सत्रहवाँ
अध्याय
गीता में
श्रध्दा की बात पहले बहुत बार आ चुकी है। किसी भी काम की सफलता के
लिए उसे बुनियादी तौर पर जरूरी माना गया है।
'श्रध्दावन्तोऽनसूयन्त:'
(3।31), 'श्रध्दावांल्लभते
ज्ञानं' (4।39), 'अज्ञश्चाश्रद्दधनश्च'
(4।40), 'अयति:
श्रध्दयोपेत:' (6।37), 'श्रध्दा
वान्भजते' (6।47), 'श्रध्द-यार्चितुमिच्छति',
'श्रध्दां तामेव' , 'स
तया श्रध्दया युक्त:' (7।21-22), 'अश्रद्दधना:
पुरुषा:' (9।3)
तथा 'येप्यन्यदेवताभक्ता'
(9।23) आदि में सभी
प्रकार की सफलता के लिए यह श्रध्दा आवश्यक मानी गयी है। हमने जगह-जगह
यह बात स्पष्ट भी कर दी है। फिर भी दार्शनिक ढंग से उसका विवेचन और
विश्लेषण अभी तक नहीं हो पाया है और है यह निहायत जरूरी बात। ऐसी
मौलिक बात यों ही एक श्रध्दा शब्द से या इसी के सूचक किसी और शब्द से
ही कह दी जाय, यह तो अत्यन्त नाकाफी है।
इस बात का तो पूरा विवरण होना चाहिए। इसकी सारी भीतरी बातें खुल जानी
चाहिए। जैसे सोलहवें
अध्याय
में यम-नियमों का हीर निकाल के रख दिया गया है और उस
सम्बन्ध
की सारी बातों का नग्न
चित्र
खींचा गया है,
उससे कम जरूरत इस बात की नहीं है। प्रत्युत
सोलहवें में तो अन्ततोगत्वा निषेधात्मक
बात ही कही गयी है न
? परन्तु यह है विधानात्मक।
इसीलिए इसकी कठिनता तथा उपयोगिता स्वयंसिध्द है। ऐसी दशा में इसका
विश्लेषण और भी ज्यादा होना चाहिए और यही बात
सत्रहवें
अध्याय
में की गयी है। गीताधर्म
से इसका कितना गहरा एवं बुनियादी ताल्लुक है और इस निरूपण का असली
आशय क्या है यह बात हमने खूब विस्तार के साथ पहले ही बता दी है। उसे
पढ़े बिना इसके पढ़ने में न तो मजा आयेगा और न यह बात ठीक-ठीक समझी ही
जा सकेगी।
यह श्रध्दा
तीन प्रकार की मानी गयी है। क्योंकि श्रध्दा तो मनुष्य में ही होती
है और उसके हरेक गुण होते हैं तीनों गुणों के आधार पर बनी उसकी
प्रकृति के ही अनुसार। यह बात भी अच्छी तरह प्रतिपादित हो चुकी है।
यही वजह है कि श्रध्दा भी तीन प्रकार की होती ही है। इसीलिए उसी
श्रध्दा के अनुसार किये गये सभी कर्मों का भी तीन प्रकार का हो जाना
जरूरी है। इसी दृष्टि से नमूने के रूप में ही भोजन,
यज्ञ,
तप,
दान का
वर्णन भी आ गया है। असल में भोजन का ताल्लुक तो सीधे श्रध्दा से है
नहीं। हाँ,
गुणों
से तो हुई। यह बात भी है कि जैसा भोजन होता है वैसा ही स्वभाव भी
होता है। इस तरह भोजन का सम्बन्ध सभी चीजों से मूलरूपमें हो जाता है।
श्रध्दा भी इसीलिए भोजन के साथ घनिष्ठता के साथ जुट जाती है। इसीलिए
पहले भोजन का ही विवरण दे के उसके बाद तीन प्रमुख कर्मों का विवरण
दिया है। श्रध्दा के बिना जो कुछ भी किया जाता है वह गीता के दायरे
के बाहर की चीज है। इसीलिए गीता उसे पूछती तक नहीं। वह गीता की गिनती
में हुई नहीं। वह तो न यहाँ का है,
न वहाँ
का। वह तो 'धोबी
का कुत्ता न घर का है,
न घाट
का'
इसीलिए गीता
ने इस अध्याय के अन्त में उसे असत्,
व्यर्थ,
रद्दी
कह के एक प्रकार से धिक्कारा है।
तप में एक बात
और भी आ गयी है। वह कायिक,
वाचिक,
मानसिक
रूप में तीन प्रकार का होता है। फिर हरेक के तीन-तीन प्रकार,
श्रध्दा के भेद से कहिए,
गुण के
भेद से कहिए,
होने
से तप के नौ प्रकार हो गये हैं।
इसका प्रसंग
भी सोलहवें अध्याय के अन्त वाले दो श्लोकों ने ला दिया है। वहाँ तो
सीधा प्रसंग था काम,
क्रोध
एवं लोभ के ही मिटाने का। मगर वह तो निचोड़ ठहरे उन समूची सम्पत्तियों
के ही जो समाज के लिए घातक हैं। फिर आत्मदर्शन जैसी नाजुक चीज का
क्या कहना ?
इसे तो
वे पलक मारते ही मटियामेट कर दें। इसीलिए जो मार्ग उनके मिटाने का
वहाँ बताया गया है वह केवल काम,
क्रोधदि तक ही सीमित न रह के कर्तव्य-अकर्तव्य क्षेत्रके विस्तृत
दायरे के भीतर आ जाने वाली सभी बातों को ही उसने साथ में ले लिया है।
फलत: कर्म यार् कर्तव्य मात्र के ही बारे में तय पाया गया कि
शास्त्रीय विधान को जान के ही तदनुसार ही अमल करना चाहिए। ठीक भी
है। हरेक बातों के जुदे-जुदे शास्त्र होते हैं। यहाँ तक कि खेल-कूद
के लिए भी लम्बे-चौड़े शास्त्र बन चुके हैं। इसलिए यह तो उचित ही है
कि जो कुछ करना हो उससे पहले तत्सम्बन्धी शास्त्र का अनुशीलन किया
जाय,
उसके जानकारों
से ही पूछताछ की जाय। दूसरा चारा हुई नहीं,
यदि
सफलता चाहतेहैं।
इस पर एकाएक
अर्जुन के भीतर खलबली का मच जाना और उसका चटपट प्रश्न कर बैठना
स्वाभाविक था और इसी से इस अध्याय का श्रीगणेश भी हो गया। शास्त्र
और उसका विधान ये शब्द कुछ ऐसे हैं कि जनसाधारण को खटक जाते हैं,
इस
मानी में कि वे बहुत बड़ी चीजें हैं जो उनकी पहुँच के बाहर की हैं।
तिस पर भी तुर्रा यह है
'किं
कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:'
(4।16)
के
द्वाराखुद कृष्ण ने ही पहले ही कह दिया है कि कर्म-अकर्म की पहेली
ऐसी पेचीदा है कि बड़े-बड़े दिमागदार भी चकरा उठते हैं। तो फिर
जनसाधारण उन दिमागदारों के बनाये शास्त्र को कैसे जान पायेंगे
?
यह तो निरी
असम्भव सी बात है। और अगर न जानें तो सारा कारबार ही बन्द हो जाये।
क्योंकि ऐसा ही हुक्म हो गया। अर्जुन ने स्पष्ट देखा कि जिस पर हमारा
कोई वश न हो उसी के पहिये में हमें और हमारे कर्तव्यर्कत्ताव्य को
बाँध देना कहाँ तक उचित है। उसे तो यह बात जँच न सकी। हाँ,
जो चीज
अपने वश की है और जिसे ईमानदारी तथा दृढ़ संकल्प कहते हैं,
अपने
लक्ष्य और उसकी सिध्दि के उपाय में अटल विश्वास कहते हैं,
उसके
ऊपर यदि कर्म-अकर्म की निर्भरता हो तो यह बात समझ में आती है। यही
उचित भी है। इसी का दूसरानाम श्रध्दा है। लेकिन अगर किसी ने श्रध्दा
के साथ कर्म तो किया,
फिर भी
शास्त्रीयविधिविधान नहीं जानता है,
तो
उसकी क्या गति होगी,
यह
प्रश्न स्वाभाविक था। उसने समझा कि वह तो कहीं का न रहेगा,
जैसा
कि अभी कहा है। मगर यह तो ठीक नहीं जँचता।
निष्ठा,
गति या
हालत एक ही बात है और घबरा के यही जानने के लिए-
अर्जुन
उवाच
ये
शास्त्रविधिमुत्सृज्य
यजन्ते श्रध्दयान्विता।
तेषां
निष्ठा तु का कृष्ण सत्तवमाहो रजस्तम:॥1॥
अर्जुन ने
पूछा (कि) हे कृष्ण,
जो लोग
शास्त्रीय विधि की पाबन्दी न करके श्रध्दा के साथ यज्ञादि क्रिया
करते हैं उनकी क्या हालत है
? (उनकी
गिनती किस श्रेणी में है
?)
सत्तव,
रज या तम में
?।1।
असल में तीन
गुणों के बाहर तो कोई जा सकता नहीं। इसीलिए स्वभावत: अर्जुन ने पूछा
कि वे लोग सात्तिवक होंगे या राजस या तामस
?
कृष्ण ने
उत्तर भी वैसा ही दे दिया कि जैसी श्रध्दा होगी वैसे ही वे लोग होंगे,
चाहे
शास्त्रीय विधि की पाबन्दी करें या न करें। असल में उनके कहने का
आशय यही है कि शास्त्रीय पाबन्दी न रखने से नीचे से ऊपर तक अराजकता
हो जायगी और सब गड़बड़-घोंटाले में पड़ जायगा। इसलिए कोई व्यवस्था तो
चाहिए ही और वह हो सकती है केवल शास्त्रीय विधि ही। दूसरे की तो
सम्भावना हुई नहीं। यदि यों ही श्रध्दा के नाम पर छोड़ दिया जाए तो
लाखों में शायद ही एकाध ठीक-ठीक उसके अनुसार करें। शेष तो
अन्धाधुन्धी ही मचा देंगे। यदि दुनिया में ईमानदारी और सचाई ही सबों
में होती और दृढ़ संकल्प ही पाया जाता,
तो फिर
उपदेश की जरूरत ही क्यों होती
?
यहाँ तो
उल्टी गंगा बहती है। इसीलिए नियन्त्रण रखना जरूरी है। मगर जो लोग
सच्चे,
ईमानदार और
धुनवाले हैं उनके लिए तो छुट्टी ही है। उनके तो चरण चूमते हैं
शास्त्रीय विधिविधान। कारण,
इनका
भी तात्पर्य है धीरे-धीरे वैसे ही लोगों को पैदा करना। यही बात-
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा
भवति श्रध्दा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्तिवकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥2॥
सत्तवानुरूपा सर्वस्य श्रध्दा भवति भारत।
श्रध्दामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रध्द: स एव स:॥3॥
श्रीभगवान्
बोले (कि) देहधारियों की वह स्वाभाविक श्रध्दा तीन तरह की होती
है-सात्तिवक,
राजस
और तामस। उसके बारे में और भी सुन लो। हे भारत,
सबकी
श्रध्दा सत्तवगुण (की कमी-बेशी,
प्रधानता-अप्रधानता) के ही अनुसार होती है। (क्योंकि) मनुष्य तो
श्रध्दामय है। (इसीलिए) जिसकी जैसी श्रध्दा है वह वैसा ही है।2।3।
प्रश्न हो
सकता है कि इसकी पहचान क्या है
? आखिर
कैसे जानें कि कौन आदमी कैसा है
?
उत्तर सुनिए-
यजन्ते
सात्तिवका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा:।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना:॥4॥
अशास्त्रविहितं
घोरं तप्यन्ते ये तपो जना:।
दम्भाहंकारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता:॥5॥
कर्शयन्त:शरीरस्थंभूतग्राममचेतस:।
मां
चैवान्त: शरीरस्थं तान् विध्दयासुरनिश्चयान्॥6॥
सात्तिवक जन
देवताओं का यजन-पूजन करते हैं,
राजस
लोग यक्ष-राक्षसों का और शेष तामस लोग प्रेतों तथा भूतगणों की
यज्ञपूजा करते हैं। शास्त्रों में विहित न हो ऐसे तप को दम्भ,
अहंकार
से युक्त और काम,
राग,
बलवाले
जो लोग करते हैं (और इस तरह) शरीर के भीतर रहने वाले पदार्थ समूह को
और अन्त:करण में रहने वाले मुझ आत्मा को भी कमजोर करते रहते हैं,
उन्हें
आसुरी निश्चयवाले ही समझो।4।5।6।
यहाँ पहले तो
ऐसे लोगों के तीन भेद बताये गये हैं और उनकी पहचान दी गयी है। देव से
अभिप्राय है सात्तिवक दिव्यशक्तियों से ही;
न कि
साधारण देवताओं से। क्योंकि वे तो राजस और तामस ही हुआ करते हैं।
'एको
देव: सर्वभूतेषु गूढ़:'
(श्वेता.
6।11),
'ये
पूव देवा ऋषयश्च तद्विदु:'
(श्वेता.
5।6)
तथा
'एष
देवो विश्वकर्मा'
(श्वेता.
4।17)
आदि
में भगवान,
विष्णु,
विद्वान् आदि को ही देव कहा है। यही उचित भी है। साधारण् देवताओं के
पूजक तो स्वर्गादि चाहते हैं और सत्तव का काम है ज्ञान। इसीलिए यक्ष,
राक्षस
का अर्थ वैसे ही देवताओं से है। जो तामसी देवता हैं उन्हीं को
प्रेत-भूत के नाम से गिनाया है। वे हजारों हैं और उन्हें जनसाधारण्
खूब मानते-जानते हैं। इसीलिए उनके गण का उल्लेख किया है। बाकियों के
गण या समूह होने पर भी वे उतने परिचित नहीं हैं। मगर भूत-प्रेत तो
घर-घर जुदे-जुदे हैं। जोई मर गये या गुजर गये उन्हीं को भूत-प्रेत
कहते हैं। शब्दार्थ भी यही है।
यहाँ पाँचवें
और छठे श्लोकों में जो कुछ कहा है वह यद्यपि शास्त्रीय विधि से बाहर
वालों के ही कर्म हैं,
तथापि
उनसे मतलब श्रध्दाशून्य कर्मों से ही है। दिखावटी या अहंकारपूर्वक
किये गये कर्म तो सदा श्रध्दाशून्य हुआ ही करते हैं। इसी तरह काम,
राग या
बलपूर्वक भी जो कुछ किया जाता है वह भी श्रध्दाशून्य ही होता है।
श्रध्दा की वहाँ गुजर कहाँ
?
पहुँच कहाँ ?
इसीलिए
तो आत्मा,
इन्द्रियों
तथा रक्त-मांसादि के कृश करने की बात कही गयी है। इन्द्रियों या
रक्त-मांसादि की कृशता उनकी कमजोरी और दुर्बलता कही है। मगर आत्मा की
कृशता है उसका पतन,
उसकी
विवेकशून्यता। यदि कर्शयन्त: की जगह कर्षयन्त: पाठ हो तो भी नीचे
खींचना या ले जाना-घसीटना-ही उसका अर्थ है और कोई फर्क नहीं है।
इसीलिए श्रध्दा का पता वहाँ नहीं रहता। ऐसे कर्मों की गिनती गीता
करती ही नहीं। अन्तवाले (28वें)
श्लोक में आमतौर से इन्हें दूषित ही ठहराया है। यहाँ भी उसी का नमूना
बताया गया है। परन्तु यह बात यों ही प्रसंग से आ गयी है। प्रसंग तो
त्रिविधा गुणमूलक पदार्थों का ही है। इसीलिए आगे के श्लोकों में वही
तीन प्रकार का वर्णन यों लिखाहै-
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो
भवति प्रिय:।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥7॥
सभी का प्रिय
आहार भी तीन प्रकार का होता है (और) यज्ञ,
तप तथा
दान भी। इनके ये प्रकार सुन लो।7।
आयु:सत्तवबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धाना:।
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्तिवकप्रिया:॥8॥
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन:।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा:॥9॥
यातयामं
गतरसं पूर्ति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेधयं भोजनं तामसप्रियम्॥10॥
आयु,
सत्तवगुण,
बल,
नीरोगता,
सुख एवं
प्रसन्नता को बढ़ाने वाले,
रसीले,
चिकने
या स्नेहयुक्त,
कुछ
देर में पचने वाले और चित्त को पसन्द आने वाले आहार सात्तिवक जनों के
प्रिय होते हैं। कड़वे,
खट्टे,
नमकीन,
ज्यादा
गर्म,
चरपरे,
रूखे
तथा जलन पैदा करने वाले आहार राजस लोगों के प्रिय होते तथा दु:ख,
शोक,
बीमारी
पैदा करते हैं। जिसे बने एक पहर गुजर गया हो ऐसा,
नीरस,
दुर्गन्ध-युक्त,
बासी,
जूठा
और नापाक भोजन तामस लोगों को पसन्द आता है।
8।9।10।
अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो
य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मन: समाधाय
स सात्तिवक:॥11॥
अभिसंधाय
तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते
भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विध्दि राजसम्॥12॥
विधिहीनमसृष्टान्नं
मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रध्दाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥13॥
फल की
आकांक्षा न रखने वाले लोग शास्त्रीय विधि के अनुकूल जो यज्ञ
'हमारा
यह कर्तव्य है'
इसी
विचार से मन को निश्चल और एकाग्र करके करते हैं वही सात्तिवक यज्ञ
है। हे भरतश्रेष्ठ,
जो
यज्ञ फलेच्छा रख के और दिखाने के लिए भी किया जाता है। उस यज्ञ को
राजस जानो। शास्त्रीय विधि से रहित,
अन्नदानशून्य,
बिना
मन्त्र (और) बिना दक्षिणा के ही तथा श्रध्दा के बिना ही किये गये
यज्ञ को तामस कहते हैं।11।12।13।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनंशौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥14॥
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं
चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥15॥
मन:प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भावसंशुध्दिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥16॥
देवता,
ब्राह्मण,
गुरु,
विद्वान् इन सबों की सत्कार-पूजा,
पवित्रता,
नम्रता,
ब्रह्मचर्य और अहिंसा (यही) शरीर का तप कहा जाता है। किसी को न चुभने
वाला सत्य,
प्रिय
और हितसाधक वचन (बोलना) और सद्ग्रन्थों का अभ्यास (यही) जबान की
तपस्या है। मन की निर्मलता,
हँंसमुखपन,
जबान
पर काबू,
मन पर
नियन्त्रण (और) निष्कपट व्यवहार यही मन की तपस्या कही जाती है।14।15।16।
श्रध्दया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधां नरै:।
अफलाकांक्षिभिर्युक्तै: सात्तिवकं परिचक्षते॥17॥
सत्कारमानपूजार्थं तपो दंभेन चैव यत्।
क्रियते
तदिह प्रोक्तं राजसं चलमधारुवम्॥18॥
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तप:।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥19॥
पहले दर्जे की
श्रध्दा से फलाकांक्षारहित,
मन को
एकाग्र किये हुए मनुष्यों के द्वारा किये गये उन तीनों ही प्रकार के
तपों को सात्तिवक कहते हैं। मौखिक बड़ाई,
इज्जत
और पूजा के लिए और दम्भ से भी जो तप किया जाता है,
उस
क्षणभंगुर और अनिश्चित फलवाले तप को यहाँ राजस कहा है। जो तप नासमझी
से ऊँट की पकड़ की तरह हठात् अपने को (केवल) पीड़ा दे के ही या औरों के
विनाश के लिए किया जाता है उसे तामस कहा है।17।18।19।
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे
काले च पात्रो च तद्दानं सात्तिवकं स्मृतम्॥20॥
यत्तु
प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।
दीयते च
परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥21॥
अदेशकाले यद्दानमपात्रोभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥22॥
देना चाहिए
ऐसा समझ के ही जो दान उपकार के बदले में न हो के (जरूरत की जगह)
जरूरत के समय दान के योग्य को ही दिया जाता है उसी दान को सात्तिवक
माना है। जो दान,
उपकार
के बदले में या किसी प्रयोजन से बहुत रो-गा के दिया जाता है उस दान
को राजस कहा है। (जो दान बिना जरूरत के और इसीलिए अनुचित) देश,
काल और
पात्र में बिना सत्कार के ही तिस्कारपूर्वक दिया जाता है उसे तामस
कहा है।20।21।22।
आगे बढ़ने के
पूर्व यज्ञ,
तप और
दान के सम्बन्ध में दो-एक बातें कह देनी हैं। यह तो मोटी बात है कि
दान के लिए देश,
काल,
पात्र
का होना जरूरी है। देश से मतलब खामखा काशी,
अयोध्या आदि तीर्थों से,
काल से
मतलब ग्रहण आदि से ही और पात्र से अभिप्राय ब्राह्मण,
साधु
आदि से ही नहीं है। जहाँ पानी,
औषधालय,
स्कूल
आदि के बिना बहुत हर्ज हो वहीं पर कुऑं,
तालाब,
अस्पताल,
स्कूल आदि बना
देना देश में दान हुआ। इसी तरह जाड़े के दिनों में या अकाल वगैरह के
समय भूखे-नंगों को वस्त्र,
अन्नादि देना काल का दान हो गया। मगर हमारे पास एक ही सेर अन्न है।
जिसे लेने को एक ओर दो-चार भूखे और दूसरी ओर साधु-फकीर या पुजारी के
नाम पर मुश्चण्ड लोग खड़े हैं,
तो दान
के पात्र वहाँ भूखे ही होंगे,
न कि
चण्ड-मुचण्ड लोग। सारांश,
जहाँ
जिस समय जिन लोगों को कुछ भी देने से अधिक से अधिक लाभ समाज का या
व्यक्तियों का हो वही दान देश,
काल,
पात्र
का दान है।
लेकिन इन
यज्ञादि के बारे में जो असल बात विचारने की है वह तो दूसरी ही है।
पहले श्रध्दा को सात्तिवक,
राजस,
तामस
तीन प्रकार का कहा है। मगर जब नमूने के लिए यहाँ यज्ञादि को दिखाने
लगे तो कहीं तो श्रध्दा का नाम केवल सात्तिवक में ही लिया है जैसा कि
बीच में तप में स्पष्ट ही देखा जाता है और कहीं-यज्ञ तथा दान में-वह
भी नहीं किया है। बल्कि उसकी जगह यज्ञ में शास्त्रीय विधि का ही नाम
लिया गया है। इसी के साथ यह भी देखा जाता है कि सात्तिवक तथा राजस
यज्ञों को छोड़ केवल तामस में ही यह कह दिया कि वह श्रध्दा से रहित
होता है और शास्त्रीय विधि से हीन भी। इससे दो बातें झलक जाती हैं।
एक तो यह कि शास्त्रीय विधि और श्रध्दा साथ चलती हैं;
हालाँकि अर्जुन का प्रश्न इससे विपरीत है। वह तो यही मान के है कि
शास्त्रीय विधि न होके भी श्रध्दा हो सकती है। दूसरी यह कि तामस
कर्मों से श्रध्दा होती ही नहीं। इसी को दूसरे शब्दों में कह सकते
हैं कि तामसी श्रध्दा होती ही नहीं। मगर यह भी पूर्व के उस कथन के
विपरीत है कि श्रध्दा तीन तरह की होती है।
दान की भी यह
हालत है कि न तो उसमें श्रध्दा का ही उल्लेख है और न विधि का ही! इस
तरह तप में भी जब सात्तिवक को श्रध्दापूर्वक कह के शेष दो में चुप्पी
मारते हैं तो यह खामख्वाह हो आता है कि राजस और तामस तप में श्रध्दा
होती ही नहीं। विपरीत इसके जब तामस यज्ञ को ही श्रध्दा के बिना किया
गया कहते हैं तो एकाएक विचार हो आता है कि हो न हो सात्तिवक तथा राजस
यज्ञों में श्रध्दा जरूर होती है। मगर अगर वहाँ होती है तो तप में भी
क्यों नहीं,
यह
प्रश्न अनायास उठ खड़ा होता है। इस प्रकार सबों का विचार करने से अजीब
घपला दीखता है,
गड़बड़ मालूम पड़ती है। जब इसी के साथ
'ॐ
तत्सदिति'
(23-27)
आदि पाँच
श्लोकों को इसके बाद ही पढ़ते हैं तो यह ख्याल होता है कि श्रध्दा के
साथ ही 'ॐ
तत्सत्'
इस
छोटे मन्त्र का उच्चारण भी हर कर्म में जरूरी हो जाता है। इस तरह
श्रध्दा की छाती पर शास्त्रीय विधि खामख्वाह बैठी-बैठाई
सी दीखती है। लेकिन तब तो अर्जुन के प्रश्न का उत्तर ठीक-ठीक
मिलता नहीं। विपरीत इसके जब आखिरी या
28वाँ
श्लोक देखते हैं तो कुछ उल्टी ही समां नजर आती है। वह तो बेलाग कहता
है कि चाहे शास्त्रीय विधि हो या न हो। मगर यदि श्रध्दा न हो तो सब
किया-कराया
चौपट!
इस
प्रकार एक विचित्र गोलमाल सा हो गया है और किसी बात की सफाई मालूम
पड़ती ही नहीं।
इसी सिलसिले
में एक बात और भी पाई जाती है। जो यज्ञ और तप दम्भपूर्वक या महज
दिखावटी होते हैं उन्हें राजस कहा है। दोनों ही में दम्भ शब्द पाया
जाता है। मगर यदि पाँचवें तथा छठे श्लोकों को देखें तो दम्भपूर्वक
किया गया तप आसुरी माना गया है। उसी को शास्त्रविधि-शून्य
भी कहा है। सात्तिवक,
राजस,
तामस
कर्मों से उसे जुदा भी माना है,
जैसा
कि प्रसंग देखने से ही स्पष्ट हो जाता है। उसके विपरीत यहाँ ये दोनों
एक तो राजस हो गये। दूसरे शास्त्रीय विधि के बाहर हैं यह तो लिखा
गया ही है। बल्कि तामस यज्ञ को विधिहीन कहने से ही यह राजस
विधि-युक्त अर्थत: सिध्द हो जाता है। उसी का साथी तप भी वैसा ही माना
जाना चाहिए। सोलहवें अध्याय में यह भी देखी चुके हैं कि दम्भवाले
यज्ञों को आसुरी कहा है। इस तरह पूर्वापर-विरोधक आ जाने से और भी
दिक्कत पैदा हो गयी है।
लेकिन दरअसल
बात ऐसी है नहीं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि जब उपसंहार या अन्त
में श्रध्दारहित यज्ञ,
तप,
दानों
का-क्योंकि हुत या हवन तो यज्ञ में ही आ जाता है-नाम ले के स्पष्ट ही
उन्हें चौपट बताया है,
तो
इससे निर्विवाद हो जाता है कि उससे पहले सर्वथा श्रध्दाशून्य कर्मों
का जिक्र हुई नहीं। क्योंकि यह तो सामान्य रूप से सभी प्रकार के ही
यज्ञों,
दानों,
तपों
के बारे में कहना है। फिर बीच में किसी एकाध का नाम लेने का क्या
मौका ?
वह तो व्यर्थ
ही ठहरा न ?
उसकी
जरूरत तो वहाँ है नहीं। उससे काम भी तो नहीं निकलता और अन्ततोगत्वा
सभी कर्मों के बारे में
'अश्रध्दयाहुतं
दत्तां'
का कहना जरूरी
होई जाता है। ऐसी दशा में यदि कहीं-कहीं अश्रध्दा आ गयी है तो उसका
आशय कदापि यह नहीं है कि उनमें श्रध्दा का सर्वथा या बिलकुल ही अभाव
है। किन्तु केवल यही कि श्रध्दा अधूरी है,
कच्ची
है। जब भोजन में नमक कम हो तो कभी-कभी कह बैठते हैं कि इसमें तो नमक
हुई नहीं। इसी तरह कहा जाता है कि आज तो हवा कतई हुई नहीं। मगर हवा न
रहे,
यह तो सम्भव
नहीं। इसलिए उसके मानी यही होते हैं कि कम है,
बहुत
थोड़ी है। यही बात यहाँ भी समझिए। पूरी श्रध्दा होने पर सात्तिवक,
उसमें
कमी होने पर पर राजस और नाममात्र की श्रध्दा या बहुत कम होने पर तामस
यही मतलब होता है। मगर जहाँ श्रध्दा कतई हुई नहीं वही आसुरी है। यही
बात अन्त में और
5-6
श्लोक में भी कही गयी है।
असल में दैवी
और आसुरी के अलावे तीसरा दल तो हुई नहीं। इसीलिए राजस यज्ञ और तप में
जो दम्भ आया है उससे इस अध्याय के और सोलहवें के भी आसुरी स्वभाव का
मेल हो जाना उचित ही है। हमने यह बात पहले कह भी दी है। मगर यह बात
हमेशा याद रखने की है कि आसुरी कहने और राजस,
तामस
श्रध्दा का नाम लेने से यह कभी नहीं मानना होगा कि राजस और तामस
यज्ञादि करने वाले श्रध्दाशून्य हैं। इसीलिए
'अश्रध्दया
हुतं दत्तां'
वाले
में ही उसकी गिनती है। इसीलिए,
5-6
श्लोकों में जो दम्भ आया है वही यज्ञ तथा तप में भी आ गया है,
जिससे
ये तीनों एक ही हो जाते हैं-इनमें जरा भी फर्क नहीं है,
यह
समझना भी भूल है।
5-6
श्लोकों की
बात दूसरी है,
निराली
है और वही मिल जाती है।
'अश्रध्दया
हुतं दत्तां'
के
साथ। न कि यज्ञ और तप के राजस,
तामस
आदि भेद मिलते हैं। दम्भ शब्द के बारे में तो कही चुके हैं कि क्यों
आया है। 5-6
श्लोकों में जो कुछ कहा गया है वह केवल अश्रध्दा की निन्दा के ही
लिए। न कि यहाँ उसका कोई खास प्रयोजन है। क्योंकि उसमें केवल तप की
बात आती है। किन्तु अन्त वाले श्लोक में यज्ञ,
तप,
दान
तीनों को ही चौपट बताया है। ऐसी दशा में यदि सिर्फ निन्दा ही प्रयोजन
न हो के किसी खास बात का प्रतिपादन मतलब होता तो उसकी जरूरत ही क्या
थी ?
वह तो बेकार
हो जाता है। इससे यह भी सिध्द हो जाता है कि पूर्ण श्रध्दा होने पर
सभी कर्म सात्तिवक हो जाते हैं,
फिर
चाहे वह यक्ष-राक्षसों की पूजा हो या भूत-प्रेतों की। यह बात हम पहले
'येप्यन्यदेवता
भक्ता:' (9।23-25)
आदि
में अच्छी तरह बता भी चुके हैं। अगर फिर भी वैसे कर्मों में कसर रह
जाती है या उन्हें तामस और राजस कहते हैं तो केवल इसीलिए कि वह
रास्ता,
वह समझ,
उन
कर्मों के करने की सारी बुनियाद ही गलत है। यही बात
'न
तु मामभिजानन्ति'
(9।24)
में
कही जा चुकी है।
जो यह कहा गया
है कि सात्तिवक यज्ञ और दान में श्रध्दा नहीं पायी जाती है,
उसका
उत्तर साफ है। जब वह सात्तिवक तप में लिखी है तो शेष दो में भी उसे
समझ लेना ही होगा। इसमें कोई विशेष युक्ति की जरूरत है नहीं। सभी
सात्तिवकों की एक सी बात है न
? यह
भी तो देखते ही हैं कि तीनों के बारे में फलाकांक्षा या बदले के
उपकार का ख्याल करके ही करने को लिखा है। बल्कि यज्ञ और तप में तो
'अफलाकांक्षिभि:'
यही
शब्द दोनों जगह है और जब एक जगह
'श्रध्दया'
से
उसका सम्बन्ध है तो दूसरी जगह भी उसे मान लेना आसान है,
अर्थ
सिध्द है। असल में तो प्रयोजन या फल की इच्छा का न होना ही पूर्ण
श्रध्दा की पक्की निशानी है। ये दोनों साथ ही चलने वाली हैं। इसीलिए
जहाँ श्रध्दा में कमी हुई कि फलाकांक्षा,
उपकार
का ख्याल,
दम्भ
आदि धीरे-धीरे घुसने लगे। इसलिए यदि तप में श्रध्दा कही भी गयी है तो
उसकी खास जरूरत नहीं है। फिर भी कहीं लोग ऐसा न समझ बैठें कि श्रध्दा
के बिना भी सात्तिवक कर्म होते हैं,
इसीलिए
बीच में 'श्रध्दया'
लिख
दिया,
जो पहले वाले
यज्ञ में और बादवाले दान में भी माना जायगा। श्रध्दा न कहके जो
शास्त्रविधि कही गयी है वह भी श्रध्दा का सूचक ही है। पूरी
शास्त्रविधि में तो पूर्ण श्रध्दा रहेगी ही। उसके बिना तो
शास्त्रविधि कभी पूरी होई नहीं सकती,
यह
पक्की बात है। प्राचीन विद्वानों और ऋषि-मुनियों ने यही माना भी है।
अब केवल एक ही
बात रह जाती है और वह यह कि इसके बाद के पाँच श्लोकों में जो कुछ कहा
गया है वह भी तो शास्त्र की विधि ही है न
?
किन्तु उसकी
जरूरत यहाँ क्या थी जब कि श्रध्दा की बात आयी गयी है
?
ऐसा प्रश्न
किया जाता है सही। फिर भी शास्त्रविधि के उल्लेख का जो प्रयोजन अभी
कहा है उसके बाद तो इसकी भी गुंजाइश नहीं रह जाती है। परन्तु यहाँ
कुछ खास बात है। बात यों है कि जो लोग शास्त्रीय विधि को जनसाधारण
की पहुँच के बाहर की चीज मानते हैं और इसीलिए उसे हौवा समझते हैं
उनका भी तो ख्याल गीता को करना ही है। गीता धर्म तो सर्वसाधारण के
ही लिए है,
खासकर
यह श्रध्दावाली बात। इसीलिए इस महत्तवपूर्ण प्रश्न पर गीता का ध्यान
जाना अनिवार्य था और उसी ध्यान के परिणामस्वरूप ये पाँच श्लोक हैं।
जो लोग यह
समझते हैं कि शास्त्रीय विधि बहुत बड़ा जाल और पँवारा है और इसलिए
उससे और उसके नाम से ही बुरी तरह घबराते हैं उन्हें गीता का कहना है
कि तुम नाहक ही ऐसा समझ के घबराते हो। देखो न,
ब्रह्मवादी और मोक्षकांक्षी लोग भी इस शास्त्रीय विधि को कितनी आसान
मानते हैं ?
जो
कर्म यज्ञार्थ या भगवदर्पण होते हैं उन्हें भी किस आसानी से
शास्त्रीय विधि से किया जा सकता है! फिर घबराने का क्या सवाल
?
एक
ॐकार,
तत् या सत् शब्द-तीनों में हरेक-ही ऐसा है कि
इसके उच्चारण
मात्र
से
शास्त्रविधि
पूर्ण हो जाती है और अगर तीनों को मिला के
ॐतत्सत्
कह दिया तब तो कहना ही क्या
? इन पाँच श्लोकों का यही आशय है और जब
ब्रह्मवेत्ता, मोक्ष के इच्छुक या
उत्तामोत्ताम कर्मों के करने वाले ही ऐसा करते हैं तो इसे
शास्त्रीय
विधि
न कहें तो और कहें क्या
? आगे 'विधानोक्ता:'
शब्द आया भी है। इस तरह गीता ने सर्वसाधारण
के लिए-उनके भी लिए जो वेद-वेदांग जान पाते नहीं और ऐसे ही लोग
ज्यादा हैं-भी
शास्त्रीय
विधि
सुलभ कर दी। हाँ,
जो वेद-शास्त्र
के ज्ञाता हैं वह तो खामख्वाह लम्बी-चौड़ी विधि
करेंगे ही। किन्तु गीता को उनकी कुछ ज्यादा परवाह है भी नहीं। जब
ब्राह्मणों,
वेदों तथा यज्ञों की उत्पत्ति
इन्हीं तीन शब्दों का उच्चारण करके ही हुई तो फिर इनकी महत्ता का
क्या कहना ?
यज्ञादि कर्मों के आधार
तो वेद और ब्राह्मण ही हैं और जब वही और खुद यज्ञ भी इन्हीं शब्दों
के उच्चारणपूर्वक ही प्रकट हुए तब और बचता ही है क्या
?
श्रध्दा के
बाद और 'अश्रध्दयाहुतं'
के
पहले इन पाँच श्लोकों की बातों का दूसरा मतलब होई नहीं सकता,
शुरू
से ही शास्त्रविधि का प्रश्न उठा भी है। फिर भी इस अध्याय में
श्रध्दा की ही प्रधानता है और वही इसका विषय भी है। इसीलिए श्रध्दा
के बाद ही शास्त्रीय विधान पर अपनी दृष्टि से प्रकाश डाल देना
आवश्यक भी था। इसमें एक बात और भी है।
ॐतत्सत्
का उच्चारण और प्रयोग तो श्रध्दा के बिना होई नहीं सकता। जिन्हें
इसमें या ऐसे कर्मों में पूरा विश्वास नहीं,
निश्चय नहीं है वह भला
ॐतत्सत्
का नाम भी क्यों लेने जायँगे
? इस तरह गीता ने इस बहाने ही श्रध्दा की भी जाँच
कर ली। नहीं तो इसके नाम पर प्रवंचना और ठगी का होना आसान था। इससे
यह भी होगा कि श्रध्दा में अगर जरा भी कोर-कसर होगी या वह पूरी न
होगी, तो इस उच्चारण से पूर्ण हो जायगी।
क्योंकि यह तो उसका राजमार्ग ही है। शुरू में ही हमने जो कहा था कि
श्रध्दा आसान नहीं है, वह सबमें पायी जाती
है नहीं और उसका सम्पादन जरूरी है, वह
जरूरत भी इससे पूरी होती है। इस तरह एक ही तीर से कई शिकार हो जाते
हैं।
आगे जो यह
लिखा है कि ॐ,
तत् और
सत् ये तीनों ब्रह्म के नाम तथा ब्रह्मवाचक शब्द माने जाते हैं उसमें
तो खुद गीता ही साक्षी है।
'ॐमित्येकाक्षरं
ब्रह्म' (8।13)
तथा 'प्रणव: सर्वं'
(7।8) में
ॐ
को
ब्रह्म कही दिया है। इसी प्रकार
'तद्बुध्दयस्तदात्मान:'
(5।17) आदि में जिस
ज्ञान को तत् कहा है वह आत्मा-ब्रह्म स्वरूप ही है और इस श्लोक में
उसी की सम्भावना है। ऐसा और भी आया है। यों तो बार-बार ब्रह्म को सत्
कहा ही है। लेकिन 'न तदस्ति बिना
यत्स्यात्' (10।39)
में स्पष्ट ही ब्रह्म की सत्ता
सर्वत्र
मानी गयी है। उपनिषदों में भी
'ॐ
मितिब्रह्म' (तैत्ति.
1।7),
'तत्तवमसि श्वेतकेतो' (छान्दो.
6।8-16) तथा
'सदेव सोम्येदमग्र' (6।2।1)
आदि में यही बात पायी जाती है।
ॐ
तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधा: स्मृत:।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा॥23॥
ॐ,
तत्,
सत्
यही तीन नाम ब्रह्म के माने गये हैं और सृष्टि के आरम्भ में इन्हीं
तीनों (के उच्चारण) से ब्राह्मण,
वेद और
यज्ञ बने (भी)।23।
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतप:क्रिया:।
प्रवर्त्तन्ते
विधानोक्ता:
सततं ब्रह्मवादिनाम्॥24॥
तदित्यनभिसंधाय
फलं यज्ञतप:क्रिया:।
दानक्रियाश्च
विविध:
क्रियन्ते मोक्षकांक्षिभि:॥25॥
सद्भावे
साधुभावे
च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते॥26॥
यज्ञे
तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते।
कर्म
चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥27॥
इसीलिए
ॐ
का
उच्चारण करके ही ब्रह्मवादियों की
शास्त्रीय-विधिविहित
यज्ञ,
दान, तप आदि क्रियाएँ
हमेशा हुआ करती हैं। (इसी तरह) मोक्ष की इच्छावाले फल का
ख्याल
न करके अनेक प्रकार की यज्ञ,
दान, तप रूपी क्रियाएँ
तद् का उच्चारण करके ही करते हैं। हे पार्थ,
किसी चीज के अस्तित्व के लिए तथा अच्छा हो जाने
के लिए भी सत् शब्द बोला जाता है। श्रेष्ठ कर्मों में भी सत् शब्द का
प्रयोग होता ही है। यज्ञ, तप और दान में
जो निष्ठा एवं
दत्तचित्तता
होती है उसे भी सत् कहते हैं। यज्ञार्थ या ब्रह्म के लिए जो भी कर्म
हो सत् ही कहा जाता है।24।25।26।27।
यहाँ,
यज्ञ,
दान,
तप का
उल्लेख उदाहरण-स्वरूप ही है,
जैसा
कि पहले भी तीन का ही नाम आया है। यही प्रधान कर्म हैं भी। अगर
तात्पर्य सभी कर्मों से है। यह तो सभी जानते हैं कि दान आदि क्रियाओं
और उत्तम कर्मों को सत्कर्म कहते हैं। यज्ञादि करने वालों को भी कहते
हैं कि आप तो अच्छा कर्म,
सत्कर्म,
समीचीन कर्म
करते हैं,
ठीक करते हैं।
उसी से यहाँ मतलब है।
अश्रध्दया हुतं दत्तां तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥28॥
(विपरीत
इसके) जो हवन,
दान,
तप आदि
श्रध्दा से नहीं किया जाता है वह असत् कहा जाता है। (इसीलिए) न तो वह
मरने पर ही किसी काम का होता है और न यहीं पर।28।
यहाँ यज्ञ की
ही जगह हुत या हवन आया है। श्रध्दाशून्य कर्मों को असत् कह देने से
बिलकुल ही साफ हो जाता है कि ॐ
तत्सत् का श्रध्दा से ही
सम्बन्ध
है। फलत: श्रध्दा के बिना ये किसी भी कर्म में बोले जा सकते नहीं।
श्रध्दा के हटते ही वह कर्म असत् जो हो जायगा। फिर उसमें सत् शब्द के
प्रयोग का अर्थ क्या होगा
? यह तो
उल्टी
बात हो जायेगी न
? इस प्रकार सिध्द हो जाता है कि अथ से इति तक
इस
अध्याय
पर श्रध्दा की छाप लगी हुई है। फिर चाहे वह सात्तिवक हो,
राजस हो या तामस। इसीलिए समाप्ति-सूचक संकल्प
वाक्य में भी 'श्रध्दात्रयविभागयोग:'
लिखा है। यहाँ जो विभाग शब्द है वह भी
महत्तवपूर्ण है और बताता है कि तीन गुणों के बीच में संसार के विभाग
की ही तरह उन सभी कर्मों का, जिनकी गणना
गीता करती है, तीन श्रध्दाओं के बीच
बँटवारा हो गया है। वहाँ भी 'गुणत्रयविभागयोग:'
ऐसा ही लिखा गया है। हमने जो कुछ अब तक कहा है,
वह भी यही है। बेशक,
इस
अध्याय
मेंर्
कर्तव्यर्कत्ताव्य
की एक निराली,
और गीता की अपनी,
कसौटी कही गयी है जिस पर काफी प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है। यहाँ
उससे ज्यादा लिखने का मौका है नहीं। लेकिन अभी इस
सम्बन्ध
में बहुत कुछ कहना जरूरी है,
जो आगे के लिए ही छोड़ दिया जाना ठीक है।
इति श्री.
श्रध्दात्रायविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय:॥17॥
श्रीम. जो
श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका गुणत्रय-विभागयोग नामक
सत्रहवाँ अध्याय यही है।
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