नौवाँ
अध्याय
सातवें
अध्याय
में ज्ञान-विज्ञान का निरूपण शुरू करके जिन पंचभूत आदि का उल्लेख
किया था उन्हीं को
अध्यात्म,
अधिभूतादि
के रूप में कह के उस
अध्याय
का उपसंहार किया गया है। यों कहिए कि
अध्यात्म
आदि के रूप में हजारों पदार्थों में से कुछ एक को ही नमूने के तौर पर
वहाँ दिया गया है। शेष का अन्वेषण विचार एवं मनन करने वाले उसी तरह
कर सकते हैं। इसी सिलसिले में अर्जुन ने
अध्यात्म
आदि के बारे में शंका उठा दी कि यह क्या चीजें हैं और शरीर में इनका
पता है या नहीं ?
उसी के
उत्तर
में समूचा आठवाँ
अध्याय
पूरा हो गया। इससे अर्जुन को सन्तोष भी हो गया कि दरअसल बात है क्या।
ऐसी दशा में
आठवेें अध्याय के बाद हम फिर सातवें अध्याय के ही मुख्य विषय
ज्ञान-विज्ञान पर स्वभावत: पहुँच जाते हैं। क्योंकि प्रासंगिक बात
पूरी हो जाने पर मूल विषय का मौका खुद-ब-खुद आ जाता है। यही कारणहै
कि नौवाँ अध्याय इसी बात को ले के ही शुरू होता है। फलत: उसके पहले
ही श्लोक में ज्ञान-विज्ञान पुनरपि आ गया है। शायद उसका महत्तव
अर्जुन के दिमाग में अच्छी तरह न आया हो। एतएव इस सम्बन्ध में बहुत
ज्यादा माथा-पच्ची करना भी वह पसन्द न करे। इसी वजह से इसी
ज्ञान-विज्ञान को राजविद्या और राजगुह्य नाम दे के इसकी महत्ता
दिखानी पड़ी। विद्याओं के राजा को राजविद्या और गुह्यों या गोपनीय
(secret)
पदार्थों
के राजा को राजगुह्य कहते हैं। राजा का अर्थ है सरदार या शिरोमणि।
इसका मतलब यह है कि जितनी भी गुप्त से गुप्त बातें जानी जा सकती हैं
उन सबों की अपेक्षा यह चीज कहीं महत्तव रखती है। इसीलिए इसकी जानकारी
सबों से बढ़ के जरूरी है। यदि इस
अध्याय
का विषय राजविद्या-राजगुह्य बताया गया है तो इसका यह आशय कदापि नहीं
है कि यह कोई और ही चीज है। यह तो उसी ज्ञान-विज्ञान का ही दूसरा नाम
है। यह नाम उसी चीज की महत्ता के पहलू पर जोर देने के ही लिए उसे
दिया गया है,
यह तो अभी-अभी कहा है। नामान्तर और प्रकारान्तर
से एक ही बात का प्रतिपादन उसमें सरसता लाने के साथ ही आकर्षक भी
होता है।
अगर हम इसमें
प्रतिपादित विषय की जानकारी के लिए खास तौर से नजर डालें कि कौन-सी
बात कब और कैसे कही जा रही है तो पता चलेगा कि शुरू के तीन श्लोक तो
भूमिका के ही रूप में हैं। वे इसी बात को दिल में बैठा देने के लिए
हैं कि इसका बार-बार विमर्श और मनन अत्यन्त आवश्यक है। उसके बाद के
तीन (4-6)
श्लोकों को भी देखने से पता लग जाता है कि वे सातवें अध्याय के शुरू
के दो (6-7)
श्लोकों के ही स्थान में आये हैं। फलत: इनमें कुछ तो वही बातें ज्यों
की त्यों हैं और कुछ उन्हीं का विवरण एवं स्पष्टीकरण है। उनके बाद के
आठ (7-15)
श्लोकों पर
ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है कि वे भी एक प्रकार से सातवें
अध्याय के ही सात (13-19)
श्लोकों के रूपान्तर हैं। प्राय: वही बातें इनमें प्रकारान्तर से कही
गयी हैं। इसी प्रकार
20वें
से 25वें
तक के छ: श्लोक भी सातवें के
20वें
से 26वें
तक के सात श्लोकों के ही रूपान्तर हैं और यह बात बहुत साफ है। इसी
तरह और भी बची-बचाई बातें मिलती-जुलती हैं;
हालाँकि कहने और प्रतिपादन कीरीति नयी है,
विलक्षण है और यही इसकी खूबी है। मनन में इसी की जरूरत होतीभीहै।
अब आइए जरा
विज्ञान के मुख्य विषय को भी देखें। सृष्टि के विभिन्न पदार्थों को
ले के उनका विश्लेषण करना और इस प्रकार उन्हें आत्मा-परमात्मा का रूप
सिध्द करना यही तो मुख्य बात है। सातवें अध्याय के शुरू में यही आयी
है भी। नौवें अध्याय के चार (16-19)
श्लोकों में यह बात पायी जाती है। सातवें अध्याय के पाँच (8-12)
श्लोकों में भी इसी तरह की बात आयी है। उस अध्याय के
'अहं
कृत्स्नस्य जगत:''
(7।6)
तथा
'ये
चैव सात्तिवका:'
(7।12)
के ही
स्थान पर 'गतिर्भर्ता'
(9।18,19)
आदि दो
श्लोक प्रतीत होते हैं। इनमें कुछ ज्यादा ब्योरा भी नहीं मिलता है,
सिवाय
इसके कि उन्नीसवें के पूर्वार्ध्द में सूर्य की बात
'तपामि'-तपता
हूँ-कहने से प्रतीत होती है। शेष श्लोकों में अधिकांश वेद के ही
क्रतु,
यज्ञ,
मन्त्र
आदि तथा ऋक्,
साम,
यजु:
मन्त्रों को ही कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सातवें अध्याय के
पृथ्वी आदि सभी पदार्थों को तो अध्यात्म,
अधिभूतादि के रूप में उसी अध्याय में और आठवें में भी ले लिया है।
वहीं उस पर प्रकाश भी काफी डाला है। उसका केवल
'प्रणव:
सर्ववेदेषु' (7।8)
बच गया
है जरूर। इसीलिए उसी का विशेष विवरण और विश्लेषण इस अध्याय में करके
उस बात को अच्छी तरह समझाया है। ऐसा लगता है कि
'प्रणव:
सर्ववेदेषु'
सूत्र
है। वेद तो आखिर शब्द ही है न
? और
शब्द के बिना अर्थ का पता नहीं लगता। फलत: शब्द अर्थ में व्याप्त है।
यहाँ तीसरे श्लोक में उसी व्यापक वस्तु का उल्लेख है,
न कि
दूसरे का। अत: उससे ही शुरू करने का मतलब यही प्रतीत होता है। इसी के
साथ यज्ञों पर भी कुछ विशेष प्रकाश दूसरे रूप में इसी अध्याय में पड़
गया है,
जब कि
'त्रोविद्या
मां'
में यज्ञों के
स्वर्गादि फलों के साथ ही और बातें भी कही गयी हैं। यह पहलू पहले
उठाया नहीं गया था। फिर भी अधियज्ञ करने से बात तो दिमाग में थी ही।
नहीं सब बातों का ख्याल करके-
श्रीभगवानुवाच
इदंतुगुह्यतमंप्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं
विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥1॥
श्रीभगवान्
कहने लगे-दोष दृष्टि तथा निन्दा बुध्दि से रहित तुम्हें अत्यन्त
गोपनीय ज्ञान-विज्ञान अभी और भी बताता हूँ। इसे जान के बुराई से
छुटकारा पा जाओगे।1।
राजविद्या राजगुह्यं
पवित्रमिदमुर्त्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धार्म्यं सुसुखं
कर्तुमव्ययम्।2॥
अश्रद्दधाना:
पुरुषा
धर्मस्यास्य
परंतप।
अप्राप्य मां निवर्त्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥3॥
यह सभी
विद्याओं एवं गोपनीय वस्तुओं का राजा है,
पवित्र
है,
उत्तम है,
प्रत्यक्ष अनुभव योग्य है,
धर्म
के अनुकूल है,
अविनाशी है (और) आसानी से ही इसे प्राप्त किया जा सकता है।2।
हे परंतप,
इस धर्मयुक्त
बात में श्रध्दा नहीं रखने वाले मनुष्य मुझ तक पहुँच न सकने के कारण
जन्म-मरण रूपी संसार में निरन्तर चक्कर काटते रहते हैं।3।
यहाँ
'प्रत्यक्षावगमं'
और
'कर्ताुं
सुसुखं'
विशेषण बड़े
काम के हैं। पहला विशेषण तो विज्ञान के अत्यन्त अनुकूल है। विज्ञान
की बातें जब तक प्रत्यक्ष न हों उनकी कोई कीमत होती ही नहीं और यह
उसी प्रत्यक्ष की तैयारी ठहरी। इसी तरह
'कर्ताुं
सुसुखं'
के मानी हैं
जो आसानी से किया जा सके,
समझा
जा सके। उसमें दुविधो की गुंजाइश नहीं है। वह तो हीरे की तरह चमकने
वाली प्रत्यक्ष चीज है। इसीलिए उसकी पहचान स्वर्गादि पदार्थों की
अपेक्षा कहीं आसान है। जब तक उसे जान पाते नहीं तभी तक दिक्कत है।
जानते ही सारी परेशानी चली जाती है। तेज धारा वाली नदी के पार दस
साथी उतरे। फिर इस ख्याल से कि कहीं तैरने में कोई बह तो नहीं गया,
गिनती
करने लगे। नतीजा यह हुआ कि पहली गिनती में एक की कमी प्रतीत हुई !
घबरा के दूसरे,
तीसरे
आदि सभी ने गिना और सबों ने नौ ही संख्या पायी! अब तो आफत थी! छाती
पीट के लगे सभी रोने कि दसवाँ गायब है,
अब
क्या करें! सुनते ही कुछ लोग दौड़ आये और पूछा तो पता लगा कि इनका
दसवाँ साथी ही बह गया! पूछने वालों में जब एक ने गिना तो दस-के दस
ठहरे! इस पर उनने उनमें एक से कहा कि गिनो तो,
कहाँ
दसवाँ गायब है ?
उसने
एक-एक करके नौ को गिना और अपने को न गिन के चट कहा कि देखिए न,
नौ ही
तो हैं। इस पर पूछने वाले ने कहा कि तू अपने को तो गिनता ही नहीं! बस,
सबों
की ऑंखें खुल गयीं! दसवाँ तो हरेक खुद था और इतना नजदीक था कि कुछ
पूछिए मत। मगर दूर से भी दूर हो गया था! किन्तु चतुर उपदेशक के बताते
ही फिर ऐसा निकट,
ऐसी
पहुँच के भीतर हो गया कि वैसा कोई भी नहीं रहा! यही बात यहाँ भी है।
भूला हुआ अर्जुन कृष्ण के उपदेश से आसानी से अपने आपको समझेगा।
स्वर्ग-नरक को क्या इतना जल्द देख सकते हैं
? क्या
खेती या रोजगार में भी इतनी शीघ्र सफलता हो सकती है
?
जो लोग
'आचरण
करने में सुखकारक'
ऐसा
अर्थ इस 'सुसुखं
कर्ताुं'
का करते हैं
वे या तो संस्कृत समझते ही नहीं,
या
नाहक खींचतान करते हैं। वैसे अर्थ में ऐसा प्रयोग संस्कृत के
विद्वान् कभी नहीं करते,
उनसे
मेरा यही नम्र निवेदन है।
मया
ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूख्रर्त्तना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:॥4॥
न च
मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:॥5॥
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु:
सर्वत्रगो
महान्।
तथा
सर्वाणि भू तानि मत्स्थानीत्युपधारय॥6॥
मुझ
अव्यक्त-अदृश्य-मूर्ति ने ही समूचे जगत् को व्याप्त कर रखा है। सभी
पदार्थ मुझी में हैं,
मैं
उनमें (हर्गिज) नहीं हूँ। (लेकिन) मेरा ईश्वरी करिश्मा तो देखो कि ये
पदार्थ मुझमें (वस्तुत:) हैं भी नहीं! सभी पदार्थों को कायम रखने
वाली मेरी आत्मा पदार्थों का भरण-पोषण भी करती है। (और) उनमें रहती
ही नहीं! जिस तरह सभी जगह फैली विस्तृत हवा हमेशा आकाश में ही रहती
है उसी प्रकार सभी पदार्थ मुझमें हैं यही समझो।4।5।6।
इन तीन
श्लोकों में जगत् के विस्तार के निरूपण की भूमिका का श्रीगणेश होता
है,
जैसा कि
सातवें अध्याय के भी शुरू के सात श्लोकों में पाया जाता है। वहाँ भी
आठवें श्लोक से विस्तृत निरूपण शुरू होता है। इनमें आखिरी श्लोक में
जो दृष्टान्त दिया है उसका आशय यह है कि वायु की उत्पत्ति आकाश से ही
मानते हैं। इसलिए आकाश में ही हवा रहती भी है। ऐसा ही कहते भी हैं कि
आकाश में हवा है या हुई नहीं,
आदि-आदि। वह हवा विस्तृत है और चारों ओर फैली है। उसे कोई रोक नहीं
है और न उसके फैलने या चलने से आकाश का कुछ भी बिगड़ता-बनता है।
पदार्थों की भी ठीक यही दशा है। परमात्मा से ही बने और सर्वत्र फैले
हैं। टूटते-फूटते भी रहते हैं और आते-जाते भी। मगर इससे परमात्मा का
कोई भी बनाव-बिगाड़ नहीं है,
वह
निर्लेप है। असल में सूत से कपड़ा तैयार होने पर ऐसा होता है कि कपड़े
के फाड़ने,
जलाने या
हटाने पर सूत भी टूटता,
जलता
या हटता है। कहीं यही बात परमात्मा में भी न हो,
इसीलिए
उसे निर्लेप बताना जरूरीहो गया है। सूत ने ही कपड़े को धार रखा है।
उसी से वह कायम भी है। तब उसकीखराबी से सूत में भी खराबी की बात देख
के परमात्मा में भी वही ख्याल होना जरूरी था।
चार और पाँच
श्लोकों में जो कुछ कहा है वह परस्पर विरोधी जैसा प्रतीत होता है।
मगर वह विरोध हट जायगा यदि जगत् को परमात्मा में कल्पित या मायामय
मान लें। जब मरुभूमि में सूर्य की किरणें बालू पर चमकती हैं तो दूर
से मालूम पड़ता है कि कोई नदी या पानी की धारा मरुभूमि में बह रही है।
फिर प्यासा आदमी उधर ही बढ़ता भी है। मगर वह ज्यों-ज्यों बढ़ता है धारा
भी त्यों-त्यों आगे बढ़ती जाती है। वह धारा मरुभूमि में है भी और नहीं
भी है। यदि उस भूमि में न होती तो वहाँ प्रतीत क्यों होती
?
दूसरी जगह तो नहीं दीखती है। किन्तु अगर सचमुच होती तो पहुँचने पर
चाहे वह दूर भले ही चली जाती;
फिर भी
वह भूमि भीगी तो जरूर रहती है। लेकिन सो तो होता नहीं। पथिक चाहे
कितनी ही दूर चला जाय। फिर भी मरुभूमि वही सूखी की सूखी ही मिलती है!
बस,
यही हालत इन
पदार्थों की है। ये भी परमात्मा में मरुभूमि की धारा की ही तरह हैं,
दीखते
हैं। किन्तु वस्तुत: नहीं हैं।
यहाँ पर एक
प्रश्न उठता है कि यदि सभी पदार्थ परमात्मा से ही उत्पन्न होते हैं
तो उसमें रहते हैं कैसे और कहाँ
? और
अगर रहते हैं तो इनके करते कितना उपद्रव और तूफान होता होगा! अनन्त
प्रकार की भली-बुरी चीजें हैं। फिर तो जहाँ ये रहें उसकी दुर्दशा
किये बिना छोड़ेंगी थोड़े ही। यह तो दिमाग में आने की बात ही नहीं कि
यों ही निेर्लेप और निर्विकार छोड़ दें। यह शंका कोई नयी नहीं है।
छान्दोग्य उपनिषद् के समूचे छठे अध्याय में आरुणि ऋषि का अपने पुत्र
श्वेतकेतु के साथ वाला संवाद आत्मा के ही बारे में पाया जाता है।
उसके 12वें
खण्ड में श्वेतकेतु की भी ऐसी शंका के उत्तर में आरुणि ने वटवृक्ष
का बीज मँगवा के फोड़ने को कहा था। फोड़ने पर पूछा कि देखो तो उसके
भीतर है क्या ?
पुत्र
ने कहा कि कुछ भी नहीं। इस पर आरुणि ने कहा कि उस बीज के भीतर जहाँ
कुछ भी नहीं देखते हो वहीं बड़े से बड़ा वटवृक्ष मौजूद है। तभी तो उसी
में से बाहर निकलता है। बालू के कण,
चने या
गेहूँ के भीतर से तो कभी वह निकलता पाया गया नहीं। यदि वटबीज में न
रहने पर भी वहाँ से वह वृक्ष निकलता,
तो
गेहूँ,
चना या बालू
में भी तो नहीं ही है। फिर वहाँ से भी क्यों नहीं निकलता
? अगर
मानें कि उसी नन्हे से बीज में वह महान् वृक्ष मौजूद है,
तो
कैसे कहाँ समाया है
? इतना
बड़ा पेड़ उस बीज को बुरी तरह छिन्न क्यों नहीं कर छोड़ता
? उसे
लापता क्यों नहीं कर देता
? जब
इन प्रश्नों का उत्तर श्वेतकेतु दे न सका और आश्चर्यचकित हक्काबक्का
सा रह गया,
तो
आरुणि ने कहा कि पुत्र,
तर्क-दलीलों से ही सर्वत्र काम नहीं चलता। किन्तु श्रध्दा भी करनी
होती है,
विश्वास भी
करना होता है। इसलिए श्रध्दा करो और कोरी दलील के पीछे परेशान मत हो-''यं
वै सोम्यैतमणिमानं न निभालय से एतस्य वै सोम्यैषोऽणिम्न एवं महान्
न्यग्रोधस्तिष्ठति। श्रध्दत्स्वसोम्य''
(6।12।2-3)।
प्रकारान्तर
से गीता में इसी बात का उत्तर
'सर्वभूतानि'
आदि
आगे के श्लोक देते हैं। जिसे प्रकृति कहा है उसी को दैवी माया भी तो
कही दिया है। वह दिव्य एवं अलौकिक शक्ति रखती है,
चमत्कार रखती है जो बुध्दि में समा न सके। पहले के श्लोक के
'योगमैश्वरम्'
शब्दों
में जो ईश्वरी योग या चमत्कार-करिश्मा-कहा है वह भी इस माया का ही
चमत्कार है। प्रलय के समय वह अपने करिश्मे से वटबीज में वृक्ष की तरह
सारे जगत् को अपने भीतर हजम कर लेती है। वहाँ तो पता भी नहीं लगता है
कि किस कोने में है,
या कि
नहीं ही है। फिर सृष्टि के समय महान् वटवृक्ष की तरह सारे जगत् का
प्रसार वही प्रकृति खुद करती है। यह बात बराबर चलती रहती है। यदि वह
प्रकृति,
वह ईश्वरी
माया न रहती तो यह बात असम्भव थी। वट के बीज में भी उसी का करिश्मा
है।
सर्वभूतानिकौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥7॥
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥8॥
हे कौन्तेय,
सृष्टि
के नाश-प्रलय-के समय सभी पदार्थ मेरी प्रकृति में ही विलीन हो जाते
हैं। फिर सृष्टि के आरम्भ में मैं उन्हें रचता हूँ। अपनी प्रकृति में
का सहारा लेकर ही मैं बार-बार इस समूचे पदार्थ-समूह-जगत्-को बनाता
रहता हूँ जो प्रकृति के कब्जे में आने के कारण मजबूर है (कि पैदा हो
और नष्ट हो)।7।8।
न च मां
तानि कर्माणि निबधनन्ति
धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥9॥
मयाऽधयक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपररवर्त्तते॥10॥
हे धनंजय,
सृष्टि-प्रलय के उन कामों में आसक्ति-शून्य और तटस्थ की तरह रहने
वाले मुझको वे कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं। मेरे अध्यक्ष होने
(मात्र) से ही प्रकृति स्थावर-जंगम जगत् की रचना कर डालती है। इस
जगत् का (इस तरह) बार-बार बनना-बिगड़ना-सृष्टि-प्रलय का यह चक्र-(भी)
इसीलिए चालू रहता है।9।10।
यहाँ कल्प
शब्द देखकर कुछ लोगों को भ्रम हो गया है कि आठवें अध्याय के
'अव्यक्ताद्वयक्तय:'
(8।18)
में जो
सृष्टि एवं प्रलय की बात आयी है उसी से यहाँ भी मतलब है;
क्योंकि पौराणिक भाषा में ब्रह्मा के दिन को ही कल्प कहते हैं। मगर
बात दरअसल यह नहीं है। क्लृप धातु से यह कल्प शब्द बनता है। उसका
अर्थ है जो वस्तु पहले से न हो उसे तैयार करना या बनाना। यह दूसरी
बात है कि यह बनाना केवल दिमागी हो,
या ठोस
हो या दोनों की तरह का। इस तरह इसका वही अर्थ हो जाता है जो सृष्टि,
विसृष्टि आदि शब्दों का है। यह शब्द पौराणिक अर्थ में आया है इसमें
कोई प्रमाण नहीं है। कल्पादि का अर्थ है सृष्टि की आदि का आरम्भ।
कल्पक्षय का अर्थ है उसी का प्रलय या संहार। हमने तो अभी-अभी कहा है
कि सातवें अध्याय के इसी प्रसंग में जो सृष्टि की रचना आदि कही गयी
है और प्रकृति का भी उल्लेख है वही बात यहाँ भी है। यही बात तेरहवें
अध्याय के क्षेत्रनिरूपण के अवसर पर
'महाभूतान्यहंकार:'
(13।5)
में भी
कही गयी है। गीता में जब-जब भगवान् ने स्वयं सृष्टि रचना की बात कही
है,
तब-तब यही बात
ज्यों की त्यों आती गयी है। आठवें अध्याय में तो ब्रह्मा के द्वारा
सृष्टि रचना और उसके मिटाने या प्रलय की बात प्रसंगवश आयी है। वह
साक्षात् भगवान् के द्वारा रचना का प्रसंग तो है नहीं। फिर उसे यहाँ
दुहराने का क्या सवाल
?
सबसे बड़ी बात
यह है कि यहाँ सृष्टि-रचना के सिध्दान्त का दार्शनिक विश्लेषण एवं
विवेचन तथा निरीश्वर सृष्टिवाद का खण्डन है,
जैसा
कि 'मयाध्यक्षेण'
और
'हेतुनानेन'
(9।10)
से
स्पष्ट प्रतीत होता है। प्रकृति का सहारा ले के किस प्रकार क्यों यह
विश्व का सारा पसारा किया जाता है,
इस
मामले में सृष्टि के समस्त पदार्थों की क्या मजबूरी है,
वह
प्रकृति के वश में किस प्रकार है,
ईश्वर
की क्यों क्या जरूरत इसमें पड़ी,
आदि
सारी बातों पर पूरा प्रकाश कर्मवाद के प्रकरण में डाला जा चुका है।
अन्ततोगत्वा सबों के कामों को मिलाने और सभी का लेखा-जोखा ठीक रखने
(for coordination and super
regulation)
के लिए ही
ईश्वर का मानना जरूरी हो जाता है,
यह बात वहीं हमने लिखी है। इतने पर भी किस प्रकार
इन सारे कामों में वह नहीं फँसता और निर्लेप रहता है यह भी वहीं तथा
दूसरे स्थानों में कही चुके हैं। यदि इनमें से ईश्वर ही हटा दिया
जाय या प्रकृति को ही हटा दें तो यह जो बाकायदा संसार का चक्र चल रहा
है, खत्म हो जायगा। कम से कम अनियमित तो
होई जायेगा। प्रकृति और उसके गुण तो बहुत बड़े नियामक
(regulator)
हैं।
इन्हीं से प्राणियों के स्वभाव बनते हैं,
जिनके अनुसार कर्म-काम-किये जाते हैं और वही काम
ईश्वर के व्यापक नियमन
(super regulation)
में उसके
सहायक बनते हैं। अनादिकाल से यह चक्र चालू है। इसीलिए किसी के ऊपर
इसके शुरू करने की जवाबदेही
हुई
नहीं। ऐसा क्यों हुआ यह प्रश्न भी उठता ही नहीं।
यहाँ पुन: एक
प्रश्न वैसा ही उठता है जैसा चौथे अध्याय में शुरू में उठा था और
जिसका उत्तर अवतारवाद के रूप में अर्जुन को दिया जा चुका है। इसीलिए
अर्जुन को तो शंका करने की गुंजाइश रह नहीं गयी। उसने यहाँ इसी से
शंका की भी नहीं। मगर कृष्ण ने जो कुछ आगे कहा है उसी से पता लगता है
कि उस समय काफी ऐसे थे जो कृष्ण को भगवान् मानने को तैयार न थे।
शिशुपाल उन्हीं में एक था। हालाँकि उसके ऐसा मानने-न मानने में
राजनीतिक या दूसरे भी कारण थे। इसीलिए केवल उसी के न मानने को लेकर
वैसी बात कृष्ण जैसा महापुरुष कभी बोल नहीं सकता था जो उनने वहाँ कही
है। या यों कहिए कि चौथे अध्याय में ही कही बात को उनने पुनरपि
सख्ती के साथ,
और
जैसे गुस्से में,
दुहराया है। मालूम होता है तब तक सचमुच अवतारवाद का सिध्दान्त
सर्वमान्य नहीं हो पाया था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि जनसाधारण कृष्ण
को भी अपने में ही एक समझें,
मनुष्य
ही मानें। उनमें चमत्कार था,
प्रतिभा थी,
विलक्षण शक्ति थी यह तो सही है। मगर ये बातें तो मनुष्यों में पायी
जाती ही हैं,
इतने
से ही भगवान् तो नहीं हो जाता,
नहीं
माना जाता। फिर कृष्ण को ही क्यों माना जाय
? और
जब वह बार-बार यह कहते रहते हैं कि मेरी अध्यक्षता से ही प्रकृति यह
करती है,
वह करती है,
यह सब
मेरा ही करिश्मा है आदि-आदि,
तब तो
साफ ही वह ईश्वरता का दावा करते हैं। इसलिए यह भी सम्भव था कि लोगों
की ही तरह अर्जुन के भी मन में इस तरह के ख्याल कुछ-कुछ उठें। इनकी
रोक चौथे अध्याय के उस उत्तर से पूरी-पूरी हो पाती नहीं,
जो
कृष्ण ने दिया था कि मैं सब कुछ जानता हूँ,
किन्तु
तुझे पता नहीं। आखिर योगी महात्मा भी तो भूत-भविष्य की बातें जानते
ही हैं,
यह अर्जुन को
भी मालूम था ही। व्यास और संजय की ही बातें इसमें प्रमाण हैं। इसीलिए
सृष्टि तथा प्रकृति को अपनी ही चीज और अपना ही काम कहने के बाद कृष्ण
ने खुद यह महसूस किया कि उस धारणा का प्रतिवाद जरा सख्ती से कर दिया
जाय। सृष्टि के ही सम्बन्ध में भगवान् का प्रश्न खामख्वाह आने से
उसके लिए यही मौका मौजूँ भी था। ऐसा मौका फिर शायद ही आता। इसीलिए
उनने कहना शुरू किया कि-
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं
भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥11॥
मोघाशा
मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:॥12॥
मेरे विलक्षण,
निराले,
निर्विकार (तथा) सर्वोत्ताम स्वरूप को नहीं जान सकने के कारण ही
मूर्ख लोग मानव शरीरधारी मेरा तिरस्कार करते हैं-मुझे भगवान् नहीं
मानते हैं। (ये लोग) फिजूल आशाएँ बाँधते,
फिजूल
कर्म करते,
फिजूल
पढ़ते-लिखते (एवं) उल्टी समझ रखते हैं। (क्योंकि) भुलावे में डालने
वाली राक्षसी एवं आसुरी-राजसी एवं तामसी-प्रकृति-स्वभाव-से मजबूर
हैं।11।12।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥13॥
सततंर्
कीर्त्तयन्तो मां यतंतश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥14॥
हे पार्थ,
इनके
विपरीत दैवी-सात्विक-प्रकृतिवाले महात्माजन मुझे संसार का मूल कारण
मान के अनन्य मन से मुझी को भजते हैं। (वे लोग) सदा भक्तिपूर्वक दृढ़
संकल्प के साथ मेरार् कीत्तान करते हुए,
प्रकारान्तर से (भी) यत्न करते हुए और मेरा नमस्कार करते हुए निरन्तर
मुझी में लग के मेरे ही निकट पड़े रहते हैं-मेरी ही उपासना करते हैं।13।14।
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन
पृथक्त्वेन बहुधा
विश्वतोमुखम्॥15॥
दूसरे
(महात्माजन) ज्ञानयज्ञ से ही मेरी पूजा करते हुए उपासना करते हैं।
(यह ज्ञानयज्ञवाली उपासना तीन प्रकार की होती है-) एक ही परमात्मा के
रूप में,
भिन्न-भिन्न
पदार्थों के रूप में अनेक तरह की और विराट् के रूप में।15।
ज्ञानयज्ञ तो
बहुत ही व्यापक है। उसके भीतर सद्ग्रन्थों का पाठ भी आ जाता है,
जैसा
कि पहले कह चुके हैं। मगर यहाँ ज्ञानरूपी यज्ञ से ही अभिप्राय है। वह
तीन तरह का है। एक तो यही है कि समस्त जगत् अद्वितीय ब्रह्म से जुदा
नहीं है। और वह ब्रह्म मैं ही हूँ। इस प्रकार अपनी आत्मा ही सर्वत्र
नजर आती है। दूसरी कोई भी चीज नहीं। दूसरा यह कि जब पृथ्वी,
जल,
सूर्य,
चन्द्र
आदि पदार्थों को देखते हैं,
तो ये
पदार्थ नजर तो आते हैं। मगर इन सबों में भगवान् की और आत्मा की ही
भावना की जाती है। इस प्रकार बहुत रूप में भगवान् का अलग-अलग ख्याल
करके अभ्यास किया जाता है। या यों कहिए कि इनके रूप में ही अनेक
देवताओं की ही पूजा की जाती है। तीसरा यह कि समस्त जगत् भगवान् ही
है। इसमें जगत् को देखते हैं जरूर। मगर अलग-अलग चन्द्र,
सूर्यादि के रूप में नहीं। किन्तु भगवान् के रूप में ही। हरा चश्मा
लगाने पर पदार्थ नजर तो आते हैं। मगर सबका रंग एक ही हरा दीखता है।
इसमें और विराट् दर्शन में केवल इतना ही अन्तर है कि जहाँ चश्मेवाले
को पृथक्-पृथक् पदार्थ नजर आते हैं तहाँ विराट्दर्शी सभी पदार्थों को
एक ही विस्तृत वस्तु के रूप में देख के उनमें भगवान् की ही सूरत
देखता है। वे उसके इस काम में आईने का काम करते हैं। सब मिल के एक
आईना हैं जिनमें वह आत्मा-परमात्मा को देखता है। साथ ही,
आईने
को भी देखता है। पहले प्रकार के ज्ञानयज्ञवालों की नजर में
आईना-वाईना कुछ नहीं है। केवल आत्मा ही आत्मा है। यही दोनों में फर्क
है।
अब इसी
विश्वदर्शन,
ज्ञानयज्ञ या विराट्दृष्टि के प्रसंग से यह कहने का मौका आ गया कि
कौन-कौन से मुख्य-मुख्य पदार्थ भगवान् के रूप हैं। बेशक,
यहाँ
भी अधिक पदार्थों को नहीं गिनाया है। फिर भी पहले-सातवें अध्याय-की
अपेक्षा ज्यादा जरूर हैं। किन्तु सातवें से यहाँ जो सबसे बड़ी विशेषता
है वह यही है कि जब कि वहाँ पदार्थों के रस आदि को ही सत-सार-के रूप
में खींच के भगवान् का रूप बताया है,
तब
यहाँ वैसा न करके समूचे पदार्थों को ही उसका रूप कह दिया है। इस
प्रकार सातवें की अपेक्षा एक कदम आगे बढे हैं। एकाएक ऐसी भावना कठिन
थी,
असम्भव थी।
इसलिए पहले पदार्थों के निचोड़ से ही शुरू करके यहाँ ठेठ पदार्थों तक
पहुँच गये। यह ठीक है कि यहाँ भी गिने-चुने पदार्थ ही हैं फलत: कमी
रह जाती है जो आगे पूरी होगी। यहाँ पदार्थों को चुनने में यह
बुध्दिमत्ता की गयी है कि मामूली पदार्थ न ले के यज्ञ,
मन्त्र,
वेद,
¬कार
आदि ऐसे ही विलक्षण पदार्थों को लिया है। जिनके बारे में
ईश्वर-बुध्दि होने में कोई आनाकानी आमतौर से हो न सके। यदि प्रतिदिन
के प्रयोग के मामूली पदार्थ लिये जाते तो खामख्वाह अर्जुन को और
दूसरों को भी आश्चर्य होता कि ऐं,
यह क्या कह रहे हैं!
अहं
ऋतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधाम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं
हुतम्॥16॥
मैं ही क्रतु
हूँ,
मैं ही यज्ञ
हूँ,
मैं ही स्वधा
हूँ,
औषधियाँ
(यज्ञीय अन्नादि) मैं ही हूँ,
मन्त्र
मैं ही हूँ,
घी मैं
ही हूँ,
अग्नि मैं ही
हूँ, (और)
आहुति (भी) मैं ही हूँ।16।
ऋतु कहते हैं
वैदिक या श्रौत यज्ञयागों को। यज्ञ नाम है स्र्मात्ता यज्ञों या
कर्मों का। श्राध्दादि पितृकर्मों को स्वधा कहते हैं। पितरों के
कर्मों का भेद न करके देवताओं के कर्मों के ही दो भेद किए हैं-श्रौत
और स्र्मात्ता। श्रुतियों या वेदों में लिखे कर्म श्रौत कहे गये।
पीछे जब स्मृतियाँ और सूत्र-ग्रन्थ बने तो उनने जिन नये कर्मों का
प्रचार किया वही स्र्मात्ता कहलाए। यही मोटी पहचान दोनों की है। असल
में यज्ञयागादि करने वाले लोग पहले अग्नि को निरन्तर जलाये रखते थे।
वैदिक मन्त्रों से ही शुरू में उसकी स्थापना की जाती थी जिसे आधान
कहते थे। यही अग्नियाँ दो प्रकार की होती थीं-श्रौत और स्र्मात्ता।
इन्हीं में या इन्हीं से किये जाने वाले कर्म क्रमश: श्रौत और
स्र्मात्ता कहे गये। यही निचोड़ है। यह जरूरी नहीं है कि श्रुतियों
में कहे गए कर्म श्रौत अग्नि में ही हों,
न कि
स्र्मात्ता में। सूत्रग्रन्थ भी दो प्रकार के हैं-श्रौतसूत्र और
स्र्मात्तासूत्र। दर्शपूर्ण मासादि वैदिक यज्ञयाग श्रौतसूत्रों में
और विवाह,
श्राध्दादि
घर-गिरस्ती के कर्म स्र्मात्ता सूत्रों में पाये जाते हैं।
घर-गिरस्ती के सर्वसाधारण कर्म ही आमतौर से स्र्मात्ता कहे जाते हैं।
औषध या औषधि
का अर्थ दवा नहीं है।
'औषधय:फलपाकान्ता:'
कोष के
अनुसार जिनके फल पकने पर वह खुद भी पक और सूख जायें वही गेहूँ,
जौ आदि
के पौदे औषधि कहे जाते हैं। यहाँ औषधि का अर्थ है देवताओं तथा पितरों
के कर्मों में प्रयुक्त होने वाले अन्नादि।
पिताहमस्य जगतो माता
धाता
पितामह:।
वेद्यं
पवित्रमोंकार
ऋक् साम यजुरेव च॥17॥
मैं ही इस
जगत् के लिए पिता,
माता,
धाय
(पिलाने-खिलाने वाली,
जिसे
धाई भी कहते हैं) तथा पितामह-दादा-हूँ। जानने योग्य,
पवित्र
या शोधक पदार्थ,
¬कार,
ऋक्, साम एवं यजु: भी
मैं ही हूँ।17।
यहाँ ऋक् आदि
तीनों शब्द उन नामों वाले वैदिक मन्त्रों के ही हैं। जिन मन्त्रों
को गाते हैं। उन्हें साम कहते हैं। जिनके बारे में पिंगल और छन्दों
के नियम लागू हैं उन्हें ऋक् और जो इन दोनों के अलावे खिचड़ी जैसे हैं,
उन्हीं
को यजु: कहते हैं। साममन्त्र जिस मन्त्र संग्रह में ज्यादा या सभी थे
उसी को सामवेद,
ऋक्मन्त्रा जहाँ अधिकांश थे उसे ऋग्वेद और यजुर्मंत्र जिसमें
ज्यादातर थे उसे यजुर्वेद कहा गया। अथर्ववेद का संग्रह सबसे पीछे
हुआ। इसमें सभी तरह के छूटे-छुटाए मन्त्र संगृहीत हुए। यह एक तरह से
वेदों का परिशिष्ट है। त्रयी या तीन ही वेद कहने का भी यही आशय है।
आखिर मन्त्र भी तो तीन ही हैं। इन तीनों के अलावे तो मन्त्र होते ही
नहीं। मन्त्र शब्द उन्हीं का वाचक जो है।
वेद,
पवित्र
और ¬कार
ये तीन पदार्थ जुदे-जुदे हैं;
न कि
¬कार
के ही शेष दोनों विशेषण हैं। यद्यपि
¬कार
का उल्लेख सातवें
अध्याय
में ही हो चुका है;
तथापि वहाँ उसका
स्वतन्त्र
रूप न होके वेदों का निचोड़ ही उसे माना है। विपरीत उसके यहाँ
स्वतन्त्र
रूप में ही वह आया है और है यहाँ वह ब्रह्म का प्रतीक।
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।
प्रभव:
प्रलय: स्थानं निधानं
बीजमव्ययम्॥18॥
जहाँ पहुँचा
जाय वह,
पोषक,
स्वामी,
साक्षी,
सबका
आधार,
शरण,
सुहृद्
जिससे उत्पत्ति हो,
जिसमें
पदार्थ लीन हों या जा मिलें,
जिसमें
कायम रहें सभी चीजों या कर्मों का कोष और पदार्थों का निरन्तर कायम
रहने वाला बीज (भी मैं ही हूँ)।18।
सातवें
अध्याय का बीज मूल कारण के मानी में आया है। मगर यह बीज साधारण बीज
के ही अर्थ में है। बीज तो बराबर कायम रहता ही है। यदि वह न रहे तो
कोई पदार्थ पैदा कैसे हो
?
इसीलिए उसे अव्यय या निरन्तर कायम रहने वाला कह दिया है। गति का अर्थ
है जहाँ तक जाया जाय या गन्तव्य स्थान और लक्ष्य।
तापम्यहमहं वर्ष निर्गृह्णाम्युत्सृजामि
च।
अमृतं
चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥19॥
हे अर्जुन,
मैं ही
(सूर्य की किरण के रूप में) तपता हूँ,
वृष्टि
या जल को रोक रखता और जमा करता हूँ और वर्षता भी हूँ। अमृत,
मृत्यु,
सत् और
असत् भी मैं ही हूँ।19।
यहाँ
पूर्वार्ध्द में सूर्य का ही तीन रूपों में वर्णन है। सूर्य की
किरणें तीन प्रकार की होती हैं। एक तो तपने वाली जो जल को ऊपर उठाती
या खींचती हैं। दूसरी उसे जमा करके मेघ का रूप देने वाली और तीसरी
उसे बरसाने वाली। यह बात श्लोक में लिखी है। संसार के कुछ पदार्थ अमर
हैं और शेष मरने वाले। ये दोनों ही जिन पदार्थों या विशेषताओं के
करते ही ऐसे बने हैं उन्हीं को अमृत और मृत्यु कहा है। सत्-असत् का
अर्थ है स्थूल-सूक्ष्म या कार्य-कारण। सूक्ष्म पदार्थ दीखते नहीं।
इसी से ख्याल होता है कि वे नहीं हैं,
असत्
हैं। इसी प्रकार कार्य बन जाने पर कारण की स्वतन्त्र सत्ता मालूम
पड़ती ही नहीं। इसीलिए पुराने लोगों ने कारणको ही असत् भी कहा है। वह
लापता सी चीज होती है। उसे ही ढूँढ़ते भी हैं। कार्य तो सामने ही होते
हैं।
इस प्रकार इन
चार श्लोकों में विभिन्न रूप से मुख्य-मुख्य पदार्थों को परमात्मा का
रूप गिना दिया। इस प्रकार अनेक रूप से उसके चिन्तन एवं ज्ञानयज्ञ के
साथ इसका मेल भी हो गया और ज्ञान-विज्ञान के सम्बन्ध में एक सीढ़ी आगे
बढ़ भी गये। मगर इस विभिन्नता के ख्याल,
इस तरह
के ज्ञानयज्ञ या इस आगे की सीढ़ी का असली प्रयोजन यह विभिन्नता तो है
ही। इसके द्वारा तो दरअसल विश्वव्यापी एकता,
एकरसता
तथा अद्वैत की ही ओर बढ़ना और अन्त में वहाँ पहुँच के टिक जाना ही
लक्ष्य है। इसलिए जिनकी दृष्टि इस लक्ष्य से,
और
इसीलिए एकत्वरूपी ज्ञान यज्ञ से भी,
विचलित
हो के इस अनेकता में फँसती है वह चूक जाते हैं,
यह बात
सदा याद रखने की है। चूकने वाले भी दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे
जो विभिन्न पदार्थों में एक भगवान् की ही भावना करते हैं। उनकी चूक
यही है कि अनेक पदार्थों को भी देखते हैं। फिर भी उनने रास्ता पकड़
लिया है। फलत: कुछ विलम्ब से असली जगह पर ही जा पहुँचेंगे। यह ठीक है
कि उनसे भी पहले विराट्दर्शी पहुँचेंगे। क्योंकि वे इनसे कुछ आगे जो
हैं। वे अलग-अलग पदार्थों को देखते तो नहीं। हाँ आईने की तरह जगत् को
एक देखते हैं। इसीलिए सचमुच उनके सामने दोई रह गये-आत्मा या परमात्मा
और आईना। विपरीत इसके पहलेवालों के सामने तो अनन्त पदार्थ चट्टान की
तरह पड़े हैं। इन सबों को तोड़ के इनकी ही तरह एक करना है,
राजमार्ग बनाना है। इसमें परेशानी तो होगी ही। समय भी लगेगा। फिर भी
ये दोनों ही आगे-पीछे लक्ष्य पर पहुँचेंगे ही। फिर तो सर्वत्र उन्हें
आत्मा ही दीखेगी। इसीलिए इनके बारे में चिन्ता नहीं की गयी है।
मगर जो चूकने
वाले दूसरे प्रकार के हैं,
वह
जगत् के विभिन्न पदार्थों में या तो विभिन्न देवताओं की भावना करते
हैं,
या इन्हीं
पदार्थों से किन्हीं इन्द्र,
महेन्द्रादि देवताओं का ही यजन-पूजन करते हैं। ये दोनों ही लक्ष्य से
बहुत दूर चले जाते हैं। इसीलिए इन्हें कष्ट भी भोगने पड़ते हैं।
इन्हीं दोनों की दुर्गति की बात आगे के क्रमश:
20, 21
तथा
23-25
श्लोकों में
कही गयी है। इनमें भी इन्द्रादि की पूजा करने वाले तो और भी नीचे हैं;
क्योंकि वे काल्पनिक देवताओं को मान के निरे खयाली संसार में ही
विचरते और स्वर्गादि के सुख चाहते हैं। विपरीत इनके दूसरे ऐसे हैं जो
दृश्य पदार्थों को ही भगवान् न मान के उसकी जगह देवताओं की ही भावना
करते हैं। वे भूले तो हैं जरूर। मगर उनका संसार निरा खयाली नहीं।
उपनिषदों में ऐसों का उल्लेख बहुत आया है। इसीलिए वे कुछ ऊँचे हैं।
यही कारण है कि शुरू के दो श्लोकों में पहले लोगों की बातें कह के और
प्रसंग से बीच के
22वें
में असली लक्ष्य की याद दिला के पुन: तीन श्लोकों में दूसरे लोगों की
गाथा सुनातेहैं।
त्रौविद्या मां सोमपा: पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं
प्रार्थयन्ते।
ते
पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥20॥
ते तं
भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं
त्रायीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते॥21॥
तीनों वेदों
में बताये कर्मों के जानने वाले (लोग) यज्ञों के द्वारा मेरा पूजन
करके सोमलता का रस पीते (और इस तरह) पापरहित हो के स्वर्ग-प्राप्ति
की प्रार्थना करते हैं। वे इन्द्र के सुन्दर लोक-स्वर्ग-में जा के
वहाँ देवताओं के दिव्यभोगों को भोगते हैं। (पीछे) वही लोग उस विशाल
स्वर्ग के भोगों को भोग चुकने के बाद (अपना) पुण्य पूरा हो जाने पर
(पुन:) मर्त्यलोक में ही आ धमकते हैं। तीनों वेदों में बताये धर्मों
के करने वाले भोगेच्छक लोग इसी तरह आवाजाही जारी रखते हैं।20।21।
यहाँ सोमपा
शब्द का अर्थ है सोमरस के पीनेवाले। असल में वैदिक यागों में से यहाँ
एक का उल्लेख नमूने के तौर पर ही हुआ है। ज्योतिष्टोम नामक वैदिक याग
स्वर्ग के ही उद्देश्य से किया जाता था। इसमें प्रधान पदार्थ सोमलता
ही मानी जाती थी। घी आदि की जगह प्रधान आहुति इसी लता के रस की दी
जाती थी। ऐसा माना जाता है कि बर्फानी प्रदेश में ही यह लता होती है।
उसे मँगवा के पत्थरों से कूटते और रस निचोड़ते थे। उसी रस से देवताओं
के लिए आहुतियाँ दे के बचे-बचाये या यज्ञशिष्ट रस को यजमान वगैरह
पीते थे। इसीलिए
'सोमपा:'
शब्द
आया है। इस प्रकार बड़े से भी बड़े वैदिक यज्ञयागादि का परिणाम यही
आना-जाना ही तो है।
विपरीत इसके
जो अनन्य भाव से आत्मचिन्तन में लग जाते हैं वह न सिर्फ इस आवाजाही
और जन्म-मरण के चक्र से ही बचते हैं;
बल्कि
इस संसार में भी उन्हें किसी पदार्थ की कमी नहीं रहती है। अत: उसके
मुकाबिले में यह कितनी ऊँची चीज है-''यह
ज़वाल और यह जलाल''!
इसीलिए
उसके साथ इसका कोई भी मुकाबिला नहीं हो सकता है। यही बात प्रसंग से
अगले श्लोक में कह के फिर वही बात चालू करते हैं-
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां
नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥22॥
जो भक्तजन
अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं,
मुझमें
ही निरन्तर लगे रहने वाले उन लोगों का योगक्षेम मैं (खुद) करता हूँ।22।
जो आवश्यक
पदार्थ अप्राप्त हों उन्हें जुटाना योग है। जुटने पर उनकी हिफाजत को
क्षेम कहते हैं।
येऽप्यन्यदेवता भक्तायजन्ते श्रध्दयान्विता:।
तेऽपि
मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥23॥
हे कौन्तेय,
अन्य
देवताओं के भी जो भक्तजन श्रध्दा से उनका यजन करते हैं वे भी यजन तो
मेरा ही करते हैं। (फर्क यही है कि) विधिपूर्वक या उचित रीति से नहीं
करते।23।
अहं हि
सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु
मामभिजानन्ति तत्तवेनातश्चयवन्ति ते॥24॥
क्योंकि सभी
यज्ञों का भोगनेवाला-उनके द्वारा आराध्य देवता-और फलदेनेवाला भी मैं
ही हूँ। लेकिन वे मुझे यथार्थ रूप में जानते ही नहीं। इसी से चूक
जातेहैं।24।
यान्ति
देवव्रता देवान् पितृन्यांति पितृव्रता:।
भूतानि
यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥25॥
(बात
यों है कि) देवताओं के व्रत-पूजन करने वाले उन्हीं तक पहुँचते हैं।
पितरों के व्रतवाले उन तक,
भूतों
के पूजक भूतों तक और मेरे पूजक मुझ तक भी पहुँचते हैं।
25।
यहाँ
'अपि
माम्'
में अपि
'को
माम्'
के बाद ही लगा
के अर्थ करना ठीक है जैसा कि
'यान्ति
मामपि' (7।23)
में
किया गया है। वहाँ तो वैसा हुई। मगर यहाँ भी अभिप्राय वही होने के
कारण अर्थ भी वही होना चाहिए। इसी प्रकार जो
'तत्तवेन'
शब्द
24वें
में आया है उसका तात्पर्य यही है कि अन्य देवताओं के रूप में भगवान्
के पूजने वालों को भगवान् का तत्तवज्ञान-यथार्थ ज्ञान-नहीं होता। इसी
से वे चूकते हैं,
उनका
पतन होता है। कारण्,
तत्तवज्ञान या आत्म रूप से भगवान् का साक्षात्कार ही असल चीज है।
'त्रौविद्या'
और
'येऽप्यन्य'
श्लोकों में-दोनों ही जगह-'माम्'
आया
है। इससे स्पष्ट है कि दोनों ही प्रकार के लोग एक ही श्रेणी के हैं।
इनमें जो फर्क है वह बताया जा चुका है। श्रध्दा का उल्लेख होने से यह
सिध्द हो जाता है कि उसके बिना जो कुछ किया जाता है वह बेकार है।
इस प्रकार
चूके तथा पथभ्रष्ट लोगों की दशा का वर्णन करने का फल यह होता है कि
जो लोग आत्मज्ञान और भगवान् के मार्ग पर चलते हैं और जिनका वर्णन
'अनन्याश्चिन्तयन्त:'
तथा
इससे पूर्व के 'एकत्वेन
पृथक्त्वेन'
श्लोक
में आया है उनकी ओर बलात् ध्यान आकृष्ट हो जाता है। प्रयोजन भी इस
निरूपण का यही है। बिना धूप में जले छाया का महत्तव या शीतल जल का
पूरा स्वाद नहीं मिलता है। फलत: पुनरपि उसी मुख्य विषय पर आ गये।
जैसा कि कहा गया है,
उस
उचित मार्ग पर चलने वाले भी कई तरह के लोग होते हैं। इसलिए यह बताना
जरूरी हो गया कि उसके द्वारा आत्मसाक्षात्कार या सर्वत्र
आत्मा-परमात्मा के ही दर्शन की दशा में कैसे पहुँचा जाता है। उन
विभिन्न दर्शियों के दो विभाग करके पहले का काम घृत,
सोम
आदि के द्वारा इन्द्रादि देवताओं के रूप में-न कि स्वतन्त्र रूप
से-भगवान् का पूजन कहा गया है। दूसरे का सीधे भौतिक पदार्थों को ही
भगवान् की जगह देवता के रूप में पूजन की बात बताई गयी है। ठीक उसी
प्रकार यहाँ भी विभिन्न-दर्शी लोगों को दो दलों में बाँट के पहले का
काम पत्र,
पुष्पादि के
द्वारा स्वतन्त्र रूप से भगवान् का पूजन बताया गया है। दूसरे के बारे
में सभी कामों को भगवान् की पूजा ही मान लेने और उसी भाव से उन्हें
करने की बात कही गयी है। असल में भगवान् की ओर बढ़नेवाले लोगों में
पहला दल तो सभी पदार्थों को अलग-अलग मानता ही है। इसीलिए वह पत्र,
पुष्पादि से ही पूजन करता है। हाँ,
जब
दूसरा दल सभी पदार्थों को एक करके आत्मा-परमात्मा का आईना मानता है
तो यह उचित ही है कि वह जो कुछ भी करे उसे भगवान् की पूजा ही माने।
26वें
श्लोक में पहले दल की और उसके बाद के डेढ़ श्लोकों में दूसरे की बात
कह के 28
वें के
उत्तारार्ध्द में उसका फल संन्यास और उसके द्वारा आत्मसाक्षात्कार के
फलस्वरूप मुक्ति ही बताई गयी।
पत्रां
पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं
भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥26॥
जो (श्रध्दा)
भक्ति से मुझ परमात्मा को पत्तो,
फूल,
फल
(या) जल अर्पण करता है,
मन पर
काबू रखने वाले उस मनुष्य की भक्तिपूर्वक भेंट को मैं स्वीकार करता
हूँ।26।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥27॥
हे कौन्तेय,
जो दान,
यज्ञ,
योग,
तप,
या और
भी कोई काम करते हो वह सब कुछ मुझी को अर्पण करो-सब कुछ मेरी ही पूजा
मानो।27।
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धानै:।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥28॥
इस प्रकार
कर्मों से उत्पन्न और उन्हीं में पुन: मनुष्यों को जोड़ने वाले
बुरे-भले फलों से तुम्हारा पिण्ड छूट जायगा। (उसके बाद क्रमश:)
संन्यास मूलक योग या समाधि में अपने मन को लगा के तुम मुक्त होगे।
(और इस तरह) हमें प्राप्त कर लोगे।28।
समोऽहं
सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये
भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥29॥
(यद्यपि)
मैं सभी पदार्थों में एकरस हूँ (और इसीलिए) न मेरा कोई शत्रु है न
मित्र, (तथापि)
जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं वे मुझमें और मैं उनमें हूँ।29।
यहाँ
28वें
श्लोक में 'कर्मबन्धानै:'
पद के
दो अर्थ हैं और दोनों का परस्पर सम्बन्ध है। कर्मों से फलों का बन्धन
है,
ताल्लुक है।
अर्थात् कर्मों से फल पैदा होते हैं। इसी के साथ फलों से भी कर्मों
का बन्धन या ताल्लुक है। क्योंकि फलों के भोगने पर कर्मों में चस्का
पैदा हो जाता है और जी चाहता है कि ऐसे ही कर्म और भी करें। मगर
भगवान् के अर्पण करने पर तो यह कोई भी बात नहीं होती। फलत: मन की
शुध्दि हो जाने से कर्मों का स्वरूपत: संन्यास होता है। अनन्तर समाधि
में लग जाने पर आत्म-दर्शन हो के मुक्ति मिल जाती है।
इस पर यह
ख्याल हो सकता है कि जब भगवान् सर्वत्र एकरस है और उसके लिए न तो
कोई अपना है,
न
पराया,
तो फिर यह
क्या कि ज्ञानीजन उसे प्राप्त कर लेते हैं और दूसरे नहीं
?
उसके सम्बन्ध
में यह क्या बखेड़ा है
?
वह तो सभी को
प्राप्त ही है। क्योंकि सभी जगह मौजूद है। इसीलिए प्राप्त करने या
पहुँचने की भी कोई बात नहीं हो सकती है। ऐसी दशा में भक्तजनों का उस
तक पहुँचना भी कुछ उल्टी-सी बात लगती है।
इसका सीधा और
स्पष्ट उत्तर 29वाँ
श्लोक देता है। कोई बढ़ई दिन भर बीसियों गृहस्थों के घर जा-जा के उनका
काम करता रहा। फिर कुछ दिन रहते ही फुर्सत पा के घर चला। जाड़े के दिन
थे। इसीलिए कन्धो पर अपना बसूला रख के ऊपर से उसने दोहर डाल ली थी।
घर के नजदीक पहुँची रहा था कि एकाएक ख्याल आया कि ऐं,
बसूला
क्या हो गया ?
मैं
उसे कहाँ छोड़ आया
?
बस,
उलटे
पाँव लौट पड़ा,
सभी
जगह दौड़ता फिरा और पूछ-ताछ करके हार गया पर बसूला मिल न सका। लाचार
मनहूस मन से घर वापस चला। पहुँचते ही दरवाजे पर जलती धूनी के पास
गया। जाड़े की शाम तो थी। इसी से आग की जरूरत भी थी। आग के पास उदास
बैठा ही कि बच्चे ने पूछा कि पिताजी,
आज
उदास क्यों हैं ?
उत्तर
मिला कि क्या कहें
? जाने
कहाँ बसूला ही खो गया और कमाने का आधार वही एक था! बच्चा इस पर कहता
ही क्या ?
थोड़ी
देर बाद आग की गर्मी से देह में गर्मी आने पर जो उसने दोहर उतार के
रखनी चाही तो बसूला हाथ लग गया! अब तो उसकी खुशी का ठिकाना न था!
उसने कहा,
धत्तोरे की!
बसूला तो पास ही था और मैं दौड़ता फिरा! बस,
यही
बात परमात्मा और आत्मा के मिलने-न मिलने की भी समझिए।
नौवें अध्याय
में जो कुछ कहना था,
यहीं
पूरा हो गया। फिर भी अभी पाँच श्लोक रह जाते हैं। उनमें कोई नयी बात
नहीं कही गयी है। किन्तु जो लोग किसी भी हालत में इस तरफ कदम बढ़ाते
है उन्हीं के लिए प्रोत्साहन उन श्लोकों-का विषय है। अभी-अभी
27वें
श्लोक में जो यह कहा गया है कि खाने-पीने,
भोगराम
या दूसरे भी कामों को भगवान् को ही अर्पण कर दो,
वह तो
बहुत व्यापक चीज है। ऐसा होने पर तो बुरे से बुरे कर्म इसी श्रेणी
में चले आ सकते हैं। तो क्या यह ठीक और मुनासिब होगा कि ऐसे कर्मों
को भी भगवान् को अर्पण किया जाय
?
यदि हाँ,
तो फल
क्या होगा ?
यही न,
कि ऐसे
दुष्कर्मी लोग भगवान् की अन्य प्रकार की पूजा का नाम न लेंगे-उसी का
जिसे लोग सचमुच पूजा मानते हैं
?
फलत: यह तमाशा,
नाटक
और प्रवंचना के अलावे दूसरा कुछ न माना जाना चाहिए। यह बहुत मोटी बात
है और आमतौर से सभी लोग इसे बखूबी समझते हैं। फिर भी आश्चर्य है कि
ऐसी बात न सिर्फ कही गयी है,
बल्कि
उसका ऊँचे से भी ऊँचा फल बताया गया है। इसी का उत्तर आगे के चार
श्लोक इस तरह देते हैं-
अपिचेत्सुदुराचारोभजतेमामन्यभाक्।
साधुरेव
स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥30॥
क्षिप्रं भवति
धर्मात्मा
शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय
प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥31॥
मां हि
पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥32॥
किं
पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥33॥
अगर पक्का
दुराचारी भी हो,
फिर भी
मुझ परमात्मा को अनन्य भाव से भजे,
तो उसे
साधु ही मानना होगा। क्योंकि (अब तो) उसका व्यवसाय उचित ही है।
(इसलिए) शीघ्र ही वह धर्मात्मा हो जाता है। (और धीरे-धीरे उक्त रीति
से) अखण्ड शान्ति-मुक्ति-बखूबी प्राप्त कर लेता है। हे कौन्तेय,
मन में
बिठा लो कि मेरे भक्त की दुर्गति कभी होती ही नहीं। हे पार्थ,
(यहाँ
तक कि) जो नीच एवं दूषित योनिवाले स्त्री,
वैश्य
और शूद्र भी हैं वे भी मेरा आश्रय ले के (क्रमश:) परम गति हासिल कर
लेते हैं। तो फिर पुण्यजन्मा ब्राह्मणों तथा क्षत्रिय भक्तों का क्या
कहना ? (इसलिए)
इस सुख से रहित और चन्द्ररोजा शरीर को पा के मुझी को भजो।30।31।32।33।
इन चार
श्लोकों में पहले में जो अनन्य भाव से भजने की बात कही गयी है वह ठीक
वही है जो 'यत्करोषि'
में
कही गयी है। 32वें
के 'मां
व्यापाश्रित्य'
का भी
कम-बेश वही आशय है। यह ठीक है कि ऐसे लोग एकाएक वैसा कर नहीं सकते।
इसीलिए 'भजते'
का
अर्थ है भजन का यत्न करता है-उस ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाता है। श्रध्दा
से उस ओर बढ़ने से ही रास्ता साफ होने लगता है। क्योंकि यदि पूरा बढ़
जाय तो अत्यन्त दुराचारी-सुदुराचार: कहने के कुछ मानी नहीं रह जाते।
फलत: 'सम्यग्व्यवसित:'
में कह
दिया है कि उसका यह व्यवसाय,
यह
उद्योग उचित ही है। वह उद्योग और यत्न करता है यही आशय है। जल्द ही
धर्मात्मा होने की भी बात इसीलिए कही गयी है,
जिससे
स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा करने के कुछ समय बाद उसका दुराचार
धीरे-धीरे बन्द हो के वह धर्मात्मा बनता है,
होता
है। मगर शुरू से ही अनन्य भक्त हो जाने पर तो इसकी जरूरत हुई नहीं।
बिना धर्मात्मा हुए अनन्य भक्त कैसा
? यदि
अजामिल आदि की जैसी बात कहें,
तो भी
ठीक नहीं। क्योंकि अजामिल दुराचारी भले ही रहा हो। मगर सुदुराचार या
अत्यन्त दुराचारी हर्गिज न था। हम तो उसे प्राय: धर्मव्याध जैसा ही
मानते हैं। 'न
मे भक्त: प्रणश्यति'
का भी यही तात्पर्य है कि मेरी तरफ भावना करके जो भी थोड़ा-बहुत किया
जाता है वह कभी नष्ट नहीं होता। किन्तु धीरे-धीरे सूद के साथ बढ़ता
है।
बत्तीसवें और
तैंतीसवें श्लोक में स्त्रियों,
वैश्यों और शूद्रों को पापयोनि या छोटा और ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों
को पुण्यजन्मा कहा है। क्योंकि
'पापयोनय:'
के
विपरीत 'पुण्या:'
शब्द
ब्राह्मणों एवं राजर्षियों-क्षत्रियों-दोनों ही-का विशेषण है। देखने
से यही उचित भी प्रतीत होता है।
'भक्ता:'
भी
दोनों ही के लिए आया है। इससे सिध्द हो जाता है कि गीता और महाभारत
के समय हमारी वर्णव्यवस्था न तो आज जैसी थी और न जैसी शुरू में थी
वैसी भी थी। आज तो ब्राह्मणों को ही ऊँचा स्थान प्राप्त है। क्षत्रिय
उनसे नीचे हैं। इसी प्रकार वैश्यों का स्थान शूद्रों से ऊँचा है। आज
इन्हें पाप-योनि तो हर्गिज नहीं मानते,
यद्यपि
स्त्रियों को दुर्भाग्य से ऐसा ही मानते हैं। यहाँ गीता में ब्राह्मण
एवं क्षत्रिय तथा वैश्य एवं शूद्र को समकक्ष कह दिया है। चौथे
अध्याय में जो 'राजर्षयो
विदु:'
कहा है उससे
भी क्षत्रियों का दर्जा यदि ऊँचा नहीं तो ब्राह्मणों के समकक्ष तो
सिध्द होई जाता है। विपरीत इसके शुरू में चारों वर्णों को शरीर के
चार अंगों की जगह मान के यह दिखाया था कि यह वर्ण-विभाग और कुछ नहीं,
केवल
समाज-के संचालनार्थ कामों का बँटवारा है। इसमें ऊँच-नीच का प्रश्न
नहीं। प्रत्युत चारों की अपने-अपने स्थान पर समान ही उपयोगिता है।
हमने यही बात पहले लिखी भी है। लेकिन गीता पहले दो को श्रेष्ठ और शेष
दो को कनिष्ठ-नीचे कहती है!
छान्दोग्य और
वृहदारण्यक उपनिषदों की पंचाग्नि विद्यावाली बात लिखते हुए हमने पहले
बताया है कि उस जमाने में क्षत्रियों का दर्जा ब्राह्मणों के समकक्ष
जैसा ही था,
अगर
ऊँचा न भी था। कम से कम ब्राह्मणों का यह दावा तब तक न हो पाया था कि
सब विद्याएँ वही जानते हैं और उन्हीं से संसार को सीखनी होंगी,
सीखनी
चाहिए,
जैसा कि
मनुस्मृति में लिखा है कि
'एतद्देशप्रसूतस्य
सकाशादग्रजन्मन:। स्वं स्वं चरित्रांशिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:'
(2।20)।
इसलिए यह मानने की काफी गुंजाइश है कि ब्राह्मण ग्रन्थों एवं प्रधान
उपनिषदों के समय से मिलता-जुलता ही समय गीता का है। या यों कहिए कि
वही समय महाभारत का है। उपनिषदों की जब खूब प्रधानता थी तभी गीता
बनी। इसीलिए न सिर्फ उपनिषदों को बातें इसमें रूपान्तर से बहुत
ज्यादा आयीं;
बल्कि
इसकी सर्वमान्यता के ही ख्याल से इसे भी रूपान्तर में उपनिषद् ही
कहना पड़ा। नहीं तो उपनिषदों के सामने इसे कौन पूछता
?
यह तो नियम ही
है कि जिसकी चलती बनती है उसके ही पीछे चलने से काम बनता है। पीछे तो
उपनिषदों को भी लोग भूल से गये। मगर यह विषय स्वतन्त्र रूप से
विचारने का है। यहाँ तो यों ही प्रसंग से थोड़ा सा इशारा कर दिया है।
आगे के अन्तिम
श्लोक में इस अध्याय का उपसंहार कुछ इस तरह करते हैं कि जो बातें
प्रधान रूप से,
लक्ष्य
के रूप में,
कही
गयी हैं। वे इसमें आ जाये-
मन्मना
भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥34॥
हमीं में मन
लगाओ,
हमारे ही भक्त
हो जाओ,
हमारा ही यज्ञ
करो (और) हमारा ही नमस्कार करो। इस प्रकार हमीं को सब कुछ समझते हुए
हमीं में मन को जोड़ देने से हमीं को प्राप्त हो जाओगे।34।
बेशक,
इस
श्लोक को जाहिर तौर पर देखने से तो यही पता लगता है कि पूर्ण पहुँचे
हुए ज्ञानीजनों की ही बात इसमें है। मगर इतने अधिक विशेषण भक्तजन के
पीछे लगे हैं कि सन्देह पैदा करते हैं। भगवान् का यजन करे,
उसे
नमस्कार करे और इसी के साथ मन को उसमें एकबारगी जोड़ दे,
यह बात
समझ में आती नहीं। मन को उसी में बाँध देने का तो अर्थ ही है कि शेष
क्रियाएँ बन्द हो जायँगी। और अगर दोनों ही तरह की क्रियाएँ चलेंगी तो
'मन्मना:',
'मद्भक्त:'
और
'आत्मानं
एवं युक्त्वा'
इन तीन
विशेषणों की सफलता कैसे होगी
? तब
तो एक ही से काम चलेगा। तीनों के देने का तो प्रयोजन ही है-खासकर जब
उन्हीं के साथ 'मत्परायण:'
भी जुट
जाता है-कि चौबीसों घण्टे आत्मा-परमात्मा में ही डूबा हुआ मस्त पड़ा
है। इसीलिए हम इस श्लोक का यही आशय मानते हैं कि नमस्कार,
यजन
आदि के जरिए धीरे-धीरे उस अन्तिम दशा में पहुँचने को लक्ष्य करके ही
यह लिखा गया है। फलत: नौवें अध्याय में जो कई प्रकार के विवेकी जन
'एकत्वेन'
आदि के
द्वारा कहे गये हैं वे सभी इसमें आ जाते हैं।
इस अध्याय
में केवल एक ही बार सम शब्द आया है। वह समदर्शन के ही ढंग की बात का
सूचक है,
जैसा कि
'निर्दोषंहि
समं ब्रह्म' (5।19)
में
है। 7-8
अध्याय में तो यह आया ही नहीं है।
इति श्री.
राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽधयाय:॥9॥
श्रीमद्भवद्गीता के रूप में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका
राजविद्या राजगुह्य नामक नौवाँ अध्याय यही है॥9॥
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