बचपन में नानी के सुने किस्सों में आने वाले भूत बहुत वाचाल होते थे।
वे वक्त- बेवक्त कभी भी बोल सकते थे । न सिर्फ बोल सकते थे बल्कि
बोलते थे और खूब बोलते थे । शायद यही वजह है कि जिन भूतों से मेरी
दोस्ती होती है वे सभी खूब बोलतें हैं। उन्हें चुप कराना मुश्किल हो
जाता है। बचपन में मैं भूतों से डरता था और उनके डर से बीच में ही जग
जाता या भाग कर किसी बडे क़ी शरण में चला जाता इसलिये उनसे संवाद बीच
में ही टूट जाता। अब डर नहीं रहा इसलिये मेरे साथ भूतों के भी मजें
हैं। वे देर तक बोल सकतें हैं और मैं सुन सकता हूं ।
भूतों और मजे हुये किस्सागो में क्या समानतायें हो सकतीं हैं ?
मेरी नानी जबरदस्त किस्सागो थीं। मेरी बचपन की स्मृतियों में अपने
ननिहाल में बितायीं वे रातें अब तक टंगीं हैं जिनमें आधा सोते आधा
जगते और हुंकारी भरते नानी को घेरे बच्चों में से एक मैंने विलक्षण
कहानियां सुनीं थीं। ये कहानियां साल दर साल गर्मियों की छुट्टियों
में सुनायी जातीं थीं और इन में आदि और अंत ही तय होता था। मध्य में
हमेशा नये पात्र जुडते घटते रहते थे। पूरा का पूरा कथानक बदल जाता था
पर नानी किसी सधे कथाकार की तरह अंत वहीं करतीं थीं। हर साल और हर
चौथी पाँचवीं रात दुहरायी जाने वाली कहानियों में इन परिवर्तनों से
इतनी विविधता भर जाती थी कि हम कभी भी ऊबते नहीं थे और हर बार ऐसा
लगने के बावजूद कि कहानी पहले कही जा चुकी कोई भी नानी को नहीं
टोकता। सारे जोड घटाने के बावजूद अंत वही होता।
इसमें नानी की कोई गलती नहीं थी। उनकी पीढी, ज़िसमें ये कहानियाँ
नानी को सुनायीं गयीं थीं , में कहानियों का सुखद अंत रखने का चलन
था। सौभाग्य से वे उन यथार्थ वादियों के चंगुल में नहीं फँसे थे जो
जीवन को उसकी खुरदुरी सच्चाइयों के साथ पेश करना चाहते हैं।
किस्सागोई की इस परम्परा में पेड, पौधे,पशु, पक्षी सब हंसते
खिलखिलाते थे, परियाँ, राजकुमारियाँ, राजकुमार उडन खटोलों पर बैठकर
वहाँ तक चले जाते थे जहॉ तक मनुष्य की कल्पना जा सकती थी, लोभी
मंत्री और दुष्ट राक्षस हमेशा असफल होकर सजा पाते थे। कहानी का अंत
इस सदिच्छा के साथ होता था कि जैसे इस कथा के राजकुमार को उसका
राजपाट और राजकुमारी वापस मिल गयी वैसे ही सबको मिल जाए।
आज मैं सोचता हूं तो लगता है कि कितने अच्छे थे वे दिन। न कहीं
भूख थी, न दैन्य, न रोग, न शोक। सब कुछ अच्छा ही अच्छा था। आज के
शासकों की तरह उन दिनों के राजा महाराजा जनता को सिर्फ लूटते नहीं
थे। तोता मैना आसन्न संकट की सूचना पहले ही दे देते थे। कथा के मध्य
तक जितना भी रहस्य रोमांच हो , श्रोता अन्दर से कहीं न कहीं आश्वस्त
होता था कि अन्त भला ही होगा। सौभाग्यशाली थीं नानी और उनकी नानी कि
उनका परिचय यथार्थवादी कथा लेखकों से नहीं हुआ था। वे अपनी खुशगवार
दुनियां में मस्त रहते थे।
मेरे मित्र किस्सागो भूत इतने भाग्यशाली नहीं हैं। उनसे ऐसे समय
में मेरा परिचय हुआ जब सुखांत वादी किस्सागोई की परंपरा लगभग खत्म हो
चुकी है। अब न परिवारों में किस्से सुनाने वालीं दादी नानी हैं और न
इन्टरनेट, टी। वी। में उलझे बच्चों के पास इतना समय कि उन्हें तलाश
सकें। ऐसे समय में तो सिर्फ ये भूत ही बचें हैं जो कि किस्सागोई की
परम्परा को बचाये हुयें हैं। उनके साथ दिक्कत सिर्फ इतनी ही है कि वे
उन्हीं को किस्से सुनातें हैं जिन्हें इनके अस्तित्व में यकीन न हो।
जो उनमें विश्वास करतें हैं उन्हें तो सिर्फ डरातें हैं । मुझे
दूसरों से क्या मतलब? मुझे उनके होने में विश्वास नहीं है इसलिये वे
मुझे खूब किस्से सुनाते हैं।
भूतों में किस्सागोई की रिले परम्परा है, कम से कम मेरे भूतों में
तो है ही। रिले रेस के धावकों की तरह वे अपना हिस्सा दौड चुकने के
बाद कथा दूसरे व्यास को थमा देतें हैं । मजे की बात यह है कि हर
व्यास किसी मजे कथा वाचक की तरह इस तरह कथा कहता है कि लगता ही नहीं
कि कोई कथा टुकडों में कही जा रही है।
कैप्टन यंग के भूत ने भी इस मुकाम पर पहुंच कर कथा का बेटन दूसरे
भूत को थमा दिया। मैं उसका साथ छोडना नहीं चाहता था। पिछले कई दिनों
से वह मेरे साथ था। उठते, जागते, सोते, जागते का साथी था कप्तान।
उसका अरबी घोडा, लाल फौजी जैकेट , कानों को छोपे हुये उसके गलमुच्छे,
उन्नत ललाट, चौडा वक्ष और इन सबसे अधिक मेरे कानों में फुसफुसाती
उसकी मीठी आवाज- इन सबसे बिछुडना तकलीफदेह था। लेकिन मैं जानता था कि
भूत जब एक बार फैसला कर लेतें हैं तो फिर उन्हें डिगाना बडा मुश्किल
होता है। इस भूत ने साथ छोडने की जो वजह बतायी वह बडी अजीब थी।
कैप्टन यंग ने तीसरी गोरखा पलटन खडी की थी । इसलिये आज तक अपने को
उसका जनक मानता है। हर सुख दुख में वह उसके साथ रहता है । पलटन जहाँ
कहीं तैनात हो वह उसी के आस पास मंडराता रहता है । सारे युद्धों में
जहाँ तीसरी गोरखा लडी है वह रणभूमि के पास किसी ऊँचे दरख्त या खंडहर
के ऊपर बैठकर अपने लडकों को बहादुरी से लडते देखता रहा है । जब कभी
लडके जीतें हैं उसने जम कर उनके साथ मधु पी है और झूम कर झामरे नाचा
है । लडकों की हार पर महीनों उदास बेचैन इधर उधर भटका है । पूरे चाँद
की रात वह जरूर मलिंगर के खण्डहरों में अपना घोडा दौडाता है लेकिन
बाकी सारा वक्त तो वह तीसरी गोरखा की लाइन में , बैरकों या मेसों के
कोने -अतरे में ही बिताता है । इस तीसरी गोरखा पलटन के सार्जेंट मेजर
एलन को वह कैसे अकेला छोड सकता था ? भले ही एलन उसकी पलटन में सिर्फ
दो ढाई साल ही रहा हो , पर रहा तो था। रेजिमेंट की परम्परा थी कि एक
बार जो उसका हुआ हमेशा के लिये हो कर रह गया । इस लिये जैसे ही उसे
एलन के मुसीबत में होने का पता चला वह भागता हुआ देहरादून की अदालत
में पहुँचा । अदालत के रोशनदान से लटके लटके उसने पूरे मुकदमे की
कार्यवाही देखी थी । पूरी कार्यवाही में एलन जिस बहादुरी से तन कर
खडा रहा उस पर कैप्टन यंग को आज भी गर्व है । ऐसा सिर्फ वही कर सकता
है जिसका ताल्लुक तीसरी गोरखा पलटन से रहा हो । कैप्टन यंग ने मुझे
वह प्रसंग कितनी बार सुनाया था जिसमें वकील बार बार एलन से पूछता था
कि शाम सात-साढे सात बजे से आधी रात तक वह कहाँ था और एलन हर बार एक
ही जवाब देता था कि उसे याद नहीं । चिढकर वकील एलन को पुलिस के सामने
दिये बयान की याद दिलाता था कि वह इस बीच किसी लडकी के साथ था लेकिन
उसका नाम नहीं बतायेगा । इस पर हर बार एलन खामोश हो जाता और वकील या
जज के बार बार पूछने पर भी कोई जवाब नहीं देता ।
कैप्टन यंग का मन अदालती कटघरे में खडे एलन का माथा चूम लेने का
करता रहा । उस क्षण उसे भूत होने पर अफसोस हुआ पर इस बात पर गर्व भी
कि उसने तीसरी गोरखा को ऐसी शानदार परम्परा दी है कि उसमें कुछ दिन
काटने वाला भी फाँसी चढ सकता था पर कोई ऐसा काम नहीं कर सकता था
जिससे किसी भद्र महिला की प्रतिष्ठा खतरे में पड जाए । विक्टोरियन
नैतिकता की यह मिसाल सिर्फ उसके लडके ही पेश कर सकते थे । एलन को
फाँसी की सजा सुनाते हुये जज को कैप्टन यंग ने देखा था और यह भी देखा
था कि कैसे सजा सुनते समय एक क्षण के लिये एलन का चेहरा स्याह हुआ और
फिर कैसे निर्विकार हो गया । उसके ओंठों पर खेलने वाली भोली भाली
मुस्कान कब वापस आयी, यह भी यंग को याद है । पर इस मुकदमे के दौरान
और उसके बाद से आज तक उसे यह जानने की उत्सुकता बनी हुयी है कि क्या
एलन सचमुच ह्त्यारा था? उसने बहुत कोशिश की लेकिन सच्चाई का पता नहीं
लगा सका । पूरे मसूरी में पागलों की तरह वह भटका है, हर उस किसी की
जिससे एलन का सम्बन्ध हो सकता था , उसने जासूसी की है , उन दिनों वह
घंटों पब्लिक लाइब्रेरी में बैठा है और मसूरी से छपने वाले मसूरी
टाइम्स और बाहर से आने वाले स्टेट्स मैन में इस हत्याकाण्ड को लेकर
छपने वाली बहसों को पढा है लेकिन अंतिम सच तक नहीं पहुँच पाया । इसी
सच की तलाश में वह उस भूत तक पहुँचा था जिसके बारे में उसे पूरा यकीन
था कि वह घटना का चश्मदीद गवाह हो सकता था । हाँलाकि कैप्टन यंग पूरी
कोशिश करके भी उससे कुछ उगलवा नहीं पाया था पर एक मनुष्य के रूप में
शायद मैं कामयाब हो सकूँ । इसीलिये वह मुझे इस नये भूत से मिलवाने के
लिये तैयार हो गया । शर्त सिर्फ इतनी थी कि अगर मैं सफल हुआ तो मुझे
कैप्टन यंग को सच्चाई से अवगत कराना होगा ।
कथा के जिस मोड पर वह मुझे पहुँचा कर छोड रहा था वहाँ बहुत से ऊबड
ख़ाबड रास्ते थे। इतने दिनों के साथ से मैं यह तो समझ ही गया था कि
मेरा यह दोस्त बहुत शर्मीला है। खास तौर से जीवित मनुष्यों की सोहबत
से वह बचना चाहता है । शायद उसकी लम्बी फौजी जिंदगी ने उसे एक खास
तरह के खाँचे में ढाल दिया था जिसमें व्यक्ति आदेश देने या आदेश पालन
करने लायक तो रह जाता है पर किसी ऐसे संवाद से बचने की कोशिश करता है
जहाँ बराबरी की गुंजायश हो। पूरे विश्वास से तो नहीं कह सकता लेकिन
शायद यही कारण था कि यंग ने मेरा साथ छोड दिया । जाने से पहले वह
मुझे जिसके हवाले कर गया वह भी कुछ कम दिलचस्प किस्सागो नहीं था।
इस बार का किस्सागो था नहीं थी। दरअसल यह भूत एक स्त्री का था।
मैंने पहले ही अपने पाठकों से निवेदन किया था कि लैंगिक भेदभाव से
भरे हमारे समाज में स्त्री का शरीर अक्सर गाली गलौज के काम आता है।
हम शायद ही किसी पुरूष को गाली देते समय भूत शब्द का इस्तेमाल करतें
हों पर भूतनी स्त्रियों के लिये जरूर गाली देने के काम आती है। जो
भूत मेरे लिये इतने मित्रवत हैं उन्हें कोई ऐसा संबोधन देने की मैं
कैसे सोच सकता हूं जिससे वे अपमानित महसूस करें ? आप कह सकतें हैं कि
भूत तो मान-अपमान और प्रेम-घृणा इन सबसे ऊपर होतें हैं। कोई गाली
उन्हें नहीं व्यापेगी। पर मैं नहीं मानता। भूतों के अपने लम्बे अनुभव
से मैं कह सकता हूं कि कोई भी भूत मान-अपमान और प्रेम-घृणा से उतना
ही प्रभावित होता है जितना जीवित अवस्था में वह इन भावनाओं से
प्रभावित होता था। इसलिये मैं व्याकरण दोष अपने साथ लेते हुये अपनी
इस नयी मित्र को भूत ही कहूंगा, भूतनी नहीं।
मेरी यह नयी मित्र मैडम रिप्ले बीन थी और कैप्टन यंग की तरह इससे
भी मेरी मुलाकात माल रोड पर ही हुयी थी। जिस दूकान पर कैप्टन यंग
मुझे मिला था उसी के बगल में एक किताबों की दूसरी दूकान थी । यह
फुटपाथ पर लगने वाली एक छोटी सी दूकान थी। दो बडी दूकानों की सीढियों
को इस तरह घेरकर कि उनमें जाने वालों को दिक्कत न हो, एक काम चलाऊ
दूकान निकाली गयी थी । यह पुरानी किताबों की दूकान थी - बिल्कुल उसी
तरह की जैसी दिल्ली के फुटपाथों पर दिखती है। या फिर अक्सर मसूरी
जैसे हिल स्टेशनों पर दिखायी देती है। इन पर व्यक्तिगत संग्रहों या
पुराने पुस्तकालयों से औने पौने भावों पर बेची गयी किताबें, बडे बडे
एटलस , विश्वयुध्दों की सचित्र गाथायें या बच्चों के कामिक्स बिकतें
रहतें हैं। मुझे अक्सर इन्हीं दूकानों पर दूनियां भर की बेहतरीन
किताबें मिलीं हैं। इसीलिये मैं जब भी किसी नये शहर में घूम रहा होता
हूं तो मेरा काफी वक्त इन दूकानों पर भी बीतता है।
मसूरी में मेरा यह दूसरा दिन था और पिछली रात मैंने जग कर गोरखों
के बारे में पढा था और डायरी पढते पढते मैं कब सोया मुझे याद नहीं था
। थकान और अनिद्रा से मेरा सर फटा जा रहा था। बाहर हल्की गुनगुनी धूप
खिली थी। हल्का नाश्ता करके मैं माल रोड पर निकल आया। बाहर शायद
सूकून मिल सके या कुछ देर टहलकर मैं खुद को इतना थका सकूं कि दोपहरी
में भी थोडी देर नींद आ जाए। मैं यह सोचकर बाहर निकला था।
लरोड पर मजे की भीड थी। मैं कई सालों बाद मसूरी आया था और मेरी
स्मृति में तब की मसूरी थी जब सडक़ों पर इतनी भीड नहीं होती थी । शहर
सूना हो जाता था। इस बार सब कुछ बदला बदला सा था। बाजार लोगों से पटे
थे । स्थानीय लोगों के अलावा काफी सैलानी सडक़ पर थे। इस समय तो हल्की
धूप की वजह से और ज्यादा लोग मटरगश्ती कर रहे थे । धूप गुनगुनी थी और
अच्छी लग रही थी। एहतियातन कुछ लोगों ने भारी गर्म कपडे पहन रखे थे
पर मसूरी की ढलान और चढाई वाली सडक़ें धूप में चलने वालों के माथों पर
पसीना चुहचुहा रहीं थीं। मैं भी उन्हीं में से एक था। मुझे पता था कि
पहाडाें पर मौसम कितना दगाबाज हो सकता है और कब मौसम का मिजाज बदल
जाए और सूरज को ढक़ते हुये बादल मसूरी की पहाडियों को ढक़ ले इसे कोई
भी नहीं बता सकता। जरा तेज हवा या हल्की बारिश कँपकँपाती ठंड का सबब
बन सकती है। इसीलिये मैंने भी कोई जोखिम नहीं लिया था और ढेर सारे
ऊनी कपडे पहने हुये था । धूप में थोडी देर चलने पर मुझे गर्मी सी
लगने लगी और मैं कहीं रूक कर सुस्ताना चाहता था कि तभी मुझे फुटपाथ
की यह दूकान मिल गयी।
इसी दूकान पर मिस रिप्ले बीन से मेरी मुलाकात हुयी । यह मुलाकात
इतनी अचानक थी कि मुझसे छूट भी सकती थी। दूकान पर बहुत सी पुरानी
किताबें थीं। डिकेंस, हेमिग्वे, शेक्सपियर, चेखब, गोर्की , टालस्टॉय,
आर्थर कानन डायल जैसे बहुत से बडे नाम थे जो इस तरह की दूकानों पर
अक्सर मिल जाते थे। मेरी निगाहें जिस पर टिंकीं वह एक अद्भुत खजाना
था। द इन्टरनेशनल लाइब्रेरी आफ फेमस लिटरेचर के सात खण्ड एक तरफ पडे
थे। मैंने पहला ही खण्ड उठाया कि मेरा शरीर खुशी से उत्तेजित हो उठा।
मैं उन्हें लेकर फुटपाथ के एक किनारे जमीन पर बैठ गया। सन् 1900 में
बीस खण्डों में छपी इस श्रृंखला में उस समय तक योरोपीय भाषाओं में जो
कुछ श्रेष्ठ छपा था, उपलब्ध था। इस तरह के दूकानदार गुणी गा्रहकों को
फौरन ताड लेतें हैं। यह दूकानदार भी अपने दूसरे ग्राहकों को निपटाते
निपटाते मुझपर उचटती निगाहें डालता रहा और फुटपाथ पर फैली अपनी
किताबों के बगल में रखे बक्से में से निकाल कर श्रृंखला की पाँच
किताबें और मेरे पास रख गया।
''और भी है। आप इन्हें देखिये, मैं अभी निकालता हूँ। ''
उसे शेष खण्ड निकालने की जरूरत नहीं पडी। आठवें खण्ड में मुझे वह
पर्चा मिल गया जिसने रिप्ले बीन से मेरी मुलाकात करायी थी।
सारे खण्ड बुरी हालत में थे। ऐसा लगता था कि बहुत दिनों तक किसी
बक्से में धूप और हवा से वंचित ये किताबें सिर्फ कबाडी क़ो बेचने के
लिये ही निकालीं गयीं थीं। छपने के लगभग अस्सी साल बाद ये मसूरी के
इस फुटपाथ पर बिकने आयीं थीं। नुची, चुथी, जगह जगह से उखडी ज़िल्दों
और पीले पड चुके पन्ने वाली इन किताबों में जिस किसी का पहला पृष्ठ
सुरक्षित था उस पर बडे क़लात्मक ढंग़ से पुस्तक के मालिक के हस्ताक्षर
और खरीदने की तारीख अंकित थी। हस्ताक्षर इतने स्पष्ट थे कि उन्हें
पढने में कोई दिक्कत नहीं हो सकती थी। ऐसा लगता था कि किसी ने किसी
निब को काली स्याही में डुबोकर बडे सुरूचिपूर्ण ढंग़ से लिखा था-
रिप्ले बीन । शुरूआत में अर्द्ध गोलाकार आर और अंत में एक लम्बी सीधी
रेखा के साथ खत्म होता एन। जितनी किताबों पर हस्ताक्षर थे सब एक ही
जैसे सधे।
रानी कहावत है कि आप लिखावट से लिखने वाले के व्यक्तित्व का अंदाज
लगा सकतें हैं। खास तौर से हस्ताक्षर किसी व्यक्ति को समझने में बडी
मदद करतें हैं। काली स्याही में डुबोकर निब से सुघडता से अंकित
रिप्ले बीन। एक कलात्मक और अपने में मस्त छवि वाला चेहरा सामने
कौंधा। दर्प की हदों को छूने वाला आत्मविश्वास पर किसी को टूट कर
प्यार करने को मचलता दिल भी।
मैं अलग अलग खण्डों के प्रथम पृष्ठ पर उपलब्ध हस्ताक्षरों को
ध्यान से देखकर रिप्ले बीन की छवि उकेरने की कोशिश कर ही रहा था कि द
इन्टरनेशनल लाइब्रेरी ऑफ फेमस लिटरेचर के चौथे खण्ड के पीले जर्जर
पृष्ठों में से किसी डायरी के पन्ने को आधा फडक़र उसपर एक पंक्ति में
लिखा गया वह पुर्जा जिसने रिप्ले बीन में एक दम से मेरी दिलचस्पी बढा
दी।
नो रिग्रेट्स माय लव- एक पंक्ति किसी मोटी नोंक वाली कलम से लिखी
गयी थी। कागज पूरी तरह से पीला पड ग़या था। उसे दो बार तह कर मोडा गया
था और न जाने कितने बरसों बाद उसे सीधा किया जा रहा था। जरा सी
असावधानी से वह किसी कडी सतह वाली धातु सा टूटकर चार टुकडों में
तब्दील हो सकता था । मैंने पूरी सावधानी से उस पर हाथ फेरकर उसे सीधा
करने की कोशिश की । जहाँ जहाँ से कागज मुडा था वहाँ उसमें गहरी
दरारें पड ग़यीं थीं। ऊपर की दाहिना बाजू वाली दरार में धुंधली सी कोई
संख्या दिख रही थी। गौर से देखने पर समझ में आया कि खत लिखने की
तारीख थी। दिन और महीना तो इतना धुंधला गये थे कि बडी क़ोशिशों के
बावजूद भी मैं उन्हें नहीं पढ सका। सन् का अंदाजा लगते ही मेरा पूरा
शरीर झनझना उठा। सन् 1910 यानि जिस सन् में एलन को फांसी हुयी थी।
मैंने अपनी सारी इन्द्रियों को एकाग्र करते हुये कागज के निचले
हिस्सों में छिपे उन अक्षरों को पढने की कोशिश की जिनमें पत्र लेखक
का नाम छिपा था। पाँच अक्षरों में सिर्फ बीच में एक ई ही पढा जा सकता
था। हे भगवान- - - क्या यह एलन था। ए एल एल इ एन। सचमुच यह तो एलन का
ही खत था। रिप्ले बीन की हस्तलिपि से उलट यह किसी कम पढे लिखे और
उतावले व्यक्ति द्वारा मोटी नोंक वाली कलम से लिखी गयी पंक्ति थी।
अगर यह 1910 में लिखा गया था तो निश्चित रूप से मरने के कुछ पहले
नैनी जेल से उसने लिखा था। पर यह खत रिप्ले बीन तक कैसे पहुँचा ? कौन
है या थी ये मिस रिप्ले बीन ?
सर्दियों की शाम धीरे धीरे रात में तब्दील हो रही थी। बूंद बूंद
कर टपकते हुये सर्द कोहरे ने स्ट्रीट लाइट और दूकानों के बाहर लगे
बल्बों की रोशनी को इतना कमजोर कर दिया था कि अब थोडी दूर की चीजें
को देखने के लिये भी अनुमान का सहारा लेना पड रहा था।
रिप्ले बीन की गुत्थी सुलझाने का प्रयास करते हुये मैंने चारों ओर
देखा। जिस छोटे से बरामदे की सीढियों पर किताबें फैली हुयीं थीं
उसमें तेज वाट के बल्ब जल रहे थे लेकिन कोहरे के तैरते हुये बादल
बरामदे के अंदर घुस आये थे और रोशनी के कमजोर चकत्ते किताबों पर पड
ज़रूर रहे थे पर उन्हें पढना मुश्किल लगने लगा था।
कुछ दूर सीढियों पर उकडूं बैठा दूकानदार मुझे ही एकटक देख रहा था।
मैं द इन्टरनेशनल लाइब्रेरी ऑफ फेमस लिटरेचर के खण्डों में इस कदर
उलझा हुआ था कि मुझे पता ही नहीं चला कि कब उसने अपनी ज्यादातर
किताबों को समेटकर दो बडे बडे बक्सों में भर लिया था। थोडी सी
किताबें उसके पैरों के पास पडीं थीं जिन्हें वह समेट जरूर रहा था पर
उसकी निगाहें मुझ पर ही गडीं थीं । शायद वह तौल रहा था कि मैं कुछ
खरीदूंगा भी या सिर्फ किताबें उलट पुलट कर अपना वक्त काट रहा था।
रिप्ले बीन के बारे में वही मुझे बता सकता था।
मैंने द इन्टरनेशनल लाइब्रेरी ऑफ फेमस लिटरेचर के सातों खण्डों को
एक के ऊपर एक रखते हुये पूछा-
''बाकी कहाँ मिलेंगे ?''
''बस ये ही हैं । सात खण्ड ही छपें हैं। ''
''अरे नहीं भाई, दस खण्डों में छपी है यह श्रृंखला । बाकी तीन
रिप्ले बीन के यहाँ होंगी। ''
दूकानदार ने चौंक कर देखा-
''उनके यहाँ होंगी तब तो मिलेंगी । मिलेंगी तो मेरे यहां ही - - -
-आप सात वाल्यूम ले जाओ । मैं दो एक दिन में बाकी भी ले आऊँगा। ''
मैं समझ गया। वह मुझे तौल रहा था। मैं कुछ खरीदूंगा भी या सिर्फ
बहानेबाजी कर निकल भागना चाहता हूँ। फुटपाथ की दूकानों पर जहाँ
खिडक़ियाँ नहीं होतीं वहां भी विन्डोशापिंग खूब होती है। लोग घंटों
किताबें देखतें हैं फिर कोई न कोई बहाना बना कर उठ जातें हैं। कई बार
तो बहाने की भी जरूरत नहीं होती। घंटों किताबें उलटने पुलटने के बाद
कोई अगर किताबों को बेतरतीबी से उनके ढेर में वापस रखते हुये उठने
लगता है तब इस आदमी के पास बेचारगी से उसे घूरने के अलावा और क्या
चारा रह जाता है ?
''रिप्ले बीन क्या मसूरी में रहतीं हैं?''
''उन्हें मरे तो कई साल हो गयें । ''
उसने जिस बेरूखी से जवाब दिया था उससे स्पष्ट हो गया था
कि वह रिप्ले बीन का पता मुझे नहीं बताना चाहता था। उसने धीरे धीरे
बाकी किताबों को भी बक्सों में भरना शुरू कर दिया। उसका हाथ मेरे पास
पडे सात खण्डों तक पहुँच चुका था। अगर एक बार किताबें उसके बक्से में
चली जातीं तो संभव था कि उससे मेरा संवाद ही खत्म हो जाता और खत्म हो
जाती रिप्ले बीन को ढूंढ़ने की उम्मीदें । मैंने किताबों को अपने पास
समेट लिया ।
''कितने में दोगे?''
दूकानदार के चेहरे का तनाव ढीला पडने लगा । उसने मुझे किताबों की
कीमत बतायी । इस तरह की खरीदारी के मेरे अनुभव ने मेरे मुँह से जो
कीमत बुलवाई वह दूकानदार की कही राशि की तिहाई से भी कम थी। वह भी इस
मोल तोल का अभ्यस्त था। बिना किसी झुंझलाहट या अधैर्य के वह राशि
घटाता बढाता रहा। अंत में पुरानी बोली के आधे पर सौदा तय हो गया ।
मैंने जेब से रूपये निकालते हुये फिर पूछा-
''रिप्ले बीन कहाँ मिलेंगी ?''
दूकानदार चुप रहा । पैसा उसके हाथ में पकडाते हुये मैंने अपना
सवाल दुहराया। पैसा हाथ में लेने के बाद उसने जवाब दिया-
'' उन्हें मरे कई साल हो गये । ''
''अरे नहीं भाई - - -मैं जब मिला था तब तो ठीक लग रहीं थीं । ''
''कब मिले थे आप? ''
दूकानदार ने ध्यान से मुझे देखा। मुझे लगा कि मेरा झूठ पकडा गया।
मैंने धीमी आवाज में कहा -
''काफी पहले । ''
''मैडम को मरे कई साल हो गये। '' उसने बात नही बढाई ,
'' उनके पास पुरानी किताबों का खजाना था । शायद उनके बाप का रहा
हो। बुढऊ को मैंने देखा नहीं था पर मैडम बतातीं थीं कि उन्हें पढने
का बहुत शौक था। स्काटलैण्ड से जवानी में ही आ गये थे व्यापार करने ,
फिर लौट कर नहीं गये । यहीं गोरा कब्रिस्तान में दफन हैं। मैडम की
बडी ऌच्छा थी कि उनके बगल में मिट्टी मिले लेकिन ईश्वर को कुछ और
मंजूर था । जब हम लोग उन्हें ले कर गये तो बगल में जगह कुछ कम पड ग़यी
और फिर उनके लिये थोडी दूर कब्र खोदनी पडी। ''
दूकानदार रौ में आ गया था। शायद उन सात खण्डों की बिक्री ने उसके
अंदर जोश भर दिया था । अब उसे किताबें समेटने की जल्दी नहीं लग रही
थी। मैंने भी उसे नहीं रोका।
''मैं बचपन से मैडम के पास जाता रहता था, पहले बाप के साथ , फिर
अकेले। मेरा बाप उनसे घंटों चिरौरियां करता तब वे कोई किताब बेचने के
लिये तैयार होतीं। कहतीं पापा डाँटेंगे। ''
''तुमने उनके पापा को देखा था?''
''नहीं - - - । जब मैंने जाना शुरू किया पापा को मरे कई साल हो
गये थे। पर वे रोज आते थे और मैडम बूढी होने को आयीं थीं लेकिन
उन्हें बुरी तरह डाँटते थे। ''
अरे ये तो भूत का मामला है - - - मेरे कान खडे हो गये। मेरे भीतर
की सारी इन्द्रियाँ चौकन्ना हो गयीं । रिप्ले बीन के पापा से दोस्ती
हो सकती है- - - या फिर हो सकता है कि रिप्ले बीन से ही दोस्ती हो
जाए। मुझे एक अदद फोटो चाहिये थी। दोनों में से किसी एक की।
''तुम्हारे पास उनकी कोई फोटो होगी ?''
''किसकी ?''
''रिप्ले बीन मैडम की या फिर उनके पापा की। ''
दूकानदार ने आश्चर्य से मुझे देखा।
''फोटो मेरे पास कहाँ से आयेगी ? फिर फोटो का आप करोंगे क्या?''
मैं उसे समझा नहीं सकता था । अगर मैं कहता कि मेरी भूतों से
दोस्ती हो जाती है और दोस्ती शुरू करने के लिये जरूरी है कि मुझे
जीवित अवस्था की उसकी फोटो मिले तो वह निश्चित रूप से मुझे पागल
समझता।
मैंने सात खण्ड एक साथ खरीदे थे । निश्चित रूप से उसे अच्छी खासी
आय हुयी थी और शायद यही कारण था कि जितनी देर उसने किताबें समेटी और
अपना बक्सा बन्द किया वह लगातार रिप्ले बीन जिन्हें वह मैडम कह रहा
था, के बारे में बोलता रहा।
उसके मुताबिक वह अपने बाप के साथ मैडम के यहाँ जाएा करता था ।
उसका बाप पुरानी किताबों का मसूरी का सबसे जानकार विक्रेता था। वह भी
इसी जगह पर दूकान लगाता था। बेटे के मुताबिक बाप को शहर के सारे उन
बूढे बूढियों के नाम पते याद थे जिनके यहाँ किताबों के खजाने गडे
हुये थे। इस सूची में सबसे ऊपर थीं रिप्ले बीन मैडम जिनके पास
बेमिसाल किताबें थीं। बाप ने पहली बार ही आलमारियों में सलीके से लगी
किताबों पर विस्फारित नेत्रों से निगाहें दौडाईं थीं। पहली नजर में
ही उसने जान लिया था कि अनमोल खजाना है बुढिया के पास और दो एक
मुलाकातों में ही उसे यह भी समझ में आ गया था कि करीने से सजी
किताबों में से एक भी खरीदना बहुत मुश्किल है।
मैडम किताबें क्यों नहीं बेचना चाहतीं थीं इसका जो कारण सर्दी की
उस शाम , जब अँधेरा धीरे धीरे सर्द कोहरे के रूप में टपक रहा था,
उसने मुझे बताया वही रिप्ले बीन से मेरी दोस्ती का सबब बना।
पचहत्तर पार कर रही रिप्ले बीन अपने पिता से बहुत डरती थी। उनके
पिता को मरे सालों हो गये थे किन्तु अभी भी रिप्ले उनके लिये किसी
लापरवाह किशोरी की तरह थीं जिन्हें सीधे रास्ते पर रखने के लिये
डाँटते रहना पिता बहुत जरूरी समझते थे। उनकी इस समझ को गलत भी नहीं
कहा जा सकता । उनके पिता मसूरी के शुरूआती गोरे बाशिंदों में से थे।
मैडम सिर्फ इतना बतातीं थीं कि कार्डिफ के किसी देहाती इलाके से काफी
कम उम्र में ही वे जडी बूटियों की तलाश में मसूरी आये और यहाँ के
एकांत और खूबसूरती से इतने प्रभावित हुये कि यहीं के होकर रह गये।
सालों उन्होंने पहाडों से जडी बूटियाँ तलाशीं और अपने देश भेजते रहे
। हर साल सोचते थे कि अगले क्रिसमस में वतन वापस लौटेंगे लेकिन जा
कभी नहीं पाये। जडी बूटियों के धंधे में पहले तो खूब कमाई हुयी पर
बाद में कलकत्ते के बिचौलियों ने धोखा देना शुरू कर दिया । उन्होंने
जडी बूटियों का काम छोड दिया और दूसरे धंधों पर हाथ आजमाये। हर जगह
एक ही कहानी दोहराई गयी। शुरू में तो हर बार फायदा होता लेकिन बाद
में कभी कोई पार्टनर धोखा दे देता तो कभी बाजार टूट जाता तो कभी
कलकत्ते से विलायत जाने वाला जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो जाता। मैडम की
माने तो उनके पिता व्यापार करने लायक ही नहीं थे । जो आदमी दिन का
अधिकांश समय किताबों के साथ बिताये वह व्यापार में घाटा नहीं तो और
क्या पायेगा? बहरहाल मैडम कुछ भी कहे पिता ने व्यापार में इतना जरूर
कमाया था कि उन्होंने बारलोगंज की पहाडियों पर एक खूबसूरत बंगला
बनवाया और उसके लाल खपरैलों से ढक़े चौडे बरामदों में बैठकर वे नीचे
दून की धाटी निहारते , दिन में बीयर या रात में व्हिस्की की चुस्की
लगाते अपनी किताबों में उलझे रहते।
दूकानदार को उनकी पारिवारिक जिन्दगी के बारे में ज्यादा कुछ नहीं
पता था । मैडम ने कभी अपनी मां के बारे में बताया भी नहीं । शुरू
शुरू में जब अपने बाप के साथ उसने जाना शुरू किया तब उनके साथ उनकी
एक कुबडी बहन और मानसिक रूप से अविकसित भाई रहते थे । बहन और भाई एक
एक करके मर गये और काफी दिनों तक मैडम अकेली एक नौकर के साथ रहतीं
रहीं।
मैडम अपने पिता से बहुत डरतीं थीं- यह तो दूकानदार ने शुरू में ही
बताया था पर मरने के बाद उनसे मुलाकात कैसे होती थी यह प्रसंग अभी तक
नहीं आया था। मैं सांस रोके उसी प्रसंग का इंतजार कर रहा था।
किस्से में वह मोड भी आया जिसमें मेरी दिलचस्पी थी। लगभग रोज रात
रिप्ले बीन के सोने के बाद उनके पिता आते । उन्हें बचपन से ही रिप्ले
बीन की इस आदत का पता था कि वे रात में अपने ऊपर से कंबल या रजाई
फेंक देती है और ठंड में सिकुडती रहती है । उनकी आदत में शुमार था कि
वे रात में दो एक चक्कर उनके बेड रूम का जरूर लगाते और जमीन पर आधा
लुढक़ा ओढना ठीक करते , उन्हें अच्छी तरह ढक कर एक बार उनका माथा
सहलाते और फिर चुपचाप कमरे से बाहर निकल जाते। अब रिप्ले बीन बूढी
ज़रूर हो चुकीं थीं पर उनकी आदत नहीं बदली थी।
बचपन में तो अक्सर उन्हें पता ही नहीं चलता था कि कब पिता आये,
कम्बल उढाया और दबे पाँव वापस चले गये। अब शायद बुढापे में गहरी नींद
न आने के कारण उन्हें पिता के आने का पता चल जाता। वे सांस रोके उनकी
बडबडाहट सुनती रहतीं । पिता की झुंझलाहट कई चीजें को लेकर थी। इस बात
पर नाराजगी तो थी ही कि इतनी उम्र दराज होने के बाद भी रिप्ले रात
में ढंग़ से ओढ क़र नहीं सोती और उन्हें अब भी उसका बिस्तर ठीक करना
पडता है, सबसे बडी नाराजगी इस बात पर थी कि उन्होंने जो आलीशान कोठी
बनवाई थी , उसे बेचकर रिप्ले बीन सर्वेन्ट्स क्वार्टर नुमा दो कमरों
के इस मकान में किरायेदार के रूप में रह रहीं थीं। रिप्ले बीन नें कई
बार दबे स्वर में पिता को समझाने की कोशिश की कि अपने नीम पागल भाई
और कुबडी बहन की देख रेख के लिये ही उन्हें उस कोठी को बेचकर इस
घटिया जगह में रहना पड रहा था। पिता कभी इस बात को समझ नहीं पाते थे।
वे उनकी सफाई को अनसुना कर बडबडाते और पैर पटकते हुये कमरे के बाहर
चले जाते ।
जाहिर था कि ये पिता नहीं उनका भूत था जो बार बार रिप्ले बीन को
संभालने चला आता था। इसी के डर से वे पुरानी किताबें बेचने से डरतीं
थीं। दूकानदार और उनके बाप को जब रिप्ले बीन मैडम ने बताया कि उनके
पिता ही रात बिरात आकर किताबों को झाड पोंछ जातें हैं और रैक में से
एक भी किताब गायब होने पर उनकी लानत मजम्मत करतें हैं तो उन्होंने
इसे बुढिया के सनक जाने के तौर पर लिया था पर मुझे इसमें कोई
अस्वाभाविक बात नजर नहीं आयी । भूत तो होतें ही भोले और सहृदय हैं।
अगर सत्तर के ऊपर पहुँची रिप्ले बीन के पिता का भूत उनकी देख भाल
करता है तो उसमें आश्चर्य क्या था?
दूकानदार के विस्तार भरे वर्णनों में मुझे सिर्फ एक दिक्कत महसूस
हो रही थी। वह उस बिन्दू पर नहीं आ रहा था जिसमें मेरी सबसे अधिक
दिलचस्पी थी। यह तो समझ में आ गया था कि रिप्ले बीन को मरे कई साल हो
चुकें हैं और उनके मरने के बाद ही उनके संग्रह की किताबें इस दूकान
पर पहुँची पर उनका कोई फोटोग्राफ कहीं मिल सकेगा क्या, इसकी भनक वह
नहीं लगने दे रहा था।
इस का हल भी निकल आया।
मैंने दूकानदार को आश्वस्त किया कि मुझे वैसी ही किताबों की दरकार
है जैसी रिप्ले बीन के पिता पढा करते थे और जो अब उसके कब्जे में है
। ये किताबें उसके पास कैसे आयीं यह समझना बहुत मुश्किल नहीं था।
रिप्ले बीन के मरने के बाद निश्चित रूप से लालची गिद्ध की तरह
मंडराने वाले दूकानदार और उसके बाप को मकान मालिक ने पहले भी देखा
होगा। रिप्ले बीन के मरने के बाद उनके सामान पर कब्जा करते समय और
उन्हें एक एक करके बेचते समय जरूर वह बडबडाता रहा होगा कि बुढिया उसे
लूट कर चली गयी। उसका इतना किराया बाकी है कि एक एक सामान बेचकर भी
वह उसकी भरपायी नहीं कर पायेगा। बुढिया छोड भी क्या गयी है - टूटा
फूटा फर्नीचर और किताबों का कबाड। यह तो उसे पता ही था कि इन किताबों
के लिये मसूरी के ये बाप बेटे किस कदर चक्कर लगातें रहते थे।
दूकानदार के बताये बिना ही मैं जान गया था कि किताबों के रूप में पडा
कबाड वह मकान मालिक को पटाकर उठा लाया था और अब एक एक कर के बेच रहा
है।
मैंने उसे समझाया कि मेरी और रिप्ले बीन के पिता की पसंद एक जैसी
ही है और मैं उन किताबों को खरीदना चाहूँगा- किसी भी कीमत पर।
किताबें कई सौ की संख्या में थीं। दूकानदार ने उन्हें एक गोदाम
में भर रखा था और रोज उनमें से कुछ अपनी जरूरत के मुताबिक निकालकर
बेचने ले आता था। । तय यह हुआ कि मैं दूसरे दिन सुबह उसके गोदाम पर
पहुँच कर अपनी पसंद की किताबें छाँट लूं।
मेरी बहुत कोशिशों के बाद भी उसने मुझे रिप्ले बीन के उस मकान का
पता नहीं बताया जहाँ अपने जीवन के आखिरी दिनों में वे रहीं थीं।
इस तरह रिप्ले बीन का कोई फोटो हासिल करने का एक ही उपाय था कि
मैं उनकी किताबों के ढेर में से कोई फोटो ग्राफ ढंढ़ निकालूं और इस
तरह उनसे दोस्ती की सूरत बने।
कुछ घंटों की मेहनत के बाद यह सूरत बन भी गयी। दूसरे दिन उसकी
बतायी जिस जगह पर मैं पहुँचा वह मसूरी की तंग गलियों में गुजरने के
बाद आने वाली एक ऐसी पुरानी इमारत थी जिसके छोटे छोटे कमरों में
दरिद्रता पसरी हुयी थी।
दर्जनों कमरों वाली इस इमारत के हर कमरे में एक परिवार बसा था ।
उस दोपहर जब मैं वहां पहुँचा तो सामने पहाडियों में एक कमजोर धुंधला
सा सूरज टँगा हुआ था और उसकी पीली धूप के चकत्ते बर्फीली हवाओं के
झोंकों से लडने की कमजोर कोशिश कर रहे थे। जहाँ जहाँ धूप के वृत्त बन
रहे थे वहाँ औरतों बच्चों के झुण्ड बैठ कर सर्दी का मुकाबला करने में
लगे थे । सुबह से गर्मी पड रही थी और ग्यारह बजते बजते पहाडियों पर
बादल भर गये और मूसलाधार बारिश के साथ ठंड झरने लगी थी ।
बेतरतीब बिखरे सामानों और अचानक सामने आ जाने वाले बच्चों से
बचाता हुआ दूकानदार मुझे एक सर्पाकार गलियारे से होता हुआ अंदर ले
गया । इमारत की हर दीवार और हर कोने में सीलन भरी हुयी थी। सीलन की
एक खास तरह की गंध होती है जो लगातार नमी और बारिशों से उपजती है और
पहाडों में आपकी नाक में देर तक बसी रहती है । यह सीलन उन किताबों
में भी रच बस गयी थी जो अँधेरों की गिरफ्त में कैद एक छोटे से कमरे
में बेतरतीबी से गजी हुयी थी।
थोडी देर लगी, आँखों को अँधेरे का अभ्यस्त होने में। हल्का हल्का
दिखने लगा तो मैंने पाया कि सीलन से नम फर्श पर अखबार बिछाकर उस पर
किताबें गजी हुयी थी । किताबों को नमी चाट रही थी । खास तौर से निचली
किताबों के पन्ने पीले पड गये थे । रिप्ले बीन के पिता का भूत अगर
भटक कर यहाँ आ पाया होता तो निश्चित रूप से इस दूकानदार की शामत आ
जाती । मुझे कमरे में छोडकर दूकानदार बाहर निकल गया । मैंने कमरे में
अखबार का एक टुकडा तलाशा, उसे कमरे के एक कोने में बिछाया और उस पर
पालथी मार कर बैठ गया । मेरे सामने एक अकूत खजाना मौजूद था। कथा,
कविता, नाटक, दर्शन, इतिहास, यात्रा वृतांत- कितना कुछ था जो मेरे
सामने बिखरा पडा था । रिप्ले बीन के पिता की रुचि और समझ की दाद देनी
होगी । जिस किताब पर हाथ रखता वही मुझे ललचा देती । पर अपने लालच पर
नियंत्रण रखना जरूरी था । मैंने तेजी के साथ किताबों को उलटना पुलटना
शुरू किया । लगभग हर किताब के शुरूआती पन्ने पर एक हस्ताक्षर था और
उसके नीचे तिथि अंकित थी । हस्ताक्षर थोडे प्रयास के बाद स्पष्ट हो
गया। शायद विलियम नाम था रिप्ले बीन के पिता का जिन्होंने पहले पृष्ठ
पर हस्ताक्षर कर उसके नीचे किताब को हासिल करने की तारीख दर्ज कर रखी
थी । कुछ किताबों पर रिप्ले बीन के हस्ताक्षर थे । शायद पिता के मरने
के बाद ये किताबें रिप्ले बीन ने खरीदीं थीं ।
काफी देर तक उलटने पुलटने के बाद भी मुझे किसी किताब पर रिप्ले
बीन के जीवन से संबंधित कोई कागज नहीं मिला । उनके फोटो की तो उम्मीद
ही निरर्थक थी । इस बीच दूकानदार कई बार आकर ताक झाँक कर गया था ।
मैंने उसे भरमाने के लिये कुछ किताबें एक किनारे एक के ऊपर एक रख दीं
थीं। वह उस ढेर को देखकर संतुष्ट हो रहा था पर समय शायद उसके पास भी
अधिक नहीं था । उसने कहा भी कि फिर कभी और आ जाएेंगे लेकिन मैं हर
बार थोडी और मुहलत का आग्रह करता और वह मान जाता । मैं निराश होकर
अपनी तलाश मुल्तवी करने ही वाला था कि मेरे हाथ गत्ते का एक टुकडा
लगा । लगता था किसी ने रिप्ले बीन को कोई सामान पार्सल बना कर भेजा
था और उसी पार्सल का एक हिस्सा यह गत्ते का टुकडा था । बिना किसी
विशेष प्रयास के मुझे गत्ते पर लिखी वह इबारत दिख गयी जिसने मुझे
झकझोर कर रख दिया । थोडी सी मेहनत के बाद कोई भी गत्ते पर लिखे उन
दोनो पतों को पढ सकता था जो किसी सुघड हाथ नें निब को काली स्याही
में डुबोकर लिखे थे और न जाने कितने वक्तों की धूल और पानी के थपेडों
को झेलने के बावजूद जिन्हें अभी पढा जा सकता था । पाने वाले के रूप
में रिप्ले बीन का पता था इसका मतलब था कि जब यह पार्सल उन्हें मिला
था तब वे किराये के मकान में आ गयीं थीं । डाकखाने की मोहर धुंधला
गयी थी और पूरी कोशिश के बावजूद मैं उस पर छपी तारीख नहीं पढ पाया ।
भेजने वाला न्यूजीलैण्ड में रहता था । उसका नाम भी बहुत साफ नहीं था
पर मुझे लगा कि थोडे प्रयास से उसे भी पढा जा सकता था । सबसे जरूरी
था कि गत्ते को लेकर वहाँ से खिसक लिया जाए । मैने सावधानी से गत्ते
के पते वाले हिस्सों को फाडा और अपनी जेब में ठूँस लिया। इसके बाद
छाँट कर रखी गयी किताबों में से एक किताब उठायी और बाहर निकल आया ।
घर के बाहर निकलते निकलते दूकानदार मुझसे टकरा गया । शायद उसका
धैर्य चुक गया था और इस बार वह मुझे निकाल देने के इरादे से ही आ रहा
था । मुझे निकलते देखकर वह ठिठका और मेरे हाथ में सिर्फ एक किताब
देखकर उसका चेहरा लटक गया ।
'आपके पास तो पूरा खजाना है । मैं फिर आऊँगा। आज तो बस यही
एक------- । '
उसने मुझे जो कीमत बतायी उसे चुकाकर मैं सीधे अपने होटल की तरफ
लपका । सूरज बादलों के पीछे छुप गया । कभी भी बारिश हो सकती थी ।
वैसे भी ठण्ड और चेहरे से टकराते हुये बादलों की वजह से मैं तेज
कदमों से चल रहा था, रिप्ले बीन से मुलाकात की संभावना से मैं इस कदर
उत्तेजित था कि लगभग दौडते हुये मैंने होटल का रास्ता तय किया ।
होटल मैं लगभग भीगते हुये पहुँचा था । रास्ते में बारिश कई जगह
थमी और शुरू हुयी । मुझे खुद के भीगने से ज्यादा उस गत्ते के टुकडे
की चिंता थी जो मेरे पैंट की जेब में था और मैं लगातार अपने हाथ की
मोटी किताब जेब पर रखकर उसे भीगने से बचाने की कोशिश कर रहा था ।
होटल पहुँचकर भी मैंने पहला काम गत्ते के टुकडे को निकालकर एक सूखी
जगह पर रखने का किया । अपना बदन सूखे तौलिये से रगडकर मैंने उसका
निरीक्षण करना आरम्भ किया । बारिश से तो गत्ते का यह टुकडा अछूता था
पर उस पर लिखा पता समय की मार से इतना धुंधला हो गया था कि लिखावट को
पढना बहुत आसान नहीं था ।
मैंने बडी सावधानी से धुँधली पडी लिखायी पर एक पेंसिल हल्के हल्के
फेरी । थोडी देर में अक्षर आकृतियों की शक्ल में उभरे । मसूरी के
मोहल्लों से अपरिचित होने के कारण मुझे उन्हें पढने में दिक्कत हुयी
पर मैं जानता था कि नीचे काउण्टर पर बैठे रिसेप्शनिस्ट को दिखाने से
पते का अन्दाज लगाया जा सकेगा । मेरा सोचना सही निकला । दूसरे दिन
सुबह जब दिन भर भूख न लगे इतना नाश्ता कर मैं अपने कमरे से निकला और
पता लिखा गत्ता रिसेप्शनिस्ट के हाथ में थमाया तो थोडी देर में ही
मुझे काम चलाऊ जानकारी मिल गयी । पता पढ पाना अकेले रिसेप्शनिस्ट के
बस का नहीं था , उसकी मदद के लिये दो तीन बेयरे वहाँ इकट्ठे हो गये ,
एक स्थानीय व्यक्ति भी , जो होटल में किसी से मिलने आया था, इस काम
में लगा और अलग अलग उच्चारणों के बारे में एक नाम पर सहमत हो गये ।
फिर रिसेप्शनिस्ट ने एक अलग कागज पर वहाँ पहुँचने का नक्शा सा बनाया
और उसे लेकर मैं बाहर आया । उस पते को ढूँढने में थोडा वक्त जरूर लग
गया लेकिन मैं उस खस्ता हाल दो मंजिला इमारत तक पहुँचने में कामयाब
हो ही गया जो मसूरी के बाहरी हिस्से में स्थित थी और जिसमें रिप्ले
बीन ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष एक किरायेदार की हैसियत से बिताये
थे। लगभग सौ वर्ष पुरानी इस इमारत का पलस्तर लगभग पूरा झड चुका था,
रंग रोगन वर्षों से नहीं हुआ लगता था, नतीजतन दीवारों पर लगातार नमी
की वजह से जमी काई के बीच छोटे बडे रंगीन चकत्ते मौजूद थे जिन्हें
गौर से देखने पर भी यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वे मूलत: किस रंग
के रहें होंगे । इमारत जब बनी होगी तब भले ही यह क्षेत्र हरीतिमा से
भरा, कोलाहल से दूर, मसूरी में शुरूआती दौर में बसने वाले एंग्लो
इंडियन बाशिन्दों का प्रिय रिहायशी इलाका रहा हो पर अब तो अगल बगल के
सारे खुले हिस्से कांक्रीट की दूकानों और मकानों से इस कदर पट गये थे
कि इस दुमंजिला इमारत को बिल्कुल करीब पहुँचकर ही पहचाना जा सकता था
। काफी दूर से ही लोगों ने मेरे हाथ के कागज पर लिखे पते को पढकर
इमारत की दिशा की तरफ इशारा करना शुरू कर दिया था पर मैं जब तक एकदम
बगल में जाकर खडा नहीं हो गया मुझे उसका आभास नहीं हुआ । करीब
पहुँचने पर ही पता चला कि उस इमारत में तो कई किरायेदार रहतें हैं
रिप्ले बीन आस पास के दूकानदारों के लिये कोई अपरिचित नाम नहीं थी ।
कुछ वर्षों पूर्व ही उनका निधन हुआ था और नजदीकी दूकानदारों के पास
उनके और उनसे उम्र में थोडे ही छोटे नौकर को लेकर तमाम किस्से थे ।
जो कुछ मुझे सुनने को मिला उसके अनुसार मैडम - रिप्ले बीन को वे इसी
नाम से पुकारते थे - मरने के लगभग पन्द्रह वर्ष पहले इस इमारत की
ऊपरी मंजिल के एक छोटे से हिस्से में रहने आयी थी । उन्होंने सुना था
कि वे पहले लैण्डोर के पास किसी बडी आलीशान कोठी में रहती थी । जाने
क्यों सब बेच बाच कर यहाँ चली आयी । साथ में मानसिक रूप से अविकसित
एक भाई और एक कुबडी बहन थी । एक बूढा नौकर था जिसके खुद के अनुसार वह
मैडम के पिता के जमाने से था और अब इनके पास से सीधे कब्रिस्तान ही
जाएेगा । भाई, बहन जो बुढिया से छोटे थे इस मकान में आने के कुछ
दिनों में गुजर गये। यहाँ इस मकान में ज्यादा समय मैडम और नौकर ही
रहे । उनके पास एक कुत्ता भी था जो उनके मरने के कुछ पहले गुजर गया ।
वे ज्यादातर घर में ही रहती थी और शायद ही कभी भूले भटके उससे
मिलने कोई आता हो । नौकर भी जरूरी सौदा सुलुफ के लिये ही निकलता था
और अगर कभी किसी दूकान पर देर तक गप्प लडाने लगता तब ऊपरी मंजिल की
खिडकी से बाहर झाँकता मैडम का चेहरा दिखायी देता जो अजीब कर्कश आवाज
में नौकर को तब तक बुलाता रहता जब तक सकपकाया हुआ वह अन्दर न भाग आता
।
दूकानदार ने मुझे किराये पर रहने का ठिकाना तलाशने वाला समझा था
--यह मुझे थोडी ही देर में पता चल गया । दरअसल रिप्ले बीन वाला
हिस्सा अभी तक खाली था । उनके मरने के बाद से ही खाली पडा था । ऐसा
नहीं था कि किरायेदार आये नहीं पर कुछ बात थी कि किरायेदार आते और आस
पास की दूकानों पर दरयाफ्त करके ही लौट जाते । मकान मालिक तक जाने की
नौबत ही नहीं आ पायी । सिर्फ एक किरायेदार सीधे मकान मालिक तक पहुँच
पाया था और मकान मालिक ने पहले उससे पेशगी किराया वसूला फिर अपने
नौकर को चाभी लेकर उसे कब्जा लेने के लिये भेजा । नौकर ने उसे ताला
खोलकर पूरा हिस्सा दिखाया और चाभी सौंपकर चला गया । इतने कम किराये
में अपनी जरूरत से बडी जगह पाकर खुश किरायेदार वापस ताला लगाकर नीचे
उतरा । उसे थोडी दूर से अपना सामान लेकर लौटना था। बाहर निकलकर पहली
ही दूकान पर वह सिगरेट सुलगाने के लिये रूका । दूकानदार से जो थोडी
बहुत बातें हुयीं उनसे एक तो उसकी सिगरेट उसकी उँगलियों में सुलगती
हुयी राख हो गयी और दूसरे वह वहाँ से जो गया तो फिर सामान लेकर वापस
नहीं लौटा । उस किरायेदार के भाग जाने का जो कारण था वह अगर बाहर
नौकरी न कर रहा होता तो मेरे मसूरी में बस जाने का सबसे बडा सबब बन
जाता । किरायेदार इसलिये भाग गया कि उसे दूकानदार ने बता दिया था कि
ऊपर वाले हिस्से में रिप्ले बीन मैडम का भूत रहता है । |