चौदहवाँ
अध्याय
जैसा
कि पहले ही कहा जा चुका है,
चौदहवाँ
अध्याय
भी सृष्टि का विवेचन-विश्लेषण ही करता है लेकिन यह करता है इस काम को
एक प्रकार से
स्वतन्त्र
रूप से। इसकी वजह भी है जिससे यह
अध्याय
ही
स्वतन्त्र
हो गया है। तेरहवें
अध्याय
ने बहुत फैली-फैलाई सृष्टि की,
जो काबू के बाहर सी प्रतीत होती थी,
काबू में कर दिया। क्योंकि खेतिहर या किसान और
क्षेत्रया
खेत के रूप में सारी बातें रख के इन्हें और इनको ही लेके बनी सृष्टि
को भी जैसे छोटी सी बना के काबू में कर दिया गया है।
क्षेत्रसे
बाहर जब कुछ
हुई
नहीं और उसके बिना सारी घर-गिरहस्ती ही चौपट है,
तो काबू और कहते हैं किसे ?
इस तरह जो चीज समझ में समा भी नहीं सकती थी वह अब
दूसरी ही जान पड़ने लगी। अब उसका रूप इतना छोटा हो गया कि उसके नाम से
होने वाली घबराहट दूर हो के उस समूची चीज के समझने- विचारने में
सरसता आ गई। इसने ही उसमें चस्का भी पैदा कर दिया।
लेकिन इतने पर
भी शरीर इन्द्रियाँ,
प्राण
प्रभृति और विषयों एवं विकारों के रूप में यह सृष्टि विस्तृत की
विस्तृत ही है। सबों का ख्याल-विचार करते-करते मन में थकान या ऊब सी
भी हो जाती है। शरीर,
इन्द्रियाँ वगैरह कह देना जितना आसान है इनका विचार उतना आसान नहीं
है। विचारिए और देखिए कि लम्बी-चौड़ी दुनिया सामने खड़ी हो जाती है या
नहीं। फिर तो उधोड़-बुन करते-करते नाकों दम हो जाती है,
घबराहट
पैदा हो जाती है। इसलिए जरूरत थी इस बात की कि और भी संक्षिप्त रूप
में इसे रख दिया जाय। साथ ही,
वह
संक्षिप्त रूप ऐसा हो कि साफ-साफ मालूम पड़े,
समझ
में आये। सभी पदार्थों को उसने अपने उदरस्थ कर लिया हो यह भी स्पष्ट
नजर आता रहे। यदि ऐसा उपाय निकल आये तो कितना सुन्दर हो,
कितनी
आसानी हो! भला,
सभी
विषयों का पूरा-पूरा विचेचन कर सकना और उनके गुणदोष को समझ पाना
किसकी ताकत की बात है
? यह
भी कहना कि सभी चीजें बन्धन में ही डालती हैं या बुरी हैं कितना
खोखला लगता है! आखिर संसार के भीतर ही तो उपदेशक,
विवेक
और समाधि प्रभृति भी हैं! तो क्या ये भी बुरे हैं
? यदि
नहीं,
तो समस्त
संसार को बुरा क्यों कहा
? क्या
ये संसार में आ जाते नहीं
? ऐसी
हजार पेचीदा बातें पड़ी हैं जिनका समाधान तेरहवें अध्याय से नहीं हो
पाता। इसलिए भी जरूरत थी कि कोई सरल मार्ग निकलता,
कोई
निराला आईना आविष्कृत होता,
जिसमें
सारी चीजें झलक पड़तीं और उनकी बुराइयाँ साफ मालूम हो जातीं। इन्हीं
सब खयालों से चौदहवें अध्याय की स्वतन्त्र आवश्यकता पड़ी।
इसमें सारी
सृष्टि को तीनों गुणों के भीतर
'गागर
में सागर'
की ही तरह रख
के कमाल कर दिया है! फिर भी खूबी यह है कि इनमें सारी दुनिया आईने की
तरह चमकती है और यह पता फौरन चल जाता है कि क्यों और कैसे हरेक चीज
बन्धन का कारण होने से बुरी है। इतना आसान और सुन्दर रास्ता शायद ही
कहीं कभी मिल सकने वाला था। एक बात यह भी है कि तेरहवें में जो यह कह
दिया है कि ''गुणों
के साथ लिपटने और फँसने से ही आत्मा का नीच-ऊँच योनियों में जन्म
होता रहता है''-'कारणं
गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु'
(13।21),
उसका
स्पष्टीकरण भी हो जाना जरूरी था कि यह बात कैसे होती है। इस अध्याय
में हरेक पदार्थ का विश्लेषण करके बुरे-भले सभी को तीन गुणों का ही
रूप बता दिया है। यह बात भी है कि ये तीनों ही गुण बन्धन में डालने
वाले हैं। फलत: सभी पदार्थ आसानी से बन्धनकारी सिध्द हो गये। आखिर
गुण तो रस्सी को ही कहते हैं न
? और
रस्सी से लिपटना ही तो बन्धन है। इस अध्याय का व्यावहारिक संसार में
सबसे ज्यादा महत्तव इस बात में है कि इसने बता दिया है कि स्वभाव से
ही परस्पर विरोधी और एक दूसरे को मिटा डालने वाले पदार्थ भी किस
प्रकार आपस में अच्छी तरह मिल के साथ चल सकते,
एक
दूसरे की मदद कर सकते और सारा काम अंजाम दे सकते हैं। यह अपूर्व
उपदेश तो शायद ही कहीं मिला हो या मिलेगा।
यही कारण है
कि चौदहवें के शुरू में ही इसे सबसे श्रेष्ठ बताया गया है,
सर्वोत्ताम कहा गया है। भला,
इससे
बढ़ के ज्ञान का सुन्दर,
सर्व-सुलभ और विशद मार्ग होई क्या सकता है
?
दूसरी तरह से ज्ञान या जानकारी प्राप्त करने पर तो कभी धोखा भी हो
सकता है। मगर इसकी जो सबसे बड़ी खूबी है वह यही कि कहीं भी किसी भी
पदार्थ में धोखे की गुंजाइश रहने पाती नहीं। यह तो सबों का छिपा रूप
नंगा कर देता है। यही वजह है कि इस अध्याय में प्रकृति से सीधे ही
गुणों का विस्तार और पसारा शुरू कर दिया है। गीता की पौराणिक शैली की
सबसे सुन्दर खूबी इस अध्याय में यह पायी जाती है कि शुरू में ही
आलंकारिक भाषा में सन्तानोत्पत्ति की जगह सृष्टि की उत्पत्ति की
कल्पना करके ब्रह्म के द्वारा प्रकृति में गर्भाधान लिखा गया है और
उससे पहले-पहल एक ही साथ तीन बच्चों का जन्म बताया गया है। एक तो यही
विलक्षणता है कि एक ही साथ तीन बच्चे! इससे खामख्वाह लोगों का ध्यान
आकृष्ट हो जाता है कि बात क्या है। फिर वे खोद-विनोद करने लग जाते
हैं,
मनन में पड़
जाते हैं। दूसरे जब वे बच्चे परस्पर विरोधी और एक दूसरे को खाने पर
ही तुले जैसे हों तब तो और भी आश्चर्यजनक चीज हो जाती है कि ये
माता-पिता भी खूब हैं जिनने ऐसे बच्चे जने! इस तरह ब्रह्म को पिता और
प्रकृति को माता के रूप में चित्रित करने का प्रयोजन भी पूरा हो जाता
है।
सृष्टि के
सम्बन्ध में शुरू-शुरू का जो गोलमोल और सामान्य ज्ञान या ख्याल है
वही गर्भाधान है। उसी के बाद प्रकृति से गुण-विस्तार के द्वारा
सृष्टि फैलती है यह बात गुणवाद में बखूबी समझाई जा चुकी है। इस
अध्याय का आशय समझने के पहले उसे पढ़ लेना आवश्यक है।
चौथे श्लोक तक
तो भूमिका के रूप में यही बात कही गयी है। उसके बाद के पाँच (5-9)
श्लोकों में गुणों के निजी स्वभाव और काम बता के अनन्तर
9 (10-18)
श्लोकों में
यह बताया गया है कि इन तीनों गुणों की आपसीर् शत्ताबन्दी है,
जिससे
एके बाद दीगरे क्रमश: तीनों मुखिया होते हैं। मगर हर समय एक ही
मुखिया और शेष दो उसी के अनुयायी होते हैं। किसकी नायकता की क्या
पहचान है यह भी बताया गया है। उसी के साथ किस गुण की प्रगति के समय
शरीरान्त होने से मनुष्य की क्या गति होती है यह भी कहा है। अनन्तर
दो (19-20)
श्लोकों में इन गुणों से छुटकारा पाने पर ही मुक्ति होती है,
यह बता
के शेष सात श्लोकों में इनसे छुटकारा पाने का उपाय और छुटकारा पाये
हुए की पहचान बताई गयी है। छुटकारा पाये हुए को ही गुणातीत कहा है।
इन्हीं सात में पहला-21वाँ-श्लोक
अर्जुन के प्रश्न का है। क्योंकि जब ऐसी बात है तो घबरा के या
उत्सुकतावश इनसे पिण्ड छुड़ाने की बात फौरन ही पूछ लेना उसके लिए
अनिवार्य हो गया था। यह विषय ऐसा जरूरी और काम का है कि बिना पूछे ही
कृष्ण ने इसका कहना आरम्भ कर दिया था। वे खुद-ब-खुद इसकी महत्ता और
जरूरत महसूस कर रहे थे। इसका कारणहम बताई चुके हैं। इसीलिए अर्जुन के
बिना कुछ कहे ही स्वयमेव-
श्रीभगवानुवाच
परं
भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिध्दिमितो गता:॥1॥
इदं
ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधार्म्यमागता:।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥2॥
श्रीभगवान्
कहने लगे (कि) सभी ज्ञानों में उत्तम ज्ञान,
जिसे
हासिल करके सभी मुनिगण यहाँ से (देह छोड़ने के बाद) परम कल्याण पा गये,
मैं
अभी-अभी कहता हूँ (सुनो) इस ज्ञान का आश्रय लेने पर मेरा स्वरूप हो
जाने वाले न तो सृष्टि (के शुरू होने) पर जन्म लेते और न प्रलय में
व्यथित होते या मरते हैं।1।2।
मम
योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भव:
सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥3॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्त्तय:
सम्भवन्ति या:।
तासां
ब्रह्म महद्योनिरहं वीजप्रद: पिता॥4॥
हे भारत,
महत्तात्तव गर्भित प्रकृति ही मेरी स्त्री है और मैं उसी में
गर्भाधान करता हूँ। उसी से सभी पदार्थों की उत्पत्ति होती है। हे
कौन्तेय,
सभी (पशु आदि)
योनियों में जितनी तरह की आकृतियाँ हैं उन सबों की माता (वही)
प्रकृति और गर्भाधान करने वाला पिता मैं हूँ।3।4।
सत्तवं
रजस्तम् इति गुणा: प्रकृति सम्भवा:।
निबधनन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥5॥
हे महाबाहु,
सत्तव,
रज,
तम यही
(तीन) गुण प्रकृति से पैदा होते हैं (और) विकाररहित आत्मा को देह में
फँसते हैं।5।
तत्रा
सत्तवं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसंगेनबधनातिज्ञानसंगेनचानघ॥6॥
हे निष्पाप,
उनमें
भी निर्मल होने के कारण प्रकाशक और निर्दोषी सत्तव गुण सुख और ज्ञान
में आसक्ति पैदा करके आत्मा को फँसाता है।
6।
रजो
रागात्मकं विध्दि तृष्णासंगसमुद्भवम्।
तन्निबधनाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्॥7॥
हे कौन्तेय,
रजोगुण
तृष्णा एवं आसक्ति को पैदा करने वाला (और) राग रूपी ही है,
ऐसा
समझो। वह कर्म में आसक्ति पैदा करके जीवात्मा को फँसाता है।7।
तमस्त्वज्ञानजं विध्दि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबधनाति भारत॥8॥
हे भारत,
तमोगुण
तो अज्ञान को पैदा करने और सभी जीवात्माओं को मोह में फँसाने वाला
है। वह असावधनी,
आलस्य
और निद्रा के द्वारा ही फँसाता है।8।
प्रमाद कहते
हैं बातों का ख्याल न होना,
न
रखना। ख्याल रहते हुए भी कर्म में प्रवृत्ता न होने को ही आलस्य
कहते हैं।
सत्तचं
सुखे संजयति रज: कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तम: प्रमादे संजयत्युत॥9॥
हे भारत,
सत्तव
सुख में लिपटा देता है और रज कर्म में। (परन्तु) तम तो ज्ञान को छेंक
के असावधनी में ही लिपटाता है।9।
रजस्तमश्चाभिभूय सत्तवं भवति भारत।
रज:
सत्तवं तमश्चैव तम: सत्तवं रजस्तथा॥10॥
हे भारत,
रज और
तम को दबा के-अपने अधीन करके-ही सत्तव आगे आता है। (इसी तरह) सत्तव
एवं तम को दबा के रज और सत्तव तथा रज को दबा के तम (आगे आता-बढ़ता
है)।10।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं
यदा तदा विद्याद्विवृध्दं सत्तवामित्युत॥11॥
जब इस शरीर के
सभी द्वारों-इन्द्रिय-छिद्रों-से अंधेरा हटके ज्ञान पैदा होता है तभी
सत्तव की वृध्दि जानें।11।
लोभ:
प्रवृत्तिरारम्भ:
कर्मणामशम: स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृध्दे भरतर्षभ॥12॥
हे भरतश्रेष्ठ,
रज के
बढ़ने पर लोभ,
काम
में झुकाव,
क्रियाओं का आरम्भ,
उनका
लगातार जारी रहना और हाय-हाय ये बातें होती हैं।12।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च
प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृध्दे कुरुनन्दन॥13॥
हे कुरुनन्दन,
तम की
वृध्दि होने पर (दिमाग के सामने) अंधेरा,
कामों
में झुकाव न होना,
असावधनी और मोह या उल्टी समझ,
यही
बातें होती हैं।13।
यदा सत्वे
प्रवृध्देतु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते॥14॥
जब देहधारी
सत्तव की वृध्दि के समय मरता है तो उत्तम बातें जानने वालों के
निर्मल लोक या समाज में ही जनमता है।14।
रजसि
प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते।
तथा
प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥15॥
(इसी
तरह) रज की वृध्दि में मरने पर कर्म में लिपटे लोगों में तथा तम की
वृध्दि में मरने पर विवेकशून्य योनियों में जनमता है।
15।
कर्मण:
सुकृतस्याहु: सात्तिवकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु
फलं दु:खमज्ञानं तमस: फलम्॥16॥
सात्तिवक
कर्मों का सुन्दर,
निर्मल,
सात्तिवक फल बताते हैं,
राजसी
कर्मों का दु:ख और तामसी कर्मों का अज्ञान-अज्ञान की वृध्दि-फल (कहते
हैं)।16।
सत्तवात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥17॥
सत्तव से
ज्ञान की एवं रज से लोभ की ही वृध्दि होती है और तम से प्रमाद,
मोह और
अज्ञान (फैलते हैं)।17।
ऊधर्वं
गच्छन्ति सत्तवस्था मधये तिष्ठन्ति राजसा:।
जघन्यगुणवृत्तिस्था
अधो
गच्छन्ति तामसा:॥18॥
सत्तवगुण (की
विशेषता) वाले ऊपर जाते या प्रगति करते हैं,
रजोगुण
वाले बीच में ही रह जाते-न प्रगति करते और न अधोगति,
(और)
निचले तमोगुणवाले अवनतिशील होते हैं।18।
नान्यं
गुणेभ्य: कत्तर्रं यदा द्रष्टाऽनुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं
वेत्ति
मद्भावं सोऽधिगच्छति॥19॥
जानकार-पूर्ण
आत्मज्ञानी-ज्यों ही गुणों के सिवाय दूसरे को कर्मों का करने वाला
नहीं मानता है और गुणों से निराली (आत्मा) को जान लेता है,
(त्योंही)
वह मेरा स्वरूप-मुक्त-हो जाता है।19।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥20॥
देह (धारण) के
कारण इन तीन गुणों से पार जाने पर ही मनुष्य जन्म,
मरण
(और) बुढ़ापे के दु:खों से छुटकारा पा के मुक्ति हासिल करता है।20।
अर्जुन
उवाच
कैर्लिगैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो
भवति प्रभो।
किमाचार: कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्त्तते॥21॥
अर्जुन ने
पूछा (कि) हे प्रभो,
इन तीन
गुणों से पार पाये (मनुष्य) के चिद्द क्या हैं
? उसके
आचरण कैसे होते हैं
? और
इन तीन गुणों से पार पाते हैं कैसे
?।21।
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं
च प्रवृत्तिं
च मोहमेव च पाण्डव।
न
द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति॥22॥
श्रीभगवान् ने
कहा-हे पाण्डव, (तीनों
गुणों के क्रमश: कार्य) प्रकाश,
प्रवृत्ति और मोह के होने पर न तो (उनसे) द्वेष रखता है और न यही
चाहता है कि वे हट जायें।22।
यही है पहले
प्रश्न का उत्तर। गुणातीत की पहचान पूछी थी। वही इसमें कही गयी है।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्त्तन्त
इत्येव योऽवतिष्ठति नेंगते॥23॥
समदु:खसुखं स्वस्थ: समलोष्टाश्मकांचन:।
तुल्यप्रियाप्रियो
धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति:॥24॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो
मित्ररिपक्षयो:।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते॥25॥
(अतएव)
जो उदासीन की तरह रहता है,
जिसे
गुण हिला-डुला नहीं सकते,
'ये तो
गुण ही अपना काम कर रहे हैं,
(मुझे
इससे क्या ?)'
इस
प्रकार (ख्याल किये) जो निश्चिन्त पड़ा रहता है (और) जरा भी
हिलता-डोलता नहीं,
जिसके
लिए दु:ख-सुख समान हैं,
जो कभी
बेचैन नहीं होता,
जिसकी
नजरों में मिट्टी का ढेला,
पत्थर
एवं सोना बराबर ही हैं,
जिसके
लिए प्रिय-अप्रिय एक से हैं,
जो
हिम्मतवाला है,
जिसके
लिए अपनी निन्दा या स्तुति एक सी ही है,
जो
मान-अपमान में ज्यों का त्यों रहता है,
जिसके
लिए शत्रु या मित्र के पक्ष हईं नहीं (और) जो सभी संकल्पों से बिलकुल
ही बरी है,
वही
गुणातीत कहा जाता है।
23।24।25।
यही है दूसरे
प्रश्न, 'गुणातीत
का आचरण कैसा होता है'
का
उत्तर। आगे का 26वाँ
श्लोक तीसरे का उत्तर है। तीसरे में इसका उपाय पूछा था।
मां च
योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स
गुणान्समतोत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥26॥
जो कभी भी न
डिगनेवाली भक्ति के ही रास्ते मेरा सेवन करता है वही इन गुणों से
बखूबी पार पा के ब्रह्मरूप हो जाता है।
26।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च
धर्मस्य
सुखस्यैकान्तिकस्य च॥27॥
क्योंकि
अहम्-आत्मा-ही अविनाशी,
निर्विकार,
नित्य
धर्मस्वरूप और बराबर बने रहने वाले सुख रूपी ब्रह्म का आधार है।27।
तैत्तिरीय
उपनिषद् की ब्रह्मानन्द बल्ली के शुरू में ही लिखा है कि सत्य एवं
ज्ञानरूप ही ब्रह्म है और है वह अनन्त। जो उसे गुफा के भीतर विस्तृत
आकाश में रहने वाला जान लेता है उसके सभी मनोरथ एक ही साथ ज्ञानरूपी
ब्रह्म के रूप में पूरे हो जाते हैं,-''सत्यं
ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहायां पर मे व्योमन्। सोऽश्नुते
सर्वान्कामान्सह। ब्रह्मणा विपश्चितेति।''
इसके
बाद उस गुफा का,
जिसमें
विस्तृत आकाश है,
निरूपण
शुरू हुआ है। संक्षेप यही है कि अन्नमय,
प्राणमय,
मनोमय,
विज्ञानमय और आनन्दमय नामक कोषों का ही वर्णन वहाँ विस्तार के साथ
गुफा के रूप में पाया जाता है। तलवार के म्यान को कोष कहते हैं।
जिसके भीतर कोई चीज छिपी हो,
छिपाई
जा सके असल में कोष वही कहा जाता है। रेशम का कीड़ा अपने बनाये ही
रेशम के कोये के भीतर छिप जाता है। वह निकाला न जाए तो मर भी जाता
है। कोये को खुद भी काट के निकल आता है। उस कोये को कोश कहते हैं और
यह कोश इसी कोष शब्द का बिगड़ा रूप है। आत्मा भी स्थूल,
सूक्ष्म और कारण इन तीन शरीरों के भीतर छिपी है। एके बाद दीगरे उस पर
पाँच म्यान चढ़े हैं। स्थूल शरीर को ही अन्नमय कोष कहते हैं। सूक्ष्म
या लिंग शरीर के भीतर पाँच प्राण,
दस
इन्द्रियाँ और मन,
बुध्दि
मिला के कुल सत्रह पदार्थ माने जाते हैं। इनमें पाँच प्राणों का
प्राणमय,
मन और
कर्मेन्द्रियों का मनोमय और बुध्दि तथा ज्ञानेन्द्रियों का विज्ञानमय,
ये तीन
कोष हैं। अविद्या या अज्ञान को ही कारण शरीर और आनन्दमय कोष कहते
हैं। यह संसार अज्ञानमूलक ही तो माना जाता है। इस तरह इन्हीं पाँच
कोषों के भीतर जो आत्मा है उसी का वहाँ उल्लेख है। उसे सत्य,
ज्ञान
और आनन्दरूप कहा है। अन्त में ब्रह्म को आनन्दमय कोष का अन्तिम भाग
या पुच्छ स्थानीय मान के
'ब्रह्म
पुच्छं प्रतिष्ठा'
ऐसा
लिखा है। असल में इन कोषों को पक्षी का आकार दे के पूँछ की जगह
ब्रह्म को माना है। पूँछ के द्वारा ही पक्षी को पकड़ने से यहाँ मतलब
है। ब्रह्म को पकड़ने से ही ये पाँचों कोष पकड़े जा सकते हैं,
यही
कहना है। इसीलिए शुरू में उसी ब्रह्मात्मा से आकाश आदि के द्वारा इन
सबों की उत्पत्ति लिखी गयी है,
'तस्माद्वा
एतस्मादात्मन आकाश: संभूत:'
आदि।
इस श्लोक में
हमारे जानते यही बात लिखी है। कृष्ण का कहना है कि
'अहम्'
ही
अर्थात् आत्मा ही तो ब्रह्म की भी प्रतिष्ठा है,
मूलाधार है। यदि ब्रह्म का पता लेना है,
उसे
पकड़ना है तो आत्मा को ही पकड़ने से वह मिल सकता है,
पकड़ा
जा सकता है। इससे पहले के श्लोक में यह कहा है कि कभी न डिगने वाली
भक्ति के द्वारा ही जो मेरा यानी आत्मा का सेवन करता है वही इन तीनों
गुणों से-त्रिगुणात्मक संसार से-पार जा सकता है। उस पर शायद किसी को
ख्याल हो कि कृष्ण अपनी या आत्मा की भक्ति क्यों कहते हैं और ब्रह्म
की क्यों नहीं बताते
?
क्योंकि वही तो सबका मूलाधार है और उसी के जानने से यह भव-जाल छँटता
है। उसी का जवाब इस अन्तिम श्लोक में है। कहते हैं कि असल चीज तो
'अहम्'
है,
आत्मा
है। उसी के जानने से सब कुछ जाना जा सकता है। यों ही ब्रह्म को कहाँ
ढूँढ़ा जाय ?
और इस
बात में उनने तैत्तिरीय की उस आनन्दबल्ली को ही लिया है,
जिसमें
आत्मा को ब्रह्मरूप कहते हुए और यों ब्रह्म को लापता या परोक्ष-'तस्मात्'-बताते
हुए आत्मा से ही सृष्टि का पसारा माना है। अन्त में सबकी प्रतिष्ठा
या नींव ब्रह्म को कह के उसे आत्मस्वरूप ही कहा है।
'आनन्दं
ब्रह्मणो विद्वान्'
के
द्वारा आनन्दरूप भी कह दिया है। इसी से कृष्ण ने कह दिया कि सबकी
प्रतिष्ठा या नींव तो
'अहम्'
है,
आत्मा
है। यहाँ 'अहम्'
कितना
महत्तवपूर्ण है! इसमें कितनी खूबी और सुन्दरताहै!
यदि
आनन्दबल्ली को देखा जाय तो वहाँ धर्म के रूप में जानें कितनी ही
चीजें कही गयी हैं। मगर ब्रह्मात्मा का जो असली स्वरूप सत्य,
ज्ञान
और आनन्द है,
कृष्ण
ने इन्हीं तीन धर्मों को पकड़ा है,
यही
जगत् के धारण करने वाले हैं। इसीलिए धर्म हैं। पंचदशी में विद्यारण्य
ने इनकी यह खूबी समझाई है। इनमें सत्य को
'अमृतस्याव्ययस्य'
पदों
से,
ज्ञान की
'शाश्वतस्य
धर्मस्य'
पदों से और
आनन्द को 'सुखस्यैकान्तिकस्य'
पदों
से कह दिया है। धर्म हैं यों तो सभी। फलत: सभी के साथ
'धर्मस्य'
को लगा
भी सकते हैं। मगर नमूने के रूप में एक को ही कहा है।
इस अध्याय के
गुणातीत प्रकरण में ही दो बार सम और चार बार उसी अर्थ में तुल्य शब्द
आये हैं। यहाँ भी आत्मज्ञानी की ही समदृष्टि बताई गयी है। इस अध्याय
का विषय तो स्पष्ट है।
इति श्री.
गुणत्रायविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय:॥14॥
श्रीम. जी
श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका गुणत्रय-विभागयोग नामक चौदहवाँ
अध्याय यही है।
अगला पृष्ठ
: पन्द्रहवाँ अध्याय
(शीर्ष पर वापस)
|