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सहजानंद समग्र/ खंड-3

 Swami Sahajanand Saraswati
स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-3 (गीता हृदय)

दूसरा-गीता भाग : अठारहवाँ अध्याय (भाग-2)

मुख्य सूची खंड - 1 खंड - 2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6


अठारहवाँ
अध्‍याय- II
(श्लोक 45 - 78)

अब आगे 45वें श्लोक से जो बात शुरू होती है वह यही कि जो उपाय कर्म के रूप में बताया गया है वह इष्टसिध्दि के लिए काम में लाया कैसे जाए।

स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत: संसिध्दिं लभते नर:।

स्वकर्मनिरत: सिध्दिं यथा विन्दति तच्छृणु॥45

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिध्दिं विन्दति मानव:॥46

    अपने-अपने कर्मों में लगे रहने वाला मनुष्य ही मन की शुध्दि-बुध्दि की निर्मलता-प्राप्त कर लेता है। अपने कर्मों में ही लगा हुआ (वह यह) शुध्दि जैसे प्राप्त करता है वह भी सुन लो। जिस भगवान् से ही पदार्थों की सृष्टि हुई और जो सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है, मनुष्य अपने कर्मों से ही-कर्मों के रूप में ही-उसी की पूजा करके (यह) सिध्दि-मन:शुध्दि-पा जाता है।4546

    पहले जो 'यत्करोषि' (927) आदि के द्वारा अपने-अपने कर्मों के करने को ही भगवान् की पूजा कहा है। उसी से यहाँ मतलब है, न कि किसी और चन्दन, अक्षत, घण्टीवाली पूजा से। स्वकर्मणा शब्द से यह बात साफ है। ऐसा करने से कैसे मन की शुध्दि होगी अब यही बात कहना जरूरी था और 49वें श्लोक में यही कही भी गयी है। लेकिन शायद लोग अपने-अपने कर्मों से डिग जायें और पूजा का दूसरा ही आरती, घण्टीवाला रूप खड़ा कर दें; इसीलिए उधर से रोकने और स्वकर्म पर ही जोर देने की जरूरत आगे बढ़ने के पहले ही समझी गयी। दो श्लोक में यही बात कह भी दी गयी है। ठीक भी है न  ? पूजा तो और ही चीज मानी जाती है। यह निराली पूजा कैसी  ? लोगों को सहसा ताज्जुब हो सकता है। इसलिए उसकी सफाई कर देना जरूरी हो गया। ऐसा भी हो सकता है कि शासन और युध्दादि के कामों को निर्दयता और हिंसा की चीज समझ लोग उससे हिचकें। इस तरह सारे गुड़ के गोबर हो जाने की शंका बनी रहेगी ऐसे कामों को तो खामख्वाह कोई भी पूजा मानने को जल्दी तैयार होगा ही नहीं। इसलिए फौरन ही ये बातें साफ कर दी गयी हैं। निर्दयता और हिंसा की दलील का भी यही उत्तर दे दिया है कि सृष्टि के त्रिगुणात्मक होने के कारण सर्वत्र ही बुराइयाँ रहती ही हैं। भले-बुरे सभी मिले-जुले हैं। क्या साँस लेते और आरती-चन्दन में हिंसा नहीं है  ? फिर इस वाहियात बात में क्या पड़ना  ?

श्रेयान्स्वधार्मो विगुण: परधार्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥47

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥48

    दूसरे के धर्म या स्वाभाविक कर्म को अच्छी तरह या आसानी से कर लेने पर भी उसकी अपेक्षा अपना अधूरा या दीखने में बुरा भी धर्म कहीं अच्छा है। (क्योंकि) स्वभाव के ही अनुसार निश्चित कर्मों के करने में (दरअसल) कोई पाप या बुराई नहीं होती। (इसीलिए) हे कौन्तेय, (देखने में) दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म कभी न छोड़े। क्योंकि जैसे आग धुएँ से घिरी होती ही है वैसे ही सभी काम दोष से घिरे ही (नजर आते) हैं।4748

    इन श्लोकों में एक तो 'विगुण:' 'स्वनुष्ठितात्' तथा 'सदोषम्' पदों के अर्थ जरा लम्बे-चौड़े हैं। दोष में सभी तरह की छोटी-बड़ी बुराइयाँ, हानियाँ और त्रुटियाँ आ जाती हैं, न कि सिर्फ हत्या वगैरह पापों से यहाँ मतलब है। दूसरी बात यह भी है कि ऊपर से देखने में ही ऐसा मालूम होने से यहाँ तात्पर्य है। क्योंकि वाकई तो बुराई किसी में भी नहीं है। सबके-सब तो पूजा ही हैं। और अगर बुराई है तो सबों में है। यह ठीक है कि किसी में साफ दीखती है और किसी में नहीं। बस, यही आशय है। इसी तरह विगुण का अर्थ है अधूरा किया हुआ और देखने में दोषयुक्त। हमने ये दोनों ही अर्थ मिला के लिख दिये हैं। स्वनुष्ठितात् (सु+अनुष्ठितात) के भी दो मानी हैं, अच्छी तरह किया गया और आसानी से किया गया। सहज शब्द भी महत्तवपूर्ण है। मनुष्य के जन्म के साथ ही जो कर्म पैदा हुए वही स्वाभाविक कर्म हैं, जैसे बत्तख का तैरना, न कि पीछे से सिखाये या बलात् लादे गये। वर्णधर्म की यही बड़ी खूबी थी, न कि आज जैसी धक्कममुश्ती।

    यों तो हमने कही दिया है कि वर्णव्यवस्था विशेषज्ञता सम्पादन के द्वारा आत्मा को कर्म से अलग करने या सात्तिवक कर्म में धीरे-धीरे लग जाने का रास्ता साफ करती है। मगर उतनी दूर न जा के भी यदि स्वाभाविक कर्मों को अनासक्ति के साथ करें तो भी काम बन जाय। यह अनासक्ति भी स्वाभाविक कर्मों में ही पूरी-पूरी हो सकती है, जैसे साँस लेने या मलादि के त्याग में। इनमें कौन सी आसक्ति किसी को होती है  ? बनावटी कर्मों में यह बात या तो असम्भव है या अत्यन्त दु:साध्‍य। ऐसे कर्मवाले पथभ्रष्ट जो ठहरे। और पथप्रष्ट को रास्ते पर लाना तो कठिन हुई। इस तरह अनासक्तिपूर्वक स्वधर्म करते हुए ही मन की पूर्ण शुध्दि हो जाती है। फिर तो फौरन समाधि की दशा आ जाने पर कर्मों का स्वरूपत: त्याग करके पूरी निष्कर्मता प्राप्त हो जाती है। क्योंकि आसक्ति के त्याग से एक तरह का कर्म त्याग तो पहले से ही रहता है। मगर स्वरूपत: कर्मों के करते रहने से वह पूर्ण या परम कर्म-त्याग नहीं होता; किन्तु अधूरा। वही परमत्याग हो गया, जब समाधि के लिए स्वरूपत: भी कर्म छोड़ दिये गये। यदि 'न कर्मणामनारम्भात्' (34) श्लोक की मिलान हम इस 49वें से करें तो पता लग जाये कि वही नैर्ष्कम्य और सिध्दि शब्द यहाँ भी हैं। मगर जो कमी वहाँ बताई गयी है उसकी पूर्ति करके यहाँ परम नैर्ष्कम्य का सच्चा रूप खड़ा कर दिया है।

असक्तबुध्दि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह:।

नैर्ष्कम्यसिध्दिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥49

    सभी चीजों में जिसकी बुध्दि आसक्ति शून्य है, काबू में है और जो सभी इच्छा से रहित है, (वही मनुष्य कर्मों के स्वरूपत:) संन्यास के द्वारा परम नैर्ष्कम्य की प्राप्ति कर लेता है।49

    इसीलिए हमने पहले भी कह दिया है कि इसी श्लोक में संन्यास शब्द का अर्थ है स्वरूपत: कर्मों का त्याग। नैर्ष्कम्य का परम विशेषण भी इसी से संगत हो सकता है। इसके बाद तो 'संन्यस्य' शब्द एक ही बार 57वें श्लोक में आया है। मगर वहाँ कर्मों का स्वरूपत: त्याग अर्थ है नहीं। वह शब्द क्रियावाचक है और अर्पण, रखने या समर्पण के ही मानी में आया है। हाँ, तो इस तरह पूर्ण कर्म-त्याग हो जाने पर किस तरह ब्रह्मात्मा का साक्षात्कार होता है और उसमें कर्म की निर्लेपता प्रतीत होने लगती है, झलक जाती है, यही बात आगे के चार श्लोक (50-53) बताते हैं। इसी को समाधि कहते हैं, ध्‍यानयोग कहते हैं तथा ज्ञाननिष्ठा, समाधिनिष्ठा और ध्‍याननिष्ठा भी कहते हैं। इसी के चलते पूर्ण ज्ञान और आत्मदर्शन की प्राप्ति हो जाती है। इसीलिए ज्ञाननिष्ठा इसे कहा गया है। बिना ऐसा किये ज्ञान परिपक्व नहीं होता और न सर्वत्र आत्मदृष्टि होती है। फिर कर्म छूटे कैसे और आत्मा निर्लेप दिखे कैसे  ?

    इसके बाद 54वें श्लोक में उस ज्ञान या आत्मदर्शन का स्वरूप कहके 55वें में कारण बताया है कि क्यों उसे पूर्ण ज्ञान, ज्ञाननिष्ठा या आत्मदर्शन कहते हैं। उसका परिणाम भी कह दिया है कि आत्मा ब्रह्मरूप ही हो जाती है, उसी में मिल जाती है।

सिध्दिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।

समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥50

बुध्दया विशुध्दया युक्तो धात्यात्मानं नियम्य च।

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥51

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस:।

ध्‍यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥52

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधां परिग्रहम्।

विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥53

    (इस प्रकार पूर्ण नैर्ष्कम्य की) सिध्दि प्राप्त कर लेने पर (मनुष्य) जिस तरह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है और जिसे परले दर्जे की ज्ञाननिष्ठा कहते हैं वह मुझसे जान लो। निर्मल सात्तिवक बुध्दिवाला (मनुष्य) (सात्तिवक) धैर्य के बल से मन को रोक के, शब्द आदि (इन्द्रियों के) विषयों को छोड़ के और रागद्वेष को हटा के एकान्त देश का सेवन करते, हलका भोजन करते तथा जबान, मन और शरीर को काबू में रखे हुए निरन्तर ध्‍यानयोग में ही दत्तचित्त होता एवं वैराग्य को पक्का कर लेता है। (फलत:) अहंकार, बलप्रयोग, ऐंठ, काम, क्रोध और सभी लवाज़िम से नाता तोड़े हुए, ममतारहित (तथा पूर्ण) शान्तियुक्त हो के ब्रह्म का रूप हो जाता है।50515253

ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।

सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥54

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्तवत:।

ततो मां तत्तवतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥55

    ब्रह्मस्वरूप निर्मल मनवाला (मनुष्य) न तो कोई चिन्ता रखता है, न इच्छा। वह सभी पदार्थों में समदृष्टि-रूप मेरी परमभक्ति पा जाता है। मुझ आत्मा-ब्रह्म का जो भी और जैसा भी स्वरूप है उसे इस समदर्शन रूप भक्ति के बल से अच्छी तरह जान जाता है (और) (इस तरह) मेरे तत्तवज्ञान के बाद ही फौरन मुझमें प्रवेश कर जाता है।5455

    यहाँ भक्ति को परा कहा है। इसका अर्थ है सबसे ऊँचे दर्जे की भक्ति, जिसे 'ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम्' (718) में पूर्ण ज्ञान कहा है और जिसका स्वरूप 'वासुदेव: सर्वमिति' (719) बताया है। यदि परा भक्ति न हो तो वहाँ निचले दर्जे के तीन भक्त गिनाये हैं उन्हीं वाली भक्ति हो जायगी। यहाँ भी उसका रूप 'सम: सर्वेषु भूतेषु' कह दिया है। इसीलिए उसका पूरा विवरण भी 'भक्त्या मामभिजानाति' में कर दिया है, जिसमें कोई शकशुभा रही न जाय। मुझमें प्रवेश करने का अर्थ कहीं जाना-आना नहीं। इसीलिए 'मयि विशते' न कह के 'मां विशते' कहा है। इसका ठीक-ठीक अर्थ 'समुद्रमाप: प्रविशन्ति' (270) जैसा ही है। वहाँ भी वही द्वितीयान्त है जैसा यहाँ।

    इस प्रकार जब आत्मदर्शी और ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है तो उसकी क्या दशा होती है यह प्रश्न स्वभावत: उठता है और उसका उत्तर जरूरी हो जाता है। उसकी दोई हालतें हो सकती हैं। वह वामदेव, शुकदेव आदि की तरह बिलकुल ही मस्तराम हो सकता है। फिर तो कोई सुधबुध उसे रही न जायगी। उसी की बात 'यस्त्वात्मरतिरेव' (316) में कही जा चुकी है। असल में ऐसे लोग एक तो कम होते ही हैं। क्योंकि जीते-जी मुर्दा बनना आसान नहीं। यह बड़ी ही दुर्लभ बात है। दूसरे व्यावहारिक दुनिया में आमतौर से न तो उन्हें लोग पहचानी सकते और न उनसे कोई फायदा ही उठा सकते । गीता को व्यावहारिक संसार की ही ज्यादा परवाह भी है। अर्जुन के लिए यही उपयुक्त भी था। प्रथमत: तो उसी को यह उपदेश दिया भी गया है। इसीलिए मस्तरामों की बात फिर कहने की कोई खास जरूरत रही नहीं गयी थी, हालाँकि अगले श्लोक में उनकी भी बात है, यह आगे स्पष्ट हो जायगा। उनके बारे में किसी को कोई शकशुभा भी तो नहीं हो सकता कि वह निर्वाण मोक्ष प्राप्त करेंगे या नहीं। मगर जिनकी दूसरी हालत होती है और जो लोकसंग्रह करते हैं उनका व्यवहार में पूरा उपयोग होने के साथ ही उनके बारे में यह ख्‍याल हो सकना स्वाभाविक है कि जब वे जनसाधारण की ही तरह सब कुछ करते-धरते नजर आते हैं, तो उन्हें निर्वाण मुक्ति कैसे होगी  ? फलत: इन्हीं के बारे में अन्त में स्पष्टतया कह देना जरूरी हो गया कि चाहे वह कहीं किसी भी दशा में रहें और कुछ भी करते रहें, फिर भी परम धाम, शाश्वत पद या निर्वाण मुक्ति उनके लिए धरी-धराई ही है। यही बात आगे के पाँच श्लोकों में कही गयी है। अर्जुन को यह भी कह दिया गया है कि तुम्हारे जैसों के लिए तो यही रास्ता है। दूसरा हुई नहीं। इसीलिए यदि तुमने नादानी की और दूसरा मार्ग लिया, तो चौपट हो जाओगे। यह भी बात है कि तुम ऐसा कर भी नहीं सकते। क्योंकि तुम्हारी तो क्षत्रियवाली प्रकृति है। इसलिए वह तुम्हें युध्द से अलग जाने न देगी। प्रत्युत इसी में तुम्हें जरूर जोत देगी।

सर्वकर्माण्यपि सदा  कुर्वाणो मद्वयपाश्रय:।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥56

    सदा सभी तरह के कर्मों को करता हुआ भी मेरा स्वरूप बना हुआ (ऐसा मनुष्य) मेरी कृपा से-आत्मसाक्षात्कार के फलस्वरूप-निर्विकार शाश्वत पद-मोक्ष-पा जाता है।56

    इसीलिए अर्जुन को आगे स्पष्ट उपदेश दिया गया है कि तुम मोक्ष या परलोक की चिन्ता छोड़ के जैसा कहा जाता है करो और आत्मदर्शन, जिसे बुध्दियोग, ज्ञानयोग और सांख्ययोग भी कहते हैं, के बदले सभी कर्मों को भगवान् को सौंप के उनकी जवाबदेही से अलग हो जाओ। अब तक जो तुम समझते थे कि आत्मा में ही कर्म हैं उसे गलत समझ कर्म को भगवान् में फेंक के भस्म कर दो और आत्मा के सिवाय और कुछ देखो ही मत। इस तरह यहाँ कर्मों को आत्मा में न रहने देने या न मानने की बात का उपसंहार भी साफ-साफ हो जाता है। इस 57वें श्लोक का आशय पहले ही बताया जा चुका है।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।

बुध्दियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥57

मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।

अथ चेत्तवमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि॥58

यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥59

स्वभावजेन कौन्तेय निबध्द: स्वेन कर्मणा।

कर्ता नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥60

    (इसी ज्ञानयोग की शरण जा के) मन और हृदय से सभी कर्मों को परमात्मा में समर्पित करो, उसी में चित्त लगाओ और उससे बढ़ के और कुछ न जानो। परमात्मा में चित्त लगाने से उसी की कृपा से-आत्मज्ञान के ही प्रताप से-सभी संकटों से पार हो जाओगे। लेकिन यदि घमण्ड में आ के (मेरी यह बात) न सुनोगे तो चौपट हो जाओगे। (इतना ही नहीं) अगर अहंकार में आ के तुमने नहीं ही लड़ने का निश्चय किया भी तो तुम्हारा यह उद्योग-यह निश्चय-झूठा होगा-व्यर्थ होगा (और) तुम्हारा स्वभाव तुम्हें (लड़ाई में) डाल के ही रहेगा। (क्योंकि) हे कौन्तेय, अपने स्वाभाविक कर्म के साथ जकड़े होने के कारण यदि यह काम-युध्द-भूल से नहीं भी करना चाहो तो भी मजबूरन तुम्हें इसे करना ही होगा। 57585960

    कर्मों का भगवान् में संन्यास या अर्पण क्या चीज है और इस तरह आत्मा से उनका कैसे सम्बन्ध छूट जाता है इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है।

    वहाँ जो बार-बार 'मयि', 'मत' आदि शब्दों के द्वारा परमात्मा का उल्लेख किया गया है उससे शायद लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि ईश्वर या परमात्मा कोई दूसरा पदार्थ है जो कहीं अन्यत्र रहता है। उसी में मन लगाने और उसे ही कर्मों को अर्पण करने की बात कही गयी है। क्योंकि यदि वह आत्मा का स्वरूप ही हो तो कर्मों को आत्मा में ही रखना हो जायेगा न  ? संन्यस्य शब्द जो पहले 57वें श्लोक में आया है उसका तो अर्थ ही है धरोहर या थाती रखना। ऐसी दशा में  अब तक का यह कहना व्यर्थ हो जायगा कि आत्मा में कर्म रहता ही नहीं, उसका कर्म से ताल्लुक हुई नहीं। इसीलिए ईश्वर को अलग ही मानना ठीक है।

    मगर ऐसा समझने वालों के सामने भी तो यह दिक्कत रही जाती है कि आत्मा या जीव का कर्म, या यों कहिए कि मनुष्यों का कर्म वहाँ कैसे रखा जायगा  ? और जब पहले ही कह दिया है कि 'न च मां तानि कर्माणि' (99)-'इन कर्मों से मेरा कोई ताल्लुक हुई नहीं', तो फिर कर्म उसमें रहने पायेंगे कैसे  ? यदि यह कहा जाय कि ईश्वर तो कर्मों के लिए अग्नि जैसा ही है, और भस्म हो जाने के लिए ही उसमें कर्म डाल दिये जाते हैं, तो यह बात तो 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा' (437) के द्वारा पहले ही कह दी गयी है कि आत्मज्ञान के द्वारा ही सभी कर्म दुग्ध हो जाते हैं। इसलिए एक तो ईश्वर में डालने का भी अर्थ समदर्शन ही होगा। दूसरे ईश्वर आत्मा से जुदा फिर भी सिध्द न होगा। फिर तो वह शंका बेबुनियाद ही सिध्द होगी। 

    असल बात यह है कि आत्मज्ञानी कर्मों की परवाह करता ही नहीं कि वे क्या चीज हैं और कब कैसे हो रहे हैं। उनका परिणाम क्या होगा यह भी ख्‍याल उसके दिल में भूलकर भी नहीं आता है। वह तो यही जानता है कि सृष्टि का अर्थ ही है, क्रिया, कर्म (action)। इसलिए जो कुछ होता है वह तो सृष्टि के इसी के नियम के अनुसार ही हो रहा है। इसमें मुझे क्या लेना-देना है  ? मैं क्यों नाहक इस बला में फँसने जाऊँ  ? जिसने यह सब कुछ बनाया है वह जाने, उसका काम जाने। इस प्रकार आत्मा को निर्लेप समझ के लोकसंग्रह के कर्मों को करते रहना ही उन कर्मों का भगवान् या ब्रह्मात्मा में संन्यास है, अर्पण है, डाल देना है।

    इसलिए अगले श्लोक यही बात बताते हैं कि भगवान् कहीं बाहर नहीं है। न तो वह बैकुण्ठ या ब्रह्मलोक में है और न तीर्थों या मन्दिरों में। वह तो अपनी आत्मा ही है। फलत: हृदय में ही बसता है। हृदय में बसने का भी यह अर्थ नहीं है कि हृदय उसका घर है। उसका पहला आशय तो यही है कि वह आत्मा से अलग नहीं है। दूसरा आशय यह है कि वह तर्क-दलीलों और युक्तियों से न जाना जाकर हृदय-ग्राह्य ही है। 'ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य धिष्ठितम्' (1317) तथा 'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:' (1515) में भी यही बात कही गयी है। केवल तर्क-दलीलों का आश्रय लेना नास्तिकता और निरीश्वरवाद में पहुँचा देता है और केवल हृदय अन्धपरम्परा का भक्त बना देता है। इसीलिए यहाँ हृदयग्राह्य करने का तात्पर्य यही है कि तर्क-युक्ति की सहायता से रास्ता साफ करने के बाद हृदय से ही आत्मा-परमात्मा का ग्रहण होता है। मनु ने भी कहा है कि 'यस्तर्केणानुसन्धात्तो स धर्मं वेद नेतर:' (मनु. 12106)-'जो तर्क से विचार करता है वही धर्म जानता है, दूसरा नहीं।'' यहाँ उच्छृंखल तर्क रोक के हृदय का साथी तर्क ही माना गया है। मनु ने तो तर्क को 'वेदशास्त्र का अविरोधी' कहा है उसका यही तात्पर्य है। जिस हृदय ने ईश्वर को देख लिया उसमें अलौकिक शक्ति होती है, ऐसी कि दुनिया को हिला दे, डुला दे, चला दे। यह बात हम पहले बहुत विस्तार के साथ लिख चुके हैं। 61वें श्लोक का यही आशय है, न कि सचमुच हृदय में बैठ के ईश्वर मशीन की तरह चलाता है। इसलिए उसी हृदय को सम्पादित करना, हृदय को वैसा ही बनाना यही हमारा काम है।

    इस श्लोक का यह भी आशय है कि हृदय में जिस परमात्मा का स्वरूप व्यक्त होता है वह मनुष्य को चलाता है उस हृदय के ही बल से। जहाँ हृदय जा लगा वहाँ पहुँचना टल नहीं सकता। हृदय में वह ताकत है जो और कहीं नहीं है। हिरण बाँसुरी का शब्द सुन के अपने आपको भूल जाता है। साँप भी सँपेरे की बीन की आवाज से मुग्ध हो जाता है। इसी से शिकारी और सँपेरा उन दोनों को आसानी से पकड़ लेते हैं। उनके हृदय के ही चलते यह बात हो जाती है। उसका स्वभाव ही है। और जब क्षत्रिय का हृदय स्वभावत: युध्द में ही रहता है, वहीं फँसा होता है, तो फिर अर्जुन हजार कोशिश करे, मगर वह रुकेगा कैसे ? वह तो युध्द में जायगा ही, लड़ेगा ही। भगवान् ही हृदय में बैठ के ऐसा करता है इस कहने का आशय 'मयाऽध्यक्षेण प्रकृति:' (910) में बताई चुके हैं। उनके बिना जब प्रकृति कुछ करी नहीं सकती, तो हृदय तो उसी का रूप है न ? फिर वह बिना भगवान् के कैसे करेगा ? इस प्रकार हृदय में भगवान् के रहने का बहुत विस्तृत आशय इस श्लोक में व्यक्त हो जाता है।

    जो लोग 'अहं' 'मम' आदि शब्दों को आत्मा के अर्थ में न लगा के एक निराले ही ईश्वर में लगाते, उसे सर्वशक्तिमान मानते और जीव को उसका स्वरूप न मान के सेवक मानते हैं, उनसे हमारा अनुरोध है कि वे वृहदारण्यक उपनिषद् के चौथे अध्‍याय का तीसरा ब्राह्मण पूरे का पूरा पढ़ जायें और देखें कि उसमें आत्मा का ही निवास हृदय में स्वयं-ज्योतिरूप में लिखा गया है या नहीं, सृष्टि का बनाने-बिगाड़ने वाला उसे कहा गया है या नहीं और उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु हुई नहीं है, यह बार-बार दिखाया गया है या नहीं। वहीं यह भी लिखा गया है कि वह स्वयं-ज्योति है, उसका प्रकाशक कोई नहीं और जैसे ही सपने में वैसे ही जगने में सारी चीजें अपनी ही शक्ति से बनाता और देखता है, लीला करता है, सभी जगह विहरता-विचरता है, मौज करता है। यह भी वे लोग देखें। 'ध्यायतीव लेलायतीव' लिखा गया है जिसका अर्थ है, कि सभी लीलाएँ करता है।

    जब उस ब्राह्मण के शुरू में ही जनक ने याज्ञवल्क्य से पूछा है कि इस आत्मा के मददगार प्रकाश कौन-कौन से हैं-'किंज्योतिरयं पुरुष:' ? (31), तो याज्ञवल्क्य ने, जितने भी उजाला करने वाले या पथदर्शक सम्भव हैं उन्हीं सबों को पहले गिना के कहा है कि एके बाद दीगरे इन्हीं से उसका पथदर्शन होता है। सबसे पहले सूर्य की ही प्रचण्ड ज्योति से उनने शुरू किया है। मगर रात में तो वह ज्योति मिलती नहीं, ऐसा कहने पर चन्द्रमा का नाम लिया है। लेकिन कृष्णपक्ष की ऍंधियारी और अमावस्या में ? तब तो चन्द्र होता नहीं। अत अग्नि के प्रकाश, दीपक आदि से ही काम चलता बताया है। तो निरे ऍंधोरे में, जहाँ दीपक भी न हो, क्या काम बिलकुल ही बन्द हो जाता है  ? ऍंधेरे में भी तो लोग दूर से बातें सुन के ही जान जाते हैं कि कौन सा आदमी है। जबान से रास्ते की बात सुनके वैसे ही चलते भी हैं। इसीलिए बात या शब्द को ही उस समय प्रकाशक और पथदर्शक मानना पड़ा है। मगर जब नींद के समय आत्मानन्द का अनुभव करता है और उठने पर याद करता है कि बड़े आनन्द से सोए थे, तब वहाँ कौन सा प्रकाश रहता है, जो आनन्द को दिखाता है ? और अगर अनुभव न करता तो उठने पर फौरन ही उसे याद क्यों करता ? जिसका अनुभव न हो उसका तो स्मरण होता नहीं। इसलिए शरीर के भीतर सुषुप्ति या गाढ़े नींद में आनन्द का अनुभव मानना ही पड़ता है। इसी प्रकार सपने में जानें क्या-क्या देखता-सुनता है। हजारों चीजें देखी जाती हैं, यह तो सभी मानते-जानते हैं। मगर वहाँ भी न तो शब्द ही हैं और न सूर्य आदि ही हैं। फिर वहाँ कौनसाप्रकाश है, सो भी भीतर शरीर में ? इसी का उत्तर दिया है कि ''आत्मैवास्य ज्योतिर्भवतीत्यात्मनैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति'' (436)

    इसका आशय यही है कि ''उस समय मनुष्य की आत्मा ही ज्योति का काम करती है और वह उसी के बल से बैठने, जाने, आने-लौटने और अन्य सभी कामों में लग जाता है'' इस पर प्रश्न हुआ है कि वह आत्मा है कौन सा ? 'कतमोऽयमात्मा ?' (437)। क्योंकि शरीर के भीतर मन, बुध्दि, हड्डियाँ, मांस आदि हजार चीजें हैं न ? इसी के उत्तर में कहना पड़ा है कि वह विज्ञानमय है, सभी इन्द्रियादि को चलाता है और हृदय के भीतर रहता है, 'विज्ञानमय: प्राणेषु हृद्यन्तज्योति: पुरुष' (437)। उसी के बारे में यह भी लिखा है कि जागरण और सपना इन्हीं दोनों हालतों में वह काम-धाम करता है, लीला करता है ऐसा जान पड़ता है। वह सर्वत्र एक ही है, एक सा ही है, 'स समान: सन्नुभौलोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव' (437)। उसके तीन लोक या क्रीड़ास्थल माने गये हैं। इनमें सुषुप्ति में तो संसार रहता नहीं। वहीं से कभी सपने में जाता और चीजें बना के मौज करता है, तो कभी जाग्रत दशा में आ के,-''तस्यवाएतस्यपुरुषस्यद्वे एवस्थानेभवत: इदं च परलोक स्थानं च सन्धयं तृतीयं स्वप्न स्थानं तस्मिन्सन्ध्ये स्थाने तिष्ठन्नेते उभे स्थाने पश्यति'' (438)। यहाँ सन्धि-स्थान को स्वप्न-स्थान कहा है। स्वप्न का अर्थ है गाढ़ नींद या सुषुप्ति। यहीं से दोनों में पहुँचता है। जाग्रत् को इहलोक और सपने को परलोक कहा है।

    इसके बाद से लेकर 18वें ब्राह्मण के अन्त तक सपने की सृष्टि के बनाने और बिगाड़ने की बात सविस्तार कही गयी और लीला बताई गयी है। आत्मा ही सब कुछ करती है यह भी बताया गया है। अनन्तर गाढ़ नींद या सुषुप्ति का प्रसंग ला के उसका चित्र खींचा गया है। वहाँ यह प्रश्न उठा है कि सुषुप्ति में कोई पदार्थ आत्मा को मालूम क्यों नहीं होता है ? पदार्थ तो हजारों हैं। शरीर के भीतर ही जाने कितने हैं। फिर उनका अनुभव वहाँ आत्मा को होता क्यों नहीं ? इसी का उत्तर बहुत ही विस्तार के साथ 31वें ब्राह्मण के अन्त तक दिया गया है और कहा गया है कि अगर सचमुच कोई दूसरा भी पदार्थ उसके अलावे हो तब न उसे देखे, सुने, सूँघे, छुए, खाये, पीये दरअसल तो आत्मा के सिवाय और कुछ हुई नहीं-'न तु तद्द्वितीयमस्ति'। यही बात बीसियों बार कही गयी है। सचमुच ही आश्चर्य है कि यदि इन्द्रियों से देखे-सुने न भी तो मन से तो सोचे-विचारे। मगर वहाँ तो कुछ भी नहीं होता। मन को तो बाहर जाना भी नहीं कि इन्द्रियों की मदद चाहिए। वह भीतर ही सोचता क्यों नहीं ? आखिर सपने में तो मन ही सब कुछ करता है न ? फिर सुषुप्ति में भी क्यों नहीं करता ? इसीलिए मानना ही पड़ता है कि उस समय आत्मा के सिवाय और कुछ हुई नहीं। ठीक ही है, जिसका ज्ञान नहीं उसके अस्तित्व में प्रमाण ही क्या ? यदि कहा जाय कि जिसे नींद न हो उसे तो उस समय ज्ञान होता ही है; अतएव वही ज्ञान उन वस्तुओं के लिए प्रमाण होगा, तो प्रश्न होता है कि सुषुप्तिवाले को क्या मालूम कि किसी को ज्ञान होता है ? और अस्तित्व का प्रश्न तो उसी के लिए है न ? और अगर सभी को सुषुप्ति हो जाय तो  ? यह असम्भव भी नहीं है। प्रलय की ही तरह वह भी हो सकती है। फलत: अद्वैत-तत्तव को मानना ही पड़ता है।

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
   भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया॥61

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
   तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥62

    हे अर्जुन, सभी प्राणियों के हृदयस्थान में ईश्वर मौजूद रहता है, (और अपनी) मायाशक्ति से उन्हें कठपुतली की तरह घुमाता रहता है। हे भारत, समस्त संसार को उसी का स्वरूप जानो और इसी रूप में उसकी शरण जाओ। उसी की कृपा से परम शान्ति और शाश्वत स्थान पा जाओगे।6162

    61वें श्लोक की पूरी व्याख्या पहले ही हो चुकी है। 62वें में जो 'सर्वभावेन' पद है ऐसा ही पद पहले भी 'स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत' (1519) में आया है। अन्तर यही है कि वहाँ 'भजति' है और यहाँ 'शरणं गच्छ' है। मगर मानी दोनों के एक ही हैं। भजने या शरण जाने का ही रूप 'सर्वभावेन' कहा है। 'वासुदेव: सर्वमिति' की ही तरह सभी को आत्मा-परमात्मामय ही देखना यही शरण जाना है।

    इस प्रकार उपदेश करके उसका उपसंहार करते हुए अर्जुन को मौका देते हैं कि वह खूब सोच-विचार ले, तभी कुछ करे। कहीं ऐसा न हो कि आवेश में आ के या बातों में पड़ के कुछ कर डाले। क्योंकि ऐसे कामों का नतीजा कभी अच्छा नहीं होता। लेकिन इसी के साथ उसे यह भी याद रखना होगा कि जो उपदेश दिये गये हैं वह ऐसे-वैसे नहीं हैं; किन्तु दुर्लभ और गोपनीय से भी गोपनीय हैं। ऐसी बातें शायद ही सुनने को कभी मिलती हैं, कभी मिलें। इसलिए इन पर पूरा गौर करना होगा।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥63

    मैंने तुम्हें यह गोपीनय से भी गोपनीय अक्ल और सोचने-विचारने की बात कही है। इस पर खूब अच्छी तरह सोच-विचार के जो चाहो सो करे।63

    श्लोक से स्पष्ट है कि जो कुछ उपदेश है वह ज्ञान ही है, न कि और कुछ। चाहे जितनी बातें भी शुरू से अन्त तक आयी हों सब ज्ञान के ही सिलसिले में आयी हैं। गीतोपदेश का असली विषय ज्ञान ही है। उसी के भीतर विज्ञान भी आ जाता है। फिर भी जो यह कह दिया है कि समझ-बूझ के करो और जो चाहो सोई करो, उससे साफ हो जाता है कि आज्ञा या हुक्म की गुंजाइश गीता में है नहीं। यहाँ तो अपने दिल से ही चलने की बात है। यह ठीक है कि जो कुछ करना हो उसे बखूबी समझ-बूझ के करना चाहिए। मगर करना है अपनी ही मर्जी से, अपनी राय से ही, जिसे इच्छा कहते हैं। क्योंकि जवाबदेही तो अपने ही ऊपर आने को है न ? फिर दूसरे के दबाव या हुक्म का क्या सवाल ? वह क्यों माना जाय  ? और अगर माना गया तो जवाबदेही करनेवाले पर न हो के आज्ञा देनेवाले पर ही जो हो जायगी। इस पर तो हमने पहले श्रध्दा के प्रसंग में बहुत लिखा है।

    'अशेषेण विमृश्य' कहने का एक और भी अभिप्राय है। एक तो विमर्श ही व्यापक चीज है। इसके मानी ही हैं कि सभी पहलुओं पर अच्छी तरह गौर कर लिया जाय। लेकिन जब उसके साथ 'अशेषेण' भी जुटा है, तब तो कहने का मतलब साफ हो जाता है कि खबरदार, एक बात भी छूटने न पाये। शुरू से यहाँ तक जितनी बातें कही गयी हैं सभी को सामने रख के अच्छी तरह उन पर सोचो-विचारो और गौर करो। उसके बाद जिस निश्चय पर पहुँचो उसी के अनुसार काम करो। असल में गीतोपदेश की पूर्वापर बातों को भूल जाने से ही ज्यादा गड़बड़ होती है और लोग कुछ का कुछ निश्चय कर बैठते हैं। दृष्टान्त के लिए 'ईश्वर: सर्वभूतानां' को ही ले सकते हैं। जाने कितनों ने इसका सचमुच ही आत्मा से भिन्न ईश्वर अर्थ करके इस आत्मा को उसके चरणों में झुका दिया है, उसका सेवक और गुलाम बना दिया है। हम तो इसे आत्मा का पतन मानते हैं, न कि और कुछ भी। फिर भी ऐसा ही किया गया है; हालाँकि यदि गीता की ही पहले की बातें याद रहें तो यह बात कभी न हो। 'न कर्ताृत्वं न कर्माणि (514-15) श्लोकों में आत्मा के ही लिए प्रभु और विभु शब्द आये हैं, जो आमतौर से ईश्वर के ही लिए प्रयुक्त होते हैं। बल्कि इसी से बहुतेरे यहाँ भी धोखा खा गये हैं और ईश्वर ही अर्थ कर डाला है; हालाँकि हमने यह भूल वहीं सुझा दी है।

    मगर इसे भी जाने दीजिए। क्योंकि यहाँ विवाद की गुंजाइश है। 'भत्तर् भोक्ता महेश्वर: परमात्मेति चाप्युक्त:'' (1322) में तो साफ ही जीवात्मा को ही ईश्वर क्या महेश्वर और परमात्मा तक कहा है, परम-पुरुष तक कहा है। कहा ही नहीं है, बल्कि ऐसा ही पहले से कहा जाता है यह बताया है। यहाँ विवाद की जगह हुई नहीं। इसके बादवाले 'तिष्ठन्तं परमेश्वरम्' (1327) को हम छोड़ ही देते हैं; हालाँकि वहाँ भी परमेश्वर शब्द जीवात्मा के ही लिए आया है। मगर 'शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:' (158) में तो साफ ही मरने-जीने के प्रसंग में ईश्वर शब्द जीवात्मा के ही लिए आया है। यहाँ तो सन्देह के लिए जरा भी स्थान नहीं है। फिर भी 'ईश्वर: सर्वभूतानां' में अगर ईश्वर का अर्थ आत्मा न करके और कुछ किया जाय तो मानना ही होगा कि पूर्वापर विचार के बिना ही ऐसा होता है। फलत: 'विमृश्यैतदशेषेण' कहना जरूरी था। यही वजह है कि इतना कहने के बाद भी एक बार और यही बातें शब्दान्तर में चलते-चलाते याद दिला देते हैं, ताकि धोखे की भी गुंजाइश रहने न पाये और अर्जुन का निश्चय सही और दुरुस्त हो के ही रहे।

    इतना कहने पर भी स्वयं कृष्ण को सन्तोष न हुआ। क्योंकि परिस्थिति नाजुक थी। उनने उपदेश के शुरू में अर्जुन की आश्चर्यजनक मनोवृत्ति को भी खुद अनुभव किया था। वह देख रहे थे कि उसमें कितनी कमजोरी आ गयी है। जिस बात के लिए वह सपने में भी तैयार न थे वही देख के वह एक तरह से दहल उठे थे। उन्हें अर्जुन का अनुभव बचपन से ही था। पाँचों भाइयों में उसे सबसे ज्यादा वह मानते भी थे। यही वजह थी कि सबों के बुरा मानने और लाख नाक-भौं सिकोड़ने पर भी अपनी बहन सुभद्रा से अर्जुन की शादी तक उनने करा दी थी। जिसे लँगोटियायारी कहते हैं वही ताल्लुक अर्जुन के साथ उनका था। फलत: उसका रगरेशा वह पहचानते थे, उसे रत्‍ती-रत्‍ती जानते थे। जानें कितने ही भीषण से भीषण संकट के समय पाण्डवों के सामने आये थे। बचपन में ही पिता के मर जाने से वे एक प्रकार से अनाथ जैसे हो गये थे। क्योंकि धृतराष्ट्र का रुख उनके प्रति आरम्भ से ही खराब था और यह बात छिपी न थी। ऐसी दशा में विपदाओं के वज्रों के एके बाद दीगरे गिरने की बात जितनी न थी उतनी उनकी परेशानी, पामाली तथा असीम कष्ट की बात थी। कोई भी उनका पुर्सां हाल था जो नहीं। द्रौपदी की नग्नता के काण्ड से यह बात  और भी साफ हो चुकी थी। भीष्म आदि की जबान तक पर ताला लग चुका था। ऐसे मौकों पर बड़े भाई युधिष्ठिर तक अधीर हो जाया करते थे। मगर अर्जुन ने न तो कभी हिम्मत हारी थी, न बुजदिली दिखाई थी और न ऑंसू बहाये थे! ऐसा था वह इस्पात और वज्र का बना! कृष्ण को यह बात बखूबी विदित थी। क्योंकि सबों के साथ छोड़ देने पर भी वही तो पाण्डवों के सदा के सच्चे साथी, पुर्सां हाल थे। फिर जानते क्यों नहीं ?

    लेकिन वही अर्जुन गीतोपदेश के पहले बच्चों जैसा रो रहा था। उसके हाथ-पाँवों में ही क्या, सारे अंग में जैसे लकवा मार गया था। वह खड़ा रह सका नहीं और, जैसे कोई कटा पेड़ हो, धड़ाम से रथ के बीच में पड़ गया था! गिर गया था! इसमें अनुमान की भी जरूरत न थी। उसने तो खुद ही कहा था कि मेरा मन जैसे चक्कर काट रहा है और मैं खड़ा रह सकता नहीं, 'न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:' (130)। जिसका धनुष सदा साथ रहा, बगल में ही बाणों के साथ पड़ा रहा, वही कह चुका था कि हाथ से मेरा यहा गाण्डीव-सदा का प्यारा गाण्डीव-खसका जा रहा है, 'गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्' (130)। ऐसी ही जानें कितनी बातें थीं जो अनहोनी थीं। अर्जुन के मन में जो ग्लानि थी, जो बेचैनी और घबराहट थी, सभीकामों में जो अनास्था हो गयी थी, जो भीषण वैराग्य था और इन सबों के चलते जिस दीनता ने उस पर काबू कर लिया था वह तो सचमुच ही 'न भूतो न भविष्यति'कादृश्यथा।

    गीता की चार बातें अलौकिक थीं-ऐसी बातें जिनका उल्लेख गीता में पाया जाता है। वास्तव में ये बातें न कभी हुई थीं और न आगे हो सकती थीं। इनमें पहली थी अर्जुन की यह दशा जिसका उल्लेख हमने अभी-अभी किया है और जिसका सजीव और नग्न चित्र गीता के पहले अध्याय के बीस (28-47) तथा दूसरे के शुरू के नौ (1-9) श्लोकों में पाया जाता है। जो लोग उसे यों ही पढ़ जाते हैं वह क्या समझ पायेंगे, जब तक अर्जुन की समूची जीवनी अपने ऑंखों के सामने वैसे ही न रख लें जैसे कृष्ण के सामने थी ? यही कारण था कि कृष्ण परिस्थिति की भीषणता को समझ सके थे।

    गीता की ऐसी ही दूसरी चीज थी इतना देखने-सुनने के बाद कृष्ण की भावभंगी, उनकी उस समय की दशा, उनका रुख और चेहरा-मोहरा, जिसकी तरफ 'तमुवाच हृषीकेश:' (210) श्लोक का 'प्रहसन्निव' इशारा करता है। जो लोग इस समूचे श्लोक को इस पूर्व परिस्थिति को मद्देनजर रख के गौर से पढ़ें और उस पर दिमाग लगाएँ उन्हें उसके शब्दों में कृष्ण की इस अनोखी भावभंगी की झाँकी मिल सकती है। इस पूरे श्लोक में बहुत खूबी है और इसके हरेक पद कुछ न कुछ अर्थ व्यक्त करते हैं, जो निरे शब्दार्थ से निराली चीज है और जिसे ही काव्य की जान कहते हैं। इसे पूर्णरूपेण समझने में जो दिक्कत है उसे हल करने के लिए गीता के अन्तिम श्लोक से पहले का ''तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:। विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुन: पुन:'' (1877) श्लोक इसी के साथ पढ़ लेना चाहिए। गीतोपदेश के आरम्भ करने के ठीक पहले का वह और अन्त का यह-इन दोनों को-मिला के देखें कि सचमुच वह रूप अलौकिक था या नहीं, नायाब था या नहीं। संजय ने उसे 'अत्यद्भुतम्' कह दिया है। एक तो अद्भुत चीज ही निराली है। मगर उसे इतने से ही सन्तोष न हुआ और उसके साथ 'अति' भी जोड़ दिया। हम उस श्लोक के अर्थ के ही समय विशेष बातें लिखेंगे। यहाँ तो केवल दोनों को एक साथ पढ़ के कृष्ण की अलौकिक भावभंगी का चित्र दिमाग में बैठाने की ही बात कहनी है। वह ऐसी थी कि संजय का मन मानता न था। फलत: बार-बार उसे भीतरी ऑंखों के सामने ला खड़ा करता था। यह भी 'संस्मृत्य संस्मृत्य' शब्दों ने साफ ही कह दिया है। केवल साधारण स्मृति न थी। किन्तु अलौकिक वस्तु की अलौकिक स्मृति थी, अनोखी याद थी। इसीलिए तो 'सम्' लगा के 'संस्मृत्य' कहना पड़ा। उसके साक्षात् देखने पर क्या दशा हुई होगी, जब कि याद करने मात्र से ही बार-बार रोएँ खड़े हो जाते थे, हर्षातिरेक बह चलता था, 'हृष्यामि च पुन:-पुन:।' इसीलिए संजय को भी मामूली नहीं, किन्तु महान् विस्मय, पीछे तक बना हुआ था-'विस्मयो मे महान्'! जैसी अलौकिक वस्तु देखी थी और बार-बार याद की थी उसी हिसाब से ही तो आश्चर्यचकित होना भी था।

    गीता की तीसरी चीज थी भगवान् की विराट मूर्ति या विश्वरूप। वह भी वाकई में 'न भूतो न भविष्यति' ही था। इसमें भी स्वयं गीता के ही वचन प्रमाण हैं। वह रूप दिखा चुकने के बाद खुद कृष्ण ने दो बार कहा है कि ''तुमसे पहले यह रूप किसी ने देखा ही नहीं, किसी ने देख पाया ही नहीं''-'यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्' (1147), और 'तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई भी, सभी प्रकार के यज्ञ, दानादि के द्वारा यत्न करके भी, इसे आगे देख न सकेगा'-'एवं रूप: शक्य अहं नृलोके द्रुष्टुं त्वदन्येन कुरु प्रवीर' (1148)। इससे बढ़ के 'न भूतो न भविष्यति' की सफाई और क्या हो सकती है ?

    गीता की चौथी अलौकिक चीज है गीता धर्म या गीता के उपदेश। इसके बारे में हम काफी लिख चुके हैं। हमें विश्वास है कि यह बात निर्विवाद सिध्द की जा चुकी है। इसीलिए अब यहाँ कुछ भी लिखने का प्रश्न हुई नहीं।

    हाँ, तो ऐसी नाजुक हालत में कृष्ण को भारी अन्देशा था कि कहीं इतने पर भी अर्जुन की वही हालत न हो और वह विचलित का विचलित ही न रह जाय। यही कारण है कि आगे की अन्तिम बात के कहने पर भी उन्हें विश्वास नहीं हो पाया था। फलत: उनने अर्जुन से पूछ ही तो दिया कि ''अर्जुन, तुमने हमारी बातें ध्‍यान से सुनी तो हैं ? और अगर हाँ, तो इससे तुम्हारी वह अज्ञानमूलक भूलभुलैयाँ मिटी क्या'' ? 'कच्चिदेतच्छ्रघ तं पार्थ त्वयैकाग्रेण् चेतसा। कच्चिदज्ञानसम्मोह: प्रणष्टस्ते धनंजय' (1872)। जब अर्जुन ने इसका स्पष्ट उत्तर दे दिया कि, ''भगवन्, आपकी कृपा से अब मेरा वह मोह भाग गया, सभी बात की ठीक-ठीक स्मृति हो आयी, मेरे सभी शक काफूर हो गये और आपकी बातें मानूँगा''-''नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव'' (1873), तब कहीं जा के उन्हें सन्तोष हुआ।

    वही वजह है कि कृष्ण एक बार और भी उसे उपदेशों का निचोड़ कह देने को तैयार हो गये। ऐसी परिस्थिति न रहने पर भी प्रियजनों के सम्बन्ध में ऐसा होता ही है कि एक ही बात बार-बार कहते जाते हैं, खासकर ऐसे मौके पर जब उन्हें कुछ महत्तवपूर्ण काम करना या कहीं दूर देश जाना हो। यह अधिक प्रेम की पहचान है। यह बात 'इष्टोसि मे दृढमिति' शब्दों से साफ हो भी गयी है। इसलिए लोग पुनरावृत्ति देख के ऊब न उठें।

    एक बात और भी है। संन्यास के सम्बन्ध में अर्जुन के प्रश्न का पूरा उत्तर अभी तक दिया गया भी नहीं है। बेशक, यह कहा गया है जरूर कि कर्मों के स्वरूपत: त्याग से पूर्ण नैर्ष्कम्य हो जाता है, जिसकी अनिवार्य आवश्यकता समाधि या पूर्ण ज्ञाननिष्ठा के लिए जरूरी है। उसके बाद उस पूर्ण ज्ञाननिष्ठा का निरूपण भी किया है। मगर यह तो कहीं नहीं कहा है कि कर्मों के स्वरूपत: त्याग के बिना काम चली नहीं सकता। अर्थत: यह बात सिध्द जरूर हो गयी है, हो जाती है। फिर भी साफ शब्दों में कहे बिना काम चलता नहीं। लोग खींचतान शुरू जो करेंगे और जोई मानी चाहेंगे शब्दों को पिन्हा जो देंगे। इसीलिए साफ-साफ कह देना जरूरी था कि बिना स्वरूपत: कर्मों का संन्यास या त्याग किये आत्मनिष्ठा होई नहीं सकती। अन्त में ही इस बात का आ जाना भी सबसे अच्छा था। इसीलिए आगे के तीन श्लोकों में से पहले में तो पुनरपि यह बात कहने का कारण लिखा गया है, दूसरे में आत्मनिष्ठा का पूरा स्वरूप खड़ा कर दिया है और तीसरे में साफ कह दिया है कि बेफिक्र हो के सभी कर्मों के फन्दों को तोड़ डालो। तभी एकमेवाद्वितीय आत्मतत्तव में पूर्णतया लग सकते हो और तभी सारे झमेले खत्म हो सकते हैं।

सर्वगुह्यतमं भूय: शृणु मे परमं वच:।
   इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥64

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
   मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥65

सर्वधार्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
   अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥66

    सबों से अधिक गोपनीय मेरी यह आखिरी बात फिर सुन लो। तुम मेरे अत्यन्त प्यारे हो, इसी से तुम्हारे हित की बात कहे देता हूँ। मुझ आत्मा में ही मन लगाओ, मेरा ही भजन करो, मेरा ही यजन करो। (और) मुझी को नमस्कार करो। (परिणामस्वरूप) मुझी को पा जाओगे। यकीन रखो, मेरे प्रिय हो, तुमसे सच कहता हूँ। सभी धर्मों को छोड़ के एक मेरी ही शरण जाओ। मैं (आत्मा) तुम्हें सभी पापों से छुटकारा दिला दूँगा, अफसोस मत करो। 646566

    यहाँ भी 'वक्ष्यामि' का कहूँगा यह अर्थ न हो के अभी-अभी कहे देता हूँ यही अर्थ है। इसका कारण पहले ही बताया जा चुका है। दूसरे श्लोक में 'माम्' 'मत्' आदि शब्द 'अहं' के ही रूप हैं और 'अहं' का अर्थ आत्मा ही है यह सभी जानते हैं। इस पर बहुत कुछ कहा जा भी चुका है। 'सत्यं प्रतिजाने' का अर्थ है विश्वास करो, सच कहता हूँ। यहाँ 'प्रतिजाने' का सीधे 'प्रतिज्ञा करता हूँ' यह अर्थ कुछ बैठता सा नहीं है। 'सर्वधर्मान्' श्लोक की तो लम्बी-चौड़ी व्याख्या पहले ही की गयी है। वहाँ जाने कितनी ही शंकाओं का उत्तर दिया जा चुका है। इसलिए वे बातें यहाँ फिर लिखना बेकार है। मगर दो-एक अन्य बातें लिख देना जरूरी है।

    जो लोग 'सर्वधर्मान् परित्यज्य' का यह अर्थ करते हैं कि धर्मों के फलों का त्याग करके शरण में आओ उन्हें यह ख्‍याल करना भी तो चाहिए कि जब धर्मों को करते ही रहेंगे तो फिर पाप का प्रश्न उठेगा ही कैसे ? पाप की बात तो तभी आती है जब नित्य, नैमित्तिक कर्मों को ही छोड़ दिया जाय। यही धर्मशास्‍त्रों का निश्चित मत है। लेकिन यदि पाप की बात न होती तो उत्तारार्धा में यह क्यों कहते कि तुम्हें सभी पापों से छुटकारा दिला दूँगा ? जिस तरह 'धर्मान्' यह बहुवचन लिखा है, ठीक वैसे ही 'पापेभ्य:' यह भी बहुवचन ही आया है, यह भी बात है। इससे दोनों का सम्बन्ध बखूबी जुट जाता है और आशय सिध्द होता है कि धर्मों के छोड़ने से ही जो पापों का खतरा पैदा हो गया था उसी से छुटकारा दिलाने की बात यहाँ कही गयी है।

    इस पर ऐसा कहने का यत्न हो सकता है कि 'पापेभ्य:' का अर्थ है जन्म-मरण के सभी बन्धनों से छुटकारा दिलाना ही। इसीलिए तो 'मोक्षयिष्यामि' क्रिया में मोक्ष की बात लिखी गयी है। परन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि 'मोक्षयिष्यामि' कह देने से ही उसका अर्थ ही यह होता है कि सभी बन्धनों से छुट्टी हो जायगी। मोक्ष शब्द का अन्य अर्थ हुई नहीं। फिर 'पापेभ्य:' शब्द से बन्धन अर्थ लेना महज बेकार और निरर्थक है। इसके पहले इसी मोक्ष की बात 'परां शान्ंति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्' (1862) तथा 'मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्' (1856) आदि के द्वारा कह के भी वहाँ पाप या बन्धन से छुटकारे की बात नहीं लिखी है, हालाँकि मोक्ष शब्द न रहने से वहाँ ऐसा लिखने का मौका था भी। मगर यहाँ तो वह भी नहीं है। फिर 'पापेभ्य:' की क्या जरूरत थी ? इससे तो मानना ही पड़ेगा कि अर्जुन को जो डर था कि कहीं नित्य-नैमित्तिक कर्मों के छोड़ देने से पाप न चढ़ बैठे, उसी के लिए उसे आश्वासन दिया गया है कि बेफिक्र रहो, ऐसा कुछ न होगा। 'मोचयिष्यामि' की जगह 'मोक्षयिष्यामि' कहने का साफ आशय यही है कि जैसे प्रायश्चित्तादि के द्वारा पापों से छुटकारा होता है वैसी बात यहाँ न हो के मुक्ति ही मिल जायगी और सदा के लिए पाप से पिण्ड ही छूट जायगा।

    इस श्लोक में जो 'परित्यज्य' शब्द है उससे स्पष्ट हो जाता है कि अद्वैत आत्मा की शरण जाने के पहले सभी धर्मों को सोलहों आना छोड़ना ही होगा। उसके बिना काम चलने का नहीं। इसका अभिप्राय यही है कि इससे पूर्व के श्लोक में जो आत्मतत्तव में ही मन को रमाना लिखा है और जिसे ही उसकी शरण जाना भी कहते हैं, उसके पहले ही सभी धर्मों को छोड़ना ही होगा। पहले उन्हें छोड़ लो, पीछे शरण जाने की बात सोचो, यही उसका निचोड़ है। पूर्वकालिक क्रिया का दूसरा मतलब नहीं है। जैसे कहा जाय कि सुनते ही विषाद में डूब गया 'श्रुत्वैव विषण्णो जात:', तो यहाँ जो पूर्वकालिक क्रिया 'श्रुत्वा' है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विषाद का कारण अप्रिय समाचार सुनना ही है। वैसे ही यहाँ भी शरण जाने का कारण सभी धर्मों का परित्याग है। त्याग न कह के परित्याग कहने का भी यही अभिप्राय है कि बखूबी त्याग करना होगा, न कि आधा-साझा करके 'आधा तीतर आधा बटेर' करना होगा। इसमें गुजर है नहीं। हाँ, एक बात और। कर्मों के स्वरूपत: त्याग के बाद जब ज्ञान निष्ठापूर्ण हो जाय तो उसके बाद क्या हो इस बारे में यहाँ कुछ नहीं कहा है। फलत:  पूर्ववत् दोनों बातें हो सकती हैं। जब वृत्ति ऊपर चढ़ जाये तो सब छूट जायें, न चढ़े तो लोकसंग्रह चालू हो। यही बात 'सर्वकर्माण्यपि सदा कर्ुव्वाण:' (1856) में कही गयी है। क्योंकि वहाँ जो 'अपि' शब्द है उससे यही अर्थ निकलता है कि सभी कर्म करते हुए भी शाश्वत पद पा जाता है। यह 'भी' साफ ही बताता है कि कर्मों के न करने वाले भी होते हैं और उन्हे बेखटके शाश्वत पद प्राप्त होता ही है मगर कर्म करने वाले भी उसे प्राप्त करते ही हैं। यह बात बहुत साफ है।

    बस, गीतोपदेश पूरा हो गया और जहाँ तक गीताधर्म के बताने का ताल्लुक है कुछ भी कहना शेष रहा नहीं। हाँ, एक बात रह गयी जरूर। अर्जुन ने ही यह सुना है और स्वभावत: लोग कौतूहल से समय पा के उससे पूछेंगे ही कि कृष्ण ने आपसे क्या-क्या कहा, क्या-क्या उपदेश आपको दिया ? और हो सकता है कि वह सबों से 'कुल धान साढ़े बाईस पंसेरी' के हिसाब से ये गोपनीय बातें कहने लग जाय। तब तो अनर्थ ही होगा। एक तो इनकी कीमत सब लोग कर सकते नहीं। हीरा-जवाहरात के जानकार और ग्राहक तो सभी होते नहीं। कहते हैं कि किसी नादान को कहीं हीरे के बड़े पत्थर की ठोकर लगी तो उसने उसे उठा के दूर गलीज में फेंक दिया, ताकि फिर ऐसी ठोकरें किसी को न लगें! यही बात गीताधर्म की भी हो जायगी। दूसरे, जानकार लोग भी हिचक जायेंगे कि हो न हो यह कोई ऐसी ही वैसी चीज है। तभी तो अर्जुन सबों से कहता फिरता है। फलत: यह गीताधर्म पनप सकेगा ही नहीं। इसीलिए आगे के पाँच (67-71) श्लोकों में इसी बात की चेतावनी देते हैं कि कैसे लोगों से ये बातें कही जायँ और कही जायँ या नहीं। क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि खुद जानने के बाद इसकी चर्चा ही न की जाय और न इसकी जरूरत ही महसूस की जाय। मगर कृष्ण को तो फिक्र थी कि समाजहित के लिए इसका प्रचार निहायत जरूरी है। उन्हें केवल अर्जुन की ही फिक्र न थी। इसीलिए उपदेश करने वाले की भरपूर प्रशंसा भी कर दी है और उसका सुन्दर फल सुना दिया है। निरन्तर पढ़ते-पढ़ाते और सुनते-सुनाते ही इसे हृदयंगम किया जा सकता है, इसका प्रसार हो सकता है, इसीलिए उस पर भी जोर दिया गया है।

इदंतेनातपस्कायनाभक्तायकदाचन।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥67

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥68

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।

भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥69

अधयेष्यते च य इमं धार्म्यं संवादमावयो:।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:॥70

श्रध्दावाननसूयश्चशृणुयादपियोनर:।

सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम॥71

    यह (उपदेश) तुझे तपशून्य लोगों से कभी नहीं कहना होगा, जो न तो भक्त हों, न श्रध्दापूर्वक सुनने के लिए लालायित हों, (प्रत्युत) हमारी निन्दा करते हों। (विपरीत इसके) जो कोई ये बातें मेरे भक्तों को सुनाएगा वह मुझमें (ज्ञानरूप) पराभक्ति करके निस्सन्देह मुझे ही पायेगा। (इतना ही नहीं।) मनुष्यों में उससे बढ़ के मेरा प्रिय करने वाला और भूमण्डल में उससे बढ़कर मेरा प्रिय कोई होगा भी नहीं। साथ ही, जो कोई हम दोनों के इस धर्मयुक्त संवाद को पढ़ेगा वह ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी पूजा ही करेगा, ऐसा मैं मानता हूँ। जो मनुष्य श्रध्दायुक्त हो तथा निन्दा की भावना छोड़ के इसे (केवल) सुनेगा भी वह भी मरने पर पुण्यकर्मा लोगों के शुभ लोकों या समाजों में जा पहुँचेगा। 6768697071

    यहाँ 'अतपस्क' से मतलब है जिसमें पूर्वोक्त कायिक, वाचिक, मानसिक तपों में कुछ भी पायें न जायें। वे तीनों प्रकार के तप ऐसे हैं कि उनसे ज्ञान की योग्यता होती है और मनुष्य गीताधर्म समझने के योग्य बन जाता है। इसीलिए उनकी आवश्यकता है। यही कारण है कि जिनमें वे या कम से कम उनमें के मुख्य तप न पाये जायें उसे गीताधर्म सुनाना 'भैंस के आगे बीन बजाये, सो बैठी पगुराये' को ही चरितार्थ करना होगा। इन श्लोकों में 'मां' या 'मद्' शब्द भगवान् के वाचक न हो के आत्मा-परमात्मा के ही वाचक हैं, यह भूलने की बात नहीं है। भक्ति का अर्थ पहले श्लोक में अपराभक्ति या पूर्वोक्त चार भक्तियों में से जिज्ञासुवाली भक्ति ही है। इसीलिए चौथी या ज्ञानरूपा भक्ति आगे कही गयी है। दूसरे श्लोक में भी 'भक्तेषु' का अर्थ जिज्ञासु  ही है। जिज्ञासु को ये बातें सुनाना ही ज्ञान का अभ्यास और मनन हो जाता है। फलत: ज्ञान की पूर्णता में जो कमी रहती है वह पूरी हो जाती है। किन्तु जिसका ज्ञान पूर्ण हो उसके सम्बन्ध में जब यह श्लोक लागू होगा तो 'भक्तिं मयि परां कृत्वा' पहले ही आयेगा और अर्थ यह होगा कि जो मुझमें पराभक्ति करके मेरे भक्तों को यह सुनायेगा उसे भी मुक्ति होगी ही। यह सुनाना उसमें बाधक न होगा। यह कथन गीताधर्म के सम्प्रदाय के प्रचलित करने के ही ख्‍याल से है।

    इसके बाद के दो श्लोक गीता की प्रशंसा के लिए हैं। लोग इसमें प्रवृत्ति करें इसीलिए कह दिया है कि पठन-पाठन भी ज्ञानयज्ञ है, जिससे भगवान् या आत्मा की पूजा ही होती है। फलत: धीरे-धीरे मनुष्य प्रगति की ओर चलते हुए पूर्ण ज्ञानी बनता है। जो पढ़ भी न सके उसे दूसरे पढ़ने वालों के मुख से सुनना ही चाहिए। अगर श्रध्दापूर्वक भक्ति से कोई सुने, तो आगे चल के उसका भी कल्याण हो के ही रहेगा। यहाँ अन्तिम श्लोक में 'मुक्त:' शब्द का मुक्ति या मोक्ष अर्थ न होके प्रयाण, मरण या शरीर का त्याग ही अर्थ है। क्योंकि मुक्ति होने पर पुण्यकर्मियों के शुभ लोक में जाने का सवाल उठता ही नहीं। वह तो निर्वाणमुक्त हो जाता है। उसका आना-जाना कहीं होता नहीं। यह भी तो प्रश्न है कि केवल सुनने वाला मुक्त होगा भी कैसे ? यह तो सबसे नीचे दर्जे का है न ? लोक का अर्थ वह प्रगतिशील समाज ही है जहाँ ज्ञानचर्चा की अनुकूलता हो। स्वर्गादि लोकों की बात यहाँ उठाना गीताधर्म के अनुकूल नहीं है। गीता तो ज्ञानमार्ग की चीज है न ? फिर भी यदि कोई लोक शब्द से स्वर्गादि भी समझ ले तो हमें उससे इन्‍कार नहीं है। मगर केवल उसे ही न समझ प्रगतिशील समाज को भी लोक के अर्थ में लेना ही होगा।

    इस तरह कृष्ण को जो कुछ कहना था कह दिया। गीताधर्म के उपदेश के बाद भविष्य में उसके प्रचार की व्यवस्था भी कर दी। इसे ही सम्प्रदाय कहते हैं और परम्परा भी, जैसी कि चौथे अध्‍याय के शुरू में ही विवस्वान्, मनु आदि की परम्परा कही गयी है। फिर भी वह परम्परा या सम्प्रदाय आज की तरह पेशा और दुकानदारी न बन जाये, इसीलिए पहले ही श्लोक में कह दिया है कि किन लोगों से ये बातें कहीं जायँ। बाद के श्लोकों में तो कौन कहे, कौन न कहे आदि बन्धन भी लगा दिये गये हैं।

    अन्त में जैसा, कि पहले ही कह चुके हैं, कृष्ण ने यह मुनासिब समझा कि जरा पूछ तो देखें कि इन बातों का अर्जुन पर क्या असर हुआ है। क्योंकि इससे भविष्य के बारे में भी उन्हें निश्चिन्त हो जाने की बात थी। कम से कम यह तो समझ जाते जरूर ही कि हम एवं अर्जुन  भी कितने गहरे पानी में हैं। इसीलिए उनने पूछा, और यह जान के उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा कि अर्जुन ने न सिर्फ गौर से उनके उपदेशों को सुना, बल्कि समझा भी पूरी तरह से और तैयार भी वह हो गया तदनुकूल ही। यही प्रश्न और उत्तर आगे के दो श्लोकों में क्रमश: आये हैं।

कच्चिदेतच्छ्रघतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदज्ञानसम्मोह: प्रनष्टस्ते धनंजय72

    हे पार्थ, भला कहो तो कि आया तुमने यह उपदेश एकाग्र चित्त से सुना है(और अगर हाँ, तो) आया तुम्हारा (वह) अज्ञान से उत्पन्न हृदय का अन्धकार मिटा है ?72

    कच्चित् शब्द वहीं बोला जाता है जहाँ उत्तर के बारे में सन्देह हो और पूछनेवालों का मन खुद आगा-पीछा करता हो कि देखें क्या होता है। यहाँ 'अज्ञानसम्मोह:'' में सम्मोह वही है जिसका वर्णन 'क्रोधद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:' (263) में आया है। वहाँ सम्मोह का परिणाम लिखा है स्मृति-विभ्रम या स्मृति का गायब हो जाना। अर्जुन ने इसी स्मृति-विभ्रम के फेर में ही तो न लड़ने का निश्चय कर लिया था। हम इसका अर्थ वहीं अच्छी तरह बता चुके हैं। कृष्ण का ख्‍याल था कि यदि अर्जुन ने ठीक-ठीक सुना और समझा होगा तो फौरन वह यही उत्तर देगा कि हमें स्मृति मिल गयी। सम्मोह कहने में कृष्ण का दूसरा मतलब था। साधारणत: दिल-दिमाग की सफाई की बात तो थी ही। मगर ऐसा भी तो हो सकता था कि अर्जुन उन्हें खुश करने के ही लिए कह देता कि हाँ, हमने सब कुछ समझ लिया। तब क्या होता ? तब तो सब कुछ बेकार हो जाता। किन्तु इसकी पहचान कैसे हो कि उसने आया सचमुच ही समझा है और मान लिया है, या केवल शिष्टाचार की बातें करता है ? इसीलिए सम्मोह पद दिया। क्योंकि इसका सम्बन्ध स्मृति-विभ्रम से है। फलत: अगर अर्जुन ने ध्‍यान दे के सुना और समझा है तो जरूर ही कह देगा कि स्मृति प्राप्त हो गयी। लेकिन यदि ऐसा न होगा तो कुछ और ही बोलेगा। और कृष्ण की प्रसन्नता का क्या ठिकाना रहा होगा जब उनने सुना कि अर्जुन ठीक वही 'स्मृतिर्लब्धा' ही बोल उठा ? बस, उनने जान लिया कि अर्जुन ने यह उत्तर शिष्टाचार से न दे के सचमुच ही हृदय से दिया है और उसे हमने जो भी उपदेश दिया है उसका उस पर पूरा असर हुआ है। 'ध्यायतो विषयान्पुंस:' तो आखिर उसी उपदेश का अमली और व्यावहारिक रूप ही था न ?

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव॥73

    (इस पर चट) अर्जुन ने उत्तर दिया कि हे अच्युत, आपकी कृपा से (मेरा) मोह भाग गया, (वह) स्मृति (पुनरपि) जग उठी और मैं सन्देह-रहित-स्थितप्रज्ञ हो गया हूँ। (इसलिए) आपकी बात मानूँगा।73

    इसमें 'स्मृतिर्लब्धा' की ही तरह 'स्थित:' शब्द भी मार्के का है। क्योंकि द्वितीय अध्‍याय में स्मृति और सम्मोह की बातें स्थितप्रज्ञ के ही प्रसंग में आयी हैं। इसलिए स्वाभाविक ही है कि सम्मोह हटने पर स्मृति फिर जग उठे और मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाय। फलत: अर्जुन ने जो उत्तर दिया उसमें स्थितप्रज्ञ का निर्देश भी जरूरी था और उसी के मानी में ही 'स्थितोऽस्मि' आया है। इसमें और स्थितप्रज्ञ कहने में जरा भी अर्थभेद या अन्तर नहीं है। हमने यही अर्थ लिखा भी है। स्थितप्रज्ञ की पहचान पहले ही बतायी गयी है। उसकी सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि अपने लिए उसे कुछ करना रही नहीं जाता। फलत: जो कुछ भी वह करता है लोकसंग्रह की ही दृष्टि से। इसलिए अर्जुन ने यह कहने की अपेक्षा कि 'करिष्ये धर्ममात्मन:-'अपना धर्म करूँगा', यही कहना उचित समझा कि 'आपकी बातें मानूँगा'-'आप जैसा कहते हैं वही करूँगा'-'करिष्ये वचनं तव'। इससे कृष्ण को और भी पूरा यकीन हो गया कि अर्जुन ने अच्छी तरह हमारा उपदेश सुना है, समझा है और काम भी तदनुसार ही करेगा।

    इस तरह कृष्ण और अर्जुन के संवाद को संजय ने धृतराष्ट्र से ज्यों का त्यों सुना दिया। यहाँ लोगों को यह ख्‍याल हो सकता है कि उसने मनगढ़न्त बातें ही कही होंगी। क्योंकि भीषण संग्राम की स्थली से बहुत ज्यादा दूर बैठे-बैठे सारी बातें आखिर उसे मालूम कैसे हुईं ? वहाँ तो कोई टेलीफोन या तार भी न था और न बेतार का तार ही। और अगर होता भी तो इससे क्या ? संजय के साथ उसके जरिए कृष्ण और अर्जुन तो बातें करते जाते न थे और न माइक्रोफोन पर बैठके ही बातें करते थे कि संजय भी सुन लेता। और अगर संजय सुनता तो धृतराष्ट्र भी जरूर सुनता। फिर इस प्रश्नोत्तार की जरूरत दोनों के बीच क्यों होती कि कुरुक्षेत्रमें क्या हुआ, क्या नहीं ? लोगों के अलावे खुद धृतराष्ट्र को ही शक हो सकता था कि संजय बातें तो नहीं बना रहा है ? यह ठीक है कि व्यासजी ने उससे कह दिया था कि संजय सारी बातें बैठे-बिठाये जान जायगा। क्योंकि इसे मैं दिव्य दृष्टि (Television) दिये देता हूँ। इसीलिए दिन-रात में जब कभी धीरे या जोर से बातें होंगी या और भी जो काम होंगे, यहाँ तक कि लोगों के मन में भी जो कुछ बातें आयेंगी सभी इसकी ऑंखों के सामने नाचने लगेंगी। फलत: अथ से इति तक युध्द का सारा वृत्तान्त तुम्हें ज्यों का त्यों सुना देगा,-''एष ते संजयो राजन् युध्दमेतद्वदिष्यति। एतस्य सर्वसंग्रामे न परोक्षं भविष्यति॥ चक्षुषा संजयो राजन्दिव्येनैव समन्वित:। कथयिष्यति युध्दं च सर्वज्ञश्च भविष्यति॥ प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा दिवा वा यदिवा निशि। मनसाचिंतित मपि सर्वं वेत्स्यति संजय:॥'' (महा. भीष्म. 69-11)। लेकिन धृतराष्ट्र की बुध्दि तो उस समय मारी गयी थी। वह ठिकाने न थी। वही बुरी तरह परेशान भी था। व्यासजी से भी उसने साफ ही यह बात स्वीकार की थी। इसलिए उसके मन में ऐसा ख्‍याल होना असम्भव न था। कुटिल तो था ही। और उसे चाहे भले ही शक हो, या न हो, किन्तु लोगों को तो हो सकता था ही। क्योंकि व्यास का यह प्रबन्ध सब लोग तो जानते न थे। गीता में कहीं पहले यह बात आयी भी नहीं है। महाभारत में लिखी होने पर भी गीता तो स्वतन्त्र सी चीज है न ? फलत: केवल गीतापाठी को भी ऐसा ख्‍याल न हो इसीलिए आगे के चार श्लोकों में से पहले दो में संजय ने खुद यही बात कही है कि व्यासजी की कृपा से ही मैंने यह सब कुछ सुना है। शेष दो में इस गीतोपदेश की अलौकिकता तथा कृष्ण की उस समय की अलौकिक भावभंगी का निरूपण किया है।  

संजय उवाच

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन:।

संवादमिममश्रौषमद्भुतंरोमहर्षणम्॥74

व्यासप्रसादाच्छ्रघतवाने तद्गुह्यमहं परम्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम्॥75

    संजय ने कहा (कि) इस तरह वासुदेव कृष्ण और महात्मा अर्जुन का यह अद्भुत (एवं) रोमांचकारी संवाद मैंने (खुद-ब-खुद) सुना था। व्यास की कृपा से यह अत्यन्त गोपनीय योग मैंने स्वयं योगेश्वर कृष्ण से साक्षात् कहते हुए ही सुना था।7475

    पार्थ का जो विशेषण महात्मा दिया गया है उससे भी सिध्द हो जाता है कि अर्जुन ने आत्मतत्तव और तन्मूलक कर्म-अकर्म का पूर्ण रहस्य अच्छी तरह हृदयंगम कर लिया था।

    संजय ने यह बात धृतराष्ट्र से तब कही थी जब भीष्म आहत हो चुके थे, न कि कृष्ण के उपदेश के ही समय। इसीलिए भूतकाल के सूचक 'अश्रौषम्' तथा 'श्रुतवान्' पद आये हैं।

    यह संवाद निराला है यह भी कह दिया है। ठीक ही निराला था।

    रोमहर्षण का मतलब है आनन्द के मारे ही रोंगटे खड़े कर देने वाला, न कि भय से। क्योंकि भय का कोई अवसर था नहीं।

    गीताधर्म को भी योग कहा है। यों तो गीता के सारे विषय ही योग कहे गये हैं। इसीलिए कृष्ण योगेश्वर हैं। उनसे बढ़ के इस योग को और कौन जानता था ?

    सचमुच ऐसे योगेश्वर के मुख से ही सुनने में कितना आनन्द आया होगा, जब कि पीछे पढ़ने में इतना ज्यादा मन आकर्षित होता और मजा मिलता है। इसीलिए तो संजय की उस समय भी अजीब हालत थी। सुनना तो पहले ही हो चुका था उस समय तो उसी की स्मृति मात्र थी। फिर भी रह रह के वह गद्गद हो जाता है, यह खुद स्वीकार करता हुआ कहता है कि-

राजन् संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।

केशवार्जुनयो: पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:॥76

    हे राजन्, केशव तथा अर्जुन के इस महान् संवाद को (इस समय भी) बार-बार याद करके रह-रह के गद्गद हो जाता हूँ॥76

    यह संवाद ऐसा निराला है कि हमेशा ताजा ही मालूम पड़ता है। इसीलिए कुछ समय बीतने पर भी जब संजय उसे केवल याद कर पाता है, तो भी वह जैसे ऑंखों के सामने नाचता रहता है और ओझल नहीं होता। यही कारण है कि उसे 'तम्' न कह के 'इयम्' कहता है। 'तं' कहने से परोक्ष या ओझल जान पड़ता न ? मगर सो तो है नहीं। यह ठीक है कि उसका वर्णन तो अभी-अभी हुआ है। इसीलिए पहले भी 'तत्' की जगह 'एतत्' ही आया है। मगर यह बात इन्‍कार नहीं की जा सकती कि वह दिमाग में नाचता जरूर था। नहीं तो साधारण चीज होने पर कभी 'तम्' भी जरूर कह देते। सारा वर्णन ही यही सूचित करता है। इतने पर भी वह संवाद अलौकिक होता ही नहीं यदि अर्जुन की उस समय की अलौकिक मनोवृत्ति के साथ ही गीता धर्म के उपदेशक एवं प्रथमाचार्य कृष्ण की भावभंगी भी दिव्य और अलौकिक न होती। दरअसल सारी खूबी और सारा मजा तो उपदेशक को भावभंगी और प्रतिपादन शैली में ही होता है। इसलिए संजय स्वयमेव कृष्ण की उस निराली, भावभंगी की ओर इशारा करता हुआ कहता है कि-

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:।

विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुन: पुन:॥77

    हे राजन्, हरि का-कृष्ण का-वह अत्यन्त अद्भुत रूप याद कर-करके मुझे महान् विस्मय हो रहा है और बार-बार गद्गद हो जाता हूँ॥77

    इस श्लोक के सम्बन्ध में बहुत सी बातें थोड़ी देर पहले कही जा चुकी हैं। फिर भी कितनी ही कहने को शेष हैं। बहुतों की यह धारणा है कि संजय यहाँ
भगवान् के उस विश्वरूप के ही बारे में कह रहा है जिसका वर्णन ग्यारहवें अध्‍याय में आया है। प्राय: सभी भाष्यकारों और टीकाकारों ने यही अर्थ किया है। दर हकीकत मेरी नजर के सामने एक भी टीका अब तक ऐसी नहीं गुजरी हैं, जिसमें वैसा अर्थ न किया गया हो। हरि के रूप के अति, अद्भुत आदि विशेषणों से ही और भी आसानी से इस अर्थ की ओर लोग झुक पड़े हैं। मगर हमने तो पहले लिखा है कि यह बात  नहीं है।  इसका कारण भी काफी दिया है। इतना ही नहीं, हमने तो यह भी चित्रित करने का यत्न किया है कि जिस रूप का यहाँ उल्लेख है वह
वस्तुत: किस तरह का था। रथ पर अर्जुन और कृष्ण दोनों ही खड़े थे। युध्द में ऐसा ही होता था। कृष्ण घोड़ों की बाग पकड़े खड़े थे। मगर जब अर्जुन ने अपना रोना-गाना एकाएक शुरू कर दिया तो जो कृष्ण घोड़ों की ओर मुँह किये खड़े थे वह अचानक यह सुनते ही पीछे मुड़ पड़े और अर्जुन की बातें गौर से सुनने लगे। जैसे-जैसे बातें सुनते जाते थे उनका चेहरा-मुहरा बदलता जाता था। ऐसा होते-होते 'अशोच्यानन्वशोचस्त्वं' (211) शुरू करने के पहले तक उनकी जो अलौकिक भावभंगी हो चुकी थी हमने उसी का चित्र खींचने का यत्न किया है और उसी से यहाँ आशय है। भला विश्वरूप दर्शन से और गीतोपदेश से क्या ताल्लुक ? वह तो गीतोपदेश के बीच की हजार बातों में केवल एक है। मगर यहाँ तो स्पष्ट ही गीता के समूचे संवाद का और योग का उल्लेख है। योग भी वह जिसे कृष्ण ने कहा था, जिसे वह कह रहे थे। क्योंकि साफ ही 'कथयत:' लिखा है। न कि जिसे दिखाया था। यह मार्के की बात है।

    एक बात और भी है। विश्वरूप के बारे में ग्यारहवें अध्‍याय में स्पष्ट ही कहा है कि अर्जुन के अलावे पहले किसी ने भी उसे नहीं देखा था और न आगे कोई देख ही सकता है। यह बात हमने ग्यारहवें अध्‍याय के उन श्लोकों को उध्दृत करके थोड़ी ही देर पहले सिध्द की है। किन्तु यह बात झूठी हो जाती है यदि संजय उस विश्वरूप को याद करता है। क्योंकि स्मृति के पहले तो देखना जरूरी है न ? बिना देखे स्मृति कैसी ? अर्जुन या कृष्ण के मुख से जो कुछ वर्णन ग्यारहवें अध्‍याय में आया था केवल उसे वहाँ कह देना और बात हैं। वह जैसे का तैसा सुन के ही हो सकता था। मगर उसमें वह मजा स्वयं संजय को नहीं मिल सकता था जो देखने में मिलता। देखे हुए ही का प्रबलतम संस्कार होता है वही जग के उसे ला खड़ा करता है ऑंखों के सामने। सुने हुए के बारे में यह बात नहीं होती, नहीं हो
सकती। संजय को दिव्यदृष्टि मिलने पर भी ग्यारहवें अध्‍याय वाले कृष्ण के वचनों से ही सिध्द है कि वह विश्वरूप न तो पहले किसी ने देखा था और न आगे कोई देख सकेगा। तब संजय उसे देख सकता था कैसे ? यह बात मानी कैसे जा सकती है ? लेकिन इस श्लोक के पदों को पढ़ के कोई भी कह सकता है कि ऑंखों देखे स्वरूप का ही उल्लेख संजय करता है। फलत: उपदेश के आरम्भ वाले रूप से ही यहाँ तात्पर्य है।

    इसके सम्बन्ध में इसी श्लोक में एक और भी प्रमाण मिल जाता है। हमने तो पहले ही कहा है कि विलक्षण और अलौकिक होने के नाते ही उस संवाद को ऑंखों के सामने बराबर नाचने वाला मान के उसे बार-बार 'एतत्' 'इमम्' कहा है। लेकिन कृष्ण का विश्वरूप तो और भी ज्यादा ऑंखों के सामने नाचने वाला था। फिर भी उसे इसी श्लोक में 'तच्च' कह दिया है। 'तत् च' में उसे 'तत्' या दूर का कहने के क्या मानी हो सकते हैं। यह तो उल्‍टी सी बात मालूम होती है, दरअसल 'एतत्' तो उसी को कहना उचित था। हाँ, उसमें एक खतरा जरूर था। कृष्ण के उपदेश के समय के रूप के बाद विश्वदर्शन के समय विश्वरूप आया था। फलत: उससे निकट का यही पड़ता था। इसलिए एतत् कहने से स्वभावत: लोग इसे ही समझ सकते थे। क्योंकि पहला रूप अपेक्षाकृत इससे दूर पड़ जाता था। इसीलिए संजय ने 'तत्' कह दिया और सारा झमेला ही खत्म हो गया। क्योंकि अब तो मौका ही न रहा कि विश्वरूप का ख्‍याल भी किया जाय। मगर जो लोग फिर भी विश्वरूप को ही मानते हैं उनके लिए तत् का औचित्य बताना कठिन है।     

    गीतोपदेश की बातों का उपसंहार करते हुए अन्त में संजय ने धृतराष्ट्र को धोखे में रखना उचित न समझ विजय तथा पराजय के सम्बन्ध में भी अपनी स्पष्ट राय दे दी कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा। इसका कारण भी धीरे से बता दिया। जिस पक्ष में योगेश्वर कृष्ण हों जो सभी युक्तियों के आचार्य हैं और जहाँ पार्थ जैसा धनुर्धर हो उस पक्ष की जीत न होगी तो होगी किसकी ? यह तो मोटी सी बात है। शायद धृतराष्ट्र के मन में कुछ आशा बँधी थी। क्योंकि एक तो वह अपने लड़कों के मोह में बुरी तरह फँसा था। दूसरे लोभ और मोह के करते उसकी विवेक-शक्ति नष्ट हो चुकी थी। ऐसी दशा में गीतोपदेश का युध्द पर क्या असर होगा यह बात वह शायद ही समझ सकता था।

यत्रा योगेश्वर: कृष्णो यत्रा पार्थो धानुर्धार:।

तत्रा श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥78

    जहाँ-जिस पक्ष में-योगेश्वर कृष्ण हैं (और) पार्थ (जैसा) धनुर्धर है वहीं लक्ष्मी, विजय, ऐश्वर्य और पक्की-अटल-नीति है, यही मेरा निश्चय है।78

    अटल और पक्की नीति जहीं रहेगी वहीं विजय भी होगी और उसके बाद उसमें स्थिरता भी आयेगी। इसीलिए तो भारवि ने किरातार्जुनीय में कहा है कि जिस चीज को दुर्योधन ने जैसे-तैसे जीत लिया था वह उसी को नीति के बल से सदा के लिए जीत लेना-उस विजय को स्थायी कर लेना-चाहता है, 'दुरोदरक्षद्मजितां समीहते नयेन जेतुं जगतीं सुयोधन:' (17)। कहने का आशय यही है कि पाण्डवों की जीत भी होगी और वह स्थायी भी हो जायगी।

    लक्ष्मी या सम्पत्ति और ऐश्वर्य में अन्तर है। ऐश्वर्य व्यापक चीज है। शासनादि भी इसमें आ जाते हैं। भूति का अर्थ विस्तार है, फैलाव है और हमने ऐश्वर्य इसी को कहा है धारूवा नीति कहने से कच्ची और बराबर बदलने वाली दुर्योधन की नीति घातक सिध्द हो जाती है। चाहे जो हो। फिर भी नीति तो पक्की और स्थायी होनी चाहिए और गीता ने उसी पर जोर दिया है।

    इस अध्‍याय का विषय मोक्षसंन्यासयोग लिखा है। इससे स्पष्ट है कि संन्यास से ही शुरू करके अन्त में भी संन्यास ही आया है और उसी के साथ मोक्ष भी। यों तो शुरू में गीता में दूसरे ढंग के भी संन्यास का वर्णन आया है और अठारहवें अध्‍याय के शुरू में भी उसी को सभी कर्मों के सदा त्याग के रूप में लिखा है। मगर उससे मोक्ष तो होता नहीं। इसीलिए वह इस अध्‍याय का और गीता का भी विषय कभी हो नहीं सकता। हाँ, अन्त के 66वें श्लोक में मोक्ष के साधन के रूप में जिस संन्यास का वर्णन किया है वही गीता को मान्य है और वही इस अध्‍याय का विषय है। चौथे अध्‍याय  में भी संन्यास आया है। मगर एक तो वह ज्ञान के साथ आया है। दूसरे उस अध्‍याय का वही अकेला विषय नहीं है। हाँ, पाँचवें का विषय सिर्फ संन्यास ही है। फिर भी यहाँ उसी को स्पष्ट कर दिया है कि उससे केवल ज्ञान ही नहीं होता, किन्तु मोक्ष भी मिलता है। इस प्रकार तीन अध्‍याय इस संन्यास के प्रतिपादन में लगे हैं।

 इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रो श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्याय: 18

    श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान-प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्‍याय यही है।

    कुछ लोगों ने 'इति' का अर्थ 'समाप्त हुआ' ऐसा किया है। मगर सच पूछिए तो उसका अर्थ है 'यह'। यह पहले कही गयी बात की ही ओर इशारा करके उसी को याद कराता है। 'इत्यहं वासुदेवस्य' (1874) तथा 'इति ते ज्ञानमाख्यातम्' (1863) आदि में सर्वत्र यही अर्थ इति शब्द का माना गया हे। हमने यही लिखा भी है। समाप्ति तो अर्थसिध्द चीज है, न कि शब्दार्थ और वह भी कुछ जँचती नहीं है। इसी से हमने उसे छोड़ दिया है।

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