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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-3 (गीता हृदय)

दूसरा-गीता भाग : पूर्वापर सम्बन्ध, प्रवेशिका, पहला अध्याय

मुख्य सूची खंड - 1 खंड - 2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6

पूर्वापर सम्बन्ध
प्रवेशिका
पहला अध्याय
                                                                                                                      ...अगला पृष्ठ

पूर्वापर सम्बन्ध

गीताहृदय का अन्तरंग भाग या पूर्व भाग लिख चुकने के बाद, जैसा कि उसके शुरू में ही कहा जा चुका हैं, उसके मध्‍य के गीताभाग का लिखा जाना जरूरी हो जाता हैं। जिस जानकारी की सहायता के ही लिए वह भाग लिखा गया हैं और इसीलिए अन्तरंग भाग कहा जाता भी हैं, उसके बाद उसी बात का लिखना अर्थ सिद्ध हो जाता हैं। अन्तरंग भाग के पढ़ लेने पर गीता हृदय के इस दूसरे भाग के पढ़ने की आकांक्षा खुद-ब-खुद हो जायेगी। लोग खामख्वाह चाहेंगे कि उसके सहारे गीतासागर में गोता लगायें। उसके पढ़ने से इसके समझने में-गीता का अर्थ और अभिप्राय हृदयंगम करने में-आसानी हो जायेगी। इसीलिए इसे पूरा किया जाना जरूरी हो गया।

    हमने कोशिश की हैं कि जहाँ तक हो सके श्लोकों के सरल अर्थ ही लिखे जाये जो शब्दों से सीधे निकलते हैं। बेशक, गीता अत्यन्त गहन विषय का प्रतिपादन करती हैं, सो भी अपने ढंग से। साथ ही इसकी युक्ति दार्शनिक हैं, यद्यपि प्रतिपादन की शैली हैं पौराणिक। इसलिए शब्दों के अर्थों के समझने में कुछ दिक्कत जरूर होती हैं, जब तक अच्छी तरह प्रसंग और पूर्वापर के ऊपर ध्‍यान न दिया जाये। हमने इस दिक्कत को बहुत कुछ अन्तरंग भाग में दूर भी कर दिया हैं। फिर भी उसका आना अनिवार्य हैं। अत: ऐसे ही स्थानों में श्लोकों के अर्थ लिखने के बाद छोटी या बड़ी टिप्पणी दे दी गयी जिससे उलझन सुलझ जाए और आशय झलक पड़े।

    आशा हैं, यह भाग पूर्व भाग के साथ मिल के लोगों को-गीता-प्रेमियों को-सन्तुष्ट कर सकेगा। गीतार्थ-अवगाहन के लिए उनका मार्ग तो कम से कम साफ करी देगा।

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प्रवेशिका

जितन ज्यादा गौर नहीं किया हैं, या जो ध्‍यान से गीता नहीं पढ़ते, लेकिन इतना जानते हैं कि गीता महाभारत में ही लिखी हैं और उसी बड़ी पोथी में से अलग करके इसका पठन-पाठन तथा प्रचार होता हैं, वह आमतौर से ऐसा ही समझते हैं कि महाभारत के युद्ध के आरम्भ होने के पहले ही उसका प्रसंग आने के कारण वह महाभारत की पोथी में भी उद्योग पर्व के बाद ही या भीष्म पर्व के शुरू होने के पहले ही लिखी गयी होगी। यदि और नहीं तो इतना तो ख्याल उन्हें अवश्य होता होगा कि गीताउपदेश को सुनने के बाद ही लड़ाई की बात धृतराष्ट्र को मालूम हुई होगी और भीष्म आदि की मृत्यु की भी।

    मगर दरअसल बात ऐसी हैं नहीं। यह सही हैं कि युद्धारम्भ के पहले ही कृष्ण और अर्जुन के बीच गीतावाला संवाद हुआ, जिसे आज की भाषा में एक तरह का चखचुख भी कह सकते हैं। यदि देखा जाये तो गीता के दूसरे अध्‍याय के शुरू में, गीता के असली उपदेश के पहले, जो बातें कृष्ण एवं अर्जुन के बीच हो गयी हैं वह चखचुख जैसी ही हैं। कृष्ण कहते हैं कि भई, ऐन लड़ाई के समय पर ही यह बड़ी बुरी कमजोरी तुममें कहाँ से आ गयी? राम, राम, इसे दूर करो और फौरन कमर बाँध के तैयार हो जाओ। नामर्द की तरह कमर तोड़ के यह बैठ क्या गए हो? इस पर अर्जुन अपने इस काम के, इस मनोवृत्ति के समर्थन के लिए दलीलें करता और कहता हैं कि पूजनीय गुरुजनों के चरणों पर चन्दन, पुष्पादि चढ़ाने के बदले उनके कलेजे में तीर बेधूँ? यह नहीं होने का। इन्हें मार के इन्हीं के खून से रंगे राजपाट जहन्नुम जायें। मैं इन्हीं हर्गिज नहीं मारने का। यही न होगा कि न लड़ने पर राजपाट न मिलेगा? तो इसमें हर्ज ही क्या हैं? इन्हें न मारने पर तो भीख माँग के गुजर करना भी कहीं अच्छा हैं। यह राजपाट ठीक हैं या वह भिक्षावृत्ति, इसका भी निर्णय तो हो पाता नहीं। मैं तो घपले में पड़ा हूँ। यह भी तो निश्चय नहीं कि हमीं लोग खामख्वाह जीतेंगे ही। ऐसी दशा में मुझे तो भिक्षावाला पक्ष ही अच्छा मालूम होता हैं।

    यह प्रश्नोत्तर चखचुख ही तो हैं। असली चखचुख तो ऐसे संकट के ही समय हुआ करती हैं। फर्क यही हैं कि अर्जुन और कृष्ण की बातों का तरीका अत्यन्त परिमार्जित था, गंभीर था, जैसा कि गीता के शुरू के श्लोकों से पता चल जाता हैं। हाँ, इसके बाद अर्जुन ने यह जरूर किया कि अपनी ही बात पर अड़े न रहे। किन्तु कृष्ण से साफ ही कबूल किया कि मेरी अक्ल इस समय काम नहीं कर रही हैं। इसीलिए कर्तव्य-अकर्तव्य का ठीक-ठीक फैसला कर पाता हूँ नहीं। आप कृपा करके मेरी भलाई के लिए जो बात उचित हो वही कहिए। मैं आपकी शरण आया हूँ। नहीं तो मेरे हृदय में जो महाभारत इस समय हो रहा हैं और जिसके करते सारी इन्द्रियाँ शिथिल होती जा रही हैं, वह मुझे मार डालेगा। उसकी शान्ति भूमण्डल के चक्रवत्तरी राज्य की तो क्या स्वर्ग की भी गद्दी मिलने से नहीं हो सकती हैं। इतना कहने के बाद, मैं तो लड़ुँगा हर्गिज नहीं, ऐसा बोल के अर्जुन चुप हो गए। उसी के बाद, कुछ मुस्कराते हुए कृष्ण ने दूसरे अध्‍याय के ग्यारहवें श्लोक से गीताउपदेश शुरू किया।

    बात यह हैं कि भीष्म के आहत हो जाने, किन्तु मरने के पूर्व, वीर क्षत्रियोचित शरशय्या पर उनके पड़ जाने की खबर जब धृतराष्ट्र को संजय ने दी, तो धृतराष्ट्र के कान खड़े हुए। उसने समझा कि रंग बदरंग हैं। तभी उसने संजय से घबरा के पूछा कि बोलो, बोलो, क्या हो गया? यह हालत कैसे हो गयी, लड़ाई का श्रीगणेश कैसे हुआ; पहले किसने क्या किया और यह नौबत आने तक दूसरी बातें क्या-क्या हो गयीं? शुरू में बात यों हुई कि लड़ाई की सारी तैयारी देख के और अवश्यम्भावी संहार का ख्याल करके व्यास धृतराष्ट्र के पास आये। यह तो मालूम ही हैं कि धृतराष्ट्र उनके पुत्र थे। इसलिए भी और सान्त्वना देने के साथ ही आगाह कर देने के लिए भी उनका आना जरूरी था। वही तो अब पथप्रदर्शक बच गये थे। बाकी लोग तो लड़ाई के मैदान में ही डटे थे। उन्होने समझा कि शायद अन्‍धे धृतराष्ट्र को यह देखने की इच्छा हो कि अन्तिम समय तो भला पुत्रों और सम्बन्धियों को देख लूँ। भीष्मपर्व के पहले अध्‍याय में लड़ाई की तैयारी देखने और संहार का लक्षण जानने की बात कहके दूसरे में धृतराष्ट्र के साथ व्यास का संवाद लिखा गया हैं। वहाँ व्यास के यह कहने पर कि चाहो तो आँखें ठीक कर दूँ और सब कुछ देख लो, धृतराष्ट्र ने यही उत्तर दिया कि जिन्दगी भर तो कुछ देख न सका। तो अब आँख लेके भला यह वंशसंहार देखूँ? इसकी जरूरत नहीं हैं। हाँ, कृपया ऐसा प्रबन्ध कर दें कि पूरा वृत्तान्त अक्षरश: जान सकूँ।

    इस पर व्यास ने धृतराष्ट्र के मन्त्री संजय को बता के कहा कि अच्छा, तो इस संजय की ही आँखों में ऐसी शक्ति दिये देता हूँ कि यह रत्‍ती-रत्‍ती समाचार तुम्हें सुनायेगा। इसे हरेक बात की जानकारी बैठे-बैठे ही हो जाया करेगी। दिन में या रात में, प्रत्यक्ष-परोक्ष जो कुछ भी होगा, यहाँ तक कि लड़नेवाले लोग मन में भी जिस बात का ख्याल करेंगे, सभी की पूरी जानकारी इसे हो जाया करेगी। लेकिन इसी के साथ व्यास ने एक बार और भी धृतराष्ट्र को समझाने की कोशिश की कि वह दुर्योधन को समझा के अब भी रोक दे, अभी कुछ बिगड़ा नहीं हैं। व्यास को तो पता था ही कि धृतराष्ट्र और दुर्योधन की एक ही राय हैं। मगर धृतराष्ट्र पर तो इसका असर होने जाने का था नहीं। यही बातें दो और तीन अध्यायों में आयी हैं। जब उन्होने देखा कि धृतराष्ट्र के मन में उनकी बात घुस नहीं रही हैं, प्रत्युत अभी तक उसे दुर्योधन आदि अपने ही पुत्रों की जीत की आशा लगी हैं, तब उन्होने उसका यह भ्रम मिटाने के लिए इतना ही बता दिया कि जो जीतता या हारता हैं उसकी हालत पहले से ही कैसी होती हैं। इसे ही शुभ-अशुभ लक्षण भी कहते हैं। फिर व्यास चले गये। इसके बाद धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा कि आखिर यह भूमि कितनी बड़ी हैं, जिसे जीतने के लिए यह मार-काट होने वाली हैं। भीष्मपर्व के चौथे से लेकर बारहवें अध्‍याय तक उसी भूमण्डल के सभी विभागों का वर्णन किया गया हैं। इसके बाद संजय कुतूहलवश कुरुक्षेत्र की ओर चले गये। फिर वहां से लौट के धृतराष्ट्र को सुनाया कि लो, अब तो भीष्म आहत हो के पड़े हैं। यह बात तेरहवें अध्‍याय से शुरू होती हैं और यहीं से गीतापर्व का श्रीगणेश होता हैं।

    उसके बाद धृतराष्ट्र का रोना-गाना शुरू हुआ। फिर तो उसने भीष्म के आहत होने के सारे वृत्तान्त के साथ ही युद्ध की सारी बातें पूछीं और संजय ने बताईं। दोनों पक्षों की तैयारी की भी बात संजय ने कही। जिस प्रकार आज भी फौजों की नाकेबन्दी होती हैं और अनुकूल जगह पर लड़ने वाले आदमियों, घुड़सवारों या तोपखाने आदि को रखा जाता हैं। ठीक उसी प्रकार पहले भी रखा जाता था। इसी को व्यूह-रचना कहते थे। आज की ही तरह यह रचना कई तरह की होती थी। मगर उस समय की परिस्थिति तथा अस्त्र-शस्त्र की प्रगति के अनुसार गाड़ी के गोल चक्के की सूरत में जब लोगों को खड़ा करते थे तो उसे चक्रव्यूह कहते थे। इसमें दुश्मन चारों ओर से घिर जाता था। इसे ही आज घेरना (encirclement) कहते हैं। जब कछुए की सूरत में रखते जहाँ बीच में तोप आदि ऊँची जगह पर रहें तो उसे कूर्मव्यूह कहते थे। गीता के पहले अध्‍याय में इन्हीं व्यूहों का जिक्र हैं। ज्यादा फौज कम फौजों के अगल-बगल (Flank) में भी खड़ी हो जाती और आसानी से विजय पाती थी। इसीलिए धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा था कि हमारी फौज तो ग्यारह अक्षौहिणी-प्राय: 11-12 लाख-हैं, उसे उनकी सात ही अक्षौहिणी कैसे घेरेगी, या उसका सामना करेगी? संजय ने इसी के उत्तर में कहा कि कौन, कहाँ कैसे खड़े हैं और किसे कैसे खड़ा किया गया था। पश्चिम ओर पूर्व रुख पाण्डवों की और पूर्व ओर पश्चिम रुख कौरवों की सेना खड़ी थी। सारी तैयारी कैसे पूरी हुई, यह बात भी उसने कही। अन्त में कह दिया कि दोनों फौजें इस प्रकार आ के आमने-सामने डट गयीं। शुरू में दुर्योधन पक्ष के सेनापति भीष्म और पाण्डव पक्ष के भीम थे, यह भी बताया।

    इस प्रकार तेरहवें से शुरू करके चौबीस तक के अध्‍याय में ये बातें कह के गीतापर्व की एक तरह की भूमिका पूरी की गयी हैं। फिर पचीसवें से लेकर बत्तीसवें तक में गीता के कुल अठारह अध्‍याय पूरे हुए हैं। पूरी तैयारी और आमने-सामने डट जाने की बात सुन के ही गीता के पहले श्लोक में धृतराष्ट्र ने पूछा कि उसके बाद फौरन मारकाट ही शुरू हो गयी या कुछ और भी बात हुई? उसके उत्तर में ही समूची गीता आ गयी। इसी सिलसिले में एक और भी मजेदार बात हो गयी थी।

    गीताउपदेश के बाद जब अर्जुन लड़ने को तैयार हो गये तो एकाएक देखते हैं कि युधिष्ठिर कवच वगैरह उतार के नंगे पाँव कौरवों की सेना की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। देखते ही अर्जुन आदि सभी घबरा गये। हालत यह हो गयी कि ये पाँचों भाई कृष्ण के साथ उनके पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि राम, राम, यह क्या कर रहे हैं? ऐन वक्त पर आप यह कहाँ चले? जब युधिष्ठिर न रुके, तो कृष्ण ने ताड़ लिया और लोगों को समझा दिया कि भीष्म आदि गुरुजनों से लड़ने के पहले आज्ञा लेने जा रहे हैं। यही शिष्टाचार हैं। उधर कौरव सेना वालों को बड़ी खुशी हुई कि लो, बिना मारे ही दुश्मन मरा। सचमुच युधिष्ठिर नामर्द हैं। नहीं तो ऐसे वीर बाँकुड़े भाइयों और कृष्ण की मदद के होते हुए भी क्यों दुर्योधन के पाँव पड़ने आता?

    इसी बीच युधिष्ठिर सभी के साथ ही पहले भीष्म के पास और पीछे क्रमश: द्रोण, कृप और शल्य के पास गये और चारों को प्रणाम करके लड़ने की आज्ञा तथा सफलता की शुभेच्छा चाही। पहले के तीन तो हर तरह से माननीय थे। शल्य भी था माद्री का भाई और भीम आदि का मामा। वह मद्रदेश का राजा था। उसने युधिष्ठिर को आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सभी ने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय हैं और जिसका जिक्र हम पूर्व भाग में कर चुके हैं। चारों के मुख से एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार हैं, ''अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज, बध्दोऽस्म्यर्थेन कौरवै:।'' यही श्लोक भीष्मपर्व के 43वें अध्‍याय का 41वाँ, 56वाँ, 71वाँ तथा 82वाँ हैं। इसका सीधा अर्थ यही हैं कि ''महाराज, अन्नधन का गुलाम आदमी होता हैं, न कि आदमी का गुलाम पैसा, यही पक्की बात हैं। इसलिए कौरवों ने हमें गुलाम बना लिया हैं।''

    जिन्हें मौत पर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जी के खिलाफ न तो हार सकें और न मर सकें उन लोगों ने जब संसार का पक्का नियम ऐसा बता दिया और हिम्मत के साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल कर ली, तो मानना ही पड़ेगा कि यह बड़ी बात हैं। इसीलिए इस अप्रिय सत्य पर पूरा ध्‍यान न दे के जो लोग कोरे अध्‍यात्म की राग अलापते रहते हैं वे कितने गहरे पानी में हैं यह बात स्पष्ट हो जाती हैं। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य तो ऐसा कहें और हम अध्‍यात्म से जरा भी नीचे न आयें यह विचित्र बात हैं! लेकिन जैसा कि हम दिखला चुके हैं, गीता इस कठोर सत्य को खूब मानती हैं। वह इसे स्वीकार करके ही आगे बढ़ी हैं। शायद कोई ऐसा समझ ले कि उन महानुभावों ने यों ही ऐसा कह दिया हैं। इसलिए उसी के बाद जो श्लोक चारों जगह आये हैं वे सोलहों आने एक से न होने पर भी अभिप्राय में एक से ही हैं। वह इस बात को और भी खोल देते हैं। हम द्रोण के कहे श्लोक को लिख के उसी का अर्थ बता देना काफी समझते हैं। एक श्लोक यों हैं, ''ब्रवीम्येतत्क्लीबवत्तवां युद्धादन्यत् किमिच्छसि। योत्स्येऽहं कौरवस्यार्थे तवाशास्योजयो मया'' (57)। इसका भावार्थ यह हैं कि ''यही कारण हैं कि आज मैं तुम्हारे सामने दब्बू की तरह बातें करता हूँ। लड़ुँगा तो दुर्योधन के ही पक्ष में मगर विजय तुम्हारी ही चाहूँगा।'' उन्होने साफ मान लिया कि युधिष्ठिर के सामने अन्नधन के ही लिए दबना पड़ा।

    उसके बाद युधिष्ठिर सदल वापस आ गये और कुछ अन्य राजनीतिक चालों के बाद महाभारत की भिड़न्त शुरू हुई जिसका वर्णन 44वें अध्‍याय से शुरू हुआ हैं। इस प्रकार अब तक जो कुछ कहा गया हैं उससे गीता के उपदेश की परिस्थिति का पूरा पता लग जाने से उसका तात्पर्य सुगम हो जाता हैं। इसीलिए गीता के प्रतिपादित विषय में प्रवेश के लिए और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती।

    हाँ, कुछ नाम शुरू में आये हैं, उन्हें यहीं जान लेना अच्छा हैं। धृतराष्ट्र दुर्योधन का पिता था और संजय धृतराष्ट्र का मन्त्री यह तो कही चुके हैं। भीष्म, द्रोण और कृप को भी लोग जानते ही हैं। भीष्म बड़े बूढ़े और सबके पितामह थे। इसीलिए उन्हें भीष्मपितामह भी कहते हैं। शेष दो व्यक्ति आचार्य थे। उन्होने शिक्षा दी थी। अश्वत्थामा द्रोण का पुत्र था और विकर्ण था दुर्योधन का भाई। युयुधन एवं सात्यकि एक ही व्यक्ति के नाम हैं। भूरिश्रवा को ही सौमदत्ति (सोमदत्ता का पुत्र) कहते थे। धृष्टद्युम्न द्रुपद का बेटा था और द्रुपद था द्रौपदी का पिता तथा पांचाल देश का राजा। विराट मत्स्यदेश का राजा था। धृष्टकेतु शिशुपाल के लड़के का नाम था। चेकितान यदुवंशियों में एक योद्धा था। वसुदेव यदुवंशी ही थे, जिनके पुत्र कृष्ण थे। युधामन्यु और उत्तामौजा भी पांचाल देश के ही निवासी थे। शिबिदेश के राजा को ही शैब्य लिखा हैं। कुन्ती जिस राजा को गोद में दी गयी थी उसके वंश का नाम ही कुन्तिभोज था। उसी राजा का पुत्र पुरुजित नाम वाला था। इसीलिए पुरुजित और कुन्तिभोज ये दो नाम न होके एक ही हैं। पुरुजित के ही वंश का नाम कुन्तिभोज हैं। सुभद्रा कृष्ण की बहन थी। उसकी शादी अर्जुन से हुई थी। इसीलिए सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु को ही सौभद्र कहा हैं। द्रौपदेय कहा हैं द्रौपदी के प्रतिबिन्धय आदि पाँचों बेटों को। काश्य और काशिराज एक ही आदमी-काशी के राजा-को कहा गया हैं। शिखण्डी को तो सभी जानते हैं। वह नपुंसक था और उसी की ओट में भीष्म मारे गये। क्योंकि नपुंसक पर वार वह करते न थे। हृषीकेश एवं गोविन्द कृष्ण का ही नाम हैं। गुडाकेश, पार्थ, सव्यसाची अर्जुन को ही कहते हैं। भारत अर्जुन को भी कहा हैं और धृतराष्ट्र को भी। कृष्ण के ही कुल को वृष्णिकुल और इसीलिए कृष्ण को वार्ष्णेय भी कहते हैं। गोविन्द, अरिसूदन, मधुसूदन, माधाव नाम भी उनका हैं और भगवान या श्रीभगवान भी। अर्जुन को परन्तप भी कहा हैं और पार्थ भी। पार्थ का अर्थ पृथा (कुन्ती) का पुत्र। कुन्ती के पुत्र होने से ही अर्जुन कौन्तेय कहे गये हैं।

    गीता के शुरू में ही जो व्यूढ़ शब्द आया हैं उसका अर्थ हैं व्यूह के आकार में बनी या खड़ी फौज। व्यूह का अर्थ पहले ही बताया जा चुका हैं। वहीं महारथ शब्द भी आया हैं। यह फौजी शब्द हैं। जैसे जो दस या ज्यादा शत्रु के हवाई जहाजों को खत्म कर दे उसे फ्रेंच या अंग्रेजी भाषा में एस (ace) कहते हैं। उसी तरह ये महारथ आदि शब्द भी पहले बोले जाते थे। योद्धा लोगों की ही यह संज्ञाएँ थीं और थीं ये चार-अर्ध्दरथ, रथ, महारथ और अतिरथ। जो एक से भी अच्छी तरह न लड़ सके वह अर्ध्दरथ, जो एक से लड़ सके वह रथ, जो अकेले दस हजार योद्धाओं से भिड़े वह महारथ और जो असंख्य लोगों से भिड़ जाये वह अतिरथ कहा जाता था-''एको दस सहस्राणि योधायेद्यस्तु धान्विनाम। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च स वै प्रोक्तो महारथ:। अमितान्योधायेद्यस्तु संप्रोक्तोऽतिरथस्तु स:। रथस्त्वेकेन योद्धा स्यात्तान्न्यूनोऽर्ध्दरथ: स्मृत:।''

    अब एक ही बात जानने के लिए रह जाती हैं और हैं वह कुरुक्षेत्र की बात। छान्दोग्य और वृहदारण्यक जैसे प्राचीनतम उपनिषदों में बार-बार कुरुदेश और कुरुक्षेत्र का नाम आता हैं। मनुस्मृति में भी ब्रह्मर्षिदेश को बताते हुए दूसरे अध्‍याय में उसके अन्तर्गत कई प्रदेशों का नाम गिना के कहा हैं कि ''कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पांचाल, और शूरसेन इन्हीं चार देश को मिला के ब्रह्मर्षि देश कहा जाता हैं-''कुरुक्षेत्र च मत्स्याश्च पांचाला: शूरसेनका:। एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावत्तर्दनन्तर:।'' उसी ब्रह्मर्षिदेश का नाम पीछे कान्यकुब्ज हो गया। वर्तमान गुड़गाँव, रोहतक आदि जिले कुरुक्षेत्र के ही भीतर हैं। उनसे पश्चिम बहुत दूर तक का प्रदेश ब्रह्मरावत्ता कहा जाता था। जाबालोपनिषद् के पहले ही मन्त्र में कुरुक्षेत्र का नाम आया हैं। परशुराम के बारे में यही माना जाता हैं कि उसी मैदान में उन्होने बार-बार क्षत्रियों का संहार किया। दिल्ली के पास का पानीपत का मैदान ईधर भी कितनी ही लड़ाइयों का केन्द्र रहा हैं। वह कुरुक्षेत्र का ही मैदान हैं। उसी में महाभारत का महायुद्ध भी हुआ था। भारत के लिए यह कत्लगाह हैं।

    महाभारत के शल्यपर्व के कुल छब्बीस श्लोकों में इस कुरुक्षेत्र की चौहद्दी, इसके मुख्य स्थान आदि दिये गये हैं जो पुराने जमाने के नाम हैं। वहीं यह भी लिखा हैं प्रजापतियों की यह पुरानी यज्ञशाला हैं। यहीं पर देवताओं ने भी बड़े-बड़े यज्ञ किये थे। इसीलिए इसकी धूल तक पापनाशक मानी गयी हैं। कुरुक्षेत्र का शब्दार्थ हैं कुरु का क्षेत्र या खेत। कुरु था कौरव-पाण्डवों का मूरिस या पूर्वज। वहीं लिखा हैं कि इस जमीन को वह बराबर जोतता रहता था। इन्द्र ने उसे बार-बार रोका। पर उसने न माना। जोतने का मतलब कुछ साफ नहीं हैं सिवाय इसके कि कहा गया हैं कि भविष्य में जो यहाँ मरें उन्हें स्वर्ग मिले इसीलिए जोतना जारी था। अन्त में इन्द्र ने जब यह वरदान दिया कि जाइए यहाँ तप करने या लड़ने में जो मरेंगे वह जरूर स्वर्गी होंगे, तब उसने जोतना छोड़ा। इसीलिए कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र या धर्मभूमि कहते हैं।

    आगे श्लोकों के अर्थ में आवश्यकतानुसार बाहर से जोड़े गये शब्द कोष्ठक में दिये हैं, यह याद रहे।

    इसके अलावे कहीं-कहीं श्लोकार्थ के बाद छोटी-बड़ी टिप्पणियाँ भी दी गयी हैं। वे साफ हैं।

    पुराने समय में हाथ से पकड़ के जिन तलवार आदि हथियारों से हमला करते थे उन्हें शस्त्र कहते थे और जिन तीर आदि को फेंकते थे उन्हें अस्त्र कहते थे। उस समय फौज को भी बल कहते थे।

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पहला अध्‍याय

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रो कुरुक्षेत्रो समवेता युयुत्सव:।

मामका:  पाण्डवाश्चैव   किमकुर्वत  संजय ॥1

    धृतराष्ट्र ने पूछा-संजय, धर्म की भूमि कुरुक्षेत्र में जमा मेरे और पाण्डु-पक्ष के युध्देच्छुक लोगों ने क्या किया?1

संजय उवाच

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्॥2

    संजय ने कहा-उस समय पाण्डवों की सेना व्यूह के आकार में (सजी) देख के राजा दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जा के बात बोला (कि)-2

पश्यैतां पाण्डुपुत्रणामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढ़ां द्रुपदपुत्रोण तव शिष्येण धीमता॥3

    आचार्य, पाण्डु के बेटों की इस बड़ी सेना को (तो) देखिए। इसकी व्यूह रचना आप के चतुर चेले द्रुपद-पुत्र (धृष्टद्युम्न) ने की हैं।3

त्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:॥4

    इसमें शूर, बड़े धानुधर्री (और) युद्ध में भीम एवं अर्जुन सरीखे सात्यकि, विराट, महारथी द्रुपद-4

धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान्।

पुरुजित कुंतिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगव:॥5

    धृष्टकेतु, चेकितान, वीर्यवान् काशिराज, कुन्तिभोज पुरुजित, नरश्रेष्ठ शैव्य-5

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तामौजाश्च वीर्यवान्।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:॥6

    पराक्रमी युधामन्यु, वीर्यवान उर्त्तमौजा, अभिमन्यु और द्रौपदी के बेटे-ये सबके-सब महारथी हैं।6

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्ताम।

नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥7

    द्विजवर, हमारे जो चुने-चुनाए लोग हैं। उन्हें भी (अब) गौर से सुनिए। मेरी फौज के जो संचालक हैं उन्हें आपकी जानकारी के लिए बताता हूँ।7

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजय:।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥8

    (वे हैं), आप, भीष्म, कर्ण, युद्ध विजयी कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और भूरिश्रवा।8

अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे तयक्तजीविता:।

नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा:॥9

    दूसरे भी बहुत से वीर हैं जिनने मेरे लिए प्राणों की बाजी लगा दी हैं, जो अनेक तरह के शस्त्र चलाने में कुशल हैं और सभी युद्धविद्या में निपुण हैं।9

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥10

    भीष्म के द्वारा रक्षित (संचालित) हमारी वह सेना काफी नहीं हैं। (लेकिन) इन (पाण्डवों) की यह भीम के द्वारा संचालित सेना तो काफी हैं।

    इस श्लोक के अर्थ के सम्बन्ध में विशेष विचार पहले ही के पृष्ठों में किया जा चुका हैं।10

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता:।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त: सर्व एव हि॥11

    (इसलिए) जिसकी जो जगह ठीक हुई हैं उसी के अनुसार आप सभी लोग नाकों पर डटे रह के केवल भीष्म की ही रक्षा करें।11

तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह:।

सिंहनादं विनद्योच्चै: शंखं दधमौ प्रतापवान्॥12

    (इतने ही में) दुर्योधन को खुश करने के लिए सभी कौरवों में बड़े-बूढ़े और प्रतापशाली भीष्मपितामह ने सिंह की तरह जोर से गर्जकर (अपना) शंख फूँका (शंख फूँकना युद्धारम्भ की सूचना हैं)।12

तत: शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा:।

सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥13

    उसके बाद एक-एक शंख, नफीरी (शहनाई), छोटे-बड़े नगाड़े और गोमुखी (ये सभी बाजे) बज उठे (और) वह आवाज गूँज उठी।13

तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।

माधाव: माण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदधमतु:॥14

    उसके बाद सफेद घोड़े जुते बड़े रथ में बैठे हुए कृष्ण और अर्जुन ने भी अपने दिव्य-अलौकिक या असाधारण-शंख (प्रतिपक्षियों के उत्तर में) फूँके।14

पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तां धानंजय:।

पौंड्रं दधमौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर:॥15

    कृष्ण ने पांचजन्य, अर्जुन ने देवदत्ता और भयंकर काम कर डालने वाले भीमसेन ने पौंड्र नामक बड़ा शंख फूँका।15

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर:।

नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥16

    कुन्ती के पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय, और नकुल एवं सहदेव ने (क्रमश:) सुघोष तथा मणिपुष्पक (नाम के शंख बजाये)।16

काश्यश्च परमेष्वास: शिखण्डी च महारथ:।

धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित:॥17

    महाधानुधर्री काशिराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि-17

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथ्विपते।

सौभद्रश्च महाबाहु:शंखान्दध्मु: पृथक् पृथक्॥18

    द्रुपद, द्रौपदी के सभी बेटे और लम्बी बाँहों वाले अभिमन्यु इन सबने हे पृथ्विराज (धृतराष्ट्र), अलग-अलग शंख फूँके।18

स घोषो धृर्त्ताराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।

नभश्य पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥19

    आकाश और जमीन को बार-बार गुँजा देने वाले उस घोर शब्द ने दुर्योधन के पक्षवालों का हृदय चीर दिया।19

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धृर्त्ताराष्ट्रान्कपिधवज:।

प्रवृत्तो शस्त्रसम्पाते धानुरुद्यम्य पाण्डव:॥20

    उसके बाद दुर्योधन के पक्ष वालों को बाकायदा तैयार देख के (और यह जान के कि अब) अस्त्र-शस्त्र छूटने ही वाले हैं, महावीर की चिद्दयुक्त ध्वजावाले अर्जुन ने,-20

अर्जुन उवाच

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

सेनयोरुभयोर्मधये रथं थापय मेऽच्युत॥21

    हे महीपति, कृष्ण से यह बात कही कि अच्युत, दोनों फौजों के (ठीक) बीच में मेरा रथ खड़ा कर दीजिए।21

यावदेतान् निरीक्षेऽहं योध्दुकामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥22

    ताकि लड़ाई के मंसूबे वाले इन तैयार खड़े लोगों को देखूँ (तो कि आखिर) इस लड़ाई की दौरान में मुझे किन-किन के साथ लड़ना हैं।22

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता:।

धृर्त्ताराष्ट्रस्य दुर्बुध्दैर्युध्दे प्रियचिकीर्षव:॥23

    ये जो युद्ध में नालायक दुर्योधन के खैरखाह बनके यहाँ आये हैं और लड़ेंगे उन्हें (जरा मैं) देखूँगा (कि आखिर ये हैं कौन लोग)।23

संजय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।

सेनयोरुभयोर्मधये स्थापयित्वा रथोत्तामम्॥24

    संजय ने कहा कि हे धृतराष्ट्र, अर्जुन के ऐसा कहने पर कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में सर्वश्रेष्ठ रथ खड़ा करके-।24

भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम्।

उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति॥25

    भीष्म, द्रोण तथा सभी राजाओं के सामने ही कहा कि अर्जुन, जमा हुए इन कुरु के वंशजों को देख ले।25

    यहाँ कुरुवंशियों से तात्पर्य दोनों पक्ष के सभी लोगों से हैं। इसीलिए आगे 'सेनयोरुभयो:' लिखा हैं।

त्रपश्यत्स्थितान्पार्थ: पितृनथ पितामहान

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रनृपौत्रन्सखींस्तथा॥26

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

    वहाँ अर्जुन ने देखा (कि ये तो अपने) पिता, पितामह, आचार्य, मामा, भाई, पुत्र, पोते, मित्र, ससुर और स्नेही (लोग ही) दोनों ही सेनाओं में खड़े हैं । 26-27

तन्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥27

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

    उन अपने ही सगे-सम्बन्धियों को खड़े देख अर्जुन को परले दर्जे की दया ने घेर लिया (और) विषादयुक्त हो के वह ऐसा बोला।27-28

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥28

सीदन्ति मम गात्रणि मुखं च परिशुष्यति।

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायेते॥29

    अर्जुन बोला-हे कृष्ण, इन अपने ही लोगों को युद्ध की इच्छा से यहाँ जमा देख के मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुँह बहुत सूख रहा हैं, मेरे शरीर में कँपकँपी हो रही हैं और रोएँ खड़े हो रहे हैं। 28-29

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्तवक् चैव परिदह्यते।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:॥30

    गाण्डीव धनुष हाथ से गिरा जा रहा हैं, त्वचा (समस्त शरीर) में आग सी लगी हैं, खड़ा रहा सकता हूँ नहीं और मेरा मन चक्कर सा काट रहा हैं।30

निमिर्त्तनि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥31

    हे केशव, लक्षण उल्‍टे देख रहा हूँ। अपने ही लोगों को युद्ध में मार के खैरियत नहीं देखता।31

न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥32

    हे कृष्ण, (मैं) विजय नहीं चाहता, न राज्य ही चाहता हूँ और न सुख ही। हे गोविन्द, राज्य, भोग और जिन्दगी (भी) लेकर हम क्या करेंगे?32

येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।

त इमेऽवस्थिता युध्दे प्राणांस्त्यक्त्वा धानानि च॥33

    जिनके लिए हमें राज्य, भोग और सुखों की चाह थी ये वही लोग (तो) प्राणों और धनों (की माया-ममता) को छोड़ के युद्ध में डटे हैं! 33

आचार्या: पितर: पुत्रस्तथैव च पितामहा:।

मातुला: श्वशुरा: पौत्र: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा॥ 34

    आचार्य, बड़े-बूढ़े, लड़के, दादे, मामू, ससुर पोते, साले और सम्बन्धी (लोग)-।34

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।

अपि त्रौलोक्यराजस्य हेतो: किं नु महीकृते॥ 35

    (यदि) हमें मारते भी हों (तो भी) हे मधुसुदन, मैं इन्हें त्रौलोक्य (संसार) के राज्य के लिए भी मारना नहीं चाहता; (फिर इस) पृथ्वी की (तो) बात ही क्या?35

       निहत्य धृर्त्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन।
         
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन:॥36

    हे जनार्दन, धृतराष्ट्र के सम्बन्धियों को मार के हमें क्या खुशी होगी? (उल्‍टे) इन आततायियों को मार के हमें पाप ही लगेगा।36

    स्मृतियों में छ: तरह के लोगों को आततायी कहा गया हैं। ''जो आग लगाएँ, जहर दें, हाथ में हथियार लिए डटे हों, किसी की धन-सम्पत्ति छीनते हों, जमीन (खेत) छीनते हों और दूसरों की स्‍त्री को हरें-यही छ:-आततायी कहे जाते हैं''-''अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धानापह:। क्षेत्रदारापहत्तरा च षडेते ह्याततायिन:'' (वसिष्ठस्मृति316)

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धृर्त्तराष्ट्रान्स्वबान्धावान्।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधाव॥37

    इसलिए हमें अपने ही बन्धु-बान्धव कौरवों को मारना ठीक नहीं हैं। हे माधाव, भला अपने ही लोगों को मार के हम सुखी कैसे होंगे? 37

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस:।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥38

    यद्यपि लोभ के चलते चौपट बुद्धिवाले ये (दुर्योधन वगैरह) कुल के संहार के दोष और मित्रों की बुराई करने के पाप को समझ नहीं रहे हैं।38

कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्नर्वत्तितुम्।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यभिद्र्जनार्दन॥39॥  

    (तथापि) हे जनार्दन, कुल के संहार के दोष को जानते हुए भी हम इस पाप से बचने के लिए (यह बात) क्यों न समझें?39

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:।

धार्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधार्मोऽभिभवत्युत॥40

    कुल के क्षय होने से सनातन-चिरन्तन या पुराने-कुलधर्म चौपट हो जाते हैं और धर्मों के नष्ट हो जाने पर समूचे कुल को अधर्म दबा लेता हैं।40

    यहाँ धर्म और अधर्म शब्द संकुचित धर्मशास्‍त्रीय अर्थ में नहीं आये हैं। इसीलिए कुलधर्म कहने से ऐसी अनेक बातें, अनेक कलाएँ और बहुतेरी हिकमतें भी ली जाती हैं जिनके बारे में कही कोई लेख नहीं मिलता। किन्तु जो परम्परा से व्यवहार में आती हैं। क्योंकि पूजा-पाठ आदि बातें तो पोथियों में लिखी रहती हैं। फलत: उनके नष्ट होने का सवाल तो उठता ही नहीं। वह कायम रही जाती हैं और किसी न किसी प्रकार उनका अमल हो ही सकता हैं। मगर जिनके बारे में कुछ भी कहीं लिखा-पढ़ा नहीं हैं उनका तो कोई उपाय नहीं रह जाता। जब उन्हें जानने और उन पर अमल करनेवाले ही नहीं रहे तो वे बचें कैसे? हमने साँप के जहर उतार देने और मृतप्राय आदमी को भी चंगा करने का ऐसा तरीका देखा हैं जो न लिखा गया हैं और न लिखा जा सकता हैं। वह तो अजीब चीज हैं जो समझ में भी नहीं आती हैं। मगर उस पर अमल होते खूब ही देखा हैं। इसी तरह की हजारों बातें होती हैं। इस श्लोक में जो कुछ कहा गया हैं उसका आशय यही हैं कि जब किसी वंश का वंश ही खत्म हो जाता हैं और केवल नन्हे-नन्हे या गर्भ के बच्चे एवं स्त्रियाँ ही बच रहती हैं तो नादानी और अज्ञान के गहरे गढ़े में वह वंश डूब जाता हैं। फलत: बचे-बचाये प्राणीजान पाते ही नहीं कि क्या करें। इसीलिए अधर्म शब्द उसी अन्धकार के मानी में आया हैं।

धर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।

स्‍त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायेते वर्णसंकर:॥41

    हे कृष्ण, अधर्म के दबाने पर कुलीन स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं (और) स्त्रियों के बिगड़ जाने पर, हे वार्ष्णेय, वर्णसंकर हो जाता हैं।41

    इस पर विशेष विचार पहले के पृष्ठों में हो चुका हैं।

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:॥42

    (और यह) वर्णसंकर कुलघातियों को और (समूचे) कुल को (भी) जरूर ही नरक ले जाता हैं। क्योंकि इनके पितर या बड़े-बूढ़े पिण्ड और तर्पण की क्रियाओं के लुप्त हो जाने से पतित हो जाते हैं-नीचे जा गिरते हैं (और जब बड़े बूढ़े ही पतित हो गये तब तो अधोगति एवं अवनति का रास्ता ही साफ हो गया)।42

    इस श्लोक के उत्तरार्ध्द में जो 'हि' आया हैं-हि ऐषां (ह्येषां)-वह कारण का सूचक हैं। साधारणतया यह शब्द कारण सूचक ही होता हैं। इसका मतलब यह हैं कि पूर्वार्ध्द में जो नरक और पतन की बात कही गयी हैं उसी की पुष्टि में हेतुस्वरूप आगे बातें लिखी गयी हैं। यही कारण हैं कि 'पितर:' शब्द को व्यापक अर्थ में लेके हमने बड़े-बूढ़े अर्थ कर लिया हैं। पहले भी 34वें श्लोक में 'पितर:' का यही अर्थ हैं। इसीलिए सिर्फ किसी स्थान या लोक विशेष में, जिसे स्वर्ग या पितृलोक कहते हैं, रहनेवालों के ही अर्थ में हमने उस शब्द को नहीं लिया हैं। हमारे अर्थ में वे भी आ जाते हैं। इसीलिए पिण्ड और उदक क्रिया का भी व्यापक ही अर्थ हैं। फलत: अन्न-जल आदि से आदर सत्कार एवं अतिथि पूजा वगैरह भी इसमें आ जाती हैं। साधारणत: समझा जानेवाला पिण्डदान एवं तर्पण तो आता ही हैं।

दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै:।

उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता:॥43

    वर्णसंकर पैदा करनेवाले कुलघातियों के इन दोषों के करते सनातन जाति धर्मों और कुलधर्मों का नाश हो जाता हैं।43

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।

नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥44

    हे जनार्दन हम ऐसा सुनते हैं कि जिन लोगों के कुलधर्म (आदि) निर्मूल हो जाते हैं उन्हें जरूर ही नरक में जाना पड़ता हैं।44

अहो बत महत्पापं कत्तरुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता॥45

    ओह, अफसोस, हम बहुत बड़ा पाप करने चले हैं। क्योंकि राज्य और सुख के लोभ से अपने ही लोगों को मारने के लिए तैयार हो गये हैं! ।45

       यदि मामप्रतीकारमशस्त्रां शस्त्रपाणय:।

       धृर्त्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥46

    (विपरीत इसके) अगर मैं शस्त्र-रहित हो के अपने बचने का भी कोई उपायन करूँ (और ये) शस्त्रधारी दुर्योधन के आदमी मुझे मार(भी) डालें तो भी मेरा भला ही होगा।46

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुन: संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस:॥47

    संजय बोला-चिन्ता और अफसोस से उद्विग्न चित्त अर्जुन ऐसा कह के (और) धनुष बाण को छोड़ के युद्ध के मैदान में ही रथ में बैठ गया।47

    इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रो श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्‍याय:॥1

    श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद हैं उसका अर्जुन-विषादयोग नामक पहला अध्‍याय यही हैं।

    अर्जुन का विषाद, युद्ध की हानियाँ और फलस्वरूप लड़ने में अर्जुन का जो विराग इस अध्‍याय में दिखाया गया हैं वह सभी युध्दों की समाजघातकता को बता के उनकी निन्दा करता हैं। जिनने बीसवीं शताब्दी के साम्राज्यवादी युध्दों को देखा और जाना हैं वह बखूबी समझ सकते हैं कि इनसे कुल, जाति, देश और उनके धर्मों का जितना भयंकर संहार होता हैं और सभी प्रकार के पतन का सामना वे किस कद्र जमा कर देते हैं। उनके चलते समूचे देश के देश की हर तरह की प्रगति किस प्रकार रुक जाती और समाज अवनति के अतर्लगत्ता में जा गिरता हैं यह बात उन्हें साफ विदित हैं। इसीलिए अर्जुन की बातें वे आसानी से समझ सकते हैं। फलत: इनमें उन्हें कोई अलौकिकता मालूम न होगी।

गीता - 10

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