ईश्वर
की सत्ता
समस्त
सृष्टि का संचालन नियमित रूप से करनेवाला कोई एक सर्वशक्ति सम्पन्न
विशिष्ट चेतन है या नहीं,
यह बहुत ही पुराना प्रश्न है और प्रारम्भ से ही
इसका
उत्तर
दोनों ही रूप में अब तक दिया जाता है। इस सृष्टि के मूल में कोई ऐसा
चेतन है,
इस विषय में मतैक्य कभी नहीं हुआ। एक दल जहाँ ऐसे
चेतन का पक्षी है जहाँ दूसरा उसका विपक्षी भी पाया जाता है। यह भी
नहीं कि जिस चार्वाक या लोकायतिक को नास्तिक-शब्द से स्पष्टतया सम्बोधित
करते हैं,
केवल वही ईश्वरीय सत्ता का विपक्षी है। हिन्दुओं
के जिन मीमांसा और सांख्य-दर्शनों को
साधारणतया
आस्तिक ही समझा जाता है उन्होंने भी ईश्वर की सत्ता मानने से
इन्कार
किया है। हिन्दुओं के छ: दर्शनों में न्याय तथा वैशेषिक को पृथक्
मानने के लिए कोई वैसा विशेष आधार
नहीं है जैसा कि सांख्य,
योगादि के लिए। उन दोनों में कोई मौलिक भेद
(Fundamental
difference)
नहीं है।
अतएव नवीन तार्किकों ने
दोनों
को एक ही मानकर या दोनों को मिलाकर ही अपने ग्रन्थ लिखे हैं। इस तरह
अब पाँच ही दर्शन स्पष्ट रूप से रह जाते हैं। इनमें जहाँ दो
ईश्वर-सत्ता के विपक्षी हैं वहाँ दो ही (योग और न्याय) उसके स्पष्ट
रूप से समर्थक हैं। क्योंकि वेदान्त-दर्शन की गति निराली है। उसका
झुकाव दोनों ओर है। यों तो उस दर्शन में ईश्वर ओत-प्रोत पाया जाता है
और उपनिषदों,
व्याससूत्रों
तथा गीता से लेकर आधुनिक
ग्रन्थों तक में ईश्वर का निरूपण और उस
सम्बन्ध
में विपक्षियों के मत का,
खण्डन पाया जाता है। अतएव उसे अनीश्वरवादी कह
नहीं सकते। फिर भी वेदान्त की चरम गति जो जीवा-भिन्न या अद्वैत
ब्रह्म है, उससे और साधारण
ईश्वर-वाद से क्या
सम्बन्ध
है ?
जिस अभेद को वेदान्ती चरम लक्ष्य समझते हैं और
जिसके सिवा शेष की वास्तविक सत्ता नहीं मानते,
वह सर्वसाधारण
दार्शनिक व्यवहार का न तो जीव ही है और न ईश्वर ही। इसी से वेदान्त
को हमने बीच में माना है। इतना ही क्यों
? नैयायिकों के ईश्वर को तो वेदान्ती भी अन्त में
वैसे ही अस्वीकार करते हैं जैसे अन्य विपक्षी। इस तरह स्पष्ट है कि
ईश्वरवाद के बारे में हिन्दू-दर्शनों की तराजू का पलड़ा दोनों ही ओर
है।
एक बात और।
ईश्वर-सत्ता के विपक्षियों को दो दलों में विभक्त किया जा सकता है।
एक तो वे हैं,
जो
एकदम किसी भी रूप में उसे मानने को तैयार नहीं,
उसे
अमान्य कहते हैं और इस श्रेणी में मीमांसक,
चार्वाक तथा आजकल के हेकल और निशे आदि को ले सकते हैं। लेकिन उनकी एक
श्रेणी और भी है जिसका कहना है कि यदि ईश्वर हो भी तो उसके जानने का
कोई साधन हमारे पास न होने के कारण हम इससे जान नहीं सकते-वह अज्ञेय
है। सांख्य-सूत्रों के भाष्यकार विज्ञान भिक्षु के मत से
सांख्य-दर्शन इसी कोटि का है जैसा कि उसके
'ईश्वरासिध्द:'
आदि
सूत्रों के भाष्य से सिध्द है। हालाँकि दूसरे लोग सांख्य को भी प्रथम
श्रेणी में ही मानते हैं। वर्तमान युग के हर्बर्ट स्पेन्सर और ह्यूम
आदि का अज्ञेयवाद का सिध्दान्त भी उसी प्रकार का है। और यदि हम
अपने-अतएव संसार भर के-प्राचीन ग्रन्थ-क्योंकि अब तो सभी मानते हैं
कि दुनिया में ऋग्वेद से प्राचीन कोई ग्रन्थ नहीं है-ऋग्वेद को देखते
हैं तो उसमें भी ईश्वर की इस अज्ञेयता का स्पष्ट आभास पाया जाता है।
उसके 'नासदासीत्'
इत्यादि नासदीय सूक्त के निम्नलिखित दो मन्त्रों के पढ़ने से यह बात
ध्यान में आ जाती है। वे मन्त्र हैं-
को अध्दा
वेद क इहं प्रेवोचत्
कुत आजाता कुत
इयं विसृष्टि:।
अर्वाग्वेदा अस्य विसर्जने-
नाथा को वेद
यत आबभूव॥
इयं
विसृष्टिर्यत आबभूव
यदि वा दधो
यदि वा न।
यो
अस्याध्यक्ष: मरमेव्योमन्
सो अंग यदि वा
न वेद॥
इन दो
मन्त्रों में पहले में कहा गया है कि इस सृष्टि के मूलतत्तव उस
विशिष्ट-चेतन (ईश्वर) के जानने का कोई साधन है ही नहीं। अतएव उसे कौन
जान सकता है ?
दूसरे
मन्त्र में कहा गया है कि यद्यपि उसके जानने के साधन नहीं हैं तथापि
वह स्वयमेव अपने को जान सकता है। अथवा नहीं भी जान सकता है।
विस्तारभय से इन मन्त्रों के बारे में हम अधिक न लिख केवल इतना ही
कह देना चाहते हैं कि इनमें जो ईश्वरीय सत्ता के मानने-न-मानने का
विचार है वह आजकल की दार्शनिक रीति का है,
अतएव
अत्यन्त युक्तियुक्त है जैसा कि उसके
'अर्वाग्देवा
अस्य विसर्जनेन'
तथा
'सो
अंग यदि वा न वेद'
से
स्पष्ट है। अतएव आजकल अज्ञेयतावादी ह्यूम आदि तथा अमान्यतावादी हेकल
आदि और उनके अनुयायियों की बाढ़ देखकर हमें चौकन्ना या बेचैन न होना
चाहिए,
क्योंकि यह
कोई नई बात नहीं है।
यदि ईश्वर
इन्द्रियग्राह्य होता तब शायद उसके बारे में ऐसा विवाद नहीं होता।
हालाँकि प्रत्यक्ष पदार्थों के बारे में भी विवाद होता ही है और यह
प्रश्न होता है कि जब ऑंखों के दोष से श्वेत शंख भी पीला प्रतीत होता
है तब हल्दी की पीतिमा भी क्या वस्तु सत्ता रखती है या वैसी ही है
? फिर
भी ये बहुत दूर की बातें हैं साधारणत: प्रत्यक्ष में विवाद नहीं
होता। हाँ,
अनुमेय
पदार्थों में तो विवाद होता ही है। यही कारणहै कि ईश्वरीय-सत्ता बहुत
बड़े विवाद का विषय है। उसी विवाद का थोड़ा बहुत दिग्दर्शन हो जाने से
इस विषय की गम्भीरता का पता लग सकता है। साधारणतया अनीश्वरवादियों को
दो दलों में विभक्त किया जा सकता है। एक तो दल ऐसों का है जो एकमात्र
प्रत्यक्ष-प्रमाण के माननेवाले हैं इसीलिए वे ईश्वर को स्वभावत:
स्वीकार नहीं कर सकते। दूसरे दल में ऐसे लोग हैं जो अनुमान को भी
यद्यपि मानते और अनुमेय पदार्थों की सत्ता स्वीकार करते हैं,
फिर भी
ईश्वरीय सत्ता को मानने में असमर्थ हैं। पहले दल में अग्रणी चार्वाक
है और दूसरे में सांख्य,
मीमांसक और हेकल आदि। प्रत्यक्ष नहीं होने से उसकी सत्ता न मानने
वालों के मत में सबसे बड़ा और स्थूल दोष यह है कि वे अपने वंश के
मूलपुरुष या अपने से दस-पाँच पीढ़ी पूर्व के किसी पुरुष की सत्ता मान
नहीं सकते। क्योंकि उस पुरुष को प्रत्यक्ष करने का कोई भी साधन नहीं।
वह तो केवल अनुमानगम्य है परन्तु प्रत्यक्ष न होने से ही उस पुरुष की
सत्ता का अपलाप नहीं हो सकता। यदि कोई मूल-पुरुष न था तो वे हजरत
जन्मे कहाँ से ?
इस तरह
जो अपने ही पूर्वजों की सत्ता नहीं मान सकता वह संसार के पूर्वज
(ईश्वर) की सत्ता न माने तो आश्चर्य ही क्या
?
लेकिन जो
अनीश्वरवादी अनुमान-प्रमाण को भी मानते हैं,
न कि
केवल प्रत्यक्ष को ही,
उनकी
दलीलें अवश्य ही निस्सार नहीं होती हैं। फलत: ईश्वरवादियों की
जबर्दस्त भिड़न्त उन्हीं के साथ होती है। सांख्यों ने पुरुष (जीव) और
प्रकृति को अनुमानगम्य ही माना है और मीमांसकों का स्वर्ग,
परलोक
या अदृश्य भी अनुमेय ही है। इसी प्रकार वर्तमान विज्ञान के कट्टर
भक्त हेकल प्रभृति के ईथर
(Ether)
और कललरस
(Protoplasm)
का
वस्तुगम्या अनुमेय पदार्थ ही समझना चाहिए। चुम्बक की आकर्षण शक्ति
दूरस्थ लोहे पर जब काम करती है तो चुम्बक से निकलकर लोहे में जाने के
लिए बीच में उसका कोई आधार
चाहिए,
क्योंकि कोई शक्ति निराधार
टिक नहीं सकती! बस,
वही आधार-द्रव्य
वैज्ञानिकों का ईथर है। एक पदार्थ से दूसरे में विद्युत्-शक्ति आदि
के गमनागमन का आधार
भी वही है। यद्यपि वैज्ञानिक उस ईथर को सर्वव्यापी,
गति-शक्ति का अनन्त भण्डार और निष्क्रिय तथा
अखण्ड मानते हैं, फिर भी उसका वास्तविक
रूप क्या है यह बात अभी तक विवादग्रस्त ही है और उसकी सर्वव्यापिता
आदि केवल अनुमान सिध्द ही हैं। इसी प्रकार कललरस
(Protoplasm)
की भी बात
है। वैज्ञानिक इतना ही कह सके हैं कि वह कारबन,
ऑक्सिजन, नाइट्रोजन और
हाइड्रोजन के विलक्षण मेल से बना है जिसमें जल,
गन्धक
आदि का भी अंश है। मगर वह विलक्षण संयोग कैसा है इसका पता उन्हें
नहीं है,
नहीं तो अपनी प्रयोगशाला में उसी विलक्षण
सम्मिश्रण के द्वारा कललरस बनाकर वे लोग भी सजीव सृष्टि कर लेते।
अतएव उनकी यह कल्पना भी केवल अनुमान
मात्र
ही है। इस प्रकार केवल अनुमान के ही बल पर लम्बी उड़ान भरनेवाले
वैज्ञानिक भी ईश्वर की कल्पना से घबराकर भयभीत हो जाते हैं। यदि यह
कहा जाये कि उनका अखण्ड एकरस ईथर
(Ether)
ईश्वर या
ब्रह्म का ही नामान्तर है तो कोई अत्युक्ति नहीं। क्योंकि दोनों ही
अनन्त शक्ति के भण्डार माने गए हैं और जिस प्रकार ब्रह्मवादी उसकी
शक्ति या माया (प्रकृति) का ही परिणाम संसार को मानते हैं उसी प्रकार
वैज्ञानिक भी उसी शक्ति का ही रूपान्तर-द्रव्य मानते हैं! ऐसी
विलक्षण समता के रहते हुए भी उन्हें ईश्वर में विवाद है! इसी तरह जब
बाल से तेल नहीं पैदा होता तो फिर निर्जीव से सृष्टि के आरम्भ में या
कभी भी हेकल का सजीव पदार्थ कैसे उत्पन्न होगा
? यदि दो परस्परविरोधी
पदार्थों का उपादान-उपादेय (कार्य-कारण) भाव माना जाय तो नीम के बीज
से आम की या सभी से सबकी उत्पत्ति
क्यों न मानी जाय
? ऐसी बे-सिर-पैर की कल्पना करने वाले वैज्ञानिक
यदि जीवात्मा या ईश्वर के मानने में नाक-भौं सिकोड़ते हैं तो यह उनकी
लीला ही ठहरी! अतएव निराधार
(Protoplasm)
आदि की
कल्पना के लिए भी हारकर उन्हें यही मानना होगा कि चेतना इस जगत् के
प्रत्येक अणु में व्याप्त या ओतप्रोत है और उन्हीं चेतनाविशिष्ट
अणुओं के सम्मिश्रण से कललरस की प्रक्रिया द्वारा सजीव सृष्टि का
विकास होता है। इस तरह
सर्वत्र
व्याप्त चेतन रूप ईश्वर (ब्रह्म) को तो उन्होंने स्वीकार कर ही लिया,
चाहे इस बात को स्पष्टतया वे न कहें!
ईश्वरवादियों
ने ईश्वर की कल्पना में बे-सिर-पैर की उड़ान से काम न लेकर बहुत ही
युक्तियुक्त एवं वैज्ञानिक सरणी का अवलम्बन किया है। एक मकान,
घड़ी या
पुस्तक को देखते ही बिना आगा-पीछा के एकाएक यह निश्चय हो आता है कि
हो-न-हो इन सभी पदार्थों के मूल में कोई बुध्दिपूर्वक कार्य करने
वाला चतुर चेतन शिल्पी है। इसके विपरीत दूसरा भाव कभी भी किसी के भी
मन में उदय नहीं होता। इसी प्रकार घड़ी की चाल (क्रिया) को देखकर भी
यही ख्याल होता है कि इस निर्जीव पदार्थ की क्रिया के मूल में भी
चेतन शिल्पी का ही हाथ है। एक बहुत बड़े कारखाने में जहाँ सैकड़ों
प्रकार के कल-पुर्जे अलग-अलग काम करते हैं,
जाने
पर पता लगता है कि या तो उन सभी को चलानेवाली कोई विद्युत्शक्ति है
तो उस शक्ति के मूल में चेतन शिल्पी वर्तमान है। इसी तरह इस
ब्रह्माण्ड रूपी भव्य भवन,
बड़ी
जबर्दस्त घड़ी या बड़े कारखाने को देखकर जिसकी रचना निराली है और ग्रह,
तारे
आदि की चाल (क्रिया) बराबर जारी है,
सहसा
यह ध्यान प्राचीनों को हो आया कि इसके मूल में कोई असाधारण चातुरी
एवं सामर्थ्यवाला चेतन शिल्पी मौजूद है। बस,
उसी
शिल्पी का नाम उन्होंने ईश्वर रख दिया। जिस तरह धूम और अग्नि की
व्याप्ति नियम (Law Inseparable
Connexion)
देखकर
धूम से अग्नि का अनुमान होता है,
ठीक
ऐसी ही व्याप्ति यहाँ भी है। अतएव यह अनुमान निर्दोष तथा बिल्कुल ही
वैसा ही स्वाभाविक है जैसा कि धुएँ से आग का अनुमान।
इस व्याप्ति
में बहुत-से अनीश्वरवादियों ने व्यभिचार या दोष
(Fallacy)
दिखाने का
प्रयत्न किया है। उनका कहना है कि जब अग्नि-सम्पर्क से बारूद में
भड़ाका होता है और वह एक तरह की क्रिया ही है और जब चुम्बक के संसर्ग
से लोहे में क्रिया होती है-वह चलने लगता है,
हालाँकि आग और बारूद तथा चुम्बक एवं लोहा सभी
अचेतन ही हैं। तब यह कैसे माना जाये कि अचेतन की क्रिया का मूल कारण
साक्षात् या परम्परा या चेतन ही होता है ?
लेकिन ऐसा कहनेवाले यह भूल जाते हैं कि बारूद या लोहे की क्रियाएँ
अनियमित एवं आकस्मिक हैं। इसके विपरीत ईश्वरवादियों ने जिन क्रियाओं
को व्याप्ति का आधार
माना है वे नियमित और सदा होनेवाली हैं। यदि हम चाहें कि लोहे की
क्रिया भी उसी तरह सदा होती रहे जिस प्रकार हमारे हाथ-पाँव या
चन्द्र-तारे आदि तथा अणुओं की,
तो यहाँ भी
मध्यस्थ
चेतन की आवश्यकता पड़ेगी,
जो या तो बराबर लोहे को चुम्बक में सटने के बाद
हटा दिया करे या दूसरी ओर एक दूसरा बड़ा चुम्बक लगा दिया करे या ऐसा
ही कोई
प्रबन्ध
करे। बारूद के भड़ाके के बारे में भी बार-बार आग और बारूद के संयोग के
लिए चेतन-प्राणी अपेक्षित होगा।
इतना ही नहीं,
दो जड़
पदार्थों के संसर्ग जो क्रिया होती है वह एक ही प्रकार की होती है।
जब चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींचता है तो यह सम्भव नहीं कि ठीक उसी
समय उसको अपनी ओर से अलग करे। यही नहीं,
दूसरे
समय भी वह अपने से उसे अलग नहीं कर सकता। मगर सृष्टि के पदार्थों की
क्रिया में यह बात नहीं है। जो अणु आपस में अपनी ही क्रिया से मिलकर
किसी द्रष्ट की रचना करते हैं वही कालान्तर में जुदा होकर उसका नाश
भी करते हैं। इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश का क्रम जारी
है। यदि उनमें मिलने की शक्ति मानी जाये तो जुदाई की शक्ति न रहेगी
और पृथक् होने की शक्ति मानने पर मेल की शक्ति असम्भव है। दो विरुध्द
शक्तियों का एक ही जड़-पदार्थ में बराबर रहना असम्भव है। समय-भेद से
दोनों विरुध्द शक्तियों का एक में समावेश हो नहीं सकता। क्योंकि जब
एक शक्ति के अस्तित्व के समय दूसरी उसमें न थी तो पीछे आयी कहाँ से
?
क्योंकि जहाँ जो चीज सूक्ष्म या शक्ति रूप से भी नहीं रहती वहाँ वह
कभी भी व्यक्त नहीं हो सकती जैसे बालू से तेल कभी नहीं निकलता।
जड़-पदार्थों का काम तो अन्धो का-सा है। वह किसी नियम के सहारे चला
करते हैं। उनमें दो विरोधी नियम स्वयं-सिध्द रूप से रह नहीं सकते।
मगर चेतन के लिए यह बात लागू नहीं है। वह तो इच्छा या उद्देश्य-शक्ति
के बल से सब कुछ कर सकता है और जड़ों को भी चाहे जैसे नचा सकता है।
अतएव जड़-सृष्टि की क्रिया के मूल में चेतना-विशिष्ट संचालक अपेक्षित
है। नहीं तो समय-समय पर विरोधी क्रियाएँ उसमें हो नहीं सकतीं।
रचना के बारे
में हेकल ने अपनी
'विश्वपहेली'
(Riddle of the universe)
नामक पुस्तक में लिखा है कि यदि यह सृष्टि किसी चेतन की रची होती तो
वह बहुत-सी व्यर्थ की चीजें क्यों बनाता। दृष्टान्त के लिए पुरुषों
के स्तन-चिद्द आदि को उसने लिखा है। उसके मत से जड़ प्रकृति के बारे
में तो यह प्रश्न हो नहीं सकता। कारण,
वह तो रचना के प्रयोजन का विचार नहीं कर सकता।
परन्तु ऐसा लिखते समय शायद उसे याद नहीं रहा कि जड़ के तो सभी काम
किसी व्यवस्थित नियम के ही अनुसार चलते हैं। उसमें जरा भी फेरफार
होने से सारी क्रिया ही चौपट हो जाती है। रेल की पटरी छोड़ते ही
इंजन
नीचे जा गिरता है। मगर चेतन का काम तो किसी नियम में
बँध
नहीं है। अतएव इच्छा होने पर उसमें उलट-फेर भी हो सकता है। ऐसी दशा
में तो जड़वादियों के लिए उन स्तनों आदि की उत्पत्ति
का प्रयोजन बताना अपरिहार्य हो जाता है,
न कि ईश्वरवादियों के लिए। यह तो एक बात हुई।
वस्तुगत्या तो विज्ञान अभी शैशवावस्था में ही है और उसे अभी सृष्टि
की बहुत-सी पहेलियाँ सुलझानी हैं। ऐसी दशा में जब वह प्रौढ़ होगा तो
शायद पुरुषों के स्तनचिद्दों आदि का भी उपयोग मालूम हो जाये। अभी
अधीर
होने की कोई बात नहीं। उन स्तनों को व्यर्थ कहना वैसा ही है जैसा
आत्म-तत्तव-विवेक में उदयनाचार्य के भूताविष्ट मनुष्य का दूर से हाथी
देखकर पहले उसके बारे में ऊल-जलूल तर्क करना और अन्त में यह कह देना
कि यह कुछ नहीं है! सृष्टि के रहस्यों की अनभिज्ञता तो हेकल ने अपनी
उक्त पुस्तक के अन्त में उपसंहार करते हुए स्वयं स्वीकार की है और एक
प्रकार से ईश्वरवाद का समर्थन ही किया है। जैसा कि
'प्रकृति-परिज्ञान
की उन्नति होने से
इधर
जगत्-सम्बन्धी
बहुत-से गुप्त भेद खुल गए हैं अब केवल परमतत्तव का भारी भेद रह गया
है। वह सत्ता कैसी है जिसे वैज्ञानिक विश्व या प्रकृति कहते हैं,
दार्शनिक परमतत्तव कहते हैं और भक्तजन ईश्वर या
कर्ता
कहते हैं ?
क्या हम कह सकते हैं कि आधुनिक
विज्ञान की अपूर्व उन्नति से इस
'परमतत्तव'
का भेद खुल गया है, या
कुछ खुलने वाला है
?
इस अन्तिम प्रश्न के विषय में यही कहना पड़ता है
कि यह आज भी उसी प्रकार बना हुआ है जिस प्रकार ढाई हजार वर्ष पहले के
तत्तवज्ञों के सामने था। बल्कि यों कहना चाहिए कि इस परमतत्तव के
अनेकानेक व्यक्त रूपों का जितना ही अधिक
ज्ञान हमें होता जाता है उसका रहस्य हमारे लिए उतना ही अभेद्य और
अपार होता जाता है। इस नाम-रूपात्मक दृश्य-जगत् की ओट में वस्तुत:
क्या है यह हम न जानते हैं और न जान सकते हैं। पर,
इस 'वस्तुत:'
के फेर में हम क्यों पड़ने जायँ जब कि हमारे पास
उसके जानने का कोई
साधन
नहीं,
जब कि यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसका अस्तित्व
तक है या नहीं।'
ऊपर के उध्दरण
से सिध्द है कि अन्त में हेगल भी,
जिसे
अनीश्वरवादियों का आचार्य कहा जाता है,
ईश्वर
की अमान्यता को छोड़कर अज्ञेयता का ही पक्षपाती हो जाता है,
उसे
अपनी पहुँच के बाहर की वस्तु समझता है और इस सृष्टि के रहस्यों के
सम्बन्ध में आधुनिक विज्ञान को अबोध बालक की ही तरह समझता है जिसका
ज्ञान बहुत ही परिमित है। हमारे विचार से तो कोई भी वस्तुगत्या
अनीश्वरवादी हो ही नहीं सकता जैसा कि हेकल-जैसे कट्टर जड़वादी कहे
जानेवाले के उक्त कथन से पता लगता है। किसी भी पदार्थ को हम तीन ही
दृष्टियों से देखते हैं-मित्रदृष्टि,
शत्रुदृष्टि और उदासीनदृष्टि से। इनमें भी यद्यपि उदासीन पुरुष उस
पदार्थ के अत्यन्त निकट नहीं पहुँचता तथापि यह नहीं कहा जाता कि एकदम
पहुँचता ही नहीं। फिर भी मित्र और शत्रु तो उस पदार्थ के अत्यन्त
निकट पहुँच ही जाते हैं। बल्कि यों कहना चाहिए कि पक्का प्रेमी या
मित्र भी शायद उतना निकट नहीं पहुँचता जितना निकट पक्का या कट्टर
शत्रु पहुँचता है। मित्र या प्रेमी तो शायद कभी भूल भी जाता है,
मगर
सच्चा शत्रु तो निद्रा काल में भी नहीं भूलता। इसीलिए मानना पड़ता है
कि यदि आस्तिकजन भक्त के रूप में उसे याद करते हैं जपते हैं,
नहीं
भूलते हैं,
तो
नास्तिकजन शत्रु के रूप में इसे भक्तों की ही तरह,
बल्कि
उनसे भी ज्यादा याद करते,
जपते
और नहीं भूलते हैं और यह मानी हुई बात है कि ईश्वर तो उसी का
निकटवर्ती है,
उसे ही
सद्गति देता है जो उसे निरन्तर याद करे,
कभी न
भूले। उसके दरबार में तो आस्तिक-नास्तिक का विभाग
(Label)
नहीं है।
यह विभाग तो मनुष्यों का बनाया हुआ है। वह तो मन की प्रवणता,
मनोवृत्ति,
मन:प्रवाह या लगन को देखता है और वह लगन मन्दिर,
मस्जिद आदि में जाने,
कण्ठी-माला, गेरुआ पहनने,
ऑंख-नाक मूँदने या आस्तिक कहाने में नहीं है। वह
तो मन का
धर्म
है,
हृदय का व्यापार है, न
कि शरीर का
धर्म।
इसीलिए इतिहास-पुराणों के आख्यानों से पता लगता है कि यदि
धारुव,
प्रह्लादादि
भक्तों को भगवान् ने सद्गति दी तो रावण,
कंस, हिरण्यकशिपु आदि
को दुर्गति न देकर परमलोक ही प्रदान किया। यदि भक्ति या भक्त के वही
लक्षण होते जिन्हें हमने मान रखा है और यदि
एकमात्र
भक्तों को ही भगवान् सद्गति देते,
तो फिर भगवद्विरोधियों
(नास्तिकों के भी दादाओं) दानवों और राक्षसों का कल्याण कैसे हुआ
रहता जिसका उल्लेख
धर्म-ग्र्रन्थों
में पाया जाता है
? हमारे जानते उस उल्लेख का यही रहस्य है। अतएव
हमारे विचार से ईश्वरवादियों को-सच्चे आस्तिकों को-सच्चे
निरीश्वरवादियों से भयभीत होने का कोई कारण नहीं है,
दोनों के मार्ग दो होने पर भी लक्ष्य और पहुँच एक
ही है, जैसा कि 'यं
शैवा: समुपासते शिव इति' इत्यादि वचनों से
भी सिध्द है और पुष्पदन्ताचार्य के 'नृणामेको
गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव' का भी
तात्पर्य है। हाँ, यदि भय का कोई कारण है
तो केवल यही कि ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी दोनों सच्चे और पक्के न
होकर बनावटी और दिखावटी हों। नामधारी
आस्तिक और नामधारी
नास्तिक दोनों ही समानरूप से भगवत्-द्रोही और
धार्मिकों
के लिए भय के कारण हैं
? अतएव उन्हीं से बचना तथा सजग रहना चाहिए।
इसीलिए ईश्वरवाद का अद्वितीय ग्रन्थ 'न्यायकुसुमाजंलि'
लिखकर उसके अन्त में उपसंहार करते हुए उदयनाचार्य
लिखते हैं कि-
इत्येवं
श्रुतिनीतिसम्प्लवजलैर्भूयोमिराक्षालिते
येषां
नास्पदमादघासि हृदये ते शैलसाराशया:।
किन्तु
प्रस्तुत विप्रती पविधायोऽप्युच्चैर्मवच्चिन्तका:
काले
कारुणिक त्वयैव कृपया ते मावनीया नरा:॥
इसका भावार्थ
यह है कि हे भगवन्! हमने आपके विरोधियों (नास्तिकों) के अत्यन्त मलिन
हृदयों को धोने के लिए इस तरह के तर्क,
युक्ति
और आगम-प्रमाण-स्वरूप निर्मल सोते का जल यद्यपि तैयार किया है,
तथापि
इतने पर भी यदि उनके अत्यन्त मलिन हृदयों में पवित्रता तथा कोमलता न
आकर आपके लिए स्थान नहीं मिलता,
तो हम
यही कहेंगे कि वे वज्रहृदय हैं। फिर भी इतना तो मानना ही होगा कि वे
नास्तिक लोग भी आपके प्रचण्ड शत्रु बनकर आपका चिन्तन (आपकी याद) बहुत
अच्छी तरह करते ही हैं। साथ ही,
आप
ठहरे कृपालु। अतएव समय पाकर उन लोगों का भी उध्दार आपको कृपा करके
करना ही होगा।
(सम्पादक-यह
लेख अगस्त 1932
ई. में कल्याण के ईश्वर अंक में छपा था। इस समय तक स्वामी जी पर
मार्क्सवाद का प्रभाव नहीं पड़ा था। और वे एक सच्चे धार्मिक की तरह
प्रवंचना के ढोंग के,
रूढ़ि
के खिलाफ थे।)
(शीर्ष पर वापस)
मानव सेवा ही असली वेदान्त
लोगों का
ख्याल है कि 'हम
क्या हैं, संसार क्या है और हमारा इस
संसार के साथ
सम्बन्ध
क्या है',
इन्हीं तीन जिज्ञासाओं या प्रश्नों ने मूल
दर्शनों (Philosophies)
को
जन्म दिया है और
धर्म,
मजहब या रिलिजन
(Religion)
विभिन्न
दर्शनों के बाहरी या व्यावहारिक रूप हैं। आचार (आचरण,
कर्म, क्रिया,
अमल, प्रैक्टिस) विभाग
को
धर्म
और विचार (सोचना,
थिंकिंग) विभाग को अब दर्शन कहते हैं,
हालाँकि आचार और विचार दोनों ही दर्शन के ही दो
विभाग या अंग हैं। असल में जनसाधारण
सोचने,
विचारने, मेडिटेशन
(Meditation)
आदि से
स्वभावत: दूर रहते हैं;
कारण, उन्हें दैनिक
जीवन के कामों और विचारों से अवकाश ही नहीं रहता कि लोक,
परलोक और
अध्यात्म
के गहरे पानी में उतरें। फलत: दर्शन उनके लिए एक निराली और
अपरिचित-सी चीज हो गयी है। वह उसे समझ नहीं सकते। अतएव
धर्म
के रूप में उन्हें जो ठोस और व्यावहारिक चीज दी जाती है उस पर थोड़ा
या अधिक
अमल करके सन्तोष कर लेते हैं। क्योंकि
धर्म
आत्मा की भूख की खुराक है और बिना खुराक के काम चलता नहीं। यही कारण
है कि किसी-न-किसी
धर्म
की ओर सदा से जनता की प्रवृत्ति
होती चली आयी है और
धर्म
के न मानने वालों को लोगों ने कभी भी आदर की दृष्टि से नहीं देखा है।
असल में तो आत्मा की बुभुक्षा की शान्ति दार्शनिक विचारों से ही होती
है और यही ठीक भी है;
फलत: दर्शन ही उस खुराक के देने वाले हैं। लेकिन
आम लोगों के लिए वे दुर्गम हैं। इसलिए दर्शनों के बाहरी रूप में
प्रचलित
धर्मों
से ही काम चलाया जाता है। यही कारण है कि
धर्मों
की प्रवृत्ति
का स्रोत मूल में चाहे दर्शन भले ही रहे हों,
आगे चलकर वे विकृत,
दिखावट और प्रवंचनामात्र
रह जाते हैं। क्योंकि जनता उनके दार्शनिक
आधारों
से अनभिज्ञ होने के कारण
धर्म-प्रचारक
पुरोहितों,
गुरुओं और
साधु-फकीरों
से न तो प्रश्नोत्तार ही कर सकती है और न उनका निरादर करने की ही
हिम्मत रखती है। विभिन्न
धर्मसम्प्रदायों
का पारस्परिक कलह भी इसी से उत्पन्न होता है और असली बातों को छोड़
रूढ़ियों की उपासना भी इसीलिए चल पड़ती है,
जो सभी अनर्थों की जननी है। विपरीत इसके यदि हम
दार्शनिक विचारों को ही
धर्मों
के मूलाधार
मान लें तो यह बला यों ही खत्म हो जाये। क्योंकि तब तो
धर्म
के बारे में हम यही देखेंगे कि वह पूर्वोक्त तीन जिज्ञासाओं
की पूर्ति
के लिए सामग्री या मार्ग प्रभूत करता है या नहीं और ऐसा जो न होगा
उसे स्वयं त्याग देंगे। यदि इस दृष्टि से देखा जाये तो पता चलेगा कि
सभी
धर्म
सत्य,
दया,
मैत्री,
अव्यभिचार, अस्तेय आदि
दैवी सम्पत्तियों
पर पूरा जोर देते हैं,
जिससे पता चलता है कि वे किसी एक ही
ध्येय
की खोज में एक ही मार्ग से आ रहे हैं और सत्य,
दया आदि उनका वह निर्विवाद मार्ग है। फिर
धार्मिक
झगड़ों के लिए स्थान है ही कहाँ
? सत्य, दया आदि ऐसी
चीज भी नहीं कि आत्मा-परमात्मा की तरह अदृश्य होने के कारण
विवादास्पद हों। वह तो सर्व-जनानुभूत पदार्थ हैं। इसीलिए उनकी
प्राप्ति में जो सहायक न हो वह आसानी से हेय हो सकता है। इसमें अधिक
खोद-विनोद की गुंजाइश नहीं। यही वेदान्त है,
सब ज्ञानों का अन्त या पर्यवसान है,
निष्ठा है। वेद नाम है ज्ञान का। 'विद
ज्ञाने'
धातु
से यह शब्द बना है। आज जो वेद के नाम से ऋक्,
साम आदि प्रसिध्द हैं वे भी इसीलिए कि उनमें
ऋषियों (Thinkers)
का
ज्ञान भरा है,
जिसे वे जनसाधारण
तक पहुँचाते हैं। ये वेद दर्शन के स्थूल रूप-ककहरा-कर्मकाण्ड से शुरू
करके
अध्यात्म
विचार में समाप्त होते हैं और जहाँ यह
अध्यात्म
विचार मिलता है उसे उपनिषद् कहते हैं। अच्छा,
तो अब देखना है कि वेदान्त के अन्त शब्द से क्या
अर्थ निकलता है। अन्त नाम है समाप्ति,
पर्यवसान, निष्ठा या निष्कर्ष
(Result)
का। इस
प्रकार वेद (ज्ञान,
विवेक, विचार) का जो
पर्यवसान या निष्कर्ष हो, या विचार और
विवेक के बाद जिस परिणाम पर पहुँचते हैं उसे ही वेदान्त कहना ठीक है।
सारांश, वेदान्त अक्ल और बुध्दि की बात को
ही कहना उचित है। जो बात ऐसी हो उसमें कलह के लिए जगह भी नहीं है।
वेदान्त की सब दर्शनों से ज्यादा प्रतिष्ठा का कारण भी यही है।
असल में एकता
और मेल के बिना संसार का काम चल नहीं सकता। हम पद-पद पर इस ऐक्य की
तलाश में है और इसके बिना अनेक कष्टों का अनुभव करते हैं,
फिर वह
संसार चाहे राजनीति का हो या धर्मनीति,
समाजनीति,
अर्थनीति का।
यदि ऐक्य का लोप हो जाय तो प्रलय हो जाय। संसार के बनाने वाले
परमाणुओं,
गुणों,
तत्वों
(Atoms and elements)
का एक
दूसरे से अलग हो जाना ही तो प्रलय कहा जाता है;
कारण, उस दशा में कोई
चीज ठहर सकती ही नहीं। यही कारण है कि विवेकी लोग शुरू से ही ऐक्य की
तलाश में पड़े हैं और वह अन्वेषण बराबर जारी है। अनेक ने स्थूल,
पृथ्वी आदि को परमाणुओं से या तो किसी ने समस्त
स्थूल जगत् को सत्तव, रजस्,
तमस् इन तीन गुणों से जोड़ दिया और कह दिया कि
इनसे सम्यक् कोई चीज नहीं। सूक्ष्म जगत् में मन,
बुध्दि को इन्हीं तीन
गुणों
में मिला दिया। ईश्वर और जीव के बारे में किसी ने सामीप्य और
सान्निध्य
का भाव कायम किया तो किसी ने ईश्वर को जीव में ही मिला दिया और उसकी
सत्ता ही मिटा डाली। इस प्रकार परमाणुओं से आरम्भ कर प्रकृति
(त्रिगुण) और पुरुष (जीव) इन दो को ही माना और शेष संसार का पर्यवसान
इन्हीं में कर दिया। अन्त में अद्वैतवाद का दर्शन आया जिसे वेदान्त
दर्शन भी कहते हैं। उसने प्रकृति और जीव का भी भेद मिटा दिया और
दोनों को ही एक करके ब्रह्म के साथ मिलाया। जब एकता का
सूत्रपात
हुआ तो उसका चरम पर्यवसान भी होना ही चाहिए। जब तक दो पदार्थ रह
जाएँगे,
दिक्कत बनी ही रहेगी। उपनिषदों ने जो कहा है कि-'द्वितीया
द्वै भयं भवति' दो के रहने से ही सारी
खुराफात होती है, या-
'यस्मिन्
सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:।
तत्रा
को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:॥'
जब सभी एक हो
गए तो डर किसका
?'
उसका मतलब यही है। प्रतिद्वन्द्वी को कायम करके चैन
? यदि
आप संसार में प्रेम का पूरा प्रसार अबाध रूप से चाहते हैं तो मिलना
ही होगा। क्योंकि अपने-आपसे जितना ही अंतर किसी वस्तु का होगा प्रेम
में उतनी ही कमी होगी। परमात्मा में यदि परमप्रेमरूपा भक्ति चाहते
हैं तो उसे भी अपने से अभिन्न करना ही होगा। नहीं तो स्वभावत: जितना
प्रेम अपने-आप (आत्मा) में है उतना उसमें कदापि न होगा। इसीलिए तो
कहा है-
आत्मनस्तु
कामाय सर्व प्रियं भवति।
यदि निकट जाना
है तो दूरी कम करो और वास्तविक सान्निध्य तभी होगा जब दूरी विलुप्त
हो जाय। यही अद्वैतवाद का रहस्य है और यही वेदान्त है। आप
'वसुधौव
कुटुम्बकम्'
चाहते
हैं और चाहते हैं मानवमात्र का कल्याण,
जो
वास्तविक अन्तर्राष्ट्रीयता है। इसके लिए आवश्यक है कि-
'आत्मवत्सर्वभूतेषु
य: पश्यति स पण्डित:'
-को
चरितार्थ करें। जब तक गैरों के सुख-दु:ख को आप स्वयं अनुभव नहीं
करेंगे,
उनके लिए मर
मिटने को तैयार कैसे होंगे
?
लेकिन जब तक वे आप से भिन्न हैं तब तक हजार कोशिश करने पर भी उनकी
व्यथा का अनुभव आप नहीं कर सकते,
उसे
जान लें भले ही। जानना और अनुभव (एहसास,
Feeling)
में
अन्तर है और अनुभव के लिए उसके साथ-अन्य के साथ-आपको अपने तादात्म्य
का ज्वलन्त और जीवन्त ज्ञान होना चाहिए। बिना इसके काम चल नहीं सकता।
अन्तर्राष्ट्रीयता और मानव समाज के प्रति,
नहीं-नहीं,
समस्त
संसार (Universe)
के प्रति
भ्रातृभाव और सद्भाव लाने का वास्तविक उपाय यही वेदान्तदर्शन है,
वेदान्त है। वेदान्ती को जीवन्मुक्त कहने का यही
अभिप्राय है। उसका तो आपा रह ही नहीं जाता। उसने तो अपने को समष्टि
में विलीन कर दिया। अब समष्टि और व्यष्टि का भेद रह ही नहीं गया।
ऊँच-नीच,
छोटे-बड़े,
छूत-अछूत,
हिन्दू-मुस्लिम का भेद तब तक मिट नहीं सकता,
जब तक
इस अद्वैतवाद का,
सच्चे
वेदान्त का रहस्य प्रतीत न हो जाये। खूबी तो यह है कि यह वेदान्त
बाहरी विभिन्नता और पार्थक्य
(Diversity)
को मिटाने
की राय नहीं देता। प्रत्युत उससे तो इसे विभिन्नता
(Diversity)
में ही
ऐक्य (Unity)
देखने में
मजा आता है। आखिर छाया का आनन्द तो
धूप
के रहने से ही होता है अतएव वेदान्ती तो अपने विचारों की कीमिया या
पारस के बल से विभिन्नता रूप लोहे को सोना बनाता है। उसकी दृष्टि में
बाहरी भेद विलीन हो जाते हैं। कितना सुन्दर हो यदि यह वेदान्त आज
प्रचलित हो जाय। हमारा देश ही नहीं,
मानव समाज पारस्परिक कलहों से जर्जर हो रहा है और
हम अहंमन्यता के मारे किसी को नीच, किसी
को दलित, किसी को पतित बनाकर अपना नाश
स्वयं कर रहे हैं, द्रुत गति से उस नाश की
ओर जा रहे हैं, हालाँकि हमें अपने
वेदान्तदर्शन का अभिमान है। कितनी मूर्खता और कैसा प्रचण्ड अज्ञान
है! तत्तव से हम कितनी दूर जा पड़े हैं। हमें कौन बतावे
?
कौन सिखावे
?
एक समय था जब हमने गिरिशिखरों से वेदान्त की
पुकार मचायी थी।
'पण्डिता:
समदर्शिन:'।
'निर्दोषं
हि समं गता'
आत्मौपम्स्येन
सर्वत्र
समं पश्यति योऽर्जुन॥
-इत्यादि।
आज फिर उसी वेदान्त की आवश्यकता है। उसे कौन लावेगा
?
हमारा कृष्ण कौन होगा
? नकली
वेदान्त कौन हटावेगा,
जिसे
जानकर भी हम नामर्द बने पड़े हैं करोड़ों की संख्या में
?
(कल्याण,
वेदान्तांक,
अगस्त
1936
से उध्दात। सम्पादक-कुछ अंक में शीर्ष
'असली
वेदान्त और नकली वेदान्त'
है।)
(शीर्ष पर वापस)
श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण-चरित्र
प्राचीन
ग्रन्थों में श्रीकृष्ण-चरित्र
का वर्णन प्रधानतया
श्रीमद्भागवत में ही माना जाता है,
यद्यपि अन्यान्य ग्रन्थों में थोड़ा-बहुत यह वर्णन
मिलता है। उसमें भी दशम स्कन्धा मुख्य है और उसमें दूसरी बात है भी
नहीं। दशम में भी जन्म से लेकर मथुरा अथवा द्वारका प्रस्थान तक जितनी
बातें लिखी गयी हैं, उन सभी पर विचार करना
हमारा लक्ष्य नहीं है। उन बातों के
सम्बन्धों
में अधिकतर
विवाद भी नहीं है। किन्तु श्रीमद्भागवत की रासपंचाध्यायी
में जो श्रीकृष्ण की रास-लीला का वर्णन पाया जाता है,
वही इस लेख का विचारणीय विषय है। यद्यपि रासलीला
का वर्णन गर्गसंहितादि अन्य ग्रन्थों में भी पाया जाता है,
तथापि वह भागवत से ही लिया हुआ जान पड़ता है। अतएव
रास-लीला-वर्णन
का मूलस्थान श्रीमद्भागवत ही है। लोग ऐसा ही मानते भी हैं। फलत: इस
लेख में रास-लीला के रहस्य पर ही विचार किया जायेगा,
हालाँकि शीर्षक व्यापक है। ऐसी दशा में यद्यपि
वही शीर्षक देना उचित था, तथापि जैसा कि
आगे विदित होगा, पर जिस प्रकार हम इस विषय
का विवेचन करना चाहते हैं, उसको
ध्यान
में रखकर हमारा दिया शीर्षक ही हमें उचित प्रतीत हुआ। प्रतिपाद्य
विषय को
ध्यान
में रख 'रास-लीला
का रहस्य' शीर्षक हमें भ्रामक-सा भी
प्रतीत हुआ। क्योंकि आजकल उसके समर्थन के लिए सैकड़ों प्रकार की
दलीलें दी जाती हैं और लोग उसके लौकिक-अलौकिक बहुत-से अभिप्राय बताया
करते हैं और वही अभिप्राय सम्प्रत्ति
भावुक जनता की दृष्टि में
'रास-लीला
के रहस्य' माने जाते हैं।
कहा जाता है
कि श्रीराम आदि जितने भी अवतार भगवान् के हुए हैं,
वे सभी
पूर्ण नहीं,
किन्तु
भगवदंशमात्र ही हैं। परन्तु श्रीकृष्ण तो साक्षात् भगवान् के स्वरूप
ही हैं-'अन्ये
चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्।'
यदि और
बातों का विचार न भी करके केवल गीता की ओर ही दृष्टि की जाय तो उस
अद्वितीय रत्न के प्रकाशकर्ता की हैसियत से ही उनकी पूर्णता सिध्द हो
जाती है। क्योंकि यह निर्विवाद है कि गीता इस संसार में अपना सानी
नहीं रखती। यदि अध्यात्मरामायण की रामगीता की ओर दृष्टि करते हैं
तो 'कृष्णस्तु
भगवान्स्वयम्'
का
रहस्य सहज ही विदित हो जाता है। बिना पूर्ण पुरुष की पूर्ण
ज्ञानशक्ति के योग के यह पूर्ण गीता कभी प्रकट नहीं हो सकती थी।
परन्तु जब उसी पूर्ण भगवान् का चरित्र रासपंचाध्यायी के रूप में
श्रीमद्भागवत में देखते हैं तो व्यामोह हो जाता है और सहसा मुख से यह
निकल पड़ता है कि क्या इस रासलीला के कृष्ण वही हैं जो श्री भगवद्गीता
के ?
यद्यपि इसके
समाधान के लिए शतश: युक्तियाँ दी जाती हैं और उन युक्तियों से हम
अधिकांश से परिचित भी हैं,
फिर भी
अपरिपक्व बुध्दि वाले भावुकजन भले ही इन युक्तियों से सन्तुष्ट हो
जाएँ,
लेकिन
विचारशीलों के हृदय में तो इस शंका से उथल-पुथल मची ही रह जाती है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि भावुकता भरे समाधानों से हम भक्तजनों एवं
अन्धाजनता को भले ही सन्तुष्ट कर लें,
लेकिन
जो अन्धाविश्वासी नहीं हैं और जो धर्मान्तर के अनुयायी हैं,
उन्हें
क्या उत्तर दिया जाये
? 'जिस
धर्म के आवतारिक पुरुषों तक की यह दशा,
उसका
ठिकाना ही क्या
?'
विधर्मियों की इस युक्ति का समुचित उतर क्या होगा
? जिस
श्रीकृष्ण की गीता पर वे मुग्ध हैं,
उन्हीं
के जीवन-चरित्र का ऐसा वर्णन उनकी भी बुध्दि को डाँवाडोल किए बिना
कैसे छोड़ेगा ?
हम तो
भगवान् के अवतारों को मर्यादा-पुरुषोत्तम कहते हैं और मानते हैं कि
धर्म की मर्यादा की रक्षा और दुष्टों का दमन एवं साधुओं की रक्षा ही
अवतारों का एकमात्र प्रयोजन है। गीता में भी उन्होंने स्वयं स्वीकार
किया है कि 'परित्राणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे
युगे॥'
तो उस धर्म की
मर्यादा क्या है और दुष्टों एवं साधुओं की परीक्षा की कसौटी क्या है
? क्या
दूसरों की बहू-बेटियों के साथ रात में अत्यन्त निर्जन स्थान में
हास-विलास और तदनुकूल वार्तालाप ही धर्म की मर्यादा है,
सो भी
अपने पड़ोसियों एवं भाई-बन्धुओं की ही पुत्रियों एवं माता-बहिनों के
साथ ?
यदि यही
धर्म-मर्यादा मानी जाय तो फिर साधुओं एवं असाधुओं के लक्षण नए सिरे
से करने होंगे तथा रावण-कंसादि को पापी कहते न बन पड़ेगा। स्थूल एवं
सर्वमान्य धर्म का नाश करके सर्वसाधारण के लिए अज्ञात किसी सूक्ष्म
धर्म की रक्षा यदि कोई हठ करके माने भी तो उससे क्या
?
अवतारों का प्रयोजन तो सर्वसाधारण का ही हित है,
न कि
पंडितों और महात्माओं का। इसलिए तो गीता में भगवान् ने कह दिया है कि
जो लोग कर्म और उसके फल में आसक्ति रखकर ही कर्म करनेवाले तथा
अज्ञानी हैं,
उनकी
बुध्दि को चक्कर में डालनेवाली बातें या काम करने;
किन्तु
स्वयं जानकार होता हुआ भी उन्हीं-जैसा कर्म उनके दिखाने के लिए करता
हुआ उनकी धारणा और भी पक्की कर दे ताकि वे सभी कर्म करने लगें-'न
बुध्दिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि
विद्वान्युक्त: समाचरन्॥'
तो
क्या रासलीलावाला श्रीकृष्ण का काम उन्हीं की कसौटी पर खरा उतरता है
? उस
समय के लोगों को उनका यह चरित्र या तो पथ भ्रष्ट करनेवाला या उनमें
घृणा एवं अनास्था करनेवाला क्यों नहीं माना जायेगा
? उस
चरित्र की आधुनिक या पीछेवाली व्याख्याएँ तो उस समय थी नहीं। तब लोग
क्यों न पथभ्रष्ट होते
? या
नहीं तो उनमें अनास्था ही क्यों न करते
?
वे स्वयं तो
अर्जुन को उपदेश देते हैं कि जनता को सन्मार्ग दिखाने के लिए भी तो
कर्म करना ही चाहिए-'लोकसंग्रहमेवापि
संपश्यन्कर्तुमर्हसि।'
तो
क्या यही सन्मार्ग दिखाने का कर्म माना जायेगा
? इतना
ही नहीं,
वे अपना ही
दृष्टान्त देकर गीता में कहते हैं कि
'हे
अर्जुन! मुझे ही देख न,
मुझे
तो कर्म करके कुछ भी हासिल नहीं करना है,
फिर भी
मैं कर्म करता ही हूँ। क्योंकि यदि मैं आलस्यरहित होकर कर्म न करूँ
तो सभी लोग मेरे ही अनुयायी बन जाएँ। कारण,
बड़े
लोग जो कुछ भी करते हैं,
जनसाधारण भी वही करते हैं और वे जिस बात को ठीक मानते हैं जनता भी
उसी को मानती है।'
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
यदि
ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम
वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश॥
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स
यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
यदि अर्जुन
श्रीकृष्ण के इस उपदेश की परीक्षा उन्हीं पर करता तो रासलीलावादियों
के मत से उसकी क्या दशा होती
? क्या
उन्हें मिथ्यावादी मानकर चट यह नहीं कह बैठता कि
'परोपदेशे
पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम्
?' और
जो श्रीकृष्ण ने यह कह डाला है कि
'यदि
मैं ही धर्माचरण न करूँ तो यह संसार ही चौपट हो जाय और इस प्रकार
वर्णसंकर करने एवं जनता के सत्यानाश का भागी मैं ही हो जाऊ'ँ-'उत्सीदेयुरिमे
लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। संकरस्य च कर्तां स्यामुपहन्यामिमा:
प्रजा:॥'
उसकी क्या
हालत होगी ?
रासलीला के मानने से तो वर्णसंकर का मार्ग ही प्रशस्त हो जाता है,
क्योंकि इस प्रकार कुलस्त्रियों के दूषित और पथभ्रष्ट होने का रास्ता
वही दिखा देते हैं और यही वर्णसंकर मार्ग है,
जैसा
कि गीता के प्रथमाध्याय में ही कहा गया है कि
'प्रदुष्यन्ति
कुलस्त्रिय:। स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर:॥'
अतएव
गीता के साथ रास-लीला को मिलाने पर प्रचण्ड व्यामोह होना अनिवार्य है
और सहसा यही कहने को जी चाहता है कि आधुनिक उपदेशकों की तरह
श्रीकृष्ण कभी भी अपने कथन के विपरीत आचरण नहीं कर सकते थे। फिर यह
रास-लीला कैसी ?
एक बात और।
श्रीमद्भागवत के ही दशम-स्कन्धा के
74
वें अध्याय में युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ के प्रसंग से श्रीकृष्ण की
सर्वप्रथम पूजा और उसी से शिशुपाल के रुष्ट होकर बेहिसाब झूठ-सत्य,
अंट-संट बकने का वर्णन है। अन्यान्य ग्रन्थों में भी यह वर्णन मिलता
है। शिशुपाल के प्रलाप से यह स्पष्ट है कि उसने श्रीकृष्ण को खूब ही
बदनाम करना चाहा है और एतदर्थ मिथ्यारोप तक कर डाला है। उसने कहा है-'जो
कहा जाता है कि काल बड़ा ही बली है,
सो ठीक
ही है। नहीं तो सहदेव-जैसे बच्चों की बात को वृध्द लोग क्यों कर मान
लेते! हे सभासदो! आप लोग पात्रपात्र के जानकारों में सर्वोपरि हैं,
फिर
कृष्ण की पूजा क्यों
?
आप लोग लड़के
की बात को न मानें! भला तप,
विद्या,
व्रतादि के पालकों और ज्ञान के बल से सभी पापों को दग्धा कर
डालनेवाले ब्रह्मनिष्ठ ब्रह्मर्षियों को जिन्हें इन्द्रादि लोकपाल भी
पूजते हैं,
छोड़कर
यह ग्वाला कैसे पूजा जा सकता है
?
क्या कौआ कभी
देव-हवि का अधिकारी हो सकता है
? यह
तो वर्ण,
आश्रम,
कुल से
रहित,
सर्वधर्म-बहिष्कृत और गुणरहित स्वेच्छाचारी है। फिर इसकी पूजा कैसी
?
ययाति ने तो इसके कुल को ही शाप दिया है,
भले
लोगों ने इन लोगों का बहिष्कार किया है और ये यदुवंशी पियक्कड़ भी
हैं। फिर भी पूजा
?
इसीलिए तो ब्रह्मर्षियों के देश को छोड़कर ये सब ब्रह्म-तेज-रहित देश
में जाकर और समुद्र के भीतर किला बनाकर वहीं से प्रजा को लुटेरों की
तरह सताया करते हैं।'
इससे स्पष्ट
है कि शिशुपाल ने श्रीकृष्ण में मिथ्या दोषों के आरोप करने में कोई
भी कसर नहीं की है। और जगह भी जो शिशुपाल के दोषारोपण का वर्णन है,
वहाँ
भी यही बात है। ऐसी दशा में यदि रास-लीलावाली बात सत्य होती तो उसे
वह क्यों छोड़ देता
? तब
तो दुराचारी,
व्यभिचारी आदि विशेषणों से उन्हें अलंकृत अवश्य करता
? यह
भी नहीं कि उस समय श्रीमद्भागवत,
गर्गसंहिता आदि ग्रन्थ बन चुके थे,
जिससे
रासलीला की दूसरी व्याख्या हो चुकने के कारण वह यह बात कहने से हिचक
जाता। ये ग्रन्थ तो उसके बाद ही बने हैं यह तो सभी को मानना ही होगा।
और ग्रन्थ बनने ही से क्या
? जब
वह मिथ्यादोषारोपण करता था तो यह बात क्यों नहीं कह डालता
? इससे
सिध्द है कि श्रीकृष्ण को किसी भी प्रकार व्यभिचारी कहने की उसकी
हिम्मत नहीं थी,
जिससे
विदित होता है कि उस समय शत्रु से भी शत्रु के लिए श्रीकृष्ण का
चरित्र इस दृष्टि से अत्यन्त स्वच्छ और बहुत उच्च था और रासलीलावाली
बात उन दिनों सोलहों आने प्रचलित थी ही नहीं। उस समय कहीं इसकी चर्चा
तक नहीं थी।
इससे भी बढ़कर
एक बात है। मीमांसादर्शन के प्रथमाध्याय के तृतीय पाद के
'अपि
वा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतियेरन्।91।'
सूत्र
के ऊपर विचार करते हुए श्रीकुमारिल भट्ट ने
'तन्त्रावार्तिक'
नामक
अपने ग्रन्थ में सदाचारों पर विचार किया है। क्योंकि स्मृतिकारों ने
धर्म के सम्बन्ध में श्रुति,
स्मृति
की ही तरह सदाचारों को भी प्रमाण माना है। वे शंकारूप से लिखते हैं
कि सत्पुरुषों के आचरण को ही सदाचार कहते हैं। लेकिन किसे सत्पुरुष
कहें और उसके किस आचार को सदाचार कहें,
क्योंकि बड़ी गड़बड़ी है। देखते हैं कि ब्रह्मा से लेकर व्यास,
वसिष्ठ,
विश्वामित्र,
युधिष्ठिर,
अर्जुन,
श्रीकृष्ण तक ने तो गड़बड़ी ही की है और आजकल भी तो भारत के सभी
प्रान्तों में ऐसा ही गड़बड़झाला है। अतएव शिष्टाचारों को धर्म के
सम्बन्ध में प्रमाण नहीं मानना चाहिए। नहीं तो बड़ी उथल-पुथल हो
जायेगी और लोग अनर्थ करने लग जाएँगे।
इसके बाद जब
समाधान करने लगे हैं तो ब्रह्मा और इन्द्रादि का कहीं अर्थ ही बदल
दिया है और कहीं कुछ और ही कर दिया है जिससे हमें यहाँ मतलब नहीं है।
हमें तो श्रीकृष्ण और अर्जुन-सम्बन्धी उनके आक्षेप और समाधान से मतलब
है। क्योंकि एक तो दोनों को साक्षात् परमात्मा का-नर-नारायण का अवतार
मानते हैं। दूसरे दोनों की ही बातें हमारे विषय से सम्बन्ध रखती हैं।
यहाँ कई बातें विचारणीय हैं। पहले तो यह देखना चाहिए कि यदि भट्टपाद
(कुमारिल भट्ट)-के समय में रासलीला की बात प्रचलित होती तो वह
रुक्मिणी के विवाह का दृष्टान्त क्यों देते
? यह
तो स्पष्टतया शायद ही किसी को विदित है कि रुक्मिणी श्रीकृष्ण के
मामा की लडक़ी थी,
यद्यपि
सुभद्रा की बात सभी जानते हैं। इसीलिए उस विवाह में विरोध भी हुआ था,
मगर
रुक्मिणी के विवाह के विरोध का कारण तो दूसरा ही था। फलत: बड़ी कठिनाई
से ढूँढ़-ढाँढ़कर कहीं से साक्षात्परम्परा नाता जोड़ेंगे। तब कहीं
रुक्मिणी मामा की लड़की सिध्द होगी। परन्तु रासलीलावाली बात तो बहुत
ही स्पष्ट थी। यदि यह बात सच हो तो यह तो अपने ही घर में दुष्कर्म
माना जायेगा! मामा का-सो भी परम्परा-सम्बन्ध तो दूर का है और वह
प्रचलित भी है। और जब सर्वविदित मामा की कन्या के विवाह की बात
अर्जुन के बारे में कह दी तब तो श्रीकृष्ण के बारे में दूसरी बात
कहना ही ठीक था और वह दूसरी बात यही रास-लीला ही हो सकती है।
स्वभावत: सबसे पहले प्रसिध्द बात की ओर ही दृष्टि जाती है और यह लीला
तो जगत्प्रसिध्द हो रही है। फलत: इसे न कहकर अप्रसिध्द बात
रुक्मिणी-परिणय का उल्लेख यह सिध्द कर देता है कि भट्टपाद कुमारिल के
समय तक रास-लीला की बात प्रचलित न थी।
इतना ही नहीं,
वे जब
समाधान करने लगे हैं तो पहले अर्जुन-सुभद्रा-सम्बन्ध को ही लिया है
और उसी का समाधान करके अन्त में कह दिया है कि
'इसी
तरह रुक्मिणी विवाह का भी तात्पर्य बताया जा सकता है'-'एतेन
रुक्मिण्ीपरिणयनं व्याख्यायतम्।'
सुभद्रा-विवाह का जो व्याख्यान किया है उसमें बहुत यत्न और कल्पना
करके यह सिध्द किया है कि सुभद्रा श्रीकृष्ण की सगी बहन वसुदेव की
पुत्री न थी,
किन्तु
या तो रोहिणी की बहन की कन्या की पुत्री थी या रोहिणी के पिता की बहन
की कन्या की पुत्री,
क्योंकि उसे भी लाट-देश में भगिनी ही कहते हैं।-'मातृस्वस्त्री
या वा सुभद्रा तस्य मातृपितृस्वस्त्रीयाया दुहिता वा।'
क्योंकि
यदि यह बात न होती तो सब बातों और
धर्ममर्यादा
के जानकार श्रीकृष्णादि कभी उस विवाह की सम्मति नहीं देते-'इति
परिणयनाभ्यनुज्ञानाद्विज्ञायते।' इस पर
कोई ऐसा न कह बैठे कि केवल अर्जुन की
मित्रता
के ही लिहाज से श्रीकृष्ण ने
धर्मविरुध्द
भी विवाह करवा दिया जैसा कि तन्त्रावार्तिक की टीका न्यायसुधा
(राणक)-में सोमेश्वर भट्ट ने यही शंका की है-'ननु
विरुध्दोऽप्ययमाचारो वासुदेवेनार्जुनप्रीत्या प्रवर्तित इत्यपि
परिहारोपपत्तोरनुक्त-व्यवधनकल्पना
न युक्ता।'
ठीक ही है। यह तो कहीं भी नहीं लिखा है कि
सुभद्रा रोहिणी की बहन की
पुत्री
या फूआ की कन्या थी। ऐसी दशा में इस टेढ़ी-मेढ़ी निराधार
कल्पना की अपेक्षा अर्जुन के प्रेम के कारण ही अनुचित विवाह की
कल्पना ठीक प्रतीत होती है। इसीलिए भट्टपाद ने आगे अपनी कल्पना का आधार
बताते हुए लिखा है कि
'हे
अर्जुन! यदि मैं ही अनुचित कर्म करूँ तो सब लोग मेरा ही अनुकरण करने
लगेंगे। कारण, बड़े लोग जो करते हैं,
साधारणजन
भी वही करने लगते हैं और बड़े जिस बात को ठीक मानते हैं दुनिया भी उसी
को मानती है'-'येन
ह्यन्यत्रौवमुक्तम् ममवर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तादेवेतरो जन: स यत्प्रमाणं कुरुते
लोकस्तदनुवर्तते॥' वही ठीक उसके विपरीत
आचरण वो क्योंकर प्रश्रय दे सकते थे ? यदि
कोई हठधर्मी हठवश कह बैठे कि श्रीकृष्ण ने शील-संकोच से ही ऐसा कर
लिया, अथवा उनको बड़ा मानता ही कौन है तो
इसके समाधान
के लिए कुमारिल स्वयं लिखते हैं कि
'समस्त
लोगों के आदर्श और पथदर्शक होकर वही श्रीकृष्ण भला ऐसे विपरीत आचरण
को क्यों कर प्रश्रय दे सकते थे ?'-
'स
कथं सर्वलोकादर्शभूत: सन् विरुध्दाचारं प्रवर्तयिष्यति
?'
इससे तो निस्सन्देह यह बात सिध्द हो जाती है कि उस समय तक रासलीला की
बात बिल्कुल ही प्रचलित न थी। भट्टपाद के कथनानुसार तो ऐसे
धर्मविरुध्द आचरण की कल्पना भी श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में नहीं की जा
सकती। वे इतने बड़े और महान् थे कि धर्मविचार के समय शील-संकोच या
दबाव आदि उनपर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते थे। गोपियों के बारे में
जो समाधान गर्गसंहिता आदि ग्रन्थों में किए जाते हैं यदि वे भी उस
समय प्रचलित होते तो रुक्मिणी और सुभद्रा के बारे में भी वही समाधान
भट्टपाद क्यों नहीं लिख देते
? और
क्यों यह सिध्द करने का कष्ट उठाते कि सुभद्रा वसुदेव की कन्या न थी।
क्योंकि अर्जुन भी तो भगवान् के अंशावतार ही माने जाते हैं और
श्रीकृष्ण का तो कहना ही क्या
?
रुक्मिणी को
लक्ष्मी का अंश भागवत में ही कहा है
'श्रियो
मात्रां स्वयंवरे'
(10/52/19)।
सुभद्रा को भी ऐसा ही कहकर चट समाधान कर देते,
जैसा
कि द्रौपदी के सम्बन्ध में कहा है। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसी
से पता लगता है कि एक तो ऐसे समाधानों को वे लचर मानते थे जैसा कि
द्रौपदी के ही विषय के ऐसे समाधान को पहले कहकर पीछे दूसरे समाधान
किए हैं। दूसरे ये कल्पनाएँ उस समय तक प्रचलित न थीं। द्रौपदी के
प्रसंग में भी उन्होंने श्रीकृष्ण के बारे में कह दिया है कि
'इतरथा
हि कथं प्रमाण भूत: सन्नेवंवदेत्'
भला
प्रामाणिक पुरुष होकर वे मिथ्या कैसे बोल सकते थे
?
तो फिर वही
श्रीकृष्ण रासलीला कैसे कर सकते थे
?
एक बात और भी
द्रष्टव्य है। श्रीमद्भागवत के आरम्भ की जो कथा है उससे स्पष्ट है कि
ऋषि के शाप से सात दिन में ही मृत्यु होने के समाचार से समस्त
सांसारिक बन्धनों को छोड़ और अन्न-पानादि को भी न ग्रहण् कर एकमात्र
मोक्षकामना से ही गंगा के तट पर मंच बनवाकर महाराज परीक्षित जा बैठे
थे। उन्हें पुत्र-कलत्रादि की वार्ता से भी कुछ मतलब न था। वही भागवत
के प्रधान श्रोता थे। उधर श्रीशुकदेवजी उसके वक्ता थे,
जिनके
बारे में महाभारत में यहाँ तक लिखा है कि स्त्री-पुरुष भेद तक नहीं
जानते थे और जन्म से ही विरक्त थे। इसीलिए जब जन्म के ही समय भागे जा
रहे थे तो मार्ग में देववधुओं ने उनसे कोई लज्जा न की,
हालाँकि नग्न स्नान कर रही थीं। मगर व्यासजी से लज्जित हो गयीं। इन
दोनों के अतिरिक्त महान् विरक्त तथा ज्ञानी महर्षियों का समाज वहाँ
जुटा था जो आत्माराम थे और जिनके यहाँ रस-चर्चा की सम्भावना नहीं थी।
भला,
ऐसे समुदाय
में कैसे रासलीला का वर्णन आ गया जो आधुनिक कवियों के शृंगाररस-वर्णन
को भी मात करनेवाला है
?
व्यास जी ने ऐसे समाज में उस प्रकार के श्रोता से कैसे यह चर्चा
करवायी और शुकदेव के मुख से वह बातें क्यों कर कहलवायीं,
यह समझ
में नहीं आता। इस बात की सम्भावना तो ठीक ऐसी ही है जैसी सूई के
छिद्र से हाथी के निकल जाने की। यदि अन्यान्य श्रोता-वक्ता के द्वारा
ग्रन्थान्तर में यह बात कहलायी जाती जो एक बात भी थी। मगर भागवत में
शुकदेव के मुख से इस शृंगार-रसवर्णन की हिम्मत व्यासजी को कैसे हो
सकती थी ?
अन्त में एक
बात और कहकर इस लेख को पूरा करेंगे। दशम-स्कन्धा के
29
से 33
अध्यायों तक को रासपंचाध्यायी कहते हैं। उससे पूर्व के
25-28
आदि अध्यायों में श्रीकृष्ण के गोवर्धन-धारण,
वरुणलोक से नन्द को मोचन आदि अलौकिक कामों का वर्णन है। फिर
34
आदि अध्यायों में भी सुदर्शन नामक विद्याधर के उध्दार,
शंखचूड़
के वध आदि ऐसे ही कर्मों का वर्णन है और उसी प्रसंग से बलराम और
श्रीकृष्ण के साथ गोपी-बालिकाओं की लीलाओं का वर्णन भी है। इसके बीच
में जो रासपंचाध्यायी आयी है वह असम्बध्द-सी मालूम पड़ती है। न तो
यहाँ उसका कोई प्रसंग है और न उसमें वर्णित रासलीला में कोई असाधारण
अद्भुतता है। जितनी गोपियाँ उतने कृष्ण का वर्णन भी कृत्रिम-सा मालूम
होता है और विदित होता है कि रासलीला को भी अलौकिक कर्म बलात् बनाने
के लिए यह कवि की कल्पना है। उसमें श्रीकृष्ण के अन्यान्य कामों-जैसी
स्वभावसिध्द विचित्रता नहीं है। प्रत्युत श्रीकृष्ण्-बलराम दोनों का
एक साथ जो गोपियों के साथ खेलना है वह बाललीला प्रतीत होता है और
उसमें जो शंखचूड़ का वध है वह स्वाभाविक अद्भुत कर्म प्रतीत होता है,
इससे
अनुमान होता है कि उसी लीला के आधार पर रासपंचाध्यायी को अपनी ओर से
बनाकर किसी आधुनिक कवि ने पीछे से इधर आकर भागवत में डाल दिया है।
कोई भी निष्पक्ष होकर यदि पूर्वापर का अनुशीलन करे तो हठात् इसी
निश्चय पर पहुँचेगा। इसका इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है कि
रासपंचाध्यायी के बनने के बाद भी किसी कवि को जब उसके शृंगार-वर्णन
में न्यूनता मालूम हुई है तो
30
वें अध्याय
के 31
वें श्लोक के
बाद डेढ़ श्लोक उसने गढ़कर बहुत हाल में डाल दिया है। अतएव श्रीधरादि
टीकाकारों की टीका में यह डेढ़ श्लोक नहीं मिलता और आजकल की छपी
पुस्तकों में प्रक्षिप्त का चिद्द देकर छपा हुआ मिलता है। वह है
'इमान्यधिकमग्नानि
पदानि वहतो वधूम्। गोप्य: पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिन:॥
अत्रावरोपिता कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना।'
भागवत
में ऐसे एकदम नूतन प्रक्षेप बहुत स्थानों में हैं जो इस अनुमान को
पुष्ट करते हैं कि रासपंचाध्यायी भी आधुनिक और प्रक्षिप्त है। इसीलिए
केवल रासपंचाध्यायी पर ही जो पुष्टिमार्गीय विद्वानों की बहुत-सी
टीकाएँ मिलती हैं न कि समस्त भागवत पर,
वह इस
अनुमान को और भी पुष्ट बना देती हैं। क्योंकि उस सम्प्रदाय में
रासलीला में विशेष आस्था देखी जाती है। इस सम्बन्ध में प्रसंगवश एक
बात हम कह देना चाहते हैं। काशी में सरस्वती भवन नाम की जो लाइब्रेरी
है उसके भूतपूर्व लाइब्रेरियन पं. विन्धयेश्वरीप्रसाद द्विवेदी से एक
बार लेखक की बातें इसी सम्बन्ध में हुई थीं। उस समय उन्होंने कहा था
कि कलकत्तो की एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय में रखी एक बहुत ही
प्राचीन हस्तलिखित श्रीमद्भागवत की प्रति मिली है जिसमें
रासपंचाध्यायी नहीं है और जो बोपदेव से बहुत पहले की है। हम कह नहीं
सकते कि उनकी यह बात कहाँ तक ठीक है। कारण,
इसके
अनुसन्धान का मौका हमें नहीं मिला है। लिख इसलिए दिया है कि
अनुसंधानप्रेमी श्रीकृष्ण्भक्त इसका अनुसंधान करें।
इस प्रकार
श्रीकृष्ण-चरित्र-चन्द्र
में हमें जो कलंक प्रतीत हुआ उसका यथाबुध्दि हमने मार्जन कर दिया है।
उसके सारासार का विवेचन विज्ञ पाठक ही कर सकते हैं। क्योंकि
श्रीकृष्णलीला अनन्त सागर है। उसका पार पाना या उसकी इयत्ता तथा
स्वयंभूतता का निश्चय साधारण
बुध्दि का कार्य नहीं है।
¹
***
¹
बात ठीक
है, 'श्रीकृष्णलीलारूपी
अनन्त सागर का पार पाना साधारण
बुध्दि का कार्य नहीं है।'
मेरी तुच्छ समझ से तो दीर्घ
साधन
से द्वारा जब अन्त:करण की शुध्दि हो जाती है तभी श्रीकृष्ण कृपा से
श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म-कर्मों का कुछ रहस्य समझा जा सकता है।
रासलीला का क्या रहस्य है,
इस बात को वास्तव में श्रीभगवान् या महामुनि
व्यास ही जानते हैं, अथवा वे महान्
पुरुष जानते होंगे जो श्रीकृष्णकृपा के
पात्र
और उनके
पवित्र
चरण-रज के यथार्थ प्रेमी हैं। मुझ सरीखा मनुष्य तो इस विषय पर कुछ
भी कहने का अधिकारी
नहीं ?
हाँ, महात्मा
पुरुषों द्वारा सुने हुए सदुपदेशों के आधार
पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनके मत के अनुसार श्रीमद्भागवत
में रासलीला का प्रसंग प्रक्षिप्त नहीं है। यह वृन्दावन में
होनेवाली श्रीमद्भगवान् की एक महान् उच्च और सत्य
आध्यात्मिक
लीला है। इसमें व्यभिचार या इन्द्रियचरितार्थता का लेश भी नहीं है।
शिशुपाल को इस महान् अन्तरंग लीला का पता ही कैसे लगता जब कि रास
में सम्मिलित होने वाली प्रात: स्मरणीया,
भक्ति और वैराग्य की मूर्ति कृष्णप्रेममयी
साधवी गोपियों के पति-पुत्रों
को ही यह ज्ञान रहा कि वे सब घर में सोई हुई हैं। श्रीमद्भागवत में
इसका स्पष्ट उल्लेख है।
द्रौपदी-प्रभृति पवित्र अन्तरंग भक्तों को इस लीला का पता था,
इसी से
तो द्रौपदी ने कौरव-सभा में लाज जाते समय लाज बचाने के लिए भगवान्
श्रीकृष्ण को 'गोपीजनप्रिय'
कहकर
पुकारा है।
रही भट्टपाद
कुमारिली के वर्णन की,
बात,
सो उन
लोगों के मन के इस लीला के आध्यात्मिक रूप होने के सिवा दूसरी बात
जँची ही नहीं थी तब वे इनका उल्लेख कैसे करते
?
कुमारिलजी के कुछ ही बाद होनेवाले भगवान् शंकराचार्य ने भगवान्
श्रीकृष्ण की महिमा गान करते हुए स्वयं कहा है-
एको भगवान्
रेमे युगपद् गोपीप्वनेकासु।
तब यह कैसे
कहा जा सकता है कि उस समय यह कथा प्रचलित नहीं थी। काशी के
सरस्वती-भवन में जो भागवत की पुरानी प्रति है,
उसका
चित्र इसमें अलग छापा जा रहा है,
उसके
सम्बन्ध में उसके वर्तमान लाइब्रेरियन डॉ. श्रीमंगलदेवजी शास्त्री
एम.ए.,
पी-एच.डी.
लिखते हैं कि (गवर्नमेण्ट
संस्कृत-कालेज के प्रिंसिपल) श्रीगोपीनाथ जी कविराज ने पहले पता
लगवाया था कि उसमें रासपंचाध्यायी तथा चीरहरणसम्बन्धी कथाएँ हैं या
नहीं। उनका निश्चयपूर्वक कहना है कि ये दोनों कथाएँ उसमें वर्तमान
हैं। रासपंचाध्यायी के विषय में प्रचलित प्रति से केवल इतना ही भेद
है कि हमारी प्रति में प्रचलित दो अध्यायों को एक ही अध्याय माना
है पर श्लोक-संख्या में भेद नहीं है। -कल्याण सम्पादक की टिप्पणी
श्रीकृष्ण अंक
नोट
(सम्पादक
ग्रन्थावली) -इस टिप्पणी के बाद से ही स्वामी जी ने कल्याण को आगे लेख
भेजने में संकोच करना शुरू कर दिया।
(श्रावण
1988
संवत् पृष्ठ 432
कृष्ण अंक कल्याण,
मालवीय
भवन,
वाराणसी से
उद्धृत)
(शीर्ष पर वापस)
शक्ति
का सच्चा स्वरूप और उसका विकास
जिस पदार्थ,
धर्म,
गुण या विशेषता के
सम्बन्ध
से या होने से संसार के कोई भी पदार्थ वांछनीय या माननीय हो अथवा
उनके रहने की आवश्यकता मानी जाय-महसूस हो-उसे ही शक्ति कहते हैं। इसी
के नाम योग्यता,
सामर्थ्य, पॉवर
(power),
एनर्जी
(Energy)
आदि भी हो
सकते हैं। जो पदार्थ शक्ति या योग्यता से शून्य है,
जिसमें कोई विशेषता या चमत्कार नहीं,
उसके रहने की जरूरत ही क्या
?
सृष्टि की रचना करनेवाला,
फिर वह चाहे कोई या कुछ भी क्यों न हो,
व्यर्थ के पदार्थों की रचना कर नहीं सकता। जरूरत
के ही पदार्थों की सृष्टि से जब उसे अवकाश नहीं तो फिर भारभूत बेकार
चीजों को क्यों बनाने लगा
?
इसीलिए तो देखा जाता है कि ज्यों ही कोई वस्तु
अशक्त या बेकार हुई कि रहने ही नहीं पाती। संसार में जो जीवन-स्पधर्
या जीवन-होड़ (Struggle
for existence)
चल रही है
उसका भी यही रहस्य है और
'जीवो
जीवस्य जीवनम्' ऐसा जो पुराने लोग कह गए
हैं, उसका भी यही अभिप्राय है। प्रकृति या
सृष्टि-कर्ता
को यह कभी भी इष्ट नहीं कि दूषित,
गलित या अशक्त पदार्थ जमा होकर उसकी कृति को चौपट
करे। इसीलिए वह सतत इस प्रयत्न में है कि ऐसा पदार्थ जल्दी-से-जल्दी
खत्म हो जाय, उसका रूपान्तर-उपयोगी रूप बन
जाय। देखते ही हैं कि ज्यों ही कोई मरा कि सड़-गलकर खाद बना,
पशु-पक्षियों का खाद्य बनकर उनका जीवनदाता हुआ और
इस प्रकार उसकी व्यर्थता गयी और वह रूपान्तर से उपयोगी हो गया। यही
कारण है कि जन्म लेते ही या उत्पन्न होते ही स्वभावत: प्रत्येक
पदार्थ बिना किसी के कहे या दबाव दिए ही शक्ति-सम्पादन में प्रवृत्ता
हो जाता है। अंकुर निकलने के साथ ही बढ़ने और
पत्र,
पुष्प, फलादि सम्पादन
की तैयारी में लग जाता है; बच्चा उत्पन्न
होते ही हिलने-डोलने और खाने-पीने या रोने की ओर झुक जाता है। बच्चे
का रोना यह सिध्द करता है कि वह अपनी अशक्ति को दूर करना चाहता है।
क्योंकि रोना तो अशक्ति का ही चिद्द है। इसीलिए यदि रोने से रोनेवाले
की अशक्ति दूर न हो सकी तो वह
खत्म
भी हो जाता है और मालूम होता है कि उसमें अब शक्ति-सम्पादन माद्दा रह
ही नहीं गया जिससे सम्पादन-सामग्री को जुटाने और आकृष्ट करने में वह
समर्थ हो जाता। कुम्हार ने ज्यों ही बर्तन गढ़कर तैयार किया कि वह
सूखने को गोया जोर मारने लगा,
जिसका तात्पर्य यही है कि वह कुम्हार को
शीघ्रातिशीघ्र उसे पकाने के लिए विवश करने पर कटिबध्द है जिससे जलादि
लाने के काम में आ सके। सारांश,
शक्ति-सम्पादन की प्रक्रिया और प्रवृत्ति
ईश्वरदत्ता है,
प्राकृतिक है,
नैसर्गिक है, स्वाभाविक है और अकृत्रिम है
जिससे प्रत्येक पदार्थ स्वयमेव उस ओर खिंच जाते हैं। अन्यथा वे रह ही
नहीं सकते। यह भी नहीं कि वह शक्ति कहीं बाहर से लायी जाती है। शक्ति
तो ऐसी वस्तु नहीं कि बाहर से आवे। वह तो स्वाभाविकी है,
ठीक उसी तरह जिस प्रकार उसके सम्पादन की प्रवृत्ति
स्वाभाविकी है। वह तो हर पदार्थ में जन्म से ही अनुद्भूत रूप में रहा
करती है जो अगोचर होती है और सम्पादन-प्रवृत्ति
उसे गोचर या उद्भूत कर देती है। इसे यों भी कह सकते हैं कि शक्ति का
माद्दा हर वस्तु में स्वयं सिध्द है और जिसमें वह माद्दा न रहे वह
पदार्थ मृत या विनष्ट होता है। फलत: शक्ति-सम्पादन और कुछ नहीं है
सिवा अन्तर्निहित प्रसुप्त शक्ति के उद्बोधन के,
जिसे विकास कहते हैं। यही कारण है कि
श्वेताश्वतरोपनिषद् के षष्ठाध्याय
में उसे स्वाभाविकी कहा है-
परास्य
शक्तिर्विविधौव श्रूयते
स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च॥ (9/8)
यद्यपि कहा जा
सकता है कि उपनिषद् के उक्त वाक्य में केवल परमात्मा की शक्ति
स्वाभाविकी कही गयी है,
तथापि
उसका अभिप्राय शक्ति मात्र की स्वाभाविकता के प्रतिपादन में ही है।
इसीलिए उसी उपनिषद् के आरम्भ में ही-
देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्॥ (1/3)
-देव
और आत्मा (ईश्वर और आत्मा) दोनों की ही शक्ति के पता लगने का वर्णन
है और आत्मा-शब्द तो
'स्व'
को या
अपने आपको कहता है। फलत: हर एक पदार्थ को ही
'स्व'
शब्द
से ले सकते हैं-सभी अपने आप हैं-कौन नहीं है
? अतएव
शक्ति की स्वाभाविकता में विवाद व्यर्थ है। रह गयी उसके वास्तविक
स्वरूप और प्रकार की बात। बहुतों की यह धारणा है कि शक्तियाँ अनेक
हैं,
असंख्य हैं।
दृष्टान्त के लिए उत्पादनशक्ति और संहार शक्ति को ले सकते हैं। दोनों
एक हो नहीं सकतीं। उसी प्रकार पाशविक तथा आध्यात्मिक आदि शक्तियों
की बात है। ये परस्परविरोधिनी होने के कारण अलग-अलग हैं। लेकिन हमारा
विचार है कि शक्ति तो केवल एक ही है,
जैसा
कि उक्त उपनिषद्-वाक्य से स्पष्ट है। हाँ,
उत्पादक,
संहारक,
पाशविक,
आध्यात्मिक आदि उसी के विभिन्न आकार-Different
phases of aspects
हैं। शक्ति
की उत्पादकता या संहारकता हमारी मनोवृत्ति
पर ही अवलम्बित है। हम चाहें तो उसी से संहार कर दें या किसी को पैदा
करें। एक ही विद्युत्शक्ति से पदार्थ बनाए भी जाते हैं और उनका नाश
भी किया जाता है। रेल या ट्राम में लगी बिजली से रोशनी होती और गाड़ी
दौड़ती है,
जिससे लोगों को पढ़ने-देखने और आने-जाने में आराम
होता है। लेकिन दुर्घटना होने से उसी के द्वारा गाड़ी दग्धा होजाती,
वायुयान जल जाता और लोग मर जाते हैं। नीतिकारों
ने जो यह कहा है कि-
विद्या
विवादाय धनं मदाय
शक्ति: परेषां
परिपीडनाय।
खलस्य
साधोर्विपरीतमेत-
ज्ज्ञानाय
दानाय च रक्षणाय॥
-उससे
स्पष्ट ही एक ही विद्यादि वस्तु के दो विपरीत प्रयोजन मनुष्य की
मनोवृत्ति के अनुसार बताए गए हैं और विशेष रूप से एक ही शक्ति के तो
रक्षण और परपीड़न रूप दो विरोधी काम स्पष्ट ही कहे गए हैं तथा इस बात
की विशद व्याख्या कर दी गयी है कि साधु एवं असाधु रूप आश्रय के भेद
से एक ही शक्ति का कैसा विलक्षण रूप हो जाता है। इसीलिए उक्त
श्वेताश्वतर के वचन में शक्ति को
'विविध'
कहा है,
जिसका
अर्थ है 'अनेक
प्रकार की'
न कि
'अनेक'।
क्योंकि प्रकार तो कहते ही हैं एक ही वस्तु के विभिन्न रूपों को।
हमारे धर्मशास्त्रकारों ने जो अर्थशास्त्र या राजनीति को धर्मशास्त्र
या धर्मनीति से दुर्बल और धर्मनीति को प्रबल या प्रधान कहा है,
जैसा
कि याज्ञवल्क्य का-
-उसका
भी यही अभिप्राय है कि बलवान् और शक्तिशाली होने पर लोग अन्धो होकर
शक्ति का दुरुपयोग कर सकते हैं,
जिससे
उत्पीड़न बढ़ जायेगा। इसीलिए राजकीय या पाशविक शक्ति और भौतिक बल के
सम्पादन के समय उसमें आध्यात्मिकता का
(dose)
देना
उन्होंने आवश्यक बताया है,
जिससे आजकल के पाश्चात्य या पौर्वत्य देशों की
शक्ति-सचंय की अन्धा प्रतिस्पधर् में अखिल संसार संहार के मार्ग की
ओर जिस प्रकार अग्रसर हो रहा है, सो भी
द्रुतगति से, ऐसा होने न पावे। उन्होंने
अपने अनुभव और दूरदर्शिता से ऐसे अनर्थ की सम्भावना की कल्पना पहले
ही कर ली थी। क्योंकि
आध्यात्मिकता
(Spiritualism)
की लगाम के
बिना निरंकुश भौतिकता
(Materialism)
अन्धी
होती है और उसका चरम परिणाम संहार के सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता।
अब प्रश्न हो
सकता है कि यदि वांछनीयता या माननीयता ही शक्ति की परिभाषा हो,
जिससे
किसी पदार्थ की सत्ता की आवश्यकता ही उनकी शक्ति का परिचायक हो तो
आसुरी शक्ति वाले पदार्थों की या लोगों की आवश्यकता कभी भी न होने से
उन्हें एक क्षण के लिए भी यहाँ रहना न चाहिए। लेकिन हुआ है ठीक इसके
विपरीत। आसुरी साम्राज्य तो सदा ही रहता है-पहले भी था,
आज भी
है। यह मानकर भी कि आसुरी शक्ति का काम केवल संहार करना ही है,
लोग
उसी ओर बेतहाशा दौड़ लगाते देखे जाते हैं। संसार में बिरले ही माई के
लाल अध्यात्मवाद या धर्म की पिपासावाले मिलते हैं। यदि प्रकृति या
सृष्टिकर्ता को ऐसा पसन्द नहीं है कि अनावश्यक प्रत्युत अनर्थकारी
पदार्थों की सत्ता रहे तो फिर आसुरी शक्ति का संहार क्यों नहीं
स्वयमेव हो जाता
?
निस्सन्देह यह शंका होती है और होनी ही चाहिए। लेकिन जरा
गम्भीरतापूर्वक विचार करने से इसका रहस्य विदित हो जायेगा। आखिर जो
यह कहा और देखा जाता है कि अधिक शक्तिशाली के सामने न्यून शक्तिवाले
असमर्थ,
अशक्त हैं
उसका क्या अर्थ है
? क्या
न्यून शक्तिवाले शक्ति शून्य हो जाते हैं
?
उनमें शक्ति तो रहती ही है। हाँ,
उसकी
मात्र कम भले ही हो। एक बात और। गुण-दोष और भले-बुरे का लक्षण क्या
है ?
यही न कि
मात्र का आधिक्य
? यदि
'अतिरूपेण
वै सीता,
अतिदानाद्वलिर्बध्द:,
अति
सर्वत्र वर्जयेत्'
का कुछ
भी अर्थ है तो यही कि कोई चीज कितनी ही सुन्दर या भली क्यों न हो,
ज्यों
ही मात्र से ज्यादा हुई कि बुरी हुई। नमक या मीठा किसी चीज का स्वाद
बनाने के लिए दिया जाता है,
खटाई
और मिर्च का प्रयोग भी इसीलिए करते हैं। परन्तु जब इन चीजों की मात्र
ज्यादा हो जाती है तो उसी पदार्थ को स्वाद या अमृत कहने की जगह
'जहर
हो गया', 'खराब
हो गया', 'मुँह
में न पड़ा',
ऐसा
कहने लगते हैं। भोजन जीवन-शक्ति का दाता और पोषक माना जाता है। लेकिन
जब वही मात्र में अधिक हो जाता है तो बीमारियों का कारण और नाशक हो
जाता है। आभूषण शोभावर्धक माना जाता है। लेकिन जब बेहिसाब लाद दिया
गया तो वही पदार्थ बुरा या भद्दा कहा जाता है। रोशनी देखने-पढ़ने के
लिए उपकारी पदार्थ है लेकिन जब बहुत ज्यादा हो जाती है तो चकाचौंध
पैदा करके उन्हीं कामों में बाधक और कभी-कभी दृष्टि-विनाशक सिध्द
होती है,
हालाँकि वह
दृष्टि की उपकारिका मानी जाती है। अतएव यह मानना ही पड़ेगा कि मात्र
या परिमाण में आधिक्य,
या यों
कहिये कि किसी वस्तु की नियमित मर्यादा का भंग ही,
उसे
सद्गुण की जगह दुर्गुण या भलाई की जगह बुराई में बदल देता है। इस
प्रकार जब एक नियमित मर्यादा का उल्लंघन कर गयी तो वह शक्ति शक्ति रह
ही नहीं गयी-उसे शक्ति कहना अनुचित होगा,
संसार
के नियम और व्यवहार का अपलाप होगा। यह भी तो देखा जाता है कि कोई काम
बुरा या भला इसीलिए नहीं होता कि उसका स्वरूप ही ऐसा होता है। संसार
में ऐसी बात या ऐसा काम कोई नहीं जिसके साथ बुराई-भलाई दोनों का ही
साक्षात् सम्बन्ध न हो। अवतार,
पैगम्बर,
औलिया,
नेता
या सुधारक का जीना निहायत जरूरी है। तभी वह कोई अच्छा काम कर सकता
है। लेकिन जीवन के लिए साँस लेने से लेकर भोजनादि जितनी क्रियाएँ हैं
उनमें क्या अनन्त सूक्ष्म जीवों का जो वायु,
जल आदि
में व्याप्त हैं,
संहार
नहीं हो जाता ?
पलक
मारते ही करोड़ों ऐसे जीव या कीटाण्ु मर जाते हैं-
पक्ष्मणोऽपि विपातेन येषां स्यात्पर्वसंक्षय:।
-ऐसा
प्राचीनों ने कहा है। तो क्या इतने से ही सभी का जीवन बुरा ही माना
जाये ?
क्या अवतारों
और पैगम्बरों का होना बड़े-से-बड़े अहिंसावादियों का जन्म-बुरा समझा
जाय ?
इसी प्रकार
चोरी बुरा कर्म है। लेकिन चोरों और लुटेरों का होना क्या लोगों को
सावधनी और सतर्कता की शिक्षा नहीं देता
?
तात्पर्य यह
कि संसार के सभी पदार्थ गुणदोषमय हैं-
जड़ चेतन
गुन-दोषमय,
बिस्व कीन्ह करतार।
फिर भी जिसके
द्वारा लाभ या भलाई की अपेक्षा बुराई और हानि ज्यादा है वह बुरा है
और जिससे लाभ या भलाई अधिक है वह अच्छा है। सोलहों आना अच्छा या बुरा
तो कोई भी नहीं है। इस तरह देखने से आसुरी शक्ति को शक्ति की कोटि
में ला नहीं सकते। क्योंकि वह तो संहारकारक है और यह संहार सृष्टि के
नियमों के विपरीत है। यों तो सृष्टि के साथ भी नाश होता ही है,
फिर भी
सामूहिक या व्यापक संहार प्रलय के नियमान्तर्गत है न कि सृष्टि के,
और
आसुरी शक्ति यही करती है। फलत: सृष्टि-नियम के विपरीत होने से आसुरी
शक्ति को शक्ति कहना नितान्त अनुचित है। इसीलिए वैसी शक्तिवालों का
संहार परस्पर संघर्ष या दैवी शक्ति से हो जाया करता है और यही
अवतारों का रहस्य है।
इतने विवेचन
से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं। एक तो यह कि जिस चीज के रहने से
तत्सम्बन्धी पदार्थों की वांछनीयता हो और मर्यादा का उल्लंघन न करके
जो चीज या धर्म सृष्टि के नियमों के अनुकूल हो वही शक्ति है-वास्तविक
और सच्ची शक्ति है। दूसरे यह कि वह शक्ति एक ही है यद्यपि उसके
प्रकार या आकार (Aspects)
अनेक हैं। पानी एक ही होता है,
लेकिन नीम, आम,
ऊख, मिर्च,
इमली या नीबू की जड़ में देने से कड़वे,
मीठे, तीते,
खट्टे आदि उसके कई आकार-प्रकार हो जाते हैं,
मूलत: उसमें भेद नहीं होता। ठीक उसी प्रकार शक्ति
भी आश्रय या आधार
के प्रभाव से ही,
अथवा जिस भावना एवं मनोवृत्ति
से यह सम्पादन की जाती है उसी के करते अनेक प्रकार की हो जाया करती
है,
न कि मूलत: वह कई प्रकार की होती है। यदि इन
बातों पर दृष्टि रख के हम आगे बढ़ते हैं तो इससे हमारे सारे संकट एवं
समस्त बुराइयाँ ही दूर हो जाती हैं। क्योंकि किसी प्रकार की शक्ति के
सम्पादन या शक्ति-विकास से पूर्व हमें देखना होगा कि जब वह एक ही है
और उसकी मर्यादा का उल्लंघन न होना चाहिए तो फिर उसकी मर्यादा ठीक
रहे और उसके सम्पादन की मनोवृत्ति
या भावना भी शुध्द और
पवित्र
रहे। इसी जगह
धर्म
या
आध्यात्मिकता
की
प्रधानता
को जड़वाद या भौतिकता के ऊपर रखने की आवश्यकता प्रतीत होगी और इसी से
शक्ति की मर्यादा
बँध
जायेगी और भावना भी
पवित्र
हो जायेगी। क्योंकि
धर्म
या
आध्यात्मिकता
की छाप लग जाने का अर्थ ही होगा कि अपने ही समान औरों के भी
सुख-दु:खों को अनुक्षण अनुभव करना,
महसूस करना, फील
(Feel)
करना,
जैसा कि गीता ने कहा है कि-
आत्मौपम्येन
सर्वत्र
समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा
यदि वा दु:खं स योगी परसो मत:॥(6/32)
कारण,
धर्म
का पर्यवसान इसी विचार में होता है,
न कि
किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता
(Dogmatism)
में।
इसीलिए महाभारत के शान्ति पर्व में तुलाधर
ने जाजलि से
धर्मज्ञान
की कसौटी और उसका निचोड़ बताते हुए कहा है कि मनसा,
वाचा, कर्मणा जो
प्राणी सबका सुहृद् और सबकी भलाई में तत्पर हो वही
धर्म
के रहस्य को जानता है-
सर्वेषां च सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रत:।
कर्मणा
मनसा वाचा स
धर्म
वेद जाजले॥ (261/9)
यही कारण है
कि हमारे धर्माचार्यों ने
'सर्वेऽपि
सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:'
का
डिंडिभनाद किया है। यदि पूर्वकाल की आसुरी शक्ति के विस्तार का
पर्यवेक्षण किया जाय तो उससे भी यही सिध्द होता है कि उसके सम्पादकों
के साथ धर्म का सम्बन्ध छत्तीस का-सा ही था,
उन्होंने धर्म को पाँव-तले रौंदकर धता बताया था। वर्तमान समय के
महासमरों और उसकी तैयारियों की ओर यदि दृष्टि की जाय तो यह स्पष्ट ही
प्रतीत होता है कि आध्यात्मिकता और धर्म से विहीन वर्तमान सभ्यता ही
इसका कारण है और जब तक इसका अन्त होकर सभी देशों,
राष्ट्रों और उनके संचालकों के दृष्टिकोण में धर्ममूलक परिवर्तन नहीं
होता तबतक बाहरी बातों और निरस्त्रीकरण के घपलों से इस संहारक
मनोवृत्ति का अन्त न होगा और शक्ति के नाम पर यह वास्तविक अशक्ति
अपना बलिदान लेकर ही रहेगी। कारण,
इस
आसुरी या पाशविक शक्ति का,
जिसे
शक्ति कहना 'शक्ति'
शब्द
का परिहास करना है और जिसे प्रवृत्ति भले ही कह सकते हैं नियन्त्रण
हो ही नहीं सकता।
इस शक्ति को
'ज्ञानवलक्रिया
च'
कहा है,
जिसका
अभिप्राय है कि इसके ज्ञान,
बल और
क्रियात्मक तीन आकार हैं। ईश्वरकृष्ण के
'सत्वं
लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रज:। गुरु वरणकमेव तम:...'
(सां.
का. 13)
तथा गीता के
'सत्तवं
सुखे संजयति रज: कर्मणि',
'सर्वद्वारेषु
देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते'
(14/9/11)
के अनुसार
ज्ञान,
बल और क्रिया
का अभिप्राय है सत्व,
तम और
रज-इन तीन गुणों से। क्योंकि सत्तव का स्वरूप और काम ही है ज्ञान,
तथा रज
का स्वरूप है क्रिया या हलचल। तम भारी माना जाता है जिससे वह दबाता
है। अतएव बल का अभिप्राय तम से ही है। क्योंकि बल के ही प्रभाव से
कोई वस्तु दबती है। इस प्रकार शक्ति त्रिगुणात्मिका सिध्द होती है
जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जिस शक्ति में ज्ञान क्रिया और बल। इन
तीनों को या तीनों में किसी एक को भी स्थान नहीं है वह शक्ति कही जा
सकती ही नहीं। इसलिए मनु ने कहा है कि
'विद्वत्सु
कृतबुध्दय:। कृतबुध्दिषु कत्तर्र: कर्तृषु ब्रह्मवेदिन:॥'
(1/97)।
इसका तात्पर्य यह है कि कोरा ज्ञान,
कोरी
क्रिया या कोरा बल वांछनीय नहीं है,
मनुष्य-जीवन का चरम ध्येय नहीं है,
किन्तु
तीनों का उचित सम्मिश्रण चाहिए। कर्तव्यर्कत्ताव्य का निश्चय,
उसके
अनुसार कार्य करने का बल और साहस तथा निश्चयानुसारिणी क्रिया के साथ
ब्रह्मज्ञान का होना जरूरी है। यह ब्रह्मज्ञान वही है जिसे
'आत्मौपम्येन
सर्वत्र'
इत्यादि वचनों
के द्वारा धर्म का पर्यवसान कहा है,
अध्यात्मवाद का अन्तिम स्वरूप बताया है। अतएव इस संसार का वास्तविक
कल्याण-सच्चा श्रेय इसी बात में है कि शक्ति तथा अशक्ति का पूर्ण
विवेचन करके उसके ज्ञान,
क्रिया
और बलात्मक तीनों रूपों का सम्पादन-विकास किया जाय और इस प्रकार
उसमें धर्म का पुट देकर उसे मर्यादित किया जाय जिसमें विश्व का
कल्याण हो। कोरा ज्ञान,
कोरी
क्रिया या कोरा बल एकाकी और विनाशकारी है। पूर्वाचार्यों ने जो हर
बात के सम्पादन के समय अधिकारी की परख लगायी है और कहा है कि
अनधिकारी को कोई बात बतायी न जाय और न वह ऐसा साहस ही करे कि कुछ
सीखे-जाने,
उसका
भी यही रहस्य है। क्योंकि मनोवृत्ति और भावना पर नियन्त्रण हुए बिना
ऐसे पुरुष को जो सामर्थ्य,
योग्यता या शक्ति प्राप्त होगी उसका दुरुपयोग हो सकता है,
वह
विनाशकारिणी हो सकती है। उपनिषदों में ब्रह्मा के द्वारा बलि के
ठुकराये जाने और उपदेश न देने का भी यही अभिप्राय है। इसीलिए
निरुक्तकार ने 'असूयकायानृजवेऽयताय
मा मा ब्रूया:'
कहा है
और मनु ने भी इसी का अभिप्राय
'विद्या
ब्राह्मणमेत्याह'
इत्यादि के द्वारा व्यक्त किया है। यदि ऐसा न हो तो अपात्र या
अनधिकारी के पास जाकर समस्त ज्ञान शैतान के हाथ में मसाल का काम करने
लगे। इसका सबसे उत्तम दृष्टान्त मनुस्मृति के
8वें
अध्याय का 168
वाँ
श्लोक है जिसे नैषध के पढ़ने वाले जानते हैं। वह
'बलाद्दत्तां
बलाद्भुक्तम्'
इत्यादि है,
जिसका
सरल अर्थ यही है कि जो काम अनिच्छापूर्वक जबरदस्ती कराया जाता है
उसकी जवाबदेही करने वाले पर नहीं रहती। लेकिन उस श्लोक के पद ऐसे हैं
जिससे यह अर्थ भी किया जा सकता है कि जबरदस्ती किए-कराए कामों की कोई
गिनती नहीं होती,
वे
नहीं ही समझे जाते हैं। इसलिए चार्वाक ने उस वचन का यह अर्थ लगा लिया
कि जबरदस्ती चोरी,
सीना-जोरी,
डकैती
या दुराचार-व्यभिचार करने में कोई हर्ज नहीं है,
क्योंकि ऐसी आज्ञा मनु ने दी है।
फलत: अधिकारी
का विचार करने से वास्तविक मर्यादा का न तो उल्लंघन ही होगा और न
दूषित मनोवृत्ति का प्रसार ही होगा। फिर तो ताण्डव नृत्य का अवसर
आयेगा ही नहीं और समस्त शक्ति का विकास उचित रूप और मात्र में होकर
वह ज्ञान,
क्रिया और
साहस रूप अपने उक्त तीनों आकारों से सम्पन्न होगी और इस प्रकार उसके
ऊपर अथ से इति तक धर्म का-वास्तविक और सच्चे धर्म का पुट होने से वह
निसर्गत: कल्याणकारिणी ही होगी और इस प्रकार गीता के
'रजस्तमश्चाभिभूय
सत्तवं भवति भारत'
(14/10)
के अनुसार
विपरीतगामी और विरोधी भी रज एवं तम सत्तव के अनुगुण और सहकारी बनकर
क्रिया और साहस के द्वारा उसके पोषक होंगे और समय-समय पर उसे विश्राम
देकर सदैव अक्षीणशक्ति बनाए रखेंगे। इस प्रकार सोने में सुगन्ध की
तरह परस्पर विरोधी भी ये गुण विश्व को कल्याण की ओर अग्रसर करेंगे;
क्योंकि अकेला ज्ञान,
अकेली
क्रिया या अकेला साहस बेकार होता है,
जिससे
परस्पर सहकारिता अपेक्षित है और यही सृष्टि का नियम है।
[ई.
1934
भाद्रपद-कल्याण (शक्ति अंक)]
(शीर्ष
पर वापस)
गीता का योग
यदि
विचारपूर्वक देखा जाये तो मानना होगा कि
'योग'
एक पेचीदा पहेली है। जितने अर्थों में इस योग
शब्द का प्रयोग अब तक हुआ है शायद ही किसी अन्य शब्द का उतने अर्थों
में हुआ हो। यद्यपि कोषों में-
योगोऽपूर्वार्थसम्प्राप्तौ सúतिध्यानयुक्तिषु।
वपु:स्थैर्यप्रयोगे च विष्कम्भादिषु भेषजे॥
विश्रब्धाघातिनि द्रव्योपायसंनहनेष्वपि।
कार्मणेऽपि च योग: स्यात्...।
आदि वचनों के
द्वारा नयी चीज की प्राप्ति,
संगति,
ध्यान,
युक्ति,
शरीर
की दृढ़ता,
प्रयोग,
(ज्योतिषियों
के) विष्कम्भ आदि,
औषधि,
विश्वासघाती,
द्रव्य,
उपाय,
कवच,
तन्त्रा-मन्त्र क्रिया,
कर्मठ
इन चौदह अर्थों में इसे व्यवहृत किया है और धातु पाठ में युजिर् तथा
युज् इन दो धातुओं के तीन अर्थ योग,
समाधि
तथा संयमन लिखे गये हैं;
तथापि
इससे यह नहीं मान लेना होगा कि योग शब्द के इतने ही अर्थ हैं। केवल
श्रीमद्भगवद्गीता के ही अठारह अध्यायों में प्रत्येक के प्रतिपाद्य
विषय को भी 'योग'
ही नाम
दिया गया है-अर्जुन विषाद योग,
सांख्य
योग,
कर्म योग आदि।
इससे यह तो सिध्द ही है कि योग शब्दार्थ के भीतर कम-से-कम अठारह
पदार्थ और भी आ गये। बेशक गीता के सांख्य योग,
कर्म
योग आदि शब्दों के साथ ही प्रत्येक अध्याय के अन्त में पठित समाप्ति
सूचक संकल्पों में
'योगशास्त्रो'
को
देखकर बहुत लोगों ने
'योगशास्त्र'
का
'कर्मयोगशास्त्र'
अर्थ
कर दिया है और नारायणीय धर्म के साथ,
जिसका
प्रतिपादन महाभारत के शान्ति पर्व में आया है,
गीता
प्रतिपादित विषय का मिलान करके गीता में भी नारायणीय धर्म का ही
निरूपण माना है और इस निर्णय पर पहुँचने में उन्होंने
'भगवद्गीता'
नाम से
भी सहायता ली है। कारण,
नारायणीय धर्म के वक्ता जहाँ नारायण हैं तहाँ गीता धर्म के वक्ता भी
भगवान् या नारायण ही हैं और भगवद्गीता शब्द का यही अर्थ भी है। फिर
भी हमारे जानते ऐसा करना खींच-तान की पराकाष्ठा एवं दूर की कौड़ी लाना
है। आखिर 'अर्जुनविषादयोग'
में,
जो
प्रथमाध्याय का प्रतिपाद्य विषय है,
कौन-सा
कर्मयोग है ?
केवल
तीसरे अध्याय के अन्त में संकल्प में
'कर्मयोग'
आया
है। बाकी में तो सांख्य योग,
ज्ञानकर्मसंन्यास योग,
श्रध्दात्रयविभाग योग,
दैवासुरसम्पद्विभागयोग आदि शब्द आये हैं। इनमें कहाँ कर्मयोग छिपा
हुआ है ?
और अगर इन सभी
का अर्थ प्रकारान्तर से कर्मयोग ही करने का हठ किया जाय,
जो
असम्भव है,
तो फिर
योग शब्द वही भानमती की पिटारी ही सिध्द हो जाता है और इसके भीतर
संसार भर के पदार्थों का समावेश हो ही जाता है। इससे अच्छा है कि
गीता के प्रत्येक अध्याय के प्रतिपाद्य विषयों को ही योग नाम दे
डालें और भगवद्गीता नाम उसका केवल इसीलिए मान लें कि उसमें सर्वत्र
'भगवानुवाच'
यही
लिखा है। न कि नारायणीय धर्म से इसका कोई भी सम्बन्ध है। इसीलिए
'भगवद्गीता'
यह
स्त्रीलिंग नाम भी ठीक हो जाता है। क्योंकि यह गीता तो शब्दान्तर से
भगवान् के द्वारा गायी हुई (उपदिष्ट) उपनिषद् ही है और उपनिषद् शब्द
के स्त्रीलिंग होने के कारणउसका विशेषण रूप गीता शब्द भी
स्त्रीलिंग हो गया है। यदि नारायणीय धर्म की बात होती तो
'भगवानुवाच'
की जगह
'नारायण
उवाच'
कहते और नाम
भी नारायणगीता रखते। या नहीं तो धर्म शब्द का ख्याल करके पुल्लिंग या
नपुंसकलिंग 'गीत:'
'गीतम्'
रखते।
लेकिन इतने से
ही योग के शब्दार्थ का निश्चय तो हो नहीं जाता और योग क्या है यह
पहेली सुलझने के बजाय और भी उलझ जाती है। बहुत लोग यह समझते होंगे कि
पतंजलि के योग दर्शन में शायद इसकी सुलझन हो। लेकिन उन्हें यह जानकर
आश्चर्य होगा कि जहाँ गीता के अठारहों अध्यायों में सब मिलाकर योग,
युक्त,
युंजन्
आदि अर्थात् उसी युज् धातु से बने शब्दों का प्रयोग प्राय: डेढ़ सौ
बार आया है और यदि इसी में हर एक अध्याय के समाप्ति संकल्प में
दो-दो बार लिखे योग शब्द को जोड़ दें तो एक सौ नब्बे से अधिक या
प्राय: दो सौ बार आया है ऐसा कह सकते हैं,
तहाँ
योग दर्शन में कुल मिलाकर केवल नौ-दस ही बार इसका प्रयोग हुआ है और
उसमें भी योग के अर्थ में केवल चार ही बार,
जैसा
कि पहले पाद के दूसरे,
दूसरे
के पहले और अट्ठाईसवें और चौथे के सातवें सूत्रों से स्पष्ट है। इसके
विपरीत गीता के प्राय: सभी प्रयोग इसी अर्थ में हैं। अत: यह तो मानना
ही होगा कि योग शब्द को किसी-न-किसी रूप में गीता में जितनी बार
दुहराया गया है उतनी बार शायद ही किसी और पुस्तक में दुहराया है। एक
बात और है। गीता में योग शब्द के अभ्यास के साथ ही उसका निर्वचन भी
स्पष्ट रूप से दो श्लोकों में जरूर किया है और वे हैं द्वितीय
अध्याय के 48
तथा
50
श्लोक जिनमें
लिखा है कि 'कर्म
और उसके फल में लिपटने के भाव (आसक्ति) को छोड़ और उद्देश्य पूरा
होने-न-होने में बेफिक्र होकर योग-बुध्दि से कर्म करो,
क्योंकि इसी अनासक्ति (आसक्ति त्याग) और पूरा होने-न-होने में
बेफिक्री को-समता को योग कहते हैं।'-'कर्म
के सम्बन्ध की विशेषता को-कौशल को-योग कहते हैं।'
योगस्थ:
कुरु कर्माणि सङ्गं
त्यक्त्वा
धनंजय।
सिध्दयसिध्दयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ (गीता
2।48)
'योग:
कर्मसु कौशलम्' (गीता
2।50)
यद्यपि योग
दर्शन में भी 'योगश्चित्तावृत्तिनिरोध:'
(1।2)
तथा
'तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधनानि
क्रिया योग:' (2।1)
सूत्रों में योग शब्द की व्याख्या की गयी है। फिर भी वह दूसरे ढंग की
है-संकुचित एवं एकदेशी है। वह व्याख्या केवल योग दर्शन वालों के ही
काम की है और यह तो मानना ही होगा कि योग-दर्शन जनसाधारण की पहुँच के
परे की चीज है-व्यावहारिक जीवन की चीज़ नहीं है। उससे केवल विरक्त या
अध्यात्मवादी ही लाभ उठा सकते हैं जिनकी संख्या उँगलियों पर गिनी
जा सकती है,
संसार
तो दिन-रात कामों (कर्म) में लिप्त है,
फँसा
है,
उसे
चित्तवृत्ति निरोध से क्या काम
? फलत:
जिन कामों को वह कर रहा है उनसे उसे न हटाकर भी कोई ऐसी युक्ति
(तरकीब) बतायी जाय जिससे अभीष्ट की सिध्दि और असिध्दि,
हार-जीत,
हानि-लाभ आदि
की उसके दिल पर चोट न पहुँचे और हर हालत में वह एक-सा
रहे-निर्द्वन्द्व रहे तथा जनक की तरह हिम्मत से कह सके कि समूची
मिथिला जली सही,
लेकिन
मेरा क्या जला ?
मिथिलायां प्रदग्धायां न मे किञ्चन
दह्यते।
-तो
कितना सुन्दर हो,
कितना
अच्छा हो और इस बेहाल दुनिया को वह कितनी रुचे! इतना ही नहीं,
काम
करते-करते थक गये और नतीजा कुछ न हुआ तो फिर शुरू किया और इस तरह
करते-करते थक गये,
मरने
की नौबत आ गयी,
फिर भी
यदि काम छूट जाने का मौका आया तो मारे चिन्ता के जलने लगे,
यहाँ
तक कि अन्त दम में भी उस काम की फिक्र से ही बेहाल हैं! ठीक वही हालत
है कि बन्दरी का बच्चा तो मर गया,
मगर वह
उसे फिर भी छाती से चिपकाये फिरती है और छोड़ना नहीं चाहती। ऐसी
मनोवृत्ति भी कैसी भयंकर और दु:खद है! यह कर्म की ममता भी कैसी
भयावनी है! ठीक वैसी भी है,
जैसी
फल की। आसक्ति सभी बुरी है फिर वह चाहे फल की हो या कर्म की,
वह
समुद्र या नदी में तैरनेवाले के गले की चक्की है। फल जबतक कच्चा है,
डाल
में लगा रहता है और बलात् उसका तोड़ना ठीक नहीं है। साथ ही,
पकने
पर जब वह अनायास डाल (वृन्त) से छूट रहा तो हठात् वृन्त में ही उसे
चिपकाये रखना या रखने की कोशिश कम बुरी नहीं है,
ऐसा
करना तो फल,
वृन्त,
डाल,
वृक्ष
सभी को बेकार बनाना है। ऐसी हालत में यदि इस मनोवृत्ति को हटाने का
कोई उपाय हो तो कितना बढ़िया हो,
रमणीय
हो! यह उपाय,
तरकीब
या रास्ता योग दर्शन के अरण्य में मिलने का नहीं,
इसीलिए
भर्तृहरि ने कहा है और ठीक ही कहा है कि योग में तो रोगों का खतरा
है-'योगे
रोगभयम्'।
परिणाम यह होता है कि साधारण जनता की ज्ञानपिपासा और आकांक्षा योग
दर्शन के पढ़ने के बाद भी शान्त नहीं होती। वह या तो उसे समझ पाती ही
नहीं या उसे अपने लिए बेकार समझती है। साथ ही सांसारिक झंझटों में
लिप्त रहने के कारण कार्यों के फलाफल से होने वाली वेदनाओं से
समय-समय पर ऊबकर उनसे छुटकारा भी चाहती है जो सहज हो। क्योंकि
समय-समय पर की यह ऊब तो
केवल
मसानियाँ वैराग्य है,
स्वभावत: लोग कामों से तो अलग हो ही नहीं सकते,
उन्हें
कामों में ही मज़ा आता है। हाँ,
कभी-कभी वह मज़ा किरकिरा हो जाया करता है और उसी किरकिरेपन से पिण्ड
छुड़ाने की इच्छा लोगों को स्वभावत: रहती है और गीता के
'योग'
निर्वचन की खूबी,
इसी
में है कि वह उस आकांक्षा की पूर्ति करता है,
यद्यपि
आज हमें यह बात विदित न हो और मतवाद एवं साम्प्रदायिक आग्रह में पड़कर
हमने गीता के इस रहस्य को भुला दिया हो,
तथापि
गीता के सर्वाधिक लोकप्रिय बनने का प्रारम्भिक कारण यही है कि
जन-साधारण के भावों को
समझ
उन्हीं के उपयुक्त साधनों के सम्पादन द्वारा उनकी पूर्ति का उपाय
उसमें बताया गया है।
बहुत लोगों के
मन में यह शंका होती है कि गीता में ही योग की दो परिभाषाएँ क्यों कर
दी गयी हैं जो परस्पर मेल नहीं खाती हैं। एक में तो
'समत्व'
का नाम
योग रक्खा गया है और दूसरे में
'कौशल'
का।
समत्व कर्म तथा फल की अनासक्ति है जो निषेधात्मक है और कर्म में
'कौशल'
विशेषज्ञता या विशेष रूप की जानकारी है जो भावात्मक है। कुशल या
विशेषज्ञ (specialist)
तो वही
होता है जो उस वस्तु के रग-रेशे को
रत्ती-रत्ती
जाने। ऐसी हालत में तो यह विशेष ज्ञान विधानात्मक
(positive)
हुआ और
पूर्वोक्त अनासक्ति निषेधात्मक
(negative)।
लेकिन यदि थोड़ा भी प्रवेशपूर्वक देखा जाये तो यह बात नहीं है। आखिर
योग के उक्त दोनों निर्वचन गीता के द्वितीय
अध्याय
में ही नहीं,
किन्तु पास-पास के ही श्लोकों में लिखे गये हैं।
48 और 50 के
बीच में तो केवल 49 संख्या वाला श्लोक ही
व्यवध्यक
है। बल्कि 49वें
श्लोक में जो 'बुध्दियोग'
शब्द आया है उसी का स्पष्टीकरण 50वें
में है। फलत: व्यवधन
भी नहीं है,
किन्तु दोनों निर्वचन आगे-पीछे मिले ही हुए हैं।
ऐसी दशा में पूर्वापर
विरोध
का अवसर ही कहाँ
? जब साधारण
मनुष्य भी एक साथ बोलने में एक समय पूर्वापर
विरोध
से बचता है तो फिर गीतोपदेशक श्रीकृष्ण या गीता के पदबध्दकर्ता
व्यास का क्या कहना
?
असल में यह मानव स्वभाव है कि बुरा-भला जो कुछ किया जाता है उसका,
उसके फल का तथा संसार में निरन्तर होनेवाली
घटनाओं का प्रभाव दिल-दिमाग पर आत्मा पर-पड़ता ही है। यह असम्भव है कि
आईने के सामने कोई पदार्थ लाया जाये और उसकी छाया उसमें न
पड़े-प्रतिबिम्ब न दीखे। और घटना-चक्र का यही आत्मा पर पड़ने वाला
प्रभाव हमारे सभी कष्टों एवं वेदनाओं का कारण है। जब तक दिल-दिमाग
दुरुस्त हैं, काम करते हैं तब तक ये
वेदनाएँ अनिवार्य हैं। गाड़ी नींद के बाद जब कोई हृष्ट-पुष्ट मनुष्य
उठता है तो उसके दिल-दिमाग शान्त और एकरस-सम मालूम होते हैं और इस
दशा को हम दूसरे शब्दों में बैलेन्स्ड
(balanced)
कह सकते
हैं। लेकिन उसके बाद घटनाचक्र के करते रसभंग शुरू होता है और मनुष्य
कभी प्रसन्न और कभी खिन्न होता है,
कभी रोता है तो कभी हँसता और कभी उदासीन बनता है।
यही विषमता की
(Unbalanced)
अवस्था
उसके दिल-दिमाग की है। यदि यह अवस्था न आवे तो जिन्दगी कितनी मजेदार
हो,
जीवन कितना सरस हो,
जैसाकि अबोध
बच्चों में प्राय: पाया जाता है। गाढ़ निद्रा और बेहोशी की हालत में
भी इस विषमता का पता नहीं रहता,
मानो आईना बन्द है और प्रतिबिम्ब नहीं पड़ते।
मानव-हृदय और मानव-मस्तिष्क इतने भावग्राही हैं,
भाव-व्यंजक हैं,
संसर्गग्राही हैं,
sensitive
हैं कि
प्रत्येक घटना का प्रभाव लिए बिना नहीं रहते,
अवश्य प्रभावित हो जाते हैं।
इधर
हमारी हालत यह है कि अच्छे भावों और उनके परिणामों के साथ तो तन्मय
होना हमें पसन्द है लेकिन असद्भावों और दुष्परिण्मों से बचना चाहते
हैं। यह परस्पर
विरोधी
बातें हैं। यह ऐसी ही हैं जैसी दिन को चाहकर रात को न चाहना। संसार
तो परिणामी है,
परिवर्तनशील है। फलत: अच्छे के बाद बुरे और बुरे
के बाद अच्छे का आना अनिवार्य है। इसमें कोई अन्तर नहीं कि हम दु:ख
चाहें या सुख। इन दोनों को तो अयुत सिध्द कहना चाहिए जिसके मानी हैं
कि एक के बिना दूसरा रह ही नहीं सकता। अतएव बुध्दिमानी इसी में है कि
हम एक को भी न चाहें। यह कोई असम्भव बात नहीं। हाँ,
कठिन अवश्य है। और जब यह दशा प्राप्त हो गयी तो
दिल-दिमाग एकरस
(balanced)
रहते हैं,
सम रहते हैं। इसी दशा का नाम 'समत्व'
है जिसका उल्लेख उक्त 48वें
श्लोक में है।
कही चुके हैं
कि कामों का प्रभाव दिल-दिमाग पर पड़ता ही है। बल्कि यों कहना चाहिए
कि कर्मों के फल के रूप में जो हानि-लाभ,
जय-पराजय,
सुख-दु:ख आदि
होते हैं उनका अनुभव दिल-दिमाग तभी करते हैं,
उनसे
प्रभावित तभी होते हैं,
जब उन
कर्मों से पहले प्रभावित हो लेते हैं। बीज में अंकुर उत्पादन की
शक्ति होती है जो प्रतीत नहीं होती। लेकिन भाड़ में डाल देने पर वह
शक्ति नष्ट हो जाती है यद्यपि बीज ज्यों-का-त्यों रहता है। ठीक यही
दशा कामों की है। जो काम हमारे दिल-दिमाग को प्रभावित नहीं करते उनकी
सुख-दु:खानुभावक शक्ति नष्ट हो जाती है। बेहोश आदमी को छुरी भोंकने
की जानकारी न होने से उसके बाद होनेवाली पीड़ा का भी अनुभव नहीं
होता।...अतएव बुरे-भले कर्मों के साथ यदि हमारी तन्मयता छूट जाये तो
फिर उनके फलों से भी पिण्ड अनायास ही छूटे। इसके लिए यदि कोई हिकमत,
उपाय
या तदवीर हो तो क्या खूब! काम करने से तो पिण्ड छूट नहीं सकता।
मजबूरन कुछ-न-कुछ करना ही पड़ता है-
न हि
कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते
ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥ (गीता
3।5)
फिर कर्मों से
बचने की निरर्थक कोशिश से क्या प्रयोजन और क्या प्रयोजन इस बेहूदा
दुराग्रह से कि मैं अमुक कर्म करूँगा ही
?
एकमात्र उनकी
आसक्ति से बचने की कोशिश में बुध्दिमानी है जिससे फल भोगने न पड़ें।
इसी बुध्दिमानी को,
चातुरी
को,
कौशल को
'योग'
कहा है
उक्त 50वें
श्लोक में और यह कौशल वही अनासक्ति या समता या दिल-दिमाग का
balance
है। इस
प्रकार देखने से दोनों में
विरोध
कहाँ है ?
बात असल यह है कि 48वें
श्लोक में 'समत्व'
नामक जिस योग का उल्लेख किया है उसी का विशदीकरण
49, 50, 51 आदि आगे के श्लोकों में किया
है और कहा है कि कर्मों को करता हुआ भी ऐसी बुध्दिमत्ता का सम्पादन
करे, ऐसे कौशल को प्राप्त करे जिससे
सिध्दि, असिध्दि में हमेशा बेफिक्र रहे।
क्योंकि बिना ऐसी बुध्दिमत्ता के सुकृत-दुष्कृत या भले-बुरे कर्मों
तथा उनके फलों से छुटकारा नहीं हो सकता। इसके बाद के 51वें
श्लोक 'कर्मजं बुध्दियुक्ता हि'
में फिर उसी बुध्दिमत्ता का विवेचन किया है और
दिखलाया है कि किस प्रकार अनासक्ति या समत्वज्ञानरूपी बुध्दिमत्ता के
प्राप्त होने पर जन्म-मरण से छुटकारा हो जाता है।
गीता के इस
योग का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य को किसी प्रकार का आग्रह कर्म के
सम्बन्ध में नहीं होना चाहिए। प्राकृत नियमों के अनुसार प्रवाह पतित
कर्मों से भागना भी ठीक नहीं और अगर संस्कारवश कर्म अपने-आप ही छूट
जाएँ या एक छूटकर उसकी जगह दूसरा आ जाये तो हर हालत में महाभारतोक्त
धर्मव्याध की तरह उसमें भला-बुरा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि न तो
कर्मों में ही कुछ रक्खा है और न उनके त्याग में ही। कर्मों के करने
या उनके त्याग के सम्बन्ध में जो हमारी मनोवृत्ति है,
भावना
है वही असल चीज है और उसी के सम्पादन में हमारा ध्यान रहना चाहिए।
यदि कर्मों में हमारी आसक्ति या ममता न हो तो वे हमसे छूट जाएँगे,
यह
धारणा भ्रान्त है। कर्म तो सृष्टि के नियमान्तर्गत हैं। फिर वे
छूटेंगे कैसे ?
और अगर
उन्हें छूटना ही है तो आसक्ति या ममता उन्हें रख नहीं सकती। प्रत्युत
यह आसक्ति विचार को अन्धा और दुर्बल बना देती है। कारण,
आसक्ति
तो एक प्रकार का हठ है और हठ के साथ विवेक का सम्बन्ध ही क्या
?
आसक्ति में बहुत बड़ा दोष है कि वह मनुष्य को अधीर बना देती है,
साहसहीन कर देती है और अधीरता की दशा में कोई भी काम ठीक-ठीक किया ही
नहीं जा सकता। यह तो केवल कर्म की आसक्ति की बात है। फल की आसक्ति तो
और भी बुरी है। वह मनुष्य के ध्यान को बाँट देती है और जब ध्यान
बलात् फल की ओर चला जाता है तो पूरी शक्ति से कर्म का अनुष्ठान हो
नहीं सकता। साथ ही,
जिस पर
आसक्ति होती है उसी पर अधिक दृष्टि होती है। फल यह होता है कि कर्म
या फल पर आसक्ति के करते उसी में दृष्टि बँध जाती है और कर्म के
साधनों पर पूर्ण दृष्टि नहीं रहती। परिणाम यह होता है कि
साधन-सम्पत्ति पूर्ण न होने से क्रिया (कर्म) ठीक नहीं होती,
जिससे
फल भी संदिग्धा रहता है। अतएव कर्म या उसके फल की ओर से दृष्टि हटाकर
कर्म के साधनों पर रखनी चाहिए। एतदर्थ दोनों की आसक्ति त्याज्य है।
बात भी है कि जब मनोयोगपूर्वक कर्म के साधन ठीक रहेंगे तो कर्म की
पूर्ति और उसके द्वारा फल की सिध्दि को कोई रोक नहीं सकता,
वह
अनिवार्य है। ऐसी दशा में कर्म और फल दोनों की आसक्ति सर्वथा हेय है
और जब वह रही ही नहीं तो दिल-दिमाग की समता
(Balance)
अवश्य ही
रहेगी। गीता के 'कर्मण्येवाधिकारस्ते'
(2।47), 'कृपणा:
फलहेतव:' (2।49),
आदि का यही भाव है।
हृदय तथा
मस्तिष्क इस समता (balance)
को
पातंजल योग वाले भी अपने रास्ते से प्राप्त करना चाहते हैं। लेकिन यह
मार्ग साधारण
लोगों के लिए,
जिनमें संसार से वैराग्य नहीं है,
नहीं बताया गया है। क्योंकि 'अभ्यासवैराग्याभ्यां
सन्निरोध:' (1।12)
सूत्र
के द्वारा योग की सिध्दि अभ्यास और वैराग्य दोनों की सहायता से बतायी
गई है। इसीलिए इस योग को हम व्यावहारिक नहीं कहते। जीते जी मृतक बनने
को कितने लोग तैयार हो सकते हैं
? दूसरी ओर गीता का योग है। इसमें किसी भी काम की
मनाही नहीं है। प्रत्युत 'कर्मज्यायो
ह्यकर्मण:' (गीता 3।8)
के द्वारा नहीं करने की अपेक्षा कुछ भी करना
अच्छा बताया गया है। यह भी नहीं कि
कर्म के फल से वंचित करने का यत्न किया गया हो। प्रत्युत जहाँ आसक्ति
के करते फल संदिग्धा रहता है, तहाँ गीता
ने अनासक्ति के द्वारा उसे और भी निश्चित कर दिया है,
कारण, कर्मों के
सुसम्पादन से उनके फल अवश्यम्भावी हैं। यह भी नहीं कि किन्हीं विशेष
प्रकार के कर्मों में कोई महत्ता रक्खी गयी हो। वहाँ तो-
यत्करोपि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। (गीता
9।27)
-के
द्वारा साधारण खान-पान से लेकर यज्ञ-हवनादि सभी के द्वारा समान रूप
से कल्याण लिखा हुआ है। यम,
नियमादि कठिन व्रतों का भी प्रश्न नहीं है और प्राणायाम,
आसन
आदि का भी नहीं। किन्तु सभी कुछ करते-कराते रहने पर भी या तो यह भाव
रखना कि इन कर्मों के द्वारा हम भगवान् की पूजा करते हैं,
या यह
कि प्रकृति नियम के वश ये हमारे लिए कर्तव्य हैं,
इसी से
इन्हें करते हैं,
अथवा
जो कुछ करते हैं वह यज्ञ हो रहा है-
तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
(गीता
9।27)
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन। (गीता
18।9)
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्रा। (गीता
3।9)
-बस,
इन
तीनों में से किसी भी भावना से,
लेकिन
कर्म के करने,
न करने
या उसकी फल की आसक्ति छोड़कर,
जितने
भी कर्म छोटे से बड़े तक (यहाँ तक कि मल-मूत्र त्याग से लेकर समाधि
तक) किये जाते हैं,
सभी
कल्याणकारक होते हैं। इस प्रकार
'आम
का आम और गुठली का दाम'
चरितार्थ होता है। क्योंकि एक तो कोई विशेष परिश्रम या तैयारी नहीं
करनी पड़ती,
दूसरे
कर्मों के सांसारिक फल भी मिलते ही हैं,
तीसरे
दिल-दिमाग की एकरसता (balance)
बनी
रहती है जिससे जीवन किरकिरा नहीं होता। चौथे परलोक में
बन्धन
नहीं होता और अन्त में कल्याण होता है। यद्यपि प्रारम्भिक अवस्था में
ये सभी बातें नहीं होती हैं किन्तु
धीरे-धीरे
एक के बाद दूसरी होती हैं। फिर भी इनका होना असम्भव नहीं। साथ ही यह
मार्ग साधारण
लोगों के लिए भी सुकर होने से सार्वभौम एवं व्यावहारिक है। यही गीता
के योग की विशेषता है और इसी से इसे सार्वभौम
धर्म
कहते हैं। इसके अनुसार किसी भी हिन्दू,
मुसलमान, क्रिस्तान
आदि सम्प्रदाय का मनुष्य समान रूप से कल्याण प्राप्त कर सकता है-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। (गीता
18।47)
-का
भी यही अभिप्राय है। यदि गीता का यह योग प्रचलित हो जाये तो धार्मिक
कलह स्वयमेव विलीन हो जाएँ।
जैसाकि पहले
कह चुके हैं गीता में योग शब्द का प्रयोग प्राय: दो सौ बार आया
है-सभी अध्यायों में यह शब्द ओत-प्रोत है। केवल प्रथम और सत्रहवें
अध्याय के श्लोकों में यह नहीं मिलता। यह भी बात है कि सर्वत्र योग
शब्द का प्रयोग हमारे बताये अर्थ में ही नहीं हुआ है,
किन्तु
पातंजलयोग के अर्थ में तथा कोष में निर्दिष्ट अर्थों में भी हुआ है
और प्रत्येक अध्याय के प्रतिपाद्य विषय की भी योग संज्ञा गीता में
है। फिर भी यह गीता की कोई माननीय विशेषता नहीं है और इससे जनता का
कोई विशेष लाभ नहीं। गीता ने मनुष्य के व्यावहारिक जीवन की
पारमार्थिक या पारलौकिक जीवन के साथ एकता करके उसे जो सर्वजनसाध्य
व्यावहारिकता प्रदान की है यही उसकी विशेषता एवं उपादेयता का कारण
है। चाहे घर में हो या जंगल में,
हल
जोतता हो या समाधिस्थ हो,
नमाज
पढ़ता हो,
प्रार्थना
करता हो या सन्धयोपासन में लगा हो,
हर
हालत में वह समान रूप से कल्याण का अधिकारी हो सकता है,
इसे
गीता ने दार्शनिक रूप से बताया है। यह बात इस रूप में कहीं नहीं
मिलती। यह गीता की देन है-उसकी अपनी वस्तु है और यही गीता का योग है।
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