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प्रेम की भूतकथा

विभूति नारायण राय

 

 भाग-2

उपन्यास का अनुक्रम भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4 भाग-5 भाग-6 भाग-7 भाग-8 भाग-9

आजकल वह मारी आंतु आनेत के बारे में बता रहा था। मारी आंतुआनेत -वही दंभी कुटिल रानी जिसने अपने सौंदर्य और षडयंत्रों के बल पर राजा को बेबस कर दिया था और जिसका यह कथन कि अगर लोगों को रोटी नहीं मिल रही तो केक क्यों नहीं खाते- जनता के गाल पर तमाचे की तरह पडा तो लेकिन उसने मुकुट राजा का गिराया। उसने रस ले लेकर मारी के बारे में महल में प्रचलित कहानियां सुनायीं। वह प्रसंग भी हंस हंस कर सुनाता रहा जिसमें महल के कुछ दुष्ट षडयंत्रकारी सामंतों ने एक धूर्त पादरी को मारी आंतुआनेत को एक मंहगी भेंट देने के लिये उकसाया और फिर भेंट लेती रानी को पकडवा दिया। रानी की कामुकता को लेकर महल और उसके चारों तरफ फैले वर्साय शहर में जो गीत दबे स्वर में गाये जाते थे, वे भी उसने सुनाये।

अब वह मारी को गिलोतिन पर चढाये जाने की कथा सुनाने वाला था और इसे लेकर बहुत उत्तेजित था। अन्य कथाओं के बीच बीच में वह किसी मंजे कथा वाचक की तरह यह सूचना देता रहता था कि अभी तो मुझे उसने सिर्फ ट्रेलर दिखाया है । असली कथा तो अब आयेगी। उसने मेरे अंदर यह जानने की उत्कट इच्छा पैदा कर दी थी कि कैसे एक अधखाया अधनंगा किसान क्रान्ति की लडाई में सिपाही बन बैठा और कैसे उसने एक कडी प्रतियोगिता में दूसरे सिपाहियों को पछाडते हुये मारी आंतुआनेत की गर्दन गिलोटिन पर काटने का सम्मान हासिल कर लिया।

''क्या मैं इस दिलचस्प गाथा से वंचित रह जाऊंगा?''

मैंने दफ्तर में बैठे बैठे सोचा कि अगर मैं मसूरी चला गया और किसी दूसरे गंभीर प्रोजेक्ट में लग गया तो इस कथा का क्या होगा? हांलाकि मेरा पुराना अनुभव कहता था कि भूत समय का व्यतिक्रम नहीं मानते और किसी भी कथा के सूत्र कहीं भी छोडक़र कभी भी उठा सकतें हैं । वे इतने पटु किस्सागो होतें हैं कि आपको पता भी नहीं चलता और कहानी अपनी पुरानी रफ्तार से चलने लगती है । इसके बावजूद मेरा अनुभव यहा भी था कि कई मामलों में एक बार साथ छूटने के बाद बाज बाज भूत फिर पकड में नहीं आते । अगर ऐसा इस भूत के साथ भी हुआ तो मैं फ्रांसीसी क्रांति की इस अदभुत कथा से वंचित हो जाऊंगा।

मैं कर भी क्या सकता था? यह तय था कि दुष्ट सम्पादक मुझे मसूरी भेज कर ही मानेगा । मैंने सब कुछ भूत के ऊपर ही छोडने की ठानी और अपने काम में डूब गया । घर लौटकर रात में जब मेरी मुलाकात भूत से हुयी और उसने कहानी आगे बढायी तो मैं इसी उलझन में था।

कहानी सुनाते सुनाते अचानक भूत ठिठका। उसका स्वर कुछ धीमा हुआ और उसने पूछा-

''क्या हुआ दोस्त ? कुछ अनमने लग रहे हो ?''

मैं समझ गया कि वह क्षण आ गया है जब मैं उससे अपनी समस्या के बारे में प्रश्न कर सकता था।

''देखो मुझे गलत मत समझना। मुझे तुम्हारी बातों में बडा मजा आ रहा है। अब तो कहानी का वह क्षण आने वाला है जिसका इतने दिनों से इन्तजार कर रहा था। रोटी मांगने पर केक खिलाने वाली रानी की गर्दन कटती और उसे तुम काटते। मजा आ जाता। पर दोस्त मुझे कुछ दिनों के लिये बाहर जाना है । शहर से बाहर। क्या ऐसा हो सकता है कि कुछ दिनों के लिये तुम इस कथा को यहीं रोक दो। लौटने के बाद फिर यहीं से शुरू करेंगे। ''

मैंने देखा कि भूत का चेहरा लटक गया। बात संभालने के लिये मैंने कहा -

''या ऐसा करतें हैं कि तुम भी साथ चलो। हिल स्टेशन चलेंगे। तुम्हारा साथ रहेगा तो और मजा आयेगा । रास्ते में कहानी भी चलती रहेगी। ''

भूत को बच्चों की तरह बहलाया फुसलाया नहीं जा सकता। मेरा दोस्त भी कोई अपवाद नहीं था। यह उसकी भलमनसाहत ही थी कि उसने सख्ती से कुछ नहीं कहा पर नर्मी से जो कुछ कहा उसका मतलब यह था कि कल किसने देखा है। कल का भरोसा उसने जीवित रहते नहीं किया तो अब भूत योनि में जाने के बाद क्यों करेगा? रही बात बाहर जाने की तो भूत बाहर सिर्फ विश्वासी लोगों के साथ ही जातें हैं। मेरे जैसे आदमी का क्या भरोसा जिसे भूतों के अस्तित्व पर ही विश्वास नहीं है? मुझे पहाडों पर कोई दूसरा भूत मिल जाएेगा तो मैं उसकी दोस्ती में रम जाऊँगा और उसे भूल जाऊँगा। इससे अच्छा है कि वह यहीं रह जाए और अगर मेरे लौटने तक उसे कोई दूसरा श्रोता नहीं मिला या मेरी उससे दोस्ती की इच्छा बरकरार रही तो फिर मिलेंगे। तब तक के लिये बाय -बाय, टा- टा ।

मुझे अफसोस हुआ कि मैंने उसे बताने में जल्दी क्यों कर दी ? अभी तो मसूरी के लिये निकलने में पूरे अडतालीस घन्टे बाकी थे । तब तक उससे इस दिलचस्प कथा के अगले हिस्से सुने जा सकते थे। हॉलाकि वह कातता बहुत था और कहानियों से कहानियां गढता था पर क्या पता वह इन अडतालीस घंटों में उस बिन्दु तक पहुँच ही जाता जिसका मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था- यानि रानी मारी आंतुआनेत की गिलेटिन पर कटती हुयी गर्दन और दर्प, विस्मय तथा भय से भरी ऑखों वाला कटा सर, गिलेटिन के सामने छटपटाकर शांत होता धड, ग़िलेटिन के पीछे और गिलेटिन का लीवर हाथ में पकडे हुये सिपाही में तब्दील एक किसान जो काम खत्म होने के सन्तोष के अलावा दुख और घृणा के साथ अपने माथे का पसीना पोंछ रहा है _ इस दृश्य में मैं अपने दोस्त का दो सौ साल पुराना चेहरा देखना चाहता था। जिस तरह से वह कहानी बुनता था उसमें उम्मीद तो कम थी पर क्या पता हम वहॉ तक पहुँच ही जाते?

बहरहाल अब किया ही क्या जा सकता था ? जल्दबाजी में मैंने उसे नाराज कर दिया था। इसके अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था कि मैं इस उम्मीद में मसूरी जाने की तैयारी करूं कि लौटने पर वह फिर आयेगा और छूटे हुये सूत्रों को तलाश कर कथा आगे बढायेगा।

भूत ने एक बात सच कही थी । शायद उसे मेरी बेवफाई की फितरत का सही अंदाज था। उसका शक सही था। पहाड पहुँचने के दो एक दिनो के अंदर ही मेरी दोस्ती दो भूतों से हो गयी जिनमें एक स्त्री भूत थी और जैसा मैं ऊपर निवेदन कर चुका हूं मैं इसे भूतनी नहीं भूत ही पुकारूंगा।

इस भूत से मिलने की कथा भी बडी दिलचस्प है और बिना आपको सुनाये कहानी आगे नहीं बढेग़ी।

हुआ कुछ ऐसा कि मैंने पहली रात जिस छोटे से होटल में बिताई उसके पास की एक पुरानी खस्ताहाल इमारत ने मेरा ध्यान बरबस खींच लिया। मैं मई के पहले हफ्ते में मसूरी पहुॅचा था और उस समय मसूरी भीड से पटी पडी थी। कंधे से कंधा छिल रहा था। टैक्सी से उतरते ही मेरा मूड ऑफ हो गया। इस भीड में काम क्या हो पायेगा? मेरे हाथ में जो प्रोजेक्ट था उसके लिये सन्नाटा और एकाग्रता दोनों जरूरी थी। चलो दो एक दिन घूम घाम कर लौट जाएेंगे, संपादक की बात भी रह जाएेगी और कुछ तफरीह भी हो जाएेगी मैंने सोचा । अगली बार बडे दिन की छुट्टियों में आऊँगा। बेटे की छुट्टियां होने के कारण बीबी भी आ सकेगी और सर्दियों में भीड भाड न होने के कारण मसूरी में काम करना भी आसान होगा।

मैंने कुली से सामान किसी होटल में ले चलने के लिये कहा। कुली मेरा सामान पीठ पर लादे कई होटलों में गया पर जगह कहीं नहीं थी। होटलों के रिसेप्शन पर बैठे लोग सीधे मुंह बात नहीं कर रहे थे। घुसते ही सर हिलाने लगते थे। काफी जद्दोजहद के बाद कुली मुझे इस खटारा से होटल में लेकर आया जहॉ एक छोटे से सीलन भरे कमरे में, जिसमें पहले से ही एक दूसरा मुसाफिर ठहरा हुआ था मुझे एक चारपाई और सामान रखने भर की जगह मिली।

होटलों की तलाश में कई घंटे पैदल चलने ने मुझे इतना थका दिया था कि जैसे ही इस होटल में बिस्तर पर लेटने की संभावना दिखायी दी मैंने कमरे की सीलन और उसके साथ जुडे बाथरूम की बदबू नजरअंदाज की और कमरे में मौजूद दूसरे बिस्तर पर बेसुध लेटे व्यक्ति पर उचटती हुयी नजर डाली और खुद भी जिन कपडों में वहॉ तक पहुँचा था उन्हीं में अपने बिस्तर पर लुढक़ गया।

मुझे याद नहीं कि मैं कितनी देर सोया। जब उठा तो अजीब तरह का आलस बदन पर तारी था। मेरे सिर के ठीक सामने कमरे की बडी सी खिडक़ी थी जिससे शहर की रोशनियां दिखायी दे रहीं थीं। मैं जब बिस्तर पर गिरा था तब सूरज डूबा नहीं था । इसका मतलब मैं कई घंटे सोता रहा था।

कमरे में नीम अंधेरा था। हल्के टिमटिमाते बल्ब की रोशनी में कुछ समय लगा यह देखने में कि कमरे के दूसरे बिस्तर पर कोई बैठा था।

'' मैं आपके उठने का इंतजार कर रहा था। अपना सामान चेक कर लीजिये , मैं जा रहा हूं। ''

मैंने अनमने भाव से कमरे के उस कोने पर नजर दौडाई जहॉ सामान पटककर मैं बिस्तर पर लेटा था। मेरे दोनो सूटकेस और कपडे क़ा झोला वहीं पडे थे।

मैंने औपचारिकता में पूछा _ ''आप मसूरी से जा रहें हैं?''

''मसूरी से नहीं सिर्फ इस होटल से जा रहा हूँ। ''

''कोई बेहतर जगह मिल गयी?''

मैंने सोचा कि मेरी तरह मसूरी में यह भी इस घटिया होटल में आ गया था और अब ठीक ठाक जगह मिल जाने के कारण जा रहा है।

''अजी इतने पैसे में इससे अच्छा होटल कहॉ मिलेगा? जहॉ जा रहा हूं वह भी ऐसा ही है। लेकिन वहॉ कमबख्त भूत से तो छुटकारा मिल जाएेगा। ''

''भूत से ! यहॉ कोई भूत भी रहता है?'' मैं खुशी से चिहुँका।

''हां जी , रात भर ससुरे ने सोने नहीं दिया। पूरी रात घोडे क़ी टाप सुनायी देती रही । मैं तो रात ही में भाग जाता पर कमबख्त होटल वाले ने नीचे से दरवाजा बन्द कर रखा था। ''

'चलो अब मजा आयेगा। '' मैंने उसकी घबराहट का आनन्द लेते हुये कहा।

''मजा आयेगा? आपको भूत से डर नहीं लगता। ''

''डर ! डर किस बात का भूत तो मेरे दोस्त हैं । ''

मेरे रूममेट का मुँह खुल गया था और वह आश्चर्य से मुझे परख रहा था। इस बीच उसने दोनो हाथों में अपना सामान उठा लिया था।

''भूत तुम्हारे दोस्त हैं?''

''दोस्त ! मैं तो खुद ही एक भूत हूं। ''

मेरे मुँह से निकल तो गया पर जिस तरह गिरते पडते अपने सामान के साथ वह कमरे से भागा, उसे देखकर मुझे उस पर तरस भी आया और हंसी भी।

उसके निकल भागने के बाद मैं देर तक हॅसता रहा। दरअसल ये लोग जो भूतों के अस्तित्व पर विश्वास करतें हैं उनसे सिर्फ डर सकतें हैं, मेरी तरह उनसे दोस्ती नहीं कर सकते।

कमरे में अकेले होते ही मैंने भूत की तलाश शुरू कर दी। कैसा है? कहॉ है? भूत योनि में कब से है? तमाम प्रश्न थे जिनके उत्तर तलाशने थे सबसे पहले तो यह जानना जरूरी था कि भूत है किसका?

भूतों से मेरी दोस्ती तभी शुरू होती है जब कुछ बुनियादी सूचनायें मेरे पास हों। सूचनायें किसी किताब से हासिल हो सकतीं थी या फिर कोई किस्सागो दे सकता है। एक बार भूत की शक्ल सूरत या जन्म मृत्यु से परिचित होते ही फिर मुझे किसी तीसरे की जरूरत नहीं रह जाती है । फिर तो भूत होता है और मैं। भूत से अच्छा किस्सागो नहीं होता और मुझसे अच्छा श्रोता भी दुर्लभ है , लिहाजा दोस्ती और कहानी चल निकलती है।

इस भूत के बारे में जानकारी हासिल करने के लिये मुझे देर तक इन्तजार नहीं करना पडा। पहला बेयरा जो कमरे में घुसा वही मेरी शंका समाधान के लिये पर्याप्त था।

''भाग गये साहब । '' उसने कमरे के खाली बिस्तर की तरफ देखते हुये कहा।

''हॉ , क़िसी भूत का जिक्र कर रहे थे, ''

मैंने उसके हाथ से चाय का प्याला ले लिया , '' कहॉ है भूत ?''

''अरे साहब आप आराम से रहिये, कोई भूत वूत नहीं है। ''

''भूत नहीं है तो मैं क्या करूँगा रहकर। मैं तो भूत की वजह से ही आया था। ''

''आप भूत से मिलने आयें हैं? अखबार वालें हैं क्या?''

मेरे हॉ में सर हिलाने पर उसने ट्रे मेज पर रख दिया,

''अखबार वाले कभी कभी आतें हैं कप्तान साहब के बारे में जानकारी हासिल करने। इस होटल की खिडक़ियों से मैंने देखा है कप्तान साहब को घोडे पर सवार अपनी कोठी की बाहरी दीवार पर टप-टप की आवाज करते। मेरी तो फोटू भी उतार कर ले गये हैं कई बार। कई अखबारों में छपी भी । क़ल दिखाऊंगा आपको। '' उसने गर्व से कहा।

इसके बाद काफी देर तक एक दूसरे के धैर्य की परीक्षा ली गयी।

मैं बार बार उससे इसरार करता रहा कि वह मुझे कप्तान साहब से मिलवा दे जिसका जिक्र अभी अभी उसने किया था और वह हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर इसे टालता रहा ।

''साहब सिर्फ उजाले पक्ष में आता है। आपको सात आठ दिन बाद आना पडेग़ा तब आप उसे अपना घोडा टप - टप दौडाते हुये देख पायेंगे। ''

''एक बार मुझसे दोस्ती हो जाएेगी तो अंधेरी रातों में भी साहब आ जाएेगा। ''

''नहीं अंधेरी रात में नहीं आयेगा । ''

''फिर कल इस कमरे में उसके घोडों का टाप कैसे सुनायी देती रही ? बेचारा भला आदमी भाग गया । ''

''अरे ये तो डर गये थे । किसी से सुन लिया था कि यहां भूत आता है तो खिडकी दरवाजे बन्द करके सोये । सपने में टप- टप सुन कर डर गये होंगे । साहब तो उजाले पक्ष में ही आता है । खास तौर से पूरे चांद की रात आप को घोडा दौडाता दिखेगा। ''

''अरे भाई , मेरे पास तो भूत कभी भी आ सकतें हैं । ''

इस तरह के कुछ वाक्यों के आदान प्रदान से मैं समझ गया कि भूत से ज्यादा कठिन इस बैरे से निपटना है । पहाडों पर भी अर्थशास्त्र पहुँच गया था , खास तौर से मसूरी जैसे हिल स्टेशनों पर तो सिर्फ अर्थशास्त्र ही बचा था।

भूत के बारे में जानकारी फोकट में नहीं मिलेगी_ यह स्पष्ट हो गया।

मैंने बैरे को अपनी शाम के लिये एक बोतल रम लाने को कहा और उसे इतना पैसा दिया जिसमें दो बोतलें आ सकें और बिना किसी लाग लपेट के यह बता दिया कि दूसरी बोतल उसके लिये है । इसके बाद चीजें आसान हो गयीं। वह मुझे कमरे की खिडक़ी के पास ले गया और उससे बाहर झांकते हुये थोडी दूर पर स्थित एक विशाल हवेली की तरफ इशारा किया। शहर चारों तरफ बिजली के लट्टुओं की रोशनियों से जगमगा रहा था। इन रोशनियों के बीच खण्डहर में तबदील होती यह हवेली किसी बीमार की तरह पीली और उदास लग रही थी।

मैं समझ गया कि दूसरे भूतों की तरह यह भूत भी खण्डहरों का शौकीन है। पता नहीं ये भूत खण्डहरों को ही क्यों पसंद करतें हैं? वे चाहें तो आलीशान मकानो को भी अपना डेरा बना सकतें हैं । वे चाहें तो क्या नहीं कर सकते? शायद वे मानतें हों कि दुनियां में रहने वाले जीवित लागों को अच्छे मकानों की ज्यादा जरूरत है। उनके लिये क्या फर्क पडता है _ किसी खण्डहर के कोने अतरे में लटके रह सकतें हैं।

दूसरों की सुख सुविधा के लिये खुद को आराम से वंचित रखना कोई भूत से सीखे।

इस विशाल हवेली, जो इस समय मुकदमेबाजी से पस्त है , के बडे से फाटक पर एक पत्थर लगा है जिस पर उसके बनाने वाले ने बडे प्रेम से एक इटैलियन संगमरमर पर इमारत का नाम खुदवाया था। डेढ सौ सालों की गर्द गुबार चढने के बाद भी अगर थोडा सा खुरचा जाए तो अभी भी इस नाम को साफ साफ पढा जा सकता है। बैरे ने मकान के नाम का जो उच्चारण किया वह मेरे पल्ले नहीं पडा। मैं सिर्फ इतना ही समझ पाया कि कोई विदेशी नाम है और बैरा उसका गढवाली संस्करण पेश कर रहा है। मैं बहुत परेशान इसलिये नहीं हुआ कि सही नाम तो भूत बता ही देगा।

भूत के नाम का भी गढवाली करण हो गया था। यह समझने में थोडा वक्त लगा कि जिन सज्जन को वह कप्तान साहब कह रहा था वह ऍग्रेजी फौज के कैप्टन थे। आज के कैप्टन नहीं जहॉ तक पहुंचने में इस समय हिन्दुस्तानी फौज के अफसरों को चार पांच साल लगतें हैं, उस जमाने के कैप्टन- जिस पद पर ज्यादातर अफसर अपनी उम्र के ढलान पर पहुँचते थे।

जिस भूत को वह कप्तान जंग का भूत कह रहा था वह तो मुझे उससे मुलाकात के बाद पता चला कि वह कैप्टेन यंग नामक आइरिश अफसर का भूत था और जो अपने गोरखा सिपाहियों के बीच इतना लोकप्रिय था कि उसके सिपाही उसे यंग की जगह जंग और जंग से भी ज्यादा जंग बहादुर कह कर पुकारते थे और जो लडाई के मैदान में उनसे तेज आवाज में आयो आयो रे गुरखाली का उद्धोष करता था और जो विजया दशमी के दिन अपनी खुखरी से उनसे अधिक प्रवीण तरीके से भैंसे की मोटी गरदन एक बार में उडा देता था। यह तीसरी गुरखा पलटन थी जिसे अंग्रेजों ने खडा किया था और जिसकी पहली कमान कैप्टन यंग ने संभाली थी।

मैंने बैरे से कैप्टन यंग का कोई फोटो दिखाने के लिये कहा। बैरा काफी देर तक घूम घाम कर असफल लौट आया। चूंकि बिना पूरे हुलिये की जानकारी के किसी भूत से मेरी दोस्ती नहीं हो पाती थी इसलिये यह बहुत जरूरी था कि मैं उसकी शक्ल सूरत से वाकिफ होऊँ। मैंने चौकीदार से कैप्टन यंग के चेहरे मोहरे की जानकारी देने को कहा क्योंकि उसने शुरू में ही दावा किया था कि वह हर चॉदनी रात में सरपट घोडा दौडाते हुये यंग के भूत को देखता है पर अपने खौफजदा चेहरे और आंतकित ऑखों से उसने सिर्फ इतना ही कहा कि काला लबादा ओढे भूत को ऊंचे घोडे पर सवार टप-टप दौडते हुये उसने हमेशा पीछे से देखा है, सामने से भूत को देखने की ताब किसमें है?

भूत अपने जीवित अवस्था में कैसा था इसे जानने का एक ही तरीका था कि शहर के इतिहास पर लिखी गयी कोई ऐसी किताब हाथ लगती जिसमें कैप्टन यंग की तस्वीर हो। मैं फौरन बिस्तर से उठ खडा हुआ।

''साथ में सोडा लेंगे या सिर्फ पानी लगाऊँ ?''

''आस पास कोई किताबों की दूकान है ?''

बैरे ने अचकचा कर मुझे देखा। शराब और किताब में क्या सम्बन्ध हो सकता है , उसकी समझ में नहीं आया।

''किताब की कोई दूकान खुली होगी इस समय ?''

मैंने उतावली में पूछा ।

आठ बज रहे थे और मई का महीना होने के बावजूद दोपहर बाद हुयी बारिश से खासी ठण्ड थी और इस बात की बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि मसूरी में इस समय कोई दूकान खुली होगी पर मैं बाहर निकल आया।

मेरा होटल जहॉ था वह जगह मुख्य सडक़ से थोडा हटकर थी। एक पतली सी गली आगे चलकर सडक़ से मिलती थी। मैं बाहर निकला तो गली एकदम सुनसान थी। तेज हवाओं में ठंडी नमी घुली हुयी थी जो थपेडों की तरह मेरे चेहरे से टकरा रही थी और एक बार तो मेरे मन में आया कि वापस अपने कमरे में भाग जाऊॅ लेकिन भूत से मिलने की उत्तेजना ने मुझे बाहर दूर तक चलने के लिये प्रेरित किया।

मेरा पुराना अनुभव है कि जब मैं किसी भूत से मिलने को मन से उत्सुक होता हूँ तो भूत मेरी मदद करतें हैं। यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ। निर्जन मालरोड पर जब कुहरा बूंद बूंद कर ठण्ड की शक्ल में टपक रहा हो और जब स्ट्रीट लाइट से झरने वाले प्रकाश की किरणे सडक़ से तीन चार फीट ऊपर ही टॅग कर रह जा रहीं हों और निर्जन बन्द शटरों वाले बाजार में आपको दूर दूर तक कोई न दीख रहा हो उसी समय अगर दूर एक दूकान पर कोई बूढा आदमी अपनी दूकान का शटर गिराता सा दिखे तब आप क्या सोचेंगे ? यही न कि कोई आपके ही इन्तजार में था और ऐसा नहीं कि वह निराश होकर जा रहा है , वह तो सिर्फ बाहर सडक़ पर खडा होकर शटर गिराने का अभिनय कर रहा है ताकि आप उस आदम न आदमजात बाजार में भी उसे देख लें और कहीं दूर से ही वापस न लौट जॉय। जाहिर है कि ऐसी दूकान उसी चीज की होगी जिसकी आपको तलाश है । इस दूकानदार ने कोई सपना नहीं देखा होगा कि आप उसे ढूंढ़ते हुये ऐसे एकांत समय में उसके पास आयेंगे। निश्चित रूप से आपके मित्र भूत ने ही उसे यह बताया होगा और प्रेरित किया होगा कि जब पूरा बाजार शटर गिरा कर सर्दियों की मार से बचने के लिये लिहाफ में दुबक जाए यह बूढा आदमी भूख और अपनी बुढिया की प्रतीक्षारत चिंतित ऑखों की उपेक्षा कर अपनी दूकान में आखिरी ग्राहक के रूप में आपका इंतजार करे!

कम से कम मैं तो यही मानता हूं। पिछले बहुत सारे अनुभवों की तरह यहॉ भी मैं गलत नहीं हो सकता।

मैं करीब पहुँचा तो बूढे ने ताले पर फिरती ऊँगलियां रोक दीं। उसके हाथ में कोई चाभी नहीं थी। साफ था कि वह शटर गिराकर ताला बन्द करने का अभिनय सिर्फ समय काटने के लिये कर रहा था। जैसे ही मैं उसकी तरफ मुडा उसने बिना कुछ कहे सुने ताला शटर के छेद से बाहर निकाला और शटर ऊपर उठा दिया।

''बहुत देर कर दी। ''

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। ''

शायद बूढे क़ो किसी जवाब का इन्तजार भी नहीं था। वह शटर उठाकर दूकान के अन्दर घुसा। अन्दर की बत्तियां जल रहीं थीं। जैसे कोई जानता था कि अभी फिर दूकान खुलेगी , कोई चीज बिकेगी और फिर दूकान बढा दी जाएेगी।

मैं बूढे क़े पीछे पीछे अंदर घुसा। बिना दूकान का बोर्ड देखे मैं यह जानता था कि यह किताबों की दूकान होगी और यह किताबों की ही दूकान थी।

बूढा एक तरफ खडा हो गया और उदास नजरों से मुझे रैक में लगी किताबों पर दृष्टि दौडाते देखता रहा। काफी समृद्ध दूकान थी। साहित्य , कला, इतिहास और दर्शन शास्त्र जैसे खानों में बंटी हुयी। मुझे पता था कि मेरा भूत किसी इतिहास की किताब में छुपा होगा। इसलिये मैं इतिहास वाली रैक के सामने जुट गया। काफी देर तक मैं अपने मतलब की किताब नहीं तलाश पाया और मैंने बूढे क़ी तरफ यह जानने के लिये देखा कि वह मेरी उपस्थिति से छुटकारा तो नहीं पाना चाहता है। उसका चेहरा पहले की ही तरह निर्विकार था लेकिन उसके हाथों में एक मोटी जिल्ददार किताब थी जिसे इस बीच उसने न जाने कहां से निकाल लिया था। उसने किताब मेरी तरफ बढाई।

मैंने किताब की कीमत चुकाई और बिना उसे उलटे पुलटे बाहर निकल आया। मुझे पता था कि जिस भूत से मेरी मुलाकात होनी है वह इसी किताब में मौजूद है।

सडक़ पर ठण्ड के कारण सन्नाटा तो था ही , अँधेरा भी कोहरे से लिपटा हुआ बूँद बूँद कर पानी की शक्ल में टपक रहा था। रही सही कसर सर्द हवा के थपेडे पूरी कर रहे थे। इन सबसे बचने के लिये मैं लगभग दौडता हुआ अपने होटल में लौटा।

मैंने अपने कमरे में पहुँचते ही ओवर कोट उतारकर कुर्सी पर फेंका, अपने लिये एक बडा पैग बनाया और किताब लेकर रजाई में घुस गया।

किताब देहरादून के सैनिक इतिहास पर लिखी गयी थी। मैंने बेचैनी से उसके पन्ने पलटने शुरू किये और जल्दी ही मुझे अपनी बेचैनी का जवाब मिल गया । किताब के बीच में मोटे आठ पन्ने चित्रों से भरे थे और उनमें से तीसरे ही चित्र पर मेरी ऑखें टिक गयीं।

35-40 की पकी उम्र को छूती हुयी एक गर्वीली काया जिसके दोनो कानों के कुछ नीचे तक चौडे ग़लमुच्छे पसरे हुये और हल्के से बाहर निकले पेट पर ब्रीचेज डाँटे, घुटनो तक के लांग बूट के ऊपर फ्राक कोट और कमर से लटकी जमीन को छूती तलवार के साथ पूरे पृष्ठ पर टंकी हुयी थी। नीचे बोल्ड में छपा था कैप्टन यंग , -तीसरी गोरखा रेजीमेण्ट के प्रथम कमाण्डेन्ट।

मैं काफी देर तक कैप्टन यंग की तस्वीर निहारता रहा। सब कुछ बडा ही भव्य और सम्मोहक था। तस्वीर थी ही ऐसी कि लगा बोल पडेग़ी। मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि बोलने का आतुर यह व्यक्ति भूत बन गया था। ऐसे व्यक्ति बोलने को आतुर होते ही हैं। कम से कम मेरा मानना यह है कि मेरी संगत में आते ही ऐसे लोग बोलने के लिये बेताब हो जातें हैं। वे भूत होते ही इसलिये हैं कि मेरे दोस्त बन जाएें और दोस्त होते ही मुझसे बतियाने लगतें हैं। उनके बोलने से ही मेरी कहानी आगे बढती है।

गोरखा पलटनों का इतिहास पढते हुये एक सैनिक इतिहासकार ने इस दिलचस्प विरोधाभास की तरफ ध्यान मेरा ध्यान आकर्षित हुआ कि ब्रिटिश इन्डियन आर्मी का एक बडा हिस्सा उस नेपाल से आता था कि जिसके शासकों ने प्राणपण से प्रयास किया कि गोरों की परछाईं भी उसके भू-भाग और प्रजा के आसपास न फटक पाये। दुनियां के सैनिक इतिहास में शायद यह पहला उदाहरण है जहां पहले दो कौमों में घनघोर युध्द लडा जाता है और फिर लडाई के फौरन बाद पराजित लडाके विजेता फौज के सबसे महत्वपूर्ण अंग बन जातें हैं । गुरखे 1815 में अपने बहादुर नायक अमर सिंह के नेतृत्व में जनरल आक्टरलोनी की अपने से कई गुना बडी फ़ौज से हारे जरूर पर उन्होंने अंग्रेजों से अपनी बहादुरी का लोहा मनवा लिया ।

शुरू में जो चार गोरखा पलटनें खडीं हुयीं उनमें से तीसरी पलटन को पहले कमाण्डेंट के तौर पर कैप्टन यंग मिला। ये सारी पलटनें लोकल इनफैंटरी कहलाती थी और वेतन तथा भत्तों में नियमित पलटनों से थोडा कमतर थीं।

कैप्टन यंग के भूत से मिलने के पहले जो तैयारी जरूरी थी वह मैंने अगले दो तीन घंटों में पूरी की । बेयरे के बयान के मुताबिक आधी रात के आस पास घोडे की टापों की आवाजें सुनायीं देतीं हैं और तभी हिम्मत वालों को घोडे पर सवार कैप्टन यंग का भूत दिखायी देता है । कमजोर दिल वाले होटल के कर्मचारी और मुसाफिर तो टापों की आवाजें सुनते ही अपने बिस्तरों मे रजाई ओढ कर दुबक जातें हैं । गोरखा रेजिमेंट पर जो किताब मैं लाया था उसे अगले कुछ घंटों में मैंने खत्म कर दिया । गुरखों, कैप्टन यंग और उनकी तीसरी पलटन , जिसे सिरपूर बटालियन भी कहते थे, के बारे में मुझे इतनी जानकारी मिल गयी थी कि मुझे पूरा विश्वास था कि कैप्टन यंग से मेरी खूब छनेगी । मेरा विश्वास सही साबित भी हुआ । मैंने लौटकर कमरे में ही अपना खाना मँगा लिया था और किताब शुरू करने के पहले अपना पहला पेग भी बना लिया था पर जब तक किताब खत्म हुयी मेरा भोजन और पेय अनछुआ पडा रहा ।

बेयरे के मुताबिक पूरे चाँद की रात 12 बजे के बाद मलिंगर नाम की इस कोठी के खण्डहरों के छत पर काले रंग के एक ऊँची काठी वाले घोडे पर सवार जंग बहादुर का भूत दिखता है । यदि आप किसी खिडकी दरवाजे के पीछे सटकर स्थिर खडे हो जाएँ और ध्यान से देखें तो पहले काफी देर तक यह आकृति स्थिर खडी दिखती है । फिर किसी बेचैन आत्मा की तरह सवार अपने घोडे को एड मारता है और मलिंगर की छतों ,दीवारों, दालानों और खाली भरी जगहों पर घोडा और उसका सवार दौडते ही रहतें हैं---दौडते ही रहतें हैं । बेयरे का दावा था कि उसने खुद अपनी आँखों से हर पूर्णिमा को यह दृश्य देखा है । कई बार तो उसने देशी-विदेशी पत्रकारों को भी यह दृश्य दिखाया भी है । मसूरी की उस रात होटल के साधारण से कमरे में मैं पूरी खिडकी खोले नीम अँधेरे में डूबी एक ऐसी इमारत को निहार रहा था जिसे डेढ सौ साल पहले आयरलैण्ड के मलिंगर नामक कस्बे से आये कैप्टन यंग ने बीस साल से अधिक समय तक अफगानिस्तान से लेकर कुमाऊँ और गढवाल की पहाडियों में लडते लडते थक गये अपने शरीर को आराम देने के लिये बनवाया था । यह उन दिनों की बात है जब मसूरी अभी बस ही रही थी और मलिंगर उसकी पहली इमारतों में एक है । आज खंडहर हो चुकी इस इमारत को देखकर भी इसके भव्य अतीत का अनुमान लगाया जा सकता था । यंग को यह जगह इतनी पसन्द आयी कि उसने रिटायरमेंन्ट के बाद आयरलैण्ड वापस लौटने का इरादा छोड दिया और यहीं बस गया ।

खुली खिडकियों से ठंडी हवा के थपेडे अन्दर आ रहे थे और बर्फानी सलाखों से सटा मेरा चेहरा सुन्न सा हो रहा था । ठीक बारह बजे मुझे मलिंगर की छत पर एक आकृति उभरती सी दिखी । अगर मुझे यंग का इंतजार न होता तो मैं उसे खण्डहरों का ही एक हिस्सा समझता । पर नहीं थोडी देर नजरें गडाते ही मुझे एक विशाल घोडा और उस पर बैठे बडी कद-काठी के सवार की आकृति साफ दिखनी लगी । मैं जिस कुर्सी पर बैठा था उसे लगभग धकेलता हुआ बाहर भागा । पूरे होटल में सन्नाटा था । पहली मंजिल के सूने गलियारे को लगभग दौडते हुये पार कर सीढियों से मैं नीचे उतरा । नीचे रिसेप्शन पर एक अधेड सा आदमी ऊँघ रहा था, उसके सामने सोफे पर एक बेयरा सोया पडा था और सर्दियों से बचने के लिये बाहर का दरवाजा पूरी तरह बन्द था । मेरे दरवाजा खोलने तक उन दोनों को पता नहीं चला पर जैसे ही मैंने सिटकनी गिराई, खट की आवाज ने दोनो को चैतन्य कर दिया । उनके प्रश्नों का उत्तर सिर्फ हाथों को हिलाते हुये देकर मैं कमरे के बाहर टपकती हुयी नम बूँदों वाले ठण्डे कोहरे में समा गया । "जय गोरख हूजूर"

जैसे ही मैंने गोरखों का पारम्परिक अभिवादन किया कैप्टन यंग जंग बहादुर बन गया और घोडे से कूदकर मेरे सामने आ खडा हुआ । फिर शुरू हुयी लम्बी बातें दूसरे भूतों की तरह यह भूत भी बातूनी था। फौजी था इसलिये कडक और सनक से भरपूर ।

उसने कितनी बातें कीं । दुनियाँ जहान की बातें । फौजी था इसलिये ज्यादातर बातें युद्धों की, शूरमाओं की और युद्धस्थल पर बिछडने वाले अपने साथियों की उसने मलाउन की पहाडियों पर जनरल आक्टरलोन के नेतृत्व में लडे गये लोमहर्षक युद्ध के विवरण सुनाये जिसमें पहली बार गोरखों की बहादुरी के दृश्य उसने देखे थे और जो अब भी उसकी स्मृति में टँके हुयें हैं । 1815 की शुरूआत में गोरखा जनरल अमर सिंह को हरा कर आक्टरलोन ने जो जंग जीती उसने अँग्रेजों को गोरखा पलटने खडा करने की प्रेरणा दी और कैप्टन यंग को इनमें से एक की कमान संभालने का मौका दिया । उस लडाई में कैप्टन यंग को जो जख्म लगे थे उन्हें वह अपनी कमान के गुरखों को प्रेम से दिखाता था और उन्हें अँग्रेजी में चुनिन्दा गालियाँ देता था । गुरखे कभी बुरा नहीं मानते थे,¸ उन्हें पता था कि उनका कमांडिंग अफसर उन्हें बेटा सिर्फ औपचारिक सम्बोधन के रूप में नहीं कहता बल्कि सचमुच उन्हें अपने बेटे के रूप में मानता भी है । यंग उनके साथ मधु या छाँग पीता, झामरे नृत्य करता और दशहरे के मौके पर शर्त लगाकर बलि के लिये बनी विशेष खुखरी से भैंसे की गर्दन पर वार करता । अक्सर शर्त भी वही जीतता । बहुत कम ऐसा हुआ कि उसके एक वार से किसी भैंसे का सर कटकर जमीन पर न लोटने लगा हो । गोरखों से उनकी भाषा खासकुरी में धारा प्रवाह बातें करता हुआ, शस्त्र पूजा करता, भैंसे का प्रसाद ग्रहण करता या रणभूमि में आयो रे गुरखालो का उदघोष करते हुये हमला करता यंग इतना अधिक गोरखा लगने लगा था कि उसके सिपाहियों ने उसका नाम भी गोरखा कर दिया था- जंग बहादुर ।

यही जंग बहादुर उर्फ कैप्टन यंग मुझे न जाने कितनी देर तक मसूरी और गोरखों के किस्से सुनाता रहा। उसने मजे ले लेकर अपनी पत्नी के खीजने और लडने के किस्से सुनाये जब उसने मसूरी में बसने और कोठी बनाने का फैसला किया । बडी मुश्किल से उसकी आइरिश बीबी यहाँ रहने को तैयार हुयी । उस बेचारी ने तो यंग की वर्दी पेटी टँगते ही आयरलैंड लौटने की योजना बना रखी थी। उसकी बात करते करते यंग उदास हो गया । मिसेज यंग मसूरी रुकी तो जरूर पर अधिक दिन रही नहीं ।

अक्सर जब यंग लम्बी घुडसवारी या शिकार से लौटता उसे कोठी के बाहर एक चट्टान पर उदास पश्चिम की तरफ टकटकी लगाये देखता । यंग को करीब आता देखकर वह फीकी सी हँसी हँसती, उसका बढा हाथ थामकर चट्टान से उतरती और अन्दर चली जाती । यंग का फौजी मन बहुत बाद में समझ पाया कि वह अन्दर ही अन्दर घुल रही थी । जब उसने पहली बार बिस्तर पकडा और यंग लैण्डोर से फौजी डाक्टर लेकर आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी । वह बहुत दिन जी नहीं पायी । यंग को दुख है कि उसका गुस्सा अभी तक खत्म नहीं हुआ था और आज भी हर पूर्णिमा को यंग चिरौरी करता है लेकिन वह भूत योनि में भी मलिंगर के खण्डहरों में आने को तैयार नहीं होती। यंग को और भी बहुत से दुख थे । एक दुख तो ऐसा था जिससे मैंने हर जीवित फौजी को पीडित देखा है । पत्रकारिता के अपने अनुभवों से मैं कह सकता था कि फौजी सिविल शब्द का उच्चारण बडे अपमान के साथ करतें हैं । उनके लिये दुनियां की हर खराबी के लिये सिविल यानी असैनिक जिम्मेदार हैं। यंग भी दुख के साथ बयान करता रहा कि कैसे सिविलियनों ने मसूरी बरबाद कर दी । यहाँ तक कि लैण्डोर जो उसके समय सिर्फ फौजी छावनी थी, भी अब कांक्रीट के जंगल में तब्दील हो गयी है । हर तरफ गन्दगी है ,पेड कट गयें हैं और भीड में एकांत तलाशना मुश्किल हो गया है । यंग को अब के फौजी अफसरों से भी शिकायत है । यंग को अपनी पलटन के एक एक जवान का नाम याद था। उनके छुट्टी से लौटने पर उनका चेहरा देखकर वह बता सकता था कि उनके घर में क्या चल रहा था । आज अफसर अपने जवानों के सुख दुख में शरीक नहीं होते । वे उन्हें बेटा सिर्फ औपचारिकता में कहतें हैं । इसीलिये जवान भी अफसरों की कद्र नहीं करते । पुराने फौजी की तरह यंग शिकायतों का पिटारा खोलता रहा और मैं सुनता रहा------सुनता रहा । और मुमकिन था कि मेरे पेट में जो थोडी बहुत शराब और खाना पहुँचा था वह अपना असर दिखाता और मैं सो जाता पर तभी यंग ने एक ऐसा नाम लिया जिसको सुनने की मुझे एकदम उम्मीद नहीं थी और जिसे सुनते ही मैं चैतन्य हो गया ।

सार्जेंट मेजर एलन----- जैसे ही कैप्टन यंग के मुँह से यह नाम निकला मैं सतर्क हो गया । "सार्जेंट मेजर या करपोरल एलन ?" मैं लगभग चीखा । "तुम कैसे जानते हो एलन को ?" यंग ने चौंक कर मेरी तरफ देखा । "पहले यह बताओ कि सार्जेंट मेजर या कारपोरल ?" एलन का नाम यंग की शिकायतों में से निकला था । अपने बाद की पीढी के फौजी अफसरों की शिकायत करते करते यंग ने सार्जेंट मेजर एलन का नाम लिया जिसे उसके अफसरों ने उसके हाल पर छोड दिया था । मजाल थी कि ऐसी कोई घटना उसकी पलटन में होती, यंग आसमान न उठा लेता । पर एलन के अफसरों ने तो उसे सब कुछ अकेले ही भुगतने दिया ।

"मुझे एलन के बारे में बताओ । " मैं चिरौरी पर उतर आया था । "एलन का रैंक था तो कारपोरल ही। 14वीं लाइट कैवेलरी में भरती हुआ था । मेरी पलटन में तो दो सालों के लिये ही आया था और उसे लोकल प्रमोशन देकर सार्जेंट मेजर बना दिया गया था । तुम्हें पता नहीं कि उन दिनों पलटनों में कमाण्डेंट, एडजुटेंट , सार्जेंट मेजर और क्वार्टर मास्टर सार्जेंट योरोपियन होते थे-------। मुझे पता था लेकिन मैंने भूत को टोका नहीं । युद्ध और सेनाओं के इतिहास में तो मुझे वैसे ही दिलचस्पी थी, फिर इस मामले में तो मैंने वैसे भी खूब तैयारी की थी । मुझे पता था कि हजार से ज्यादा की जनशक्ति वाली पलटनों में जिम्मेदारी के सारे ओहदे योरोपियन गोरों के पास ही रहते थे पर मैंने उसे बोलने दिया । "चूँकि नेटिव भले जमादार या सूबेदार के ओहदे तक पहुँच जाए उन्हें सार्जेंट मेजर या क्वार्टर मास्टर सार्जेंट नहीं बनाया जा सकता था इसीलिये दूसरी पलटनों से योरोपियन कारपोरल या लांस कारपोरल को लोकल प्रमोशन देकर दो तीन साल के लिये किसी पलटन में इन पदों पर तैनात कर दिया जाता था । " मेरी समझ में आ गया था । कारपोरल एलन भी 14 वीं लाइट कैवेलरी से तीसरी गोरखा पलटन में इसी तरह आया होगा और फिर अपना समय काट कर वापस चला गया होगा । "एलन मेरा अच्छा ओहदेदार था । सख्त और कडक परेड ग्राउण्ड पर गोरखों का खून पी जाता था । शाम को उनके साथ शराब पीता था और खासकुरी में गाली गलौज करता था । दो वर्षों में ही दक्ष हाथों से भैंसे की बलि देने लगा था । मैं परेड ग्राउण्ड के बाहर से उसे देखता मुझे अच्छा लगता था । " "पर तब तुम कहाँ थे ? तुम्हारे पेंशन जाने के बीसियों साल बाद एलन के पैर भारत की जमीन पर पडे थे---------। " यंग ने तरस खाते हुये मुझे झिडका -

"मैंने पलटन खडी की थी । पलटन आज भी मुझे अपना पिता समझती है । आज भी उनके अफसर मेस के डायनिंग हाल में सबसे बडी तस्वीर मेरी है । आज भी जंग के मैदान में लडके आयो रे गुरखाली के साथ साथ कप्तान जंग बहादुर की जय के नारे लगातें हैं । आज भी जब सुबह परेड ग्राउण्ड पर लडके फालिन होतें हैं मैं बाहर खडा होकर उन्हें निहारता रहता हूँ -----। " कप्तान उत्तेजित हो गया था । मैं समझ गया कि चुप रहने में ही भलाई है । काफी देर तक वह बकबक करता रहा । न जाने कितने अफसरों को उसने ब्लडी बास्टर्ड कहा , कितनों की तारीफ की, न जाने कितने युद्धों में मिली हार जीत का विश्लेषण किया--- कितनी बार बताया कि अगर उसके पास कमान होती तो किस लडाई में कौन सी गलती नहीं होती और कैसे वह हार के जबडों से जीत खींच कर ले आता । मैं सुनता रहा और अपनी गलती पर पछताता रहा । भूत और खास कर फौजी भूत को कभी ऐसे नहीं टोकना चाहिये कि उसे लगे कि उस पर अविश्वास किया जा रहा है । एक ही चारा था कि उसे बोलने दिया जाए और बहला फुसला कर वापस अपने मतलब पर ले आया जाए । मैंने यही किया और घुमा फिरा कर उसे एलन तक ले आया । हाँलाकि इसमें वक्त बहुत लग गया ।

तुम एलन को कैसे जानते हो ?" "मैंने एलन के बारे में पढा है । मुझे लगता है इतना अच्छा इंसान हत्यारा नहीं हो सकता । " "तुम्हें कैसे पता कि एलन अच्छा आदमी था ?" "जितना पढा और आज जितना आपसे सुना उससे तो यही लगता है । आप भी तो यही कह रहे थे ------। आपसे अच्छा पारखी कौन हो सकता है ?" मेरी चापलूसी से उसकी आवाज कुछ नर्म पडी । "सही कहते हो । एलन जैसे मस्त मौला और बहादुर सिपाही किसी पलटन में कम ही होतें हैं । तुम क्या पत्रकार हो ? एलन के बारे में जानकर क्या करोगे ?" "मै अपने अखबार में लिखूँगा । आपको क्या लगता है कि एलन ने सचमुच कत्ल किया होगा ?" "देखो सौ साल बाद कुछ कहना बहुत मुश्किल है । कम से कम मेरे लिये तो कुछ भी कहना संभव नहीं है । पर मुझे लगता है कि मेरी पलटन के उस बहादुर सिपाही के साथ न्याय होना चाहिये । शायद तुम कर सको । " "पर मैं शुरू कहाँ से करुँ । कोई तो ऐसा चाहिये जो मेरी मदद कर सके । " "तुम पत्रकार हो ----- मेहनत तो तुम्हें ही करनी होगी । " वह फिर उपदेश देने लगा । किसी दूसरे बूढे की तरह यह भूत भी नसीहतों से भरा था । वह देर तक आज के पत्रकारों की तुलना अपने समय के पत्रकारों से करता रहा । मुझे अहसास था कि उसे टोकने से कोई फायदा नहीं है । मैं चुपचाप सुनता रहा । शायद मेरे चेहरे की बेचारगी थी या फिर भूत को खुश करने के लिये मेरे द्वारा की गयी बेइंतहा चापलूसी , भूत पिघल ही गया । "देखो मैं खुद उत्सुक हूँ ,यह जानने के लिये कि एलन हत्यारा था या नहीं । मैंने बहुत कोशिश की लेकिन सच्चाई जानना इतना आसान है क्या ? चलो तुम कोशिश करो । तुम कामयाब होगे तो मुझे भी खुशी होगी । मैं देखता हूँ कि मैं क्या मदद कर सकता हूँ ?"

उसके बाद कैप्टन यंग के भूत ने जिस मदद की बात की वह बहुत आशा तो नहीं पैदा कर रहा था पर मेरे पास विकल्प भी क्या था ? उसने मुझे एक ऐसे भूत से मिलवाने का वायदा किया जो 1909 में जीवित था और जिसके सीने में ऐसे कई राज दफन हैं जिन्हें कैप्टन यंग बहुत कोशिश करके भी नहीं उगलवा सका था । मैं भी कोशिश करके देख सकता हूँ ।

वह लम्बी रात जब तक बीती तब तक मैं बुरी तरह थक गया था । अभी आसमान के पूरब में ह्ल्की लाली दिखी ही थी कि भूत की बेचैनी उसके चेहरे पर साफ छलकने लगी थी । मुझे पता था कि उजाला भूतों का दुश्मन होता है इसलिये मैंने एड लगाकर अपने घोडे पर खण्डहरों को फँलागते और हवा में विलीन होते कैप्टन यंग के भूत को रोकने की कोशिश नहीं की ।

मैं जब थका मांदा होटल के कमरे में पहुँचा तब मन में केवल एक इच्छा थी- बेसुध होकर बिस्तर पर गिर जाऊँ और नींद मुझे अपने आगोश में ले ले । पर इस नये भूत की दोस्ती ने मेरी यह छोटी सी कामना पूरी नहीं होने दी । मेरे सिरहाने स्टूल पर एक डायरी रखी हुयी थी । जब मैं गया था तो उस पर पानी का जग रखा था । लौटा तो जग गायब था और यह डायरी मौजूद थी । मैंने बिस्तर पर लेटे लेटे उत्सुकता से डायरी खोली । पहला पेज पलटते ही मैं उछल पडा । 14 अगस्त 1910 की पहली प्रविष्टि ने ही मेरी नींद उडा दी । स्पष्ट था कि मेरी सहायता करने के लिये भूत यह डायरी वहाँ रख गया था । इतने अच्छे दोस्त तो सिर्फ भूत ही हो सकतें हैं । हर कदम पर आपकी मदद को तत्पर !

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