया। इधर गीता की हालत यह रही है कि इसका जितना ही मन्थन करता हूँ इससे उतने ही महान् अर्थ निकलते हैं। ऐसा मालूम होता है कि अभी-अभी इसे समझ सका हूँ और समझने लायक हो सका हूँ। इसीलिए, आज से पचीस साल पूर्व जो मैंने यही गीता-हृदय लिखने का श्रीगणेश किया था और उसका कुछ अंश लिख के भी मैं उसे पूरा न कर सका था और इसीलिए कभी-कभी अफसोस भी करता था, इन बातों को देखते हुए, आज उल्टे खुशी हो रही है। क्योंकि उस समय कुछ लिख के तो आज पछताना ही होता। अब जो कुछ लिखा है और लिख रहा हूँ यही ठीक है और पहले यह हर्गिज लिखा न जाता।

    हमारी हालत यह है कि हम गीता की टीकाओं और उसके भाष्यों के बीच में बैठके ही गीता का अर्थ समझना चाहते हैं। यही कारण है कि उसे ठीक समझ पाते नहीं। बच्चे को बराबर सवारी पर ही चलाइये तो वह खामख्वाह पंगु होगा। उसके पाँवों में शक्ति न आ पायेगी। यही हालत टीका के सहारे ग्रन्थों के पढ़ने वालों की हो जाती है। उनकी बुद्धि में शक्ति और स्वावलम्बन नहीं आने पाता और वह पंगु हो जाती है। मेरी भी पहले यही हालत थी। मगर 1922 में फैजाबाद जेल में पहले-पहल केवल एक नन्ही-सी गीता की गुटका मिली। विवश हो के उसका स्वतन्त्र विचार करने पर मुझे जो मजा मिला और जो नया अर्थ सूझा उसे कह नहीं सकता। खूबी तो यह है कि अधिकांश वही अर्थ मूलत: आज कायम भी है। इसीलिए उस गुटका से मुझे खास मुहब्बत हो गयी है। उसे बराबर साथ ही रखता हूँ। उसने भी मेरे साथ बार-बार जेलयात्र की है। उसी से मैंने जो कुछ गीतार्थ सीखा है वही लिपिबद्ध कर रहा हूँ।

    गीता मुझसे अभिन्न हो गयी है और मैं उससे अभिन्न बन गया हूँ। अन्य विचारों तथा ग्रन्थों की जुदाई बर्दाश्त कर सकता हूँ मगर उसकी नहीं। आत्मा की जुदाई भला बर्दाश्त हो? उसके सम्बन्ध के विचार बीसियों साल से हृदय में पले हैं। ये सचमुच ही हृदय के खून से सींचे गये हैं। लेकिन फिर भी इन्हें जुदा करने में जानें क्यों अपार खुशी हो रही है। शायद इसीलिए कि जुदा होने पर ये और भी स्थायी हो रहे हैं। शायद यही करने से इन्हें पुष्पित, फलित होने का मौका मिलेगा।

    गीता-हृदय के तीन भाग करने का विचार है-पूर्व, मध्‍य और उत्तर। इन्हीं का नाम मैंने क्रमश: अन्तरंग, गीता और बहिरंग भाग भी रखा है। पूर्व या अन्तरंग भाग में सिर्फ उन्हीं विचारों का संकलन है जिनसे गीताधर्म और गीतार्थ समझने में पूरी मदद मिलेगी। ये उसके लिए रास्ता साफ करते हैं। इसीलिए इन्हें अन्तरंग कहा है। मध्‍य या गीता-भाग में गीता के श्लोकों के सीधे अर्थ लिखे गये हैं-वही अर्थ जो शब्दों से सीधे निकलते हैं। मगर आवश्यकतानुसार छोटी-बड़ी टिप्पणियाँ भी दी गयी हैं। इनके पढ़ने से ही पता चलेगा कि ये कितनी जरूरी हैं उस अर्थज्ञान के लिए। उत्तर भाग या बहिरंग भाग में शास्‍त्रीय विचार के आधार पर गीतार्थ का अन्य दार्शनिक विचारों और खयालों के साथ तुलनात्मक विवेचन होगा।

    जिस परिस्थिति में यहाँ पहले दो भाग लिखे जा रहे हैं उसमें तृतीय भाग के लिए पूरी सामग्री न होने के कारण ही वह लिखा न जा सका है। देखें कब पूरा होता है। संभव है, न भी हो, कौन कहे

स्वामी सहजानन्द सरस्वती

सेण्ट्रल जेल, हजारीबाग  
     गुरुवार (1-1-42)  (राजबन्दी)

(शीर्ष पर वापस)

 
पहला अन्तरंग भाग

1. गीता के मुख्य मन्तव्य

कर्तव्याकर्तव्य के प्रश्न

कर्तव्य-अकर्तव्य का झमेला, कर्म करें, न करें का सवाल, बुरे-भले की पहेली और इन दोनों का निर्णय कैसे हो यह जिज्ञासा-ये सभी-पुरानी बातें हैं, इतनी पुरानी जितनी पुरानी यह दुनिया है। कोई भी ऐसा देश नहीं है, समाज नहीं है जहाँ एक न एक समय यह उधोड़-बुन और समस्या लोगों के सामने-कम-से-कम उनके सामने तो अवश्य ही जिन्हें समझ हो और जो तह के भीतर घुसने की योग्यता रखते हों-आ न खड़ी हुई हो। सभी देशकाल के विद्वानों के समक्ष ये और इसी तरह के बहुतेरे प्रश्न बराबर आते रहे हैं और उनने अपनी-अपनी समझ तथा पहुँच के मुताबिक इनका उत्तर भी दिया है, समाधान भी किया है। मानवसमाज के इतिहास में यह एक ही बात ऐसी है जो बिना धर्म और सम्प्रदाय के भेद के, समान रूप से सभी जगह पायी गयी है और, हमें आशा है, आगे भी पायी जायेगी। अकेले इस सम्बन्ध के प्रश्नों ने लोगों को जितना परेशान किया है और उन्हें इनके बारे में जितनी माथापच्ची करनी पड़ी है, शायद ही किसी एक विषय को लेकर यह बात हुई हो। इसी से पता चलता है कि यह विषय कितना महत्तवपूर्ण है।

    इन सवालों, इन प्रश्नों और इन जिज्ञासाओं के जो उत्तर आज तक दिये गये हैं और जिन्हें लोगों ने किसी न किसी रूप में लिख डाला है, उन्हें अगर एक जगह जमा कर दिया जाय तो खासा पहाड़ खड़ा हो जाय। नीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र के ग्रन्थों, वैदिक एवं दार्शनिक वचनों, कुरान एवं हदीस की किताबों, बाइबिल और जेन्दअवेस्ता की पोथियों, जैन तथा बौद्ध मतों की देशनाओं और चार्वाक आदि नास्तिकों के उपदेशों के अलावा गत कई हजार साल के भीतर विभिन्न देशों में जो आईन-कानून की किताबें तैयार की गयी हैं वह सबकी-सब आखिर इन्हीं प्रश्नों का ही तो उत्तर देती हैं। खूबी तो यह कि इनमें बहुतेरे उत्तर और जवाब ऐसे हैं जो समय-समय पर बदलते रहे हैं। कम-से-कम आईन-कानून तो किसी देश या समाज के लिए हमेशा एक ही तरह के रहे नहीं। वे तो समाज के साथ ही बदलते रहे हैं। उनकी प्रगति और तरक्की समाज के साथ बँधी रही है। यदि इस नजर से देखते हैं तो यह समस्या, और भी पेचीदी हो जाती है, इसका महत्तव और इसकी अहमियत हजार गुना बढ़ जाती है।

(शीर्ष पर वापस)

अध्‍यात्मवाद और भौतिकवाद

इन प्रश्नों पर सोचने और इनके उत्तर देने वाले लोग दो तरह के होते रहे हैं। चाहे उन्हें अध्‍यात्मवादी कहिये या नीति और एथिक्स (Ethics) के पैरो और प्रचारक कहिये। मगर भारत के धर्मशास्त्रियों और नीतिशास्त्र के आचार्यों से लेकर ग्रीस के प्राचीन तत्‍ववेत्‍ताओं और पश्चिमी देशों के आज तक के आचार शास्त्रों के आचार्यों तक को हम आमतौर से दो ही श्रेणियों में बाँट सकते हैं। इन्हीं के भीतर चीन के कन्फ्यूसियस आदि सम्प्रदायों के प्रर्वतक तथा विद्वान लोग भी आ जाते हैं। इनमें एक दल तो उनका रहा है और है भी जो केवल अध्‍यात्म दृष्टि या आत्मा-परमात्मा और लोक, परलोक की दृष्टि से, इसी खयाल से, कर्तव्य, अकर्तव्य या कर्म के त्याग और करने का निश्चय करते आये हैं, करते आ रहे हैं। ऐसी हर बात में उनकी नजर दुनियावी नफा-नुकसान और हानि-लाभ की कोई खास कीमत नहीं कूतती। वे तो ऐसे मौके पर हमेशा सिर्फ उसी आत्मा, परमात्मा आदि की दृष्टि से इसका निर्णय करते चले आ रहे हैं कि क्या बुरा और क्या भला है। उनने भले-बुरे की कसौटी सिर्फ यही रखी है कि किस काम से आत्मा कितना नीचे गिरती या ऊँचे उठती है, उसका कितना पतन और उत्थान होता है और करनेवाला उससे परमात्मा के कितना नजदीक या दूर जाता है। उन लोगों ने इस बात की कसौटी भी अपनी-अपनी पहुँच और समझ के अनुसार बना रखी है जिससे इस बात की परख हो सके कि उत्थान या पतन आदि कहाँ तक और कैसे हो रहे हैं, अभी इस सम्बन्ध में अधिक लिखना अप्रासंगिक है।

    दूसरे दलवाले इसके विपरीत उचित-अनुचित या कर्तव्य-अकर्तव्य वगैरह की जाँच केवल सांसारिक हानि-लाभ एवं नफा-नुकसान के ही तराजू पर करते हैं। उनकी नजरों में या तो आत्मा-परमात्मा या लोक-परलोक नाम की कोई चीज हुई नहीं, या अगर हो भी तो उसे इस मामले में खामख्वाह 'दालभात में मूसरचन्द' बनने-बनाने की जरूरत नहीं। वे कहते हैं कि खासतौर से यदि कोई अपने परमात्मा, भगवान् या खुदा की पूजा-परिस्तिश करना चाहे और उसकी ढूँढ़ खोज में परेशान हो, तो उसे आजादी है, आजादी हो सकती है, और इस तरह जो रास्ता उसने अख्तियार किया है उसकी जाँच-पड़ताल के लिए भले ही वह आत्मा-परमात्मा की कसौटी का इस्तेमाल कर सकता है। उसमें दूसरे को या दूसरे दलवालों को उज्र नहीं। उसकी यह अपनी निजी चीज जो ठहरी। मगर जनसाधारण या आम लोगों के कामों को तौलने के लिए उस तरह की नाप-जोख की इजाजत उसे हर्गिज दी नहीं जा सकती, और न ऐसा करने का उसे हक ही प्राप्त है। वे तो सिर्फ यही देखना चाहते हैं कि किस काम से ज्यादा लोगों को फायदा ही या नुकसान पहुँचता है। क्योंकि किसी भी काम से सभी का न तो फायदा हो सकता और न नुकसान ही। चोरी-डकैती से भी तो कुछ लोगों को लाभ होता ही है और रोकने से हानि भी होती है। यहाँ तक कि साँस लेने और पलक मारने में भी हजारों जीवधारी कीटाणु खत्म हो जाते हैं। इसीलिए अधिकांश लोगों के हानि-लाभ की ही कसौटी पर नेकी या बदी की जाँच की जा सकती है।

(शीर्ष पर वापस)

गीता का समन्वय

मगर गीता ने इन दोनों विचारों को एकांगी और अधूरा माना है। उसके मत से हमें आदमी के स्वभाव का खयाल करके दोनों ही को मिलाना और उन्हीं के आधार पर कर्म, अकर्म, कर्म के त्याग या ग्रहण और कर्तव्य-अकर्तव्य का निश्चय करना चाहिए। भौतिक हाड़-मांस और दिल-दिमाग से हम मनुष्य को जुदा कर सकते नहीं और ये भौतिक पदार्थ स्वभावत: दुनियाबी हानि-लाभों और बुरे-भलों की ही तरफ झुकते और दौड़ते हैं। उन्हीं को पहचानते और पकड़ते हैं और उन्हीं से अपना गँठजोड़ करते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह बच्चा माँ की सूरत-शकल या आवाज को सुनते ही उधर दौड़ पड़ता है और उसी से जा लिपटता है। इसमें दलील की तो गुंजाइश नहीं। यह तो कठोर सत्य है।

    मगर इसमें धोखा और खामी रह जाती है, इस बात की इसमें पूरी सम्भावना बराबर बनी रहती है। कारण अधिकांश लोगों का सांसारिक लाभ या नुकसान किसमें है, इस बात का निर्णय प्राय: असम्भव है। इसके लिए जितने भी तरीके सुझाये गये हैं, सबके-सब अधूरे एवं दोषपूर्ण हैं। अल्पमत और बहुमत का निश्चय वर्तमान मानव-समाज के लिए निहायत पेचीदा पहेली है। इसी झमेले में दुनिया तबाह हो रही है। ऐसा भी होता है कि तुच्छ निजी स्वार्थ ही कभी-कभी जनहित जँचने लगता है। इसीलिए सांसारिक हिताहित या हानि-लाभ के सिवाय आध्‍यात्मिक दृष्टि का भी पुट इसमें आ जाना जरूरी हो जाता है। इससे तुच्छ स्वार्थ का तो मौका रही नहीं जाता। साथ ही, बहुमत के निर्णय की परेशानी से भी पिंड छूट जाता है। गीता की जो अध्‍यात्म दृष्टि है उसमें कुछ ऐसी शक्ति और जड़ी-बूटी की ताकत है कि हर काम की बाहरी रूपरेखा को बदल के वह उसे सुन्दर, निर्दोष और कल्याणमय बना देती है।

    इसका यह मतलब हर्गिज नहीं है कि इसके चलते कर्तव्य-अकर्तव्य के संसार में अन्‍धेर मच जाएगी; यह सभी के बाहरी रूप को पलटने वाली मानी जो जाती है। बात ऐसी नहीं है। इस दृष्टि के फलस्वरूप आमतौर से अच्छे माने जाने वाले कामों में प्रवृत्ति और दूसरों से निवृत्ति तो एक तरह का नियम बन जाती है, स्वभाव बन जाती है। मगर अपवादस्वरूप अगर कभी संयोगवश उलट-फेर भी हुई, तो भी गड़बड़ होने नहीं पाती और इसके करते वैसे ही मौके पर ऊपर से बुरे दीखने वाले कामों और अमलों की कायापलट हो जाती है। फलत: कहीं भी पश्‍चाताप या अफसोस की गुंजाइश रह नहीं जाती। यदि कहें तो कह सकते हैं कि सांसारिक दृष्टि और परख में जो कमी और मानव स्वभाव में जो त्रुटि रह जाती है उसी की पूर्ति कर्तव्याकर्तव्य के बारे में यह अध्‍यात्म दृष्टि करती है। यह बात प्रसंगवश आगे दिखाई जायेगी।

        लेकिन एक बात यहीं पर जान लेना जरूरी है। गीता के सिद्धान्त के अनुसार किसी भी क्रिया का, काम का, अमल का, ऐक्शन (action) का बाहरी रूप कोई चीज नहीं है। किसी भी काम को बाहर से, ऊपर से या यों ही देख-सुन के हम उसे भला या बुरा नहीं कह सकते। ठोस या स्थूल पदार्थों की बात है कि उनका जो रूप देखा-सुना जाता है आमतौर से वही सही और असली माना जाता है और उसी के मुताबिक उन्हें हेय या उपादेय, त्याज्य या ग्राह्य माना जाता है। मगर यह बात कर्मों या अमलों के बारे में लागू नहीं है। ऊपर से जिन कामों को हम सुन्दर, कर्तव्य और ग्राह्य मानते हैं वह ठीक उल्‍टे हो सकते हैं। यही हालत बुरे, कर्तव्य तथा त्याज्य कामों की भी समझी जानी चाहिए। गीता के मत से हिंसा अहिंसा और अहिंसा हिंसा हो सकती है, हो जाती है। यही बात सभी कर्मों के सम्बन्ध में लागू है। गीता तो इस सम्बन्ध में यह मानती है कि करने वालों की भावना, धारणा, निश्चय, मानसिक संकल्प और दिल की पुकार उन कर्मों के बारे में कैसी है, वे किस विचार और खयाल से उन कामों को करते हैं, उनके मानसिक पटल पर कौन सा स्थान किस तरह का उन कर्मों को मिला है, उनके और उनके फलों के सम्बन्ध में उन्हें ममता और आसक्ति है या नहीं वे उन कर्मों से और उनके फलों से अपने दिल और दिमाग के जरिये लिपटे हैं या नहीं, इत्यादि बातों का फैसला ही, इन्हीं की असलियत ही उन कामों को बुरा या भला, उचित या अनुचित बनाती है।

(शीर्ष पर वापस)

श्रद्धा, दिल और दिमाग

जिस गीता में श्रद्धा कहा गया है वह भी इन्हीं के भीतर आ जाती है और कर्मों को बुरा या भला बनाने में श्रद्धा का बहुत बड़ा हाथ माना जाता है। यही बात 'श्रद्धामयोऽयं पुरुष:' (17। 3) आदि में गीता ने कही है। 'यस्य नाहंकृतो भाव:' (18। 17) आदि वचन भी यही बताते हैं। दिल के भीतर किसी काम के प्रति जो प्रेम और विश्वास होता है उन दोनों को मिला के ही श्रद्धा कही जाती है। श्रद्धा इस बात को सूचित करती है कि दिमाग दिल की मातहती में-उसके नीचे-आ गया है। विद्वत्ता में ठीक इसके उल्‍टा दिल को ही दिमाग की मातहती करनी होती है। हाँ, आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, तत्तवज्ञान, ब्रह्मज्ञान, स्थितप्रज्ञता, गुणातीतता और ज्ञानस्वरूप भक्ति, (चतुर्थभक्ति) की दशा में दिल तथा दिमाग दोनों ही हिल-मिल जाते हैं। इसे ही ब्राह्मीस्थिति, समदर्शन ऐक्यज्ञान आदि नामों से भी पुकारा गया है। जब सिर्फ हृदय या दिल का निराबाध प्रसार होता है और उसका मददगार दिमाग नहीं होता तो अन्धा परम्परा को स्थान मिल जाता है, क्योंकि हृदय में अन्धापन होता है। इसीलिए उसे दीपक की आवश्यकता होती है और यही काम दिमाग या बुद्धि करती है।

    विपरीत इसके जब दिमाग या बुद्धि का घोड़ा बेलगाम सरपटें दौड़ता है और उस पर दिल का दबाव या हृदय का अंकुश नहीं रहता तो नास्तिकता, अनिश्चितता, सन्देह आदि की काफी गुंजाइश होती है। क्योंकि तर्क और दलील को पहरेदार सिपाही जैसा मानते हैं। इसीलिए वह एक स्थान पर टिका रह सकता नहीं, अप्रतिष्ठ होता है, स्थान बदलता रहता है-'तर्कोऽप्रतिष्ठ:।' फलत: सदा के लिए उसका किसी एक पदार्थ पर, एक निश्चय पर जम जाना असंभव होता है। अच्छे से अच्छे तर्क को भी मात करने के लिए उससे भी जबर्दस्त दलील आ खड़ी होती है और उसे भी पस्त करने के लिए तीसरी आती है। इस प्रकार तर्कों और दलीलों का ताँता तथा सिलसिला जारी रहता है, जिसका अन्त कभी होता ही नहीं। फिर किसी बात का आखिरी निश्चय हो तो कैसे? संसार भर की बुद्धि आजमा के थक जाय, खत्म हो जाय, तभी तो ऐसा हो। मगर बुद्धि का अन्त, परिधि, अवधि या सीमा तो है नहीं। बुद्धियाँ तो अनन्त हैं और नयी-नयी बनती भी रहती हैं, उनका प्रसार होता रहता है-''बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धय:।''

    यही कारण है कि दिल और दिमाग दोनों ही को अलग-अलग निरंकुश एवं बेलगाम छोड़ देने की अपेक्षा गीता ने दोनों को एक साथ कर दिया है, मिला दिया है। इससे परस्पर दोनों की कमी को एक दूसरा पूरा कर लेता है-दिल की कमी या उसके चलते होने वाले खतरे को दिमाग, और दिमाग की त्रुटि या उसके करते जिस अनर्थ की संभावना है उसे दिल हटा देता है। इस प्रकार पूर्णता आ जाती है। लालटेन या चिराग के नीचे, उसके अत्यन्त नजदीक ऍंधोरा रहता ही है। मगर अगर दो लालटेनें पास-पास रख दी जायँ तो दोनों के ही तले का ऍंधोरा जाता रहता है। यही बात यहाँ भी हो जाती है। कर्म-अकर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य या कर्म के योग और उसके संन्यास जैसे पेचीदे एवं गहन मामले में जरा भी कमी, जरा भी गड़बड़ी बड़ी ही खतरनाक हो सकती है। यही कारण है कि दिल और दिमाग को मिला के गीता ने उस खतरे को खत्म कर दिया है।

(शीर्ष पर वापस)

कर्म के भेद

गीता के मुताबिक कर्म, क्रिया या अमल (action) की कई सीढ़ियाँ हैं। इनमें सबसे पहली या नीचे की सीढ़ी में वे सभी कर्म (काम) आ जाते हैं जो जीवन के लिए, या यों कहिये कि सांसारिक बातों के लिए जरूरी हैं और जिनके बिना न तो कोई जिन्दा रह सकता है और न दुनिया का काम ही चल सकता है। गीता के 'कार्यतेह्यु वश: कर्म' (3। 5), 'शरीरयात्रपि च ते' (3। 8) आदि वचन इस बात के पोषक हैं। जब यही कर्म इसी खयाल से किये जाते हैं कि हमारा, करने वाले का या दुनिया का काम चले, सब कुछ कायम रहे, चालू रहे और जब करने वाले को अपने और पराये का विचार रहता है, तभी ये कर्म सबसे निचली सीढ़ी में आते हैं। उस दशा में ये सोलहों आना कर्म के रूप में रहते हैं और इनका नतीजा भुगतान होता है। जिनके बारे में धर्मशास्त्रों और पोथी पुराणों में बहुत कुछ लिखा गया है, जिन्हें सुख-दु:ख और नर्क-स्वर्ग आदि देने वाले कहा गया है वे यही कर्म हैं। भाग्य, दैव, प्रारब्ध, संचित और तकदीर आदि नाम भी इन्हीं पहली सीढ़ी वालों को दिये गये हैं। जब बातचीत में कर्म का फेर कहते हैं तो इन्हीं से मतलब होता है। इनमें स्वार्थ और परार्थ-अपने लिए और दूसरों के लिए-का सवाल सदा लगा रहता है और वह कभी इनका और करने वालों का पिंड छोड़ता ही नहीं।

    दूसरी सीढ़ी आती है उन कर्मों की जो मन की, हृदय की, अन्त:करण की शुद्धि के लिए, पवित्रता के लिए किये जाते हैं। जैसे देह, कपड़े-लत्तो और घर-बार को कर्म या क्रिया के द्वारा ही निर्मल बनाते हैं, साफ-सुथरा करते हैं, झाड़ू, साबुन, पानी वगैरह के जरिये इनकी मैल हटा के इन्हें स्वच्छ, पवित्र और शुद्ध करते हैं; ठीक वैसे ही दिल, दिमाग को भी निर्मल किया जाता है कर्मों के ही जरिये। आत्मज्ञान और तत्तवज्ञान से घर की गन्दगी तो हटती नहीं। वह तो झाड़ई और पानी से धोये पोंछे बिना नहीं हट सकती। मन की मैल और गन्दगी भी उसी प्रकार कर्मों के ही द्वारा मिटती है और वह शुद्ध एवं निर्मल होता है। जिस प्रकार पहली सीढ़ी वालों को गीता ने 'शरीरयात्रर्थ' कर्म 'शरीर यात्रपि च ते' (3। 8) में कहा है? उसी प्रकार इन्हें 'आत्मशुद्धये' या 'आत्मशुद्धयर्थ' कर्म 'सúं त्यक्त्व।।त्मशुद्धये (5। 11) आदि में कहा है।

    मन की मैल भी समझ लेने की चीज है। देह या कपड़े-लत्तो जैसा ठोस और स्थूल पदार्थ तो मन या हृदय है नहीं। वह तो सूक्ष्म-अत्यन्त सूक्ष्म-है और अनुमान से ही उसका अस्तित्व माना जाता है। इसलिए उसमें बाहरी या स्थूल मल (मैल) की संभावना नहीं है। यह मैल तो उसके पास पहुँच ही नहीं सकती। यही कारण है कि मन की चंचलता, उसका किसी भी पदार्थ में न टिक सकना, राग, द्वेष और भय आदि ही मैल कहे जाते हैं और इन्हीं को दूर करने की-कम करने की-जरूरत होती है। क्रिया या कर्म के प्रभाव से ही मन इन दुर्गुणों से छुट्टी पाता है और धीरे-धीरे इनकी कमी होने लगती है। ये सोलहों आना मिटते तो हैं आत्मदर्शन के बाद ही। मगर इनकी प्रचंडता और इनका वेग जाता रहता है। जैसे जंगली खूँखार और घरेलू पालतू जानवरों के स्वभाव में फर्क होता है वैसी ही दशा मन की हो जाती है और उसकी खूँखारी जाती रहती है। वह पालतू-सा बन जाता है, बनने लगता है। दिल या हृदय की जो दुर्बलता होती है और संकटों के आते ही जो पस्ती आ जाया करती है तथा निराशा हो जाती है वही दिल की मैल है। वह भी कर्म के फलस्वरूप कम हो जाती है, मिटने लगती है। काम करते-करते सफलता-विफलता का सामना बार-बार होता है, जिससे हिम्मत होती है, बढ़ती है। इस पर आगे संन्यास और त्याग प्रकरण प्रकाश में मिलेगा।

    उसी के बाद कर्मों की तीसरी सीढ़ी आती है-यह तीसरी दर्जा नीचे का न हो के ऊँचे का है, उल्‍टा है। इसलिए तीसरा दर्जा सुन के किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए। पहली दो सीढ़ियों को पार कर लेने के बाद ही इस तीसरी पर पाँव देते हैं, दे सकते हैं। जब दिल और दिमाग पवित्र हो जाते हैं तो इन्सान कुछ ऊपर उठता है और उसकी दृष्टि विस्तृत होने लगती है। जहाँ पहले अपने पराये की बात होने से वह संकुचित रहती है और कदम-कदम पर पदार्थों का बँटबारा सा प्रतीत होता है कि यह अपना है और यह दूसरे का है, तहाँ ऊपर उठने पर यह विभाग, यह बँटवारा मिटने लगता है और अनेकता में एकता नजर आने लगती है। चाहे इसे 'वसुधौव कुटुम्बकम्' कहिये, या समदृष्टि कहिये। इसे ही गीता ने अपने ही समान सबों के-प्राणिमात्र के-सुख-दु:खों का अनुभव या 'आत्मौपम्य दृष्टि' भी नाम दिया है और 'समत्वबुद्धि' भी कहा है।

    लेकिन सबका सारांश है संकुचित से विस्तृत की ओर, परिमित से अपरिमित की तरफ, पिण्ड से ब्रह्माण्ड की ओर और व्यष्टि से समष्टि की तरफ जाना। इसीलिए इसे ऊपर उठाना कहते हैं। इससे यह होता है कि व्यक्तित्व, शख्सियत या 'पर्सनलिटी' (personality) और व्यक्तिवादिता या 'इण्डिविजुअलिटी' (individuality) का लोप समष्टि या विराट् के भीतर हो जाता है-'इण्डिविजुअलिटी' मिल जाती है 'कलेक्टिविटी' (collectivity) में, समष्टि भाव में और मनुष्य अपने आपको विस्तृत संसार का एक अविच्छिन्न अंश समझने लगता है। जिस तरह शरीर के किसी भी अंग को जुदा किये जाने पर असह्य पीड़ा होती है, ठीक उसी तरह उस समय व्यक्ति को समस्त संसार से अलग करने, मानने तथा देखने में मर्मान्तिक वेदना होती है। अंग की पुष्टि के लिए समस्त शरीर को ही पुष्ट करना जिस तरह अनिवार्य है वही हालत यहाँ भी हो जाती है। फलत: ऐसा ऊँचा उठा मनुष्य निजी तौर पर या व्यक्तिगत हानि-लाभ का कभी खयाल भी नहीं कर सकता। वह ऐसी बात के लिए सर्वथा अयोग्य हो जाता है। अत: दुनिया के सभी झगड़े मिट जाते हैं। जिस तरह बहुत ही ऊँचे पर्वत की चोटी पर खड़ा हो के देखने वाले को नीचे की बड़ी से बड़ी चीजें भी निहायत नन्ही-सी लगती हैं और कभी-कभी तो दीख तक नहीं पड़ती हैं, ठीक वही हालत उसके नजरों में व्यक्तित्व और अपनेपन की हो जाती है।

        मगर यह हालत एकाएक नहीं होती। इसमें भी सीढ़ियाँ (stages) होती हैं और उन्हीं से हो के इन्सान धीरे-धीरे ऊपर उठता हुआ आखिरी दशा (stage) में पहुँच जाता है जहाँ सभी एक और समान हो जाते हैं-जहाँ वह अपने को सबों से और सबों को अपने से पृथक् देख नहीं सकता। यही है निर्वाण, मुक्ति या ब्राह्मी स्थिति। उस हालत में पूर्णतया पहुँचने के पहले जिन सीढ़ियों से हो के गुजरना पड़ता है उनमें पहली वही है जिसे कर्म की गणना में तीसरी कह चुके हैं। उस तीसरी या इस पहली में जो कर्म किया जाता है उसे गीता ने 'यज्ञार्थ' कर्म कहा है। 'यज्ञार्थत्कर्मणोऽन्यत्र' (3। 9) 'एवं प्रव़त्तितं चक्रम्' (3। 16) 'यज्ञायाचरत: कर्म' (4।23) आदि श्लोकों में यही बात है। यज्ञार्थ का अर्थ है यज्ञ के लिए और गीता का यह यज्ञ बहुत ही व्यापक है। इसमें दुनिया आ जाती है। परमात्मा से लेकर छोटी-बड़ी सभी चीजों का समावेश इसमें हो जाता है। गीता के चौथे अध्‍याय के 24 से 30 श्लोकों में यह बात स्पष्ट है और अन्यत्र भी (परमात्मा और ज्ञान को तो यज्ञ कहते ही हैं। मगर व्यष्टि और समष्टि-व्यक्ति और समुदाय-रूप से संसार को कायम और चालू रखने के लिए जितने भी काम (कर्म) किये जाते हैं, सभी यज्ञ के अन्तर्गत माने गये हैं। अतएव मन:शुद्धि के बाद ऊपर उठने वाला आदमी जो भी कुछ काम शरीरयात्र के लिए या दूसरों के भले के लिए करता है सभी यज्ञ में आ जाता है।) जिसे आमतौर से हिन्दू लोग यज्ञ कहते हैं उससे लेकर बड़े से बड़े और छोटे से छोटे कामों को-सबों को ही-यज्ञ का स्वरूप मिल जाता है।

(शीर्ष पर वापस)

यज्ञार्थ कर्म

वह मामूली यज्ञ से शुरू करके ही आगे बढ़ता है। यज्ञ में एक खूबी है कि इसके करने वाले को कुछ न कुछ घी, अन्न आदि का त्याग करना ही होता है। इसीलिए इसे सैक्रिफाइस (sacrifice) और कुर्बानी भी कहते हैं। इस प्रकार ऊपर उठने का काम इस त्यागबुद्धि से ही शुरू होता है और यह चीज आगे बढ़ती जाती है। गीता की यही तो खूबी है कि जो यज्ञ, कुर्बानी या सैक्रिफाइस सर्वजन प्रसिद्ध और सर्वप्रिय है और जिसमें आस्तिक-नास्तिक का भी कोई मतभेद नहीं-क्योंकि त्याग और कुर्बानी के कायल तो नास्तिक भी हैं-उसी से शुरू करके लोगों को आगे बढ़ाती है। फलत: इसमें दिक्कत नहीं होती। कर्म के गहन मार्ग को सरल बनाने का इससे सुन्दर और बालबोध तरीका दूसरा हो ही नहीं सकता और जब एक बार उस चक्र में हमने पाँव दे दिया और उस लहर के भीतर पड़ गये तो फिर अन्त तक, देर या अबेर से, पहुँचे बिना बीच में रुकना असम्भव है। इसीलिए आमतौर से यज्ञार्थ कर्म करने की यह तीसरी सीढ़ी कर्म के सिलसिले में मानी जाती है और इसमें उस यज्ञ का कोई विश्लेषण या विवरण नहीं आता है।

    लेकिन जब इस तीसरी सीढ़ी या दशा में भी कुछ प्रगति हो जाने पर खोद-विनोद शुरू हो जाती है और क्रमश: इस यज्ञ का असली महत्तव लोगों को मालूम होने लगता है तो चस्‍का लग जाता है, मजा आने लगता है। कुछ समय और गुजरने के बाद इन्सान की समझ ऐसी होने लगती है कि वह जो कुछ करता-धरता है वह इस विराट् एवं महाकाय संसार की स्थिति, वृद्धि तथा प्रगति के ही लिए हो रहा है। यहाँ तक कि वह अपने श्वास-प्रश्वास और पलक मारने तक को उसी प्रगति के लिए जरूरी एवं अनिवार्य क्रिया-कलाप का एक अंश देखता है। इस प्रकार उसका समस्त जीवन परोपकारमय बन जाता है। फिर भी यह सब कुछ होता है उस यज्ञ के ही रूप में। उसकी यह अविचल धारणा बराबर बनी रहती है कि जो महान् यज्ञ संसार के कल्याण के लिए चालू है उसी की पूर्ति हमारे प्रत्येक कामों, प्रत्येक हलचलों तथा छोटी-बड़ी सभी क्रियाओं के द्वारा निरन्तर हो रही है।

(शीर्ष पर वापस)

ईश्वरार्पण और मदर्थ कर्म

इस मनोवृत्ति का, इस दशा का पूरा परिपाक हो जाने पर चौथी सीढ़ी आती है, जो ऊपर उठने की दशा की दूसरी कही जा सकती है। इस दशा में पहुँचने पर संसार की विभिन्नता (diversity) का ज्ञान नहीं रहता है। जिस प्रकार मनुष्य व्यक्तित्व से शुरू करके समष्टि में पहुँच जाता है और वहाँ पहुँचते ही व्यक्तित्व लापता हो जाता है, ठीक उसी प्रकार समष्टि के ही थोड़ा और भी ऊपर उठने पर वह समष्टि भी विलीन हो जाती है। व्यक्तित्व या व्यष्टि और समष्टि ये दोनों ही सापेक्षिक चीजें हैं-इनमें एक को दूसरे की अपेक्षा है-ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। जैसे पिता और पुत्र दोनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। इसीलिए एक के ज्ञान के लिए दूसरे के ज्ञान की अपेक्षा है और इसीलिए यदि किसी को दूसरे की अपेक्षा न जानें तो उसे पिता या पुत्र न कहके आदमी, इन्सान या मनुष्य ही कहेंगे और जानेंगे भी। यही बात व्यष्टि तथा समष्टि की भी है। जब तक ये दोनों हैं-जब तक इन दोनों का ज्ञान होता है-तभी तक इनकी हस्ती है, सत्ता है। मगर ऊपर उठते-उठते जब व्यष्टि का लोप सोलहों आना हो गया तो फिर समष्टि बुद्धि भी कहाँ रहेगी, कैसे होगी? इसीलिए सर्वत्र समरसता, एकरसता का ज्ञान होने लगा। गीता इसे ही ब्रह्मज्ञान या परमात्मा का ज्ञान कहती है। उस दशा में जो कुछ किया जाता है वह यज्ञार्थ होते हुए भी ईश्वरार्थ, ब्रह्मार्पण, मदर्पण या मदर्थ कर्म कहा जाता है । 'मयि सर्वाणि कर्माणि' (330), 'यत्करोषि' (927), 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' (1846), 'चेतसा सर्वकर्माणि' (1857), आदि गीता के वचनों में यही बात कही गयी है। इसी के बारे में कहा जाता है कि भगवदर्पण बुद्धि से या भगवान् की प्रसन्नता के लिए कर्म किया जा रहा है। असल में आत्मा और समस्त संसार-दोनों ही-जब परमात्मा बन गये और उसके सिवाय इनकी जुदा स्थिति रही नहीं गयी, तब तो जो कुछ होता है उसे भगवदर्पण-बुद्धिपूर्वक ही माना जाना चाहिए।

 (शीर्ष पर वापस)

कर्तव्य कर्म

सबके अन्त में आती है पाँचवीं सीढ़ी, जिसे गीता में केवल कर्तव्य-बुद्धिपूर्वक या कर्तव्य समझ के कर्म करना कहते हैं। जब सारा भेद मिट गया और अद्वैतबुद्धि-'एकोऽहं द्वितीयो नास्ति' की भावना-हो गयी और वह निरन्तर बनी रहती है, उसका विलोप कभी भी जब होता नहीं, तो फिर ईश्वरार्थ कर्म का प्रयोजन क्या है-मतलब क्या है? ब्रह्म या ईश्वर या भगवान् के लिए कर्म करने का तब तो कोई मतलब रही नहीं जाता। भगवान् उन कर्मों को लेके आखिर करेगा क्या? उसे तो उनका प्रयोजन कुछ भी रही नहीं गया। इसीलिए भगवदर्पण कर्म के कुछ मानी दरअसल हैं नहीं। जब तक अद्वैत भावना दृढ़ न हो और उसमें रह-रह के विराम आ जाता हो, तब तक तो इसके मानी कुछ हो भी सकते हैं। तब तक पहले वाला ऊँचे उठना और ऊपर चढ़ना अपने स्थान पर रह सकता है। मगर जब इस भावना और धारणा की पूर्ति हो गयी, तब ब्रह्मार्पण कहना बेमानी है।

    इसीलिए उस हालत में जो कुछ भी कर्म होता है वह केवल कर्तव्य समझ के ही होता है। जिसे अंग्रेजी में 'डयूटी फॉर डयूटीज सेक' (duty for duty`s sake) कहते हैं वही है कर्तव्य बुद्धि से कर्म करने का अर्थ। 'कार्यमित्येव' (18। 9), 'यष्टव्यमेवेति' (17। 11), 'दातव्यमिति' (17। 20) आदि गीतोक्त वचनों का यही मतलब है। (चाहे किसी का कुछ भी प्रयोजन हो या न हो, मगर कर्म तो इस सृष्टि का नियम (law) है। क्रिया ही तो सृष्टि है। इसलिए कर्म तो होता ही रहेगा जब तक संसार बना है, सृष्टि बनी है। इससे छुटकारा तो किसी को मिल सकता है नहीं। हाथ-पाँव आदि इन्द्रियों की तो यही बात है कि उनसे कोई न कोई क्रिया होती ही है। नहीं तो वे रहे ही नहीं। इसीलिए यह आत्मदर्शी पुरुष कर्मों की नाहक की उधोड़-बुन में तो पड़ता नहीं कि उनका प्रयोजन क्या है। उसे इसकी फुर्सत कहाँ? उसका मन, उसका दिलदिमाग इस तुच्छ चीज के पास फटकने भी क्यों पाए? उसे आगा-पीछा सोचने की फुर्सत ही नहीं होती-उसके पास इस चीज की गुंजाइश होती ही नहीं। इसलिए जो कुछ होता है उसे वह रोकता नहीं, होने देता है। इसे ही पुराने लोगों ने 'प्रवाहपतित कर्म' भी कहा है। इसका अर्थ वही है जो कर्तव्यबुद्धिपूर्वक कर्म का है।

    (असल में बहुत समय तक यज्ञार्थ या ब्रह्मार्पण बुद्धि से कर्म करते-करते उस मनुष्य का कुछ स्वभाव ही ऐसा हो जाता है कि बिना किसी खयाल के भी वह ऐसे ही काम करता रहता है जिससे लोगों का कल्याण हो। अनजान में भी उससे दूसरे प्रकार का कर्म हो ही नहीं सकता। उसके जरिये ऐसा काम होने की संभावना रही नहीं जाती जिससे संसार में अमंगल हो, दुनिया का अनिष्ट हो, या सांसारिक लोग देखादेखी पथभ्रष्ट हों। उसने तो दीर्घकाल तक दुखी लोगों के ऊपर दयादृष्टि करके ही कर्म किया है। फलत: उसका अंग-प्रत्यंग दयार्द्र हो गया है। मैत्री, करुणा वगैरह दैवी सम्पत्तियाँ और उदात्ता गुण उसके भीतर इस कदर प्रविष्ट हो गये हैं कि उनसे वह अनजान में भी लाख यत्न करने पर भी अलग हो नहीं सकता है। इसीलिए जहाँ पहले लोगों की भलाई का खयाल करके ही वह काम करता था, तहाँ अब बिना उस खयाल के ही काम करता ही है। ऐसे की कर्मों को 'लोकसंग्रहार्थ' कर्म कहते हैं, जैसा कि गीता ने कहा है-'लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन् कर्तुमर्हसि'। यही कर्म पहले मनोयोगपूर्वक होते थे और अब स्वभाव से ही होते रहते हैं) दोनों ही दशा में ये रहते हैं 'लोकसंग्रह' के लिए ही। मगर पीछे उनमें और भी उदात्ताता आ जाती है, वे और भी ऊँचे दर्जे के हो जाते हैं। क्योंकि ऐसे पहुँच हुए महान् पुरुषों की स्वरसवाही प्रवृत्तियों के फलस्वरूप होने के कारण उनमें कृत्रिमता नहीं रह जाती। इसीलिए उनमें ऐसा आकर्षण होता है कि जन-साधारण उधर ही बलात् खिंच जाते हैं, एक प्रकार से उन्हीं कर्मों के साथ बँधा जाते हैं और उन्हीं को करने लगते हैं। 'लोकसंग्रह' में जो संग्रह शब्द है उसका अर्थ है बाँधना या जमा करना और यह बात तभी चरितार्थ होती है। पहुँचे पुरुषों के कर्मों में तब अपूर्व शक्ति हो जाती है जिसका जादू आम लोगों पर होता है, हो के ही रहता है।

(शीर्ष पर वापस)

स्वभाव के प्रभाव

स्वभाव की बात कुछ ऐसी है कि मनुष्य संस्कारों के मजबूत हो जाने या मानस पटल पर जम जाने से सपने में चीजें देखने लगता है! वहाँ चीजें तो होती नहीं। लेकिन पहले देखी दिखाई चीजों का गहरा संस्कार ही उन्हें घसीट के दिमाग के सामने नींद के समय में ला देता है। हालाँकि स्वभाव जैसी मजबूती उस संस्कार में कभी होती नहीं। इसी से स्वभाव की ताकत समझी जा सकती है कि वह क्या कर सकता है। मेरे गुरुजी महाराज अत्यन्त वृद्ध और प्राय: सौ साल के हो के मरे थे। उनका हृदय बच्चों जैसा सरल और प्रेम से ओत-प्रोत-सना हुआ-था। बचपन से ही उनकी आदत थी; स्वभाव था, अपनी उँगलियों पर ही माला की तरह ओंकार या भगवान् के नाम के जपने का। उनका यह काम निरन्तर धारावाही रूप से चलता रहता था जब तक नींद न आ जाये। मगर इसका परिणाम यह हो गया कि गाढ़ी नींद में भी उँगलियों की वह क्रिया बराबर जारी रहती थी। कितनी ही बार जब मैं दिन में उनके दर्शनों के लिए गया और वे सोये थे, तो अविच्छिन्न रूप से चालू उँगलियों की वह क्रिया मैंने खुद-ब-खुद देखी है। महान् आत्माओं के कर्मों की यही दशा होती ही है।

    कहते हैं कि कविता है दरअसल कवि के हृदय का बहके-प्रवाहित हो के-बाहर निकल आना। बेशक सच्ची कविता तो इसी को कहते हैं। वाल्मीकि ने वन में एकाएक देखा कि क्रौंच पक्षियों का जोड़ा आपस में रमा हुआ है। इतने में ही एक शिकारी ने तीर से ऐसा मारा कि मादा वहीं लोट गयी! यह देख के नर तिलमिला उठा और इधर दयार्द्र मुनि वाल्मीकि का हृदय-स्रोत फूट निकला और उनके मुख से सहसा शब्द निकल पड़ा कि 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:' 'निषाद, तुझे भी बहुत दिनों तक चैन न मिलेगा'-क्योंकि तूने इस निरपराधा पक्षियों में से एक को मार डाला है! कहा जाता है कि यही वाल्मीकि रामायण की रचना का श्रीगणेश है और इसी को लेके वह लम्बी और सुन्दर काव्य रचना हो गयी। लोग जो कहते हैं कि कवि लोग लोकमत बदलने या जनता का दिमाग फेरने में कमाल करते हैं उसका कारण यही है कि उनका जिन्दा दिल कविता के रूप में खयालों से बिंधा-बिंधाया बाहर आ के पुकारता है। मगर पहुँचे पुरुषों के कामों और शब्दों में तो कविता से लाख गुना शक्ति होती है अपनी ओर खींचने की। क्योंकि कविता में जहाँ कुछ कृत्रिमता होती ही है, तहाँ उनके काम और शब्द बिलकुल ही अकृत्रिम होते हैं।

    स्वामी विवेकानन्द ने परमहंस रामकृष्ण की जीवनी में लिखा है कि जब मैं उनके पास यह जान के दौड़ा-दौड़ाया पहुँचा कि भगवान् के वे बड़े भक्त हैं और मुझे तो भगवान् की सत्ता ही स्वीकार नहीं, इसलिए वे कुछ चीजें बतायेंगे जिससे मैं उस सत्ता के सम्बन्ध में सोचूँ-विचारूँगा, तो वहाँ अजीब हालत देखी। उसने मेरे प्रश्न के उत्तर में कोई तर्क दलील न देके चट कह दिया कि ''हाँ, मैं तो भगवान् को ठीक वैसे ही देखता हूँ जैसे तुम मुझे देखते हो।'' मगर इन सीधे-सादे शब्दों में क्या जादू था! इनमें क्या गजब की ताकत थी! जहाँ बड़े से बड़े दिमागदार की दलीलें मुझ पर इस बारे में जरा भी असर कर न सकी थीं, तहाँ इन्हीं शब्दों ने कमाल किया और मुझे मजबूर किया कि उन परमहंसजी को मैं अपना गुरुदेव बना लूँ। हुआ भी ऐसा ही और मैं उसी क्षण से घोर नास्तिक और अनीश्वरवादी से परम आस्तिक एवं ईश्वरवादी बन गया! यह शक्ति उन शब्दों की नितान्त अकृत्रमता में ही थी! परमहंसजी का बाहर-भीतर एकरस था। वे जैसा बोलते वैसा ही सोचते और करते भी थे। दिल, दिमाग, जबान और काम-इन चारों-में उनके यहाँ सामंजस्य था। यह नहीं कि दिल में कुछ, दिमाग में दूसरी ही, जबान पर तीसरी और काम में चौथी ही चीज हो जाय। यही महात्मापन है।

(शीर्ष पर वापस)

महात्मा और दुरात्मा

(पुराने लोगों ने कहा है कि महात्मा उसी को कहते हैं जो दिल-दिमाग में सोचे-विचारे जो कुछ वही जबान से भी बोले और वैसा ही काम भी करे। चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाय और लोग हजार खुश या रंज हों, उसे किसी की परवाह नहीं होती।वह निर्भय और लापरवाह हो के एक ही तरह की बात सोचता-विचारता, बोलता औरकरता है।) विपरीत इसके दुरात्मा या दुष्ट सोचता-विचारता कुछ, कहता कुछ दूसराही और काम करता है तीसरे ही ढंग का। लोगों के दबाव, डर, भय और लाभ वगैरहकाउसपर क्षण-क्षण में असर होता है। उसकी आत्मा पतित और कमजोर जो होती है-''मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्। मनस्यन्यद्वचस्य न्यत्कर्मण्यन्यद्दुरात्मनाम्।'' इसका सारांश यह है कि दिमाग का काम है सोचना-विचारना; दिल का काम है किसी बात को पकड़ रखना, उससे चिपक जाना, उसी पर डटे रहना; जबान का काम है बात बोलना और हाथ-पाँव वगैरह का काम है अमल करना। महान् पुरुष में इन चारों-दिमाग, दिल, जबान और हाथ-पाँव आदि-का सामंजस्य होता है, इनकी एकता होती है, इनका मेल होता है। उसके दिल, दिमाग, जबान और अमल में एक ही बात पाई जाती है। जरा भी अन्तर नहीं मिलता। शील-मुरव्वत, भय-प्रीति, लाज-शर्म या हानि-लाभ का कोई भी खयाल उसे डिगा नहीं सकता। वह पर्वत की तरह अडिग हो के मौत के मुख में जाता हुआ भी जो कुछ सोचता-विचारता उसे ही बेधड़क बोलता और तदनुकूल ही आचरण करता है। प्रहलाद, ध्रुव, ईसा, हुसेन, मंसूर, आदि की गणना ऐसे ही महापुरुषों में है।

    लेकिन दुरात्मा या छोटे आदमियों की ऐसी हालत होती है कि शील-मुरव्वत, हानि-लाभ, लाज-शर्म, डर दबाव आदि के चलते कदम-कदम पर बदलते रहते हैं-क्षण में कुछ और क्षण में कुछ करते रहते हैं। वे गिरे होने के कारण सांसारिक प्रलोभनों से ऊँचे उठ नहीं सकते। यह ठीक है कि उनमें भी सभी तरह के लोग होते हैं। कोई बिलकुल ही गिरे एवं दबे होते हैं तो कोई उनसे जरा ऊपर होते हैं और तीसरे होते हैं दूसरों से भी जरा और ऊपर। इसी प्रकार नीचे और ऊपर हजारों होते हैं। बात असल यह है कि महात्मापन के लिए उक्त जिन चारों का मेल जरूरी है उनमें यदि तीन या दो का ही मेल हो सका, या चारों का मेल भी पूरा-पूरा न हो सका और यही बात तीन और दो के मेल में भी हुई तो वे लोग महात्मा तो हो सकते नहीं। वे तो नीचे जा पड़े। मगर उसी हिसाब से उनका पतन कम या बेश माना जायगा। मेल में जितनी ज्यादा कमी होगी पतन उतना ही अधिक होगा। विपरीत इसके मेल जितना ही अधिक होगा उतना ही वे अपेक्षाकृत ऊपर या ऊँचे माने जायेंगे।

(शीर्ष पर वापस)

संन्यास और लोकसंग्रह

कर्तव्यबुद्धि से या लोकसंग्रहार्थ कर्म करने वाले महापुरुषों के ही प्रसंग से गीता की एक और बात भी जानने योग्य है। समदर्शन या ब्रह्मनिष्ठा की हालत में महान् पुरुषों की दो गतियाँ हो सकती हैं-ऐसे पुरुष दो प्रकार के हो सकते हैं। एक तो ऐसे जिनकी मानसिक दशा बहुत ही ऊँची हो, अत्यन्त ऊँची हो। वह ऐसी दशा में हों कि उनकी वृत्तियाँ, उनके खयाल नीचे उतरते ही न हों, उतर सकते ही न हों आमतौर से ऐसे लोग आत्मानन्द में सदा मग्न रहते हैं। इन्हीं को कहीं-कहीं मस्त राम भी कहा है। उनके लिए इस दुनिया की सारी बातें वैसी ही हैं जैसी भादों की ऍंधोरी रात में पड़ी चीजें। उन चीजों को कोई देख ही नहीं सकता। ऐसे महानुभाव भी सांसारिक पदार्थों और गतिविधियों को कभी देख सकते नहीं। इन चीजों का यथार्थ ज्ञान उन्हें कभी होता ही नहीं। ऍंधोरे की चीज को तो टो-टाके जान भी सकते हैं। मगर इनके लिए दुनियावी पदार्थ सर्वथा अज्ञेय हैं। इनके साथ उनका निकटवर्ती सम्बन्ध कभी हो ही नहीं सकता; हालाँकि ये पदार्थ औरों के देखने में चारों ओर पड़े मालूम होते हैं। जैसे पानी के भीतर ही पैदा हुआ और पड़ा रहने वाला कमल का पत्ता पानी से निर्लेप एवं असम्बद्ध रहता है, वही दशा इनकी है। जहाँ दुनिया की जरा भी पहुँच नहीं उसी मस्ती के ये शिकार हैं-उसी में झूमते हैं और जिसमें दुनिया झूमती है उससे ये महात्मा लाख कोस दूर हैं। गीता ने इन्हें संयमी कहा है-'तस्यां जागर्ति संयमी' (2। 69) और बताया है कि संसार की ओर से ये बेखबर होते हैं, उधर से सोते रहते हैं। संसार इनके लिए ऍंधोरी रात या रात की चीज है। इसी से दुनिया इन्हें पागल समझती है।

    इन्हीं पागलों और मस्ताने लोगों की दशा को गीता ने सांख्यनिष्ठा और ज्ञान-निष्ठा नाम से भी पुकारा है। वे इतनी ऊँचाई पर होते हैं कि संसार की लपट उन तक पहुँच पाती ही नहीं। इसीलिए शरीरयात्र की क्रियाओं के होते रहने पर भी इनके भीतर कर्तव्य-बुद्धि कभी पैदा होती ही नहीं। ये लोग कभी भी ऐसा नहीं समझते कि हमारे लिए अमुक कर्तव्य है। कर्तव्याकर्तव्य के खयाल से बहुत ज्यादा ऊपर होने के कारण उसकी सतह या धरातल में उनका पहुँचना असम्भव हो जाता है। उनकी तो दुनिया ही दूसरी होती है, निराली होती है यदि उसे दुनिया कहा जा सके। यही कारण है कि कर्म करने, न करने के जो विधिनिषेधा हैं, इस तरह के जो विधान हैं वह उनके लिए हुई नहीं। ये संयमी महात्मा उन विधिनिषेधों और विधानों के दायरे से बाहर हैं। इसीलिए गीता ने साफ कह दिया है कि इन मस्तरामों का कोई भी कर्तव्य रह ही नहीं जाता। 'तस्य कार्यं न विद्यते' (3। 17)। यही है पक्का संन्यास, त्याग या कर्म का छोड़ना। जैसे मदिरा पी के मतवाला हुए आदमी को अपने तन की सुध-बुधा नहीं होती, उससे लाख गुने बेसुध ये संन्यासी होते हैं। इनने तो महामदिरा का पान कर लिया है। कर्म के विधिनिषेधा वचनों की हिम्मत नहीं कि उनके सामने जा सकें। उन्हें सामने जाने में ऑंच लगती है। इस प्रकार के संन्यासी या कर्मत्यागी कहे जाने वालों में शुकदेव, वामदेव, सनक, सनन्दन आदि आ जाते हैं। यही एक प्रकार का कर्म संन्यास है, जिसका मतलब आमतौर से सभी कर्मों के त्याग से न होकर केवल विधानसिद्ध कर्मों के त्याग से ही है।

    परन्तु तत्तवज्ञानी या समदर्शनवाले एक दूसरे प्रकार के भी महापुरुष होते हैं और जनक आदि इसी श्रेणी के माने जाते हैं। जिस प्रकार पहली श्रेणी वालों के कर्म अनायास ही छूट जाते हैं ठीक उसी तरह, जिस तरह पकने पर वृन्त या वृक्षशाखा से छूट के फल गिर पड़ता है; ठीक उसी प्रकार दूसरी श्रेणीवालों के कर्म जारी ही रहते हैं, जैसे कच्चा फल वृन्त या टहनी में लगा रहता है। अगर पका फल बलात् टहनी में लगा रखा जाय तो वह सड़ने लगता है और यदि कच्चे को समय से पहले तोड़ा जाय तो वह भी या तो नीरस होता या सड़ने ही लगता है। बहुत दिनों के संस्कार और अभ्यास के फलस्वरूप जैसे पहली श्रेणीवालों का मन कर्मों से सोलहों आना उपराम और विरागी हो जाता है, ठीक उसी तरह दूसरी श्रेणीवालों का मन कर्मों में ही मजा पाने लगता है। यदि यह बात न हो तो परले दर्जे का लोकसंग्रहार्थ कर्म कभी होई न सके। क्योंकि जो पहुँचे हुए हैं वे सबके-सब यदि विरागी हो जायँ तो विधान प्राप्त कर्मों को करेगा कौन? और अगर वह न करें तो दूसरों का कर्म तो उस उच्चकोटि का होई नहीं सकता। उसमें कुछ न कुछ अपूर्णता रही जायगी। करने वाले खुद जो पूर्ण नहीं ठहरे। सृष्टि के नियम के अनुसार इसीलिए एक दल ऐसा होता ही है। संन्यासियों के भी उस दूसरे दल की जरूरत इसीलिए है कि परले दर्जे की मस्ती का नमूना और कोई पेश कर नहीं सकता। फलत: वैसे आदर्श की ओर लोग खिंच नहीं सकते। यह भी एक निराले ढंग का 'लोकसंग्रह' ही है, जो मस्ती के सम्बन्ध में संन्यास के रूप में है। इसी को पुराने वृध्दों ने जीते ही पूरा मुर्दा बन जाना लिखा है, जिसमें सुख-दु:ख आदि का कुछ भी असर पड़ी न सके-ये सभी टक्कर मार के हार जायँ।

    गीता ने जिस प्रकार कर्म-संन्यास के इस उच्च आदर्श को माना है और बार-बार उसका उल्लेख किया है उसी प्रकार ज्ञानोत्तर कर्म करने वाली बात को भी स्वीकार करके उसे कई जगह कर्मयोग या योग नाम दिया है और उसे करने वालों को कर्मयोगी और योगी आदि शब्दों से याद किया है (गीता के भाष्य की भूमिका-में शंकराचार्य ने साफ ही कहा है कि समदर्शियों और ब्रह्मज्ञानियों के कर्म को तो हम कर्म मानते ही नहीं, उसे कर्म कहना ही भूल है। क्या भगवान् कृष्ण के कर्म को कर्म कहना उचित है?-''तत्तवज्ञानिनां कर्म तु कर्मैव न भवति यथा भगवत: कृष्णस्य क्षात्रां चेष्टितम्''। कर्म तो उसे ही कहते हैं जिसमें बाँधने, फँसाने या सुख-दु:ख देने की शक्ति हो। मगर समदर्शियों का कर्म तो ऐसा होता नहीं। वह तो ज्ञान के करते जड़-मूल से जल जाता है उससे बन्धन नहीं होता, जैसाकि-'ज्ञानाग्निदग्धाकर्माणम्' (4। 19), 'कृत्तवापि न निबद्धयते' (4। 22), 'समग्रं प्रविलीयते' (4। 23), 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते' (4। 37),-आदि गीता वाक्य बताते हैं यही कारण है कि विधानसिद्ध कर्मों के संन्यासी होते हुए भी खुद शंकर लोकसंग्रहार्थ जीवनभर कर्म करते ही रहे। इसमें विधिविधान की तो कोई बात न थी। यह तो स्वभावसिद्ध चीज थी। विधिविधान के अनुसार किये गये कर्म तो बन्धाक होते हैं और ये वैसे नहीं होते। इसीलिए शंकर ने इन्हें त्यागने पर कभी जोर न दिया।

    इस विषय में एक प्रसंग आया है। हिरण्यकशिपु के मारने में नृसिंह को बड़ी दिक्कत का सामना करना पड़ा था। क्योंकि वह न दिन में मर सकता था, न रात में, न जमीन में, न आसमान में और न आदमी से न जानवर से ही। इसीलिए खिचड़ी रूप बना के सन्ध्‍या समय में अपने हाथ में ले के ही उसे मारने की बात भगवान् को सोचनी पड़ी, ऐसा कहा जाता है। आगे भी ऐसी परेशानी न हो इसी खयाल से उनने प्रहलाद से कहा कि सब पँवारा छोड़ के मेरे साथ ही चलो। लोगों को ज्ञान-ध्‍यान सिखाना छोड़ो। इस पर प्रहलाद का जो भोलाभाला, पर अत्यन्त काम का, बहुत ही ऊँचे दर्जे का, उत्तर मिला वह इसी गीता के कर्मयोग का पोषक है। वह कहते हैं कि भगवन् ऐसा तो अकसर होता है कि सभी ऋषि-मुनि दूसरों की परवाह छोड़ के चुपचाप एकान्त में चले जाते और अपनी ही मुक्ति की फिक्र में लग जाते हैं। तो क्या मैं भी आपकी आज्ञा मान के ऐसा ही स्वार्थी बन जाऊँ? हरगिज नहीं। मैं ऐसा नहीं कर सकता। मुझे अकेले मुक्ति नहीं चाहिए। क्योंकि तब तो इन सांसारिक दुखियों-का पुर्साहाल कोई रही न जायगा। जो आपको इनके हितार्थ बलात् इसी तरह खींचे ''प्रायेण देवमुनय: स्वविमुक्तिकामा, मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा:। नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये।'' (भागवत 7। 9। 44)। 'योगस्थ: कुरु कर्माणि' (2। 48) आदि श्लोकों में गीता ने भी यही कहा है।

(शीर्ष पर वापस)

आरुरुक्ष और आरूढ़

कर्म के त्याग या संन्यास की दशा एक और भी है। एक तो समदर्शन की अवस्था में जाने से पहले उसकी तैयारी करनी होती है। दूसरे वह अवस्था आने पर उसमें दृढ़ता लाने के लिए प्रयत्न किया जाता है। तैयारी में भी ऐसा होता है कि सबसे पहले उस ओर मन का जाना और लगना जरूरी है। जब मन चाहेगा कि हम उस दशा में आरूढ़ हों, पहुँचें और पक्के हों तभी तो दूसरे यत्न होंगे। इसे ही पुराने लोगों ने विविदिषा, जिज्ञासा वगैरह नामों से पुकारा है और ऐसी प्रवृत्ति वाले को विविदिषु, जिज्ञासु आदि कहा है। गीता में इसे आरुरुक्षा और ऐसे आदमी को आरुरुक्षु नाम दिया गया है। गीता के छठे अध्‍याय का 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं' यह तीसरा श्लोक इस बात को बहुत ही सफाई के साथ बताता है। समदर्शन या साम्यावस्था को गीता में योग या योगावस्था भी कहा है। उसी अध्‍याय के 18 से 23 तक के श्लोकों में और दूसरे स्थान पर भी यह बात लिखी है। खुद इसी तीसरे श्लोक में भी योग नाम ही आया है। उसी योग में आरूढ़ होने या पहुँचने की इच्छा वाले को 'योगारुरुक्षु' या 'योगमारुरुक्षु' कहा है और पक्कापक्की पहुँच के वहीं स्थिर हो जाने वाले को 'योगारूढ़' कहा है। तीसरे श्लोक में ही ये दोनों नाम आये हैं। लेकिन इसके स्पष्टीकरण के लिए हम उपनिषदों के एकाध वचनों पर भी विचार करेंगे। क्योंकि गीता को प्रत्येक अध्‍याय के अन्त में 'गीतासूपनिषत्सु' शब्दों में उपनिषद् भी कहा है।

    बृहदारण्यक उपनिषद् के चौथे अध्‍याय के चौथे ब्राह्मण के 22वें और पाँचवें ब्राह्मण के छठे मंत्रों के कुछ अंशों को ही हम यहाँ रखना चाहते हैं। क्योंकि विस्तार करना हमारा लक्ष्य नहीं है। 22वें में लिखा है कि ''तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन।'' इसका आशय यही है कि ''उस आत्मा या ब्रह्म के ज्ञान की इच्छा (विविदिषा या जिज्ञासा) या यों कहिये कि लगन पैदा करने के लिए विवेकी लोग, वेदशास्त्रों के आधार पर, यही निश्चय करते हैं कि यज्ञ, दान और तप करना चाहिए-ऐसा तप जो शरीर का नाशक न हो या अनशन के रूप में न हो।'' यहाँ यज्ञ, दान और तप से मतलब है सभी कर्मों से। गीता के उनसार ये तीनों बहुत ही व्यापक हैं और इनमें सभी क्रियाओं का समावेश हो जाता है, जैसा कि सत्रहवें अध्‍याय के 11 से 22 तक के श्लोकों और चौथे अध्‍याय के 24 से 29 तक के श्लोकों से स्पष्ट है। इससे यह तो सिद्ध है कि जिज्ञासु या योगारुरुक्षु बनने के लिए-ज्ञान या योग के प्रति उत्कट अभिलाषा या लगन पैदा करने के लिए-कर्म जरूरी है, कारण हैं, साधन हैं, उपाय हैं। यही बात 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं' आदि आधो श्लोक में कही गयी है। इस प्रकार योग या समदर्शन की तैयारी के लिए कर्मों की जरूरत सिद्ध हो जाती है। कर्मों के करते-करते ही यह लगन पैदा हो जाती है। कर्म जितनी ही मुस्तैदी एवं तत्परता के साथ किये जायँगे उतनी ही जल्दी यह लगन पैदा हो के मनुष्य उस दिशा में पाँव देगा-उसके अत्यन्त निकट आ जायगा।

    इसके बाद उसी 22वें मन्त्र में पूर्वोक्त वचन के बाद ही उसी से मिला हुआ यह वचन मिलता है, ''एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्त: प्रव्रजन्ति।'' इसका आशय यह है कि ''आत्मज्ञान के बाद ही मनुष्य को मुनि या मननशील हो जाना पड़ता है और उसी ज्ञान की पुष्टि या आत्मा की प्राप्ति के लिए लोग संन्यासी बनते हैं।'' पाँचवें ब्राह्मण के छठे मन्त्र में भी लिखा है कि ''आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रोयि।'' इसका अर्थ यह है कि ''अरे मैत्रोयी, आत्मा के ज्ञान या दर्शन का होना सर्वथा सर्वदा वांछनीय है। उसके लिए श्रवण, मनन और निदिध्‍यासन करना होगा।'' श्रवण का तात्पर्य है खूब ध्‍यान से पढ़ना और सुनना कि वह कैसा है। उसके बाद उस पर खूब मनन और विचार करना आवश्यक है। दोनों बातें कर लेने के बाद एकान्त में समाधि लगा के उसी का निरन्तर चिन्तन करना होगा। तभी आत्मज्ञान हो सकता है। इसी समाधि या निदिध्‍यासन का विस्तृत वर्णन गीता के छठे अध्‍याय के 10 से 32, आठवें के 8 से 13, बारहवें के 6 से 19 और अठारहवें के 50 से 55 तक के और दूसरे श्लोकों में भी है। यही बात 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं' श्लोक के उत्तारार्ध्द में भी कही गयी है कि उसे मुनि और योगारूढ़ बनने-बनाने के लिए शम यानी कर्मों के त्याग की जरूरत है, त्याग ही उसका कारण है। उपनिषद् के वचन में जो 'मुनि' शब्द है वही गीता के इस श्लोक में भी पाया जाता है। उपनिषद् के वचनों में साफ ही संन्यास की बात कही गयी है। यह भी बात है कि मनन एवं निदिध्‍यासन या समाधि के लिए तो जानें कितने समय तक कर्मों को कतई छोड़ देना आवश्यक हो जाता है। गीता के उक्त श्लोकों के पढ़नेवाले और समाधि की बातें जानने वाले ही बता सकते हैं कि उस समय कर्म की गुंजाइश कहाँ रह जाती है? सो भी युग लग जाते हैं फिर भी काम पूरा नहीं होता। इसीलिए कर्मों का त्याग या संन्यास खामख्वाह अनिवार्य हो जाता है।

    जो लोग चौथे अध्‍याय के उक्त श्लोक के 'योगारूढ़स्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते' में शम शब्द देखके एवं उसका अर्थ उपशम या मन की शान्ति लगा के सन्तोष कर लेते और कर्मों का त्याग जरूरी नहीं समझते उनकी समझ पर हमें तरस आता है। योगारूढ़ शब्द के भीतर तो मन की शान्ति या उसका निरोध आयी जाता है। 'योगोऽनिर्विण्णचेतसा' (6। 23) में भी यह साफ ही लिखा है कि योग की सिद्धि मन की शान्ति के बिना हो नहीं सकती है। और जब सभी कर्म करते रहें तो फिर मन की चंचलता मिटेगी कैसे? वह तो बराबर चक्कर लगाता ही रहेगा। हम यहाँ इतना ही कहना काफी समझते हैं कि योग के बारे में गीता के जिन वचनों का नाम हमने लिया है उन्हें पढ़ने और समझने के बाद यदि फिर भी किसी को यह कहने की हिम्मत हो कि समाधि के साथ-साथ विधान प्राप्त कर्म भी हो सकते हैं, तो हम अपनी भूल स्वीकार कर लेंगे। जो लोग यह कहते हैं कि शम का अर्थ कर्मत्याग या संन्यास नहीं होता उन्हें चौदहवें अध्‍याय के 'लोभ: प्रवृत्तिराम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा' (12) को पढ़ के सन्तोष करना चाहिए। वहाँ 'आरम्भ:' और 'अशम:' के बीच में 'कर्मणां' शब्द आया है और यह बताता है कि रजोगुण की वृद्धि हो जाने पर आदमी को लोभ होता है, कर्मों के करने की इच्छा होती है, वह कर्म शुरू भी कर देता है, फिर उसका ताँता बराबर जारी रखता है और उसे बन्द नहीं करता। 'शम' के साथ 'अ' लगने पर वह बन्द करने या त्याग की विरोधी बात कहता है। 'शम' धातु का संस्कृत में अर्थ भी है सभी क्रिया की निवृत्ति। मन की शान्ति का अर्थ भी यही है कि उसकी सारी हलचलें मिट गयीं। मगर शान्ति शब्द तो केवल मन के ही लिए आता नहीं। झगड़े की शान्ति तूफान की शान्ति आदि भी तो बोलते हैं। अत: उसका अर्थ है क्रिया की निवृत्ति। अग्नि शान्त हो गयी, लोग शान्त हो गये या ठण्डे पड़ गये, गुस्सा शान्त हो गया आदि बोलचाल में तो हलचल और क्रिया की ही निवृत्ति से मतलब होता है।

गीता - 2

(शीर्ष पर वापस)

 

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.