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सहजानंद समग्र/ खंड-3

 Swami Sahajanand Saraswati
स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-3 (गीता हृदय)

दूसरा-गीता भाग : दसवाँ अध्याय

मुख्य सूची खंड - 1 खंड - 2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6


दसवाँ अध्‍याय

 सातवें अध्‍याय में जिस ज्ञानविज्ञान का आरम्भ हुआ था वही नौवें के अन्त तक चलता आया है। मगर यह निरूपण केवल आंशिक और संकुचित रूप में ही हुआ है, यह हमने पहले ही बता दिया है। इसका कारण भी समझा दिया है। ठीक ही है, इतने गहन और गूढ़ विषय का, जिसके बारे में कृष्ण ने कह दिया है कि यह बात इस लम्बी मुद्दत में लुप्त हो गयी है, 'योगो नष्ट: परन्तप:' (42), एकाएक विस्तृत निरूपण करना अर्जुन को और दूसरों को भी चकाचौंध में डालना हो जाता। फलत: इसका बखूबी समझना और भी असम्भव बन जाता। क्योंकि लोग चटपट कह बैठते कि यों ही जानें क्या-क्या अण्ट-सण्ट बके जाते हैं। जो अक्ल में समाता ही नहीं। इतना ही नहीं, तब तो इससे लोगों को एक प्रकार की अश्रध्दा ही हो जाती। इसीलिए धीरे-धीरे प्रवेश कराते-कराते कृष्ण ने अर्जुन के मन में चस्का और लगन पैदा करने के साथ ही इस गहन विषय में उसकी बुध्दि के प्रवेश का रास्ता भी साफ कर दिया। अर्जुन को अब इसमें वह कठिनाई नहीं प्रतीत होती थी जो पहले दीखती थी। उसका मन भी इधर झुकता नजर आया। यह बात दसवें अध्‍याय के पहले ही श्लोक के 'प्रीयमाणाय' शब्द से प्रकट हो भी जाती है। इसीलिए उसी श्लोक में कृष्ण ने साफ ही कह दिया कि अभी और भी मेरी मजेदार और महत्तवपूर्ण बातें सुनो ''भू य एव महाबाहो शृणु मे परमं वच:''

    एक बात और भी है। कहा जा सकता है कि भगवान् से इस जगत् के बनने की बात तो लुप्त हुई नहीं है। जिस योग के लोप होने  की बात चौथे अध्‍याय में कही गयी है उसके भीतर तो इसके सिवाय दूसरी अनेक बातें भी हैं और उन्हीं का विलोप हो जाने से वहाँ मतलब हो सकता है। फिर भी यह तो ठीक ही है कि जिस चीज को भगवान् खुद कहेंगे वह जितनी खूबी तथा आसानी से जानी जा सकेगी वैसी दूसरों की जबानी हर्गिज नहीं। आखिर इस चीज के करने वाले, इस लीला के फैलाने वाले और मूल कारण तो वही हैं न  ? यह नाटक तो भगवान् का ही फैलाया हुआ है न  ? इसीलिए इसका कच्चा चिट्ठा, इसकी हकीकत जितनी वह जानेंगे उतनी और कोई क्या जानेगा  ? क्योंकि वह तो उन्हीं से या दूसरों से ही सीख-सुन के जानेगा और कहेगा न  ? फिर उसके कहने में वह मजा कैसे आयेगा जो ठेठ भगवान् के कहने में ? दूसरे ऋषि-मुनि या उपदेशक तो उसके ही बनाये हुए हैं न ? फिर यह कैसे आशा की जाय कि वे रत्‍ती-रत्‍ती बातें बखूबी जान सकेंगे ? और जो भी जानें वे भी उस तरह कैसे समझा सकेंगे ? ऐसे तो विरले ही हो सकते हैं जिन्होंने आत्मज्ञान के द्वारा इन सभी चीजों का साक्षात्कार कर लिया हो। क्योंकि 'मनुष्याण् सहस्रेषु' (73) की भी बात तो आखिर इसी सिलसिले में कही गयी है। और अगर किसी बिरले माई के लाल ने ऐसी योग्यता भी प्राप्त की तो भी उसका मिलना आसान तो नहीं है। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि भगवान् स्वयमेव सारी दास्तान सुनाएँ। जब उन्हीं की कृपा से विवेक आदि सद्गुण औरों को मिलते हैं, जिससे वे ये बातें जान के दूसरों को भी जनायें; मन, इन्द्रिय आदि को काबू में करके पहले इस विषय को अच्छी तरह स्वयं देख लें अनन्तर दयार्द्र हो के अन्यों को भी बतायें, तो क्यों न भगवान् से ही यह चीज जानी जाय ? दसवें अध्‍याय के कुल 42 श्लोकों में जो शुरू के पूरे अठारह श्लोक इन्हीं बातों के कहने में खत्म हुए हैं उसका यही रहस्य है।

    उनमें भी पहले पूरे ग्यारह श्लोकों में स्वयं कृष्ण ने इस विषय की गहनता के ख्‍याल से ही सब कुछ कहा है और बताया है कि इसे बिरले ही जानते हैं, सो भी मुझ भगवान् की ही अनुकम्पा से। तभी तो जो अर्जुन चुप बैठा था उसे एकाएक ख्‍याल हो आया है कि ओहो, जब ऐसी बात है तब तो मुझे खुद कृष्ण से ही अनुरोध करना चाहिए कि वे स्वयमेव ये बातें बतायें और कहें किस प्रकार उनने यह विश्व का नाटक फैलाया है। कहीं ऐसा न हो कि मेरी इस चुप्पी का कुछ और भी अर्थ लगा के या तो इसे कतई छोड़ ही दें, या अगर सुनायें भी तो उस विस्तार के साथ नहीं जिसकी जरूरत है और उस मनोयोग से भी नहीं जिसके करते विषय में जीवन आ जाता है। इतना ही नहीं। आगे तो कृष्ण को ही इस 'कह सुनाऊँ' के बाद ही 'कर दिखाऊँ' भी करना था। तभी तो दिल में यह बात जा के बैठ सकती थी। इसलिए जब खुद ही वह कहेंगे तो दिखाने या प्रयोग करने में भी न तो हिचकेंगे और न आधो मन से उसे करेंगे ही। इसीलिए उसने जोर दिया कि नहीं-नहीं, महाराज, आप ही कृपा कीजिए और सुनाइए। उसके भीतर विषाद के करते जो गड़बड़ पैदा हो गयी थी उसी के चलते जानें कितनी ही बातें भूल ही गयी थीं। उन्हीं में कुछ एकाएक अब याद भी हो आयीं। इसीलिए  तो जहाँ पहले उसने कृष्ण के बारे में कहा था कि आप तो अभी पैदा हुए हैं; फिर यह कैसे मानूँ कि सृष्टि के आदि में आपने विवस्वान से यही बातें कही थीं; तहाँ अब उसने यह भी कह दिया कि हाँ, हाँ, भगवन्, आपके बारे में बड़े-बड़े महर्षियों से भी सुना था वही, जो आप खुद कह रहे हैं! क्षमा करें, मेरी बुध्दि ही जानें क्या हो गयी थी कि कुछ याद ही नहीं पड़ता था! आपकी महिमा तो अपरम्पार है, इसमें कोई शक नहीं है। यह भी नहीं कि यह आपकी प्रशंसामात्र है। यह तो वस्तुस्थिति है। इसलिए अब तो आपको अपनी लीला सुनानी ही होगी, चाहे जो कुछ हो जाय।

    इसके बाद तो भगवान् के लिए कोई चारा ही न था। फलत: फौरन ही 19वें श्लोक से ही उन्हें शुरू कर देना ही पड़ा। पूरे 24 श्लोकों में इसे पूरा करके भी अन्त में उनने कह दिया कि इस पँवारे का कहीं अन्त थोड़े ही है; मैंने तो यह नमूने के तौर पर ही कुछ कह दिया है, 'नांतोऽस्ति मम', 'एषत्द्देशत: प्रोक्त:' आदि। इसीलिए जो लोग शुरू के 18 श्लोकों को पढ़ के या तो ऊब जाते, या ख्‍याल करते हैं कि भगवान् की विभूति या प्रपंच-लीला के निरूपण वाले इस अध्‍याय में प्राय: आधो श्लोक बेकार ही क्यों दूसरी बातों में लगा दिये गये हैं, उन्हें अब पता लग गया होगा कि इस बात की जरूरत थी। असल में यों तो इस विषय की अहमियत को जनसाधारण् समझी नहीं सकते। इतनी भूमिका के बाद भी उनके दिमाग में यह बाद शायद ही जमे। उनके लिए तो यह दूसरी दुनिया की विदेशी जैसी चीज ही है। फिर मन लगे तो कैसे लगे ? इसीलिए इतनी भूमिका भी कुछ विशेष काम उनके दिमाग पर कर पाती नहीं। मगर अर्जुन के बारे में यह बात न थी। वह तो बहुत कुछ ऊँचा उठ चुका था। इसीलिए इस भूमिका ने उसे न सिर्फ प्रोत्साहित किया; बल्कि उसमें चस्का भी पैदा कर दिया। फलत: वह इसमें लिपट ही तो पड़ा। नतीजा यह हुआ कि दसवें के शेष और पूरे ग्यारहवें अध्‍याय में उसने कृष्ण से 'कह सुनाऊँ' तथा 'कर दिखाऊँ दोनों करवा के ही छोड़ा।

    एक बात  यहीं पर और भी जान के आगे बढ़ने में अच्छा होगा। 'एतां विभूतिं योगं च' (107) में तथा 'विस्तरेणात्मनो योगं विभूिं च'। (1018) में एक ही साथ योग और विभूति शब्द आये हैं। इसके सिवाय सोलहवें में भी कई बार विभूति शब्द आया है। इन दोनों में विभूति का अर्थ तो 'बहुत रूप हो जाना या बन जाना' साफ ही है। जो कुछ कहा गया है उससे भी साफ हो जाता है। मगर उसी के साथ जो योग है उसका स्पष्टीकरण इस अध्‍याय में कहीं नहीं मिलता। अन्त के 40-41 श्लोकों में भी कई बार विभूति शब्द ही आया है, न कि योग। इससे यही मालूम होता है कि इस अध्‍याय में विभूतियों का ही वर्णन है, विस्तार है। इसीलिए तो इसे विभूतियोग नामक अध्‍याय कहते हैं; जैसा कि औरों को ज्ञान-विज्ञानयोग आदि नाम दिये गये हैं।

    तब प्रश्न होता है कि यहाँ योग का अर्थ आखिर है क्या ? योग शब्द जिन अर्थों में गीता में बार-बार आया है वह तो इसका अर्थ है नहीं। इसके तो ज्यादे से ज्यादा चमत्कार, करिश्मा, ऐश्वर्य आदि ही अर्थ किये जा सकते हैं। मगर तब क्या विभूति से काम नहीं चल जाता कि इसकी भी जरूरत हुई ? यह प्रश्न उठता है। आखिर विभूति भी तो चमत्कार या करिश्मा ही है। जादूगर जब नयी-नयी चीजें बताता है तो उसे करिश्मा ही तो कहते हैं।

    असल में दसवें और ग्यारहवें अध्‍यायों में यों ऊपर से देखने से दो जुदी बातों का वर्णन मालूम होने पर भी इनके विषय को एक ही मान के उसे दो भागों में केवल बाँटा गया है। इनमें पहला है 'कह सुनाऊँ' वाला और दूसरा 'कर दिखाऊँ' का। दोनों को एक ही समझने के लिए ही यहीं पर एक ही साथ विभूति और योग शब्द शुरू में ही कहे गये हैं। यही कारण है कि विभूति के खत्म होते ही, 'कह सुनाऊँ' के पूरा होते ही अर्जुन ने ग्यारहवें में चट-पट 'कर दिखाऊँ' के बारे में प्रश्न कर दिया है और जरा भी देर न की है। कृष्ण के भी 'कर दिखाने' का उसके नौवें श्लोक से शुरू करने के ठीक पहले आठवें के अन्त में 'दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्' में योग आ गया है। जो कुछ दिखाया गया है उसे ही वहाँ ईश्वरीय योग कहा है। इससे स्पष्ट है कि विश्व रूप का दिखाना ही योग है। दिखाने के भीतर ही देखना भी आ जाता है। इसीलिए विश्वरूप दर्शन में दर्शन का अर्थ देखना-दिखाना दोनों ही है। अतएव दसवें के 'न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं' (102) में जो प्रभव शब्द है उसका अर्थ प्रभुता या ऐश्वर्य करके उसके भीतर विभूति और योग दोनों को ही समझना होगा। कृष्ण के कहने का अभिप्राय यही है कि मैं किस प्रकार इस विश्वप्रपंच को बनाता और फैलाता हूँ इसे देवता, महर्षि आदि कोई भी ठीक-ठीक नहीं जानते, नहीं जान सकते। जानें भी कैसे ? यदि उस समय होते तब न ? इन्हें तो मैंने ही उसी सिलसिले में पीछे से बताया है। इस प्रभव शब्द का अर्थ उत्पत्ति या उत्पत्तिस्थान आदि करना उचित नहीं है। उसमें वह मजा नहीं आता जो हमारे बताये अर्थ में है।

श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वच:।

यत्तोऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥1

    श्रीभगवान् बोले-हे महाबाहो, मेरी और भी (एक) बड़ी बात सुनो, जिसे मैं तुम्हारे हित के ख्‍याल से तुम्हें (केवल) इसीलिए कहूँगा कि तुम्हें मजा आ रहा है।1

न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:।

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:॥2

    मैं विश्वप्रपंच कैसे फैलाता हूँ इसे न तो देवगण जानते हैं और न महर्षि लोग ही। क्योंकि मैं ही तो सभी देवताओं और महर्षियों का बनाने वाला ठहरा।2

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।

असम्मूढ़: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते॥3

    मनुष्यों में जो (बिरला ही) पूर्ण जानकार होता है वही मुझ अजन्मा, अनादि और सभी प्रपंच के बनाने-चलाने वाले को अच्छी तरह जानता है (और इसीलिए) सभी पापों से छुटकारा (भी) पाता है।3

बुध्दिज्र्ञानमसम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम:।

सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥4

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश:।

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा:॥5

    विवेकशक्ति, विवेक, मोह का संसर्ग कतई न होना, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों पर काबू, मन पर काबू, सुख, दु:ख, पदार्थों का होना, न होना, भय, अभय, अहिंसा, सब में समबुध्दि या सबके साथ समानता का व्यवहार, सन्तोष, तप, दान, यश, अपयश (आदि) ये सभी विभिन्न पदार्थ मैं ही पैदा करता हूँ।45

    जिन बीस पदार्थों को प्रधानतया इन दो श्लोकों में गिनाया है उनका इस प्रसंग में इतना ही उपयोग है कि आत्मसाक्षात्कार या दिव्य-दृष्टि प्राप्त करने और तदनुकूल ही दूसरों को उपदेश करने के लिए ये जरूरी हैं। इनके बिना वह नजर और वह दृष्टि एक तो मिली नहीं सकती। मिलने पर भी दूसरों को इन्हीं के अनुकूल पथदर्शन में किसी की प्रवृत्ति होई नहीं सकती, जब तक ये गुण उसमें पूर्णरूप से आ न गये हों। जिसे सुख-दु:ख का कटु अनुभव न हुआ हो, जो क्षमाशील न हो, जिसने भय-अभय की खूबियाँ और कारनामे कभी देखे ही नहीं, वह क्या लोकसंग्रह करेगा  ? यही चीजें और ऐसी ही दूसरी भी उसे उस ओर जबर्दस्ती लगाती हैं, उसके दिल को पिघला देती हैं।

महर्षय: सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा:प्रजा:॥6

    सबसे पूर्व या सृष्टि के आरम्भ के सात महर्षि और चार मनु-ये सभी-मुझी से मेरे मन के संकल्प से ही पैदा हुए थे, जिनने दुनिया में ये प्रजाएँ पैदा कीं-यह जनता पैदा की।6

    इस श्लोक में जो 'पूर्वे' शब्द है वह 'महर्षय: सप्त' और 'चत्वारो मनव:' के बीच में आने के कारण दोनों ओर जुटता है। ''लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा'' (1412) में 'कर्मणां' का भी वही हाल है। वह 'आरम्भ:' और 'अशम:' दोनों से ही जुटता है। इसी को देहलीदीपकन्याय कहते हैं। बीच द्वार में जो दीपक रहता है वह बाहर-भीतर दोनों ही तरफ उजाला करता है। वही बात यहाँ भी है। इस तरह इसका अर्थ यह हो जाता है कि पूर्व के, शुरू के या यों कहिए कि सृष्टि के आरम्भ के सप्त महर्षि या सप्तर्षि और शुरू के ही चार मनु, ये ग्यारह भगवान् के मानसपुत्र हैं, मन के संकल्प से ही उत्पन्न हुए लोग हैं। इसीलिए इन्हें भगवान् के प्रतिनिधि मान के इनके द्वारा हुए सृष्टिविस्तार को भगवान् का ही विस्तार, उसी की विभूति मानते हैं। 'मद्भावा:' शब्द का यही अर्थ है कि ये लोग मेरे ही स्वरूप हैं। अत: मेरी जगह पर ही काम करते हैं। आखिर समूची सृष्टि का विस्तार खुद भगवान् अकेले तो कर सकते नहीं। इसीलिए उनने अपने सहायक पैदा किए। पैदा करना भी क्या था ? उनने मन में ख्‍याल किया और ये आ हाजिर हुए। मानसपुत्र का यही मतलब है।

    असल में प्रत्येक कल्प या सृष्टि में चौदह मनु माने जाते हैं जिन्हें मन्वन्तर भी कहते हैं। हरेक मनु के शासनकाल और काम के समय को ही अन्तर या पहले और दूसरे के बीच का समय कहने के कारण हरेक को मन्वन्तर कहा गया। यही है पौराणिक कल्पना। इसी के साथ यह भी बात है कि हरेक मनु या मन्वन्तर के लिए भिन्न-भिन्न सप्तर्षि लोग पुराणों में गिनाये गये हैं। मगर गीता ने न तो चौदह मनुओं को ही माना है और न सब मिला के पूरे 98 महर्षियों या सप्तर्षियों को ही। गीता की रचना के समय तक इस कल्पना का यह विस्तार हो पाया न था, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिए इसका नाम उसने न लिया। मालूम होता है तब तक केवल चार ही मनुओं और सात ही महर्षियों की कल्पना हो पाई थी। इसीलिए उसने इन्हीं दो को लिखा। यदि पीछे और भी हों तो गीता को उनसे मतलब भी क्या हो सकता है ? सृष्टि के शुरू में उसका विस्तार कैसे हुआ यही बात बतानी है। क्योंकि जोई सुने वही समझदार पूछ सकता है कि अकेले भगवान् ने भला यह सब कुछ कैसे बना डाला ? इसलिए बनी-बनाई सभी चीजों और सभी पदार्थों के वर्णन के पहले ही कृष्ण ने ऐसा कह दिया जिससे किसी को शंका के लिए जगह रही नहीं जाती। ऐसी दशा में पीछे बने मनुओं या ऋषियों से गीता को प्रयोजन ही क्या ? उनने सृष्टि के प्रारम्भिक विस्तार में मदद तो दी न थी।

    अब प्रश्न होता है कि ये कौन से चार मनु और सात महर्षि थे ? क्योंकि गीता में तो उनका नाम है नहीं। इसलिए खामख्वाह जिज्ञासा होती ही है। खासकर चौदह मनुओं और 98 महर्षियों की बात इधर चालू हो जाने के कारण यह उत्कण्ठा और भी बढ़ जाती है कि आखिर ये सात ही ऋषि और चार ही मनु कौन से हैं।

    इसके उत्तर में हमें गीताकालीन या उससे पूर्व प्रचलित साहित्य से ही सहायता मिल सकती है और वह साहित्य है ऋग्वेद आदि वैदिक ग्रन्थों, निरुक्त और वृहदारण्यक आदि उपनिषदों का ही। शेष साहित्य तो पीछे का ही माना जाता है। अब यदि देखें तो वृहदारण्यक में गोतम या गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप और अत्रि इन सात का उल्लेख यों मिलता है, ''इमावेव गोतमभरद्वाजावयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज इमावेव विश्वामित्र जमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावेव वसिष्ठकश्यपावयमेवं वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रि:'' (224)। इसी के पहले 'तस्यासत ऋषय: सप्ततीरे' यह मन्त्र का प्रतीक लिख के उसी का व्याख्यान इस ब्राह्मण में किया गया है। क्योंकि उपनिषद् तो ब्राह्मण-ग्रन्थ का ही एक भाग है। इससे स्पष्ट है कि उस मन्त्र में भी इन्हीं सात महर्षियों का उल्लेख है। इसी प्रकार यदि वेदों के सूक्तों या उन मन्त्र-समूहों को, जिनमें एक-एक विषय का प्रतिपादन है, देखें तो पता चलता है कि उनके कर्ता या ऋषि प्राय: यही सात महर्षि पाये जाते हैं क्योंकि हरेक मन्त्र के ऋषियों को पहले से ही लोगों ने लिख रखा है।

    इसी तरह जब मनुओं के सम्बन्ध में जाँच-पड़ताल करते हैं तो पता चलता है ऋग्वेद के आठवें मण्डल के 51, 52 तथा दसवें के 62 सूक्तों में कई बार वैवस्वत, सावर्णि एवं सावर्ण्य नामक तीन मनुओं का उल्लेख पाया जाता है। दृष्टान्त के लिए 51-52 सूक्त के पहले मन्‍त्रों को देखें। वे यों हैं ''यथा मनौ सावरणौ सोममिन्द्रापिब: सुतम्। नीपातिथौ मघवन्मेधतिथौ पुष्टिगो श्रुष्टिगौ तथा'', ''यथा मनौ विवस्वति सोमं शक्रापिब: सुतम्। यथात्रितेच्छन् इन्द्र जुजोष स्यायौ मादयसे स च''। इसी तरह दसवें मण्डल के 62वें सूक्त में सावर्णि तथा सावर्ण्य का उल्लेख है। इसका सावरणि और उसका सावर्णि ये दोनों एक ही हैं। इसी तरह निरुक्त के 'मनु: स्वायम्भुवोऽब्रवीत्' (315) में स्वायम्भुव मनु का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार वैवस्वत, सावर्णि, सावर्ण्य और स्वायम्भुव यही चार मनु गीता में माने गये हैं। हमारे जानते यही प्रामाणिक और उचित बात भी है और गीता के इस श्लोक का यही अर्थ मुनासिब भी है।

    मगर कुछ लोगों ने, जो इस बात का बहुत बड़ा दावा करते हैं कि उनके अर्थ में खींचातानी नहीं है, इस श्लोक का निराला ही अर्थ किया है। उनके दिमाग में यह बात बैठ चुकी थी कि गीता में भागवत या नारायणीय धर्म का ही प्रतिपादन है और वह भी ऐसा ही जैसा उसे वह समझते हैं। वह कहते हैं कि वह भागवतधर्म है तत्तवज्ञानमूलक भक्ति प्रधान कर्मयोग। कर्मयोग का भी अर्थ वह यही करते हैं कि कर्मों का स्वरूपत: त्याग कभी नहीं करके उन्हें करते-करते ही मर जाना। वह केवल फलासक्ति का त्याग ही मानते हैं। वह इस श्लोक के पूर्वार्ध्द को तीन टुकड़ों में बाँटते हैं। वे हैं महर्षय: सप्त, पूर्वे चत्वार:, तथा मनव:। फिर इनके अर्थ यों करते हैं कि सात महर्षि, उनके पहले के चार और मनु। उनके कथन से मरीचि, अत्रि, अंगिरस्, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु यही सात ऋषि हैं। इनका वर्णन महाभारत के शान्तिपर्व के 335 और 340 अध्‍यायों में आया है। अब रहे इन महर्षियों से भी पहले के चार। उन्हें भागवतधर्म में चतर्व्यूह के नाम से पुकारते हैं और वे हैं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुध्द। इनकी उत्पत्ति का क्रम इन सप्तर्षियों से भी पहले माना गया है। इनका उल्लेख भी उसी प्रसंग में ही महाभारत में आया है। मनु शब्द से भी उनने सात मनु लिये हैं, जिनमें छ: तो गीता से पहले गुजर चुके थे और सातवाँ उसी समय गुजर रहा था। उनके नाम क्रमश: ये हैं-स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्ताम या औत्तामी, तामस, रैवत, चाक्षुष और वैवस्वत। उस समय वैवस्वत ही गुजर रहा था। बाकी मनु तो गुजरे न थे और न वर्तमान ही थे; फिर उनका उल्लेख गीता क्यों करती ? संक्षेप में उनका यही कथन है, उनकी यही दलील है। उनने यह भी लिख मारा है कि आने वाले ही मनुओं में सावण्0श्निर् है।

    हमें कहना यही है कि केवल पौराणिक बातों के आधार पर गीता के श्लोक का अर्थ करना कभी उचित नहीं है, खासकर जबकि वे खुद मानते हैं कि गीता का समय बहुत पुराना और ब्राह्मणग्रन्थों के समकालीन या उनके बाद का ही है। परन्तु पौराणिक काल तो बहुत इधर का है। गीता के 'मासानां मार्गशीर्षोऽहं' (1035) श्लोक के, जो इसी अध्‍याय का है, अर्थ में ही उनने ये सारी बातें स्वीकार की हैं। हम तो कही चुके हैं कि ऋग्वेद में ही सावर्णि का उल्लेख है और उसी को ये महाशय भावी मनु मानते हैं! वृहदारण्यक में लिखे और वेदों में भी माने गये सात महर्षियों को न मान के महाभारत या पुराणों के सात को मानने में भी हमें आश्चर्य ही होता है! क्या सचमुच ज्यादा माननीय ये पुराण आदि ही हैं ? मगर वे भी तो ऐसा नहीं मानते। तब मनु और ऋषियों के ही बारे में ऐसा मानने में कौन सा औचित्य है ? इस तरह कहाँ-कहाँ से खींच-खाँच के पदार्थों को लाना, उन्हीं के बल पर श्लोकका अर्थ करना और फिर भी यह मानना कि यह खींचातानी नहीं है, कुछ अजीबसीचीजहैं!

    जरा और भी तो देखिए। अगर यही अर्थ करना है तो फिर केवल 'महर्षय:' कहने से भी यही सात लिये जाते, जैसे मनव: कहने से सात ही आपने माने हैं। और अगर 'मनव:' के साथ 'सप्त' विशेषण की जरूरत नहीं हुई तो महर्षय: के साथ भी क्या जरूरत थी ? आखिर जिन पौराणिक वचनों के बल से यह अर्थ किया गया है वे तो कहीं चले जाते नहीं। वे तो 'सप्त' के रहने पर भी रहते और न रहने पर भी। फिर व्यर्थ ही उसके लिखने की क्या आवश्यकता थी। यह भी बात है कि जब सावर्णि, सावर्ण्य नाम दो मनुओं को भी हम पहले होने वाले ही बता चुके हैं; इसीलिए ऋग्वेद में उनका उल्लेख भी है, तो सात से ज्यादा तो होई गये। फिर सात मनु कहने की हिम्मत उनने कैसे की ? केवल बहुवचनान्त 'मनव:' पद से तो ज्यादा भी ले सकते हैं। कम से कम नौ तो लेना ही होगा। इसी तरह यदि 'महर्षय:' कहने से उनके बताए सात लिये जायँ, तो वृहदारण्यक वाले सात तो जरूर ही लिए जाने चाहिए। फिर 'महर्षय:' का विशेषण यह 'सप्त' कैसे उचित होगा  ? इसी प्रकार चत्वार: का अर्थ यदि वासुदेव आदि चार ही हों, तो आगे जो यह कहा है कि वह मेरे मानव संकल्प से ही पैदा हुए 'मानसा जात:', वह कैसे युक्ति-युक्त होगा  ? वासुदेव के ही मानससंकल्प से स्वयमेव वासुदेव ही पैदा हों, यह कैसी बात  ? और इसकी जरूरत भी क्या थी  ? वासुदेव तो मौजूद थे ही। फलत: संकल्प के द्वारा केवल तीन को ही पैदा करते तो ठीक होता और काम भी चलता। वासुदेव तो कृष्ण को और भगवान् को भी कहते ही हैं। गीता ने भी 'वासुदेव: सर्वमिति' (719) में यही कहा भी है। फिरवासुदेव ने ही अपने को भी क्यों और किसलिए नाहक पैदा किया ? आखिर यह जादू याकरिश्मे की बात न हो के सृष्टि का दार्शनिक विवेचन है न  ? फिर ये बेसिर-पैर की बातें कैसी  ?

एतां विभूिं योगं च मम यो वेत्ति तत्तवत:।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्रा संशय:॥7

    मेरी अभी कही जाने वाली इस विभूति और योग का जो ठीक साक्षात्कार कर लेता है उसे सुदृढ़ योग की प्राप्ति हो जाती है, इसमें संशय (जरा भी) नहीं है।7

    यहाँ 'एतां विभूतिं' का अर्थ है कि जिस विभूति का वर्णन अभी होने वाला है। 'तत्तवतो वेत्ति' का अर्थ तत्तवज्ञान या आत्मरूपेण साक्षात्कार ही है। इसीलिए उत्तारार्ध्द के योग का अर्थ 'सिध्दयसिध्दयो: समो भूत्वा' (248) वाला ही योग है। क्योंकि आत्मसाक्षात्कार के बाद वही योग प्राप्त होता और अचल रहता है। यहाँ इस कथन के दो अभिप्राय हैं। एक यह कि महर्षियों तथा मनुओं के अलावे भी जोई इसे जान जाय वही वैसा ही हो जाता है। दूसरा यह कि इसे जाने बिना काम चलने का नहीं। जो जानेगा वही पक्का योगी होगा। इसलिए इसे जानने का यत्न पूरा-पूरा होना चाहिए। इस तरह अर्जुन के दिमाग को इसके लिए तैयार किया गया है।

    जो लोग समझते हैं कि भगवान् बड़ा दयालु है; अतएव उसकी प्रार्थना वगैरह करने से वह कृपा करता और निस्तार करता है, वह भूलते हैं। यहाँ कृपा का प्रश्न हुई नहीं। भगवान् तो समस्त शक्तियों का सर्वप्रधान स्रोत है। वहीं से सारी चीजें चलती हैं, फैलती हैं, विराट् या विश्वरूप के निरूपण और विभूतियों के विवेचन के भीतर यही आशय छिपा है। यह तो मालूम ही है कि जो सोते में जायँगे, डुबकी लगायेंगे वह शीतल होंगे, स्नान करेंगे, पवित्र होंगे। इसमें सोते की दया-माया का कहाँ सवाल आता है ? पके फलों से लदे पेड़ के पास जाने पर फल भी मिलेंगे औरवृक्ष की कृपा की बात आयेगी भी नहीं। यही है वास्तविक दृष्टि। इसी दृष्टि से हमें उधर जाना चाहिए, उधर बढ़ना होगा। आगे वाले चार श्लोक इसी का स्पष्टीकरणकरतेहैं।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्त्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता:॥8

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥9

    मैं ही सभी चीजों का मूल स्रोत हूँ और मुझी से सभी चीजें बाहर जाती हैं, विवेकी लोग यही समझ के पूर्ण श्रध्दा-भक्ति के साथ मुझे भजते हैं। अपने चित्त और इन्द्रियों को मुझी में लगा के परस्पर एक दूसरे को समझाते-बुझाते और निरन्तर मेरी ही चर्चा करते हुए वे मुझमें ही रमते और सन्तुष्ट रहते हैं।89

    यहाँ प्राण का अर्थ इन्द्रियाँ ही हैं।उपनिषदों में उन्हें भी प्राण कहाहै।वायुरूपी प्राणों को कहीं भी रोकें। मगर आत्मा या परमात्मा में उन्हें कभी लगा नहीं सकते, यह मानी हुई बात है।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुध्दियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥10

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं  तम:।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥11

    निरन्तर मुझी में लगे (और) मुझे ही प्रेमपूर्वक भजने वाले उन लोगों को वह आत्मसाक्षात्कार रूपी बुध्दियोग प्राप्त करवा देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं। (यह यों होता है कि) उन्हीं पर अनुकम्पा करके (तथा) उनकी आत्मा के रूप में ही विदित हो के उस प्रचण्ड ज्ञानदीप से उनके अज्ञान-मूलक हृदयान्धाकार को खत्म कर देता हूँ।10-11

    बस, इतना कहना था कि अर्जुन का दिमाग साफ हो गया, उसमें चसक आ गयी, जैसा कि पहले ही बता चुके हैं और उसने सोचा कि कहीं यह स्वर्ण सुअवसर मेरी चुप्पी के ही करते हाथ से यों ही चला न जाय; इसलिए फौरन ही अपनी सफ़ाई देता हुआ और यह कहता हुआ कि आप ही यह बात अपने मुँह से ही कहें तभी इस विषय के साथ पूर्ण न्याय हो पायेगा।

अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रां परमं भवान्।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥12

आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥13

    अर्जुन कहने लगा-आप ही परब्रह्म, ज्योतियों की ज्योति और पवित्र से भी पवित्र हैं। आपको ही सभी ऋषि (तथा खासकर) देवर्षि नारद, असित, देवल (और) व्यास सनातन दिव्य पुरुष, आदि देव-देवताओं के भी देव-अजन्मा और सर्वव्यापी बताते हैं। आप स्वयं भी तो मुझसे यही कह रहे हैं।1213

    सामान्यत: ऋषियों को कह के फिर नारद, असित, देवल और व्यास का खासतौर से नाम लेना यह सूचित करता है कि उन दिनों इनकी ही अधिक धाक थी और सभी लोग आमतौर से इन्हीं की बातें मानते थे। ऋषि के मानी हैं ज्ञानी या द्रष्टा-सूक्ष्मदर्शी। ऋषियों में भी जो मनुष्य माँ-बाप से जन्म न लेकर ब्रह्मा वगैरह के मानसपुत्र थे वही देवर्षि कहे जाते थे। ऋषि लोग ही उस जमाने के नेता, उपदेशक, कानून बनाने वाले  (Lawgiver) और रहनुमा थे।

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।

न हि ते भगवन्व्यक्ति विदुर्देवा न दानवा:॥14

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्य त्वं पुरुषोत्तम

भूतभावन भूतेश देव देव जगत्पते॥15

    हे केशव, आप जो कुछ मुझे बता रहे हैं मैं उसे सही मानता हूँ। भगवन्, आपकी व्यक्ति-आपकी हस्ती-को ठीक-ठीक न तो देवता ही जानते हैं और न दानव लोग ही। हे पुरुषोत्तम, हे भूतभावन, हे भूतेश, हे देवदेव, हे जगत्पति आप खुद अपने आप ही अपने को जानते हैं। 1415

    यहाँ भूतभावन का अर्थ है पदार्थों को पालने तथा कायम रखने वाला। भूतेश का अर्थ है पदार्थों का शासक और नियामक। जैसे बोलचाल में कहते हैं कि आप की हस्ती, आपकी शख्सियत को कोई नहीं जानता, आपकी व्यक्ति को भला कौन जाने, आदि-आदि; ठीक वैसा ही यहाँ भी है।

    यहाँ यह कहना, कि मैं आपकी सभी बातें सही मानता हूँ, इस बात की सफाई है कि पहले जैसा सन्देह अब मेरे मन में रह नहीं गया, आप विश्वास रखें; फलत: आपका उपदेश जरा भी व्यर्थ न जायगा।

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतय:।    

याभिर्विभूतिर्भिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥16

    (इसलिए) आप अपनी सभी दिव्य विभूतियों को जरूर ही कह सुनाइए-उन्हीं विभूतियों को जिनके द्वारा सभी जगहों में व्याप्त हो के सर्वत्र मौजूद हैं। 16

कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन् मया॥17

    हे योगिन्, आपका किस प्रकार सदा चिन्तन करते हुए (आपको) जान सकूँगा ? और, भगवन् (खासतौर से) किन-किन पदार्थों में आपका चिन्तन किया जाना चाहिए ?17

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन!

भूय: कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥ 18

    हे जनार्दन, अपनी विभूति और योग-दोनों ही-को और भी विस्तार से कहिए। क्योंकि (आपके वचनरूपी) अमृत-मधुर वचनों-को सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं होती है।18

    अब श्रीकृष्ण ने समझ लिया कि जरा भी देर करना ठीक नहीं। क्योंकि सब परिस्थिति बनी बनाई मौजूद है। इसलिए चटपट-

श्रीभगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतय:।

प्राधान्यत: कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥19

    श्रीभगवान् ने कहा-हे कुरुश्रेष्ठ, लो अभी-अभी अपनी प्रधान दिव्य विभूतियों को (संक्षेप में) तुम्हें सुनाये देता हूँ। (क्योंकि) मेरी (इन विभूतियों के) विस्तार का अन्त हुई नहीं। 19

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।

अहमादिश्च मधयं च भूतानामन्त एव च॥20

    हे गुडाकेश, सब पदार्थों के भीतर-हृदय, अन्त:करण या मर्म में-रहने वालीआत्मा मैं ही हूँ। पदार्थों का आदि, मध्य और अन्त भी-उनका सब कुछ-मैं ही हूँ।20

आदित्यानामहं विष्‍णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥21

    (बारह) सूर्यों में विष्णु नामक सूर्य मैं हूँ, सभी प्रकाशवान् पदार्थों में किरण वाला सूर्य, (उनचास) पवनों में मरीचि नामक पवन और (रात में जगमगाने वाले) तारों में चन्द्रमा मैं हूँ।21

    पहले श्लोक में सामान्य वर्णन के बाद 21वें से चुनचुन के विशेष वर्णन शुरू हुआ है।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव:।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥22

    वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ (और जीवधरियों में) चेतनता हूँ।22

रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तोशो यक्षरक्षसाम्।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरु: शिखरिणामहम्॥23

    (ग्यारह) रुद्रों में शंकर हूँ, यक्ष-राक्षसों में कुबेर (हूँ), (आठ) वसुओं में अग्नि हूँ (और) चोटीवालों में सुमेरु (हूँ)।23

पुरोधासां च मुख्यं मां विध्दि पार्थ बृहस्पतिम्।

सेनानीनामहं स्कन्द: सरसामस्मि सागर:॥24

    हे पार्थ, पुरोहितों में (सबके) मुखिया बृहस्पति मुझी को समझो। सेनापतियों में र्कात्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ। 24

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय:॥25

    महर्षियों में भृगु (और) वाणी में एक अक्षर-कार-मैं हूँ। यज्ञों में जपयज्ञ और न हिलने-डोलने वालों में हिमालय हूँ।25

अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।

गन्धर्वाणां चित्ररथ: सिध्दानां कपिलो मुनि:॥26

    सभी वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ नामक गन्धर्व और सिध्दों में कपिल मुनि (मैं हूँ)।26

उच्चै श्रवसमश्वानां विध्दि माममृतोद्भवम्।

ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥27

    घोड़ों में (अमृत के साथ उत्पन्न) उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा मुझे समझो, बड़े हाथियों में ऐरावत-इन्द्र का हाथी-और मनुष्यों में राजा (भी मुझे ही समझो)।27

आयुधानामहं वज्रं धोनूनामस्मि कामधुक्।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्प: सर्पाणामस्मि वासुकि:॥28

    हथियारों में वज्र (तथा) दुही जानेवालियों में कामधोनु हूँ। सन्तानोत्पादक काम मैं हूँ (और) सर्पों-रेंगनेवालों-में वासुकि नामक सर्प मैं हूँ।28

 अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
    पितृणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम्॥29

    नागों यानी दिव्य-विलक्षण-सर्पों में शेषनाग हूँ। (और) जलजन्तुओं में वरुण। पितरों में अर्यमा नामक पितर और (लोगों को सुधरने के लिए) दण्ड करने वालों में यम हूँ। 29

प्रधादश्चास्मि दैत्यानां काल: कलयतामहम्।

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्॥30

    दैत्यों में प्रह्लाद और गिनने या हिसाब लगाने वालों में काल-समय-मैं हूँ। पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ।30

पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम्।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाहन्वी॥31

    पवित्र करने, सुखाने या चलने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम हूँ। जलजन्तुओं में मगर और सोतों में भागीरथी गंगा मैं हूँ।31

सर्गाणामादिरन्तश्च मधयं चैवाहमर्जुन।

अध्‍यात्‍मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम्॥32

    हे अर्जुन, सृष्टियों का आदि, मध्‍य और अन्त मैं हूँ। (सभी) विद्याओं में अध्‍यात्‍म विद्या-आत्मज्ञानशास्त्र-(और) विवाद करने वालों में वाद मैं हूँ।32

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्व: सामासिकस्य च।

अहमेवाक्षय: कालो धाताहं विश्वतोमुख:॥33

    अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व मैं हूँ। मैं ही अविनाशी काल हूँ (और) जगत् को कायम रखने वाला सर्वव्यापी भी मैं हूँ।33

मृत्यु:सर्वहरश्चाहमुद्भवश्चभविष्यताम्।  

र्कीत्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धाति: क्षमा॥34

    सबको मारने वाली मौत और आगे होने-पैदा होने या प्रगतिकरनेवालोंकीउत्पत्ति तथा प्रगति मैं हूँ। स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा (भी मैं हूँ)।34

वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर:॥35

    (अनेक प्रकार के) सामों में बृहत् नामक साम और छन्दों में गायत्री हूँ। महीनों में मार्गशीर्ष-अगहन-और ऋतुओं में वसन्त हूँ।35

द्यूतंछलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्तवं सत्तववतामहम्॥36

    छलने वालों में जुआ (और) तेजस्वियों में तेज हूँ। (विजयियों का) विजय, (उद्योगियों का) उद्योग (और) सात्तिवक पदार्थों का सत्तवगुण मैं हूँ। 36

 वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजय:।
    मुनीनामप्यहं व्यास: कवीनामुशना: कवि:॥37

    वृष्णियों में कृष्ण (और) पाण्डवों में अर्जुन हूँ। मुनियों में व्यास और कवियों में कवि शुक्राचार्य हूँ। 37

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥38

    दूसरे को दबाने वालों में दण्ड हूँ (और) विजयेच्छुओं में नीति हूँ। गोपनीयों में मौन (और) ज्ञानियों में ज्ञान मैं हूँ। 38

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति बिना यत्यस्यानम्या भूतं चराचरम्॥39

    हे अर्जुन, सभी पदार्थों का जो बीज है सो भी मैं ही हूँ। (क्योंकि) स्थावर और जंगम पदार्थों में ऐसा एक भी नहीं है जो मेरे बिना टिक सके।39

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।

एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥40

    हे परन्तप, मेरी दिव्य विभूतियों का आर-पार नहीं है। यह तो मैंने विभूतियों का विस्तार (केवल) संक्षेप में (नमूने के तौर पर ही) कहा है।40

यद्यद्विभूतिमत्सत्तवं श्रीमदूज्र्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम्॥41

    (सबका निचोड़ यही है कि) जो-जो पदार्थ चमत्कार वाले, गुणवाले या शक्तिशाली हों उन-उनको मेरे ही तेज के अंश से ही बने मानो। 41

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥42

    अथवा, हे अर्जुन, इस तरह बहुत बातें जानने से तुम्हारा क्या होगा ?
(
तुम यही समझ लो कि) इस समूचे जगत् को मैं अपने एक कोने में रखे हुए पड़ा हूँ।42

    इस अध्‍याय के इधर के प्राय: 22 श्लोकों में ऐसी बातें आयी हैं जिनके बारे में कुछ कह देना जरूरी है। 20वें में पदार्थों का आदि, मध्‍य, अन्त कहा है और 32वें में सर्गों का। यहाँ सर्ग का अर्थ है सृष्टि। जितनी बार सृष्टि हुई है सभी से यहाँ मतलब है। इसीलिए अन्त का अर्थ है प्रलय। मगर 20वें में एक ही सृष्टि के पदार्थों से तात्पर्य है। इसी प्रकार 25वें में महर्षि, 26वें में देवर्षि तथा 37वें में मुनि आये हैं। ऋषि कहते हैं द्रष्टा या ज्ञानी (seer) को। वैदिक मन्‍त्रों के द्रष्टा और कर्ता ऋषि माने जाने हैं। मुनि कहते हैं मनन करने वालों को। दार्शनिक वाद-विवाद मुनियों का ही काम है। ऋषि लोग तो सत्य बातें कह देते हैं। वे न तो विवाद में ही पड़ते और न विशेष तर्क-दलील देते हैं। देवर्षि की बात कही जा चुकी है। सनक, सनन्दन आदि देवर्षि ही माने जाते हैं। 29वें में संयमन का अर्थ है जीवों को सुधरने के लिए दण्ड करना। 38वें में दमन का अर्थ सुधार न हो के दबाना या मिटाना ही है। 25 वें में जपयज्ञ को सब यज्ञों से श्रेष्ठ मान लिया है। तभी तो उसे भगवान् का रूप बताया है। मगर 'श्रेयान्द्रव्य' (433) में ज्ञानयज्ञ को ही उत्तम कहा है। असल में ज्ञान वैसा यज्ञ नहीं है जैसे अन्य यज्ञ। आमतौर से यज्ञ-व्यवहार होता है औरों में ही, न कि ज्ञान में। बेशक सद्ग्रन्थों का पाठ वगैरह ज्ञानयज्ञ है और है यह अन्य यज्ञों जैसा ही। ऐसे ज्ञानयज्ञ से भी जपयज्ञ तो उत्तम हुई। जप तो मानसिक भी होता है। वह बिना मन की एकाग्रता के हो सकता भी नहीं। इस प्रकार ध्‍यान या समाधि भी जपयज्ञ में आ जाती है। इसीलिए ' मित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्' (813) वाली बात समाधि में ही आयी है। यह भी  बात है कि 'श्रेयान्द्रव्य' (433) में सिर्फ द्रव्ययज्ञों से ही ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बताया है। मगर यहाँ तो सभी यज्ञों से जपयज्ञ को उत्तम कहा है।

    पवन का उल्लेख 31वें में है और राम का भी। क्रिया से शुध्दि होती है। अग्नि, वायु, जल या मिट्टी से ही शुध्दि होती है और ये सभी क्रियाशील हैं। इसीलिए शोधकों या क्रियाशीलों में वायु की प्रधानता मानी गयी है। इसी तरह राम का अर्थ दशरथपुत्र ही है, न कि परशुराम। यह ठीक है कि प्रसिध्द शस्त्रधारी परशुराम ही माने जाते हैं। मगर उन्हें भीष्म ने पछाड़ा था। दशरथपुत्र राम से भी वह हारे थे। शस्त्रधारण क्षत्रियों का ही काम है भी। इसीलिए दशरथपुत्र राम को ही यहाँ लेना ठीक है। उस समय यह काम ब्राह्मणों के लिए उचित नहीं माना जाता था, यह भी इससे सिध्द हो जाता है।

    वेदों में सामवेद की प्रधानता की बात 22वें में और 35वें में बृहत्साम की बात है। यह ठीक है कि ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। मगर साम तो गान है। मालूम होता है यह ज्ञान उस समय ज्यादा प्रचलित था। इसीलिए सामगान के यज्ञायज्ञी, बृहत्, रथन्तर आदि अनेक प्रकारों का भी उल्लेख इशारे से करके उन सबों में बृहत्साम को ही श्रेष्ठ माना है। साम की ही प्रसिध्दि उस समय थी, यही इससे सिध्द होता है।

    हाँ यहाँ जो 'तेजस्तेजस्विनामहम्' (1036) कहा है वही सातवें अध्‍याय (710) में भी ज्यों का त्यों आया है। वहाँ का प्रसंग देखने से पता चलता है कि वह लड़ने-भिड़ने वाला तेज नहीं है। क्योंकि लड़ने में काम तथा राग होते ही हैं और वहाँ इसी की रोक है। फलत: ब्रह्मतेज या ब्रह्मवर्चस आदि से ही वहाँ मतलब है। क्षत्रियादि में भी यह तेज होता ही है। हाँ, यहाँ लड़ने-भिड़ने वाले ही तेज से तात्पर्य है, पूर्वापर से यही पता लगता है।

    34वें में जो कीर्त्ति आदि को स्‍त्री कहा है उससे पता चलता है कि कभी ये आदर्श स्त्रियाँ ही थीं जिन्हें आज निर्गुण के रूप में ही माना जाता है। पुराणों में ये दक्ष प्रजापति की पुत्रियाँ मानी गयी हैं। चाहे जो हो, पहले ये आदर्श स्त्रियाँ अवश्य थीं। इससे यह भी इशारा है कि साधारण स्‍त्री-समाज उस समय ऊँचा न था। यही कारण है कि 'स्त्रियो वैश्या' (932) में आमतौर से स्त्रियों को नीच कहा है।

    33वें में द्वन्द्वसमास को ही औरों से अच्छा कह दिया है। इसमें जितने पद मिले होते हैं सभी के अर्थ प्रधान होते हैं। अन्य समासों की तरह कोई किसी का विशेषण या अप्रधान नहीं होता है। शायद इसी से उसे पसन्द किया हो। या इसका नया-नया अन्वेषण होने से उस समय यही ज्यादा प्रसिध्द रहा हो, कौन कहे ? यह ठीक है कि द्वन्द्व तो दुनिया का नियम है और इसे सहर्ष स्वीकार करने वाले ही प्रगति करते हैं। सम्भवत: यहाँ यही आशय हो भी।

    30वें में गिननेवालों में काल या समय को बड़ा माना है। वैसी गिनती और हिसाब सचमुच कोई नहीं कर पाता। आप सोये रहें या जगे। उसका हिसाब ठीक चलता रहता है। वह हिसाब पूरा होते ही पदार्थों का पकना, तैयार होना, सूखना, खत्म होना वगैरह होता रहता है। यह काम क्षणभर भी नहीं रुकता। मगर 33वें में जो अक्षय काल की बात कही गयी है वह पहले की तरह किसी की अपेक्षावाला काल नहीं है। यहाँ तो स्वतन्त्र रूप से काल को भगवान् का रूप ही माना है।

    36वें में जो व्यवसाय और सत्तव की बात है उसमें व्यवसाय का अर्थ है              दृढ़ निश्चय तथा तन्मूलक उद्योग। इसी प्रकार सत्तव का अर्थ सत्तव गुण भी है और तन्मूलक बल भी। यह बल लड़ने वालों का ही है, न कि सातवें की तरह काम
राग-शून्य।

    यहाँ उपसंहार में 'यच्चापि सर्व' (1039) में जो कुछ कहा है सातवें में 'बीजं मां' (710) में भी वही है। ठीक ही है। उपसंहार तो सर्वत्र एक ही होगा न ?

    'मासानां मार्गशीर्ष:' (1035) में जो मार्गशीर्ष को और महीनों से श्रेष्ठ कहा है उसकी बड़ी महत्ता है। इससे अन्वेषण करने वालों ने यह अर्थ निकाला है कि उस समय या उसके पूर्व साल का आरम्भ मार्गशीर्ष से ही होता था। जैसे आज वर्ष के आरम्भ के बारे में चैत्र की स्मृति बनी है और रंग, होली आदि के द्वारा उसे याद करते हैं। बंगाली लोग वैशाख की ही स्मृति महीने भर गा-बजा के जगाते हैं। मेष की संक्रान्ति की स्मृति तो सभी हिन्दू मानते हैं। वही बंगला का वैशाख है। असल में यह विषय गहन है। हरेक महीनों के नाम नक्षत्रों के नामों से ही बने हैं। पाणिनीय व्याकरण का 'सास्मिन्पौर्णमासीति' (4221) सूत्र भी यही कहता है। इसके सिवाय साल के ही नाम समा वर्ष, शरद आदि भी हैं। जब दिन रात सम या बराबर होते होंगे तभी किसी समय वर्ष का आरम्भ होता होगा। इसी प्रकार वर्षा के श्रीगणेश के समय या शरद ऋतु में भी कभी शुरू होता होगा। मगर यह स्वतन्त्र विषय भविष्य के लिए रहे।

    41वें श्लोक में 'विभूति मत' शब्द आने से विभूति के मानी केवल पदार्थ न हो के चमत्कार-युक्त पदार्थ है। इसलिए विभूति में भी योग आ जाता है। मगर वास्तविक योग आगे है। आगे ग्यारहवें अध्‍याय के 47वें श्लोक में विराट् रूप दिखा के कहेंगे भी कि मैंने अपने योग से, 'आत्मयोगात्', इसे दिखाया है।

    इति. विभूतियोगो नाम दशमोऽध्याय:॥10

    श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका विभूतियोग नामक दसवाँ अध्‍याय यही है।

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