चौथा
अध्याय
अब तक
कृष्ण ने जो उपदेश अर्जुन को दिया है उससे उसकी ऑंखों का पर्दा हट
गया और उसे नयी दुनिया दीख पड़ी। उसने तो कुछ दूसरा ही समझ रखा था।
लेकिन इन दो
अध्यायों
के उपदेशों के बाद पाया कुछ और ही। दूसरे
अध्याय
के उपदेशों के उपरान्त अर्जुन के दिमाग की सफाई हो पाई न थी। क्योंकि
उसके सामने तो असली मसला था युध्द का। यों तो सारे कर्मों की ही
समस्या उसे सुलझानी थी। कारण,
उसकी तर्क-दलील ने इनके पुराने
आधारों
और दुर्गों को ही
ध्वंस
कर दिया था।
धर्मशास्त्रीय विधान
उसके सामने लापता थे-पस्त थे। तो भी उसका असली संकट था मरने-मारने
वाला यह जघन्य कृत्य जिसे युध्द कहते हैं। सामने तत्काल वही था भी।
उसी को ले के उसे इतना बड़ा विराग भी हुआ था और
स्वतन्त्र
बुध्दि से उसने सारे
विधानों
को तौल के उन्हें कच्चा तथा नाकाफी ठहराया था। इसीलिए तीसरे
अध्याय
के शुरू में ही उसने अपना मनोभाव साफ व्यक्त कर दिया था कि खैर एक तो
कर्म ही बुरे और तुच्छ हैं। फिर उनमें भी यह घोर कर्म! मुझे इसमें
फँसाने का क्या काम है यदि ज्ञान ही श्रेष्ठ है,
यह उसने साफ कह दिया था। अब तक ज्ञानमार्ग की
खूबियाँ वह जान सका था जरूर। मगर कर्मों की पेचीदगी उसे विदित हो सकी
न थी। यह समस्या अभी उलझी हुई थी।
मगर कृष्ण ने
तीसरे अध्याय में जो कुछ भी कहा उससे सारी बातें आईने की तरह झलक
उठीं। अब उसके मन में शक-शुभे की जरा भी गुंजाइश रही नहीं गयी थी।
अगर कहें तो कह सकते हैं कि एक प्रकार से गीता का काम इतने से ही
पूरा हो जाता है। असली और मुख्य जो दो बातें गीता की हैं वे इन्हीं
दोनों में आ गयी हैं। यह ठीक है कि इनके कुछ पहलू छूटे हैं और उन्हीं
का निरूपण आगे के
4, 5, 6,
अध्यायों में
हो जाने पर शेष गीता में इन्हीं बातों का स्पष्टीकरण करके
18वें
में उपसंहार किया है। इस दृष्टि से तीसरे अध्याय के अन्त में
ज्ञान-विज्ञान का उल्लेख महत्तवपूर्ण है। उससे पता चलता है कि जिस
ज्ञान और विज्ञान की बात आगे पुनरपि सातवें अध्याय में शुरू होती है
और नवें में फिर जिसका जिक्र करते हैं वही गीता की असल चीज है। उसके
वर्णन दूसरे और तीसरे अध्यायों में मुख्यतया आ भी चुके हैं। हाँ,
जो कुछ
उनके खास पहलू बचे थे उन्हीं का आगे छठे अध्याय तक निरूपण है,
विवेचन
है।
हाँ,
तो
पिछले अध्यायों के उपदेशों से अर्जुन को कुछ खास बातें भी मालूम हो
गयीं जिनका उसे स्वप्न में भी ख्याल न था। आत्मा की अजरता,
अमरता
और अविनाशिता का जो सुन्दर से सुन्दर वर्णन हुआ है और मरण-जीवन को
जिस अपूर्व ढंग से बताया गया है कि दरअसल ये क्या हैं,
उनने
उसकी ऑंखें खोल दीं। उसने एक नयी दुनिया ही सचमुच देखी जिसकी कभी आशा
भी न थी। मगर इससे भी निरालापन तीसरे अध्याय में और दूसरे के मध्य
में भी उसने कर्म के बारे में पाया। जानें कहाँ की अलौकिक बातें और
खूबियाँ मालूम हुईं। खासकर कर्म का जो सर्वांग रहस्य उसके सामने पूरे
ब्योरे के साथ आ गया उसका तो उसे सारे पोथी-पुराणों और वैदिक
ग्रन्थों के मन्थन से भी आभास तक न मिल सका था। इस मामूली से कर्म के
भीतर इतनी बारीकियाँ छिपी हैं यह जान के स्वभावत: वह आश्चर्यचकित सा
हो रहा है यह बात कृष्ण भी ताड़ गये थे। वह सोचता था कि इसमें अभी
जानें और कितनी बातें होंगी। मगर उसे ताज्जुब था कि इतनी महत्तवपूर्ण
बातें लोगों को अब तक मालूम क्यों न थीं
?
यदि किसी एक
को भी मालूम होतीं तो वह जरूर ही कह-सुन गया होता,
लिख-पढ़
गया होता। हो न हो,
यह
एकदम नयी बातें कृष्ण के ही अलौकिक मस्तिष्क की उपज हैं-बिलकुल ही
ताजी और नयी हैं!
इससे जहाँ एक
ओर उसे गर्व और फर्क
हो सकता था
कि भगवान् ने मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की जो सारा रहस्य समझाया,
अत: मैं
धन्य
हूँ। तहाँ दूसरी ओर इस बात की भी गुंजाइश थी कि कहीं ऐसा तो नहीं है
कि केवल युध्द में जुझाने के ही लिए नयी-नयी युक्तियाँ,
जो आज तक देखी-सुनी भी न गईं,
पेश की जा रही हैं। जब इस तरह की बातें
कहिए-सुनिए तो आमतौर से ऐसे
ख्याल
अकसर हुआ करते हैं कि देखो न,
कितना गुरुघण्टाल है कि युक्तियों के नए जाल में
फँस
के अपना काम निकाल लेना चाहता है! यह भी बात है कि यदि
धर्म-कर्म
के मामले में लोगों को यह पता लग जाय कि एकदम नयी बात कही जाती है जो
पहले कभी आयी न थी और प्रचलित
धारणा
या रीति-रिवाज के खिलाफ है,
तो लोग एकाएक भड़क उठते हैं। यह चीज हमेशा ही देखी
गयी है। इसलिए कृष्ण के इस अनूठे उपदेश में भी इसकी सम्भावना थी और
काफी थी। कृष्ण जैसे विज्ञ महापुरुष को इसे ताड़ते देर भी नहीं लग
सकती थी। यदि इससे बचने के लिए यह कहा जाता कि नहीं-नहीं,
यह तो पुरानी बात है,
प्राचीनतम है, जिसे कृष्ण ने फिर दुहराया
है, तो शंका हो सकती थी कि उन्हें यह
मालूम कैसे हो सकी ? जब
साधारणत:
इसका उपदेश होता-जाता ही नहीं और न चर्चा ही सुनी जाती है जब यह
लापता है,
तो एकाएक कृष्ण को मालूम कैसे हो गयी
?
यह भी तो दिमाग में आ सकने वाली बात नहीं है कि
उन्हें यों ही विदित हो गयी।
पूर्ण
व्यवहारकुशल होने के नाते,
और
अर्जुन की भावभंगी को देखकर भी,
कृष्ण
के मन में स्वयमेव ये सारे ख्याल आ जाने जरूरी थे। आ गये भी। इसी
लिए उनने अर्जुन को प्रश्न करने का मौका तक नहीं देकर स्वयमेव चौथे
अध्याय के आरम्भ के दस श्लोकों में इस बात का पूरा खुलासा कर दिया।
असल में प्रश्न के उत्तर देने पर वह मजा नहीं आता जो बिना पूछे ही
अपने मन से ही ताड़ के उत्तर देने में आता है। इससे एक तो सुनने वाला
बाग़-बाग़ हो जाता है। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता कि जो विचार उसे
खटक रहे थे उनकी पूरी सफाई हो गयी। इसी के साथ इससे उपदेशक की पहुँच
और पूर्ण योग्यता पर भी उसे विश्वास हो जाता है। यह भी होता है कि
सुनने वाले के मन में ख्याल न भी उठें। ऐसी दशा में इनका उत्तर
तत्काल न दिये जाने पर आगे चल के यही प्रश्न उठ सकते और विषय को कम
से कम किरकिरा तो जरूर बना दे सकते हैं। क्योंकि बहुत सम्भव है कि उस
उपदेशक के न रहने पर दूसरे लोग सारी बातों का रहस्य पूर्णतया हृदयंगम
न कर सकने के कारण उन खयालों और प्रश्नों के यथार्थ और दिल में बैठ
जाने वाले उत्तर न दे सकें । इसीलिए बिना कहे सुने ही-
श्रीभगवानुवाच
इमं
विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥1॥
श्री भगवान्
ने कहा-मैंने (खुद) विवस्वान्-सूर्य-को (सृष्टि के आरम्भ काल में ही)
इस चिरस्थायी योग का उपदेश दिया था। (उसके बाद कालान्तर में)
विवस्वान् ने मनु को (इसे) बताया था और मनु ने इक्ष्वाकु को।1।
एवं
परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।
स
कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप॥2॥
हे परन्तप,
इस
प्रकार परम्परा-गुरुशिष्य प्रणाली-से चले आने वाले इस योग को राजर्षि
लोग (जरूर) जानते थे। (मगर) वही योग दरम्यानवाले वाले लम्बे समय के
चलते यहाँ लापता हो गया था।2।
स एवायं
मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥3॥
यह वही
प्राचीन योग है जिसे आज मैंने तुमसे कहा है। (क्योंकि) तुम मेरे साथी
और भक्त (दोनों ही) हो (और) यह भी अत्यन्त गोपनीय चीज है।3।
यहाँ दो एक
जरूरी बातें जान के आगे बढ़ें तो ठीक हो। आज तो कुछ इतना साफ पता चलता
नहीं कि बात क्या है। मगर स्मृति-ग्रन्थों एवं इतिहास-पुराणों को
देखने से यही पता लगता है कि भगवान् ने जो भी सृष्टि की वह आदित्य,
सूर्य
या विवस्वान् से ही शुरू हुई। उनने विवस्वान् को बनाया,
उत्पन्न किया। विवस्वान् में मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को। उसके
बाद आगे का विस्तार चला। इतना तो सही है,
जिसे
पहले के लोग भी मानते थे और आज का विज्ञान भी मानता है,
कि
सूर्य अपार शक्तियों का केन्द्र है। वैदिक मन्त्रों में इसका बहुतर्
कीत्तान आता है। गायत्री मन्त्र,
जो
हिन्दुओं का प्रतिदिन जपने का सर्वप्रधान मन्त्र है,
सविता
या सृष्टि के विस्तार करने वाले के रूप में ही सूर्य का ध्यान करने
की बात कहता है। सूर्य से कैसे जीवसृष्टि का विकास हुआ यह बात यहाँ
कहने की है नहीं। हमें तो गीता की परम्परा से ही मतलब है।
यह भी रिवाज
पहले था कि अपने पुत्रों को पिता ही आवश्यक एवं गोपनीय बातें बता
दिया करता था। इसीलिए पिता-पुत्र का ही नाता गुरु-शिष्य का भी हो
जाता था। हाँ,
जब
किसी कारण से पिता उपदेश न कर सके,
या वह
ऐसी बातें न जानता हो जो बहुत ही महत्तवपूर्ण और आवश्यक हैं तभी
दूसरे गुरु से वह सीखी जाती थीं। बस,
यही
गुरु-शिष्य की प्रणाली पहले थी जिसे परम्परा शब्द से यहाँ याद किया
है। इसे परम्परा ही कहते भी हैं। इस प्रकार अपने-अपने पुत्रों को ही
जब लोग उपदेश करते थे तो इसी नियम के अनुसार भगवान् ने अपने पुत्र
विवस्वान् को,
विवस्वान् ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को उपदेश किया था। इस
प्रकार अन्यान्य उपदेशों के साथ ही गीतोक्त इस गीताधर्म या योग का भी
उपदेश सृष्टि के आरम्भ में ही हुआ था। महाभारत के शान्तिपर्व के
346, 347, 348
आदि
अध्यायों में इस बात का विशेष वर्णन पाया जाता है कि प्रत्येक
सृष्टि के शुरू में किस तरह ऐसी बातों की परम्परा चलती है। वहीं लिखा
है कि सत्ययुग में भगवान् ने विवस्वान् को इसे बताया था।
''उनने
उसके बाद त्रेतायुग के शुरू में ही मनु को बताया,
मनु ने
लोगों के कल्याण तथा फलने-फूलने के ही उद्देश्य से अपने पुत्र
इक्ष्वाकु को और इक्ष्वाकु ने बहुत लोगों को बताया। इस तरह सभी लोगों
की जानकारी में आ जाने के कारण यह धर्म कायम रहा। मगर प्रलय होने पर
फिर यह चीज नारायण के ही पास वापस चली जायगी'-''त्रोतायुगादौ
च ततो विवस्वान्मनवे ददौ। मनुश्चलोकभृत्यार्थं सुतायेक्ष्वाकवे ददौ।
59।
इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थित:। गमिष्यति क्षयान्ते च
पुनर्नारायणं नृप।52।''
यह जान
लेना होगा कि यह बात किसी एक ही या खास धर्म के ही लिए नहीं है।
प्रसंगवश किसी एक के कहने पर भी प्राचीन ग्रन्थों से यही सिध्द होता
है कि सभी आवश्यक एवं महत्तवपूर्ण बातें इसी परम्परा के अनुसार
प्रचलित हुईं। उन्हीं में यह गीता का योग भी एक है। हिन्दुओं के
दार्शनिक ग्रन्थों तक में यह मिलता है कि समाजोपयोगी सभी कलाओं
का-यहाँ तक किर् बत्तान,
वस्त्रदि बनाने का भी-इसी प्रकार उपदेश किया गया। इसीलिए पंतजलि ने
योगदर्शन में लिखा है कि भगवान् ही सबों का गुरु है-गुरुओं का भी
गुरु है-''पूर्वेषामपि
गुरु: कालेनान-वच्छेदान्''
(1।26)
दूसरे श्लोक
में जो लिखा है कि राजर्षि लोग इसे जानते थे-''इमं
राजर्षयो विदु:,''
यह भी
एक निराली चीज है। गीता में लोक-संग्रह के दृष्टान्त के रूप में
कृष्ण ने अपना और जनक का नाम कहा है। खुद तो क्षत्रिय कुल में जनमे
थे ही। जनक भी ऐसे ही थे। उपनिषदों में भी जानश्रुति पौत्रायण,
प्रवाहण,
प्रतर्दन आदि
क्षत्रियों का ही विशेष उल्लेख ऐसे मामलों में पाया जाता है। प्रवाहण
को तो साफ ही राजन्यबन्धु लिखा है। यहाँ तक कि पंचाग्निविद्या के
प्रकरण में छान्दोग्य (5।3।7)
तथा
वृहदारण्यक (6।2।8)
दोनों
ही उपनिषदों में साफ ही लिखा है कि जब आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु
से साफ ही कह दिया कि प्रवाहण के पंचाग्नि-विद्या-सम्बन्धी प्रश्नों
का उत्तर मैं भी नहीं दे सकता;
क्योंकि मैं भी यह जानता ही नहीं,
और
इसके बाद जब दोनों बाप-बेटों ने प्रवाहण के पास जा के साफ ही कह दिया
कि हम तो क्या हमारे बाप-दादे तक भी इसे नहीं जानते थे,
इसलिए
आप ही बताइए,
तो उसे
पहले तो बड़ा ताज्जुब और संकोच हुआ। फिर उसने कहा कि यदि ऐसा है तब
क्या करूँगा,
बताऊँगा जरूर ही,
''यथा
मात्वं गौतमावदो यथेयं न प्राक्त्वत्ता: पुरा विद्या ब्राह्मणान्
गच्छति'' (छां.
5।3।7),
''सहोवाच
यथा नस्त्वं गौतम मापराधस्तव च पितामहा यथेयं विद्येत: पूर्व न
कस्मिश्चन ब्राह्मण उवास''
(वृह.
6।2।8)।
इतना ही नहीं,
वहाँ
तो यह भी लिखा है कि कोई भी ब्राह्मण यह विद्या तब तक जानता ही न था।
छान्दोग्य में यह भी लिख दिया है कि शासनकार्य क्षत्रिय ही करते थे
और उन्हीं को इसकी खास जरूरत भी होती थी। इसीलिए ही शायद दूसरे जान न
सके। किन्तु वही लोग जानते थे-''तस्मादु
सर्वेषु लोकेषु क्षत्रियस्यैव प्रशासनमभूदिति तस्मैहोवाच''
(5।3।7)
जो भी
हो,
बात बड़ी
मजेदार है। यह ब्राह्मणों के इस दावे पर आघात भी करती है कि विद्या
उन्हीं की चीज है और वही दूसरों को सिखाते हैं,
सिखा
सकते हैं। परन्तु हमें यहाँ केवल इतना ही कहना है कि विद्वान्
क्षत्रिय राजे ही राजर्षि कहे जाते थे। वही इस योग को भी जानते थे।
जनक के बारे में तो आख्यायिका ही है कि शुकदेव आदि महापुरुष उन्हीं
से ब्रह्मविद्या सीखने गयेथे।
कृष्ण के कहने
का तात्पर्य यही है कि इस लम्बी मुद्दत में,
जिसमें
कि त्रेतायुग का अधिकांश और प्राय: सारा द्वापर गुजरा,
कोई इस
योग का सिखाने-पढ़ाने वाला रही नहीं गया। इसीलिए धीरे-धीरे लोग इसे
भूल गये। जब परम्परा या पठन-पाठन की प्रणाली चालू रहे तभी ऐसी बातें
प्रचलित रहती हैं। जब वही न रही तो इनका मिट जाना या लुप्त हो जाना
स्वाभाविक ही है। महाभारत वाले युध्द का समय तो द्वापर का अन्त या
द्वापर और कलि का संधिकाल ही माना जाता है और इक्ष्वाकु से लेकर तब
तक की मुद्दत बहुत बड़ी थी इसमें कोई शक हुई नहीं। फलत: यह विद्या भूल
गयी। यह आम लोगों के समझ की तो चीज हुई नहीं। इसे तो विशेषज्ञ और
पूरे जानकार ही बता सकते हैं और वे होते ज्यादा हैं नहीं। फिर कौन
किसे बतायें ?
इसीलिए
कृष्ण ने अर्जुन को साथी,
श्रध्दालु तथा प्रेमी समझ के ही बताया है। यही कह भी दिया है। गोपनीय
और दुर्बोध चीज यदि यों ही सबों को बताई जाये तो एक तो लोग समझेंगे
उसे खाक नहीं। दूसरे उसकी कीमत भी जाती रहेगी। समझदार लोग भी मान
बैठेंगे कि कोई ऐसी ही वैसी चीज है। फलत: उस तरह भी खत्म होई जायगी।
पहले तो नहीं।
मगर कृष्ण की यह बात सुन के अर्जुन को चट ख्याल आया कि ऐं,
यह
क्या कह रहे हैं कि मैंने सृष्टि के शुरू में विवस्वान् को यही बात
सिखाई थी ?
यह तो
असम्भव है,
गैरमुमकिन है। कृष्ण का तो जन्म-कर्म सब कुछ मैं जानता ही हूँ। मेरे
तो मामू के पुत्र ही ठहरे। फिर यह कैसे कह दिया कि मैंने विवस्वान्
को इसका उपदेश दिया
?
यह कैसे मानूँ
?
इसी बात को इस
तरह-
अर्जुन
उवाच
अपरं
भवतो जन्म परं जन्म विवस्वत:।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥4॥
अर्जुन ने
पूछा-आपका जन्म तो इधर हाल में ही हुआ है। और विवस्वान् तो बहुत पहले
पैदा हुए थे। (तब) कैसे मानूँ कि आपने ही शुरू में (उन्हें यह चीज)
बताई थी ?।4।
श्रीभगवानुवाच
बहूनि
मे व्यतीतानि जन्मानि तब चार्जुन।
तान्यहं
वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥5॥
श्रीभगवान् ने
उत्तर दिया-हे अर्जुन,
हे
परन्तप,
मेरे और
तुम्हारे भी बहुतेरे जन्म हो चुके हैं। मैं उन सबों को ही जानता हूँ।
(हाँ) तुम नहीं जानते।5।
अजोऽपि
सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥6॥
बेशक,
मैं
जन्म-रहित हूँ,
मेरी
आत्मा निर्विकार है और मैं सभी सत्ताधारियों का शासन करने वाला भी
हूँ। (ताहम) अपनी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही मैं अपनी माया से
ही जन्म लेता हूँ।6।
यदा-यदा
हि
धर्मस्य
ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदात्मानं सृजाम्यहम्॥7॥
परित्राणाय
साधूनां
विनाशाय च दुष्कृतम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय
संभवामि युगे-युगे॥8॥
हे भारत,
जभी-जभी धर्म का हास
या खात्मा होता है और अधर्म
की वृध्दि हो जाती है तभी-तभी मैं अपना शरीर बनाता हूँ। (इसलिए) भले
लोगों की रक्षा,
बुरे लोगों के नाश और
धर्म
की जड़ को मजबूत करने के लिए मुझे समय-समय पर जन्म लेना ही होता है।7।8।
इस अवतार के
सिध्दान्त का क्या दार्शनिक रहस्य है और उस पर
'प्रकृतिं
स्वामधिष्ठाय' (4।6),
मे
दिव्यं (4।9)
में
'दिव्यं'
तथा
'आत्ममायया'
कहने
से क्या प्रकाश पड़ता है,
आदि
बातों का विस्तृत विवेचन कर्मवाद और अवतारवाद के प्रकरण में पहले ही
किया जा चुका है। इन श्लोकों का अभिप्राय समझने के लिए उसे पढ़ लेना
जरूरी है। हाँ,
यह बात
जुदी है कि अर्जुन के प्रश्न और कृष्ण के उत्तर से यह प्रश्न पैदा हो
जाता है कि क्या उस समय तक पुनर्जन्म तथा अवतारवाद का सिध्दान्त
प्रचलित या सर्वमान्य नहीं हुआ था
?
क्योंकि यदि
होता तो अर्जुन भी जानता ही रहता। फिर पूछता क्यों
?
और कृष्ण भी
अवतार कह के ही आगे बढ़ जाते। दलीलें न देते। मगर यह विषय बड़ा है और
गीता हृदय के तीसरे भाग के लिए ही इसे छोड़ना ठीक है। यहाँ यही कहना
है कि 'बहूनि
मे व्यतीतानि'
श्लोक
में कृष्ण ने अर्जुन को ऐसा ही मुँहतोड़ उत्तर दिया है जैसा उसका
प्रश्न था। उनने साफ ही कह दिया है कि तुम्हें मेरे इस कथन से बेशक
आश्चर्य हुआ होगा। यह बात तुम्हारे माथे में आई ही न होगी। मगर इसमें
आश्चर्य क्या है
? ऐसी
हजारों बातें हैं जो तुम्हारे माथे में आ न सकी हैं। तुम्हें क्या
पता कि हमारे और तुम्हारे हजारों जन्म हो चुके
?
खूबी तो यह कि
तुम्हें उनकी जरा भी,
यहाँ
तक कि अपने जन्मों की भी,
जानकारी तक नहीं है। फिर मेरे जन्मों को कैसे जानोगे
?
मगर मैं तो सब
कुछ जानता हूँ न
? मैं
तो अपना भी और तुम्हारा भी शुरू से आज तक का कच्चा चिट्ठा जानता हूँ।
तुम कितनी बार कहाँ कैसे जन्मे,
तुमने
क्या-क्या किया,
मैं भी
कब-कब कहाँ कैसे जन्म ले के क्या-क्या करता रहा,
यह सब
कुछ बखूबी जानता हूँ,
जैसे
ऑंखों के सामने ही यह बातें नाच रही हों।
जानने का यह
मतलब नहीं है कि लोगों से सुन के या किताबें पढ़ के जानकारी हासिल कर
ली जाये। ऐसी जानकारी तो अर्जुन को भी हो सकती थी। इतिहास पढ़-सुन के
तो सभी लोग जानें कितनी ही बातें जान जाते हैं। फिर अर्जुन में ही
क्या कमी थी कि इतना भी नहीं जान पाता
? और
वैसे समझदार आदमी के लिए,
जिसने
स्मृतिकारों की भी धज्जियाँ शुरू में ही उड़ाई थीं और उनके तर्कों को
अमान्य कर दिया था,
कृष्ण
का यह कहना कि तुम कुछ नहीं जानते हो कहाँ तक ठीक हो सकता है,
यदि उस
जानकारी का यही अभिप्राय हो
?
इसीलिए
पाँचवें श्लोक में जो
'वेद'
क्रिया
लिखी है,
उसका अर्थ
प्रत्यक्ष अनुभव या साक्षात्कार ही है। इसीलिए आगे के
9वें
श्लोक में इसी जानकारी के मानी में इसी विद धातु से बने और वेद के ही
अर्थ में प्रयुक्त वेत्ति क्रिया का
'तत्तवत:'
विशेषण
दिया गया है। इससे तत्तवज्ञान ही उसका अभिप्राय सिध्द होता है और
तत्तवज्ञान का अर्थ हमेशा साक्षात्कार ही माना जाता है। वह ऐसा ज्ञात
हो जैसे कि ऑंखों के सामने कोई चीज खड़ी हो। कृष्ण को पूर्ण
आत्म-साक्षात्कार रहने के कारण ऐसा ही ज्ञान था। मगर अर्जुन को न था।
उसे अगर कुछ भी थी तो केवल धुधँली स्मृति या पढ़ी-सुनी बातों की याद
मात्र। इसीलिए उसे धीरे से कृष्ण ने हँसते-हँसते इन्हीं शब्दों में
एक कनेठी दे दी कि तुम्हें क्या मालूम कि मैंने कब कहाँ जन्म लिया था,
मैं कब
कहाँ मौजूद था! वेद शब्द उपनिषदों में ऐसे ही देखने के मानी में
बराबर आया है।
इसीलिए कृष्ण
ने आगे यह भी कह दिया है कि जिस तरह मैं यहीं बैठा अपने तमाम अवतारों
और तुम्हारे तथा दूसरों के अनेक जन्मों की सारी बातें जैसे ऑंखों देख
रहा हूँ,
वैसा ही अनुभव
जिसे हो वही जीवन्मुक्त है। मुझमें और उसमें जरा भी भेद नहीं रह
जाता। अपने भीतर जो कुछ होता हो जैसे उसका करारा और ताजा प्रत्यक्ष
अनुभव होता है वैसा ही अनुभव जब सारे संसार के सम्बन्ध में होने लगे,
जिसे
'आत्मौपम्येन
सर्वत्र' (6।32)
में
कहा है,
तभी
'सर्वभूतात्मभूतात्मा'
(5।7)
कहना
चरितार्थ होगा। यों ही बातें करने और पढ़ी-सुनी बातें दुहराने से ही
नहीं। अतएव इसी दर्शन एवं अनुभव की कोशिश होनी चाहिए।
जन्म
कर्म च मे दिव्यमेवं यो
वेत्ति
तत्तवत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥9॥
हे अर्जुन,
हमारे
इस अलौकिक जन्म और कर्म को जो इसी तरह-मेरी ही तरह-ठीक-ठीक साक्षात्
अनुभव करता है वह शरीर को छोड़ के-मरने पर-फिर जन्म नहीं लेता (और)
मुझी में मिल जाता है-मेरा ही रूप बन जाता है ।9।
वीतरागभयक्रोध
मन्मया मामुपाश्रिता:।
बहवो
ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता:॥10॥
(यह
कोई नयी बात नहीं है। पहले भी) जिनके राग,
भय एवं
क्रोध निर्मूल हो गये थे,
जो मुझ
आत्मा के सिवाय और की परवाह न करके आत्मा में ही रम चुके थे (और इस
तरह) जो ज्ञान रूपी तप के प्रभाव से पवित्र हो चुके थे ऐसे बहुत से
लोग मेरा स्वरूप-परमात्मा या ब्रह्म-बन चुके हैं।10।
दसवें श्लोक
के पूर्वार्ध्द के देखने से तो और भी साफ हो जाता है कि पूर्व जो
जानकारी की बात कही गयी है वह आत्मसाक्षात्कार रूप ही,
जिसके
होते ही वामदेव एकाएक बोल बैठे कि मैं ही तो मनु,
सूर्य
आदि सब कुछ बना था-
''तध्दैतत्पश्यन्ऋषिर्वामदेव:
प्रतिपेदेऽहमनुरभवं सूर्यश्च''
(वृहदा.
1।4।10)।
इसीलिए इसी मन्त्र में आगे साफ ही कह दिया है कि आज भी जिसे ऐसी
दृष्टि मिल जाय वह भी समस्त संसार का रूप बन जाता है-समस्त जगत् को
अपना स्वरूप ही देखने लग जाता है-''तदिदमप्येतर्हि
या एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवति॥''
यह भी
देखा जाता है कि इसी मन्त्र में
'वेद'
शब्द
आया है और देखने या दृष्टि के मानी में ही
'पश्यन्'
आया है
इसीलिए हमने जो पहले कहा है वही अर्थ वेद का है।
9वें
श्लोक में दिव्य कहने का यह भी अभिप्राय है कि अवतारों के जन्म और
कर्म असाधारण होते हैं;
न कि
हम लोगों जैसे। उनकी दृष्टि और शक्ति दबी न हो के व्यापक होती है।
पूर्व के 6-7
श्लोकों में जो आत्मा शब्द बार-बार आया है उसका भी यही अभिप्राय है
कि आखिर मैं तो आत्मा ही ठहरा। इसीलिए जो मुझे आत्मा माने-जानेगा वह
तो मेरा रूप हुई,
होई
जायगा।
ये यथा
मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम
वर्त्मानर्वत्तन्ते
मनुष्या: पार्थ सर्वश: ॥11॥
हे पार्थ,
जो लोग
जिस दृष्टि से मेरे निकट आते हैं-मुझे जानते-मानते हैं-मैं (भी)
उन्हें वैसा ही मानता-जानता हूँ। (यह समझ लो कि) सभी मनुष्य मेरे ही
रास्ते पर चलते हैं।11।
कांक्षन्त: कर्मणां सिध्दिं यजन्त इह देवता:।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिध्दिर्भवति कर्मजा॥12॥
इस संसार में
जो कर्मों की सिध्दि चाहते हैं। वह (सभी प्रकार के) देवताओं का
यज्ञपूजन करते हैं। क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों के फलों की
प्राप्ति जल्दी ही होती है।12।
इन दो श्लोकों
में जो बात कही गयी है वह है तो गीता की अपनी खास चीज ही। इसका बहुत
विस्तृत निरूपण भी हमने श्रध्दापूर्वक कर्मों के विचार के समय किया
है। मगर इसका ताल्लुक पहले के श्लोक से भी है। गीता का यह एक मुख्य
मन्तव्य है कि जोई दिल-दिमाग में आये ईमानदारी के साथ वही जबान से
बोलें और हाथ-पाँव से करें तो कल्याण ही कल्याण समझिए। यही
स्वधर्म-पालन का वास्तविक अर्थ है और यही बात इन दो श्लोकों में भी
कही गयी है। पहले श्लोक से मिलान करने पर यह अभिप्राय स्पष्ट हो जाता
है कि जिनको वह दिव्यदृष्टि प्राप्त हो जाती है,
जिसे
आत्मसाक्षात्कार कहते हैं,
वह तो
ब्रह्मरूप ही होते,
ब्रह्मत्व को प्राप्त हो जाते हैं
'ब्रह्मैव
सन्ब्रह्माप्येति'
(वृहदा.
4।4।6)।
लेकिन जिनकी वह दृष्टि न हो वह अनेक प्रकार के होते हैं। कोई तो
ईश्वर को आराध्यदेव मान के पूजा-यज्ञ करते,
कोई
इन्द्र-उपेन्द्रादि के रूप में उसे पूजते-मानते,
कोई और
भी देवी-देवता की ही सूरत में उसे याद करते और सन्तुष्ट करना चाहते,
कोई
पितरों के रूप में ही उसको तृप्त करते और कोई भूत,
प्र्रेतादि मानकर ही मन्त्रतन्त्रादि से उसे अनुकूल करना चाहते हैं।
इसी दृष्टि की विभिन्नता के अनुकूल उनके उद्देश्य भी अलग-अलग होते
हैं। यही बात, 'कामैस्तैस्तै:'
आदि (7।20।23)
और
'यजन्तेसात्तिवका'
(17।4)
में भी
कही गयी है।
इस प्रकार
भगवान् को आत्मा समझने पर जब मनुष्य भगवान् का रूप बन जाता है तो
अन्य देवता-देवी आदि जिस किसी रूप में भगवान् को मनुष्य समझे मानेगा
वह वहीं होगा,
इसमें
शक की जगह हुई कहाँ
?
बेशक ईमानदारी
का सवाल है। दिल से ऐसा ही मान के काम करने वालों की ही बात है।
श्रध्दा का यही मतलब है। आमतौर से ऐसी पूजा करने वाले सचमुच श्रध्दा
और विश्वास के साथ ही ऐसा करते हैं। जो लोग मन में समझें कुछ और करें
कुछ वे ऐसे शायद ही होते हैं। वे लोग इन पूजापाठ के झमेलों में पड़ते
भी नहीं। इसीलिए यह कहना भी ठीक ही है कि सभी मनुष्य मेरे ही रास्ते
पर चलते हैं। क्योंकि नियम यही है। अपवाद में ही शायद कोई ऐसा न करते
हों। भगवान् तो सभी की आत्मा ठहरे। वैसा ही अनुभव वह करते भी थे जब
बोल रहे थे। इसीलिए जब मनुष्य किसी भी देव-दानव की पूजा करेगा तो
जरूर ही भगवान् की ही ओर जायेगा। उसका रास्ता वही होगा जो भगवान् का
है-जो उसकी ओर ले जाता है। यह ठीक है कि वह सीधा राजमार्ग न हो के
पगडण्डी और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता है,
जो
चक्कर काट के जाता है। इसीलिए तो महिम्नस्तोत्रा में पुष्पदन्त ने
साफ ही कह दिया है कि चाहे किसी की पूजा करें या किसी को जानें-मानें;
मगर
घूम-फिर
के सभी भगवान् की ही तरफ जाते हैं। जैसे वर्षा या बर्फ़ का सभी पानी
घूम फिर के समुद्र में ही जाता है,-''रुचीनां
वैचित्रयादृजुकुटिल नानापथजुषाम् नृणामे को गम्यस्त्वमसि परसामर्णव
इव।''
मनुष्य-लोक
में सिध्दि,
कर्मों
के फलों की प्राप्ति या कर्मों में सफलता जल्दी होती है,
यह भी
ठीक ही है। जो सुविधाएँ,
जो
अनुकूलताएँ मनुष्य को हासिल हैं वह पशु-पक्षी या देव-दानव किसी को भी
नहीं मिली हैं,
नहीं
मिल सकती हैं। यहीं की कमाई से तो उन शरीरों में जाया जाता है।
इसीलिए उन्हें भोग-योनि या भोगने वाले शरीर और मानव देह को कर्म-योनि
माना है। भला पढ़ने-लिखने,
सोचने-विचारने से,
समाधि
आदि करने की सुविधाएँ और किसे प्राप्त हैं,
सिवाय
मनुष्य के ?
यहाँ
तक कि वह अपने यत्न से भगवान् हो जाता है। मगर दूसरे ऐसा कर नहीं
सकते। देवता लोगों का तो ज्यादे से ज्यादा यही होता है कि अपनी जगह
से फिर इसी मनुष्य लोक में आते हैं। वे यहीं यत्न करके सब कुछ
प्राप्त करते भी हैं-'क्षीणे
पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति'
(9।21)
इसीलिए
इसी शरीर में अलभ्य अवसर मिलता है कि दिव्य दृष्टि तथा
आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लें।
अब यह प्रश्न
हो सकता है कि क्यों लोग सीधे भगवान् में न लग के देवी-देवताओं में
फँसते हैं ?
वे गलत
या चक्करवाले रास्ते में क्यों पड़ते हैं
?
सीधा रास्ता
क्यों नहीं पकड़ते
? यदि
कहा जाय कि प्रकृति या स्वभाव के अनुसार ही ऐसा होता है और प्रकृति
तो हरेक की भिन्न-भिन्न होती ही है,
तो
प्रश्न होता है कि जुदा-जुदा प्रकृति या विभिन्न स्वभाव के शरीर बने
ही क्यों ?
इनकी
जरूरत ही क्या थी
? और
इन्हें बनाया किसने
?
यदि कहें कि
भगवान् ने बनाया तो उसने ऐसा क्यों किया
?
विभिन्नता
लाने में उसका प्रयोजन क्या था
?
और अगर उसने
ही यह सब कुछ किया तो समूचे करने-धरने की जवाबदेही उसी पर आनी चाहिए,
न कि
किसी और पर। इतना ही नहीं। इतना बड़ा पँवारा फैलाने,
असंख्य
प्रकार के शरीरों एवं पदार्थों के बनाने का संकट और इस काम का
बुरा-भला नतीजा क्या उसे न भोगना पड़ेगा
?
अगर नहीं,
तो
दूसरे लोग अपने कर्मों का फल क्यों भोगें और वह न भोगे
?
नियम-कायदा तो
एक ही ढंग का होगा न
?
होना चाहिए न
?
इन्हीं बातों
का उत्तर आगे लिखा है। उसका मतलब यही है कि सृष्टि में अनेक प्रकार
के कामों का बँटवारा गुणों के ही अनुसार बने स्वभाव के ही अनुकूल हुआ
है। जिसके दिल-दिमाग,
शरीर
और इन्द्रियों में जिस गुण की प्रधानता है उसी के अनुसार उसके कर्म
होते हैं। ऐसी गुण विभिन्नता होने ही क्यों पाई इसका उत्तर भी यही है
कि पहले जन्म के कर्मों के अनुसार ही सभी बातें होती हैं। जो जिस चीज
का अभ्यास करेगा उसे वही याद आयेगी और उधर ही वह झुकेगा। इसीलिए कहा
गया है कि मरने के समय उससे पहले के अभ्यास के अनुसार जो बात,
जो चीज
याद आयेगी उसी शरीर में उसी के अनुकूल वाली परिस्थिति में जन्म लेगा।
इस तरह आगे बढ़ते जायँगे। शुरू में क्यों ऐसा हुआ यह प्रश्न तो होता
ही नहीं;
क्योंकि संसार
का शुरू न मान के इसे अनादि मानते हैं। यह ठीक है कि कर्मों और गुणों
की सारी व्यवस्था भगवान् के बिना नहीं हो सकती है। इसीलिए वही यह सब
कुछ करते हैं। मगर न तो इसका फल ही वे भोगते और न इनसे परेशानी ही
उठाते! क्योंकि उन्हें तो आत्मज्ञान है न
? वह
तो अपने को अकर्ता और अभोक्ता बेलाग-देखते हैं न
?
श्लोक में जो चातुरर््वण्य या चारों वर्णों की बात है यह दृष्टान्त
के रूप में भारत में उस समय प्रचलित चीज को ही ख्याल करके है। असल
में कर्मों के अनेक विभागों और उनकी व्यवस्था से ही मतलब है। श्लोक
में कर्म शब्द पूर्व के या प्रारब्ध कर्म और आगे होने वाले कर्म-इन
दोनों-का ही वाचक है। इसका पूरा विवरण कर्मवाद में मिलेगा।
चातुरर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य
कत्तर्रमपि मां विध्दयकत्तर्रमव्ययम्॥13॥
चारों वर्णों
को मैंने ही गुणों और कर्मों के बँटवारे के अनुकूल ही बनाया है।
(लेकिन) इनका बनाने वाला होता हुआ भी मैं निर्विकार और अकर्ता हूँ,
ऐसा
जान लो।13।
न मां
कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां
योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥14॥
(क्योंकि)
न तो मुझमें कर्म चिपकते ही हैं और न मुझे उन कर्मों के फलों की
आकांक्षा ही है। (फिर मुझे इनसे ताल्लुक ही क्या
? यही
नहीं;)
जो कोई दूसरा
भी मुझे इसी तरह साक्षात्कार कर लेता है वह भी कर्मों से (हर्गिज)
बँध नहीं सकता।14।
यहाँ
उत्तारार्ध्द में जो
'अभिजानाति'
क्रिया
है उसका पहले की ही तरह साक्षात्कार ही अर्थ है। इसीलिए तत्तव की जगह
'अभि'
शब्द
उसमें जुटा है,
जिससे
उसका अर्थ होता है अच्छी तरह जानना। इसी को विज्ञान भी कहते हैं।
अभिजानाति के ही अर्थ में अभिज्ञान बनता है,
जिसका
अर्थ है पहचान या परिचय करा देने वाला। शकुन्तलावाली ऍंगूठी देखते ही
दुष्यन्त की ऑंखों के सामने उसकी मूर्ति नाच उठी। इसीलिए अभिज्ञान
शाकुन्तल में उसी ऍंगूठी को अभिज्ञान माना गया है। जो लोग ईश्वर के
अकर्तव्य और नि:स्पृहत्व का अपने ही भीतर साक्षात्कार करने लगे,
अनुभव
करने लगे,
वह तो स्वयं
ईश्वर ही हो गये। फिर उन्हें कर्मों का बन्धन कैसा
?
एवं
ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।
कुरु
कर्मैव तस्मात्तवं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्॥15॥
(यही
कारण है कि) मुक्ति चाहने वाले पुराने लोगों ने भी ऐसा ही समझ के
कर्म किया था। इसीलिए तुम भी पुराने लोगों के द्वारा किये गये इस
अत्यन्त प्राचीन कर्म को ही करो।15।
इस श्लोक में
'मुमुक्षुभि:'
के साथ
'अपि'
को जोड़
के यह अर्थ किया है कि मुमुक्षु या मुक्ति चाहने वाले लोगों ने भी
कर्म किया था। इसका आशय यह है कि जो लोग पूर्ण आत्म ज्ञान वाले
जीवन्मुक्त थे उनने तो किया ही था । मगर इस दशा की प्राप्ति की इच्छा
या मोक्ष की कामनावालों ने भी किया था। इसलिए तुम्हें भी हर हालत में
यही करना होगा,
चाहे
मुक्त हो,
या
मुमुक्षु-मोक्ष चाहने वाले। अब इसमें एक ही दिक्कत रह जाती है
'कि
ऐसा ही समझ के'-'एवं
ज्ञात्वा'-का
मेल दोनों अर्थों से कैसे खाएगा। ऐसा समझने के तो मानी हैं यही समझना
कि न तो मुझमें कर्म लिपट सकते और न मुझे उनके फलों से कोई काम है।
और मुक्त या आत्मज्ञानी भले ही ऐसा समझे और उसका समझना ठीक ही है।
फिर भी जो मोक्ष की इच्छा वाला है वह ऐसा साक्षात्कार कैसे कर सकता
है ?
यह तो उसके
लिए असम्भव है। इसीलिए उसके सम्बन्ध में इसका यही आशय है कि ऐसे
साक्षात्कार को उद्देश्य करके ही उसने भी कर्म किया। ऐसा उद्देश्य तो
ठीक ही है। उससे बन्धन तो हर हालत में होगा ही नहीं।
अब यहाँ पर एक
नयी बात उठ खड़ी होती है। कृष्ण के दिल में यह ख्याल आ सकता था कि
कहीं ऐसा तो नहीं कि कर्म करो,
कर्म
करो यही बात रह-रह के कहने से अर्जुन समझ बैठे कि कृष्ण को कोई गर्ज
है,
तभी तो
बार-बार ऐसा कहते रहते हैं,
यहाँ
तक कि जब तक जो बात पूछता भी नहीं हूँ तभी तक वह बात भी इस अभागे
कर्म के बारे में कह डालते और चट कह बैठते हैं कि कर्म करो ही। यह
समझना कोई अस्वाभाविक भी नहीं। खूबी तो यह थी कि कृष्ण एक तो बहुत
बातें यों ही बोल गये। दूसरे बातें ही कह जाते तो भी एक बात थी। मगर
वह तो कर्म करो,
करो का
तूफान सा मचाये हुए थे। इसलिए शक-शुभे और ऐसे खयालों की गुंजाइश जरूर
थी और पूरी थी।
इसी के साथ यह
बात भी थी कि अब तक कर्म और उसके त्याग या संन्यास की बात आयी जरूर
थी और उसे कब मानना और कैसे मानना,
कब
नहीं मानना वगैरह बातें भी कही गयी थीं जरूर। मगर कर्म और कर्म त्याग
या उल्टाकर्म-विकर्म-किस सूरत में कैसे होता है और क्यों,
यह चीज
अब तक कही गयी न थी। यह बड़ी बात है। किन-किन हालतों में कैसे कर्म ही
कर्म का त्याग या विकर्म बन जायेगा-क्योंकि अकर्म शब्द जो आगे आया है
उसका कर्म त्याग और विकर्म-विपरीत कर्म-भी अर्थ है,
इसीलिए
17वें
श्लोक में विकर्म शब्द आया भी है-और किस दशा में कैसे अकर्म ही कर्म
बन जायगा,
इसका जानना
निहायत जरूरी था। नहीं तो कर्म का एक महत्तवपूर्ण पहलू छूट ही जाता।
इसलिए भी कृष्ण को आगे की बातें कहनी पड़ी हैं।
जो लोग ऐसा
समझते हैं कि आगे के श्लोकों में कर्म और अकर्म की परिभाषा या उनके
लक्षण लिखे हैं वह भूलते हैं। यदि यह बात होती तो बार-बार इन्हीं
शब्दों का प्रयोग न करके कुछ और शब्द बोलते। तभी तो पता चलता कि कर्म
यह है और अकर्म यह है। मगर कृष्ण ने तो ऐसा नहीं किया है। इसलिए यही
मानना पड़ेगा कि उन्हें परिभाषा नहीं करनी है। किन्तु यही बतलाना है
कि जिसे आमतौर से लोग कर्म मानते हैं वही कर्म त्याग और विकर्म भी
कैसे बन जाता है और जिन्हें अकर्म-कर्म त्याग या विकर्म-मानते हैं
वही कर्म कैसे बन जाते हैं। यही वजह है कि पहले (16वें)
श्लोक में प्रथमान्त और द्वितीयान्त कर्म तथा अकर्म बोलने के बाद और
18वें
में ये बातें बताने के पूर्व
17वें
में 'कर्मण:'
'अकर्मण:'
और
'विकर्मण:'
इन
तीनों को षष्टयन्त रखते हैं। इससे एक तो पहले या आगे के अकर्म शब्द
से विकर्म भी लेना होगा यह अभिप्राय निकलता है। दूसरा यह कि इन तीनों
के स्वरूप या लक्षण को न जान के इनके सम्बन्ध में ही कुछ जानना जरूरी
है।
श्लोक में कवि
शब्द का अर्थ है अत्यन्त सूक्ष्म और भूत-भविष्य को भी देख सकने वाला।
उसकी भीतरी ऑंखें ऐसी हैं कि गहन से गहन और बारीक से भी बारीक बातें
देख सकें। वेदों में
'कविर्मनीषी
परिभू: स्वयम्भू:'
शब्दों
में परमात्मा को कवि कहा है।
असल में चौथे
अध्याय का निजी विषय यहीं से शुरू होता है।
किं कर्म
किमकर्मेति कवयोऽप्यत्रा मोहिता:।
ते कर्म
प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥16॥
कर्म क्या है
(और) अकर्म क्या है इस सम्बन्ध में अलौकिक विद्वानों को भी घपले में
पड़ जाना पड़ा है। इसीलिए तुम्हें कर्म (की सारी बातें और बारीकियाँ)
बता दूँगा जिन्हें जानकर गलती और बुराई से बच सकोगे।16।
कर्मणो
ह्यपि बोध्दव्यं बोध्दव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोध्दव्यं गहना कर्मणो गति:॥17॥
कर्म के
सम्बन्ध में भी बहुत कुछ जानना जरूरी है और विकर्म के सम्बन्ध में भी
(इसी तरह) अकर्म-कर्म त्याग-के सम्बन्ध में भी अनेक बातें जानने की
हैं। क्योंकि कर्म की बात बड़ी पेचीदा है।17।
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
स
बुध्दिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्॥18॥
जो आदमी कर्म
में ही अकर्म-कर्म त्याग और विकर्म-(भी) देखता है और अकर्म-कर्म
त्याग एवं विकर्म-में ही कर्म (भी),
वही सब
लोगों में बुध्दिमान है और योगी है और वही सब कुछ कर सकता है।18।
यहाँ कई बातें
विचारणीय हैं। सबसे पहली बात तो यही है कि सीधे ढंग से यह हर्गिज
नहीं मान लेना चाहिए कर्म के बराबर अकर्म ही देखना चाहिए या अकर्म
में कर्म ही। आपातत: देखने से तो यही प्रतीत होता है कि यहाँ
आलंकारिक विरोधभास के रूप में ही गीता के सिध्दान्त का वर्णन है।
इसलिए विरुध्द या उल्टी ही बातें देखने का सिध्दान्त इसमें होना
चाहिए ऐसा ही मालूम होता है। मगर गीता तो अलंकार का ग्रन्थ है नहीं।
यह तो हमारे प्रतिदिन के व्यवहारों,
हलचलों,
संघर्षों एवं कर्मों के करने-न करने के दार्शनिक सिध्दान्त बता के
तत्सम्बन्धी कायदे-कानून का संग्रह
(Manual)
जैसा
ग्रन्थ है। इसीलिए जो बातें बराबर होती हैं और जिन्हें व्यावहारिक या
असली बातें कहते हैं उन्हें मिटा देने या भुला देने से तो गीता का
काम चल सकता नहीं। तब तो यह कीचड़ में ही जा फँसेगी और इसका मूल्य भी
न रह जायेगा। तब गीता वह चमकता हीरा न रह जायगी जैसा मानी जाती है।
इस दृष्टि से
देखने पर इस श्लोक का अर्थ ऐसा हो जाता है कि जो आदमी कर्म में कर्म
तो देखता ही है,
या यों
कहिये कि कर्म को कर्म तो जानता-मानता हुई;
लेकिन
उसमें अकर्म यानी कर्म का त्याग और विकर्म भी समझता है। इसी तरह जो
अकर्म यानी कर्म के त्याग में भी कर्म का त्याग तो समझता ही है;
मगर
कर्म और विकर्म या विरोधी कर्म-निन्दित कर्म-भी देखता है। ऐसे ही जो
अकर्म यानी विकर्म या निषिध्द कर्म को भी विकर्म तो मानता ही है;
मगर
उसे कर्म-त्याग और कर्म भी जानता है। वह सबों में बुध्दिमान है,
वही
युक्त या योगी है और वह बेधड़क कोई भी-सभी-कर्म कर सकता है,
करता
है। उसे कोई काम करने में खतरा तो नजर आता नहीं। फिर हिचक क्यों होगी
?
इस तरह
आत्मज्ञानी या योगी की दृष्टि या नजर को कर्म के बारे में बहुत ही
व्यापक बन जाने की बात इस श्लोक में कही गयी है। निचोड़ यही है कि वह
हमेशा यही मानता है कि कोई भी कर्म,
जिसे
व्यवहार,
समाज या
शास्त्र ने अनुमोदित किया है,
कर्म
भी हो सकता है,
कर्म-त्याग भी और विकर्म,
दुष्कर्म,
या पाप भी।
इसी तरह वह यह भी मानता है कि शास्त्रीय या समाज-अनुमोदित कर्मों का
त्याग भी त्याग तो रहता ही है। साथ ही साथ वह कर्म और विकर्म भी बन
सकता है और विकर्म भी विकर्म होने के साथ ही कर्म या कर्म-त्याग हो
जाता है,
हो जा सकता
है। मालूम होता है,
कोई
जादू-मन्तर या करामात है जो इनके रूपों को बदल देती है अगर उसका
प्रयोग किया जाय और अगर न किया जाय तो ये ज्यों के त्यों रह जाते
हैं। कोई ऐसी जड़ी-बूटी,
ऐसी
औषधि है जिसे गीता ने बतायाहै।
अब इन तीनों
का दृष्टान्त ले सकते हैं। हल जोतने की बात लीजिए। एक हलवाहा
ईमानदारी से हल चलाता है। यही उसका कर्म है। यह कर्म बना रहेगा जब तक
वह मजदूरी या खेती-गृहस्थी के सफल होने के ख्याल से ही यह काम करता
रहेगा। मगर ज्योंही इन नतीजों या परिणामों-फलों-की परवाह उससे जाती
रही;
फलत:
कर्माशक्ति या फलासक्ति छोड़ के वह हल चलाने लगा;
जैसा
कि किसी ने पकड़ के जड़भरत से हल चलवाया था। बस वही कर्म अकर्म बन गया।
क्योंकि पहली-कर्म की-हालत में जो उसे डर-भय रहता था या काम बिगड़ने
का खतरा रहता था वही तो इसे कर्म बनाये हुए था और वही अब जाता रहा।
जिससे वह उस कर्म से बेलाग हो गया। लेकिन ऐसा भी होता है कि हमारे
पड़ोसी से हमारी कटाकटी चल रही है। पद-पद पर हम उसे चिढ़ाना और दिक
करना चाहते हैं। ऐसी ही हालत में उसकी खेती का ऐन मौका बिगड़ रहा है।
हजार कोशिश करके भी वह न तो हल ही पा सकता है और न चलाई सकता है।
फलत: तिलमिलाया हुआ है। ठीक उसी समय हमने अपना हल उठाया और उसे दिखा
के बिना जरूरत ही हम किसी खेत में चलाने लगे। ऐसा भी हो सकता है कि
पड़ोसी की जैसी ही अपनी जरूरत को पूरा करने के बजाय हमने उसके किसी
प्रचण्ड शत्रु को ही जान-बूझ के अपना हल उसके सामने ही दिया। बस,
यह
हमारा विकर्म या दुष्कर्म हुआ। क्योंकि नाहक दूसरे का दिल दुखाना ही
उसका लक्ष्य जो है।
इसी तरह कर्म
के त्याग को भी लें। यदि हमारे सामने किसी गरीब या निर्दोष को कोई
जालिम पीटता हो तो उसकी रक्षा करने के लिए दौड़ पड़ना हमारा कर्तव्य
है। मगर हम उसे नहीं करते हैं। यही कर्म का त्याग हुआ। मगर इसकी तीन
हालतें होने से इसके भी तीन रूप हो जाते हैं। यदि हम जान-बूझ के उसकी
मदद को न जायें तो यही कर्म त्याग होगा या विकर्म या पाप। यदि चाहते
हुए और भरसक यत्न करने पर भी न जा सकें;
क्योंकि किसी ने हमें कस के पकड़ लिया या बाँध दिया हो,
तो
कर्म का त्याग या अकर्म होते हुए भी यही हो गया हमारा कर्म,
जिसे
अच्छा काम,
सत्कर्म या पुण्य कहिए। मगर ऐसा भी हो सकता है कि हम ऐन मौके पर इधर
समाधिस्थ हो गये और उधर वह पीटपाट शुरू हुई। हमने सारी तैयारी पहले
से ऐसी कर ली थी कि रुकना कथमपि सम्भव न था। या ऐसा भी हो सकता है कि
हममें आत्मानन्द की ऐसी मस्ती हो कि सुध-बुध होई न। ऐसी दशा में उसकी
मदद के लिए हमारा न जाना सचमुच कर्म-त्याग है।
अब रही विकर्म
की बात। साधारणत: हिंसा बुरी है,
विकर्म
है। फिर भी लोग इसे बराबर करते ही रहते हैं। इसीलिए वह विकर्म का
विकर्म ही रहेगी जब तक हम रोजी-रोजगार,
पेट या
महज बैरविरोध आदि के ख्याल से यह चीज करते रहेंगे। मगर आखिर
धर्म-व्याध भी तो कसाई का ही काम करता था। हालत यह थी कि एक तो कोशिश
करके थक चुका था;
फिर भी
उससे उसका पिण्ड छूट न सका। दूसरे उसके करने या न करने में-होने या न
होने में-और उसके परिणामस्वरूप पैसे मिलें या न मिलें,
या और
कुछ हो या न हो,
उसे
किसी बात की जरा भी परवाह न थी-उसे अव्वल दर्जे की बेफिक्री थी,
मस्ती
थी। इसीलिए यह विकर्म उसके लिए अकर्म या कर्मों का सच्चा त्याग था।
ऐसा हर समझदार,
हर
आत्मज्ञानी कर सकता है,
करता
है। लेकिन मान लें कि वही धर्म-व्याध या दूसरे ही इतनी दूर तक न
पहुँचे हों। जीविकार्थ उन्हें कुछ न कुछ खामख्वाह करना भी पड़े। इसी
के साथ कसाई का काम उनका खानदानी पेशा होने के कारण-जैसी कि
धर्म-व्याध की बात थी-उन्हें सुलभ होने पर भी इससे बचने की सारी
कोशिश उनने कर ली। मगर मजबूर हो गये और दूसरी जीविका मिली ही नहीं।
ऐसी दशा में केवल जीविका के ख्याल से ही वही विकर्म या हिंसा का काम
करने पर भी वही उनके लिए कर्म या सत्कर्म हो जायगा। मनुस्मृति के
12वें
अध्याय में लिखा है कि विश्वामित्रदि ऋषियों ने कुत्तो आदि का मांस
खा-खिला के घोर दुष्काल में प्राण तथा धर्म बचाये। छान्दोग्य उपनिषद्
(1।10।1-7)
में
लिखा है कि हाथी के जूठे उड़द खा के उषस्ति ऋषि ने प्राणों और धर्म
दोनों की ही रक्षा की! इसलिए ऐसा तो होता ही रहता है।
हमने जो कुछ
लिखा है वह अक्ल में आने वाली चीज है। व्यवहार में भी ऐसा होता आया
है,
होता है और
होता रहेगा भी। इसीलिए गीता के इस श्लोक का भी अर्थ ऐसा ही करना उचित
है जो व्यवहार के अनुकूल हो। यह मान लेना कि कर्म को हमेशा अकर्म ही
समझते और देखते रहें,
निरी
नादानी है। वैसी मनोवृत्ति जब तक न हो यह कैसे हो सकता है और यह
मनोवृत्ति केवल योगी के वश की नहीं है। माना कि उसने खुद ऐसी ही
मनोवृत्ति केवल योगी के वश की नहीं है। माना कि उसने खुद ऐसी ही
मनोवृत्ति की और वह असंग भी है। मगर कर्मों का ताल्लुक तो आखिर
दूसरों से भी होता है न
? और
अगर वे ऐसा न समझें तो भी क्या उनके लिए भी वह अकर्म ही हो जायगा
?
यह उल्टी बात
होगी। एक ही कर्म किसी के लिए सत्कर्म,
किसी
के लिए दुष्कर्म और किसी के लिए अकर्म या कर्मत्याग हो सकता है। अपनी
अपनी भावना के अनुसार। यही बात हरेक कर्म में निरपवाद लागू है।
पूजा-पाठ,
समाधि तक में
हिंसा तो होती ही है। और नहीं तो साँस लेने या शरीर की रगड़ से ही
जानें लक्ष-लक्ष कीटाणु खत्म हो जाते हैं। इसीलिए अष्टावक्र ने अपनी
गीता में कहा है कि नादान की निवृत्ति या कर्मत्याग भी प्रवृत्ति या
कर्म बन जाता है और विवेक की प्रवृति भी निवृत्ति बन जाती है;
'निवृत्तिरपि
मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते। प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी'
(18।61)।
इसमें 'भी'
के
अर्थ में जो 'अपि'
शब्द
है वही हमारे आशय को व्यक्त कर देता है।
20वें
श्लोक के 'प्रवृत्ताेऽपि'
वगैरह
भी यही बात व्यक्त करते हैं।
हमने पहले ही
कहा है कि चौथे अध्याय का अपना विषय इसी श्लोक से शुरू होता है।
इसके पहले तो दूसरे,
तीसरे
अध्याय के ही प्रसंग की बातें आयी हैं। यदि कोई भी विवेकी गौर करे
तो यह जरूर मानेगा कि कर्म करने और उसके त्याग या संन्यास की यह
बारीकी निहायत जरूरी चीज है जो छूटी थी। इसीलिए गीता के चौथे अध्याय
ने इसे पूरा किया है। इसमें भी असल चीज है कर्मत्याग या संन्यास ही।
इसी के बारे में तो उलझनें पैदा होती हैं और लोग अंट-संट कर बैठते
हैं,
मान बैठते
हैं। लोगों को धोखे और भ्रम भी तो संन्यास या कर्मत्याग को ही ले के
होते हैं। इसीलिए उसका खासतौर से स्पष्टीकरण यहाँ जरूरी था। यह
संन्यास ज्ञान का साधन है और ज्ञान के बल से ही यह होता भी है। इस
प्रकार एक तरह से इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध है-ये दोनों
अन्योन्याश्रय वाले हैं यह बात भी आगे स्पष्ट की जायगी। इस तरह यही
चीजें इस अध्याय के मुख्य विषय हैं। इसीलिए इसे ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
के नाम से ही अन्त में कहेंगे भी।
इस बात का
निरूपण इस 18वें
श्लोक से ही शुरू हो के
37वें
तक चला जाता है। बीच-बीच में एकाध बार ज्ञान की बात प्रसंग से आयी
है। अन्यथा आगे के
19
श्लोक इसी एक ही श्लोक के व्याख्यान स्वरूप हैं। अनेक प्रकार से
उनमें यही बात-इसी श्लोक का अभिप्राय-व्यक्त किया गया है। यह बात उन
श्लोकों के अर्थ लिख चुकने पर ही हम बतायेंगे। तभी समझ में आसानी
होगी भी।
यस्य
सर्वे समारंभा: कामसंकल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निदग्धाकर्माणं तमाहु: पण्डितं
बुधा:॥19॥
जिस (आदमी) के
सभी काम कामना तथा फल आदि की आसक्ति के बिना ही होते हैं,
(इसलिए)
जिसने ज्ञानरूपी आग में सभी कर्म जला दिये हैं,
विद्वान् लोग उसी को पण्डित कहते हैं।19।
त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय:।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि
नैव
किचित्करोति
स:॥20॥
(क्योंकि)
ऐसा आदमी कर्मों और उनके फलों की आसक्ति को मिटा के बेपरवाह और हमेशा
मस्त रहता है। (इसीलिए) वह कर्मों को करता हुआ भी (दरअसल) कुछ भी
नहीं करता है।20।
निराशीर्यत्तचित्तत्मा
त्यक्तसर्वपरिग्रह:।
शरीरं
केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥21॥
जो सभी
इच्छा-आकांक्षाओं को लात मार चुका है,
जिसने
मन और बुध्दि को अपने काबू में कर लिया है (और) जिसने सभी
डल्ले-पल्ले से नाता तोड़ लिया है,
(ऐसा
आदमी) केवल देह या इन्द्रियों से ही कर्मों को करता हुआ भी पाप और
बुराई के पास जाता तक नहीं।21।
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।
सम:
सिध्दावसिध्दौ च कृत्वाऽपि न
निबध्यते॥22॥
यों ही जो कुछ
भी मिल जाये उसी से जो सन्तुष्ट हो,
रागद्वेष-हर्ष-विषाद- काम-क्रोधदि द्वन्द्वों से जो बहुत दूर हो गया
हो,
जिसमें
बैरविरोध या दूसरों की सफलता से होने वाली जलन न हो और जिसके दिल पर
काम के पूरा होने या न होने का कोई प्रभाव न पड़े वह आदमी सभी कर्मों
को करके भी बन्धन में हर्गिज नहीं पड़ता।22।
गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते॥23॥
जो
आसक्तिशून्य है,
जो सभी
बन्धनों से रहित है,
(इसीलिए)
जिसकी बुध्दि आत्मज्ञान में ही डूबी है-जो स्थितप्रज्ञ है-और जो
(केवल) यज्ञ के ही लिए कर्म करता है उसके कर्म जड़-मूल से खत्म हो
जाते हैं।23।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥24॥
(जिस
यज्ञ में ऐसी भावना है कि) आहुति आदि के साधन स्स्रुव आदि ब्रह्म ही
हैं,
घृतादि हवन के
पदार्थ भी ब्रह्म हैं,
ब्रह्मरूपी अग्नि में ब्रह्मरूपी यजमान ब्रह्मरूपी हवन क्रिया करता
है,
उस समूची
यज्ञात्मक क्रिया को ब्रह्म का रूप मिल जाने से वह पूर्ण समाधि ही हो
गयी। इसलिए उससे ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है।24।
दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्नति॥25॥
दूसरे योगी
इन्द्र आदि देवताओं के ही यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। कुछ और लोग
ब्रह्मरूपी अग्नि में ही देहधारी आत्मा का हवन ज्यों का त्यों कर
देते हैं।25।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमागिनषु जुह्नति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्नति॥26॥
(चौथे
प्रकार के) कुछ लोग श्रोत्र आदि इन्द्रियों का हवन संयमरूपी आग में
करते हैं। (पाँचवें) दलवाले शब्द आदि विषयों का हवन
ज्ञान-इन्द्रियरूपी अग्नि में ही करते हैं।26।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयम योगाग्नौ जुह्नति ज्ञानदीपिते॥27॥
(छठे
प्रकार के) लोग सभी इन्द्रियों की तथा प्राण की भी सभी क्रियाओं का
हवन मन के संयमरूपी अग्नि में,
जो
ज्ञान के द्वारा खूब धौ की जा चुकी है,
करते
हैं।27।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योग यज्ञास्तथाऽपरे।
स्वाधयायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:॥28॥
दूसरे भी
कल्याणार्थ यत्न करने वाले लोग हैं जिनके व्रत या यज्ञों के नियम बड़े
ही सख्त हैं। (ये पाँच दलों में विभक्त हैं और वे हैं) अन्नादि
पदार्थों से यज्ञ करने वाले,
तपरूपी
यज्ञ के करने वाले,
अष्टांग योगरूपी यज्ञ करने वाले,
सद्ग्रन्थों के पाठरूपी यज्ञ के कर्ता और ज्ञान यज्ञ के करने वाले।28।
अपाने
जुह्नति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगतीरुध्दवा प्राणायामपरायणा:॥29॥
(तीन
तरह के और भी लोग हैं जो यज्ञ करते हैं और उनमें) एक तो अपान में
प्राण का ही हवन यानी पूरक करते हैं। दूसरे प्राण में ही अपान का हवन
यानी रेचक करते हैं। तीसरे प्राण और अपान दोनों की क्रिया रोक के
कुम्भक में ही लगे रहते हैं।
29।
अपरे
नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्नति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा:॥30॥
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं
लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम॥31॥
(पन्द्रहवें
प्रकार के) कुछ और भी हैं जो खानपान आदि पर सख्त संयम करके
इन्द्रियों की क्रियाओं को प्राण की क्रियाओं में ही हवन कर देते
हैं। (इस तरह) ये सभी यज्ञ करने वाले इन्हीं यज्ञों के द्वारा (अपने
दिल-दिमाग की सभी) गन्दगियों को धो डालते हैं (और) यज्ञशिष्ट-यज्ञ के
बाद बचे हुए-अमृत को ही भोगते हुए सनातन-नित्य-ब्रह्म को प्राप्त कर
लेते हैं। हे कुरुसत्ताम्-कुरुवंश के दीपक,-जो
यज्ञ नहीं करता उसका तो काम यहीं नहीं चल सकता। परलोक का तो कहना ही
क्या ?30।31।
एवं
बहुविधा
यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान् विध्दि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥32॥
इस प्रकार
अनेक तरह के यज्ञ वेद में प्रमुख रूप से कहे गये हैं। कर्मों से ही
वे सभी तैयार होते हैं ऐसा जान लो;
(क्योंकि)
ऐसा जानने से ही मुक्त होगे।32।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परन्तप।
सर्वं
कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥33॥
हे परन्तप,
घृतादि
भौतिक पदार्थों से किये जाने वाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ कहीं
अच्छा है। (क्योंकि) हे पार्थ,
(आखिर)
सभी कर्मों का अन्तिम ध्येय ज्ञान ही तो है और ज्ञान से ही कर्मों
का खात्मा भी होता है।33।
तद्विध्दि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्तवदर्शिन:॥34॥
तो यह याद रखो,
नम्रतापूर्वक शरण में जाने,
(यथाशक्ति)
सेवा करने (और अवसर पा के) पूछने पर ही तत्तवदर्शी ज्ञानीजन तुम्हें
ज्ञान का उपदेश करेंगे।34।
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन
भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥35॥
हे पाण्डव,
जिस
ज्ञान को हासिल कर लेने से तुम्हें ऐसा मोह न होगा (और) जिसके चलते
सभी पदार्थों को अपने आप में देखोगे और मुझमें भी।35।
अपि
चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं
ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥36॥
अगर तुम सभी
पापियों से कहीं बढ़-चढ़ के भी पापी हो। (तो भी) सभी पापों-पाप
समुद्र-को इस ज्ञान की नाव से ही पार कर जाओगे।36।
यथैधांसि समिध्दोऽग्निर्भस्मात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥37॥
हे अर्जुन,
जिस
तरह धक्धक् जलने वाली आग समूचा ईंधन (बात की बात में ही) भस्म कर
डालती है। उसी तरह ज्ञानरूपी आग भी सभी कर्मों को भस्म कर देती है।37।
अब आगे ज्ञान
की प्राप्ति के अन्य साधनों का विचार तीन श्लोकों में करके
41वें
में पुनरपि इसी कर्म-अकर्म का उपसंहार करेंगे। फिर अन्तिम श्लोक में
अध्याय के उपदेश का निचोड़ कह के अर्जुन को तैयार हो जाने की बात
कहेंगे। इसलिए उचित है कि यहीं पर पीछे के
19 (19-37)
श्लोकों का
सिंहावलोकन करके देखें कि उनसे कहाँ तक
18वें
के कर्म-अकर्मवाले सिध्दान्त का स्पष्टीकरण होता है और संक्षेप में
उनमें कहा भी क्या गया है।
सबसे पहले
शुरू के पाँच (19-23)
श्लोकों को ही लें। इनमें
21वें
को छोड़ शेष चारों में कर्मों के करते रहने पर भी मनुष्य कर्मरहित,
अकर्म
या कर्मत्यागी कैसे हो जाता है यही बात कही गयी है। बेशक,
चारों
में कुछ न कुछ नयी बातें भी हैं। फिर भी इन सबों को मिला लेने पर ही
हम इस निश्चय पर पहुँच पाते हैं कि किस दशा में-कैसी मनोवृत्ति रहने
पर-मनुष्य के कर्म अकर्म बन जाते हैं और कर्मों के करते रहने पर भी
कर्मत्याग या संन्यास का काम पूरा हो जाता है। संन्यास का भी तो
प्रयोजन यही है कि कर्मों के बन्धनों से छुटकारा हो जाय और वही बात
यों भी हो जाती है। इसलिए यहाँ अर्थत: संन्यास है,
न कि
स्वरूपत:। क्योंकि स्वरूपत: तो कर्म करते ही रहते हैं।
तो अब यह
देखें कि इन श्लोकों में क्या-क्या बातें हैं जो कर्म को अकर्म बनाती
हैं। तत्तवज्ञान तो चारों में ही स्पष्टतया और अर्थात् भी आया ही है।
मगर उसके फलस्वरूप जो मनोवृत्ति होती है उसी से हमारा मतलब है। पहले
श्लोक में काम और फलादि की कल्पना या उनकी आसक्ति,
इन
दोनों का पूर्ण त्याग आया है। मगर इसे संकल्प के रूप में कहा है।
दूसरे-20वें-में
कर्म और फल की आसक्ति त्याग के साथ बेपरवाही और सदा रहने वाली मस्ती
आयी है। 22वें
में कर्म के पूरे होने-न होने में बेपरवाही-समत्व-के साथ शरीरयात्रा
के लिए बेफिक्री,
जोई
मिले उसी से सन्तोष,
हर्ष-विषाद आदि के लेश का भी न होना और दूसरों की सफलता देख के जलन
का न होना यही बातें कही गयी हैं।
23वें
में हर तरह की असंगता,
सभी
बन्धनों से छुटकारा तथा बुध्दि के तत्तवज्ञान में डूब जाने के अलावे
यह भावना होना कि ये कर्म यज्ञार्थ हो रहे हैं,
यही
बातें कही गयी हैं। इन सबों के मिलाने से ऐसा हो जाता है कि
आत्मसाक्षात्कार से ही कर्मों से छुटकारा होता है-वे जल जाते हैं।
मगर इसकी-साक्षात्कार की-पहचान क्या है,
यही
देखना है और यही असल चीज है। इस दृष्टि से पता लगता है कि पहली चीज
है बुध्दि का आत्मा की ही ओर टँग जाना और मन का उसी में रम जाना। मगर
इसका पता लगता है तब जब कामना,
संकल्प,
कर्म
तथा फल की आसक्ति,
ये सभी
छूट जाते हैं और हमेशा तृप्ति बनी रहती है। लेकिन ये सभी भीतरी बातें
हैं। इसीलिए इनका पता कैसे लगे
?
यही कारण है
कि यह कह दिया है कि न तो किसी आदमी या देवता वगैरह की परवाह हो,
न
खाने-पीने आदि के लिए हाय-हाय,
न किसी
से भी बैर-विरोध,
न
हर्ष-द्वेष और राग और न किसी से चिपकना। इसी के साथ यह भी रहे कि काम
पूरा हुआ तो क्या,
न पूरा
हुआ तो क्या ?
फलत:
निश्चिन्त रहे। ये बाहरी पहचान हैं। अन्त में इनके साथ यह भी जोड़
दिया कि यज्ञ के लिए ही कर्म कर रहे हैं,
कर्म
हो रहे हैं यदि यह भावना हो जाय तो सुन्दर हो। जरूरी नहीं है कि यह
भावना होई। मगर हो तो सुन्दर।
अब रहा बीच का
21वाँ
श्लोक। इसमें विकर्म को ही अकर्म या कर्म-त्याग बन जाने की बात कही
गयी है। क्योंकि किल्विष या पाप का प्रश्न तो वहीं पैदा होता है न
?
इसका भी
रास्ता साधारणत: वही है जो कर्म को अकर्म बनाने का। मगर श्लोक में
कुछ खास बातें कही गयी हैं। यही इसकी विशेषता है। जो कुछ कहा गया है
उसका निचोड़ यही है कि कोई भी काम करने में शरीर,
इन्द्रियाँ,
मन और
बुध्दि के एक साथ होने पर ही वह पूरा होता है और उसकी पूर्ण जवाबदेही
होती है। लेकिन यदि मन और बुध्दि को उधर से खींच लें और केवल शरीर या
इन्द्रियों को ही-क्योंकि बाहरी इन्द्रियाँ या हाथ-पाँव आदि शरीर में
ही आ जाते हैं;
इसीलिए
श्लोक में 'शारीरं'
कहा
है-उसे करने दें,
तो
जवाबदेही छूट जाती है। यही बात श्लोक में
'यत्ताचित्तत्मा'
और
'केवलं
शारीरं'
से कही गयी
है। 'केवल
शरीर से'
यह तो
'यत्ताचित्तत्मा
होने या मन और बुध्दि को काबू में कर लेने का परिणाम ही है। इसकी
पहचान के लिए 'त्यक्तसर्वपरिग्रह:'
कहा
है। सब लवाजिम और डल्ले-पल्ले से नाता तोड़ लेना-न कोई आगे हो न पीछे,
न
घर-बार हो और न दूसरी ही कोई जरा भी सम्पत्ति। तभी तो पक्की पहचान
होती है कि सचमुच इस आदमी का मन किधर है। कुछ भी घर-गिरस्ती या
कपड़ा-लत्ता होने पर मन उसी में जाता ही है।
यहाँ यह भी
जान लेना होगा कि यद्यपि संकल्प और आसक्ति को आमतौर से एक ही मानते
हैं,
तथापि दोनों
में कुछ न कुछ फर्क है। संकल्प भी आसक्ति का ही एक रूप है। मगर कोई
भी काम शुरू होने के पहले जो आसक्ति होती है चाहे,
उस काम
के पूरे होने की या फल की,
या
दोनों की ही,
उसके
फलस्वरूप जो मन में उसके बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं कि
यों करेंगे,
त्यों
करेंगे वही संकल्प है। काम शुरू होने पर उसके खत्म होने-न होने के
बाद तक जो कर्म और फल से मन का चिपकना है वही आसक्ति है। इसीलिए
मौलिक भेद न होने पर भी कुछ न कुछ भेद हुई। इसीलिए दोनों को
जुदा-जुदा कहा गया है। गीता में कई बार ऐसा मौका आया है। यहीं यह भी
जान लेना चाहिए कि यह
'सम:सिध्दावसिध्दौ'तीसरे
अध्याय में तो आया नहीं। यहीं पर इस अध्याय में एक बार और तीन
बारद्वितीयअध्याय में आया है। मगर पहले दो बार ज्ञान के सम्बन्ध में
और बाद में एकबार कर्म के सम्बन्ध में। यहाँ भी कर्म के ही सम्बन्ध
में इसमें और 'सिध्दयसिध्दयो:
समो भूत्वा'
में
पूर्ण समानता है। ज्ञान और कर्म के समत्व का भेद पहले ही बतायाजा
चुका है।
23वें
श्लोक में यज्ञार्थकर्म-यज्ञायकर्म-की बात आ जाने से
24वें
से लेकर 31वें
तक 8
श्लोकों में यज्ञों की ही बात आ गयी है। इनमें भी
30वें
के पूर्वार्ध्द तक साढ़े छ: श्लोकों में कुल पन्द्रह प्रकार के यज्ञों
का वर्णन है। शेष डेढ़ में उनकी महत्ता बताई गयी। यज्ञ सब पापों और
बुराइयों को धो देते हैं,
और
यज्ञ के बाद ही बचे-बचाये पदार्थों को अमृत समझ उन्हें भोगनेवालों को
ब्रह्म की प्राप्ति भी होती है,
यही दो
बातें कही गयी हैं। मगर
31वें
के उत्तारार्ध्द में जो यह कहा है कि यज्ञ न करने वाले का तो काम
यहीं नहीं चल सकता,
परलोक
की बात तो दूर रहे,
वह यह
सूचित करता है कि गीता का यज्ञ बहुत ही व्यापक है। फलत: इसके भीतर
समाजोपयोगी कार्य भी एक-एक करके आ जाते हैं। असल में जिन पन्द्रह
यज्ञों को गिनाया है उनके भीतर दुनिया के सभी काम आ जाते हैं। खूबी
तो यह है कि पन्द्रह तरह के यज्ञों को गिना के अन्त में यह कह दिया
है कि इस तरह के बहुतेरे यज्ञ वेदों में आते हैं-''एवं
बहुविध या वितता ब्रह्मणो मुखे''।
इसी से स्पष्ट हो जाता है कि नमूने के रूप में या दल और किस्म के रूप
में ही ये पन्द्रह गिनाये गये हैं। दरअसल हरेक के पेट में
सैकड़ों-हजारों तरह के यज्ञ आ सकते हैं।
यज्ञों के
बारे में थोड़ा और भी विचारें तो अच्छा हो। तीसरे अध्याय में भी
'यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्रा'
(3।9)
में
यज्ञार्थ कर्म की बात आयी है। वही यहाँ भी है। गौर से देखने से यह भी
पता चलता है कि दोनों श्लोकों में एक ही बात है। इसीलिए संग या
आसक्ति का त्याग वगैरह भी दोनों में ही आये हैं। अगर वहाँ
'कर्मबन्धन'
से
छूटने की बात है तो यहाँ कर्मों के समग्र या जड़मूल से खत्म हो जाने
की बात है। मगर दोनों का आशय एक ही है। हाँ,
एक
अन्तर जरूर है और है वह महत्तवपूर्ण। यहाँ
'ज्ञानावस्थितचेतस:'
कहने
से बुध्दि का ज्ञान में या आत्मचिन्तन में डूबना लिखा है। उसके आगे
जो 'ब्रह्मार्पणं'
(4।24)
श्लोक
है उससे भी यही सिध्द होता है। इसमें तो कर्म को समाधि का रूपान्तर
बना दिया है और कह भी दिया है। जब ब्रह्म के सिवाय और कोई ख्याल हुई
नहीं तो समाधि तो पूरी होई गयी। मगर जैसा कि वहीं कह चुके हैं,
तीसरे
अध्याय में यह बात नहीं है। वहाँ जनसाधारण की बात ही आयी है,
हाय-हाय छोड़ के कर्म करने की जरूरत उन्हें बताई गयी है और उन्हीं
कर्मों से यज्ञ के स्वरूप का निर्माण कहा गया है। इस तरह एक पहेली सी
खड़ी हो जाती है। मगर इसका समाधान भी है।
असल में तीसरे
अध्याय की स्थिति से आगे तक की स्थिति को ही दृष्टि में रख के चौथे
अध्याय में कर्म,
अकर्म
और यज्ञ का निरूपण आया है। यह तो ठीक ही है कि पूर्ण ज्ञानी के
कर्मों की बात यहाँ बार-बार आयी है। मगर
30वें
के 'यज्ञक्षपितकल्मषा:'
और
पूरे 31वें
श्लोक से ही सिध्द हो जाता है कि पूर्ण ज्ञानी से नीचे दर्जे के
लोगों के लिए भी यज्ञ की बात यहाँ कही गयी है। क्योंकि ज्ञानी को पाप
से ताल्लुक ही क्या
? उसका
पाप तो ज्ञान ही जला देता है। वही कर्म को भी जलाता है। साथ ही,
यज्ञ
शेष अमृत का भोग करने वाले सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं,
इस कथन
से भी पता चलता है कि ऐसा करते-करते जब उनका अन्त:करण निर्मल हो जाता
है तभी पूर्ण ज्ञान के द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। क्योंकि
ज्ञानी तो ब्रह्मरूप हुई। फिर खा-पी के ब्रह्म को क्या खाक प्राप्त
करेगा ?
मुमुक्षुओं के
भी कर्म करने की बात इसी अध्याय में पहले कही गयी भी है।
'तत्स्वयं
योगसंसिध्द:' (4।38)
से भी
पता लगता है कि कर्म से अन्त:करण की शुध्दिरूपी संसिध्दि मिलने पर ही
ज्ञान प्राप्त होता है। क्योंकि वहाँ
'योगसंसिध्द:'
शब्द
का सिवाय इसके दूसरा अर्थ सम्भव नहीं कि
''कर्मों
के करने से जिसका अन्त:करण शुध्द हो गया है''।
उसके आगे 'योगसंन्यस्तकर्माणं
ज्ञानसंच्छिन्नसंशयम्'
(4।41)
से भी
स्पष्ट है कि कर्म करते-करते अन्त:करण की पवित्रता हो जाने पर ही
कर्मों का स्वरूपत: संन्यास करना जरूरी हो जाता है,
ताकि
निदिध्यासन और समाधि यथोचित रीति से हो सकें और पूर्ण
आत्मसाक्षात्कार हो जाये। जब तक कर्म न करे तब तक उसका संन्यास
असम्भव है,
यह तो
'नकर्मणामनारम्भात्'
(3।4)
में
कही चुके हैं। इसलिए यहाँ यह कहना कि
''योग
यानी कर्म करके ही जिसने कर्मों का संन्यास किया है''
ठीक ही
है। इसीलिए यही बात
'आरुरुक्षोर्मुने:'
(6।3)
में
तथा 'संन्यासस्तु
महाबाहो' (5।6)
में भी
कही गयी है। हम इस पर विशेष प्रकाश भी डाल चुके हैं। यही कारण है कि
'ज्ञानाग्नि:
सर्वकर्माणि' (4।37)
और
'ज्ञानाग्निदग्धाकर्माण्'
(4।19)
के साथ
इस 'तत्स्वयं
योगसंसिध्द:'
को
मिला देने पर 'सर्वं
कर्माखिलं पार्थ'
(4।33)
में
'परिसमाप्यते'
के
पर्यवसान के दोनों ही अर्थ करने जरूरी हो जाते हैं। एक तो यह कि सभी
कर्मों का फल दरअसल ज्ञान ही है। दूसरा यह कि ज्ञान के बाद सभी
कर्म-जड़ मूल से खत्म हो जाते हैं।
'समग्रं
प्रविलीयते'
और
'सर्वंकर्माखिलं
परिसमाप्यते'
का
बहुत सुन्दर मेल भी है,
यदि
शब्दों के अर्थों पर गौर करें।
इतना ही नहीं।
यदि यज्ञों के स्वरूपों को भी देखें तो पता चलता है कि आत्मज्ञानी के
सिवाय दूसरों के भी यज्ञ उनमें आये हैं।
'ब्रह्मार्पणं'
आदि
श्लोक में ठीक आत्मज्ञानी का ही यज्ञ है। मगर उसके बाद जो देवयज्ञ
आदि का वर्णन है वह तो निश्चय ही आत्मज्ञानियों के यज्ञ का नहीं है।
वह भला देवताओं का यज्ञ क्यों करने लगे
?
उनकी नजरों
में देव-दानव वगैरह तो हुई नहीं। यज्ञ भी स्वतन्त्र कोई चीज नहीं है।
शेष चौदह यज्ञों का भी यही हाल है।
'ब्रह्माग्नावपरे
यज्ञं'
में भी
ब्रह्मरूप में देही आत्मा का चिन्तन चलता है। इसीलिए वह यज्ञ भी
आत्मज्ञान के पहले की चीज है इसी प्रकार ज्ञानयज्ञ भी बड़ा व्यापक है।
इसीलिए गीता के अन्त (18।70)
में
गीता के पढ़ने-पढ़ाने को भी ज्ञानयज्ञ कह दिया है। फलत: ज्ञानयज्ञ
आत्मज्ञान को ही कहते हैं यह तो माना जा सकता नहीं। जब
'ब्रह्मार्पणं'
आदि
आत्मज्ञानरूपी यज्ञ से पृथक् ही ज्ञानयज्ञ गिनाया है तो वह जरूर ही
दूसरे ही प्रकार का है।
बात असल यह है
कि यज्ञ में किसी न किसी पदार्थ की आहुति अग्नि आदि में दी जाती है।
इसी समानता के ख्याल से जहाँ एक पदार्थ को दूसरे के पास ला के खत्म
किया वहीं यज्ञ नाम दे दिया गया है। आहुति के बाद उसके पदार्थ खत्म
तो होई जाते हैं। विषयों में जाने पर इन्द्रियों की परेशानी जाती
रहती है। मालूम पड़ता है कि वह खत्म हो गयी। इन्द्रियों के पास आ के
विषय तो खत्म होते ही हैं। ब्रह्म के रूप में आत्मा का चिन्तन करने
से उसका देहयुक्त रूप तो खत्म होई जाता है। मन के रोकने से
इन्द्रियों की और प्राण की भी क्रियाएँ खत्म होई जाती हैं। पूरक में
प्राण की क्रिया होती नहीं। क्योंकि वायु बाहर जाये तब न
?
वहाँ तो भीतर
ही खींचा जाता है और वही है अपान की क्रिया। रेचक में वायु,
बाहर
ही निकालते हैं। इसीलिए वहाँ अपान की ही क्रिया गायब है। कुम्भक में
दोनों की ही क्रिया रुक जाती है। यद्यपि प्राणायाम तीनों को ही मिला
के या अलग-अलग भी कहते हैं। मगर पूरक-रेचक को जुदा गिना देने के बाद
प्राणायाम के मानी हैं केवल कुम्भक। इसी प्रकार सभी यज्ञों के बारे
में जानना होगा।
'सर्वेऽप्येते
यज्ञविद:' (4।30)
में
विद का अर्थ ज्ञान नहीं,
किन्तु
लाभ है। अत: यज्ञविद: का अर्थ है यज्ञ करनेवाले।
यहाँ
आत्मज्ञान के सिवाय दूसरे यज्ञों के वर्णन करने का आशय यही है कि
जिनकी मनोवृत्ति बहुत ऊँची नहीं उठ सकी है वह भी धीरे-धीरे उस दशा
में पहुँच जायें। इसीलिए सभी क्रियाओं में यज्ञ की भावना का उपदेश
है। 'यत्करोषि'
(9।27-28)
में
जिस प्रकार सभी क्रियाओं में भगवान् की पूजा या भेंट की भावना का
उपदेश किया गया है;
ठीक
वही बात यहाँ है। भगवान् की भेंट की ओर स्वभावत: लोगों का ख्याल जा
सकता है। इसलिए वह एक आसान उपाय है। मगर जो लोग भगवान् को नहीं मानते
या उतनी दूर नहीं जा सकते-क्योंकि यह भावना आसान नहीं है-उन्हें यज्ञ
की भावना के द्वारा तैयार करने का यह रास्ता है। आखिर यज्ञ,
सैक्रिफाइस (sacrifice)
या
कुर्बानी तो सभी
धर्म-मजहबों
की चीज है। समाजहित की दृष्टि से तो
धर्म
न मानने वालों के लिए भी मान्य है। इसीलिए इस सुगम और व्यापक मार्ग
का उपदेश यहाँ किया है। इसका परिणाम यह होगा कि पदार्थों को भोगते
हुए भी अलग-अलग खाना,
सोना आदि बुध्दि या भावना न करके
सर्वत्र
यज्ञ की ही बुध्दि करते रहने से मन की एकाग्रता हो जायगी। फिर तो उसे
यज्ञ से मोड़ के आत्मा में लगाना अगला ही कदम होगा।
'यथाभिमतधयानाद्वा'
(योग. 1।39)
में पतंजलि ने यही माना है। यही सबसे आसान मार्ग
है भी।
इसीलिए
'कर्मजान्विध्दितान्सर्वानेवं
ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे'
में जो
कहा है कि इन यज्ञों को कर्मों से ही होने वाले मानने से ही मुक्ति
या कर्मों से छुटकारा होगा,
उसका
भी अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। यज्ञों को कर्मजन्य जानने से छुटकारे
का मतलब यही है कि अलग-अलग कर्मों की भावना तो रही ही नहीं। अब सभी
कर्म यज्ञ बन गये। फिर तो करने वाले का यह ख्याल होगा ही नहीं कि हम
खाते-पीते हैं,
खेती
करते हैं आदि-आदि। किन्तु वह तो बराबर यही समझता रहेगा कि यज्ञ हो
रहा है। इस तरह कर्म की स्वतन्त्रता खत्म हो गयी। वे बन गये यज्ञ और
यज्ञ बनने का फल अभी बताई गयी एकाग्रता ही है। हमने जब यह जान लिया
कि कोई और काम तो होता नहीं कि उसके भले-बुरे फल होंगे। यहाँ तो केवल
यज्ञ हो रहा है। तो फिर कर्मों के फल हमें मिलेंगे कैसे
? हाँ,
यदि
ऐसी भावना न रहती तो भिन्न-भिन्न कर्मों की कल्पना करके हम उनके फलों
में फँसते। मगर अब तो यज्ञ का ही फल मिलेगा और वह होगी मन की
एकाग्रता। इसीलिए इन कर्मों से यज्ञ हो रहा है या इन कर्मों के रूप
में ही यज्ञ हो रहा है यह ज्ञान कर्मों से छुटकारे के लिए आवश्यक
है।
एक ही बात और
रह जाती है जो इस श्लोक में आयी है। जब यज्ञों के भीतर आत्मज्ञान या
ब्रह्मसमाधि भी आ गयी,
जिसका
वर्णन 'ब्रह्मार्पणं'
में
किया है,
तो उसे
कर्मजन्य कैसे कहा जायगा,
प्रश्न
हो सकता है। परन्तु यहाँ तो साफ ही उस समाधि को उसी श्लोक में
'कर्मसमाधि'
कह दिया है। वहाँ तो क्रिया में ही ब्रह्म की भावना अथ से इति तक है,
और अगर
कर्म होगा ही नहीं-क्रिया होगी ही नहीं-तो यह भावना होगी कैसे
?
इसीलिए वह भी कर्मजन्य ही है,
इसमें
कोई शक नहीं। इसी से उसे सभी यज्ञों से श्रेष्ठ कहा है।
28वें
श्लोक वाला ज्ञानयज्ञ यद्यपि व्यापक है और आत्मज्ञान के अलावे
बाकियों को ही यहाँ ज्ञानयज्ञ मानना उचित प्रतीत होता है;
फिर भी
33वें
श्लोक में ज्ञानयज्ञ कहने,
प्रसंग
को देखने तथा उत्तारार्ध्द में सिर्फ ज्ञान शब्द होने से भी
'श्रेयान्द्रव्यमयात्',
(4।33)
में
ज्ञानयज्ञ शब्द से केवल आत्मज्ञान का समझा जाना रुक नहीं सकता।
यद्यपि यज्ञों को
'यज्ञक्षपितकल्मषा:'
के
द्वारा पवित्र करने वाले कहा है;
तथापि
''नहि
ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते''
(4।38)
में
ज्ञान को जो सबसे बढ़ के पवित्र करने वाला कहा है उससे भी उसकी
यज्ञरूपता सिध्द हो जाती है। यह ज्ञान अद्वैत आत्मा का ज्ञान ही है
यह बात 'ये
न भूतान्यशेषेण्'
(4।35)
श्लोक
से स्पष्ट हो जाती है। क्योंकि जब आत्मा और ब्रह्म एक ही होंगे तभी
तो सभी पदार्थ आत्मा में और ब्रह्म में भी नजर आयेंगे।
इस प्रकार
35वें
श्लोक तक कर्म को अकर्म कर देने की बात कह दी गयी और विकर्म को ही
अकर्म बन जाने की भी।
36वें
में भी विकर्म को ही अकर्म बना दिया है। क्योंकि वृजिन या पाप का
प्रश्न तो विकर्म में ही होता है,
सुकर्म
या कर्मत्याग में नहीं। यह ठीक है कि यहाँ समस्त वृजिन कहने से जब
पाप का समुद्र लेंगे-सभी पाप लेंगे-तो संचित और पुराने पाप भी आयी
जायेंगे। मगर इससे क्या
? यह
तो और भी सुन्दर हुआ कि भूत और भविष्य काल के विकर्म भी अकर्म बन गये
और सिध्दान्त की व्यापकता हो गयी। इसी तरह
37वें
श्लोक में ईंधनों का दृष्टान्त देकर कर्म समूह के जला देने की जो बात
कही गयी है उससे भी यह सिध्द हो जाता है कि ज्ञान से न सिर्फ वर्तमान
कर्म अकर्म बन जाते हैं। किन्तु भूत और भावी कर्म भी,
और इस
तरह कर्म के अकर्म बन जाने का भी सिध्दान्त व्यापक बन जाता है।
रह गयी अकर्म
या विकर्म के कर्म बन जाने की बात। सो तो बड़ी मोटी है। इसमें ज्यादा
कहने की जरूरत है नहीं।
'कर्मेन्द्रियाणि
संयम्य' (3।6-7)
आदि
श्लोकों में ही यह बात साफ-साफ कह भी दी गयी है। उससे बढ़ के सफाई के
साथ और क्या कहा जा सकता है
? इसी
प्रकार कर्म में विकर्म या विकर्म में कर्म की भी बात है। वह
धर्मशास्त्रों में भी पाई जाती है और ज्ञान की अपेक्षा नहीं करती।
असल में आत्मज्ञान के फलस्वरूप जो परिवर्तन कर्म या अकर्म में होता
है,
उसी का निरूपण
यहाँ है,
न कि और कोई।
जो चीजें परिस्थिति के ही करते बदल जाती हैं,
न कि
ज्ञान के करते,
उनका
ताल्लुक दरअसल गीता से है नहीं। इसीलिए गीता ने या तो तीसरे अध्याय
की तरह प्रसंगवश उनके बारे में कुछ कह दिया है या छोड़ दिया है।
क्योंकि उनकी बखूबी जानकारी स्मृतियों से और अन्य ग्रन्थों से भी हो
सकती है। कर्मयोग का मूलाधार आत्मज्ञान होने के कारण और इस अध्याय
में ज्ञान का प्रसंग होने के कारणभी ज्ञान से होने वाली कर्म-अकर्म
की बातें ही यहाँ कही गयी हैं।
सिर्फ
34वें
श्लोक की एक बात रह जाती है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए तत्तवदर्शी
गुरु के पास जा के पहले तो उसके सामने नम्रतापूर्वक आत्मसमर्पण करना
होगा। उसके बाद यथाशक्ति सेवा करना जरूरी है। जब नम्रता और सेवा से
गुरु महाराज सन्तुष्ट दीखें तभी मौका पा के आत्मा-परमात्मा
के बारे में प्रश्न करना उचित है। यही गीता ने माना है। अर्जुन ने
यही किया भी था। ऐसा नहीं कि चट पहुँचे और पट प्रश्न ही कर दिया। फिर
सूखे काठ की तरह तने पड़े रहे। जो आत्मज्ञानी और मस्त होगा वह इस पर
कभी ऑंख भी न फेरेगा। प्रश्न का उत्तर देना और समझाना-बुझाना तो दूर
रहा। किसी मस्त से,
जो
बड़े-बड़े मिट्टी के ढेलों के बीच पड़ा रहता था,
जब
किसी महाराजा ने तरस खा के पूछा कि कहिए कैसे कटती है तो उसने चट
उत्तर दिया कि कुछ देर तो तेरी जैसी और कुछ देर तुझसे अच्छी! राजा ने
समझा था कि ढेलों में कष्ट होता होगा। मगर यहाँ तो उल्टी बात सुनने
को मिली! असल में नींद के समय तो ढेला,
काँटा
या पलँग का पता नहीं रहता। इसीलिए सभी की बराबर कटती है। हाँ,
जगने
पर मस्त तो मस्त ही झूमते हैं। मगर राजे-महाराजे हजार चिन्ता में
मरते हैं। यही वजह है कि मस्तराम की उस समय अच्छी कटती है। फिर वे
किसी की परवाह क्यों करने लगे
?
'यज्ज्ञात्वा
न पुनर्मोहं' (4।35)
श्लोक
महत्तवपूर्ण है। आत्मज्ञान की बात यों तो पहले भी बार बार
2, 3, 4,
अध्यायों में
आयी है। उसके प्राप्त होने पर आत्मज्ञानी योगी या मस्तराम की क्या
दशा होती है। यह बात भी कितनी ही बार कितने ही ढंग से कही गयी है।
मगर अभी तक यह कहीं नहीं बताया गया कि उस ज्ञान का रूप कैसा होता है।
यह एक बुनियादी और मौलिक बात है जो अब तक छूटी है। ज्ञान का एक यह
जबर्दस्त पहलू है जिस पर प्रकाश पड़ना जरूरी था। यह बात इसी श्लोक में
पहले-पहल आयी है। यही कारण है कि इस अध्याय के अन्त में जो
समाप्तिसूचक वाक्य
'इतिश्री'
आदि है
उसमें इस अध्याय को,
इसमें
प्रतिपादित मुख्य विषय के कारण ही,
'ज्ञान-कर्म-संन्यास
योग'
नाम दिया गया
है। कर्म-संन्यास की बात भी इस अध्याय में आयी है यह तो पहले ही कहा
है मगर आगे 'योगसंन्यस्तकर्माणं'
(4।41)
में
साफ ही कर्म-संन्यास आया है न कि अकर्म शब्द के अर्थ के रूप में
अप्रत्यक्ष रूप से आया है। अध्याय के अन्त में यह संन्यास और इसी के
बाद 42वें
में 'योगमातिष्ठ'
के
द्वारा कर्म का करना कह के अध्याय को खत्म किया है। इसीलिए आगे
अर्जुन को शंका करने का मौका फौरन ही मिल गया है। यह भी कितना अच्छा
है कि पहले ज्ञान और पीछे कर्म संन्यास आया है। फलत:
'ज्ञान-कर्म-संन्यासयोग'
नाम
देना उचित हो गया !
हाँ,
तो उस
ज्ञान को जरा देखा जाय। यह तो पहले ही कह चुके हैं कि इस श्लोक में
अद्वैत ज्ञान का ही प्रतिपादन है। मगर अद्वैत के मानी केवल यही नहीं
है कि जीव और ईश्वर या आत्मा और परमात्मा की एकता है,
जैसा
कि कह चुके हैं। यह एकता तो हुई इसके बिना तो यह सम्भव होई नहीं सकता
कि सभी भूतों या सत्ताधारी पदार्थों को-सारे संसार को-आत्मा में और
परमात्मा में-दोनों में ही-देखा जा सके। अगर दोनों दो होते तो यह
कैसे सम्भव था कि जो चीजें आत्मा में दीखतीं वही एक-एक करके परमात्मा
में भी नजर आतीं
? दो
पृथक् पदार्थों में ऐसा होना,
ऐसा
देखा जाना असम्भव है। असल में दोनों एक ही हैं। मगर मोह,
भ्रम
या अज्ञान की भूलभुलैया के चलते अलग-अलग-भिन्न-भिन्न माने जाते हैं।
किन्तु आत्मा का साक्षात्कार होते ही यह ज्ञानी मस्त हो के भीतर ही
भीतर अपनी पुरानी नादानी पर और दुनिया की भी मूर्खता पर हँसता है कि
देखिए न,
हम इन्हें दो
मानते थे! हालाँकि दोनों एक ही हैं! उफ,
ऐसी
अन्धेर कि एक को दो कर दिया! सो भी ऐसे दो,
कि एक
दूसरे में जमीन आसमान का फर्क! क्या गजब है! इसी के साथ वह सारे
संसार के पदार्थों को अपने ही भीतर-अपनी आत्मा में-अपने आप में-एक-एक
करके सिनेमा के चित्रों की तरह साफ-साफ चलते फिरते और काम करते देखता
है! उन्हें परमात्मा में भी देखता है! वह तो प्रत्यक्ष ही देखता और
मानता है कि मैं ही परमात्मा हूँ और मुझी में यह सारी दुनिया है!
संसार के पदार्थों के रग-रग में अपने परमात्मा को-अपने आपको-ओत प्रोत
एवं विधा हुआ देख के वह आश्चर्य एवं आनन्द में मस्त हो जाता है। यही
दशा होने पर हो तो वामदेव बोल उठे कि मैं ही,
मनु,
सूर्य
और सभी कुछ हूँ! यह श्लोक अर्जुन से कहता है कि ज्ञान होने पर
तुम्हारी भी यही हालत हो जायगी,
याद
रखो! फलत: जब तक ऐसी मस्ती की दशा न आ जाये उसके लिए निरन्तर यत्न
करना ही होगा।
लेकिन यह
अद्वैत तो तभी पूर्ण और सच्चा होगा जब आत्मा-परमात्मा की एकता के
अनुभव के साथ ही यह भी दीखने लगे कि यह जगत् इस जगत् के सभी पदार्थ
हमसे-आत्मा से-पृथक् नहीं हैं। तभी वास्तविक अद्वैत ज्ञान होगा। यह
बात भी इस श्लोक में है।
'अशेषेण
भूतानि'
कहने से
सत्ताधारी हरेक भौतिक पदार्थ के बारे में ऐसा देखने की बात साफ हो
जाती है। मगर यह कैसे सम्भव है। जब तक आत्मा के अलावे अन्य पदार्थों
की स्वतन्त्र,
जुदी
सत्ता का अभाव न माना जाय-उनके पृथक् अस्तित्व का अभाव न माना जाय
? सोने
के कड़े कंगन आदि को देख के कोई भी अनुभव कर सकता है कि इनमें सर्वत्र
सोना ही सोना है,
ये
चीजें सोने में ही हैं,
सोने
से अलग नहीं हैं। इसी प्रकार मिट्टी के अनेक बर्तनों के बारे में भी
मिट्टी ही मिट्टी का अनुभव करके कह सकता है कि ये सभी पात्र मिट्टी
में ही हैं,
मिट्टीमय हैं,
मिट्टी
से जुदे नहीं हैं। लेकिन यह कभी नहीं हो सकता कि इन बर्तनों के बारे
में कहा जाय कि ये सोने में ही हैं,
सोने
से अलग नहीं हैं। या कंगन,
कड़े
आदि के बारे में कहा जाय कि ये मिट्टी ही हैं,
मिट्टी
से अलग नहीं हैं। क्योंकि इन दोनों में-सोने और मिट्टी में-कोई मेल
है नहीं। दोनों की मौलिक विभिन्नता है। मगर श्लोक में जो अनुभव बताया
गया है वह तो ठीक इसी तरह का है,
इसी
प्रकार का होना चाहिए कि ये सभी पदार्थ आत्मा में ही हैं,
आत्मा
से अलग नहीं हैं।
यहाँ दिक्कत
यह पड़ती है कि संसार में असंख्य आत्माएँ हैं और उनकी चैतन्य शक्ति की
समानता को देखते हुए यदि किसी प्रकार कहा जा सके भी कि ये सभी
आत्माएँ मुझमें ही हैं,
मुझसे
जुदी नहीं हैं;
या जब
आत्मा-परमात्मा की एकता है तो आत्मा-आत्मा की एकता भी अर्थ सिध्द है;
इसलिए
एकता के ख्याल से अगर ठीक ही कह सकें कि सभी आत्माएँ मुझसे जुदी
नहीं हैं। तो भी जो अचेतन भौतिक पदार्थ हैं उन्हें कैसे कहें कि ये
मेरी आत्मा से-मुझसे-अलग नहीं है
?
किन्तु 'भूतानि
अशेषेण'
कहने से तो वे
भी आते ही हैं। भूत कहने से ही आत्मा के सिवाय शरीरादि सभी आ जाते
हैं। जब अशेषेण कह दिया तब तो कोई छूट ही नहीं सकता। इसलिए उनकी भी
तन्मयता का ज्ञान आत्मा को,
हमें
होना ही चाहिए। हाँ,
एक ही
बात हो सकती है। जैसे सपने में देखे पदार्थों के बारे में जगने पर
अनुभव होता है कि मुझसे अलग या मेरे अलावे और कोई चीज जो दीखती थी,
कहाँ
थी ?
वहाँ सपने में
भी सब कुछ मैं ही था,
मेरे
अलावे और तो कुछ था नहीं। या जैसे रस्सी में भ्रम से माने गये साँप
के बारे में उजाले में यही अनुभव होता है कि यह तो रस्सी ही है;
यही
साँप मालूम पड़ती थी;
इसके
अलावे कोई साँप-वाँप तो है नहीं। ठीक यही बात संसार के बारे में भी
हो कि मुझसे अलग कहाँ कोई चीज है
? मैं
ही तो सर्वत्र हूँ,
सब में
हूँ। मेरे अलावे तो और कुछ हुई नहीं। तभी श्लोक का अर्थ ठीक-ठीक
जँचेगा। तभी वास्तविक अद्वैतवाद भी सिध्द होगा।
न हि
ज्ञानेन सदृशं
पवित्रमिह
विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिध्द: कालेनात्मनि विन्दति॥38॥
क्योंकि
(वस्तुत:) इस दुनिया में ज्ञान से बढ़ के पवित्र-शुध्द करने वाली-चीज
दूसरी हुई नहीं। कर्मों के फलस्वरूप जिसका अन्त:करण-मन-शुध्द हो गया
है वही इसे समय पा के अपने में ही हासिल कर लेता है। (बाहर जाने या
ढूँढ़ने की जरूरत नहीं होती)।38।
जो समझते हैं
कि मन की शुध्दि और स्थिरता के बाद फौरन ही ज्ञान हो जायगा,
उन्हीं
के लिए यहाँ 'कालेन'-समय
पा के-कहा गया है। इसे प्राप्त करने में समय लगता है,
देर
होती है। क्योंकि भावना,
निदिध्यासन और समाधि की जरूरत तो होती है और उसमें काफी समय लगता
है। इसी बात का स्पष्टीकरण अगले दो श्लोक करते हैं।
''आत्मनि''-आत्मा
में-कहने का अभिप्राय यही है कि आत्मा का ही तो ज्ञान होना है और उसी
में तो जगत् को देखना है,
भीतर
ही ढूँढ़ना है तीर्थ में या कहीं और तो जाना-वाना है नहीं।
श्रध्दावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं
लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥39॥
जो श्रध्दा
वाला है,
जिसने अपनी
इन्द्रियों को बखूबी काबू में कर लिया है और जो इस बात में दिन-रात
मुस्तैद है,
उसी को
ज्ञान होता है। ज्ञान पर अखण्ड शान्ति का अनुभव फौरन ही होने लगता
है।39।
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च
संशयात्मा विनश्यति।
नायं
लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:॥40॥
(विपरीत
इसके) जो कुछ जानता ही नहीं,
जिसे
श्रध्दा भी नहीं है और जिसके मन में संशय ने घर कर लिया है वह चौपट
ही हो जाता है। (क्योंकि हर बात में शक करने वाले का न तो यहीं काम
चल सकता है और न परलोक में ही। उसे चैन तो कभी मिलता ही नहीं।40।
यहाँ अज्ञ
कहने का अभिप्राय यही है कि आत्मज्ञान के उपायों के बारे में भी कुछ
न जानता हो;
इसीलिए
न तो उसका इन्द्रियों पर काबू ही हो और न मुस्तैदी ही। पहले श्लोक की
यही बातें ज्ञान के लिए मूल रूपेण आवश्यक हैं और यही उसमें हैं नहीं।
वह कोरा ही है,
यही
तात्पर्य है। श्रध्दा हृदय की चीज है। केवल तर्क-दलीलों पर ही निर्भर
न करके विश्वास करना ही पड़ता है। तभी ज्ञान होता है। मगर जो
श्रध्दालु नहीं हैं,
उनका
हृदय नीरस होता है। फलत: केवल दिमागी तर्कों से ही वे निश्चय करना
चाहते हैं। परिणाम यह होता है कि बात-बात में शक करते रहते हैं।
क्योंकि 'तर्कोऽप्रतिष्ठ:'
के
अनुसार तर्क तो कहीं जा के स्थिर हो नहीं सकता। वह तो पहरेदार सिपाही
है और वह पहरेदार सिपाही क्या जो बराबर चलता न रहे और स्थिर या खड़ा
हो जाय ?
और जब कहीं
किसी बात पर स्थिरता नहीं,
निश्चय
नहीं,
तो सर्वत्र
संशय का एकच्छत्र राज्य समझिए। फिर तो मौत ही मौत है। क्योंकि
खान-पान आदि में भी संशय हो सकता है कि पाचक ने जहर तो नहीं दे दिया
है,
बाजार से
मँगाई चीजों में ही किसी शत्रु ने विष तो नहीं मिला दिया है,
आदि-आदि। इसीलिए इस दुनिया का काम ही जब नहीं चल पाता तो ऐसा लोगों
का परलोक क्या बनेगा खाक
?
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबधनन्ति
धनंजय॥41॥
हे धनंजय,
जिसने
कर्म करते-करते अन्त में उसके संन्यास की दशा प्राप्त कर ली है,
जिसने
आत्मज्ञान के बल से संशय को खत्म कर दिया है (और इसीलिए) जिसने आत्मा
को पा लिया है कर्म उसे बन्धन में डाल नहीं सकते।41।
यहाँ
'आत्मवन्तं'
कहने
का अभिप्राय यही है कि वह आत्मावाला हो गया है,
यानी
जो आत्मा खोई थी उसे प्राप्त कर लिया है। उसका प्राप्त करना तो उसे
जान लेना ही है। इसीलिए इसके पहले
'ज्ञानसंछिन्नसंशयं'
कहा
है। संशय की ऍंधियारी में ही तो आत्मा लापता थी और यह संशय पैदा हुआ
था अज्ञान से,
जैसा
कि आगे लिखा है। अब ज्ञान के दीपक ने उसी को मिटा दिया। मगर ज्ञान को
पक्का और दृढ़ होने के लिए समाधि की जरूरत है। उसके बिना वह मजबूत होई
नहीं सकता। किन्तु कर्मों को करते रहने पर समाधि के लिए फुर्सत कहाँ
?
इसीलिए कर्मों का संन्यास भी बता दिया है। किन्तु यह संन्यास
मिथ्याचार और दम्भ न हो,
नकली न
हो,
इसीलिए कह
दिया कि कर्मों के करते-करते अन्त:करण की शुध्दि हो जाने पर जब
संन्यास की योग्यता हो जाय और उसका अवसर आ जाय तभी संन्यास करना ठीक
है। यहाँ और आगे योग का अर्थ है कर्म।
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन:।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ
भारत॥42॥
इसीलिए हे
भारत,
अज्ञान से
पैदा होनेवाले (और) हृदय में ही घर बना के जमनेवाले इस संशय (रूपी
प्रचण्ड शत्रु) को आत्मा के ज्ञानरूपी तलवार से कत्ल करके उठ खड़े हो
(और युध्दात्मक) कर्म करो।42।
यहाँ ज्ञान को
तलवार कहने का आशय यही है कि जैसे तीखी तलवार से ही जबर्दस्त शत्रु
को मार सकते हैं;
कमजोर
या भोथरी तलवार से कोशिश करने पर उलटे खतरा रहता है। वैसे ही ज्ञान
खूब दृढ़ और शक-सुभे से बिलकुल ही अछूता जब तक न हो जाय इस अज्ञान का
और तन्मूलक संशय का भी खात्मा होता ही नहीं। इसलिए दीर्घकाल तक यत्न
करके पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना निहायत जरूरी है। उपनिषदों की
आख्यायिकाएँ इस बात के प्रबल प्रमाण् हैं कि कच्चे ज्ञानवाले का संशय
उसे कैसे परेशान करता है।
इति
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सुब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रो
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽधयाय:॥4॥
श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक
योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका
ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग नामक चौथा अध्याय यही है।
अगला पृष्ठ :
पाँचवाँ अध्याय
(शीर्ष पर वापस)
|