10.
शेष बातें
गीताधर्म
से
सम्बन्ध
रखने वाली सभी प्रमुख बातों पर जहाँ तक हो सका हमने अब तक प्रकाश डाला और
इस तरह गीतार्थ समझने का रास्ता बहुत कुछ साफ कर दिया। अब हमें समाप्त करने
के पहले कुछ और भी कह देना
हैं।
जो बातें हम अब कहेंगे उनका भी ताल्लुक गीताधर्म
से ही
हैं।
उनसे भी गीता का आशय समझने में बहुत कुछ सहायता मिलेगी;
हालाँकि ये बातें इतनी
महत्त्वपूर्ण
नहीं हैं जितनी अब तक लिखी गयी हैं। बात असल यह
हैं
कि केवल आशय समझना ही जरूरी नहीं होता। श्लोकों और पदों के अर्थों को
ठीक-ठीक हृदयंगम करना भी आवश्यक होता
हैं।
इसके बिना आशय आसानी ने समझ में आ नहीं सकता। कभी-कभी तो शब्दार्थ अच्छी
तरह जाने बिना आशय और भाषार्थ कतई समझ में आते ही नहीं। शब्दार्थ के सिवाय
भी कुछ बातें होती हैं जिनसे श्लोकार्थ और श्लोक का आशय समझने में आसानी हो
जाती
हैं।
उन बातों को जाने बिना बड़ी दिक्कत होती
हैं।
कभी-कभी तो चीज
उल्टे
समझी जाती
हैं।
एकाध
ऐसी भी बातें हैं जिनसे और कुछ न भी हो तो आशय की गम्भीरता जरूर मालूम पड़ती
हैं।
इसलिए उनका जानना भी जरूरी
हैं।
यही सब बातें लिख के और अन्त में दो-चार शब्दों में गीता-धर्म
का उपसंहार करके यह वक्तव्य पूरा करेंगे। इसीलिए इसमें
छोटी-मोटी-छुटी-छुटाई बातों का ही समावेश पाया
जायेगा।
उत्तरायण और दक्षिणायन
गीता के आठवें अध्याय
के
'यत्र
काले त्वनावृत्तिं'
आदि 23 से 27
तक के श्लोकों में
उत्तरायण
और दक्षिणायन या शुक्ल और कृष्ण मार्गों का वर्णन आता
हैं।
इसके बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं। पुराने टीकाकारों और
भाष्यकारों ने तो प्राय: एक ही ढंग से अर्थ किया
हैं।
हाँ,
शब्दों के अर्थों से किन चीजों का अभिप्राय
हैं
इसमें कुछ मतभेद उनमें भी पाया जाता
हैं।
उन्होने
इन दोनों मार्गों को देवयान और पितृयान (याण) भी कहा
हैं।
यान रास्ते को भी कहते हैं और सवारी या ले चलने वाले को भी। घोड़ा,
गाड़ी वगैरह यान कहे जाते हैं। मगर जो पथदर्शक हो वह भी
सवारी से कम काम नहीं करता। इसलिए उसे भी यान कहते हैं और वाहक भी। इन
मार्गों को अर्चिरादि मार्ग और धूमादि या धूम्रादि मार्ग भी कहा
हैं।
पहले में अग्नि से ही शुरू करते हैं। और उसके बाद ही तो ज्योति:,
अर्चि: या प्रकाश
हैं।
इसीलिए उसे अर्चिरादि कह दिया
हैं।
अग्नि ही यद्यपि शुरू में
हैं
और उसके बाद ही ज्योति: शब्द और कहीं-कहीं अर्चि:
शब्द आता
हैं;
मगर अग्न्यादि मार्ग न कह के अर्चिरादि इसलिए कहते हैं
कि अग्नि तो दोनों में
हैं।
उसके बाद ही रास्ते बदलते हैं। दूसरे में धूम से ही शुरू करने के कारण
धूमादि
नाम उसका पड़ा। इसी
धूम
को किसी-किसी ने
धूम्र
कहा
हैं।
धूम्र
के मानी हैं। मलिन या
अँधरे
वाला। इस मार्ग में प्रकाश नहीं होने से ही इसे
धूम्रादि
कह डाला। कुछ नये टीकाकारों ने यही कह के सन्तोष कर लिया कि हमें इन
श्लोकों का तात्पर्य समझ में नहीं आता। असल में पुराणों की तो बात ही जाने
दीजिए। छान्दोग्य और वृहदारण्यक उपनिषदों में भी जो इन दोनों मार्गों का
वर्णन
हैं
उस पर भी उन्हें या तो विश्वास नहीं
हैं,
या उसे भी वे एक पहेली ही मान के ऐसा कह देते हैं।
बेशक यह चीज पुरानी हैं यहाँ तक कि ऋग्वेद (10।88।15)
में भी इसका जिक्र हैं। यास्क के निरुक्त (14।9)
में भी यह बात पायी जाती हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में तो हुई। वेदान्त
दर्शन के चौथे पाद के दूसरे और तीसरे अधिकरणों में भी यह बात आयी हैं। इस
पर वाद-विवाद भी पाया जाता हैं। कौषीत की उपनिषद के पहले अध्याय के शुरू
के
2-3
आदि मन्त्रों में भी यह बात आयी हैं। वहाँ बहुत विस्तृत वर्णन हैं जो अन्य
उपनिषदों में नहीं हैं। वृहदारण्यक उपनिषद के पाँचवें अध्याय के दसवें
ब्राह्मण में थोड़ी सी और छठे अध्याय के दूसरे ब्राह्मण के कुल सोलह
मन्त्रों में यही बात आयी हैं। हालाँकि कौषीत की वाली कुछ ब्योरे की बातें
इसमें नहीं लिखी हैं;
फिर भी बहुत विस्तृत वर्णन हैं। छान्दोग्योपनिषद के पाँचवें अध्याय के तीन
से लेकर दस तक के आठ खण्डों में भी यह वर्णन पूरा-पूरा पाया जाता हैं। उसके
चौथे अध्याय के
15वें
खण्ड में भी यह बात आयी हैं। जब ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ से लेकर
महाभारत तक में यह चीज पायी जाती हैं तो मानना ही होगा कि उस समय इसका पूरा
प्रचार था। इस पर पूरा मनन,
विचार और अन्वेषण ही उस समय जारी था। इसीलिए इस प्रश्न का महत्त्व भी बहुत
ज्यादा था। यदि छान्दोग्य आदि उपनिषदों में इस विषय का निरूपण पढ़ें तो पता
लगता हैं कि आरुणि जैसे महान ऋषि को भी इसका पता न था। इसे वहाँ
पंचाग्नि-विद्या कहा हैं। साथ ही छान्दोग्योपनिषद में ही नक्षत्र विद्या
आदि कितनी ही विद्याएँ
(Science)
गिनाई हैं,
जिनका नाम भी हम नहीं जानते। छान्दोग्योपनिषद् के
सातवें अध्याय
के पहले और दूसरे खण्डों में नारद ने सनत्कुमार से कहा
हैं
कि ऋग्वेदादि चारों वेदों,
वेदों के वेद, पाँचवें
इतिहास- पुराण के सिवाय, अनेक विद्याओं के साथ
देवविद्या, ब्रह्मविद्या,
भूतविद्या, क्षेत्रविद्या,
नक्षत्रविद्या,
सर्पविद्या, जनविद्या और
देवविद्या जानता हूँ। ये विभिन्न वैज्ञानिक
अध्ययन
नहीं तो और क्या
हैं?
मगर अन्यान्य बातों में पतन के साथ ही इस बात में भी
हमारा पतन कुछ ऐसा भयंकर हो गया कि हम ये बातें पीछे चल के कतई भूल गये। आज
तो यह हालत
हैं
कि इन्हें हम केवल
धर्म;
बुद्धि
से ही मानते हैं,
सो भी इसीलिए कि हमारी पोथियों में लिखी हैं। मगर इनके
बारे में न तो सोच सकते और न कोई दार्शनिक युक्ति ही दे सकते हैं?
लेकिन यदि थोड़ा भी विचार किया जाये तो पता चलेगा कि इन बातों का उसी
कर्मवाद से ताल्लुक हैं जिसका निरूपण हम बहुत ही विस्तार के साथ पहले कर
चुके हैं। जब हमारे पुराने आचार्य,
ऋषिमुनि और दार्शनिक पुनर्जन्म को स्वीकार करने लगे तो उन्होने उसके मूल
में इस कर्मवाद को ही माना। सद्गति और दुर्गति या मनुष्य से लेकर कीट-पतंग
एवं वृक्षादि की योनियों में जाने और वैसा ही शरीर ग्रहण करने का कारण वह
कर्म को ही मानते थे। आज हम यहाँ मनुष्य शरीर में हैं। कुछ दिन बाद मर के
हजार कोस पर पशु या किसी और योनि में जायेंगे। सवाल होता हैं कि वहाँ हमें
कौन,
क्यों पहुँचायेगा और कैसे?
हमने यहाँ बुरा-भला कर्म किया। उसका फल हमें हजारों कोस पर कौन पहुँचायेगा?
जब व्यष्टि और समष्टि दोनों ही तरह के कर्मों से हमारे शरीर बनते या
बुरी-भली बातें होती हैं,
तो यहाँ के गैर के द्वारा किए गये कर्मों से हमारा शरीर कहीं दूर देश में
कैसे बनेगा कि हम उस गैर को वहीं उसी शरीर से सतायेंगे या आराम देंगे?
श्राद्ध,
यज्ञयागादि हमारे लिए कोई भी करे और उसका नतीजा हमें भी मिले-क्योंकि एक के
कर्म का फल दूसरे को भी मिलता ही हैं,
यह बता चुके हैं-इसकी व्यवस्था कैसे होती हैं?
किसी ने हमारे मरने पर पिण्डदान या तर्पण किया और हम बाघ या साँप की योनि
में जनम चुके हैं,
तो उस श्राद्ध या तर्पण का फल मांस या हवा आदि के रूप में हमें कौन
पहुँचायेगा?
बाघ को मांस ही चाहिए न?
भात या आटे का पिण्ड तो उसके किसी काम का नहीं। वह तो यहीं रह जाता हैं भी।
साँप को भी तो हवा चाहिए। ऐसी ही बातों पर सोच-विचार करके उन्होने कर्मवाद
की शरण ली। साथ ही सबकी व्यवस्था के लिए एक व्यापक चेतना शक्ति को मानकर
उसे ईश्वर नाम दिया। ईश्वर कहते हैं शासन करने वाले को।
इसी कर्मवाद के सिलसिले में यह उत्तरायण और दक्षिणायन वाली बात भी आ गयी।
हम तो कही चुके हैं कि हरेक पदार्थों से अनन्त परमाणु प्रत्येक क्षण में
निकलते ही रहते और उनकी जगह दूसरे आते रहते हैं। यह भी बात अच्छी तरह लिखी
गयी हैं कि ठीक समय पर ये परमाणु निकलते हैं,
इनके कोष
(Stock)
हजारों ढंग के बने होते हैं,
नये भी बनते जाते हैं, उनमें
से ही दूसरे परमाणुओं के चावल वगैरह में शामिल होते हैं और उनसे जो निकले
थे वे या तो पहले से बने परमाणु-कोष में जा मिलते हैं या उनसे नये कोष बनते
हैं। यह बात दिन-रात चालू
हैं।
हमारी बाहरी
आँखें
इसे नहीं देखती हैं सही मगर भीतरी
आँखें
मानने को मजबूर होती हैं। फिर भी यह सारी बातें कैसे हो रही हैं और इनकी
क्या व्यवस्था
हैं,
हम नहीं जानते। ब्योरे की बातें हमारी शक्ति के बाहर की
हैं। नहीं तो फिर ईश्वर की जरूरत ही क्यों हो?
तब हमीं ईश्वर नहीं बन जाते? हम भीतर की
धुँधली
आँखों
से इन बातों को मोटा-मोटी देखते हैं। क्योंकि इनके बिना काम चलता नहीं
दीखता,
अक्ल रुक जाती
हैं,
आगे बढ़ पाती नहीं और कुण्ठित हो जाती
हैं।
जो नये परमाणु आते हैं वह ऊपर ही ऊपर गर्द-गुब्बार की तरह नहीं चिपकते। वे
तो चावलों के भीतर घुस जाते,
उनमें प्रविष्ट हो जाते। उनके यंग-प्रत्यंग बन जाते
हैं!
जिस प्रकार ये बातें भौतिक पदार्थों के बारे में उन्होने इस भौतिक
विज्ञान-युग के आने के बहुत पहले मान ली थीं,
देख ली थीं,
हम यह पहले ही कह भी चुके हैं,
ठीक उसी प्रकार कर्म और आत्मा के बारे में भी उन्होने-उनकी सूक्ष्म आँखों
ने-कुछ बातें देखीं,
कुछ सिद्धान्त स्वीकार किये। आत्मा या आत्मा के साथ ही चलने वाले सूक्ष्म
शरीर के आने-जाने के बारे में भी उन्होने कुछ बातें तय की थीं। गीता ने
'ममैवांशो
जीवलोके'
आदि (15।7-11)
श्लोकों में जीवात्मा के आने-जाने का जो वर्णन करते हुए कहा हैं कि वह मन
आदि इन्द्रियों को साथ ले के जाती हैं वह उनकी यही कल्पना हैं। मन आदि
इन्द्रियों से मतलब वहाँ उस सूक्ष्म शरीर से ही हैं,
जिसमें पूर्वोक्त पाँच कर्मेन्द्रिय,
पाँच ज्ञानेन्द्रिय,
पाँच प्राण और मन एवं बुद्धि यही सत्रह पदार्थ पाये जाते हैं-वह शरीर
इन्हीं सत्रहों से बना हैं। मरने के समय वही निकल जाता हैं स्थूल शरीर से,
और जन्म लेने में वही पुनरपि आ घुसता हैं। उसी के साथ आत्मा का आना-जाना
हैं। खुद तो आ जा सकती नहीं। आईने के साथ जैसे किसी चीज का प्रतिबिम्ब चलता
हैं वैसे ही सूक्ष्म शरीर के साथ आत्मा का प्रतिबिम्ब चलता हैं। आत्मा
स्वयं तो सर्वत्र व्यापक हैं। वह कैसे आयेगी?
प्राणों का काम हैं घोड़े की तरह खींचना। उनमें क्रिया जो हैं। बुद्धि आईना
हैं। उसी में आत्मा का प्रतिबिम्ब हैं। वही अँधरे में रास्ता दिखाती हैं।
यहाँ सवाल यह होता हैं कि सूक्ष्म शरीर का यह आना-जाना कैसे होता हैं?
यह किस रास्ते से,
किस सवारी या पथदर्शक की मदद से ठीक रास्ते पर जाता हैं और चौराहे पर नहीं
भटकता?
रास्ते में पड़ाव हैं या नहीं। पथदर्शक
(guide)
भी तो अनेक होंगे। क्योंकि एक ही कहाँ तक ले
जायेगा?
और यदि एक ही जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर को ले जाना हो
तो यह भी हो। मगर यहाँ तो हजारों हैं, लाखों हैं,
अनन्त हैं। रोज ही लाखों प्राणी मरते हैं। फलत: रास्ते
में भीड़ तो होगी ही। इसीलिए कुछ दूर बाद ही एक पथदर्शक अपनी थाती
(charge)
को दूसरे के जिम्मे लगा के फौरन लौट आता होगा। फिर दूसरे को ले चलता होगा।
इस प्रकार सबकी डयूटी बँटी होगी,
बँधी
होगी। कितनी दूर से कितनी दूर तक हरेक का चार्ज रहेगा यह भी निश्चित होगा,
निश्चित होना ही चाहिए। जैसा यहाँ भौतिक दुनिया में हो
रहा
हैं
उसी के अनुसार ही उस दुनिया में भी,
जिसे
आध्यात्मिक
या परलोक की दुनिया कहते हैं,
उन्होने
सोच निकाला होगा। दूसरा करते भी क्या?
दूसरा तो रास्ता
हैं
नहीं,
उपाय
हैं
नहीं। यही
हैं उत्तरायण
और दक्षिणायन मार्ग के मानने की दार्शनिक बुनियाद। यही
हैं
उसका मूल सिद्धान्त।
मरने के बाद शरीर को तो जलाई देते थे। कम से कम अग्नि संस्कार करते थे। यह
भी कहा जाता हैं कि जलाने या अग्नि संस्कार के ही समय समान नामक प्राण इस
शरीर से निकलता हैं। तब तक चिपका रह जाता हैं। यह ख्याल अत्यन्त पुराना
हैं। इसीलिए मृतक का जलाना और अग्नि संस्कार हिन्दुओं के यहाँ जरूरी माना
गया हैं। यही कारण हैं कि जो लोग किसी वजह से मृतक को जला नहीं सकते वह भी
अग्नि संस्कार अवश्य करते हैं। जलाने से बिगड़ते-बिगड़ते यह बात हो गयी! मगर
इससे यह स्पष्ट हो जाता हैं कि जलाने के बाद ही जीवात्मा की अन्तिम विदाई
यहाँ से होती हैं,
ऐसी ही मान्यता थी। यही कारण हैं कि गीता (8।24)
में अग्नि से ही शुरू किया हैं-उत्तरायण मार्ग को लिखते हुए अग्नि से ही
शुरू किया हैं। हालाँकि जब इस मार्ग को ज्योतिरादि या अर्चिरादि कहते हैं
तब तो अग्नि के बाद जो ज्योति: शब्द आया हैं उसे ही शुरू में आना चाहिए था।
इसीलिए अगले श्लोक में धूम से ही शुरू किया हैं। मगर अग्नि देने का
अभिप्राय यही हैं कि अग्नि से सम्बन्ध तो सभी का होता हैं। उसके बाद ही दो
रास्ते अग्नि को ज्वाला और उसके धूम से शुरू हो जाते हैं। यही वजह हैं कि
अगले श्लोक में अग्नि शब्द की जरूरत न समझी गयी। उसका काम तो पहले ही श्लोक
से चल जाता हैं। उस एक ही अग्नि शब्द से और दोनों मार्गों के ज्योतिरादि
एवं धूमादि नाम होने से ही लोग यह आसानी से समझ जायेंगे कि अग्नि में जलाने
के बाद ही ज्योति और धूम से सम्बन्ध होगा,
न कि पहले।
''यत्रकाले
त्वनावृत्तिं''
(8।23)
में काल का उल्लेख हैं। उससे यह भी पता चलता हैं कि दोनों मार्गों में काल
ही की बात आती हैं। लेकिन यहाँ तो शुरू में अर्चि और धूम ही आये हैं। उनके
बाद अह:,
रात्रि,
कृष्णपक्ष,
शुक्ल,
उत्तरायण के छ: महीने और दक्षिणायन के छ: महीने जरूर आये हैं,
ये काल या समय के ही वाचक हैं भी। लेकिन आगे के श्लोकों में
'गती'
और
'सृती'
शब्द मार्ग या रास्ते के ही मानी में आये हैं। इसलिए छान्दोग्य,
वृहदारण्यक तथा निरुक्त आदि में भी उत्तरायण में आदित्य,
चन्द्र विद्युत और मानस या अमानव आदि का तथा दक्षिणायन में पितृलोक,
आकाश,
चन्द्रमा आदि का भी जिक्र हैं इसलिए भी बहुतों का ख्याल हैं कि यहाँ काल या
समय की बात न हो के कुछ और ही हैं। इसके विपरीत महाभारत के भीष्मपर्व (120)
और अनुशासनपर्व (167)
से पता चलता हैं कि आहत होने के बाद भीष्म बाण-शैया पर पड़े-पड़े उत्तरायणकाल
को देख रहे थे कि जब सूर्य उत्तरायण हो तो शरीर छोड़ें। इसीलिए जब तक
दक्षिणायन रहा वह प्राणत्याग न करके लोगों को उपदेश देते रहे। इससे तो काल
की ही महत्व उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गों में प्रतीत होती हैं। गीता ने
शुरू में काल ही नाम इन दोनों को दिया भी हैं।
इस उलझन को सुलझाने के लिए शंकर ने कहा हैं कि प्रधानता तो काल की ही हैं।
इसलिए दूसरों के आ जाने पर भी काल ही कहा गया हैं। क्योंकि जिस वन में
ज्यादा आम हों उसे आम्रवन और जहाँ ब्राह्मण ज्यादा हों उसे ब्राह्मणों का
गाँव कहते हैं-'भूयसांतुनिर्देशो
यत्रकाले तं कालमित्याम्रवणवत्।'
कुछ लोगों ने इससे यह भी अर्थ लगाया हैं कि जब किसी समय में वैदिक ऋषियों
का निवास उत्तर ध्रुव के पास था,
जहाँ छ: मास के दिन-रात होते हैं,
उसी समय उत्तरायण का समय मृत्यु के लिए प्रशस्त माना गया। वही बात पीछे भी
चल पड़ी। इसलिए शंकर आदि ने जो ज्योति:,
अह: आदि शब्दों से तत्सम्बन्धी देवताओं को माना हैं उस पर उन्होने आक्षेप
भी किया हैं,
हालाँकि काल तो शंकर ने साफ ही स्वीकार किया हैं। हमारे जानते तो शंकर का
लिखना सही हैं। इसकी सुलझन भी हमें थोड़ा विचार करने से मिल जाती हैं। हमें
इस बात के विवाद में नहीं पड़ना हैं कि उत्तर ध्रुव के पास कभी आर्य लोग या
वैदिक ऋषि थे या नहीं। सम्भव हैं,
वे रहे भी हों! मगर यहाँ वह बात नहीं हैं,
हमारा यही ख्याल हैं।
असल में एक बात सोचने की यह हैं कि प्रत्येक पदार्थ के परिपक्व होने में
सबसे बड़ा हाथ काल या समय का ही होता हैं यह तो मानना ही होगा। कम-बेश समय
के चलते ही चीजें पक्व तथा अपक्व होती हैं। यह ठीक हैं कि युक्ति से हम समय
में कमी-बेशी कर दे सकते हैं। मगर समय की अपेक्षा तो फिर भी रहती ही हैं।
काल और दिशा को जो प्राचीन दार्शनिकों ने माना वह इसी जरूरत को पूरा करने
के लिए। काल और दिशा में कोई बुनियादी फर्क नहीं हैं। दोनों एक जैसे ही
हैं। और एक दूसरे के सहायक हैं। इसीलिए वस्तुगत्या एक ही हैं। हम देखते हैं
कि पदार्थों में परमाणुओं का आना या वहाँ से जाना भी समय की अपेक्षा करता
हैं। कैसा परमाणु कब निकले या आये यह बात भी काल की अपेक्षा रखती हैं। यहाँ
उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गों में क्रमश: उपासना या अपरिपक्व ज्ञान तथा
कर्म के परिपाक की ही जरूरत हैं भी;
ताकि आगे वे अपना परिणाम या फल दिखला सकें। इसीलिए जो भी परिणाम होने वाला
हो उससे पहले एक लम्बा या विस्तृत काल होगा ही,
फिर वह लम्बाई चाहे बहुत ज्यादा हो या अपेक्षाकृत कम हो। ऋषियों ने उसी काल
की कल्पना करके उसके विभाग वैसे ही किए जैसे हमने यहाँ कर रखे हैं-जैसे
यहाँ पाये जाते हैं। इस विभाग के बाद जब ज्यादा लम्बा काल आ गया तो उसे
हमारी अपनी तराजू से नाप-जोख और बँटवारा न करके दिव्य या देवताओं की तराजू
से ही बँटवारा किया। आखिर हमारी नन्ही तराजू से कब तक बाँटते रहते?
यही रहस्य हैं दैवी या दिव्य वर्ष मानने का जिसमें हमारे छ: महीने का दिन
और उतने की ही रात मानी गयी। यह तो मामूली दिव्यतराजू हुई। मगर इससे भी
लम्बी हैं आखिरी तराजू,
जिसे हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा की तराजू कहते हैं। इसमें हमारे हजार युगों के
दिन-रात माने जाते हैं। यही बात गीता ने इस उत्तरायण-दक्षिणायन-विवेचन के
पहले उसी अध्याय में
'सहस्रयुगपर्यन्तं'
(8।17-19)
श्लोकों में लिखी हैं। उसका भी इसी से ताल्लुक सिद्ध हो जाता हैं। क्योंकि
उसी के बाद उत्तरायण आदि की बात पायी जाती हैं।
भीष्म की उत्तरायणवाली प्रतीक्षा भी इसी बात को पुष्ट करती हैं। जब उपासना
या कर्म के परिपक्व होने में समय सहायक हैं तो उत्तरायण काल क्यों न होगा?
वह तो थे उपासक। इसलिए उन्हें जाना था उसी मार्ग से। उसमें जो परिपाक होने
में देर होती और इस तरह उनका वह उपासना रूप ज्ञान देर से पकता,
उसी की आसानी के लिए उन्होने उत्तरायण की प्रतीक्षा की। यह आमतौर से देखा
जाता हैं कि लोग रात में ही मरते हैं। आम लोग वैसे ही होते हैं। उन्हें
ज्ञान से ताल्लुक होता ही नहीं। इसीलिए उनका रास्ता अँधरे का ही होता हैं।
दक्षिणायन कुछ ऐसा ही हैं भी। वहाँ धूम,
रात वगैरह सभी वैसे ही हैं। यह ठीक हैं कि बड़े-बड़े कर्मी लोगों के बारे में
ही दक्षिणायन मार्ग लिखा हैं। जो ऐसे उपासक,
ज्ञानी या कर्मी नहीं हैं उनके बारे में छान्दोग्य के
'अथैतयो:
पथोर्न'
(5।10।8)
में यह मार्ग नहीं लिखा हैं। लेकिन इसका इतना ही अर्थ हैं कि ऐसे लोग
स्वर्ग या दिव्यलोक में नहीं जा के बीच से ही अपना दूसरा मार्ग पकड़ लेते
हैं। क्योंकि मरने पर आखिर ये भी तो दूसरे शरीर धारण करेंगे ही और उन शरीर
में इन्हें पहुँचाने का रास्ता तो वही हैं। दूसरा तो सम्भव नहीं। यह ठीक
हैं कि उत्तरायण और दक्षिणायन शुरू में ही अलग होने पर भी संवत्सर में जा
के फिर मिल जाते हैं। मगर तीसरे दलवाले जनसाधारण के मार्ग को वहाँ मिलने
नहीं दिया जाता। साथ ही दक्षिणायन वाले संवत्सर या साल के छ: महीनों के बाद
पितृलोक में सीधे जाते हैं और इस प्रकार ऊपर जा के दो रास्ते साफ हो जाते
हैं। जैसा कि छान्दोग्य (5।10।3)
से स्पष्ट हैं। वैसे ही कर्मी लोगों के रास्ते से भी कुछी दूर जा के
जनसाधारण अपना दूसरा रास्ता पकड़ लेते हैं। उत्तरायण वाले ब्रह्मलोक जाते
हैं। दक्षिणायन वाले स्वर्ग जाते हैं। शेष लोग दोनों में कहीं न जा के
मरते-जीते रहते हैं। यही तो वहाँ साफ लिखा हैं। स्वर्ग से लौटते हुए
चन्द्रलोक में आ के आकाश में आते और वायु आदि के जरिये मेघ में प्रविष्ट हो
के उन अन्नों में जा पहुँचते हैं जिन्हें उनके भावी माता-पिता खायेंगे।
पानी से तो अन्न होता ही हैं। गीता ने भी यह कही दिया हैं। इसीलिए वृष्टि
के द्वारा अन्न में जाते हैं। यही बात छान्दोग्य (5।10।5-6)
में पायी जाती हैं। पाँच आहुतियों के रूप में इसी का विस्तार इसी से पहले
के
4
से
9
तक के खण्डों में किया गया हैं। मगर साधारण लोग आकाश के बाद चन्द्रमा होते
स्वर्ग में नहीं जाते;
किन्तु वहीं से वायु में हो के वृष्टि के क्रम से अन्न में आ जाते हैं। बस,
यही फर्क हैं।
अत: कुछ इस तरह का सम्बन्ध इस रात की मौत से मालूम होता हैं कि वह साधारणत:
दक्षिणायन मार्ग और उस अँधरे रास्ते से ही जुटी हैं-रात्रि की मौत का
दक्षिणायन या अर्ध्द दक्षिणायन वाले अँधरे रास्ते से ही सम्बन्ध आमतौर से
हैं। इसमें केवल अपवाद ही होता हैं-हो सकता हैं। यह बात अस्वाभाविक या
आकस्मिक मृत्यु वगैरह में ही पायी जाती हैं जो दिन में होती हैं। कम से कम
यही ख्याल उस समय के दार्शनिकों और विवेकियों का था। इसीलिए भीष्म ने दिन
और उत्तरायण की मौत को ही पसन्द किया। इसीलिए उत्तरायण की प्रतीक्षा करते
रहे। उन्होने और दूसरे लोगों ने माना कि इस तरह उनके ब्रह्मलोक पहुँचने या
उपासना के परिपक्व होने में आसानी होगी। हमारे जानते यही तात्पर्य इस समस्त
वृत्तान्त और वर्णन का हैं। इसमें सबका समावेश भी हो जाता हैं। मार्ग या
रास्ता कहने से तो कोई अन्तर आता नहीं हैं। मार्ग तो वह हुई। आखिर जमीन का
रास्ता तो वहाँ हैं नहीं। वह तो दिशा तथा समय का ही हैं। ऊँचे,
नीचे,
पूर्व,
पच्छिम कहीं भी जाना हो उसका काल से सम्बन्ध हुई और पूर्व आदि दिशा को काल
से जुदा मानते भी नहीं यह कही चुके हैं।
उत्तरायण प्रकाशमय हैं और दक्षिणायन अँधेरा। इसीलिए पथपदर्शकों के नाम भी
दोनों में ऐसे ही हैं। मालूम होता हैं,
जैसे चावल के परमाणु निकलने के रास्ते और साधन हैं जिन्हें हम देख न सकने
पर भी मानते हैं,
नहीं तो व्यवस्था न हो के गड़बड़ी हो जाती;
वैसे ही शरीरदाह के बाद उत्तरायण मार्ग में चिताग्नि की ज्योति और
दक्षिणायन में उसका धुआँ मृतात्मा की सूक्ष्म देह को ले चलने का श्रीगणेश
करते हैं। कम से कम प्राचीनों ने यही कल्पना की थी कि सूक्ष्म शरीर को यही
दोनों यहाँ से उठाते और ले चलते हैं। आगे दिन और रात को सौंप देते हैं। वह
शुक्ल और कृष्णपक्ष को। यही क्रम चलता हैं। ज्योति,
धूम आदि को देवता तो इसीलिए कहा कि इनमें वह अलौकिक-दिव्य-ताकत हैं जो हम
औरों में नहीं पाते। सूक्ष्म शरीर को ले जाना और पहुँचाना असाधारण या
अलौकिक काम तो हुई। वैदिक यज्ञयागादि कर्मों का ज्ञान या विवेक से ताल्लुक
हैं नहीं यह तो गीता ने
'यामिमां'
(2।42-46)
आदि में कहा ही हैं और उन्हीं का फल हैं यह दक्षिणायन। इसीलिए यहाँ प्रकाश
नहीं हैं। जैसे का तैसा फल हैं। उधर उपासना कहते हैं अपूर्ण ज्ञान की
अवस्था को ही। इसलिए उसमें प्रकाश तो हुई । यही बात उत्तरायण में भी हैं।
ज्ञान के अपूर्ण होने के कारण ही मृतात्मा की,
ब्रह्मलोक में पहुँचने के उपरान्त समय पाके ज्ञान पूर्ण होने पर,
ब्रह्मा के साथ ही मुक्ति मानी गयी हैं। इसी को क्रम मुक्ति भी कहते हैं।
जैसे जनसाधारण के लिए इन दोनों की अपेक्षा जीने-मरने का एक तीसरा ही रास्ता
कहा गया हैं;
उसी तरह अद्वैत तत्त्व के ज्ञानवाले का चौथा हैं। वह तो कहीं जाता हैं न
आता हैं। उसके प्राण यहीं विलीन हो जाते और वह यहीं मुक्त हो जाता हैं।
गीता ने एक ओर तो यह चीज कही हैं। दूसरी ओर
'त्रौविद्या
मां'
(9।20-21)
में अस्थायी स्वर्ग सुख का भी वर्णन किया हैं। उसे भी कर्म-फल ही बताया
हैं। वह यही दक्षिणायन वाली ही चीज हैं। यों तो ब्रह्मज्ञान और आत्मानन्द
का गीता में सारा वर्णन ही हैं। स्थित प्रज्ञ,
भक्त और गुणातीत की दशा उसी आत्मज्ञान और ब्रह्मानन्द की ही तो हैं। सवाल
होता हैं कि स्वर्ग और ब्रह्मानन्द के अलावे उत्तरायण-दक्षिणायन के पृथक
वर्णन की क्या जरूरत थी?
इससे व्यावहारिक लाभ हैं क्या?
गीता तो अत्यन्त व्यावहारिक
(Practical)
हैं।
इसीलिए यह प्रश्न होता
हैं।
असल में कर्मों के सिलसिले में कर्मवाद की बात आते-आते यह भी आनी जरूरी थी।
इससे साधारण कर्मों की तुच्छता,
अपूर्ण ज्ञान की त्रुटि एवं पूर्ण तत्त्वज्ञान की महत्व सिद्ध हो जाती हैं।
स्वर्ग के वर्णन में केवल स्वर्ग की बात और उसकी अस्थिरता आती हैं। मगर
ब्रह्मलोक की तो आती नहीं। एक बात और हैं। उपनिषदों में दक्षिणायन के वर्णन
में कहा गया हैं कि चन्द्रलोक में जा के जीवगण देवताओं के अन्न या भोग्य बन
जाते हैं। देवता उन्हें भोगते हैं। देवता का अर्थ हैं दिव्यशक्तियाँ। वहाँ
भी गुलामी ही रहती हैं। दिव्यशक्तियाँ जीव से ऊपर रहती हैं। फिर वह वहाँ से
नीचे गिरता हैं। इसीलिए उसे यह ख्याल स्वभावत: होगा कि हम ऐसा क्यों न करें
कि कम से कम ब्रह्मलोक जायें,
जहाँ कोई देवता हम पर न रहेगा;
या आत्मज्ञान ही क्यों न प्राप्त कर लें कि सभी आने-जाने के झमेलों से बचें
और खुद देवता बन जायें। क्योंकि नौ,
दस,
ग्यारह अध्यायों में तो सभी देवताओं को परमात्मा का अंश या उसकी विभूति ही
कहा हैं और ज्ञानी स्वयं परमात्मा बन जाता ही हैं-वह खुद परमात्मा हैं। बस,
इससे अधिक लिखने का यहाँ मौका नहीं हैं।
(शीर्ष पर वापस)
गीता की अध्याय-संगति
गीता का अर्थ समझने में एक जरूरी बात यह
हैं
कि हम उसमें प्रतिपादित विषयों को ठीक-ठीक समझें और उनका क्रम जानें। इसी
का
सम्बन्ध
ज्ञान और विज्ञान से
हैं
जिसका उल्लेख गीता (7।2-9।1)
में दो बार स्पष्ट आया
हैं।
इस दृष्टि से हम गीता के
अध्यायों
को देखें तो ठीक हो।
पहला अध्याय तो भूमिका या उपोद्धात ही हैं। वह गीताउपदेश का प्रसंग तैयार
करता हैं जो अर्जुन के विषाद के ही रूप में हैं। यही सबसे उत्तम भूमिका हैं
भी। इसके करते जितना सुन्दर प्रसंग तैयार हुआ हैं उतना और तरह से शायद ही
होता।
दूसरे अध्याय का विषय हैं ज्ञान या सांख्य। इसमें उसी की मुख्यता हैं।
तीसरे में कर्म का सवाल उठा के उसी पर विचार और उसी का विवेचन होने के कारण
वही उसका विषय हैं।
चौथे में ज्ञान का कर्मों के संन्यास से क्या ताल्लुक हैं। यही बात आयी
हैं। इसीलिए उसका विषय ज्ञान और कर्म-संन्यास हैं।
स्वभावत:,
जैसे दूसरे अध्याय में ज्ञान के प्रसंग से कर्म के आ जाने के कारण ही
तीसरे में उसका विवेचन हुआ हैं,
उसी तरह चौथे में संन्यास के आ जाने से पाँचवें में उसी का विवेचन हैं,
वही उसका मुख्य विषय हैं।
छठे में अभ्यास या ध्यान का विवरण हैं। यह ज्ञान के लिए अनिवार्य रूप से
आवश्यक हैं। इसे ही पातंजल योग भी कहते हैं। चौथे के ज्ञान और कर्म-संन्यास
के मेल को ही ब्रह्मयज्ञ भी कहा हैं और वही उसका मुख्य अर्थ शंकर ने लिखा
हैं। ठीक ही हैं। पाँचवें के मुख्य विषय-संन्यास-को
उन्होने प्रकृतिगर्भ नाम दिया हैं। बाहरी झमेलों से पिण्ड छुड़ा के किस
प्रकार प्राकृतिक रूप में ब्रह्मानन्द में मस्त हो जाते हैं यही बात उसमें
सुन्दर ढंग से लिखी हैं। संन्यासी के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों में
लिखा भी हैं कि वह जैसे माता के गर्भ से बाहर आने के समय था वैसा ही रहे-'यथाजातरूपधार:।'
इसलिए इस संन्यास को प्रकृतिगर्भ कहना सर्वथा युक्त हैं।
इस प्रकार छठे अध्याय तक जो बातें लिखी गयी हैं उनके अलावे और कोई नवीन
विषय तो रह जाता ही नहीं। यही बातें आवश्यक थीं। इन्हीं से काम भी चल जाता
हैं। शेष बात तो कोई ऐसी आवश्यक बच जाती हैं नहीं,
जो गीता-धर्म के लिए जरूरी हो और इसीलिए जिसका स्वतन्त्र रूप से विवेचन
आवश्यक हो जाये। हाँ,
यह हो सकता हैं कि जिन विषयों का निरूपण अब तक हो चुका हैं उनकी गम्भीरता
और अहमियत का ख्याल करके उन्हीं पर प्रकारान्तर से प्रकाश डाला जाये।
उन्हें इस प्रकार बताया जाये,
दिखाया जाये कि वे हृदयंगम हो जाये। इस जरूरत से इन्कार किया जा सकता नहीं।
गीता ने भी ऐसा ही समझ के शेष बारह अध्यायों में यही काम किया हैं।
अठारहवें अध्याय में इसके सिवाय सभी बातों का उपसंहार भी कर दिया हैं।
इसीलिए सातवें अध्याय में कोई नया विषय न दे के ज्ञान और विज्ञान की ही
बातें कही गयी हैं। मगर कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि यह बात केवल सातवें
अध्याय का ही प्रतिपाद्य विषय हैं,
इसीलिए नवें अध्याय के शुरू में ही पुनरपि उसी का उल्लेख कर दिया हैं।
यहाँ पर ज्ञान और विज्ञान का मतलब समझ लेने पर आगे बढ़ने में आसानी होगी।
पढ़-सुन के या देखके किसी बात की साधारण जानकारी को ही ज्ञान कहते हैं।
विज्ञान उसी बात की विशेष जानकारी का नाम हैं। इसके दो भाग किए जा सकते
हैं। एक तो यह कि किसी बात के सामान्य
(General)
निरूपण,
जिससे सामान्य ज्ञान हो
जाये,
के बाद उसका पुनरपि ब्योरेवार
(Detailed)
निरूपण हो
जाये।
इससे पहले की अपेक्षा ज्यादा जानकारी उसी चीज की जरूर होती
हैं।
दूसरा यह कि जिस ब्योरे का निरूपण किया गया हो उसी को प्रयोग
(experiment)
करके साफ-साफ दिखा-सुना दिया
जाये।
इस प्रकार अपनी
आँखों
देख लेने,
छू लेने या सुन लेने पर पूरी-पूरी जानकारी हो जाती
हैं,
जिससे वह बात दिल-दिमाग में अच्छी तरह बैठ जाती
हैं।
हमने किसी को कह दिया,
उसने सुन लिया या कहीं पढ़ लिया कि सूत से कपड़ा तैयार
होता
हैं।
इस तरह जो उसे जानकारी हुई वही ज्ञान
हैं।
उसके बाद सामने कपड़ा रख के उसके सूतों को दिखला दिया,
तो उसको विज्ञान हुआ-विशेष जानकारी हुई। मगर सूत का
तानाबाना करके उसके सामने ही यदि कपड़ा बुन दिया तो यह
भी विज्ञान हुआ और इसके चलते उसके दिल-दिमाग में यही बात पक्की तौर से
जमजातीहैं।
गीता में भी शुरू के छ: अघ्यायों में जिन बातों का निरूपण हुआ हैं। वह तो
ज्ञान हुआ मगर उन बातों के प्रकारान्तर से निरूपण करने के साथ ही सातवें
में सृष्टि के कारणों आदि का विशेष विवरण दिया हैं।
आठवें में अधिभूत आदि के निरूपण के साथ ही उत्तरायण आदि का विशेष वर्णन
किया हैं।
नवें में फिर प्रकृति से सृष्टि और प्रलय के निरूपण के साथ क्रतु,
यज्ञ,
मन्त्र आदि के रूप में इस सृष्टि को भगवान का ही रूप कहा हैं।
दसवें में इसी बात का विशेष ब्योरा दिया हैं कि सृष्टि की कौन-कौन सी चीजें
खासतौर से भगवान के स्वरूप में आ जाती हैं।
इस तरह जिस तत्त्वज्ञान की बात दूसरे अध्याय से शुरू हुई उसी को पुष्ट
करने के लिए इन चारों अध्यायों में विभिन्न ढंग से बातें कही गयी हैं।
सृष्टि के महत्त्वपूर्ण पदार्थों की ओर तो लोगों का ध्यान खामख्वाह ज्यादा
आकृष्ट होता हैं खुद-ब-खुद। अब यदि उन पदार्थों को भगवान का ही रूप या
उन्हीं से साक्षात बने हुए बताया जाये तो और भी ज्यादा ध्यान उधर जाता
हैं। हम तो कही चुके हैं कि आत्मा,
परमात्मा और पिण्ड,
ब्रह्माण्ड इन चारों में एक ही बुद्धि-सम बुद्धि ही-तत्त्वज्ञान हैं। इस
निरूपण से उसी ज्ञान में मदद मिलती हैं। इस प्रकार ब्योरेवार निरूपण के
द्वारा विज्ञान में ही ये चारों अध्याय मदद करते हैं। सातवें का विषय जो
ज्ञान-विज्ञान कहा हैं वह तो कोई नई चीज हैं नहीं। इसमें ज्ञान या विज्ञान
का स्वरूप बताया गया हैं नहीं कि वही इसका विषय हो। सिर्फ पहले के ही ज्ञान
की पुष्टि की गयी हैं। इसी प्रकार नवें का विषय राजविद्या-राजगुह्य लिखा
हैं। मगर उसके दूसरे ही श्लोक में ज्ञान-विज्ञान का ही नाम
राजविद्या-राजगुह्य कहा गया हैं। इसलिए यह भी कोई नई चीज हैं नहीं। आठवें
का विषय जो तारक ब्रह्म या अक्षरब्रह्म हैं वह भी कोई नई चीज नहीं हैं।
अविनाशी ब्रह्म या आत्मा के ही ज्ञान से लोग तर जाते हैं-मुक्त होते हैं और
उसका प्रतिपादन पहले हो ही चुका हैं। ओंकार को भी इसीलिए अक्षर या तारक
कहते हैं कि ब्रह्म का ही वह प्रतीक हैं,
प्रतिपादक हैं। दसवें को तो विभूति का अध्याय कहा ही हैं और विभूति हैं
वही भगवान का विस्तार। इसलिए यह भी कोई स्वतन्त्र विषय नहीं हैं।
इस प्रकार ब्योरे के प्रतिपादन के बाद पूरी तौर से दिमाग में बैठाने के लिए
प्रत्यक्ष ही उसी चीज को दिखाना जरूरी होता हैं और ग्यारहवें अध्याय में
यही बात की गयी हैं। भगवान ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी हैं और उसने देखा
हैं कि भगवान से ही सारी सृष्टि कैसे बनती और उसी में फिर लीन हो जाती हैं।
यदि प्रयोगशाला में कोई अजनबी भी जाये तो यन्त्रों तथा विज्ञान के बल से
उसे अजीब चीजें दीखती हैं जो दिमाग से पहले नहीं आती थीं। कहना चाहिए कि
उसे भी दिव्य-दृष्टि ही मिली हैं। दिव्य-दृष्टि के सींग पूँछें तो होती
नहीं। जिससे आश्चर्यजनक चीजें दीखें और बातें मालूम हों वही दिव्य-दृष्टि
हैं। इसलिए
11वें
में विज्ञान की ही प्रक्रिया हैं।
ग्यारहवें अध्याय के अन्त में जिस साकार भगवान की बात आ गयी हैं उसकी और
उसी के साथ निराकार की भी जानकारी का मुकाबिला ही बारहवें अध्याय में हैं।
यदि उससे अन्तवाले भक्तनिरूपण को चौदहवें के अन्त के गुणातीत तथा दूसरे के
अन्त के स्थितप्रज्ञ के निरूपण से मिलाएँ तो पता चलेगा कि तीनों एक ही हैं।
इसी से मालूम होता हैं कि बारहवें की भक्ति तत्त्वज्ञान ही हैं जो पहले ही
आ गया हैं यहाँ सिर्फ ब्योरा हैं उसी की प्राप्ति के उपाय का।
तेरहवें में क्षेत्रक्षेत्रज्ञ का निरूपण भी वही विज्ञान की बात हैं।
चौदहवें का गुणनिरूपण सृष्टि के खास पहलू का ही दार्शनिक ब्योरा हैं।
पन्द्रहवें में पुरुषोत्ताम या भगवान और जन्ममरणादि की बातें,
सोलहवें में आसुर सम्पत्ति की बात और सत्रहवें की श्रद्धा विज्ञान से
घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं।
इसमें तथा अठारहवें में गुणों के हिसाब से पदार्थों का विवेचन गुण-विभाग
में ही आ जाता हैं। अन्त में और शुरू में भी अठारहवें में कर्म,
त्याग आदि का ही उपसंहार एवं संन्यास की बात हैं जो पहले आ चुकी हैं।
ध्यानयोग भी पहले आया ही हैं। उसी का यहाँ उपसंहार हैं।
(शीर्ष पर वापस)
योग और योगशास्त्र
गीता के योग शब्द को लेके कुछ लोगों ने जानें क्या-क्या उड़ानें मारी हैं और
गीता का अर्थ ही संन्यास-विरोधी
योग उसी के बल पर कर लिया
हैं।
इतना ही नहीं। ज्ञानमार्ग के टीकाकारों और शंकर वगैरह पर
उन्होने
काफी ताने-तिश्ने भी कसे हैं और खण्डन-मण्डन भी किया
हैं।
उन्होने
इस योग,
हर अध्याय
के अन्त के समाप्ति सूचक
'इतिश्री' आदि वचनों में
'योगशास्त्रो' तथा
'भगवद्गीतासु' शब्दों
को बार-बार देख के यही निश्चय किया
हैं
कि एक तो गीता में केवल
प्रवृत्ति
रूप योग या संन्यास-विरोधी
कर्म का ही निरूपण
हैं-यह
उसी का
शास्त्र हैं;
दूसरे यह योग भागवत या महाभारत वाला भागवत
धर्म
या नारायणीय
धर्म
ही
हैं।
उन्होंने उसे ही गीता का प्रतिपाद्य विषय माना
हैं।
इसीलिए जरूरत हो जाती
हैं
कि इन बातों पर भी चलते-चलाते थोड़ा प्रकाश डाल दिया
जाये।
हम कुछ भी कहने के पहले साफ कह देना चाहते हैं कि गीता का विषय न तो
भागवतधर्म हैं और न कुछ दूसरा ही। उसका तो अपना ही गीताधर्म हैं जो और कहीं
नहीं पाया जाता हैं। यही तो गीता की खूबी हैं और इसीलिए उसकी सर्वमान्यता
हैं। दूसरों की नकल करने में उसकी इतनी कद्र,
इतनी प्रतिष्ठा कभी हो नहीं सकती थी। तब उसकी अपनी विशेषता होती ही क्या कि
लोग उस पर टूट पड़ते?
यह बात तो हमने अब तक अच्छी तरह सिद्ध कर दी हैं। यह भी तो कही चुके हैं कि
गीता ने यदि प्रसंगवश या जरूरत समझ के दूसरों की बातें भी ली हैं तो उन पर
अपना ही रंग चढ़ा दिया हैं। मगर भागवत धर्म पर कौन सा अपनारंग उसने चढ़ाया
हैं यह तो किसी ने नहीं कहा। अगर रंग चढ़े भी तो जब गीता का मुख्य विषय
दूसरों का ही ठहरा,
न कि अपना खास,
तब तो उसकी विशेषता जाती ही रही। शास्त्रों और ग्रन्थों की विशेषता होती
हैं मौलिकता में। उनकी जरूरत होती हैं किसी नये विषय के प्रतिपादन में। यही
दुनिया का नियम एवं सर्वमान्यसिद्धान्त हैं। लेकिन और भी सुनिये।
सबसे पहले सभी अध्यायों के अन्त में लिखे
'योगशास्त्रो'
और
'भगवद्गीतासु'
को ही लें। जब इस बार-बार लिखे योग शब्द से कोई खास अभिप्राय लेने या इसे
खास मानी पिन्हाने का यत्न किया जाता हैं तो हमें आश्चर्य होता हैं। गीता
का योग शब्द तो इतने अर्थों में आया हैं कि कुछ कहिए मत। अमरकोष के
''योग:
संहननोपायध्यानसंगतिषुक्तिषु''
(3।3।22)
में जितने अर्थ इस शब्द के लिखे गये हैं और उनके विवरण के रूप में जो
बीसियों प्रकार के अर्थ पातंजलदर्शन,
महाभारत या ज्योतिष ग्रन्थों में आते हैं प्राय: सभी अर्थों में गीता ने
योगशब्द को लिख के ऊपर से कुछ नये मानी भी जोड़े हैं। उसने अपना खास अर्थ भी
इस शब्द को पिन्हाया हैं। यदि गीता के अठारहवें अध्याय के अन्त के
74-76
श्लोकों को गौर से देखा जाये तो पता चलेगा कि गीता के समूचे संवाद को भी
योग ही कहा हैं। यह तो हम पहले बता चुके हैं कि गीता का अपना योग क्या हैं।
और भी देखिए कि पहले अध्याय में जिस अर्जुन के विषाद की ही बात मानी जाती
हैं उसे भी
'विषादयोगोनाम
प्रथमोऽध्याय:'
शब्दों में साफ ही योग कह दिया हैं। भला इसका क्या सम्बध हैं भागवत धर्म के
साथ?
अध्यायों के अन्त में जो योग शब्द आये हैं। वह तो अलग-अलग प्रत्येक अध्याय
में प्रतिपादित बातों के ही मानी में हैं। जब तक यह सिद्ध न हो जाये कि सभी
प्रतिपादित बातें भागवत धर्म ही हैं तब तक उन योग शब्दों से यह कैसे माना
जाये कि वे भागवत धर्म के ही प्रतिपादक हैं?
ऐसा मानने में तो अन्योन्याश्रय दोष हो जायेगा। यही कारण हैं कि हर अध्याय
में लिखी बातों को ही अन्त में लिख के आगे योग शब्द जोड़ दिया गया हैं।
इसलिए उन शब्दों से ऐसा अर्थ निकालना सिर्फ बाल की खाल खींचना हैं।
रह गयी बात
'भगवद्गीतासु'
या
'श्रीमद्भगवद्गीतासु'
शब्द की। हम तो इसमें भी कोई खास बात नहीं देखते। इससे यदि भागवत धर्म को
सिद्ध करने की कोशिश की जाती हैं तो फिर वही बाल की खाल वाली बात आ जाती
हैं। यह तो सभी मानते हैं कि गीता तो उपनिषदों का ही रूपान्तर हैं-उपनिषद
ही हैं। फर्क सिर्फ़ यही हैं कि उपनिषदों को भगवान ने खुद अपने शब्दों में
जब पुनरपि कह दिया तभी उसका नाम भगवद्गीतोपनिषद् पड़ गया। गीता शब्द जिस गै
धातु से बनता हैं तथा उसका अर्थ जो गान लिखा हैं उसके मानी वर्णन या कथन
हैं। फिर वह कथन चाहे तान-स्वर के साथ हो या साधारण शब्दों में ही हो। गान
भी तो केवल सामवेद में ही होता हैं। मगर
'वेदै:
सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायंति यं सामगा:'
में तो सभी वेदों में और उपनिषदों में भी गान की बात ही लिखी हैं। यहाँ तक
कि वेद के अंग व्याकरणादि में भी गान ही कहा गया हैं। मगर वहाँ तो
गान-ताल-स्वर के साथ-असम्भव हैं। हम आपका गुण गाते रहते हैं,
ऐसा कहने का अर्थ केवल बयान ही होता हैं,
न कि राग और ताल के साथ गाना। यही बात गीता या भगवद्गीता में भी हैं।
उपनिषद स्त्रीलिंग तथा अनेक हैं। इसीलिए
'गीतासु'
में स्त्रीलिंग और बहुवचन प्रयोग हैं,
जैसा कि बहुवचन
'उपनिषत्सु'
में हैं। आमतौर से गीता शब्द भी इसीलिए स्त्रीलिंग हो गया। नहीं तो
'गीत'
होता। यदि गौर से देखा जाये तो गीता में मौके-मौके से कुल
28
बार
'श्रीभगवानुवाच'
शब्द आये हैं। इनमें केवल ग्यारहवें अध्याय में चार बार,
दूसरे और छठे में तीन-तीन बार,
तीसरे,
चौथे,
दसवें और चौदहवें में दो-दो बार तथा शेष अध्यायों में एक-एक बार आये हैं।
इनका अर्थ हैं कि
'श्रीभगवान
बोले।''
चाहे श्रीभगवान कहें या श्रीमद्भगवान कहें,
दोनों का अर्थ एक ही हैं। इससे स्पष्ट हो जाता हैं कि गीता में जो कुछ
उपदेश दिया हैं या वर्णन किया हैं वह श्रीमद्भगवान ने ही। बस,
इसीलिए इसका नाम श्रीमद्भगवद्गीता हो गया;
न कि किसी और कारण से। इतने से ही जानें कहाँ से नारायणीयधर्म को यहाँ उठा
लाना और गीता के माथे उसे पटकना बहुत दूर की कौड़ी लाना हैं।
योग शब्द के बारे में जरा और भी कुछ जान लेना अच्छा होगा। गीता में केवल
योग शब्द प्राय:
135
बार आया हैं। प्राय: उसी के मानी में उसी युज धातु से बने यु×जन्,
युत्तका, युक्त आदि शब्द भी
कई बार आये हैं। मगर उन्हें छोड़ के
सीधे
योग शब्द हर अध्याय
के अन्त के समाप्ति सूचक संकल्प वाक्य में दो-दो बार आये हैं। इस प्रकार
यदि इन
36 को निकाल बाहर करें तो प्राय: सौ बार गीता के भीतर
के श्लोकों में यह शब्द पाया
जायेगा।
इनमें चौथे,
पाँचवें, छठे तथा आठवें आदि
में कुछ बार पातंजल योग के अर्थ में ही यह शब्द आया
हैं,
या ऐसे अर्थ में ही जिसमें पातंजल योग भी समाविष्ट
हैं।
तीसरे अध्याय
के
'कर्मयोग' (3।1)
में और 'योगिन: कर्म'
(5।11) में भी योग शब्द
साधारण
कर्म के ही मानी में आया
हैं।
इसीलिए वहाँ कर्मयोग शब्द का वह विशेष अर्थ नहीं
हैं
जो उस पर कर्मयोग-शास्त्र
के नाम से लादा जाता
हैं।
इसी तरह
'यत्रकाले
त्वनावृत्तिम्'
आदि ( 8।13-27)
श्लोकों में कई बार योग और योगी शब्द
साधारण
कर्म करने वालों के भी अर्थ-व्यापक अर्थ-में आया
हैं।
'योगक्षेमं' (9।22)
और 'योगमाया समावृत:'(7।25)
का योग शब्द भी अप्राप्त की प्राप्ति आदि दूसरे ही
अर्थों में
हैं।
दसवें अध्याय
में कई बार योग शब्द विभूति शब्द के साथ आया
हैं
और वह
भगवान
की शक्ति का ही वाचक
हैं।
बारहवें में भी कितनी ही बार यह शब्द अभ्यास वगैरह दूसरे अर्थ में ही
प्रयुक्त हुआ
हैं।
तेरहवें के
'अन्ये सांख्येन योगेन' (13।24)
में तो साफ ही
योग का अर्थज्ञान
हैं।
इस प्रकार यदि ध्यान से देखा जाये तो दस ही बीस बार योग शब्द उस अर्थ में
मुश्किल से आया हैं,
जिसका निरूपण
'कर्मण्येवाधिकारस्ते'
(2।47-48)
में किया गया हैं;
हालाँकि उस योग का भी जो निरूपण हमने किया हैं और जिसे गीताधर्म माना हैं
वह ऐसा हैं कि उसके भीतर कर्म का करना और उसका संन्यास दोनों ही आ जाते
हैं। मगर यदि यह भी न मानें और योग का अर्थ वहाँ वही मानें जो गीतारहस्य
में माना गया हैं,
तो भी आखिर इससे क्या मतलब निकलता हैं?
गीता के श्लोकों में जो सैकड़ों बार से ज्यादा योग शब्द आया हैं उसमें यदि
दस या बीस ही बार असंदिग्धा रूप से उस अर्थ में आया हैं और बाकी
दूसरे-दूसरे अर्थों में,
तो योग शब्द के बारे में यह दावा कैसे किया जा सकता हैं कि वह प्रधानतया
गीता में उसी भागवतधर्म का ही प्रतिपादक हैं?
चाहे आवेश में आ के औरों को भले ही कह दिया जाये कि वे तो शब्दों का अर्थ
जबर्दस्ती करके अपने सम्प्रदाय की पुष्टि करना चाहते हैं। मगर यह इल्जाम तो
उल्टे इल्जाम लगानेवालों पर ही पड़ जाता हैं। यों तो चाहे जो भी दूसरों पर
दोष मढ़ दे सकता हैं। मगर हम तो ईमानदारी की बात चाहते हैं,
न कि खींचतान।
(शीर्ष पर वापस)
सिद्धि और संसिद्धि
योग शब्द जैसी तो नहीं,
लेकिन सिद्धि
और संसिद्धि
शब्दों या इसी अर्थ में प्रयुक्त सिद्ध
एवं संसिद्ध
शब्दों को लेकर भी गीता के श्लोकों के अर्थों में और इसीलिए कभी-कभी सैद्धान्तिक
बातों तक में कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाया करती
हैं।
आमतौर से ये शब्द जिस मानी में आया करते हैं वह न हो के गीता में इन शब्दों
के कुछखास मानी प्रसंगवश हो जाते हैं,
खासकर संसिद्धि
शब्द के। मगर लोग
साधारणतया
पुराने ढंग से ही अर्थ लगा के या तो खुद घपले में पड़ जाते हैं,
या अपना मतलब निकालने
में कामयाब हो जाते हैं। इसीलिए इनके अर्थ का भी थोड़ा सा विचार कर लेना
जरूरी
हैं।
सिद्धि और सिद्ध शब्द अलौकिक चमत्कार और करिश्मों के ही सम्बन्ध में आमतौर
से बोले जाते हैं। साधु-फकीरों को या मन्त्र-तन्त्र का अनुष्ठान करके जो
लोग कामयाबी हासिल करते एवं चमत्कार की बातें करते हैं उन्हीं को सिद्ध और
उनकी शक्ति को सिद्धि कहते हैं। इसी सिद्धि की अणिमा,
महिमा आदि आठ किस्में पुराने ग्रन्थों में पायी जाती हैं। अणिमा के मानी
हैं छोटे से छोटा बन जाना और महिमा के मानी बड़े-से-बड़ा। लंकाप्रवेश के समय
हनुमान की इन दोनों सिद्धियों का बयान मिलता हैं जब वे लंकाराक्षसी को चकमा
देके भीतर घुस रहे थे। पातंजल योग-सूत्रों के
'ते
समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धय:'
(3।37)
में इसी सिद्धि का जिक्र हैं। जिसके चलते योगी भूत भविष्य की बातें जान
लेता,
दूसरों के दिल की बातें समझ लेता और पक्षी-पशुओं के शब्दों का भी अर्थ
जानता हैं। इसी तरह की और भी बातें हैं। इसी प्रकार
'अ¯हसाप्रतिष्ठायां
तत्सन्निधौ वैरत्याग:'
(2।35), 'सत्यप्रतिष्ठायां
क्रियाफलाश्रयत्वम्' (2।36)
आदि योगसूत्रों
में जो लिखा गया
हैं
कि पूरे अहिंसक को साँप-बिच्छू और सिंह-बाघ आदि भी नहीं छूते और पूरा
सत्यवादी जो भी कह देता
हैं
वह जरूर हो जाता
हैं,
उसे भी ऐसे आदमी की सिद्धि
या शक्ति ही उन सूत्रों
के व्यासभाष्य में यों कहा गया
हैं,
'तदा तत्कृतमैश्वर्यं योगिन: सिद्धिसूचकं
भवति।'
इसी प्रकार किसी काम के पूरा हो जाने को भी सिद्धि
बोलते हैं और कहते हैं कि हमारा कार्य सिद्ध
हो गया।
'सिद्धयसिद्धयो:
समो भूत्वा'
(2।48) में गीता ने भी इसी
मानी में सिद्धि
शब्द का प्रयोग किया
हैं।
'गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा:'
(11।22) तथा 'सर्वे
नमस्यन्ति च सिद्धसंघा:'
(11।36) में जो सिद्ध
शब्द हैं वह पूर्वोक्त योगसिद्धि
जैसे ही अर्थ में आये हैं। देवताओं के एक ऐसे ही दल को सिद्ध
कहते हैं। गीता में इनका केवल नाम आ गया
हैं,
न कि गीता के प्रतिपादित विषय में ये आते हैं। क्योंकि
गीता का विषय तो ऐसा
हैं
जिसका उपयोग हम दैनिक जीवन में कर सकते हैं और ये सिद्ध
हैं अलौकिक दुनिया के पदार्थ। इसलिए ऐसे स्थानों में तो कोई गड़बड़ होती ही
नहीं। यहाँ तो ठीक ही काम चलता
हैं।
मगर दिक्कत होती हैं और-और श्लोकों में।
'न
च संन्यसनादेवसिध्दिं समधिगच्छति'
(3।4),
'कर्मणैव
हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:'
(3।20),
'कांक्षन्त:
कर्मणां सिध्दिं यजन्त इह देवता:। क्षिप्रं हि मानुषे लोके
सिद्धिर्भवतिकर्मजा'
(4।12),
'तत्स्वयं
योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति'
(4।38),
'अप्राप्य
योगसंसिध्दिं का गतिं कृष्ण गच्छति'
(6।37),
''यतते
च ततो भूय: संसिध्दौ कुरुनन्दन'
(6।43),
'अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो
याति परांगतिम्'
(6।45),
'नाप्नुवन्ति
महात्मान: संसिध्दिं परमांगता:'
(8।15),
'मदर्थमपि
कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि'
(12।10),
'यज्ज्ञात्वामुनय:
सर्वे परांसिद्धिमितो गता:'
(14।1),
'स्वेस्वे
कर्मण्यभिरत: संसिध्दिं लभते नर:। स्वकर्मनिरत: सिध्दिं यथाविन्दति तच्छृणु'
(18।45),
'स्वकर्मणा
तमभ्यर्च्य सिध्दिं विन्दति मानव:'
(18।46),
'नैर्ष्कम्यसिध्दिं
परमां संन्यासेनाधिगच्छति'
(18।49)
और
'सिध्दिंप्राप्तो
यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे'
(18।50)
श्लोकों में ही यह दिक्कत होती हैं।
इन पर कुछ भी विचार करने के पूर्व यह जान लेना होगा कि कर्मों के अनेक
नतीजों में एक यह भी हैं कि उनसे हृदय,
मन या अन्त:करण की शुद्धि होती हैं।
'योगिन:
कर्म कुर्वन्ति सं
त्यत्तकात्मशुद्धये'
(5।11) में आत्मशुद्धि
का मन की शुद्धि
ही अर्थ
हैं।
इसीलिए वहाँ योगी शब्द का अर्थ
हैं साधारण
कर्मी,
न कि गीता का योगी। क्योंकि उसका तो मन पहले ही शुद्ध
हो जाता
हैं।
वह मन की शुद्धि
के लिए कर्म क्यों करेगा?
बिना मन:शुद्धि
के वह योगी
हो ही
नहीं सकता। इसीलिए योगी हो जाने पर मन:शुद्धि
का प्रश्न उठता ही नहीं। फलत: यदि पूर्व पर का विचार किया
जाये
तो
'मदर्थमपि' (12।10)
में भी सिद्धि
का अर्थ
हैं
मन:शुद्धि
ही। इसी प्रकार (18।45-46)
में भी सिद्धि
और संसिद्धि
का अर्थ मन की शुद्धि
ही
हैं
और वह
हैं
उसकी चंचलता की
निवृत्ति
या रागद्वेष से छुटकारा
'तत्स्वयं योगसंसिद्ध:'
(4।38) में भी यही अर्थ
हैं।
इसके सिवाय (8।15),
(14।1)
और (18।49)
इन तीन श्लोकों में सिद्धि तथा संसिद्ध शब्द में एक विशेषण लगा हैं जो दो
जगह
'परमां'
हैं और एक जगह
'परां'।
मगर दोनों का अर्थ एक ही हैं और हैं वह
'ऊँचे
दर्जे की या सर्वश्रेष्ठ'
यही। इनमें जो (14।1)
का सिद्धि शब्द हैं उसी का विशेषण
'परां'
हैं। फलत: परासिद्धि का अर्थ हैं परम कल्याण या मुक्ति ही। पर के साथ जुटने
से सिद्धि शब्द उस प्रसंग में सिवाय मुक्ति या चरमलक्ष्य सिद्धि के अन्य
अर्थ का वाचक हो ही नहीं सकता हैं। रह गये शेष दो श्लोकों वाले सिद्धि
शब्द। सो यदि उनके भी ईधर-उधर के श्लोकों के अर्थों पर पूरा गौर करें तो
उनका अर्थ होता हैं पूर्ण रीति से कर्मत्याग। परम विशेषण कर्मत्याग की
रही-सही भी त्रुटियों एवं कमियों को पूरा करके पूर्ण रीति से कर्मों से
छुटकारे की बात ही कहता हैं। केवल संसिद्धि कहने से भी संभवत: सफलता अर्थ
हो के कर्मों से छुटकारा अर्थ तो होता,
मगर उसमें शायद खामी की गुंजाइश रह जाती। अठारहवें अध्याय के उस श्लोक के
बादवाले में जो सिद्धि शब्द हैं वह तो परमसंसिद्धि का ही अनुवाद मात्र हैं।
इसलिए उसका भी वही अर्थ हैं।
यदि
'संन्यासस्तु'
(5।6),
'नियतस्य
तु'
(18।7)
तथा
'भवत्यत्यागिनांग्म्'
(18।12)
में देखें कि ब्रह्म और संन्यास शब्दों के अर्थ किस तरह पूर्व और उत्तर के
वाक्यों के मिलाने से निश्चित होते हैं और वही रीति (3।4)
श्लोक में लगायें तो वहाँ सिद्धि का अर्थ होगा नैर्ष्कम्य,
संन्यास की सिद्धि या उसकी पूर्णता। इसी प्रकार (4।12)
में भी सिद्धि का अर्थ हैं फलप्राप्ति या लक्ष्यसिद्धि। छठे अध्याय में तो
योग का प्रकरण हैं। इसलिए उसके
37,43
और
45
श्लोकों में संसिद्धि का व्यापक अर्थ हैं,
जिसमें मन की शुद्धिरूप योगसिद्धि और ज्ञान की प्राप्ति भी आ जाती हैं। इस
प्रकार हमने देखा कि आँख मूँद के या बिना सोचे-विचारे अर्थ करने से इन
शब्दों के अर्थों की जानकारी में गड़बड़ हो सकती हैं।
(शीर्ष पर वापस)
गीता में पुनरुक्ति
गीता के पढ़नेवालों को प्राय: अनेक बातों की पुनरुक्ति मिलती
हैं
और कभी-कभी तो तबीअत ऊब जाती
हैं
कि यह क्या पिष्टपेषण हो रहा। मगर कई कारणों से यह बात अनिवार्य थी। एक तो
गहन विषयों का विवेचन ठहरा। यदि एक ही बार कह के छोड़ दिया
जाये
तो क्या यह सम्भव
हैं
कि सुनने वाले के दिमाग में वह बातें बैठ
जायेगी?
हमने तो ताजी से ताजी अंग्रेजी की किताबों में देखा
हैं
कि कठिन बातों को लेकर उन्हें बीसियों बार दुहराते हैं। यह दूसरी बात
हैं
कि अनेक ढंग से वही बातें कहके ही दुहराते हैं। गीता में भी एक ही बात
प्रकारान्तर और शब्दान्तर में ही कही गयी
हैं,
यह तो निर्विवाद
हैं।
अतएव गीता के उपदेश-गीताधर्म-की
गहनता का
ख्याल
करके पुनरावृत्ति
उचित ही मानी जानी चाहिए।
(शीर्ष पर वापस)
गीता की शैली पौराणिक
दूसरी बात यह
हैं
कि गीता का विषय और उसके तर्क वगैरह जरूर दार्शनिक हैं;
मगर विषय प्रतिपादन की शैली पौराणिक
हैं
और गीता की यह एक खास खूबी
हैं।
दार्शनिक रीति रूखी और सख्त होती
हैं,
नीरस होती
हैं।
फलत: सर्वसाधारण
के दिमाग में यह बात जँचती नहीं,
जिससे लोग ऊब जाते हैं। फिर भी दार्शनिक इसकी परवाह
करते नहीं। उन्हें तो सत्य का प्रतिपादन करना होता
हैं।
वे उपदेशक और प्रचारक तो होते नहीं कि लोगों के दिल-दिमाग को देखते फिरें।
मगर गीता तो उपदेशक का काम करती
हैं।
इसका तो काम ही
हैं
सार्वजनिक जीवन से
सम्बन्ध
रखने वाले कामों का विवेचन करना और उनके रहस्य को लोगों के दिल-दिमाग में
पहुँचाना। इसीलिए उसने पौराणिक शैली अख्तियार की
हैं।
इसकी विशेषता यही
हैं
कि संवाद,
प्रश्नोत्तर या कथनोपकथन के रूप में ये बातें इसमें रखी
गयी हैं। इससे प्रसंग रुचिकर हो जाता
हैं,
उसमें सरसता आ जाती
हैं।
बच्चों के लिए यह संवाद की ही प्रणाली ज्यादा हितकर मानी जाती
हैं।
हितोपदेश में यही बात पायी जाती
हैं
और पुराणों में भी। इसके चलते कठिन से कठिन विषय भी आलंकारिक ढंग से
प्रतिपादित हो के सहज बन जाते हैं। चौदहवें अध्याय
में गर्भधारण
के रूप में सृष्टि का निरूपण कितना सुन्दर
हैं!
अर्जुन को दूसरे अध्याय
में जो डाँटा गया
हैं
कि मुँह कैसे दिखाओगे वह कितना अनूठा
हैं!
पन्द्रहवें में,
मरण के समय जीव सभी संस्कारों को ले के साथ ही जाता
हैं,
इसका कितना सुन्दर वर्णन वायु के द्वारा फूलों की
गन्ध
ले जाने की बात से किया गया
हैं!
(शीर्ष पर वापस)
गीतोपदेश ऐतिहासिक
हमें एक ही बात और कह के उपसंहार करना
हैं।
गीता के प्राचीन टीकाकारों में किसी-किसी ने गीता के वर्णन को केवल
आलंकारिक मान के अर्जुन,
कृष्ण आदि को ऐतिहासिक पुरुषों की जगह कुछ और ही माना
हैं।
उपदेश और उपदेश्य-गुरु तथा शिष्य-आदि को ही कृष्ण,
अर्जुन आदि का रूप
उन्होने
दिया
हैं
और इस तरह अपनी कल्पना का महल उसी नींव पर खड़ा किया
हैं।
मगर हमें उससे यह पता नहीं चल सका था कि ऐसा करके वे लोग सचमुच महाभारत,
गीता, उस युद्ध
और कौरव-पाण्डव आदि को ऐतिहासिक पदार्थ नहीं मानते। क्योंकि इस बात की झलक
उनकी टीकाओं में पायी नहीं जाती।
परन्तु कुछ आधुनिक लोगों ने यह कह के गीता को ही ऐतिहासिकता से हटाना चाहा
हैं कि प्राय: बीस लाख फौजों- क्योंकि
18
अक्षौहिणियाँ वहाँ मानी जाती हैं,
और एक अक्षौहिणी में प्राय: एक लाख आदमी के अलावे घोड़े,
हाथी,
तोप आदि के होते थे-के बीच में,
जब वह प्रहार करने ही को थीं,
यह गीताउपदेश असम्भव था। इसके लिए समय कहाँ था?
इसीलिए कवि ने पीछे से कृष्ण और अर्जुन के नाम पर उसे रच के महाभारत में
घुसेड़ दिया हैं।
मगर यदि वह जरा भी सोचें तो पता चले कि इस गीताउपदेश के लिए दो-चार घण्टे
की जरूरत न थी। सात सौ श्लोकों का पाठ तेजी से एक घण्टे में पूरा हो जाता
हैं। किन्तु वहाँ श्लोक बोले गये,
सो भी ठहर-ठहर के,
यह बात तो हैं नहीं। कृष्ण ने अर्जुन को प्रचलित भाषा में उपदेश किया। एक
घण्टे के लेक्चर को लिखने में पोथा बन जाता हैं। गीताउपदेश में तो कुछ ही
मिनटों की या ज्यादे से ज्यादा आधे घण्टे की जरूरत थी। विश्वरूप का लेक्चर
तो हुआ भी नहीं। वह तो दिखा दिया गया। अर्जुन ऐसा कुन्द थोड़े ही था कि
समझता न था और बार-बार रगड़-रगड़ के पूछता था। अत: उस मौके पर भी दस-बीस मिनट
का समय निकाल लेना कुछ कठिन न था।
फिर भी हमारे ही देश के कुछ महापुरुषों ने जब यह कह दिया कि महाभारत की
बातें ऐतिहासिक नहीं,
किन्तु कवि कल्पित हैं,
इसलिए गीता का संवाद भी वैसा ही हैं,
तो हमें मर्मान्तिक वेदना हुई। केवल हमीं को नहीं। हमारे जैसे कितनों को यह
कष्ट हुआ। उसी समय कईयों ने हमसे अनुरोध किया कि आप इसका प्रतिपादन समुचित
रूप से करें। वे हमारे गीता-प्रेम को जानते थे। इसी से उन्होने ऐसा कहा।
यदि गीता में किसी का अपना सिद्धान्त और उसकी हिंसा-अहिंसा न मिले तो इसमें
गीता का क्या दोष?
वह तो रत्नाकर सागर हैं। गोते लगाइये तो कुछ मोती मूँगे कभी न कभी उसमें से
ऊपर लायियेगा ही। मगर आप जो चाहें सो ही उसमें से लायें यह असम्भव हैं,
और ऐसा न होने पर रत्नाकर के मूल में आघात करना उचित नहीं। गीता के अपने
सिद्धान्त हैं-गीताधर्म या एक खास चीज हैं जो उसी का हैं,
न कि किसी और का।
ऐतिहासिकता की बात यों हैं। आज से हजारों साल पूर्व कुमारिल भट्ट ने
मीमांसा दर्शन की टीका,
तन्त्रर्वात्तिक में,
सदाचार के प्रसंग से अर्जुनादि पाण्डवों और कृष्ण के कामों पर आक्षेप करके
पुन: उसका समर्थन किया हैं। दूसरे की दृष्टि में हमारे सत्पुरुषों का काम
खटका था। इसलिए वे उन्हें सत्पुरुष नहीं मानते थे। कुमारिल ने खटका हटा के
सत्पुरुष करार दिया और कृष्ण का ननिहाल पाण्डवों के यहाँ माना।
ब्राह्मणग्रन्थों और उपनिषदों-खासकर छान्दोग्य वृहदारण्यक आदि-में बीसियों
बार कुरुक्षेत्र और कुरुदेश का जिक्र आया हैं और वहाँ अकाल एवं पाला-पत्थर
की बात लिखी गयी हैं। कुरुक्षेत्र का कुरु तो पाण्डवों तथा कौरवों का
पूर्वज ही था। हस्ती भी उनका पूर्वज था। इसी से हस्तिनापुर नाम और स्थान
पाये जाते हैं। कुरुक्षेत्र के युद्ध की स्मृति अभी तक वहाँ पायी जाती हैं
और स्थान याद किये जाते हैं। छान्दोग्य उपनिषद के चौथे अध्याय के
17वें
खण्ड में देवकीपुत्र कृष्ण का उल्लेख हैं और ये थे पाण्डवों के नातेदार यह
अभी कहा हैं। सबसे बड़ी बात यह हैं कि भीष्म के मरण के समय माघ में कृत्तिका
नक्षत्र का सूर्य लिखा मान के और तैत्तिरीय आदि संहिताओं में भी यही देख के
महाभारत के युद्ध का समय ईसा से पूर्व
1400
से लेकर
2500
साल के बीच में गणित के आधार पर ठीक किया गया हैं। तिलक ने ओरायन में इसका
बड़ा प्रामाणिक विवेचन किया हैं। इसके सिवाय बीसियों भारतीय तथा पाश्चात्य
देशीय पुरातत्त्वज्ञों ने भी यह बात मानी हैं। तिलक ने गीतारहस्य में साफ
ही लिखा हैं कि
''सभी
लोग मानते हैं कि श्रीकृष्ण तथा पाण्डवों के ऐतिहासिक पुरुष होने में कोई
सन्देह नहीं हैं,''
''चिन्तामणिराव
वैद्य ने प्रतिपादन किया हैं कि श्रीकृष्ण,
यादव,
पाण्डव तथा भारतीय युद्ध का एक ही काल हैं।''
फिर निराधार बात क्यों कही जाये?
तब तो रामायण आदि हमारा सभी इतिहास इसी तरह खत्म होगा। महाभारत पुस्तक को
पुराण न कह के इतिहास कहते हैं और पंचमवेद भी। उपनिषद में भी ऐसा ही कहा
हैं। तो क्या अब उसे निरा उपन्यास माना जाये।
(शीर्ष पर वापस)
गीताधर्म का निष्कर्ष
जो कुछ कहना था कहा जा चुका। गीतार्थ और गीताधर्म
को समझने के लिए,
हमारे जानते, इससे ज्यादा
कहने की आवश्यकता नहीं
हैं।
इससे कम से भी शायद ही काम चलता। इसीलिए इच्छा रहते हुए भी हम इस विवेचन को
संक्षिप्त कर न सके। उसमें हमें खतरा नजर आया। मगर अब हमें आशा
हैं
कि हमने जो कुछ लिखा
हैं।
उसी की कसौटी पर कसने पर गीताधर्म
का हीरा शानदार और खरा निकलेगा। हम जानते हैं कि उसके लिए सैकड़ों तराजू और
कसौटियाँ अब तक बन चुकी हैं जो एक से एक जबर्दस्त हैं। मगर हमारा अपना
विश्वास
हैं
कि उनमें कहीं न कहीं कोई खामी
हैं,
त्रुटि हैं।
जब सभी को अपने विश्वास की
स्वतन्त्रता
हैं
तो हमें भी अपने विचार के ही अनुसार कहने और लिखने में किसी को उज्र नहीं
होना चाहिए। हम दूसरे के विचारों को उनसे छीनने तो जाते नहीं कि कलह हो। हम
तो कही चुके हैं कि गीता तो इसी बात को मानती
हैं
कि हर आदमी ईमानदारी से अपने ही विचारों के अनुसार बोले और काम करे। इसीलिए
हमने पुरानी कसौटियों की
त्रुटियों
का
ख्याल
करके ही यह कसौटी तैयार की
हैं।
हमें इसमें सफलता मिली
हैं
या विफलता,
यह तो कहना हमारे वश के बाहर की बात
हैं।
मगर
'कर्मण्येवाधिकारस्ते'
के अनुसार हम इसकी परवाह करते ही नहीं। हमारी इस कसौटी
में भी
त्रुटियाँ
होंगी,
इसे कौन
इन्कार
कर सकता
हैं?
लेकिन गीतार्थ हृदयंगम करने में यदि इससे कुछ भी सहायता
मिली तो यह व्यर्थ न होगी।
महाभारत की उस बड़ी पोथी में जनकपुर के धर्मव्याधा का वर्णन मिलता हैं,
जो कसाई का काम करके ही अपनी जीविका करता था। उसी के सिलसिले की एक सुन्दर
कहानी भी हैं जो गीताधर्म को आईने की तरह झलका देती हैं। कोई महात्मा किसी
निर्जन प्रदेश में जा के घोर तप और योगाभ्यास करते थे। दीर्घकाल के निरन्तर
प्रयत्न से उन्हें सफलता मिली और योगसिद्धि प्राप्त हो गयी। फिर क्या था?
उन्होने वह काम बन्द कर दिया और गाँव की ओर चल पड़े। लेकिन जानें क्यों
योगसिद्धि की प्राप्ति के बाद भी उन्हें सन्तोष न था,
भीतर से तुष्टि मालूम न होती थी। खैर,
रास्ते में एक वृक्ष के नीचे विश्राम करी रहे थे कि ऊपर से किसी बगुले ने
उनके ऊपर विष्ठा गिरा दिया। उन्हें बड़ा गुस्सा आया और आँखें लाल करके जो
बगुले को देखा तो वह जल के खाक हो गया! अब महात्मा को विश्वास हो गया कि
उन्हें अवश्य योगसिद्धि प्राप्त हो चुकी हैं।
फिर वह आगे चले। उन्होने भोजन का समय होने से गाँव में एक गृहस्थ के द्वार
पर पहुँच के
'भिक्षां
देहि'
की आवाज लगाई। देखा कि एक स्त्री भीतर हैं,
जिसने उन्हें देखा भी और उनकी आवाज भी सुनी। मगर वह अपने काम में मस्त थी।
ईधर महात्मा को द्वार पर खड़े घण्टों हो गये! उस स्त्री की धृष्टतापूर्ण
नादानी पर उन्हें क्रोध आया। ठीक भी था। सिद्ध पुरुष का यह घोर तिरस्कार एक
मामूली गृहस्थ की स्त्री करे! मगर करते क्या?
आँखों से खून उगलते खड़े रहे और दाँत पीसते रहे कि संहार ही कर दूँ। इतने
में भोजन ले के जो स्त्री आयी तो आते ही उसने बेलाग सुना दिया कि आँखें
क्या लाल किये खड़े हैं?
मैं वृक्षवाला बगुला थोड़े ही हूँ कि जला दीजियेगा ! अब तो उन्हें चीरो तो
खून नहीं। सारी गर्मी ठण्डी हो गयी यह देख के कि इसे यह बात कैसे मालूम हो
गयी जो यहाँ से बहुत दूर जंगल में हुई थी! फिर तो उन्हें अपनी तप:सिद्धि
फीकी लगने लगी। खाना छोड़ के उन्होने उस माता से पूछा कि तुझे यह कैसे पता
चला?
उसने कहा कि लीजिए भोजन कीजिए और जनकपुर में धर्मव्याधा के पास जाइए। वही
सब कुछ बता देगा!
महात्मा वहाँ से सीधे जनकपुर रवाना हो गये। परेशान थे,
हैंरत में थे। जनकपुर पहुँच के धर्मव्याधा को पूछना शुरू किया कि कहाँ रहता
हैं। समझते थे,
वह तो कहीं तपोभूमि में पड़ा महात्मा होगा। मगर पूछते-पूछते एक हाट में एक
ओर एक आदमी को देखा कि मांस काटता और बेचता हैं और यही धर्मव्याधा हैं!
सोचने लगे,
उफ,
यह क्या?
यही धर्मव्याधा मुझे धर्म-कर्म का रहस्य बतायेगा?
मगर कौतुकवश खड़े रहे। धर्मव्याधा ने एक बार उन्हें देख के मुस्करा दिया सही;
मगर वह अपने काम में घण्टों व्यस्त रहा। जब काम से छूट्टी हो गयी और दुकान
समेट चुका तो उसने उनसे पूछा कि महात्मन,
कैसे चले?
क्या आपको उस स्त्री ने भेजा हैं?
सिद्ध महात्मा तो और भी हैंरान थे कि यह क्या?
स्त्री तो भला गृहस्थी का काम करती थी। मगर यह तो निरा कसाई हैं। फिर भी
उसकी भी नाक काटता हैं! खैर,
हाँ कह के उसके साथ उसके घर गये! उन्हें बैठा के पहले घण्टों वह अपने वृद्ध
माँ-बाप की सेवा करता रहा,
जैसे वह स्त्री अपने पति की सेवा कर रही थी! माँ-बाप से फुर्सत पा के उसने
उन्हें भी खिलाया-पिलाया! पीछे उसने वार्त्तालाप शुरू करके कहा कि मैंने
पहले हजार कोशिश की थी कि इस हिंसा से बचूँ और दूसरी जीविका करूँ। मगर विफल
रहा। तब समझ लिया कि चलो जब यही भगवान की मर्जी हैं तो रहे। बस,
केवल कर्तव्यबुद्धि से यह काम करता हूँ। सफलता-विफलता और हानि-लाभ की जरा
भी परवाह नहीं करता। उसके बाद जो साग-सत्तू मिलता हैं। उसी से पहले अपने
प्रत्यक्ष भगवान-माँ-बाप-की सेवा-शुश्रूषा करके उन्हें तृप्त करता हूँ।
फिरयदि कोई अतिथि हो तो उसका सत्कार करके खुद भी खाता-पीता हूँ। यही मेरी
दिन चर्या हैं,
यही मेरा योगाभ्यास हैं,
यही मेरी तपश्चर्या और यही भगवान की पूजा हैं। वहस्त्रीभी पति के सिवाय
किसी और को जानती ही नहीं। उसके लिए भगवान और सब कुछ वही एक पति ही हैं।
यही उसकी योगसाधाना हैं और यही न सिर्फहम दोनों के बल्कि सारे संसार के
कर्मों का रहस्य हैं,
उनकी कुंजी हैं और वास्तविक सिद्धि का असली मार्ग हैं।
इस आख्यान में गीताधर्म का निचोड़ पाया जाता हैं। अब तक हम भगवान को,
स्वर्ग,
वैकुण्ठ,
नर्क और मुक्ति को अपने से अलग समझ उन्हें पाने के लिए कर्म-धर्म करेंगे और
उनमें भी बुरे-भले का भेद करेंगे कि यह कर्म भला और यह बुरा हैं तब तक हम
भटकते ही रहेंगे। तब तक कल्याण हमसे लाख कोस दूर रहेगा-दूर होता जायेगा।
हमें तो अपनी आत्मा को ही,
अपने आप को ही,
सबमें वैसे ही देखना हैं जैसे नमक के टुकड़े में नीचे-ऊपर चारों ओर एक ही
चीज होती हैं-नमक ही नमक होता हैं। यही बात गीता कहती हैं,
यही उसका और उपनिषदों का अद्वैत-तत्त्व हैं। नमक का ही दृष्टान्त देकर
आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को यही बात छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय
के तेरहवें खण्ड के तीसरे मन्त्र में इस तरह कही हैं,
''स
य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसिश्वेतकेतो।''
यह अत्यन्त कठिन होते हुए भी निहायत आसान हैं,
यदि हममें इसकी आग हो,
लगन हो। यही बात सूफियों ने यों कही हैं कि
''दिल
के आईने में हैं तस्वीरे यार। जब जरा गर्दन झुकाई देख ली''
और
''बहुत
ढूँढ़ा उसे हमने न पाया। अगर पाया पता अपना न पाया''।
इसी के हासिल होने पर यह उद्गार निकली हैं कि
''हासिल
हुई तमन्ना जो दिल में थी मगर। दिल को आरजू हैं कोई आरजू न हो।''
उपनिषदों में इसी उद्गार को
'येन
त्यजसि तत्त्यज'
कहा हैं।
यही गीताधर्म हैं और यही उसका योग हैं। यही वेदान्त का रहस्य हैं,
जिसके फलस्वरूप लोकसंग्रह और मानव-समाज के कल्याणों के लिए छोटे-बड़े सभी
कामों के करने का रास्ता न सिर्फ साफ हो जाता हैं,
बल्कि सुन्दर,
रमणीय और रुचिकर हो जाता हैं,
अत्यन्त आकर्षक बन जाता हैं। इसी के करते लोकसंग्रहार्थ कर्म करने से तबीअत
ऊबने के बजाये उसमें और भी तेजी से लगती जाती हैं। कितना भी कीजिए,
फिर भी सन्तोष होने के बजाये और करें,
और करें यही इच्छा होती रहती हैं। साथ ही,
यदि दृढ़ संकल्प एवं पूर्ण प्रयत्न के बाद भी किसी कारण से कोई काम पूरा न
हो,
छूट जाये या और कुछ हो जाये,
तो जरा भी बेचैनी या परेशानी नहीं होती। मस्ती हमेशा बनी रहती हैं। यही
स्थितप्रज्ञ,
भक्त और गुणातीत की दशा हैं। इसके चलते ही यदि कर्म सोलहों आने छूट जाये,
जैसे पेड़ से पका फल गिर जाये,
तो भी मस्ती ज्यों की त्यों रहती हैं। इसी मस्ती को हासिल करने के लिए पहले
धर्मों का संन्यास आवश्यक होता हैं,
ऐसी गीता की मान्यता हैं।
गीता - 9
(शीर्ष पर वापस)
|